Tuesday, 27 December 2016

ठहर जाओ


मैं खुद को लेखक नहीं मानता, फेसबुक पर लिखने वाला अगर लेखक है तो मुझ जैसे सैकड़ों हैं यहां। एकांतप्रिय और शायद अंतर्मुखी स्वभाव की वजह से मुझे बोलना नहीं पसंद, इसलिए जो भी अगड़म बगड़म दिमाग में आता है, लिख जाता हूँ।

जब फेसबुक पर लिखना शुरू किया था तो ये निश्चित किया था कि कभी भी धर्म और राजनीति पर नहीं लिखुंगा। पर अपने इस निश्चय में असफल पाता हूं खुद को। अब कोई निष्प्राण पत्थर तो हूँ नहीं कि जहां पड़ गया, बस पड़ गया।

मैं कभी नास्तिक हुआ करता था, आज खुद को धार्मिक पाता हूँ। मुझमें ये बदलाव कैसे आया ये फिर कभी। मैं इसलिए हिन्दू नहीं हूँ कि घर में सभी हिन्दू मतावलम्बी थे, हिन्दू होना मेरी चॉइस है, मैंने अपने अंदर हिंदुत्व महसूस किया है।

मैं भारत के और भारत मेरे अंदर बसता है, मुझे गौ और गंगा में अपनी माता दिखती हैं, देव मूर्तियां मेरे लिए सिर्फ बुत नहीं सशरीर भगवान हैं। तुलसी, पीपल सिर्फ पेड़ नहीं, गौमूत्र-गोबर किसी जानवर का मल-मूत्र नहीं। आज भी याद है अपना गांव, जहाँ गोबर से लिपाई होती थी घरों के फर्श और दरवाजों पर। किसी फिनायल, हिट, लक्ष्मण रेखा, पेस्ट कंट्रोल की जरूरत नहीं होती थी वहां।

बुराइयां किसमें नहीं होती, हममें भी थी/हैं, पर हम जड़ नहीं, सतत सुधार करना हमारी प्रकृति है। हम अपने तौरतरीकों में, अपनी परम्पराओं में समयानुकूल परिवर्तन करने में सक्षम हैं, और यही हमारी आत्मा है।

हमारे यहां हजारों मत और मतावलंबी हैं, एक ही घर में आपको कई मत मानने वाले मिल जाएंगे, मैं शैव हूँ, मेरे पिता निर्गुण उपासक थे, बाबा सूर्यपूजक। सहअस्तित्व बनाये रखना हमारी कमजोरी नहीं, हमारी ताकत है।

पर दिक्कत यही है कि आप इसे हमारी कमजोरी मान लेते हैं। आप लेखक लोग ना जाने वही क्यों लिखते हैं जिससे हमारी श्रद्धा को चोट लगे। इतना कुछ है लिखने को पर आपका विषय ब्रह्मा-सरस्वती, यम-यमी, राम-शम्बूक ही क्यों होता है। आप महान चित्रकार हो सकते हैं, लाखों दृश्य और अरबों मनुष्य हैं इस धरा पर, लेकिन आप पेंटिंग बनाएंगे तो उन्हीं की बनाएंगे जिन्हें हिन्दू पूजता है। आप छद्म सेकुलर, महिलाओं के सम्मान की बात करते हैं, पर लाखों करोड़ों के आराध्य काली, सरस्वती को एक महिला जितना भी सम्मान नहीं देते।

बकरा भेड़ गधा खच्चर ऊंट सूवर, कितने तो जानवर हैं पर सस्ता प्रोटीन और स्वाद आपको गाय में ही मिलता है। कुतर्क करने वाले कहते हैं कि गाय माता है तो सड़क पर क्यों छोड़ते हो, हम तो स्वाद के शौक़ीन है, हम तो खाएंगे। मेरे शब्दों के लिए मुझे क्षमा कीजियेगा, कोई फिर आपसे कहे कि घर की औरतों को बाहर मत जाने दीजिए क्योंकि हमें तो यौनसुख बहुत पसंद है।

आप लगातार अकारण ही चोट किये जा रहे हैं। आप मान कर बैठे हैं कि ये हिन्दू कमजोर है, रीढ़विहीन। जरा सा प्रतिकार कर देता है तो आप झुण्ड बना कर आ जाते हैं असहिष्णु इंटोलरेन्ट चिल्लाते हुए। और हिन्दू अपनी वैदिक विरासत, सहनशीलता, सहअस्तित्व, सहिष्णुता को ध्यान कर चुप हो जाता है। हिन्दू अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाता आया है, निभा रहा है, पर कब तक?

हे लेखकों, इतिहासकारों, चित्रकारों, अन्वेषण करो, सृजन करो, पर तुम इसकी ओट में विध्वंस लिख रहे हो। मान जाओ, नहीं तो इतिहास तुम्हें माफ़ नहीं करेगा।

-------------------------------------------------------------------


अजीत

27 दिसम्बर 16

Saturday, 24 December 2016

नया दौर...


आज सुपवा बड़ा खुश दिख रहा है। नाम छोड़िये, दोस्तन में ऐसे ही नाम चलते हैं, कान बड़े तो सुपवा, आँखें भूरी तो भुरिया, रंग गोरा तो दहीबड़ा। हाँ तो सुपवा बड़ा खुश, मने शाम को पार्टी पक्की। दोस्ती का कायदा, कोई भी ख़ुशी, सेलिब्रेट विथ दारू, कोई भी दुःख, गमगलत वाया दारू।


शर्मा - सुपवा संवाद:
―――――――――
"सुपवा, बड़ा खुश दिख रहे हो बे, का भवा, कउनो गुड न्यूज़?"
"नाही बे, ऐसी कोई बात नहीं"।
"बा बेटा, कउनो बात नहीं तो ई चेहरा कैसे जगमग कर रहा है, बताओ ना बे, काहे भाव खा रहे हो"।
"बोले ना बे तुमसे, कोई बात नहीं है। मगज ना चाटो, जाओ अपनी टेबल पर, काम कर लो थोड़ा"।

शर्मा- भुरिया संवाद:
―――――――――
"का भुरिया, तुमको का भवा, काहे मुँह लटकाये हो भाई, भउजी ने हाथ सेक दिया का आज तुमपर"।
"देख बे बभना, ढेर होशियार ना बना करो, एक तो वैेसही दिमाग गरम है, और मत तपाओ हमे।"

शर्मा-ठाकुर संवाद:
―――――――――
"और मिस्टर बद्तमीज, का हाल चाल"।
"बढ़िया, अपनी सुनाओ"।
"अबे ठाकुर, ये बताओ कि कोई स्पेशल बात हुई है का, ई सुपवा बड़ा खुश दिख रहा है, और उ भुरिया इतना उदास काहे बैठा है"।
"तुझे बड़ी रहती है यार, कौन उदास कौन खुश। अच्छा एक बात का सोच के जवाब दे, किसी दोस्त की तरक्की पर दोस्त खुश होता है कि उदास। हैं, उदास ना, तो भुरिया इसीलिए उदास है, और सुपवा तरक्की पाकर खुश"।
"कैसी तरक्की भाई, बुझौनी मत बुझाओ, साफ़ साफ़ फूटो अपनी बात का मतबल"।
"कुछ नहीं बे, सरकार ने सुपवा की बिरादरी को "मण्डल" बिरादरी से प्रमोट कर "भीम" बिरादरी में कर दिया है। अब बुझे, इतने साल के विकास के बाद अगला पिछड़ा से दलित बन गया तो का खुश भी ना हो। रही भुरिया की बात, तो वो ये सोच के परेशान कि यहां तो पहिले से इतने भरे पड़े हैं, सुपवा जैसे कुल 17 और आ गए। साथ में ये भी कि ये तो प्रमोट होकर दलित बन गए, हम तो आज भी वहीं के वहीं।"
"--- --- ---"
"का हुआ, चुपा काहे गये, अबे तुम्हें का फर्क पड़ा, तुम तो कल भी जो थे, आज भी वही हो, कल भी वही रहोगे, का लेकर आये थे बाकि का लेकर जाओगे। अच्छा जाओ, फिर से पूछ के आओ सुपवा से, पार्टी देगा कि नहीं, नहीं तो तुम्हारा गमगलत हम करवाते हैं आज"।


प्रेम से बोलो जय समाजवाद

==================================


अजीत
24 दिसम्बर 16

Sunday, 18 December 2016

कुछ देकर पाना है....


हर साल NSS के बच्चे आ जाते थे पुराने कपड़े लेने, इस बार पता नहीं क्या हुआ। पुराने कपड़ों का ढेर जमा हो गया है। एक बारगी तो मन हुआ कि रुद्रपुर-बाजार में दे आएं, कुछ छूट मिल जाती है नये कपड़ों पर, लेकिन दिल नहीं माना। कुछ रूपये पाने से अच्छा है कि किसी गरीब को देकर पुण्य कमाए। वैसे सुनते हैं कि पुण्य निःस्वार्थ कर्म पर प्राप्त होता है, तो पुण्य पाने की इच्छा भी तो स्वार्थ ही हुई ना? खैर, जो हो, पुण्य मिले ना मिले, इस भयंकर जाड़े में किसी गरीब को कपड़े तो मिलेंगे।

आज के जमाने में गरीब मिलना भी मुश्किल है। आपके यहां शायद हो, पर यहां कहाँ रखे हैं गरीब? ऊपर से ये डर भी कि अगला पलट कर ये ना कह दे कि भिखारी समझा हैं क्या? गरीबी का कोई पैमाना तो होता नहीं, सापेक्ष होती है। कई लोगों से कह दिया था कि कोई जरूरतमंद मिले तो बताना। पर आप मरे स्वर्ग कहाँ मिलता है?

किस्मत से घर के सामने ही स्कूल में काम लगा हुआ है। ठेकेदार के स्थाई मजदूरों की अस्थाई ईंट सीमेंट वाली झोपड़ी बनी है। शायद दो परिवार हैं, दो मर्द, तीन औरतें और छह कि सात तो बच्चे।

कल धूप खिली थी, काम ना जाने क्यों रुका हुआ था। मेरा मन छत पर कुर्सी डाल 'महासमर' पढ़ने का था पर पत्नी जी की हिदायत कि ये पुराने कपड़े उनमें से किसी को दे ही आऊं। कहीं फटकार ना दिया जाऊं, ये डर लिए कपड़ों की पोटली बांधे उस चौकोर ढांचे के सामने चला गया। एक 10-12 साल की बच्ची अस्थाई हैंडपंप पर कपड़े धोती दिखी, उससे कहा कि किसी बड़े को बुला कर ले आये। थोड़ी देर में पर्दे का दरवाजा हटा कर एक महिला सामने आती है, उससे पूछता हूँ कि बहन आप ये कपड़े लेना चाहेंगी क्या? थोड़े आश्चर्य, थोड़ी ख़ुशी, थोड़ी झिझक सी महसूस हुई उसके चेहरे पर, ले लिया उसने और ना जाने किस भाषा में कुछ कुछ बोले जा रही थी। शायद थैंक्यू या आशीष दे रही हो। अपने मन में दानदाता का भाव लिए वापस आ गया।

सुबह टहलने की आदत है। वो परिवार रोज ही दिखता था, पर आज घर के हर फर्द ने नमस्ते की। लुंगी पहना एक शख्स मुझे चाय पीकर जाने की गुजारिश करता है, पर मैं आगे बढ़ जाता हूँ। पता नहीं, उन्हें तकल्लुफ में नहीं डालना चाहता या मेरा अभिजात्य मन इसमें अपनी हेठी समझता है?

सवितानारायण अपने घर जाने की तैयारी में हैं, मैं भी। घर के बाहर इन मजदूरों का पूरा परिवार कुछ न कुछ कर रहा है। फिर से सब नमस्ते करने लगे। शायद मेरा अहम सन्तुष्ट हो रहा है, थोड़ा और होना चाहता है, बाइक खड़ी कर दी।
"आइये आइये साहब, गरीब की चाय पी कर जाइये।"
सोचता हूँ कि एक कप चाय तो पी ही लूँ, घर के अंदर जाने में मेरी हिचक दिख जाती है उन्हें, अंदर से फोल्डिंग चेयर आ जाती है। मुझे बैठा कर खुद चार ईंटें जोड़ वो भी सामने बैठ जाता है।

इतने नजदीक से किसी टाई बांधे इंसान को शायद नहीं देखा इन्होंने, टकटकी लगाए देखे जा रही हैं तीनों। नाम सीमा रीना रबीना, दिमाग इन नामों में धर्म खोजता है पर असफल। कोई बेटा नहीं हुआ पूछता हूँ, पूछते ही खुद से ही प्रश्न करता हूँ कि इस प्रश्न की क्या आवश्यकता थी, कहीं मैं भी पुरुषवादी तो नहीं, और अगर मन में आने के बाद भी नहीं पूछता तो क्या ये जबरदस्ती का महिलावाद नहीं हो जाएगा। 

"1.5 साल का बेटा था पर पिछले जाड़ों की भेंट चढ़ गया, उसने दिया था, उसी ने वापस ले लिया।"
साला अनपढ़ जाहिल, बेटा ठंड से मर गया और ये ऊपर वाले की महिमा गा रहा है। क्या इसे नहीं पता कि धर्म अफीम होता है। मुझे तो ये भी नहीं पता कि किस अफीम का शौक़ीन है ये। हम दोनों की अफीम एक जैसी हुई तो ठीक, नहीं तो...
सोचता हूँ कि अगर ये अफीम ना होती तो अपनी संतान को यूँही, बेमतलब, बेमकसद मर जाने का गम कैसे सहता ये जाहिल।

उसकी पत्नी चाय ला रही है, अपने लिए स्टील गिलासों में और मेरे लिए एक बदरंग कप में जिसके टॉप और बॉटम दोनों हल्के-हल्के कहीं-कहीं टूटे हुए हैं। 20-22 साल पहले का अपना गांव याद आता है जब काकी घर के 'कमकर' के लिए ऐसी ही कप में चाय लाती हैं, बाकियों के लिए दूसरे कपों में। याद आता है पापा का गुस्सा, उसी समय कपों का नया सेट लाना और ये कहना कि मेरे और घर आने वाले हर आदमी को आज से इन्हीं कपों में चाय दी जायेगी।
यहाँ ये औरत हालांकि मेरी इज्जतअफजाई या खुद की अहसासेकमतरी की वजह से ये भेद बरत रही हो, कहना चाहता हूं कि जाओ और मेरे लिए भी गिलास में ही चाय ले आओ, पर...

वाह, ये तो वही बिना दूध की, हम स्टैंडर्ड लोगों वाली, ब्लैक-टी है। औरत भी अब सामने बैठी है, उसी से पूछता हूँ कि गांव कहा है तुम लोगों का।
"बंगाल"
"बंगाल में कहाँ?"
......
चुप, ख़ामोशी
ओह, तो ये बांग्लादेशी हैं क्या? साले, आ जाते हैं मुँह उठाये मेरे देश में। फिर वोटबैंक के चक्कर में इनके राशन से लेकर मतदाता तक सारे कार्ड बन जाते हैं। इतना बड़ा मुल्क है इनका, उसी में क्यों नहीं घूमते?

