Sunday, 18 December 2016

कुछ देकर पाना है....


हर साल NSS के बच्चे आ जाते थे पुराने कपड़े लेने, इस बार पता नहीं क्या हुआ। पुराने कपड़ों का ढेर जमा हो गया है। एक बारगी तो मन हुआ कि रुद्रपुर-बाजार में दे आएं, कुछ छूट मिल जाती है नये कपड़ों पर, लेकिन दिल नहीं माना। कुछ रूपये पाने से अच्छा है कि किसी गरीब को देकर पुण्य कमाए। वैसे सुनते हैं कि पुण्य निःस्वार्थ कर्म पर प्राप्त होता है, तो पुण्य पाने की इच्छा भी तो स्वार्थ ही हुई ना? खैर, जो हो, पुण्य मिले ना मिले, इस भयंकर जाड़े में किसी गरीब को कपड़े तो मिलेंगे।

आज के जमाने में गरीब मिलना भी मुश्किल है। आपके यहां शायद हो, पर यहां कहाँ रखे हैं गरीब? ऊपर से ये डर भी कि अगला पलट कर ये ना कह दे कि भिखारी समझा हैं क्या? गरीबी का कोई पैमाना तो होता नहीं, सापेक्ष होती है। कई लोगों से कह दिया था कि कोई जरूरतमंद मिले तो बताना। पर आप मरे स्वर्ग कहाँ मिलता है?

किस्मत से घर के सामने ही स्कूल में काम लगा हुआ है। ठेकेदार के स्थाई मजदूरों की अस्थाई ईंट सीमेंट वाली झोपड़ी बनी है। शायद दो परिवार हैं, दो मर्द, तीन औरतें और छह कि सात तो बच्चे।

कल धूप खिली थी, काम ना जाने क्यों रुका हुआ था। मेरा मन छत पर कुर्सी डाल 'महासमर' पढ़ने का था पर पत्नी जी की हिदायत कि ये पुराने कपड़े उनमें से किसी को दे ही आऊं। कहीं फटकार ना दिया जाऊं, ये डर लिए कपड़ों की पोटली बांधे उस चौकोर ढांचे के सामने चला गया। एक 10-12 साल की बच्ची अस्थाई हैंडपंप पर कपड़े धोती दिखी, उससे कहा कि किसी बड़े को बुला कर ले आये। थोड़ी देर में पर्दे का दरवाजा हटा कर एक महिला सामने आती है, उससे पूछता हूँ कि बहन आप ये कपड़े लेना चाहेंगी क्या? थोड़े आश्चर्य, थोड़ी ख़ुशी, थोड़ी झिझक सी महसूस हुई उसके चेहरे पर, ले लिया उसने और ना जाने किस भाषा में कुछ कुछ बोले जा रही थी। शायद थैंक्यू या आशीष दे रही हो। अपने मन में दानदाता का भाव लिए वापस आ गया।

सुबह टहलने की आदत है। वो परिवार रोज ही दिखता था, पर आज घर के हर फर्द ने नमस्ते की। लुंगी पहना एक शख्स मुझे चाय पीकर जाने की गुजारिश करता है, पर मैं आगे बढ़ जाता हूँ। पता नहीं, उन्हें तकल्लुफ में नहीं डालना चाहता या मेरा अभिजात्य मन इसमें अपनी हेठी समझता है?

सवितानारायण अपने घर जाने की तैयारी में हैं, मैं भी। घर के बाहर इन मजदूरों का पूरा परिवार कुछ न कुछ कर रहा है। फिर से सब नमस्ते करने लगे। शायद मेरा अहम सन्तुष्ट हो रहा है, थोड़ा और होना चाहता है, बाइक खड़ी कर दी।
"आइये आइये साहब, गरीब की चाय पी कर जाइये।"
सोचता हूँ कि एक कप चाय तो पी ही लूँ, घर के अंदर जाने में मेरी हिचक दिख जाती है उन्हें, अंदर से फोल्डिंग चेयर आ जाती है। मुझे बैठा कर खुद चार ईंटें जोड़ वो भी सामने बैठ जाता है।

इतने नजदीक से किसी टाई बांधे इंसान को शायद नहीं देखा इन्होंने, टकटकी लगाए देखे जा रही हैं तीनों। नाम सीमा रीना रबीना, दिमाग इन नामों में धर्म खोजता है पर असफल। कोई बेटा नहीं हुआ पूछता हूँ, पूछते ही खुद से ही प्रश्न करता हूँ कि इस प्रश्न की क्या आवश्यकता थी, कहीं मैं भी पुरुषवादी तो नहीं, और अगर मन में आने के बाद भी नहीं पूछता तो क्या ये जबरदस्ती का महिलावाद नहीं हो जाएगा। 

