किसी प्रगतिशील मुल्क के किसी प्रगतिशील शहर की किसी बहुमंजिला इमारत में सरकारी बाबू श्री नरेंद्र जी रहते हैं। श्वेत सम्प्रदाय के थे, ये उस मुल्क में अल्पसंख्यक समुदाय है पर चूँकि बहुसंख्यक समुदाय से ही निकला है तो बहुसंख्यक इसे अपना ही हिस्सा मानते हैं। उस मुल्क में पंथनिरपेक्षता का जोर है, पड़ोसी ड्रैगन की तरह धर्म पर कोई रोक टोक नहीं तो पूरे मुल्क के साथ साथ ये भी बड़े वाले धार्मिक। इनके यहां बीस के ऊपर पैगम्बर हुए, सारे राजा राजकुमार थे फिर साधू हो गए थे। अंतिम वाले तो इतने बड़े तपस्वी कि तपस्या में ही कपड़े लत्ते गल गये। अहिंसा पर बड़ा जोर है इनके यहां। जमीन के नीचे उगी सब्जी तक नहीं खाते, और तो और अपने यहां पेस्ट कंट्रोल तक नहीं होने देते। वैसे भले आदमी हैं, धार्मिक आदमी भला ही होता है।
बाकी बिल्डिंग और आस पास के मोहल्ले में भगवा सम्प्रदाय के लोग रहते हैं। ये वो सम्प्रदाय है जो आजकल असहिष्णु सा हो गया है, लोग तो यही बोलते हैं टीवी पर। पचास तरह के देवता और 100 तरह की रवायतें। गाय बैल सूवर पीपल बरगद, मतलब लगभग हर चीज की पूजा करते हैं। इन लोगों के यहां पैगम्बर तो ना जाने कितने आये, खुद ऊपर वाला भी कई बार आया। इज्जत तो इतनी देते हैं अपनी मान्यताओं को कि घर की छत पर पीपल उग जाए तो खुद नहीं उखाड़ते, दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को बुलाते हैं। धार्मिक लोग हैं, धार्मिक लोग भले ही होते हैं।
थोड़ी ही दूर पर हरे सम्प्रदाय के आठ दस घर भी हैं। ये सम्प्रदाय सुना कि बाहर से उस मुल्क में आया था। बड़ा शांतिप्रिय समुदाय है। धार्मिक तो इतना कि दिन में कई-कई बार चिल्ला-चिल्ला के पूरे शहर को अपने पूजा पाठ का टाइम बताता है। इनके यहाँ भी कई देवदूत आये गये, कितनी बार आते जाते तो अंतिम वाले ने ऊपर वाले से अंतिम तौर पर उसकी सारी हिदायतें मांग कर नोट कर ली। अब यही किताब इनके लिए जो है सो है। धार्मिक हैं तो बिलाशक भले भी होते हैं।
हुआ कुछ यूं कि किसी दूर देश में, कई शतक पहले 'हरों' ने 'भगवों' की इबादतगाह उजाड़ अपना पूजास्थल बना लिया था, इतने साल सहने के बाद 'भगवों' का खून खौला और उन्होंने अपनी इबादतगाह पर क्लेम कर लिया, मतलब तोड़ ताड़ दिया। तो 'हरों' का खून भी कौन सा हरा था, इन्होंने जगह जगह 'भगवों' के इबादतगाहों की मूर्तियों को तोड़ना चालू किया। इस खून की खौला खौली में बहुत खून बहा। ये बिमारी उस प्रगतिशील मुल्क तक भी पहुंची। अब पता नहीं यहाँ के 'हरों' ने पहले बुत तोड़े या 'भगवों' ने रंग फेंका, जो भी हुआ यहां भी कांड शुरू हो गए।
शहर में कर्फ्यू लगा था, रह रह कर शोर और चीख पुकार की आवाजें सुनाई देना जैसे आम बात हो गई। नरेंद्र बाबू ना तीन में ना तेरह में, चुपचाप अपने घर में बैठे चाय पी रहे थे कि किसी ने दरवाजा भड़भड़ाया, इनकी सिट्टी पिट्टी गुम। शोर की आवाजें पास आ रही थी और इधर दरवाजे के बाहर से दयनीय भीख सी मांगती पुकार, भाई बचा लो, दरवाजा खोल दो, अंदर आने दो, मैं और मेरा छोटा बच्चा, ऊपर वाले के लिए हमें बचा लो। ऊपर वाले के नाम पर, ऊपर वाले को याद कर बाबू साहब ने जैसे तैसे उन दोनों को अंदर ले तो लिया, पर फिर उन्हें याद सा आया कि अरे ये तो 'हरे' वाले हैं। कितना नापसंद करते हैं ये इन्हें। बड़ी कशमकश, क्या करें, बीवी से भी सलाह ली। फिर उन्हें 'भगवों' का पीपल वाला तरीका याद आ गया।
धार्मिक जो थे....
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अजीत
13 सितम्बर 16
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