आर्य-द्रविड के झगड़े में नहीं पड़ता, पर सुना था कि मेरे पुरखे राजस्थान से आये थे यूपी के गाजीपुर में। पापा वहां से चले तो बनारस, मैं बनारस से यहां, पन्तनगर, उत्तराखंड। जहां खाने पीने रहने का जुगाड़ बैठा, वहीं बस गए। पुणे में देखा था मराठियों का बिहारियों के प्रति आक्रोश, बुरा लगता था। हजारों भारतीय भी निकल जाते हैं हर साल अमेरिका यूरोप। पैसा है जाने वालों के पास, अपनी काबिलियत से अपना मुकाम बना लेते हैं वहां। इन बेचारों के पास पैसा नहीं, पर काबिलियत है, भले ही मजदूरी की, और इन्हें तो पता भी नहीं होगा राष्ट्र 'The State', का मतलब।

चाय खत्म होने से पहले ही औरत झिझकते हुए बोल पड़ती है, "साहब, शाम का खाना हमारे यहां खाएंगे क्या?"
मेरे दिए खुद के लिए बेकार कपड़ों के बदले उसका शुक्रिया अदा करने का ये तरीका दिल छू गया। मुस्कुराते हुए पूछा कि क्या खिलाओगी, उसके बोलने से पहले ही सबसे छोटी रबीना बोल पड़ती है, "अम्मा गोश्त"।

बचपन में हमारे घर भी जब कोई मेहमान आता था तो हम ऐसे ही ललक पड़ते थे, कुछ मजेदार खाने को मिलेगा।

जानता था कि मेरे लिए गोश्त पकाने में उनका बजट गड़बड़ हो जाएगा। फिर भी बच्ची का दिल रखने के लिए हाँ कर दिया, शर्त ये कि मसाले तुम्हारे, गोश्त मैं लाऊंगा।

एक पन्नी में गोश्त पहुंचा दिया है, बहाना भी बना दिया कि यार कहीं शादी में जाना है, आ नहीं पाऊंगा।
दरअसल दिक्कत साथ खाने में नहीं है, मांसाहार में है, सालों पहले छोड़ चुका हूँ।
--------------------------

कुछ देने गया था, पर ना जाने क्या तो अपने साथ वापस ले आया हूँ। जो मिला है उसे बयां करना संभव नहीं। बड़ा हल्का हल्का सा महसूस हो रहा है।

******************************************
**तीन साल पहले लिखी डायरी का एक पन्ना**


अजीत
18 दिसम्बर 16

Friday, 16 December 2016

तरक्की



महान योद्धा के नाम पर पड़े हमारे गाँव में भी अनेकानेक महान लोग पैदा हुए। महान लोग ही अपने गांव घर परिवार का नाम रौशन करते हैं। उन्हीं में से एक मंगलप्रसाद वल्द दुक्खी सिंह। दुक्खी सिंह अभी शायद अपनी पीढ़ी के अंतिम नामलेवा बचे हैं, अपनी बिरादरी के तो यकीनन। इनका वर्तमान गुण तो इनकी आयु ही है, पर शाश्वत गुण है इनकी चमड़ी का रंग। ये इतने ज्यादा गहरे रंग मने काले रंग के हैं कि एक बार इन्हें स्टेशन से रिसीव करना था तो हमें बताया गया कि जो दूर से ही चमके वही तुम्हारे काका।

इनका रंग हमेशा ही मेरी बिरादरी के लोगों के लिए अजूबा रहा। देखिये कि ये ऐसे समाज में है जहां हमारे सारे ही आराध्य काले रंग के हैं, राम कृष्ण शिव शनि यम, फिर भी। हमारे यहां चमड़ी के रंग को जाति विशेष से जोड़ दिया जाता है, और जाति ये निर्धारित करती है कि आप चारपाई के सिरहाने बैठेंगे या पैताने या जमीन पर चिड़िया उड़ाने वाली मुद्रा में। कभी किसी के यहाँ शादी, मरण, कार्य प्रयोजन में जाते थे तो झट से सिरहाने बैठ जाते, एक तरह का इंडिकेशन दे देते कि भई हम भी तुममें से ही हैं, कुछ और ना समझ लेना। सुना कि खपरैल की पट्टियों से इतना घिस घिस कर नहाते थे कि पट्टियां काली से सफेद हो गई पर इन पर रत्ती फर्क ना पड़ा।

मंगलप्रसाद गांव के सबसे लखैरे टाइप बालक, हिन्दूपट्टी से कटहल चुरा कर मियापट्टी में कोए की मौज हो या मियापट्टी से मुर्गी चुरा कर हिन्दूपट्टी में दावत, मंगलू सबसे आगे। चोरी करना हमारे महापुरुषों के बाल-जीवन का अभिन्न अंग जो ठहरा। ये अलग बात कि किशन कन्हैया की मैय्या ने हल्का दण्ड दिया, और गांधी बाबा के बापू ने कुछ नहीं कहा, पर यहां तो जो सुताई होती थी कि अगल बगल के कितने ही बालक सुधर गये, पर ये तो फिर ये ही थे।

इधर की तरफ कोई मर जाए तो उसकी तेहरी के दिन उस गांव, कभी कभी तो 8-10 गांव के घरों में मर्दों का भोजन नहीं बनता। दोपहर बाद से ही लोग दल बाँध कर पूड़ी खाने चल देते हैं। ऐसे ही किसी अवसर पर दोनों बाप बेटा दिवंगत के घर तेरही में शामिल होने पहुंचे थे, पांत उठने में समय था तो अपनी पुरानी आदत अनुसार बाबू दुक्खी सिंह एक चारपाई के सिरहाने बैठ गए। कुछ बातें अनुभव से आती हैं, और नवजवानों में वो अनुभव कहाँ, कुछ शिक्षा संस्कार का दोष, तो एक नौजवान को एक काले आदमी का यूँ चारपाई के सिरहाने बैठना खल गया। रंग की गलफत में गालियों और जातिसूचक शब्दों का जो धाराप्रवाह प्रयोग किया उसने कि क्या बताएं।

मंगल को ये बात चुभ गई, उसने पहली बार अपने पिता की आँखों में जो शर्म झिझक देखी कि उसका रोयां रोयां उबल पड़ा, वही कसम खाई कि इस परगने का सबसे बड़ा आदमी बन के दिखायेगा।

बाकी तो इतिहास में दर्ज होने वाली कथा है। मेहनत रंग लाती है, मंगलप्रसाद जमीन जायदाद लिखा पढ़ी रजिस्ट्रार लग गए। इतना पैसा बनाया कि क्या कोई कभी देखा होगा। घर इतना भेजते कि खर्च करने के लिए हाथ कम पड़ जाते। दुक्खी को अब कोई दुख नहीं था। दूर होने की वजह से साल दो साल में एक बार अपने बेटेे और उसके परिवार से मिलने शहर चले जाते।
-----------------------------

पिछली बार जब शहर से वापस आये तो बड़े खुश खुश लग रहे थे। लोगों ने पूछा तो बताया कि "बचवा हमे बड़ा इज्जत बख्सलन भाई, इनकर दोस्त लोग आये रहे त हमहुँ ओइजे जा के बैठ गइनी, ओम्मा से एक जनी पुछलन कि भाई ये कौन साहब है, बचवा बोललन कि ये मेरे सरभेन्ट हैं।....

                                                                                                                  

                                                                              (कानों सुनी सत्य घटना)
********************************************


अजीत
17 दिसम्बर 16

Monday, 12 December 2016

दोहरे मापदंड


दुनिया में भांति भांति के प्राणी, उन्हीं में से एक बिरादरी मुँहफट बद्तमीजों की। इसी बिरादरी से ठाकुर नाम का एक मित्र है, अब लोग तो ऐसा ही कहते हैं, हालाँकि मुझे कभी नहीं लगा, पर लोग अक्सर उसे बद्तमीज कह कर निकल जाते।

पिछली सर्दियों में एक बुजुर्ग सहकर्मी के देहांत पर घाट जाना हुआ। पुरानी रीत के अनुसार हम सब अपने कपड़े साथ ले गए थे, पर ये बन्दा यूँ ही, खाली हाथ। अंतिम क्रिया सम्पन्न होने के बाद सबने डुबकी लगाई, पर ये महाशय नहीं उतरे। सबने सोचा कि कपड़े नहीं लाया, या शायद ठण्ड है, इसलिए नहा नहीं रहा।
वापसी में उसके कमरे से होते हुए आना था, साथ में एक और सहकर्मी थे। घर पहुंच कर भी बन्दा नहाने नहीं गया तो सहकर्मी से रहा नहीं गया, बोल पड़े कि नहा ले भाई। इसने पूरी ढिठाई से कहा कि मैं तो नहीं नहाता, या बताओ कि क्यों नहाऊं। सहकर्मी बोले, भाई रीत है, मुर्दा जला के आओ तो नहाना होता है। अब इसका जवाब हालांकि मुझे उस समय थोड़ा अजीब सा लगा पर...। बोला, अच्छा, और जो तुम कल मुर्गे की टँगड़ी नोच रहे थे, हड्डियां तक चूस गये उसकी, फिर नहाया था क्या? था तो वो भी मुर्दा ही, जलाया तो उसको भी था खाने से पहले, या उसे जीव नहीं मानते, या मुर्दा खाना ना हो तो नहाओ, और खाना हो तो ना नहाओ, बा भई।
थोड़ी देर पहले ही गमी से वापस आया था, धार्मिक विश्वास भी हैं, अपना ही एक साथी मरा था, इसलिए हँस तो नहीं पाया पर बात तो पते की थी उसकी।
------------------

पर कल तो उसे मैंने भी बद्तमीज कह ही दिया। हमारे साथ रिटायरमेंट की उम्र के नजदीक पहुंचे एक साहब काम करते थे। अक्सर आदमी येन केन अहंकार पाल ही लेता है, इन्हें भी था/है। इन्हें अपनी उम्र का अहंकार। इनके फैसले सामान्य रूप से कभी सही कभी गलत होते रहते, पर साहब कभी भी नई उम्र के सहयोगियों की सलाह नहीं मानते। अक्सर ही कह जाते, अब तुम मुझे सिखाओगे, बच्चे, ये बाल सफेद हो गए यही काम करते करते, 24 साल की बेटी है मेरी, मुझे मत बताओ कि क्या करना है, कैसे करना है।

हुआ यूं कि रोज की तरह कल भी शाम को टहलने के बाद हम लल्ला की दुकान पर चाय लड़ा रहे थे (हम बनारसी लोग चाय पीते नहीं, लड़ाते हैं)। टहलते हुए ये साहब भी आ गए। कर्टसी, चाय के लिए पूछा तो पसर गए। बगल में चाट गोलगप्पे की दुकान, हमेशा ही लड़के लड़कियों की भीड़ लगी रहती है यहां। बैठते समय इन्होंने अपनी आँखों का फोकस चाट की दुकान पर लगा रहे, इसका विशेष ध्यान दिया था।
* आगे आने वाले कुछ 'शब्द' शालीन नहीं हैं, पर मजबूरी है, अग्रिम क्षमा।
थोड़ी देर बाद मुझसे बोले, डाक साब, उसे देखिये, क्या माल है। पहली बार ही उनके मुंह से ऐसा कुछ सुना, रिटायर आदमी, अचंभित रह गया। मेरे कुछ बोलने से पहले ही मित्र को संबोधित कर बोल पड़े, ठाकुर, देखो तो क्या बनी हुई है, भई चीज हो तो ऐसी। देखो देखो, अबे हम पारखी नजर रखते हैं, तुम लोग तो अभी बच्चे हो बच्चे, क्यों, क्या कहते हो। ठाकुर ने बड़ी शांति से जवाब दिया, हां साहब, सही कह रहे हो, इतना अनुभव है आपको, आप नहीं जानोगे तो कौन जानेगा, आखिर 26 साल की लड़की है आपकी।

उन्होंने जैसे तैसे चाय में अपना सर घुसाया और मैं जोर से हँसते हुए बोल पड़ा, "बड़े बद्तमीज हो बे तुम"।
*******************************************


अजीत
13 दिसम्बर 16

Thursday, 8 December 2016

यौतक



उनका यूँ हाथ जोड़ना मुझे अच्छा नहीं लग रहा। कंधे कितने झुके से लग रहे हैं। धँसी हुई आँखें, और उसमें घर बना कर बैठी उदासी, मुझे विचलित कर रहीं है। गलती भी तो उन्हीं की है ना, पूरी तैयारी क्यों नहीं की थी उन्होंने? उन्हें तो सब कुछ साफ़ साफ़ पहले ही दिन बता दिया गया था, मानना, ना मानना तो उनकी मर्जी थी न, फिर आज ये नौटँकी क्यों?

पर क्या सच में ही नौटँकी कर रहे हैं वे?
---------------------------

तीन साल पहले की वो शादी याद आ रही है जब मेरी बहन दुल्हन बनी थी। कितना शौक था दिदिया को अपनी शादी का। लोग कुछ बनने के सपने देखते हैं पर इसे सिर्फ एक ही सपना जीना था, उसे ही पूरा करना था। बचपन की गुड्डी-गुड़िया से कभी बाहर निकली ही नहीं। उससे कोई पूछता था ना कि गुड्डी, तू बड़ी होकर क्या बनेगी, अगली जवाब देती, दुल्हन, और सब हँस पड़ते।

पिताजी को भी समझ आ गया था कि इसे पढ़ना लिखना तो है नहीं, शादी ही कर दो। एक तो हमारे यहां ढंग के लड़के नहीं मिलते, मिलते हैं तो उनके बाप टेढ़े होते हैं। बकरा देखा है आपने, बकरीद वाला, खूब खिला-पिला कर मोटे किये गए, चर्बी वाले बकरे सबसे महंगे बिकते हैं। वैसे ही खूब पढ़े-लिखे, नौकरीशुदा, जमीन-जायदाद वाले लड़कों की खूब बड़ी बड़ी बोली लगती है। कीमत तो खैर सबकी ही लगती है, मोटा चाहे पतला, पर जानबूझ कर कोई पतला बकरा तो नहीं खरीदता ना।

लड़का इंजीनियर, मिलाजुला परिवार, पुस्तैनी घर, बाग़ बागीचा, खेत खलिहान। अब ऐसे सरकारी दामाद को कौन अपना दामाद नहीं बनाना चाहेगा। लड़की की एक तरह से नुमाइश की जाती है हमारे यहां, खैर लड़की पसन्द आ गई उन्हें। बात अटकी तो बस 'बकरे की कीमत' पर। ऐसा नहीं है कि कुछ जमा जथा नहीं था पिता जी के पास, हर लड़की के बाप की तरह उन्होंने भी दिदिया के लिए कुछ पैसे रख छोड़े थे, पर ये उनकी मांग के पासंग भी नहीं था। इतना अच्छा लड़का छोड़ना भी नहीं चाहते थे, इसलिए कुछ सोच विचार कर रिश्ता पक्का कर दिया।

घर में जब फाइनल मोल-भाव बताया तो शुरुआती प्रतिरोध के बाद मांग पूरी करने के गम्भीर प्रयास शुरू किए गए। एफ-डी, एल-आई-सी, जी-पी-एफ से भी जब पूरा नहीं पड़ा तो थोड़े से खेत जो अपने हिस्से में आते थे, वो भी इस शादी यज्ञ में आहूत कर दिए गए।

अपने कठोर पिता की वो दयनीय मुद्रा देखी नहीं जाती थी, तनी मूंछें थोड़ी झुक सी गई थी, खुलकर खर्च करने वाला इंसान अब कुछ महीनों में ही कंजूस हो गया था। फिर भी जीवट वाले, जुबान के पक्के इंसान थे, इसलिए जैसे तैसे सारी मांगों को तकरीबन पूरा कर दिया था उन्होंने।

शादी के दिन बारात आने से पहले ही उनका फोन आ गया था। आश्वस्त होने के बाद ही उधर से बारात चली थी। इतना कुछ करने के बाद भी उन लोगों के मुंह टेढ़े के टेढ़े ही रहे, इसकी क्वालिटी खराब है, बारात का स्वागत ढंग से नहीं किया, खाने में स्वाद नहीं था, और ना जाने क्या क्या।
-----------------------

आज मेरी शादी है।
पर मुझे दिदिया की शादी ना जाने क्यों याद आ रही है।

क्या अंतर है दोनों में?

होने वाले जीजे की जगह आज मैं हूँ, क्या उस दिन उसे वैसा कुछ महसूस हुआ होगा जो आज मुझे हो रहा है?

आज दिदिया की जगह पर मेरी होने वाली पत्नी है, इसे भी शायद दिदिया की तरह कभी पता नहीं चलेगा कि उसके बाप कई सालों के लिए कर्जदार हो चुके हैं।

और क्या मेरे पिताजी को अपने सामने अपना तीन साल पुराना अक्स नहीं दिख रहा होगा?

