जिस तरह आवश्यकता आविष्कार की जननी है वैसे ही अपने लिए अतिआवश्यकता ही कुछ सीखने की मजबूरी। कुछ मामलों में सम्पन्न थे हम, जैसे की दोपहिया। बचपन से ही देखते आये थे पर कभी सीखने का मन नहीं हुआ, वो तो कहो की एग्जाम सेंटर काफी दूर पड़ा तो सिर्फ एग्जाम देने के लिए लगे हाथ बाइक चलाना भी आ ही गया। ऐसे ही पड़ी रहती थी घर में रिटायर्ड बुजुर्गों की तरह, पिताजी पहाड़ पर थे और बड़े भाई की अपनी बाइक, तो अलिखित समझौते की तरह ये तिरासी मॉडल सीडी 100 हमारी सम्पत्ति मान ली गई। पिता कठोर अनुशासन प्रिय थे पर रूपये पैसे दे देते थे, भाई लिबरल थे पर पैसे नहीं देते थे, दोनों का ही उद्देश्य बच्चे को बुराई की तरफ जाने से रोकना ही था पर 'जाको बिगड़ना ही होय, का करी सके कोय'। इस समय हम भाई की छत्रछाया में थे, बाइक तो मिल गई पर चले कैसे, इस मामले में हमारे मित्रगण काम आये। खुद के आने जाने या गर्लफ़्रेंड को घुमाने के लिए बाइक मांगते तो भलमनसाहत से या शायद शुद्ध व्यापारिक रीत से 20 रूपये का तेल डलवा देते। उस समय WTC वाला काण्ड हुआ था फिर भी तेल 25-30 के रेंज में था, अपना काम चल जाता।
सर्वीसिंग जैसी चीज भी होती है पता नहीं था, घिसे जा रहे थे कि एक दिन बड़े भाई ने कान पकड़ 500 रूपये थमाये और बोले, घोड़े हो गए हो तो का हमसे भी बड़े हो गए, मांगने में शर्म आती है, गाभिन भैस की तरह चिचिया रही है गाड़ी और तुम इसे ठेले जा रहे हो।
बनारस में दो ही जगह है जो थोड़ी ठीकठाक है, जहां ठेठ बनारसी अपनी टुच्चई नहीं दिखा पाता, फलस्वरूप ये दो जगह बनिस्पत थोड़े साफ़ हैं, एक बीएचयू दूसरा कैंटोमेंट एरिया। इसी एरिया में बड़े बड़े होटल हैं, बनारस की शान ताजगंगे के सामने, मखमल के कपड़े में पैबंद की तरह, बाइक मिस्त्री की दुकान वर्तमान थी। एक नंबर का मिस्त्री और दो कौड़ी का आदमी। सुबह 8 बजे गाड़ी दो तो 12 बजे का टाइम देता और सच में 3 बजे तक ही दे पाता। ये सारा हिसाब लगा हम 4 बजे इसकी दुकान पहुँचे, हमारी प्रियतमा बाइक 36 टुकड़ो में बिखरी पड़ी थी, आंतरिक हिस्से तेल ग्रीस में लटपटाये बिखरे पड़े थे और मिस्त्री साब रंगीन दांत लिए हमारे सामने बिखर गए, हमें सांत्वना सी देते बोले, बाबूसाब बस 10 मिनट, होई गयल बस।
एक कुर्सी रख दी गई हमारे लिए सड़क से लगी हुई, आधी डब्बी सिगरेट बमय माचिस पेश कर दी गई। हम भी इतनी आवभगत देख, अनुप्रास के तहत, भले आदमियों की तरह भोलेनाथ के भगत बन मुँह से भकाभक धुँआ भकोसने उगलने लगे। सड़क पार थोड़ी दूर स्थित टी हॉउस से, जिसकी इमारत चार पहियों पर चलने वाले ठेले पर बनी थीे, छोटू को आवाज लगा चाय मंगवा ली। किसी भी ट्रक या कार के गुजरने पर होने वाली दहशत के अलावा राजाओं वाली फीलिंग थी ये। सामने के नजारे भी मनभावन थे, हर पांच मिनट बाद गोरे काले विदेशी दिख जाते, ये वो विदेशी थे जो केवल पर्यटन के लिए आते थे, उन गंगा किनारे वाले विदेशियों से रंग वर्ण छोड़ बिलकुल अलग। वो तो हम बनारसियों से बड़े बनारसी लगते हैं अब।