"1.5 साल का बेटा था पर पिछले जाड़ों की भेंट चढ़ गया, उसने दिया था, उसी ने वापस ले लिया।"
साला अनपढ़ जाहिल, बेटा ठंड से मर गया और ये ऊपर वाले की महिमा गा रहा है। क्या इसे नहीं पता कि धर्म अफीम होता है। मुझे तो ये भी नहीं पता कि किस अफीम का शौक़ीन है ये। हम दोनों की अफीम एक जैसी हुई तो ठीक, नहीं तो...
सोचता हूँ कि अगर ये अफीम ना होती तो अपनी संतान को यूँही, बेमतलब, बेमकसद मर जाने का गम कैसे सहता ये जाहिल।

उसकी पत्नी चाय ला रही है, अपने लिए स्टील गिलासों में और मेरे लिए एक बदरंग कप में जिसके टॉप और बॉटम दोनों हल्के-हल्के कहीं-कहीं टूटे हुए हैं। 20-22 साल पहले का अपना गांव याद आता है जब काकी घर के 'कमकर' के लिए ऐसी ही कप में चाय लाती हैं, बाकियों के लिए दूसरे कपों में। याद आता है पापा का गुस्सा, उसी समय कपों का नया सेट लाना और ये कहना कि मेरे और घर आने वाले हर आदमी को आज से इन्हीं कपों में चाय दी जायेगी।
यहाँ ये औरत हालांकि मेरी इज्जतअफजाई या खुद की अहसासेकमतरी की वजह से ये भेद बरत रही हो, कहना चाहता हूं कि जाओ और मेरे लिए भी गिलास में ही चाय ले आओ, पर...

वाह, ये तो वही बिना दूध की, हम स्टैंडर्ड लोगों वाली, ब्लैक-टी है। औरत भी अब सामने बैठी है, उसी से पूछता हूँ कि गांव कहा है तुम लोगों का।
"बंगाल"
"बंगाल में कहाँ?"
......
चुप, ख़ामोशी
ओह, तो ये बांग्लादेशी हैं क्या? साले, आ जाते हैं मुँह उठाये मेरे देश में। फिर वोटबैंक के चक्कर में इनके राशन से लेकर मतदाता तक सारे कार्ड बन जाते हैं। इतना बड़ा मुल्क है इनका, उसी में क्यों नहीं घूमते?

आर्य-द्रविड के झगड़े में नहीं पड़ता, पर सुना था कि मेरे पुरखे राजस्थान से आये थे यूपी के गाजीपुर में। पापा वहां से चले तो बनारस, मैं बनारस से यहां, पन्तनगर, उत्तराखंड। जहां खाने पीने रहने का जुगाड़ बैठा, वहीं बस गए। पुणे में देखा था मराठियों का बिहारियों के प्रति आक्रोश, बुरा लगता था। हजारों भारतीय भी निकल जाते हैं हर साल अमेरिका यूरोप। पैसा है जाने वालों के पास, अपनी काबिलियत से अपना मुकाम बना लेते हैं वहां। इन बेचारों के पास पैसा नहीं, पर काबिलियत है, भले ही मजदूरी की, और इन्हें तो पता भी नहीं होगा राष्ट्र 'The State', का मतलब।

चाय खत्म होने से पहले ही औरत झिझकते हुए बोल पड़ती है, "साहब, शाम का खाना हमारे यहां खाएंगे क्या?"
मेरे दिए खुद के लिए बेकार कपड़ों के बदले उसका शुक्रिया अदा करने का ये तरीका दिल छू गया। मुस्कुराते हुए पूछा कि क्या खिलाओगी, उसके बोलने से पहले ही सबसे छोटी रबीना बोल पड़ती है, "अम्मा गोश्त"।

बचपन में हमारे घर भी जब कोई मेहमान आता था तो हम ऐसे ही ललक पड़ते थे, कुछ मजेदार खाने को मिलेगा।

जानता था कि मेरे लिए गोश्त पकाने में उनका बजट गड़बड़ हो जाएगा। फिर भी बच्ची का दिल रखने के लिए हाँ कर दिया, शर्त ये कि मसाले तुम्हारे, गोश्त मैं लाऊंगा।

एक पन्नी में गोश्त पहुंचा दिया है, बहाना भी बना दिया कि यार कहीं शादी में जाना है, आ नहीं पाऊंगा।
दरअसल दिक्कत साथ खाने में नहीं है, मांसाहार में है, सालों पहले छोड़ चुका हूँ।
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कुछ देने गया था, पर ना जाने क्या तो अपने साथ वापस ले आया हूँ। जो मिला है उसे बयां करना संभव नहीं। बड़ा हल्का हल्का सा महसूस हो रहा है।

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**तीन साल पहले लिखी डायरी का एक पन्ना**


अजीत
18 दिसम्बर 16

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