वो मेरा होने वाला साला, क्या आने वाले किसी कल में, उसे भी ये बीता हुआ कल याद आएगा?
---------------------------------------------------------------

अजीत
8 दिसम्बर 16

Saturday, 5 November 2016

व्हाट इज़ इन दि नेम....


जो जगह जितनी ज्यादा भीड़ भाड़ वाली होती है, असामान्यता की पहचान उतनी ही कठिन होती जाती है। किसी भी शहर की तरह के एक शहर की कचहरी में, भागते काले कोटों के पीछे दौड़ते कदमों और तीन तीन बित्ते की दूरी पर जमी चौकियों के ऊपर रखी टाइपराइटरों की खटपट के बीच कहां दिखता है किसी का चुपचाप किसी कोने में बैठे रहना। वो तो गनीमत कि कचहरी के एक सार्वजनिक कुक्कुर की अपनी भाषा में किए गए प्रचण्ड विरोध के बावजूद, उस निद्रामय व्यक्ति के सर पर 'जूं तक ना रेंगने' के बाद पान वाले चौरसिया का ध्यान उसपर पड़ा।

धीरे धीरे लोग जमा होने लगे, एक होशियार आगे बढ़ा तो मालूम चला कि व्यक्ति दिवंगत हो चुका है। मरकर भी उसने एक भला काम किया, लोगों के सूखे जीवन में कुछ पलों का मनोरंजन दे गया। कचहरी क्षेत्र में ही वर्तमान थाने से पुलिस भी आ गई, पर इसी बीच किसी ने मृत व्यक्ति के धारीदार पैंट से ये अंदाजा लगा लिया कि मरा आदमी हो ना हो कोई वकील ही है। इतना मालूम चलना था कि आधी कचहरी जमा हो गई, नारे गूंजने लगे, हमारी मांगे पूरी करो, वकील एकता जिंदाबाद, प्रशासन मुर्दाबाद, मुआवजे की मांग। फिर आये कुछ समझदार वकील, पूछताछ खोजबीन की गई तो स्पष्ट हुआ कि वो कोई वकील नहीं था।

पुलिस अपना काम करने ही वाली थी कि किसी की नजर उसकी लम्बी दाढ़ी पर चली गई और एक नया बवाल हो गया। नारा ए तकबीर से गूंज उठी कचहरी। आम आदमियों के बीच का एक आम मुसलमान यूँ मर गया और सरकार देखती रही। यही तो जुल्म है। छाती कूटने के लिए नेता लोग पहुँचने ही वाले थे कि किसी समझदार ने आगे बढ़के चेक कर ही लिया। अब ये तो तय था कि जो भी हो, मुसलमान तो नहीं ही होगा। नेता लोग हाथ मलते आधे रास्ते से वापस।

पुलिस भी परेशान, दोपहर से शाम होने को आई जब वे उसके पास तक पहुंचें। एक फिट की दूरी पर एक छोटा सा थैलीनुमा पर्स मिला जिसमें कुछ चनों के साथ एक दो कागज भी थे, उन कागजों पर एक नाम भी था जो गलती से हवलदार के मुँह से निकल गया। लपकने को तैयार बैठे लोगों ने फलाने 'राम' लपक लिया और बवाल की एक नई जमीन तैयार हो गई। पांडवों में से बलिष्ठतम की जय जय होने लगी, मनुवादी सरकार को गालियां पड़ने लगी, आस पास की दुकानें मय गाड़ियों के टूटने लगी। न्यूज़ चैनलों में जबरदस्त उछाल देखा गया, रात के प्राइम टाइम का बढ़िया मसाला जो मिल गया था।

फिर किसी पुलिस वाले को उसके बालों से भरे धूलधुसरित बाएं हाथ पर कुछ गोदना सा दिखा जो उसी का नाम हो सकता था। ना जाने क्या नाम था, पर जो भी था, अचानक ही भीड़ खत्म हो गई, रात को प्राइम टाइम में फिर से 'अरहर दाल' चल रही थी।
----------------------------------------------------------------------------------------------
तीन दिन बाद गंगा में एक लाश बहती दिखी थी, क्या पता किसकी हो, लावारिस लाशों के क्रियाकर्म के लिए 100 रूपये जो मिलते हैं।


##########################################################
अजीत
4 नवम्बर 16

Monday, 31 October 2016

पति पत्नी और ...


ठाकुर:
का बे शुक्ला, मउगा हो बे तुम एकदम, मर्द बनो मर्द, ये साले कोई मर्दों के काम हैं? जब देखो तब औरतपना फैलाये रहते हो। सुना नहीं है क्या, जिसका काम उसी को साझें, का जरूरत है तुम्हें सब्जी-फब्जी काटने की, बेटा घर में औरत ले आये हो तो का पूजा करने लिए लाये हो, उसे ही करने काहे नहीं देते ये सब काम।
अबे शास्त्रो में लिखा है, सकल ताड़ना के अधिकारी, और तुम ससुर लल्लो चप्पो में लगे रहते हो। इतना प्यार दिखाओगे न, त ये जो औरत जात है न, सर चढ़ जाती है। लिख लो, बताये दे रहे हैं, नारी नारी सब करे, नारी नरक का द्वार।
सुना तुम खाना बनाते हो, बर्तन-कपड़े भी धो देते हो, इस्तरी भी कर लेते हो, ससुर तो तुम स्त्री मने पत्नी लाये काहे, कुँवारे बने रहते। तुम जैसे बिना रीढ़ के आदमियों की वजह से ही इन औरतों के दिमाग खराब होते हैं। कभी सरदर्द का बहाना तो कभी कमरदर्द का। बेटा इनकी सुनेगा ना तो नौकर बन के रह जाएगा, बताये दे रहा हूँ...
##############################
शुक्लाइन:
ये जब सुबह सुबह उठकर मेरे लिए चाय बना देते हैं न, चाय नहीं बनाते, मेरा दिन बना देते हैं। सच, सुबह सामने मुस्कुराते चेहरे के साथ जब ये चाय के लिए धीरे से आवाज देते हैं न, तो मन में जैसे सितार बजने लगता है। उसके बाद तो दिन भर की भाग दौड़...
सुनिये शुक्ला जी, ये जो ऑफिस से घर आते ही किचेन में घुस जाते हो ना, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। दिन भर के थके हारे, जा कर आराम करो, टीवी देखो, ये क्या कि आये और धड़धड़ाते हुए किचेन में। अभी परसो ही हाथ काट लिया था तुमने, आलू तो काट नहीं पाते, आये बड़े संजीव कपूर।
सुनो, इतने दिन हो गए इस शहर में आये, कभी किसी के यहां चाय पर भी नहीं गए हम। परसों जो ठाकुर साहब आये थे, कितना कह गए थे आने को, चलो ना उनके यहां ही चला जाए। ठीक है.... 
ठीक... 
बस 10 मिनट में होती हूँ तैयार।
#############################
ठकुराइन:
मेहमान? आज? देखों, आज मेरा मन नहीं है किचेन में सड़ने का, मना कर दो उन्हें। नहीं कर सकते? सुनो ये ज्यादा बकैती मेरे सामने नहीं चलेगी हाँ, बताये दे रही हूँ। ये वही शुक्ला है ना जो तुम्हें उलटे सीधे पाठ पढ़ाता रहता है? खूब जानती हूँ इन मर्दों को, खुद तो अपने घर में भीगी बिल्ली बने रहते हैं और दूसरों के आगे शेर बनते हैं। दफा करो ऐसे आदमियों को, चलो बन्द करो ये टीवी और सुनों, आटा गूंथ दो फिर मशीन में कपड़े डाल देना। हाय मेरी कमर...
#############################
ठाकुर (फोन पर): हाँ शुक्ला, सुन, निकल गए क्या तुम लोग, यार एक्चुअली एक इमरजेंसी आ गई है आज तो...
शुक्ला: कोई बात नहीं यार, हम फिर कभी आ जाएंगे, तू कपड़े धो ले...
##############################
अजीत
31 अक्टूबर 16

Saturday, 1 October 2016

बुरा जो देखन मैं चला...




मासूमियत तो हाईस्कूल में पूरी तरह खत्म हो चुकी थी, इंटर में 'दुनिया ठेंगे पे' वाला मन बन चुका था और स्नातक में प्रवेश लेने तक असहिष्णुता घर कर चुकी थी। वैसी वाली नहीं जिसका हल्ला पिछले कुछ दिनों तक देखा सबने। ये सबके लिए था, खासकर अपने परिवार के लिए, उम्र का तकाजा था शायद, माँ-पा साथ थे नहीं, भाई भाभी के साथ रहते थे। हम चार भाइयों में आपस में भले ही कितना प्रेम हो पर ऊपरी दिखावटी लगाव जैसा कुछ नहीं है, पानी जब तक नाक से ऊपर ना हो जाए, बड़े भाई कुछ बोलते नहीं थे, मैं भी छोटे से कुछ नहीं कहता, जैसे मुझे पता है वैसे ही बड़े भैया को भी पता था कि जितनी आवारागर्दी कर ले, कोई अख़लाक़ी, नैतिक गलत काम नहीं करेगा। तो हम कायदे से आवारा टाइप बन चुके थे। सुबह 10 से 5 कॉलेज में C, C++ प्रोग्रामिंग करने के बाद जम के लखैरापन मचाते। लहुराबीर से गोदौलिया तक परेशान था हमसे। रातें घर से ज्यादा होस्टल या कमल या तिवारी के घर पर बीतती।

लैंग्वेज के अलावा सभी विषयों में निल बटे सन्नाटा थे, अगले दिन से सेमेस्टर एग्जाम, सोचा कि जब सारी आवारागर्दी साथ की तो पढ़ाई भी साथ ही करते हैं। होस्टल में एक एक रजाई में चार चार बालक जुट गए किताब लेकर, तीन बजते बजते सारा कोर्स निपट गया। चाय के तो हम वैसे ही शौक़ीन थे, तलब लग रही थी, नजदीक ही बेनियाबाग पर चौबीसों घण्टे खुलने वाली दुकान भी थी। बाकी लड़के किताब छोड़ने को तैयार नहीं और तलब के मारे हमारा गला सूखा जाए। बहाना खोजने के लिये दिमाग दौड़ाया तो आँखें सैय्यद पर टिक गई। रमजान का महीना और सहरी का टाइम, इमोशनल ब्लैकमेल किया सबको, और बारह लड़के चल दिए सहरी करवाने का पुण्य लेने। एक बात पहले बता दें कि उस समय हम घनघोर वाले नास्तिक हुआ करते थे। क्या काबा क्या शिवाला।

बनारस वाले दोस्त जानते हैं कि बेनिया मुस्लिम बहुल इलाका है। चाय की दुकान पर भीड़ लगी थी, बनारसीपन फैला हुआ था। गालीगलौज पान बीड़ी गाली गुफ़्ता का बाजार गर्म। हम लोग अपनी अपनी चाय सुड़कने के बाद कुल्हड़ सड़क पर बिना तोड़े फेंकने की बाजी लगा रहे थे कि देखा एक मुल्ला जी अपने पान से गुलगुलाये मुँह को रोजे के मद्देनजर खूब जम कर साफ़ कर रहे थे, साफ़ करने का माध्यम मुँह में पानी भर पिचकारी छोड़ना ही था। पहली पिचकारी हमारे पैरों के पास आकर गिरी, हमारे बिदक जाने से उन्होंने अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया और फिर से मशगूल हो गए।

दो तीन पिचकारी के बाद हमारा ध्यान गया कि उनकी धार जहां गिर रही है वो एक छोटी सी गदाधारी बन्दर की मूर्ती है। हमारे यहां ये बड़ा कॉमन सा है, सड़क के किनारे, पेड़ों के नीचे छोटा सा मंदिर बना दो, कुछ दिन पूजा करो, फिर कोई ज्यादा बड़ा, ज्यादा भव्य मंदिर दिखे तो पुराने वाले को भूल जाओ। ये भी उन्ही भक्तहीन मन्दिरों में से एक, हनुमान मंदिर था।

धीरे धीरे मेरे साथ के सभी लड़कों की नजर पड़ी उस दृश्य पर, पर ताज्जुब कि कोई एक शब्द नहीं बोला। सैय्यद को क्यों फर्क पड़े, मैं नास्तिक, पर बाकी दस तो हिन्दू थे। आज तो खैर मैं पूरा भगत हूं, पर उस समय, उस पल पता नहीं क्यों, नास्तिक होने के बावजूद आँखें लाल होने लगी थी, तिवारी ने रोकने की पूरी कोशिश की थी और जैसे तैसे मुझे वहां से हटा ले गया।

ऐसा नहीं था कि अंदर धर्म के अंकुर फूट रहे हों पर शायद संस्कार ऐसे मिले थे कि अपना अपना मन, अपना अपना मत, और अगर तुम नहीं मानते, या अगर तुम्हे अपने मानने पर इतनी श्रद्धा है तो दूसरों की भी इज्जत करो। जब कुछ दिनों तक बार बार, लाख टालने पर भी, वो मूर्ति आँखों के सामने आ जाती तो एक कायर होने का, अपराधी होने का, खुद की ही नजरों में गिर जाने का अहसास भर जाता अंदर। जब रहा नहीं गया तो एक रात उसी समय सहरी के टाइम पर पहुंच गया वहां। हालाँकि बेवकूफी ही थी, दिन में भी जा सकता था पर गर्म खून। किसी दोस्त को नहीं बताया, बताता तो आने ही नहीं देता कोई। चाय वाले के यहां से एक बाल्टी पानी लिया और रगड़ रगड़ कर धूल मिट्टी पीक वगैरह साफ़ किया। आसपास रोजेदार खड़े थे और हँस रहे थे, गालियाँ भी पड़ रही थी, ताज्जुब कि मार क्यों नहीं पड़ी, आज सोचते हुए भी डर लग रहा है पर उस समय ना जाने कैसा तो जुनून सा था। अगले बारह दिन लगातार, दिनभर में किसी न किसी समय एक बार आकर उस मंदिर की सफाई कर जाता, पहले कभी पूजा नहीं की थी इसलिए पूजापाठ का दिखावा नहीं कर पाया, हालाँकि चाहता यही था।

शुरू के तीन चार दिन नये सिरे से कूड़ा मिलता, पान की ताज़ी पीक पड़ी होती पर धीरे धीरे गन्दगी कम होने लगी थी। एक दिन दोपहर में वहीं बैठा चाय पी रहा था, कि किसी ने चाय का कुल्हड़ मंदिर की तरफ उछाला, और मुझे आश्चर्य में डालते हुए पांच छः आवाजें एक साथ निकली, 'अबे आन्हर हउ्व्वे का बे' 'देख के बे' 'दिखता नहीं है क्या' 'देख के रजा' 'बा रजा' 'मंदिर है उधर'।

कुछ दिनों बाद रात को ही जब मंदिर की सफाई निपटा कर चाय सुड़क रहा था तो एक मुल्ला जी बोले, बेटा, तुम अपनी पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दो, अब कुछ नहीं होगा तुम्हारे बजरंगी को। चायवाले ने भी कहा कि भइय्या अब आप परेशान ना हों, किसी को उधर गंदगी नहीं करने देंगे।
-------------------------------------------------------------------


कभी मौका मिले तो देखिएगा, बेनियाबाग की फेमस ऑल नाइट खुलने वाली चाय की दुकान के साथ में लगा छोटा सा साफ़ सुथरा हनुमान मंदिर।


********************************************
अजीत
2 अक्टूबर 16

Sunday, 25 September 2016

एहसास



आज करीब बत्तीस साल बाद वैसा अनुभव हुआ। इतने साल पहले मैं भी तकरीबन इतनी ही उम्र का था जब मेरी पत्नी ने धीरे से मेरा हाथ पकड़ अपने उभरे हुए पेट पर रख दिया था। शायद सातवां या आठवां महीना था, पत्नी से विरक्ति सी हो रही थी, बेडौल शरीर, वाहियात चाल और अंग प्रत्यंगों पर काली भूरी रेखाएं और धब्बे। पर जब उसने अंदर से हल्की सी सरसराहट की तो ना जाने कैसा तो अहसास हुआ।
-----------------------------------------------------------

