Sunday, 14 August 2016

मित्र

ट्रेन से पीलीभीत पहुँचने के बाद 1 खटारा सी रोडवेज बस में पहली बार पहाड़ की यात्रा शुरू हुई थी। 3-4 घंटे की खड़खड़ तड़तड़ से त्रस्त होने के बाद जब टनकपुर से आगे बढ़े तब पहली बार सुकून सा मिला, बस वही थी पर बाहर के नजारे बदल गए थे, अचानक ही ठण्ड बढ़ सी गई, इतनी हरियाली, पेड़ों की पत्तियां पतली होती जा रही थी, फिर वो बड़े दिन वाले पेड़ों की तरह के पेड़ दिखे, चीड़, और उनसे बहकर आती हुई अलग सी खुश्बू, एक डेढ़ घण्टे बाद बादलों से हमारी दूरी कम इतनी कम हो गई कि वो हमारे साथ ही चलने से लगे, कभी तो लगता कि वो बस के अंदर ही घुस गए हों, ये ऊँचे पहाड़, और वो गहरी खाइयां, कहीं कहीं पतली पतली पानी की धाराएं सड़क पर आती और फिर खाई में गिरती दिख जाती।रोमांच चरम पर था, मन करता कि निकल जाऊ बस से, चढ़ जाऊं पहाड़ों पर। 

तबादला हुआ था पापा का, लोहाघाट, उस समय का यूपी, आज का उत्तराखंड। शायद पहली बार थैंकफुल था पापा के लिए कि मुझे वो इतनी खूबसूरत जगह ले आये थे। लोहाघाट जैसे कटोरी में बसा कस्बा टाइप शहर, आठों तरफ विशाल पहाड़, एक मकान की छत दूसरे की दहलीज, सांप जैसी सड़कें, बड़ी बड़ी सीढ़ियों वाले रास्ते और उनकी दोनों तरफ दुकानें।

राजकीय विद्यालय में एडमिशन लिया नवीं क्लास में, ख़ुशी ख़ुशी गया कि नया दिन, नये दोस्त बनेंगे, पर अनुभव खराब रहा। कोई खुद आगे नहीं आया दोस्ती करने, 100 से ज्यादा बच्चों में दुर्भाग्यवश अकेला देशी था मैं, देशी मतलब जो पहाड़ी नहीं। कुछ ही दिन में प्रसिद्ध हो गया था, नाम तो शायद ही किसी को याद हो पर नए नामकरण हो गए, देशी, बनारसी, बिहारी। कोई दोस्त नहीं, चिढ़ाने वाले सारे, कोई कोई तो पीछे से चपत भी लगा देता, 3-4 बार धुलाई भी कर दी गई तबियत से। इंटरवल में चुपचाप जंगले पर बैठा रहता, सोचता की सामने से मेरे 8वीं के दोस्त चन्द्रिका प्रेम आ रहे हैं और मैंने उन्हें दौड़ के गले लगा लिया है। खूब रोता अकेले में, नफरत सी हो गई पहाड़ियों से, कत्ल कर देने का मन करता। बच्चे तो बच्चे, अध्यापक लोग भी कम नहीं थे, देशी अध्यापक तो पढ़ाते और निकल लेते पर कुछ पहाड़ी अध्यापक मजे लेते, हिंदी के गुरूजी बहुत चिढ़ते थेे देसियों से, पढ़ाते प्रेमचन्द और कबीर को, मजाक बनारस का उड़ाते। बैंक में गया किसी काम से तो क्लर्क ने पूछा कि बनारस बिहार में है ना। कुल मिला के गजब नफरत करते लोग देसियों से। 

अब सोचता हूँ तो समझ आता है कि कारण भी था इसका, अलग राज्य का आंदोलन जोरों पर था, सरकार सारी खटारा बसें पहाड़ों पर भेज देती, करप्ट अफसरों को दंड के तौर पर पहाड़ पर भेज दिया जाता, सबसे बेकार पुलिस अध्यापक डॉक्टर इंजीनियर अफसर मिलते पहाड़ को, लोग नफरत करते और वो उनके बच्चों में भी आ जाती।

इतना डिप्रेस हो गया कि 9वीं में फेल हो गया। 14 बच्चे फेल थे, अब मेरी नई पहचान देशी नहीं रह गई, फेलियर हो गई, उन्ही फेलियरों में 1 था प्रकाश जोशी। मेरा पहला पहाड़ी दोस्त, सुन्दर सा, गोरा, हल्के सफेदी लिए बाल। गरीब, ठेठ पहाड़ी, स को श बोलने वाला। पहली बार क्लास बंक उसके ही साथ की थी, हम दोनों ने एक साथ सिगरेट पीना शुरू किया, फेलियर थे तो दबदबा सा हो गया, डर खत्म हो गया था। रोज ही क्लास बंक कर चढ़ जाते पहाड़ों पर, जंगली मुर्गियां खोजते, बुरांश के फूल, काफल और ककड़ी तोड़ते, खाते, भवल्टा नाम की एक जगह थी एक पहाड़ी पर, अंग्रेजो की पुरानी बस्ती, थोड़ी दूर पर उनका कब्रिस्तान, अधिकतर भगोड़े लड़के वहीं आकर ताश खेलते। हम दोनों को ये लत नहीं थी, दिन भर बात करने में निकाल देते। एक दिन तो पता नहीं क्या फितूर चढ़ा कि एक कब्र खोद दी, अक्ल नहीं थी, आज अफ़सोस है। पहाड़ी लोग नाम छोटा कर देते हैं, मैं अजीत से अज्जू या अज्या बन गया था और प्रकाश पर्क्या या पारो।

पांच साल रहा पहाड़ पर, मोहब्बत सी हो गई इनसे, बहुत अच्छे दोस्त बने यहां, एक से बढ़ कर एक, दो बड़ी प्यारी लड़कियों ने भाई माना मुझे, फिर कुछ सालों बाद एक पहाड़ी लड़की से ही प्यार भी हुआ, शादी हुई। आज भी पहाड़ के नजदीक ही रहता हूँ, घर की छत से नैनीताल दिखता है जगमगाता हुआ।

अगर प्रकाश नहीं होता तो शायद आज भी नफरत करता पहाड़ियों से, प्रकाश ना होता तो अन्धेरा ही रहता सालों तक मेरे जीवन में। आखिरी दिन एक दूसरे से अलग होते समय खूब रोये थे हम गले मिलकर, बाजार के लोग रुक रुक कर देखते पर हम रोये जा रहे थे, अपना बनारस का एड्रेस दिया था उसे, पता नहीं एड्रेस गलत था या जाने क्या, आज तक कोई चिट्ठी नहीं आई उसकी।

सुबह से फेसबुक पर फ्रेंडशिप डे चल रहा था तो उसकी याद आ गई।



अजीत
7 अगस्त 16

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