माबदौलत अपनी रियासत की रियाया को साथ में इन विदेशियों की ओर गर्व से देख रहे थे कि ना जाने कहां से एक 10-11 साल का बालक सामने खड़ा हो गया हाथ फैलाये। आम लड़कों जैसा ही लड़का था, बस अपनी दिगम्बरता छुपाने के लिए एक कच्छा टाइप कुछ पहने था। आँख से अनवरत बहते आंसू जो आँखों की गंगोत्री से बहते बहते गालों से होते हुए गले को पार कर, मैदानी क्षेत्रों से गुजरते हुए कच्छे की खाड़ी में लुप्त हो रहे थे। वैसे बालक इतना सुदर्शन था कि रामानंद सागर का बाल बलराम या बी. आर. चोपड़ा का बालक भीम बन सकता था। आँखे बिलकुल बैल जैसी बड़ी बड़ी। बैल हमारे सांस्कृतिक पशु गाय जिसे हम श्रद्धावश माँ कहते है का पुत्र होता है और कुछ सालों पहले तक शहरों में कम और गाँवों में बहुतायत में पाया जाता था पर अब इसका उल्टा है, प्रकृति के अपने नियमों से जैसे हिरण शेरों के बावजूद जंगल में बचे हुए हैं, बैल भी कसाइयों और ट्रकों से बचकर बहुतायत में सड़कों पर स्वच्छंद घूमते और सफाई अभियान में अपना अमूल्य योगदान देते दिख जाते हैं।
बनारस में दो ही जगह है जो थोड़ी ठीकठाक है, जहां ठेठ बनारसी अपनी टुच्चई नहीं दिखा पाता, फलस्वरूप ये दो जगह बनिस्पत थोड़े साफ़ हैं, एक बीएचयू दूसरा कैंटोमेंट एरिया। इसी एरिया में बड़े बड़े होटल हैं, बनारस की शान ताजगंगे के सामने, मखमल के कपड़े में पैबंद की तरह, बाइक मिस्त्री की दुकान वर्तमान थी। एक नंबर का मिस्त्री और दो कौड़ी का आदमी। सुबह 8 बजे गाड़ी दो तो 12 बजे का टाइम देता और सच में 3 बजे तक ही दे पाता। ये सारा हिसाब लगा हम 4 बजे इसकी दुकान पहुँचे, हमारी प्रियतमा बाइक 36 टुकड़ो में बिखरी पड़ी थी, आंतरिक हिस्से तेल ग्रीस में लटपटाये बिखरे पड़े थे और मिस्त्री साब रंगीन दांत लिए हमारे सामने बिखर गए, हमें सांत्वना सी देते बोले, बाबूसाब बस 10 मिनट, होई गयल बस।
एक कुर्सी रख दी गई हमारे लिए सड़क से लगी हुई, आधी डब्बी सिगरेट बमय माचिस पेश कर दी गई। हम भी इतनी आवभगत देख, अनुप्रास के तहत, भले आदमियों की तरह भोलेनाथ के भगत बन मुँह से भकाभक धुँआ भकोसने उगलने लगे। सड़क पार थोड़ी दूर स्थित टी हॉउस से, जिसकी इमारत चार पहियों पर चलने वाले ठेले पर बनी थीे, छोटू को आवाज लगा चाय मंगवा ली। किसी भी ट्रक या कार के गुजरने पर होने वाली दहशत के अलावा राजाओं वाली फीलिंग थी ये। सामने के नजारे भी मनभावन थे, हर पांच मिनट बाद गोरे काले विदेशी दिख जाते, ये वो विदेशी थे जो केवल पर्यटन के लिए आते थे, उन गंगा किनारे वाले विदेशियों से रंग वर्ण छोड़ बिलकुल अलग। वो तो हम बनारसियों से बड़े बनारसी लगते हैं अब।
माबदौलत अपनी रियासत की रियाया को साथ में इन विदेशियों की ओर गर्व से देख रहे थे कि ना जाने कहां से एक 10-11 साल का बालक सामने खड़ा हो गया हाथ फैलाये। आम लड़कों जैसा ही लड़का था, बस अपनी दिगम्बरता छुपाने के लिए एक कच्छा टाइप कुछ पहने था। आँख से अनवरत बहते आंसू जो आँखों की गंगोत्री से बहते बहते गालों से होते हुए गले को पार कर, मैदानी क्षेत्रों से गुजरते हुए कच्छे की खाड़ी में लुप्त हो रहे थे। वैसे बालक इतना सुदर्शन था कि रामानंद सागर का बाल बलराम या बी. आर. चोपड़ा का बालक भीम बन सकता था। आँखे बिलकुल बैल जैसी बड़ी बड़ी। बैल हमारे सांस्कृतिक पशु गाय जिसे हम श्रद्धावश माँ कहते है का पुत्र होता है और कुछ सालों पहले तक शहरों में कम और गाँवों में बहुतायत में पाया जाता था पर अब इसका उल्टा है, प्रकृति के अपने नियमों से जैसे हिरण शेरों के बावजूद जंगल में बचे हुए हैं, बैल भी कसाइयों और ट्रकों से बचकर बहुतायत में सड़कों पर स्वच्छंद घूमते और सफाई अभियान में अपना अमूल्य योगदान देते दिख जाते हैं।
अमूमन भिखारियों को देख दिल नहीं पसीजता, पर पता नहीं क्या था इस बच्चे में, इसे देख खुद भिखारी होने की अनुभूति हुई। इस और इस जैसे बच्चों को भीख मांगने पर क्यों मजबूर होना पड़ता है, क्या एक संप्रभु राष्ट्र की नाकामयाबी नहीं ये। बरसों से सुनते आ रहे साम्यवाद और राज करते आ रहे समाजवाद का मजाक सा उड़ाता ये बालक हाथ फैलाये एक रुपया नहीं, जवाब मांग रहा था। राष्ट्रवाद की परिभाषा के अंतर्गत क्या ये लज्जा का विषय नहीं कि भाषणों में जिन बच्चों से उम्मीद की जाती है कि वे आगे चलकर गांधी पटेल अम्बेडकर कलाम रमन बनेंगे वे आज भीख मांग रहे हैं।