हालाँकि मनौती मैंने लड़की की मांगी थी पर जब ये हाथ में आया तो लगा कि ये दुनियां की सबसे अनमोल नेमत है जो ऊपर वाले ने मुझे दी है। इतने नन्हें हाथ पैर, इतना कोमल, इतना मुलायम।

हाइजीन का कीड़ा है मुझे पर इस बच्चे के सामने जैसे कुछ पता ही ना चलता। परिवार के नाम पर हम पति पत्नी बस दो ही लोग थे, बहुत रोता था ये और जितना रोता उससे ज्यादा इसके कच्छे बदलने पड़ते, दिन रात सुबह शाम बस एक ही काम, ये निकालें और हम साफ करें।

जब पहली बार घुटनों पर चला और फिर जब खुद अपने पैरों पर, आहा, ऐसी खुशी का पल पहले कभी नहीं आया था जीवन में। कुछ कुछ बोलने भी लगा था और पहला शब्द इसने 'माँ' नहीं 'पा' कहा था।

ऑफिस से थक हार जब घर पहुंचो तो ये साहब हमेशा बाहर सड़क पर अपनी माँ की ऊँगली पकड़े मेरा इंतिजार करते हुए दिखते, और फिर जब तक इन्हें गाड़ी पर बिठा दो तीन चक्कर ना लगवा दो, घर जाने की आज्ञा नहीं मिलती।

स्कूल में सबसे अच्छे विद्यार्थियों में गिने जाते, इनकी माँ जो इनपर खूब मेहनत करती। आठवीं तक तो वे इनकी मदद करती रही फिर नवीं से मेरे हवाले हो गए। इनको पढ़ाने के लिए ऑफिस में दिन भर खुद पढ़ा करता और फिर शाम को इन्हें पढ़ाता।

शायद परवरिश में कोई कमी रह गई जो बुरी संगत में पड़ गए, गुटका और सिगरेट, ना जाने कैसा साहित्य। उसे दो तीन थप्पड़ मारने के बाद खुद कितना मानसिक आघात पहुंचता था, कैसे बताऊँ।

यहां वहां कई जगह पढ़ता कि एक उम्र के बाद पिता को पुत्र का मित्र बन जाना चाहिए। कई बार कोशिश की, पर जब भी ये सामने आता तो अंदर का पिता इस मित्रता को कुचल डालता, कैसे कोई पिता दोस्त बन सकता है। धीरे धीरे ना जाने कैसे एक गैप सा आता जा रहा था हम दोनों के बीच, कितनी कोशिश करता था इसे कैसे भी तो भर दूं पर होता ही नहीं था। बचपन में बोलना शुरू करता तो चुप ही नहीं होता था, पा ये क्या, पा ये क्यों, पा ये कैसे, और अब कुछ बोलता ही नहीं । मैं ही कुछ बोल दूं, कुछ पूछ दूं तो बस हां हूं ठीक है।

जीवन भर की कमाई इनकी पढ़ाई में होम कर दी, अच्छे से अच्छे कॉलेज में दाखिला करवाया, कॉलेज से निकलते ही अच्छी सी नौकरी मिल गई इन्हें। शायद नौकरी का ही इंतिजार कर रहे थे बरखुर्दार, देश के दूसरे कोने में पोस्टिंग ली और भूल गए कि कोई बाप भी है इनका। हद्द तो तब जब एक दिन फोन से बताया कि शादी कर ली किसी तमिल लड़की से। अगर मुझसे पूछा होता तो यकीनन मना ही करता पर ये तसल्ली तो रहती कि पूछा तो, और क्या पता मान ही जाता जिद्द करता तो।

-----------------------------------------------------------

आज फोन किया और बताया कि पा, मैं पा बनने वाला हूं और आप दादा, लात मारी इसने आज, और हां, मुझे कुछ नहीं पता हां, इसकी परवरिश आप ही करोगे बस बता दे रहा हूं, कल की टिकट भेज रहा हूं.....

#################################


अजीत
25 सितंबर 16

Tuesday, 13 September 2016

धार्मिकता


किसी प्रगतिशील मुल्क के किसी प्रगतिशील शहर की किसी बहुमंजिला इमारत में सरकारी बाबू श्री नरेंद्र जी रहते हैं। श्वेत सम्प्रदाय के थे, ये उस मुल्क में अल्पसंख्यक समुदाय है पर चूँकि बहुसंख्यक समुदाय से ही निकला है तो बहुसंख्यक इसे अपना ही हिस्सा मानते हैं। उस मुल्क में पंथनिरपेक्षता का जोर है, पड़ोसी ड्रैगन की तरह धर्म पर कोई रोक टोक नहीं तो पूरे मुल्क के साथ साथ ये भी बड़े वाले धार्मिक। इनके यहां बीस के ऊपर पैगम्बर हुए, सारे राजा राजकुमार थे फिर साधू हो गए थे। अंतिम वाले तो इतने बड़े तपस्वी कि तपस्या में ही कपड़े लत्ते गल गये। अहिंसा पर बड़ा जोर है इनके यहां। जमीन के नीचे उगी सब्जी तक नहीं खाते, और तो और अपने यहां पेस्ट कंट्रोल तक नहीं होने देते। वैसे भले आदमी हैं, धार्मिक आदमी भला ही होता है।

बाकी बिल्डिंग और आस पास के मोहल्ले में भगवा सम्प्रदाय के लोग रहते हैं। ये वो सम्प्रदाय है जो आजकल असहिष्णु सा हो गया है, लोग तो यही बोलते हैं टीवी पर। पचास तरह के देवता और 100 तरह की रवायतें। गाय बैल सूवर पीपल बरगद, मतलब लगभग हर चीज की पूजा करते हैं। इन लोगों के यहां पैगम्बर तो ना जाने कितने आये, खुद ऊपर वाला भी कई बार आया। इज्जत तो इतनी देते हैं अपनी मान्यताओं को कि घर की छत पर पीपल उग जाए तो खुद नहीं उखाड़ते, दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को बुलाते हैं। धार्मिक लोग हैं, धार्मिक लोग भले ही होते हैं।

थोड़ी ही दूर पर हरे सम्प्रदाय के आठ दस घर भी हैं। ये सम्प्रदाय सुना कि बाहर से उस मुल्क में आया था। बड़ा शांतिप्रिय समुदाय है। धार्मिक तो इतना कि दिन में कई-कई बार चिल्ला-चिल्ला के पूरे शहर को अपने पूजा पाठ का टाइम बताता है। इनके यहाँ भी कई देवदूत आये गये, कितनी बार आते जाते तो अंतिम वाले ने ऊपर वाले से अंतिम तौर पर उसकी सारी हिदायतें मांग कर नोट कर ली। अब यही किताब इनके लिए जो है सो है। धार्मिक हैं तो बिलाशक भले भी होते हैं।

हुआ कुछ यूं कि किसी दूर देश में, कई शतक पहले 'हरों' ने 'भगवों' की इबादतगाह उजाड़ अपना पूजास्थल बना लिया था, इतने साल सहने के बाद 'भगवों' का खून खौला और उन्होंने अपनी इबादतगाह पर क्लेम कर लिया, मतलब तोड़ ताड़ दिया। तो 'हरों' का खून भी कौन सा हरा था, इन्होंने जगह जगह 'भगवों' के इबादतगाहों की मूर्तियों को तोड़ना चालू किया। इस खून की खौला खौली में बहुत खून बहा। ये बिमारी उस प्रगतिशील मुल्क तक भी पहुंची। अब पता नहीं यहाँ के 'हरों' ने पहले बुत तोड़े या 'भगवों' ने रंग फेंका, जो भी हुआ यहां भी कांड शुरू हो गए।

शहर में कर्फ्यू लगा था, रह रह कर शोर और चीख पुकार की आवाजें सुनाई देना जैसे आम बात हो गई। नरेंद्र बाबू ना तीन में ना तेरह में, चुपचाप अपने घर में बैठे चाय पी रहे थे कि किसी ने दरवाजा भड़भड़ाया, इनकी सिट्टी पिट्टी गुम। शोर की आवाजें पास आ रही थी और इधर दरवाजे के बाहर से दयनीय भीख सी मांगती पुकार, भाई बचा लो, दरवाजा खोल दो, अंदर आने दो, मैं और मेरा छोटा बच्चा, ऊपर वाले के लिए हमें बचा लो। ऊपर वाले के नाम पर, ऊपर वाले को याद कर बाबू साहब ने जैसे तैसे उन दोनों को अंदर ले तो लिया, पर फिर उन्हें याद सा आया कि अरे ये तो 'हरे' वाले हैं। कितना नापसंद करते हैं ये इन्हें। बड़ी कशमकश, क्या करें, बीवी से भी सलाह ली। फिर उन्हें 'भगवों' का पीपल वाला तरीका याद आ गया।
धार्मिक जो थे....


#################################

अजीत
13 सितम्बर 16

Sunday, 11 September 2016

बुद्धिजीविता


जिस तरह आवश्यकता आविष्कार की जननी है वैसे ही अपने लिए अतिआवश्यकता ही कुछ सीखने की मजबूरी। कुछ मामलों में सम्पन्न थे हम, जैसे की दोपहिया। बचपन से ही देखते आये थे पर कभी सीखने का मन नहीं हुआ, वो तो कहो की एग्जाम सेंटर काफी दूर पड़ा तो सिर्फ एग्जाम देने के लिए लगे हाथ बाइक चलाना भी आ ही गया। ऐसे ही पड़ी रहती थी घर में रिटायर्ड बुजुर्गों की तरह, पिताजी पहाड़ पर थे और बड़े भाई की अपनी बाइक, तो अलिखित समझौते की तरह ये तिरासी मॉडल सीडी 100 हमारी सम्पत्ति मान ली गई। पिता कठोर अनुशासन प्रिय थे पर रूपये पैसे दे देते थे, भाई लिबरल थे पर पैसे नहीं देते थे, दोनों का ही उद्देश्य बच्चे को बुराई की तरफ जाने से रोकना ही था पर 'जाको बिगड़ना ही होय, का करी सके कोय'। इस समय हम भाई की छत्रछाया में थे, बाइक तो मिल गई पर चले कैसे, इस मामले में हमारे मित्रगण काम आये। खुद के आने जाने या गर्लफ़्रेंड को घुमाने के लिए बाइक मांगते तो भलमनसाहत से या शायद शुद्ध व्यापारिक रीत से 20 रूपये का तेल डलवा देते। उस समय WTC वाला काण्ड हुआ था फिर भी तेल 25-30 के रेंज में था, अपना काम चल जाता।

सर्वीसिंग जैसी चीज भी होती है पता नहीं था, घिसे जा रहे थे कि एक दिन बड़े भाई ने कान पकड़ 500 रूपये थमाये और बोले, घोड़े हो गए हो तो का हमसे भी बड़े हो गए, मांगने में शर्म आती है, गाभिन भैस की तरह चिचिया रही है गाड़ी और तुम इसे ठेले जा रहे हो।

बनारस में दो ही जगह है जो थोड़ी ठीकठाक है, जहां ठेठ बनारसी अपनी टुच्चई नहीं दिखा पाता, फलस्वरूप ये दो जगह बनिस्पत थोड़े साफ़ हैं, एक बीएचयू दूसरा कैंटोमेंट एरिया। इसी एरिया में बड़े बड़े होटल हैं, बनारस की शान ताजगंगे के सामने, मखमल के कपड़े में पैबंद की तरह, बाइक मिस्त्री की दुकान वर्तमान थी। एक नंबर का मिस्त्री और दो कौड़ी का आदमी। सुबह 8 बजे गाड़ी दो तो 12 बजे का टाइम देता और सच में 3 बजे तक ही दे पाता। ये सारा हिसाब लगा हम 4 बजे इसकी दुकान पहुँचे, हमारी प्रियतमा बाइक 36 टुकड़ो में बिखरी पड़ी थी, आंतरिक हिस्से तेल ग्रीस में लटपटाये बिखरे पड़े थे और मिस्त्री साब रंगीन दांत लिए हमारे सामने बिखर गए, हमें सांत्वना सी देते बोले, बाबूसाब बस 10 मिनट, होई गयल बस।

एक कुर्सी रख दी गई हमारे लिए सड़क से लगी हुई, आधी डब्बी सिगरेट बमय माचिस पेश कर दी गई। हम भी इतनी आवभगत देख, अनुप्रास के तहत, भले आदमियों की तरह भोलेनाथ के भगत बन मुँह से भकाभक धुँआ भकोसने उगलने लगे। सड़क पार थोड़ी दूर स्थित टी हॉउस से, जिसकी इमारत चार पहियों पर चलने वाले ठेले पर बनी थीे, छोटू को आवाज लगा चाय मंगवा ली। किसी भी ट्रक या कार के गुजरने पर होने वाली दहशत के अलावा राजाओं वाली फीलिंग थी ये। सामने के नजारे भी मनभावन थे, हर पांच मिनट बाद गोरे काले विदेशी दिख जाते, ये वो विदेशी थे जो केवल पर्यटन के लिए आते थे, उन गंगा किनारे वाले विदेशियों से रंग वर्ण छोड़ बिलकुल अलग। वो तो हम बनारसियों से बड़े बनारसी लगते हैं अब।

माबदौलत अपनी रियासत की रियाया को साथ में इन विदेशियों की ओर गर्व से देख रहे थे कि ना जाने कहां से एक 10-11 साल का बालक सामने खड़ा हो गया हाथ फैलाये। आम लड़कों जैसा ही लड़का था, बस अपनी दिगम्बरता छुपाने के लिए एक कच्छा टाइप कुछ पहने था। आँख से अनवरत बहते आंसू जो आँखों की गंगोत्री से बहते बहते गालों से होते हुए गले को पार कर, मैदानी क्षेत्रों से गुजरते हुए कच्छे की खाड़ी में लुप्त हो रहे थे। वैसे बालक इतना सुदर्शन था कि रामानंद सागर का बाल बलराम या बी. आर. चोपड़ा का बालक भीम बन सकता था। आँखे बिलकुल बैल जैसी बड़ी बड़ी। बैल हमारे सांस्कृतिक पशु गाय जिसे हम श्रद्धावश माँ कहते है का पुत्र होता है और कुछ सालों पहले तक शहरों में कम और गाँवों में बहुतायत में पाया जाता था पर अब इसका उल्टा है, प्रकृति के अपने नियमों से जैसे हिरण शेरों के बावजूद जंगल में बचे हुए हैं, बैल भी कसाइयों और ट्रकों से बचकर बहुतायत में सड़कों पर स्वच्छंद घूमते और सफाई अभियान में अपना अमूल्य योगदान देते दिख जाते हैं।
अमूमन भिखारियों को देख दिल नहीं पसीजता, पर पता नहीं क्या था इस बच्चे में, इसे देख खुद भिखारी होने की अनुभूति हुई। इस और इस जैसे बच्चों को भीख मांगने पर क्यों मजबूर होना पड़ता है, क्या एक संप्रभु राष्ट्र की नाकामयाबी नहीं ये। बरसों से सुनते आ रहे साम्यवाद और राज करते आ रहे समाजवाद का मजाक सा उड़ाता ये बालक हाथ फैलाये एक रुपया नहीं, जवाब मांग रहा था। राष्ट्रवाद की परिभाषा के अंतर्गत क्या ये लज्जा का विषय नहीं कि भाषणों में जिन बच्चों से उम्मीद की जाती है कि वे आगे चलकर गांधी पटेल अम्बेडकर कलाम रमन बनेंगे वे आज भीख मांग रहे हैं।

