राम मिलाये जोड़ी...
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एक रहें जी पी सिंह। गजबे किरान्तिकारी, ना ना, आप गलत मत बूझिये, सब जेएनयू टाइप ही नहीं होते, ई थोड़े अलग टाइप के थे। क्रांति की शुरुआत अपने नाम से ही किये। दरअसल हुआ ये कि इनके चार अग्रज शैशवावस्था में ही कालकलवित हो गए तो पूर्वांचल बिहार की परम्परानुसार इनका अटपटा नाम रखा गया, घुस्सु परसाद। भले ही शुभ कामना से रखा गया हो, पर बताइये, जे भी कोई नाम हुआ, तो पहली फुर्सत में इन्होंने स्वयं का नामकरण किया ग्रिजेश प्रताप।
इतने किरान्तिकारी थे बचपन से कि जो कहा जाए उसका उल्टा ही करते। सब्जी मंडी जाते तो छाँट के रूढ़ भिन्डी और पिलपिले टमाटर लाते। पढ़ाई से इतना प्यार करते कि किताबों के अंदर पहिले कॉमिक्स फिर बड़े होने पर 'वेद प्रकाश शर्मा' या 'पाठक' डाल कर पढ़ते। माँ बाप की उम्मीदों का सफलतापूर्वक चूरा बनाते हुए कुल मिलाकर डेढ़ पंचवर्षीय योजना में 10वीं और 12वीं निपटाया। डॉक्टर इंजिनियर तो अब किस बूते बनते तो यूपी कॉलेज से बीए शुरू। अब ई उमर में प्रेम ना हो तो जिनगी बेकार है रे साथी। भरकस परयास चालू किये और कहते हैं न कि करत करत अभ्यास से... तो एक सावली सलोनी को अपने इशक में गिरफ्तार करा ही लिए। ओहो, फिर तो जो आनंद मिला जीवन का, बनारस कोई मुम्बई तो है नहीं तो गुपचुप इशारे होते, संकेतों से ही रूठना मनाना। नया नया मोबाइल चला तो अम्बानी को धनबाद देते हुए लंबी लंबी बातों के दौर चलने लगे। बड़ी हिम्मत से एक बार मिलने का प्रोग्राम बनाया भारत माता मंदिर में। विद्यापीठ के पास इस मंदिर और साथ लगे पार्क में ज्यादा भीड़ नहीं होती, वो क्या हैं ना कि ई SM में ही सारी भक्ति उड़ेल देने के बाद कुछ बचता जो नहीं है। आहा, इतने एकांत की पहली मुलाकात, तनी मनी प्रैक्टिकल करने का मौका, गंगा सिनेमा की मूवी याद आने लगी। वापस आते समय चेहरा अइसे जइसे... अब खुदे बूझ जाइये। फिर तो बनारस का कोई पार्क नहीं बचा जहां ये दो फूल आपस में लड़ ना जाते हों।
अब तो भाई किरान्तिकारी दिल ने प्रेम विवाह की ठान ली, मुहूर्त वगैरह निकाल लिए भगने का, और पीछे एक चिट्ठी छोड़ पहुंच गए कैंट स्टेशन। बेचारे फोन पर फोन किये जा रहे अपनी माशूका को और उधर से कोई जवाब नहीं। लौट के बुद्धू घर को आये। पर तब तक बाबूजी पढ़ चुके थे क्रांति का घोषणापत्र, फिर तो गालों पर आधा दिन और पीठ पर एक महीना क्रांति के लाल काले नीले निशान पड़े रहे। रे साथी, प्रेम बड़ा दर्द देता है रे।
सामन्तशाही ने कभी भी क्रांति को स्वीकार नहीं किया, संधि और शांति के सारे परयासों को कुचलते हुए सामन्त बाप ने बियाह तय कर दिया लड़के का, और जुलम ये कि लड़की की तस्वीर तक ना दिखाई। दिन नजदीक आते जाते, हल्दी के पीले रंग से खून और खौलता, पर उस लउर व उससे पड़े लाल काले नीले निशान याद आते ही खौलता खून झाग की तरह बैठ जाता। आखिर शादी हो ही गई, अब जब हो ही गई तो का कर सकत हैं। अपरम्परागत शराब पीकर और परंपरागत पान चुभलाते पहुँचे अपने कमरे में, देखा, दुल्हिन बैठी है अवगुंठन डाले। गला खखार के नजदीक बैठे, पान का आधा रस उदरस्थ और आधा बचाये रख ऊपर मुँह कर भरकस रोबीली आवाज में बोले,
सुनिए, देखिये हम लोग नई जिनगी शुरू करे जा रहे है तो अदरवाइज मत लीजियेगा, वो क्या है कि आई मीन टु से, हम लोगों को न एकदूसरे को अपनी पुरानी जिनगी के बारे में ना सबकुछ सच सच बात देना चाहिए, दैट्स भाई कि आगे कोनो कनफूजन ना रहे। एक्चुली हम ओपन माइंड हैं, तो बताइए अपने बारे में। (कॉकटेल पी लिए थे तो भाषा भी कॉकटेल ही न निकलेगी)
ल, चुप काहे हैं, अच्छा शर्मा रही हैं, तो चलिए हम ही पाहिले बताते हैं। देखिये हम बहुते शरीफ टाइप के आदमी हैं। लब वभ से कउनो प्रोबलम नहीं है पर हम कबो ना किये। बाबूजी जहां कहे हम चुप मार के मान लिए। अब कोई बुरा थोड़ी ना चाहेंगे हमरे बदे। अच्छा चलिये अब आप बताइए। अब बोलिए भी, गूंगी तो नहीं हैं न आप।
लड़की भी बेचारी कई रातों की जगी, थकी आवाज में, जी हम भी ई लब सभ नहीं मानते, छी छी, का जरूरत है ई सब का, हम भी कबो ना परे इसके फेरा में।
मन में लड्डू फोड़ते, बचा हुआ पान रस पीने के बाद, सौन्दर्यपान की अभिलाषा लिए धीरे धीरे घूंघट उठाया, अहा क्या चेहरा, ठुड्डी के नीचे उंगली लगा चेहरा उठाया और...
तुम....
लड़की भी
तुम...
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जा ए ग्रिजेश प्रताप, तू घुस्सु प्रसाद ही निकले...
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अजीत
22 अगस्त 16
वाह कमाल लिखे ,यहीं आपकी विशेषता है ,न भाषा ,न कहानी ,न पात्र ,,किसी पर बंधन नहीं ,,सबकी अपनी चाल ,बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद अंजू जी,
Deleteआपका कॉमेंट आया और हम देख ही नहीं पाए। मुआफी....