इतना कुछ सोचकर लगा कि हल्का हो गया हूं, बुद्धिजीवी यही तो करते हैं ना, पर वो बालक तो अब भी खड़ा था, क्या देता, जेब में सिर्फ पांच सौ थे जो मिस्त्री को देने थे, फुटकर था नहीं, झिड़क दिया उसे। वो भी ढींठ, जाए ही ना, मांगता रहा और मुझे शर्मशार करता रहा। कभी तो उम्मीद टूटनी थी उसकी, आखिरकार कोई और आसामी दिखा तो उधर लपक लिया।
अगले 60-70 मिनट में मुझे वो कई बार दिखा, मेरी तरफ देख मुझे अनदेखा कर किसी और के आगे हाथ फैलाता, जब जब मेरी तरफ आशा से देखता, मैं और संकुचित हो जाता। उसके बहते आंसू मुझे परेशान कर रहे थे। कई बार तो मन आया कि फुटकर करा उसे बुला कर कुछ दे दूँ, पर फिर ना जाने क्या सोच ऐसा किया नहीं। शायद उसे देने वालों की कमी नहीं थी। सामने विदेशियों से भी कुछ ले ही ले रहा था।
आखिरकार मेरी प्रियतमा बाइक तैयार हो गई, पैसे वैसे दे किक मारते समय आज का सबसे बड़ा अजूबा देखा। सामने खोखे पर वही लड़का 7 रूपये वाली सिगरेट पी रहा था (मेरी वाली उस समय ढाई की आती थी), उसने मेरी तरफ देखते हुए धुँआ छोड़ना शुरू किया, लगा कि अनंत काल तक छोड़ता ही रहेगा, कुटिल मुस्कान से मुझे नवाजने के बाद, ठाठ से टैम्पो रुकवाया, हाथ में थामी हुई रेजगारी से भरी पारदर्शी थैली अंदर सीट पर फेंकी, टैम्पो के आगे बढ़ने से तुरंत पहले आधा बाहर लटक कर मुझे बनारस की प्रसिद्ध 'ब' शब्द 'भ' शब्द, जिनके बाद 'के' लगाते हैं और साथ ही भारत भर में प्रसिद्ध 'च' शब्द बोलता, ये जा वो जा।
भरे बाजार वो नंगा, मुझे नंगा कर गया।
इतना कुछ सोचकर लगा कि हल्का हो गया हूं, बुद्धिजीवी यही तो करते हैं ना, पर वो बालक तो अब भी खड़ा था, क्या देता, जेब में सिर्फ पांच सौ थे जो मिस्त्री को देने थे, फुटकर था नहीं, झिड़क दिया उसे। वो भी ढींठ, जाए ही ना, मांगता रहा और मुझे शर्मशार करता रहा। कभी तो उम्मीद टूटनी थी उसकी, आखिरकार कोई और आसामी दिखा तो उधर लपक लिया।
अगले 60-70 मिनट में मुझे वो कई बार दिखा, मेरी तरफ देख मुझे अनदेखा कर किसी और के आगे हाथ फैलाता, जब जब मेरी तरफ आशा से देखता, मैं और संकुचित हो जाता। उसके बहते आंसू मुझे परेशान कर रहे थे। कई बार तो मन आया कि फुटकर करा उसे बुला कर कुछ दे दूँ, पर फिर ना जाने क्या सोच ऐसा किया नहीं। शायद उसे देने वालों की कमी नहीं थी। सामने विदेशियों से भी कुछ ले ही ले रहा था।
आखिरकार मेरी प्रियतमा बाइक तैयार हो गई, पैसे वैसे दे किक मारते समय आज का सबसे बड़ा अजूबा देखा। सामने खोखे पर वही लड़का 7 रूपये वाली सिगरेट पी रहा था (मेरी वाली उस समय ढाई की आती थी), उसने मेरी तरफ देखते हुए धुँआ छोड़ना शुरू किया, लगा कि अनंत काल तक छोड़ता ही रहेगा, कुटिल मुस्कान से मुझे नवाजने के बाद, ठाठ से टैम्पो रुकवाया, हाथ में थामी हुई रेजगारी से भरी पारदर्शी थैली अंदर सीट पर फेंकी, टैम्पो के आगे बढ़ने से तुरंत पहले आधा बाहर लटक कर मुझे बनारस की प्रसिद्ध 'ब' शब्द 'भ' शब्द, जिनके बाद 'के' लगाते हैं और साथ ही भारत भर में प्रसिद्ध 'च' शब्द बोलता, ये जा वो जा।
भरे बाजार वो नंगा, मुझे नंगा कर गया।
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अजीत
11 सितंबर 16
अजीत
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