इतना कुछ सोचकर लगा कि हल्का हो गया हूं, बुद्धिजीवी यही तो करते हैं ना, पर वो बालक तो अब भी खड़ा था, क्या देता, जेब में सिर्फ पांच सौ थे जो मिस्त्री को देने थे, फुटकर था नहीं, झिड़क दिया उसे। वो भी ढींठ, जाए ही ना, मांगता रहा और मुझे शर्मशार करता रहा। कभी तो उम्मीद टूटनी थी उसकी, आखिरकार कोई और आसामी दिखा तो उधर लपक लिया।

अगले 60-70 मिनट में मुझे वो कई बार दिखा, मेरी तरफ देख मुझे अनदेखा कर किसी और के आगे हाथ फैलाता, जब जब मेरी तरफ आशा से देखता, मैं और संकुचित हो जाता। उसके बहते आंसू मुझे परेशान कर रहे थे। कई बार तो मन आया कि फुटकर करा उसे बुला कर कुछ दे दूँ, पर फिर ना जाने क्या सोच ऐसा किया नहीं। शायद उसे देने वालों की कमी नहीं थी। सामने विदेशियों से भी कुछ ले ही ले रहा था।

आखिरकार मेरी प्रियतमा बाइक तैयार हो गई, पैसे वैसे दे किक मारते समय आज का सबसे बड़ा अजूबा देखा। सामने खोखे पर वही लड़का 7 रूपये वाली सिगरेट पी रहा था (मेरी वाली उस समय ढाई की आती थी), उसने मेरी तरफ देखते हुए धुँआ छोड़ना शुरू किया, लगा कि अनंत काल तक छोड़ता ही रहेगा, कुटिल मुस्कान से मुझे नवाजने के बाद, ठाठ से टैम्पो रुकवाया, हाथ में थामी हुई रेजगारी से भरी पारदर्शी थैली अंदर सीट पर फेंकी, टैम्पो के आगे बढ़ने से तुरंत पहले आधा बाहर लटक कर मुझे बनारस की प्रसिद्ध 'ब' शब्द 'भ' शब्द, जिनके बाद 'के' लगाते हैं और साथ ही भारत भर में प्रसिद्ध 'च' शब्द बोलता, ये जा वो जा।


भरे बाजार वो नंगा, मुझे नंगा कर गया।
###############################

अजीत
11 सितंबर 16

Monday, 29 August 2016

प्रतिशोध



सौरभ:


आज फिर से ये दिन आ गया, पूरे साल में एक यही दिन है जो मुझे हमेशा दुविधा में डाल देता है। इण्डिया से भेजी गई अपनी राखी बांधू या नहीं, शिल्पी हर साल भेजती है और हर साल ही मुझे इस कशमकश के गुजरना पड़ता है। ना पहनूं तो शिल्पी के साथ नाइंसाफी, उस बेचारी का क्या दोष और अगर पहन लूं तो जाने अनजाने प्रिया का दिल जरूर ही दुखा जाऊँगा। हालांकि प्रिया भरपूर कोशिश करती है कि आज के दिन वो नार्मल दिखे पर मैं आखिर पति हूँ उसका, जानता हूं कि वो मन ही मन खूब रोती है, क्या जाने छुप के भी रोती हों। मैं कुछ कर भी तो नहीं पाता, उसको उसके भाई से यूँ जुदा करने वाला भी तो मैं ही हूँ, किस मुँह से उसे समझाऊं और समझाने को है भी क्या। जब मैं खुद राखी टाइम पर ना पहुंचे तो इतना उतावला हो जाता हूँ और ये बेचारी तो कभी भेज ही नहीं सकती।

कुंदन और मैं बहुत अच्छे दोस्त थे, लोग तो हमें सगा भाई ही समझते। ग्रेजुएशन में मिला था ये, ट्रांसफर ले कर जब पहली बार उस कॉलेज में एडमिशन लिया तो नया होने के कारण बाकी लड़के थोड़ा मजा लेने के मूड में रहते पर ये बन्दा बिलकुल अलग ही था, पढ़ाई लिखाई में तो बस पास भर हो लेता पर बाकी चीजों में नम्बर वन था। थोड़ा गुंडा टाइप था, इसे पता नहीं क्या पसन्द आया मुझमे कि दोस्त बन गया मेरा। हम उत्तर दख्खिन थे एक दूसरे के, फिर भी, वो कहते हैं न ऑपोज़िट एट्रैक्ट्स।

मेरे घर का दुलारा था ये और मैं इसके घर का। मेरे पापा मम्मी को तो जैसे इसने गोद ले लिया हो, साले तो ना तो कहना ही नहीं आता था, वो लोग जो भी कह दे, बस हुक्म की देर और ये जिन्न की तरह उसे पूरा करने में लग जाता। शिल्पी भी मुझसे ज्यादा इसी को भैया भैया बोल सारे काम निकलवा लेती। ये तो चोट्टी थी ही शुरू से, मैं इसके झांसे में नही आता पर कुंदन तो भोला शंकर, जो कह दो, नो इफ नो बट, काम हो जाना है चाहे जैसे भी हो।

इसके घर में मेरी इज्जत होने का सिर्फ एक कारण था कि मैं टॉपर था, पढ़ाई में सबसे आगे। मेरी वजह से बेचारे को रोज ताने मिलते, साला पढ़ता भी तो नहीं था कभी। बस एग्जाम से पहले मेरे घर में डेरा डाल लेता या मुझे अपने घर बिठा लेता, इसके लिए रात भर की पढाई काफी होती सेमेस्टर क्लियर करने के लिए। दिमाग तो था बन्दे में, पर खुराफात से बचे तो पढ़ाई में लगाए न। कभी किसी का सर फोड़ रहा होता या कहीं कोई समझौता, कभी इस यूनिवर्सिटी में तो कभी उस डिग्री कॉलेज में चुनाव लड़वा रहा होता, ना जाने किन किन फंदों में उलझा ही रहता हमेशा।
प्रिया इसकी सगी जुड़वाँ बहन है। हमउम्र होने की वजह से इन दोनों के बीच भी दोस्ती वाला रिश्ता ही था, तो मेरे से भी वैसा ही रिश्ता बन गया था। मैं थोड़ा शर्मिला टाइप इंसान हूं, जब भी ये सामने आती मेरी बत्ती गोल कर जाती, शरारत में तो कुंदन का बाप थी ये। पर मुझे भी इसकी शरारतें अच्छी लगती। कितनों को नसीब होता है भई लड़कियों से छिड़ना। सच मानिए, मैंने बहुत कोशिश की कि इस चक्कर में ना पडूं पर इस क्यूपिड ने तो अपना तीर निशाने पर बैठा के मारा था, क्या करता।

पता था, जानता था, और वो भी जानती थी कि कोई भी ना तो इसे समझेगा ना स्वीकार ही करेगा। क्या करता, उसकी शादी तय हो रही थी, कैसे हो जाने देता, और वो भी तो जिद किये बैठी थी। भाग गए हम, कितना वाहियात सा शब्द है ना 'भाग गये'। अबे पागल कुत्ते ने काटा था या भागने का शौक था, करा दी होती शादी। तुम भी चैन से रहते और हम भी, पर नहीं भई, तुम्हे तो इस समाज में अपनी ये बित्ते भर नाक जो संभालनी है। देख लो इसका अंजाम, ना तुम चैन से होगे और हम तो बस जी ही रहे हैं जैसे तैसे।

साले कुंदन, माफ़ कर दे यार अपने दोस्त को...
-----------------------------------------------------------------


कुंदन:

बाई गॉड, जिंदगी में इतने धोखे खाये पर कभी इतना अफ़सोस ना हुआ, ई साला सौरभवा कमीना जो धोखा दिया है न। ई साले को हम छोड़ेंगे नहीं। मने का, समझ का लिया है उसने कि कुंदन को धोखा देना और फिर उसे पचा जाना इतना आसान है का। मिलो साले तुम बताते हैं तुम्हे।

अबे, दुनिया में सारी लड़कियां मर गई रही जो अपने दोस्त के घर में ही डाका डाल दिए। साले, एक्को बार सोचे भी नहीं कि कर का रहे हो, किसके साथ कर रहे हो। कमीने, भाई मानते थे हम तुम्हें, का नहीं किये बे हम तुम्हारे लिए। तुम्हरे बाउजी बीमार थे तो हर पल तुम्हारे साथ खड़े रहे एक टांग पर, तुमरी माइ को अपनी गाड़ी में बैठा के चन्दौली ले जाते थे वैद्य जी के यहां गठिया के इलाज के लिए, काहे से कि तुम साले इंटरव्यू की तैयारी कर सको। और प्रियवा से जियादा तुमरी शिल्पीया को अपनी बहन माने थे बे, और तुम साले बेगैरत इंसान, हमरी बहन से ही फ्लर्ट किये। हमारी नाक के नीचे तुम ये गुल खिलाये और हमको अपना दोस्त भी बोलते रहे। का सच में तुम्हारे मन में एक्को बार ख्याल नहीं आया कि तुम कर क्या रहे हो।

आज भी वो दिन याद है जब तुम आये थे हमे बताने कि तुम प्रिया से शादी करना चाहते हो, हम समझाए थे ना तुम्हे कि संभव ही नहीं है ये, और तुम भी तो चले गए थे, और वादा भी कर गए थे कि कोई गलत काम नहीं करोगे, फिर साले मक्कार, चार ही दिन बाद तुम अपने घर ले गए हमारी बहन को भगा के। अरे शुक्र मनाओ कि शिल्पी आ गई थी बीच में, वरना महादेव की सौगंध, तुमरा तो उसी दिन राम नाम सत कर दिये थे हम।

तुम भाग के यहां अमरीका आ गए, का सोचे थे बे कि अमरीका मंगल पर हैं, और कुंदन इतना गवाँर है कि यहां आ ही नहीं सकता। देखो बे, आ गए है हम, और बेटा थोड़ी ही देर में तुमरे दरवाजे पे होंगे, इस बार कोई शिल्पी फिल्पी नहीं आएगी तुम्हे बचाने, इस बार का करोगे मुन्ना। आ रहे हैं बे, आ रहे हैं....
---------------------------------------------------------------------

प्रिया:

कोई ना कोई बहाना बना कर ये आज के दिन छुट्टी ले ही लेते हैं। सोचते हैं कि कैसे भी प्रिया को खुश रखूं आज के दिन। सोचते हैं कि मुझे आज के दिन अपने घर परिवार की याद आती है। मेरे क्यूट हबि, मुझे सिर्फ आज नहीं, रोज ही याद आती हैं उन सबकी। पर रोज रोज तो रो नहीं सकती न, और तुम्हारा क्या हाल हो जाता है मुझे परेशान देखकर। तुम भरपूर कोशिश करते हो मुझे खुश रखने की, अपनी राखी भी नहीं बाँधना चाहते कि कहीं मुझे बुरा ना लगे। पगलू, मुझे क्यों लगेगा बुरा, हाँ पर याद तो आती है ना। क्या करूँ, कैसे भूल जाऊं उन्हें।
कुंदन बस मुझसे 2 मिनट ही तो छोटा है। उसका मुझे चुड़ैल और चोट्टी कहना कितना बुरा लगता था मुझे, पर जब भी कोई बड़ा काण्ड करता माँ पा की डांट से बचने के लिए दीदी दीदी बोल मुझसे मदद मांगता। कितना भोला कितना प्यारा लगता उस समय।

भाई, फिर ना जाने कहां से तुम्हारा एक दोस्त आ गया हमारी जिंदगी में। तुमने ही तो मिलवाया था उससे, कितना भोंदू टाइप था तुम्हारा दोस्त। तुम्हारे बाकी दोस्तों से बिलकुल अलग, चुप शर्मीला और शरीफ। शराफत पहचानने का खास सिस्टम लगा होता है हम लड़कियों में। 

तुम्हे शायद लगता हो भाई कि तुम्हारे दोस्त ने धोखा दिया और तुम्हारी बहन तुमसे छीन ले गया, पर सच तो ये है भाई कि तुम्हारी बहन ने तुम्हारे दोस्त को तुमसे छीन लिया। पहल तो मैंने की थी भाई, तुम्हें समझाना भी चाहा था पर तुम बैल बुध्दि जो हो, कहां समझे।

सुकून तलाशते हम यहां आ गए पर आज इतने सालों बाद भी हम तुम्हें याद करते हैं कुंदन। हमें माफ़ कर दो भाई...
-----------------------------------------------------------------------

ओफ्फो, अरे कभी इस फोन को छोड़ भी दिया करो, कब से तो डोरबेल बजी जा रही है, ये नहीं कि उठ के देख ही लूँ... अब क्या आ रहे हो, जाओ पसरो अपनी मुई चेयर पे, अब तो आ ही गई मैं। ये भी पता नहीं कौन आ गया दोपहर के समय, आ गई बबा....
................
................

कौन है प्रिया.... कुंदन तू....


हाँ कमीने मैं, अंदर नहीं बुलाएगी दी।
हूं, घर तो बड़ा अच्छा बना रखा है यार,........ अरे तुम दोनों ऐसे क्या देख रहे हो, शॉक लगा क्या, आओ आओ, बैठो ना, तुम्हारा ही तो घर है।...........
यार बड़ी प्यास लगी है, पानी वाली पिलाने का रिवाज है तुम्हारे अमरिक्का में। और हां चोट्टी सुन, आज शाम को ही वापस जाना है मुझे, जो करना वरना है जल्दी कर लियो .................
अबे घूर क्यों रहे हो तुम दोनों, राखी नहीं मिलती क्या तुम्हारे अमरीका में.....



अजीत
29 अगस्त 16

Tuesday, 23 August 2016

पहला प्यार


आप में से कितने लोगों को अपना पहला प्यार याद है? सच में सोच के बताइयेगा, पहला प्यार हाँ, पहला कामयाब प्यार नहीं।

जहां तक मुझे याद है मेरा वास्तविक वाला बिलकुल जेनुइन, दिल की धड़कन बढ़ा देने वाला पहला प्यार कक्षा चार (हमारे यहां वैसे बोलते समय मुँह से कच्छा ही निकलता है) में हुआ था। ... अरे नहीं, मैडम से नहीं, हिंदी मीडियम विद्यालय वाले हैं भई, पब्लिक स्कूल वाले नहीं जो 'मैम' से प्यार हो जाए, हिंदी वाले विद्यालयों में 'बहिन जी' होती हैं। वैसा फील नहीं आ पाता। तो वो जो थी ना, हमारे ही कक्षा में पढ़ती थी, हम लड़कों वाली रो के साइड वाले फ्रंट बेंचर और वो लड़कियों वाली रो की।

नये नये आये थे हम मथुरा से, उस प्रेम नगरी का ही कुछ प्रभाव रहा होगा शायद। पिता जी जब हेड मासाब के ऑफिस से एक शक्ल से ही लगने वाले घनघोर जालिम माट साब के हवाले किये तो गंगा मैया की कसम पैन्ट गीली होते होते रही थी, जाने कहां फँस गये, पर जब क्लास में प्रवेश किये तो दो में से एक चुटिया के अंतिम छोरों के बालों के बीच से झांकते उन बिलकुल काली आँखों को देखते ही दिल जो धड़का कि लगा, ओ बेट्टा जी, जे का भवा।

पढ़ने लिखने में हम तो बचपन से ही 'तुषार कपूर' थे, स्कूल जाना तो जैसे रोज का 'काला पानी', पर अब उस लड़की को देखने के बाद स्कूल से आते ही अगले दिन स्कूल जाने का इंतज़ार रहता। इक बार अंग्रेजी वाले माट साब सनक गये, एक एक कर सारे बच्चों से एप्पल की स्पेलिंग पूछने लगे, इतना खूंखार चेहरा था उनका बच्चे डर के मारे सब उल्टा पुल्टा बोल दें, और फिर डस्टर से दो डस्टर उलटे हाथ पर। मेरी बारी आई तो डर के मारे कुछ भी मुँह से निकाल दिया, आती नहीं थी स्पेलिंग, जो भी बोलते गलत ही बोलते पर वो कहते हैं ना कि 'जिसके ऊपर हो तुम स्वामी...' तुक्का लग गया। पूरी छियालीस बच्चों की क्लास में एक मैं और दूसरी वो मार खाने से बचे, हम दोनों को ही खड़ा कर हमारी तारीफ़ हुई।

अब तो भई, हम दो ब्रिलिएंट, नोट्स एक्सचेंज होने लगे, एक दूसरे के टिफिन शेयर, पता नहीं ब्रेड के साथ कोई वो लिसलिसा जैम कैसे खा सकता है। ओहो भाई साब, क्या दिन थे, केवल उसको इम्प्रेस करने के लिए तेरह का पहाड़ा पूरा याद कर लिया था।

हमारी ये दोस्ती धुँवाधार चल रही थी और मैं अपने अंदर हिम्मत जगा रहा था कि जैसे भी हो इस दोस्ती को रिश्तेदारी में... नहीं नहीं ये तो बड़े लोग करते हैं... दोस्ती तो 'मोहोब्बत' में बदल दूँ। बड़ी रिसर्च के बाद पक्का किया कि अपने जन्मदिन के दिन क्लास में टॉफी बांटने के बाद उसे इंटरवल में अपने दिल की बात बताई जाये।

बड़े मन से उस दिन उसे चापाकल के पास वाले पेड़ के नीचे ले आये और बोले, ए हमको तुमसे कुछ कहना है, वो क्या है न कि हम... इतना ही अभी बोल पाये थे कि उसे जोर की आक-छिं आ गई, नाक से निकला इतना बड़ा गुब्बारा पहली बार ही देखा था मैंने, हालाँकि थूक से तो हम लड़के गुब्बारे बनाते ही रहते थे, आप भी ट्राई करना, पर नाक से निकला गुब्बारा, फिर वो फट्ट की आवाज से उसका फूट जाना और होंठों से होता हुआ ठुड्डी तक पहुंचना...। एक जोर की उलटी के साथ अंदर भरा सारा प्यार बाहर।

जी यही था मेरा पहला प्यार...
--------------------------------------------------------------------------

अजीत
24 अगस्त 16

Monday, 22 August 2016

राम मिलाये जोड़ी


राम मिलाये जोड़ी...
...........................................................................

एक रहें जी पी सिंह। गजबे किरान्तिकारी, ना ना, आप गलत मत बूझिये, सब जेएनयू टाइप ही नहीं होते, ई थोड़े अलग टाइप के थे। क्रांति की शुरुआत अपने नाम से ही किये। दरअसल हुआ ये कि इनके चार अग्रज शैशवावस्था में ही कालकलवित हो गए तो पूर्वांचल बिहार की परम्परानुसार इनका अटपटा नाम रखा गया, घुस्सु परसाद। भले ही शुभ कामना से रखा गया हो, पर बताइये, जे भी कोई नाम हुआ, तो पहली फुर्सत में इन्होंने स्वयं का नामकरण किया ग्रिजेश प्रताप।

इतने किरान्तिकारी थे बचपन से कि जो कहा जाए उसका उल्टा ही करते। सब्जी मंडी जाते तो छाँट के रूढ़ भिन्डी और पिलपिले टमाटर लाते। पढ़ाई से इतना प्यार करते कि किताबों के अंदर पहिले कॉमिक्स फिर बड़े होने पर 'वेद प्रकाश शर्मा' या 'पाठक' डाल कर पढ़ते। माँ बाप की उम्मीदों का सफलतापूर्वक चूरा बनाते हुए कुल मिलाकर डेढ़ पंचवर्षीय योजना में 10वीं और 12वीं निपटाया। डॉक्टर इंजिनियर तो अब किस बूते बनते तो यूपी कॉलेज से बीए शुरू। अब ई उमर में प्रेम ना हो तो जिनगी बेकार है रे साथी। भरकस परयास चालू किये और कहते हैं न कि करत करत अभ्यास से... तो एक सावली सलोनी को अपने इशक में गिरफ्तार करा ही लिए। ओहो, फिर तो जो आनंद मिला जीवन का, बनारस कोई मुम्बई तो है नहीं तो गुपचुप इशारे होते, संकेतों से ही रूठना मनाना। नया नया मोबाइल चला तो अम्बानी को धनबाद देते हुए लंबी लंबी बातों के दौर चलने लगे। बड़ी हिम्मत से एक बार मिलने का प्रोग्राम बनाया भारत माता मंदिर में। विद्यापीठ के पास इस मंदिर और साथ लगे पार्क में ज्यादा भीड़ नहीं होती, वो क्या हैं ना कि ई SM में ही सारी भक्ति उड़ेल देने के बाद कुछ बचता जो नहीं है। आहा, इतने एकांत की पहली मुलाकात, तनी मनी प्रैक्टिकल करने का मौका, गंगा सिनेमा की मूवी याद आने लगी। वापस आते समय चेहरा अइसे जइसे... अब खुदे बूझ जाइये। फिर तो बनारस का कोई पार्क नहीं बचा जहां ये दो फूल आपस में लड़ ना जाते हों।
अब तो भाई किरान्तिकारी दिल ने प्रेम विवाह की ठान ली, मुहूर्त वगैरह निकाल लिए भगने का, और पीछे एक चिट्ठी छोड़ पहुंच गए कैंट स्टेशन। बेचारे फोन पर फोन किये जा रहे अपनी माशूका को और उधर से कोई जवाब नहीं। लौट के बुद्धू घर को आये। पर तब तक बाबूजी पढ़ चुके थे क्रांति का घोषणापत्र, फिर तो गालों पर आधा दिन और पीठ पर एक महीना क्रांति के लाल काले नीले निशान पड़े रहे। रे साथी, प्रेम बड़ा दर्द देता है रे।
सामन्तशाही ने कभी भी क्रांति को स्वीकार नहीं किया, संधि और शांति के सारे परयासों को कुचलते हुए सामन्त बाप ने बियाह तय कर दिया लड़के का, और जुलम ये कि लड़की की तस्वीर तक ना दिखाई। दिन नजदीक आते जाते, हल्दी के पीले रंग से खून और खौलता, पर उस लउर व उससे पड़े लाल काले नीले निशान याद आते ही खौलता खून झाग की तरह बैठ जाता। आखिर शादी हो ही गई, अब जब हो ही गई तो का कर सकत हैं। अपरम्परागत शराब पीकर और परंपरागत पान चुभलाते पहुँचे अपने कमरे में, देखा, दुल्हिन बैठी है अवगुंठन डाले। गला खखार के नजदीक बैठे, पान का आधा रस उदरस्थ और आधा बचाये रख ऊपर मुँह कर भरकस रोबीली आवाज में बोले,
सुनिए, देखिये हम लोग नई जिनगी शुरू करे जा रहे है तो अदरवाइज मत लीजियेगा, वो क्या है कि आई मीन टु से, हम लोगों को न एकदूसरे को अपनी पुरानी जिनगी के बारे में ना सबकुछ सच सच बात देना चाहिए, दैट्स भाई कि आगे कोनो कनफूजन ना रहे। एक्चुली हम ओपन माइंड हैं, तो बताइए अपने बारे में। (कॉकटेल पी लिए थे तो भाषा भी कॉकटेल ही न निकलेगी)

ल, चुप काहे हैं, अच्छा शर्मा रही हैं, तो चलिए हम ही पाहिले बताते हैं। देखिये हम बहुते शरीफ टाइप के आदमी हैं। लब वभ से कउनो प्रोबलम नहीं है पर हम कबो ना किये। बाबूजी जहां कहे हम चुप मार के मान लिए। अब कोई बुरा थोड़ी ना चाहेंगे हमरे बदे। अच्छा चलिये अब आप बताइए। अब बोलिए भी, गूंगी तो नहीं हैं न आप।
लड़की भी बेचारी कई रातों की जगी, थकी आवाज में, जी हम भी ई लब सभ नहीं मानते, छी छी, का जरूरत है ई सब का, हम भी कबो ना परे इसके फेरा में।
मन में लड्डू फोड़ते, बचा हुआ पान रस पीने के बाद, सौन्दर्यपान की अभिलाषा लिए धीरे धीरे घूंघट उठाया, अहा क्या चेहरा, ठुड्डी के नीचे उंगली लगा चेहरा उठाया और...
तुम....
लड़की भी
तुम...
............................................................................
जा ए ग्रिजेश प्रताप, तू घुस्सु प्रसाद ही निकले...
.............................................................................


अजीत
22 अगस्त 16

Sunday, 14 August 2016

जो शहीद हुए हैं उनकी...


रमेसरा बहुते साधारण टाइप का लड़का था। साधारण जिले के साधारण गांव के साधारण किसान परिवार में जन्मा। थोड़ी सी खेती थी जो हर दूसरे साल मौसम की भेंट चढ़ जाती। इस पूत के पांव दिखने लगे थे बचपन से ही। गजब का चटोर और चोट्टा, राब गुड़ अचार इससे बचा के रखना पड़ता। कुछ नहीं पाता तो डलिया भर बाजरा या गेंहू ले पहुँच जाता बनिए के यहां, गावों में आज भी विनिमय का ये तरीका अपनाया जाता है। आलसी बड़ा वाला, एक काम टाइम पर नहीं करता, और मजबूरी में करना ही पड़े तो इतने बुरे तरीके से करता कि अगला उसे फिर कभी कोई काम बोल ही ना सके। स्कूल जाना बहुत पसंद करता, पर खाली जाना हाँ, पढ़ना नहीं, क्योंकि रास्ते में सड़क किनारे ढेरों आम बढ़हल कटहल जामुन बेर के पेड़ मिलते। उस टाइम गुरूजी लोग भी इतना पीटते कि कौन पिटने जाए, इससे तो अच्छा की बगीचे में कंचे खेल लो।
कोढ़ में खाज ये कि टीवी पुरे गाँव में सिर्फ इसके यहाँ, लाइट हो ना हो टीवी जरूर चलती, जुगाड़ में हमारे लोगों का ऐसे ही इतना नाम नहीं है, कार या ट्रक की बैटरी से आराम से चल जाते। लोग टीवी के साथ बैटरी भी याद से खरीद लेते, चार्जिंग फी यही कोई दो तीन रुपये। तो प्रोग्राम आता दिन में जो बंक मारने का बहुत बड़ा कारण था, शक्तिमान और युग बदला बदला हिन्दोस्तान।
जैसे तैसे 10वीं पास कर ली, इससे ज्यादा पढ़ने की हिम्मत ना थी छोरे में, सिर्फ आगे और ना पढ़ना पड़े, बन्दे ने सुबह सुबह भर्ती की तैयारी करते लड़कों की देखा देखी दौड़ लगानी शुरू कर दी। बैल बुद्धि तो था ही, ऊपर से लड़के ललकार भी देते, शुरू शुरू में तो सिर्फ पढ़ना ना पड़े इसके लालच में ये सब शुरू किया फिर उसका मन लग गया इसमें। दौड़ते हुए अपने शरीर से बहता पसीना और कसरत के बाद फूलते पिचकते मसल अच्छे लगने लगे। सुबह दौड़ते हुए गंगा तक जाना, फिर लंबी कूद की प्रैक्टिस, फिर वहीं नहा वहा के, साथ लाये भीगे चने चबाना, दोपहर बीतते ही सड़कों पर दौड़ लगाना फिर वापस आकर दंड बैठक डिप्स जैसे पचासों कसरतें करना उसका शौक हो गया।
पहली भर्ती बनारस देने गया, लंबाई थोड़ी कम रह गई, गुस्से में भुनभुनाता वापस आया और रोज घंटों पुल अप करने लगा, अगली भर्ती में फिजिकल स्टैण्डर्ड टेस्ट पास कर गया पर फिजिकल एफिशिएंसी टेस्ट में भरी दोपहरिया में थकान और डिहाइड्रेशन की वजह से दौड़ में रह गया। अब उसने गर्मियों की दोपहर में भी दौड़ना शुरू किया।
इलाहाबाद वाली भर्ती में उसकी मेहनत रंग लाई, रिटेन और मेडिकल भी निकल गए। सेलेक्ट हो गया सीआरपीएफ में। ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग काश्मीर मिली। कंपनी में अलग अलग राज्यों के बन्दे, सहज होने में थोड़ा समय लगा फिर सब ठीक हो गया। एक बार यूनिफॉर्म के कंधे की स्ट्रिप नहीं लगी थी तो साथियों ने मजाक बनाया कि क्यों बे तेरे दिन चल रहे हैं क्या। महिला सिपाही 'उन दिनों' में अपने कंधे की स्ट्रिप के बटन नहीं लगाती, ताकि कमांडर समझ जाए और ज्यादा भारी ड्यूटी ना लगाये। वैसे इन लड़कियों को देखकर बड़ा ताज्जुब होता, फिजिकल में भले ही मापदंड कम हों पर यहां मेहनत तो वो भी बराबर ही करती थी।
पहली बार जब दो महीने की छुट्टी में घर जाने का मौका मिला तो किसी आर्मी वाले की हेल्प से आर्मी कैंटीन से ढेर सारे डव लाइफबॉय आंवला तेल और ना जाने क्या क्या ले गया। दूसरे दिन ही पिता ने बरक्षा तय कर दिया था, लड़का नौकरी में है तो दाम भी अच्छे लगे थे। अगले साल शादी भी हो गई और कुछ ही दिनों में साहबेऔलाद भी हो गया।
काश्मीर यूनिवर्सिटी के गेट पर ड्यूटी थी तो वहाँ के लड़के लड़कियां मुस्कुराते हिकारत की नजर से देख आगे बढ़ जाते। एक बार एक लड़की ने तंज कसा, तुम लोगों की जरूरत नहीं यहां, गो बैक। इसने जवाब दिया, मैडम तुम पढ़ा लिखा है, मुझसे क्यों बोलता है, तुम वोट डालता है ना, अपने नेता से बोलो, मैं तो अपना ड्यूटी देता है।
खबर मिली कि कुछ आतंकी एक घर में छुपे बैठे हैं। मोर्चा लेने इसकी कंपनी गई। घंटो फायरिंग के बाद जब उधर से आवाजे आनी बन्द हुई तो कमांडर ने इसे आगे बढ़ कर खिड़की में से घर के अंदर बम फेंकने को कहा, कोहनी और घुटनों के बल बहुत तेज चलता था ये, छिपकली की तरह सरपट भाग बम फेंक आया, फिर हुक्म मिला, फिर गया, ऐसे ही सात बम फेंक आया। आंठवी बार भी यही हुक्म मिला तो बैल बुद्धि, सीना तान आगे बढ़ा, जब सात बार में कुछ नहीं हुआ, जो अंदर होगा वो तो मर ही गया होगा न, खिड़की पर पहुंच बम फेंकने की जगह अंदर झाँकने लगा, अंदर देखा कि जमीन से लगी लकड़ी के फट्टे से एक नाल झांक रही है और फिर रेट रेट...
साधारण किसान का बेटा बाकियों के लिए साधारण मौत मर गया। रमेश चंद्र का शरीर घर पहुंचा दिया गया, शहीद के तमगे के बिना, इस फोर्स के लोगों को सिर्फ अखबार के एक छोटे से टुकड़े में ही शहीद कहा जाता है।
अजीत
15 अगस्त 16

वंदे मातरम

पुस्तक कला नाम का एक विषय हुआ करता था, छोटी मोटी घरेलू चीजें, सजावटी सामान बनाना सिखाते थे उसमें। चिरौरी करके बीस पच्चीस रूपये निकलवा लेते मम्मी से, सुतली रस्सी और रंगीन अबरी पेपर खरीद लाते। गोंद घर में ही बना लेते आंटे का, बदबू बहुत आती थी उससे। जैसे तैसे काट कूट के बनाते ढेरों रंगीन झंडियां, पूरी छत पर कतरने उड़ा करती।
वैसे बाकी तैयारियां एक महीने पहले से ही शुरू हो जाती थी, छोटा सा स्कूल था हमारा, जैसे जैसे दिन नजदीक आते, क्लासेज कम लगती, तैयारी का समय बढ़ता जाता। कोई "सारे जहां से अच्छा..., हम होंगे कामयाब..., ऐ मेरे वतन के लोगों..." जैसे गाने गाता तो कोई लंबी लंबी स्पीचें रटता, कुछ लड़कियां डांस करती। डांस वांस तो हमें आता नहीं था, पर उस समय गला सुरीला था, तो एक गाने के ग्रुप में शामिल कर लिया गया। साथ में सुर में सुर मिला लेते, पर गाना याद नहीं हुआ, प्रिंसिपल मैडम ने पकड़ लिया कि ये तो कमजोर कड़ी है, ग्रुप से हो गए बाहर। फिर ये सोचकर कि बालक मन पर कोई बुरा प्रभाव ना पड़े तो चुटकुला सुनाने का काम दिया हमें।
गजब उन्माद सा था 14 की रात, नींद ही नहीं आ रही थी कि कब सुबह हो और कब भागें स्कूल। रात में 6-7 बार तो नींद टूटी होगी, बार बार अँधेरा देख गुस्सा आता। जैसे ही पहली किरण का आभास हुआ, फटाफट नहा वहा के तैयार, आधा अधूरा नाश्ता किया और पहुंच गए स्कूल। झंडे के अंदर डालने के लिए कितने ही घरों से मांग कर, या चोरी कर ढेर सारे फूल इकट्ठा किया गया। फिर हम दो लड़के छत पर चढ़े झंडा फिट करने, पहली दो बार तो हरा ऊपर और केसरिया नीचे हो गया था। सारे ही बच्चे छोटे मोटे काम कर रहे थे। फिर प्रभात फेरी निकालने की जल्दी मची। सबसे आगे तिरंगा लिए एक बालक, पीछे स्कूल का नाम लिखा बैनर लिए एक लड़का एक लड़की, और उनके पीछे पूरा स्कूल छोटे छोटे तिरंगों के साथ, मा साब और बहन जी लोग दाएं बाएं। बुलंद आवाज वाले लड़के नारा लगाते, पीछे वाले जय जिंदाबाद अमर रहे बोलते। ये वाला सबसे अच्छा लगता, अन्न जहां का .... वो है प्यारा....। लोग बाहर निकल निकल कर देखते। गार्जियन लोग दिख जाते जग में पानी लिए अपने अपने घर के बाहर। ऐसे ही गाते चीखते चिल्लाते यही कोई पांच सात किलोमीटर का चक्कर लगा वापस स्कूल पहुंचे, थक तो गये थे पर उत्साह कम नहीं हुआ था। लाइन लगा खड़े थे और प्रिंसिपल मैम ने रस्सी खींच दी। वो लहराता तिरंगा और उससे निकल कर हवा में तैरती हुई नीचे की ओर आती फूलों की पंखुड़ियां, आज भी याद आ जाती हैं।
जन गण मन के बाद तीन चार बोरिंग भाषण सुनने पड़े बड़े लोगों के, फिर हम बच्चों की बारी आई। नाच गाना, फिर मेरे नंबर से पहले प्रतिभा दीदी ने गाना गाया था, ऐ मेरे वतन के लोगों... गाते गाते खुद रो पड़ी, साथ मुझे भी रुला दिया (ये ताना कई बार सुन चुका हूं, 'मर्द होके रोते हो', उस समय तो निपट बालक ही था)। अब चढ़ तो गया स्टेज पर, पर चुटकुला याद आये तब ना, मन तो 'जो शहीद हुए हैं.....' पर अटका था। पीछे से किसी ने शुरू के कुछ शब्द बोले तो जैसे तैसे चुटकुला सूना दिया, कोई नहीं हँसा। फिर अंत में दोना भर बुनिया मिला था।
----------------------
अब लगता है कि शायद बच्चे ही बचे हैं जो मन से मनाते हैं 15 अगस्त। अहसास भी है किसी को कि कैसे और कितने संघर्ष से मिली हैं ये, क्या कोई वैल्यू बची है हमारी नजरों में इसकी, क्यों होगी, फ्री में जो मिल गई। अपने घर के सदस्य का बड्डे कितने जोशोखरोश से मनाते हैं पर देश के लिए इतनी लापरवाही। 4 जुलाई का अमेरिका या 14 जुलाई का फ्रांस देखिये और सोचिये कि आप कितने नाशुक्रे हैं।
हर बात में दूसरों को, सरकार को गरिया दो पर खुद को मत देखना कभी। सबसे आसान काम जो है।
देशभक्ति सिर्फ फौजियों के लिए रिजर्व नहीं है और ना ही शहीद होना जरूरी है। जो करते हो बस वही करो, पर ईमानदारी से, इतना काफी है, इससे ज्यादा की जरूरत नहीं।
वंदे मातरम

अजीत
13 अगस्त 16

पडोस

अपने मोहल्ले में, मतलब गली में, शुरू शुरू में 4 घर थे। हमारा, सामने ठाकुर साब, दाएं बगल त्रिवेदी जी और उनके सामने पांडे जी। दस बारह साल हमारे किरायेदार रहे डॉक्टर साब भी हमारे बाएं बस गए। पांडे जी से आप लोग पहले भी मिल चुके हैं। तो ये हमारा छोटा सा मोहल्ला था, सारे के सारे ही उच्च शिक्षित, घरों के मुखिया ऊँचे सरकारी पदों पर। आपस में सौहार्द उतना ही था जितना ग्रामीण परिवेश से निकले मध्यमवर्गीय परिवारों में होता है। सबकी अलग विचारधारा, इसलिए खुद को छोड़ अन्य सभी अजीब टाइप के लोग थे। सुख दुख में इतना साथ जरूर देते कि सलाह देने और फिर मीनमेख निकालने पहुंच जाते, ई कर लेना त उ हो जाएगा, अइसे नहीं भाई वइसे न करना था, हम त पहिलही कहे रहे, बात नहीं मानियेगा त यही न होगा, आदि इत्यादि।
जैसा कि सामान्यतः हर मोहल्ले में होता है, एक दूसरे से ऊंचा दिखने की कामना सबमें ही थी, अब दिखे कैसे, तो इसके निमित्त बनते घर के सामान, सुविधाएं। पांडे जी को सबसे पहले फोन लगाने का अभिमान था, फोन की वजह से रूतबे में अप्रत्याशित उछाल आ गया मानों, जिसे देखो उसी की इनकमिंग आ जाती, झल्ला जाते, रौब दिखाते। कुछ ही दिनों में हमारे यहां भी फोन लग गया और वो पटा गये। किसी के यहां फ्रीज पहले आया तो किसी के यहां मिक्सर ग्राइंडर, जिसके यहां पहले सामान आ जाता वो खुद की नजर में ही ऊपर उठ जाता।
त्रिवेदी जी से उनकी बझी रहती हमेशा, त्रिवेदी जी श्वेत वेश श्वेत केश और श्वेत दाढ़ी वाले बाबा टाइप पुरुष थे, संस्कृत हिंदी इंग्लिश के प्रकांड विद्वान, ग्रह नक्षत्र नाड़ी विज्ञान पर भी पकड़ थी। जब मैंने होश संभाला तभी से रिटायर थे नौकरी से, आज भी जीवित और पूरी तरह स्वस्थ। वन्स अपान अ टाइम, पांडे जी को कोई काम करवाते समय कुछ हजार पांच सौ ईंटों की कमी पड़ गई तो त्रिवेदी जी की काई जमी ईंटें मांग ली। जब वापस देने का समय आया तो बोले कि तुम्हारी ईंटें गन्दी थी। त्रिवेदी कहां कम, बोले लाओ तुम ईंटें तो दो, मैं मजदूर लगवाकर उन्हें गन्दा करवा लूंगा। अजीबोगरीब बात पर लड़ जाते और बारी बारी से मेरे पापा से दूसरे की शिकायत कर जाते।
डाकदर बाबू रेडियो के रसिया, ड्यूटी से वापस आकर सीलोन से लेकर नेपाल तक के स्टेशन पकड़ लेते। लाइट बहुत जाती थी, रात 11-12 बजे तक हमारे बरामदे में डटे रहते। सोचता था कि कोई इंसान का बच्चा कैसे इतनी देर तक कुर्सी पर उकड़ू बैठ सकता है। क्रिकेट के दीवाने, भारत पाक का मैच था, अंतिम ओवर और ये जनाब रेडियो छोड़ बाहर जमीन पर उकड़ू बैठ गए। थोड़ी देर बाद हम लोग मातमी मुँह बनाये बाहर निकले तो फट पड़े, जानत रहें हम, ई साला रोबिनवा कउनो काम का नहीं है, गदहा मतिन मोटा के ससुर क्रिकेट खेलिहें, हम कितना जब्त करते, हँस पड़े, बताया कि छक्का पड़ा और हम जीत गए। जब पूरी तरह विश्वास हो गया तो बोले, देखा, हम कहे रहे ना, ई रोबिनवा में कोई बात है, गजब जुझारू लड़का है।
पर मोहल्ले का नगीना थे ठाकुर साब, पापा और ये चंदौली में एक ही कॉलेज से डिप्लोमा किये, ये पहले सीनियर थे फिर साथी बन गए, फिर जमीन भी आमने सामने खरीदी, मकान बनाया लगभग एक ही डिजाइन का। महिलाओं में भी इतनी मित्रता हो गई थी कि घंटिया लगी थी दोनों घरों में, इधर बजाओ तो उनके घर में, उधर बजाओ तो हमारे घर में चिड़िया चहचहाती। थे तो थोड़े नाटे से, पर इसकी भरपाई अपनी आवाज से कर लेते। फोन पर बतियाते तो मोहल्ला जान जाता कि क्या मसला है। शुद्ध परिष्कृत और विशिष्ट गालियों के जनक थे, इनसे सीखा जा सकता था कि सामान्य बोलचाल से किसी के कानों से कैसे खून निकाल लो आप। रिटायर हो गए तो हमारे 16 घंटे मनोरंजन का जुगाड़ हो गया। सुबह दतुवन करते तो जो विचित्र आवाजें निकलती कि कोई माई का लाल उस समय नाश्ता नहीं कर सकता था। फिर निकलते बाहर एक डंडा लेकर अपनी नाली साफ़ करने, रोज का नियम था। एक बार डाक साब का छः वर्षीय सुपुत्र इनके सामने कमर पर हाथ रख खड़ा हो गया, बोला, का चचा, तोके कउनो अउर काम धाम ना हव का जवन कि रोजे नलिये साफ़ करेला। उस समय मैं और मेरे बड़े भाई छत पर चाय पी रहे थे और पापा सेविंग, इतनी कस के हँसी आई कि पापा ने अपना गाल काट लिया और हम दोनों भाइयों ने चाय का फुहारा मार अपने कपड़े गन्दे कर लिए। पड़ोसी मोहल्ले में कुछ सूवरें थी जो आ जाती हमारी नालियों में अपना नाश्ता खोजने, कितना भगाओ पर ये ढींठ, हिलती तक नहीं। एक बार इन्हें आया गुस्सा, हाथ फैला खड़े हो गए, बोले, भाग जो इहाँ से तोरी मतारी क..... और गहन आश्चर्य कि वो अपनी मतारी की इज्जत बचाते हुए पलट के भग ली। पहली बरसात के बाद निकलने वाले पीले मेंढकों के टर्राने से इतना व्यथित हो गए कि टॉर्च लेकर निकल पड़े, और एक एक मेंढक को इतना हड़काया कि पूरे पांच मिनट शांति रही।
इन सबमे पापा सबसे कम उम्र थे, फिर भी ये चारों महाशय हमारे यहाँ ही जुटते, ज्ञान विज्ञान धर्म राजनीति पर चर्चाएं होती। आपस में झगड़ा वगड़ा हो तो शिकायत भी पापा से की जाती। पांडे जी तो पहले ही निकल लिए, फिर पापा भी, उनके जाने के बाद कोई बैठकी कभी हो ना पाई। आज भी ठाकुर साब सारे ही काम करते हैं पर आवाज में वो बुलंदी नहीं दिखती, त्रिवेदी जी भी चुपचाप अपने घर में पूजा पाठ में लगे रहते है और डाक साब तो अब दिखते ही नहीं।

अजीत
9 अगस्त 16

मित्र

ट्रेन से पीलीभीत पहुँचने के बाद 1 खटारा सी रोडवेज बस में पहली बार पहाड़ की यात्रा शुरू हुई थी। 3-4 घंटे की खड़खड़ तड़तड़ से त्रस्त होने के बाद जब टनकपुर से आगे बढ़े तब पहली बार सुकून सा मिला, बस वही थी पर बाहर के नजारे बदल गए थे, अचानक ही ठण्ड बढ़ सी गई, इतनी हरियाली, पेड़ों की पत्तियां पतली होती जा रही थी, फिर वो बड़े दिन वाले पेड़ों की तरह के पेड़ दिखे, चीड़, और उनसे बहकर आती हुई अलग सी खुश्बू, एक डेढ़ घण्टे बाद बादलों से हमारी दूरी कम इतनी कम हो गई कि वो हमारे साथ ही चलने से लगे, कभी तो लगता कि वो बस के अंदर ही घुस गए हों, ये ऊँचे पहाड़, और वो गहरी खाइयां, कहीं कहीं पतली पतली पानी की धाराएं सड़क पर आती और फिर खाई में गिरती दिख जाती।रोमांच चरम पर था, मन करता कि निकल जाऊ बस से, चढ़ जाऊं पहाड़ों पर। 

तबादला हुआ था पापा का, लोहाघाट, उस समय का यूपी, आज का उत्तराखंड। शायद पहली बार थैंकफुल था पापा के लिए कि मुझे वो इतनी खूबसूरत जगह ले आये थे। लोहाघाट जैसे कटोरी में बसा कस्बा टाइप शहर, आठों तरफ विशाल पहाड़, एक मकान की छत दूसरे की दहलीज, सांप जैसी सड़कें, बड़ी बड़ी सीढ़ियों वाले रास्ते और उनकी दोनों तरफ दुकानें।

राजकीय विद्यालय में एडमिशन लिया नवीं क्लास में, ख़ुशी ख़ुशी गया कि नया दिन, नये दोस्त बनेंगे, पर अनुभव खराब रहा। कोई खुद आगे नहीं आया दोस्ती करने, 100 से ज्यादा बच्चों में दुर्भाग्यवश अकेला देशी था मैं, देशी मतलब जो पहाड़ी नहीं। कुछ ही दिन में प्रसिद्ध हो गया था, नाम तो शायद ही किसी को याद हो पर नए नामकरण हो गए, देशी, बनारसी, बिहारी। कोई दोस्त नहीं, चिढ़ाने वाले सारे, कोई कोई तो पीछे से चपत भी लगा देता, 3-4 बार धुलाई भी कर दी गई तबियत से। इंटरवल में चुपचाप जंगले पर बैठा रहता, सोचता की सामने से मेरे 8वीं के दोस्त चन्द्रिका प्रेम आ रहे हैं और मैंने उन्हें दौड़ के गले लगा लिया है। खूब रोता अकेले में, नफरत सी हो गई पहाड़ियों से, कत्ल कर देने का मन करता। बच्चे तो बच्चे, अध्यापक लोग भी कम नहीं थे, देशी अध्यापक तो पढ़ाते और निकल लेते पर कुछ पहाड़ी अध्यापक मजे लेते, हिंदी के गुरूजी बहुत चिढ़ते थेे देसियों से, पढ़ाते प्रेमचन्द और कबीर को, मजाक बनारस का उड़ाते। बैंक में गया किसी काम से तो क्लर्क ने पूछा कि बनारस बिहार में है ना। कुल मिला के गजब नफरत करते लोग देसियों से। 

अब सोचता हूँ तो समझ आता है कि कारण भी था इसका, अलग राज्य का आंदोलन जोरों पर था, सरकार सारी खटारा बसें पहाड़ों पर भेज देती, करप्ट अफसरों को दंड के तौर पर पहाड़ पर भेज दिया जाता, सबसे बेकार पुलिस अध्यापक डॉक्टर इंजीनियर अफसर मिलते पहाड़ को, लोग नफरत करते और वो उनके बच्चों में भी आ जाती।

इतना डिप्रेस हो गया कि 9वीं में फेल हो गया। 14 बच्चे फेल थे, अब मेरी नई पहचान देशी नहीं रह गई, फेलियर हो गई, उन्ही फेलियरों में 1 था प्रकाश जोशी। मेरा पहला पहाड़ी दोस्त, सुन्दर सा, गोरा, हल्के सफेदी लिए बाल। गरीब, ठेठ पहाड़ी, स को श बोलने वाला। पहली बार क्लास बंक उसके ही साथ की थी, हम दोनों ने एक साथ सिगरेट पीना शुरू किया, फेलियर थे तो दबदबा सा हो गया, डर खत्म हो गया था। रोज ही क्लास बंक कर चढ़ जाते पहाड़ों पर, जंगली मुर्गियां खोजते, बुरांश के फूल, काफल और ककड़ी तोड़ते, खाते, भवल्टा नाम की एक जगह थी एक पहाड़ी पर, अंग्रेजो की पुरानी बस्ती, थोड़ी दूर पर उनका कब्रिस्तान, अधिकतर भगोड़े लड़के वहीं आकर ताश खेलते। हम दोनों को ये लत नहीं थी, दिन भर बात करने में निकाल देते। एक दिन तो पता नहीं क्या फितूर चढ़ा कि एक कब्र खोद दी, अक्ल नहीं थी, आज अफ़सोस है। पहाड़ी लोग नाम छोटा कर देते हैं, मैं अजीत से अज्जू या अज्या बन गया था और प्रकाश पर्क्या या पारो।

पांच साल रहा पहाड़ पर, मोहब्बत सी हो गई इनसे, बहुत अच्छे दोस्त बने यहां, एक से बढ़ कर एक, दो बड़ी प्यारी लड़कियों ने भाई माना मुझे, फिर कुछ सालों बाद एक पहाड़ी लड़की से ही प्यार भी हुआ, शादी हुई। आज भी पहाड़ के नजदीक ही रहता हूँ, घर की छत से नैनीताल दिखता है जगमगाता हुआ।

अगर प्रकाश नहीं होता तो शायद आज भी नफरत करता पहाड़ियों से, प्रकाश ना होता तो अन्धेरा ही रहता सालों तक मेरे जीवन में। आखिरी दिन एक दूसरे से अलग होते समय खूब रोये थे हम गले मिलकर, बाजार के लोग रुक रुक कर देखते पर हम रोये जा रहे थे, अपना बनारस का एड्रेस दिया था उसे, पता नहीं एड्रेस गलत था या जाने क्या, आज तक कोई चिट्ठी नहीं आई उसकी।

सुबह से फेसबुक पर फ्रेंडशिप डे चल रहा था तो उसकी याद आ गई।



अजीत
7 अगस्त 16

नाग पंचमी

कल नाग पंचमी है, नहीं पता कि क्यों मनाते है इसे पर मुझे बचपन से ही ये दिन बहुत अच्छा लगता था। मैं और मेरा छोटा चचेरा भाई कभी कभी मिलने वाले 10-20 पैसे बचा बचा कर यहीं कुछ 5-6 रूपये जमा कर लेते, इस दिन छोटी छोटी दुकानों पर छोटे छोटे चित्र बिका करते थे नागों के, अलग अलग तरह के, शेषनाग पर लेटे विष्णु, वासुकी पर नाचते कृष्ण, नीलकंठ के गले में लिपटे नागराज, और भी तरह तरह के एकमुहे से पंचमुहें छमुहें साँप। बच्चा ही था, घर में पूजा पाठ की परंपरा कुछ खास नहीं थी, पर नास्तिक कोई नहीं था मेरे अलावा। पर इस दिन इन चित्रों पर बहुत प्यार सा आता था, रंग बिरंगे, चमकते, छूने पर उंगलिया जैसे तैरती थी इन पर। हम दोनों भाई देर तक उनमें से सबसे बढ़िया छांटने की कोशिश करते, डिस्प्यूट होने पर 11 महीने बड़े और 1 क्लास आगे होने से मेरा वीटो चलता। 12-15 चित्र जमा हो जाते तो घर पहुंचकर घरवालों की नजर से बच बचाकर गोबर लिपे खुरदुरे दरवाजों पर ये नरम मुलायम चित्र चिपका देते। मम्मी आजी तो कुछ नहीं कहती पर बड़े भाई के कमरे के दरवाजे पर अगर चिपकाते पकड़े गए तो मुझे तो घुड़की मिलती और भाई को सजा के तौर पर छोटा मोटा काम।
इस मौके पर गांव देहात में कुश्तियां खेली जाती पर हमने केवल सुना ही, कभी देख नहीं पाए, वैसे भी इतने पतले दुबले थे कि मझले भैया खूंटा कह कर चिढ़ाते थे, कुश्ती क्या देखते क्या लड़ते।
बड़े होते गए, सुना, पढ़ा, महसूस भी किया कभी कभी, नास्तिकता आस्तिकता में बदल गई पर पता नहीं क्या फितूर था कि सांप देखते ही मारने की इच्छा कर जाती। ना जाने कितनों को मारा, अहसास होता कि इन्हें मारकर किसी इंसान की जान बचा रहा हूं।
अब सोचता हूं कि इनका भी क्या दोष, हम इनके घरों पर अपने मोहल्ले बसाते जा रहे हैं, ये जाएं भी तो कहां, अतिक्रमण तो हमने किया इनकी जगहों पर। इनका तो प्रकृति प्रदत्त स्वभाव है जहर उगलना, जहर ना हो तो शिकार कैसे करेंगे, खायेंगे कैसे। शायद इनकी प्रजाति को सुरक्षा मुहैया कराने के लिए ही इस त्यौहार का सृजन किया गया हो।
वैसे आजकल इन दिन की प्रासंगिकता बस इतनी ही दिखाई देती है कि हम अपने विरोधी विचारधारा वाले व्यक्ति, समाज या नेता को इस दिन विशेष से जोड़कर चुटकुले बना देते हैं, हँसते हैं, और इस व्यंग कला में वे लोग भी माहिर हैं जो हर दिन रक्षक की भूमिका में दिखते हैं। दूसरों को नीचा दिखाने के चक्कर में अपनी ही परम्परा का मजाक बनाते हैं, अनजाने ही।
पता नहीं नाग पंचमी की बधाई देते है या नहीं पर फिर भी हैप्पी नाग पंचमी, और साथ ही हैप्पी फ्रेंडशिप डे 😊
(किसी को नाग पंचमी का महत्व और उत्पत्ति के बारे में पता हो तो अवश्य बताएं)


अजीत
6 अगस्त 16



तेरा-मेरा

आज किसी को राखी पोस्ट करने का हुक्म मिला तो याद आया कि राखी आने वाली है, पोस्टऑफिस पर इतनी भीड़, इतनी गर्मी, हालत खराब। क्यों मनाते हैं ये रक्षाबंधन? बहन अपना प्यार जताती है और भाई उसकी रक्षा का वचन देते हैं, पर सवाल ये है कि साल में 1 ही दिन क्यों, और अगर ये त्यौहार ना भी हो तो क्या बहन प्यार नहीं करेगी या भाई उसकी रक्षा नहीं करेगा। कितनी मजाकिया बात है न। क्यों जरूरत पड़ी इस 1 दिन को इतना भाव देने की, भाई बहन का प्यार मोहताज है क्या इस दिन का, गजब बेवकूफी है।
------------------
कितनी चुभ रही हैं ना ये बातें, खूब गुस्सा आ रहा होगा। आना भी चाहिए, मैं पढ़ता तो मुझे भी आता। कुछ दिन पहले मदर्स डे आया था, उसके पहले फादर्स डे, तब कुछ संस्कृति रक्षकों ने कुछ ऐसी ही बातें की थी कि माँ बाप को प्यार सम्मान देने के लिए 'दिन' मनाने की क्या जरूरत है, साल भर करो प्यार सम्मान। अब ऐसा ही कुछ सिस्टर्स डे होता तब भी ऐसे ही लिजलिजे तर्क सुनाई देते। राखी का भावानुवाद किया जाए तो सिस्टर्स डे या ब्रदर्स डे ही तो बनेगा, मतलब कोई बात अगर किसी और भाषा में हो तो बिना सोचे जाने विरोध कर दो।
------------------
बचपन में कहानी सुनी थी कि किसी हिन्दू रानी ने किसी बादशाह को राखी भेजी और वो चल पड़ा उसकी रक्षा को। कितना अच्छा लगता था कि देखो एक विदेशी हमारी संस्कृति का कितना मान करता है, पर जब किसी विदेशी त्यौहार या 'दिन' की बात आती है तो जुबान से मार काट मचानी शुरू कर देते हैं हम। ऐसा ही 1 दिन होता है वेलेंटाइन, क्या होता है उस दिन सबको पता ही होगा, रक्षकों की फ़ौज निकलती है सड़कों और सोशल मीडिया पर। ये उसी संस्कृति की रक्षा करते हैं जिसमें कृष्ण रास रचाते हैं, पार्वती तपस्या करती हैं शिव को पाने की, सुभद्रा अर्जुन का हरण करती हैं और रुक्मिणी अरेंज मैरिज नहीं करना चाहती तो पूरा यदुवंश ही आ जाता है उन्हें ले जाने, स्वयं का वर चुनने के लिए स्वयंवर किये जाते हैं। पर चूँकि ये वेलेंटाइन शब्द विदेशी है, बाहर से आया है, इसलिए इसका तो विरोध करना ही है।
-------------------
क्या अच्छा क्या बुरा, खुद से क्यों नहीं सोचते, जनरलाइज क्यों कर देते हैं हर चीज को। बुराई तो हर जगह ही हैं, आपमें भी और उनमें भी, पर ये श्रेष्ठ होने का जो अहंकार पाल लिया है ना हमने...
हमारी संस्कृति क्या इसलिए अच्छी थी कि हम दूसरों को गालियां पढ़ते थे या इसलिए कि हमने सदैव ही दूसरों का सम्मान किया और जो सत था, जो उत्तम था उसे अंगीकार कर लिया।
--------------------
पावन सावन और आने वाले त्योहारों की हार्दिक बधाई



अजीत
5 अगस्त 2016

शब्द मेरे, भाव उसके


------------------------------------------------------------------------
अपनी पिछली ट्रेन यात्रा वाली कहानी में मैंने एक लड़की टाइप लड़के का जिक्र किया था, उसी के कहने पर ये पोस्ट लिख रहा हूं, उसी की जुबान में...
-------------------------------------------------------------------------

माँ की महीनों की शारीरिक और पिता की मानसिक तपस्या का फल संतान रूप में प्राप्त होता है, जब घर में बच्चा पैदा होता है तो पूरे परिवार के लिए ख़ुशी का माहौल बन जाता है, पर मेरा जन्म मेरे परिवार के लिए लज्जा का विषय था। अनुमान ही लगा सकता हूँ कि दाई ने लड़का हुआ या लड़की के प्रश्न पर कैसे और क्या जवाब दिया होगा, शायद चुप ही रह गई हो। घर के सारे मेहमान उसी दिन वापस चले गए होंगे। 

उन लोगों को जाने कैसे पता चल जाता है कि घर में बच्चा हुआ है, आ जाते है ख़ुशी में अपना हिस्सा कैश रूप में लेने, पर यहां मेरे घर वालों के लिए कोई ख़ुशी थी ही नहीं, ख़ुशी तो शायद उनके लिए थी, उनकी जमात में शामिल होने के लिए एक नया रंगरूट धरती पर आया था। माँ बताती है कि घरवाले उन्हें ही सौंप देना चाहते थे, पर उसकी ममता के आगे किसी की ना चली। मेरा बाप भी शायद मेरी ही वजह से इतना चिढ़चिढ़ा हो गया होगा। 

लज्जा से बचने के लिए शहर बदल दिया गया, पर शहर बदल देने से क्या सच में कुछ बदला। आप अनुमान लगा सकते हैं उस बच्चे की पीड़ा जिसे कोई प्यार ही नहीं करता, कहीं कोने में पड़ा, डरा सहमा सा, जिसे मतलब ही नहीं पता उस बात की सजा भुगतता हुआ। कोई जिद नहीं कोई ख्वाहिश नहीं, जिसे हँसना नहीं आता, जिसके रोने का कोई फायदा नहीं। जब से होश संभाला, खुद को बिस्तर गीला करता हुआ ही देखा, आज भी, बच्चा था तो रोज ही डांट पड़ती। हर बच्चे की माँ होती है जो उसे सीने में छुपा लेती है पर मुझे ये भी नसीब नहीं था, शुरू में जो ममता दिखाई थी शायद उसकी वैलिडिटी एक्सपायर हो गई थी। 

घर में रखा ही था और सरकारी स्कूलों में फीस भी कम ही होती थी तो पढ़ाई भी चल ही रही थी। पहला दिन याद है जब मास्टर ने कहा था दूसरे बच्चों से कि इसे परेशान मत करना, नर्क में जाओगे। अगले दिन उन बच्चों को नर्क का मतलब पता चल गया था, साथ खेलते तो झगडे भी होते, इसलिए कोई खेलता ही नहीं, ना बांस, ना बांसुरी। घर में अकेला, यहां भी अकेला।

पता नहीं कौन सा क्षण था जब सोच लिया कि पढ़ने से शायद इज्जत कमा सकूँ, वजीफे मिलने लगे तो आगे की पढाई में कोई दिक्कत नहीं आई। बैंक क्लर्क बन गया था 21 की उम्र में। 
पर अब समझ में आ गया कि इज्जत हम जैसों के भाग्य में नहीं। मैं पेपर पर महिला होने के अलावा वो सब हूँ जिसे इस देश में शोषित समझा जाता है। पर इनमें से किसी ने भी मुझे वो इज्जत नहीं दी जो एक सामान्य इंसान को मिलनी चाहिए। महिलाएं भी बड़ा हल्ला करती हैं कि पुरुष उन्हें अपने बराबर नहीं समझता, दोयम दर्जे का मानता है, फिर तुम्हें तो हमारा दर्द समझना चाहिए था ना, पर तुमने भी तो हमें खुद से कमतर ही माना। 

तुम गाय गोबर बंदर सुअर सबकी पूजा करते हो, कहते भी हो कि सबके अंदर परमात्मा, पर जब मुझ जैसों को देखते हो तो तुम्हारी ये थ्योरी हवा हो जाती है। काश कि उसने बन्दर बामन सूवर आदमी औरत के साथ साथ हमारे रूप में भी अवतार लिया होता। वो तो भला हो कि राम कुछ कह गए, कमाने खाने का जुगाड़ हो गया वरना तुमने तो कोई कसर ना छोड़ी होती। 
तुम्हारा स्त्रीत्व और तुम्हारा पुरुषत्व भी अजीब है, जो इंसान सिर्फ अपनी संतति पैदा करने के काबिल नहीं, क्योंकि जिसके माँ बाप के X और Y का गणित गड़बड़ था, तुम उसे हिकारत की नजर से देखते हो। सड़कों पर नंगे फटेहाल बच्चे छोड़ देने वाला भी मुझसे बेहतर माना जाता है।

देखता हूं तुम जैसों को, स्कूलों में सोते हुए, आफिसों में घूस खाते हुए, हॉस्पिटलों में खून चूसते हुए, घरों में औरतों को पीटते हुए, सड़कों पर अपनी मर्दानगी दिखाते हुए, अजन्मे बच्चों को मारते हुए, बूढ़ों को घर से धकेलते हुए, समधी को लूटते हुए, टुकड़ा टुकड़ा जमीन और चंद पैसों के लिए संबंधों और शरीरों की हत्या करते हुए।

हाँ, तुम्हारी परिभाषा के हिसाब से नपुंसक हूं मैं, पुंसत्व नहीं है मुझमें, पर क्या तुममें है?
---------------------------------------------------------------------
शब्द मेरे, भाव उसके...
---------------------------------------------------------------------
तेरा बड्डे गिफ्ट, फिर से हैप्पी बड्डे


अजीत
28 जुलाई 16