Sunday, 14 August 2016

शब्द मेरे, भाव उसके


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अपनी पिछली ट्रेन यात्रा वाली कहानी में मैंने एक लड़की टाइप लड़के का जिक्र किया था, उसी के कहने पर ये पोस्ट लिख रहा हूं, उसी की जुबान में...
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माँ की महीनों की शारीरिक और पिता की मानसिक तपस्या का फल संतान रूप में प्राप्त होता है, जब घर में बच्चा पैदा होता है तो पूरे परिवार के लिए ख़ुशी का माहौल बन जाता है, पर मेरा जन्म मेरे परिवार के लिए लज्जा का विषय था। अनुमान ही लगा सकता हूँ कि दाई ने लड़का हुआ या लड़की के प्रश्न पर कैसे और क्या जवाब दिया होगा, शायद चुप ही रह गई हो। घर के सारे मेहमान उसी दिन वापस चले गए होंगे। 

उन लोगों को जाने कैसे पता चल जाता है कि घर में बच्चा हुआ है, आ जाते है ख़ुशी में अपना हिस्सा कैश रूप में लेने, पर यहां मेरे घर वालों के लिए कोई ख़ुशी थी ही नहीं, ख़ुशी तो शायद उनके लिए थी, उनकी जमात में शामिल होने के लिए एक नया रंगरूट धरती पर आया था। माँ बताती है कि घरवाले उन्हें ही सौंप देना चाहते थे, पर उसकी ममता के आगे किसी की ना चली। मेरा बाप भी शायद मेरी ही वजह से इतना चिढ़चिढ़ा हो गया होगा। 

लज्जा से बचने के लिए शहर बदल दिया गया, पर शहर बदल देने से क्या सच में कुछ बदला। आप अनुमान लगा सकते हैं उस बच्चे की पीड़ा जिसे कोई प्यार ही नहीं करता, कहीं कोने में पड़ा, डरा सहमा सा, जिसे मतलब ही नहीं पता उस बात की सजा भुगतता हुआ। कोई जिद नहीं कोई ख्वाहिश नहीं, जिसे हँसना नहीं आता, जिसके रोने का कोई फायदा नहीं। जब से होश संभाला, खुद को बिस्तर गीला करता हुआ ही देखा, आज भी, बच्चा था तो रोज ही डांट पड़ती। हर बच्चे की माँ होती है जो उसे सीने में छुपा लेती है पर मुझे ये भी नसीब नहीं था, शुरू में जो ममता दिखाई थी शायद उसकी वैलिडिटी एक्सपायर हो गई थी। 

घर में रखा ही था और सरकारी स्कूलों में फीस भी कम ही होती थी तो पढ़ाई भी चल ही रही थी। पहला दिन याद है जब मास्टर ने कहा था दूसरे बच्चों से कि इसे परेशान मत करना, नर्क में जाओगे। अगले दिन उन बच्चों को नर्क का मतलब पता चल गया था, साथ खेलते तो झगडे भी होते, इसलिए कोई खेलता ही नहीं, ना बांस, ना बांसुरी। घर में अकेला, यहां भी अकेला।

पता नहीं कौन सा क्षण था जब सोच लिया कि पढ़ने से शायद इज्जत कमा सकूँ, वजीफे मिलने लगे तो आगे की पढाई में कोई दिक्कत नहीं आई। बैंक क्लर्क बन गया था 21 की उम्र में। 
पर अब समझ में आ गया कि इज्जत हम जैसों के भाग्य में नहीं। मैं पेपर पर महिला होने के अलावा वो सब हूँ जिसे इस देश में शोषित समझा जाता है। पर इनमें से किसी ने भी मुझे वो इज्जत नहीं दी जो एक सामान्य इंसान को मिलनी चाहिए। महिलाएं भी बड़ा हल्ला करती हैं कि पुरुष उन्हें अपने बराबर नहीं समझता, दोयम दर्जे का मानता है, फिर तुम्हें तो हमारा दर्द समझना चाहिए था ना, पर तुमने भी तो हमें खुद से कमतर ही माना। 

तुम गाय गोबर बंदर सुअर सबकी पूजा करते हो, कहते भी हो कि सबके अंदर परमात्मा, पर जब मुझ जैसों को देखते हो तो तुम्हारी ये थ्योरी हवा हो जाती है। काश कि उसने बन्दर बामन सूवर आदमी औरत के साथ साथ हमारे रूप में भी अवतार लिया होता। वो तो भला हो कि राम कुछ कह गए, कमाने खाने का जुगाड़ हो गया वरना तुमने तो कोई कसर ना छोड़ी होती। 
तुम्हारा स्त्रीत्व और तुम्हारा पुरुषत्व भी अजीब है, जो इंसान सिर्फ अपनी संतति पैदा करने के काबिल नहीं, क्योंकि जिसके माँ बाप के X और Y का गणित गड़बड़ था, तुम उसे हिकारत की नजर से देखते हो। सड़कों पर नंगे फटेहाल बच्चे छोड़ देने वाला भी मुझसे बेहतर माना जाता है।

देखता हूं तुम जैसों को, स्कूलों में सोते हुए, आफिसों में घूस खाते हुए, हॉस्पिटलों में खून चूसते हुए, घरों में औरतों को पीटते हुए, सड़कों पर अपनी मर्दानगी दिखाते हुए, अजन्मे बच्चों को मारते हुए, बूढ़ों को घर से धकेलते हुए, समधी को लूटते हुए, टुकड़ा टुकड़ा जमीन और चंद पैसों के लिए संबंधों और शरीरों की हत्या करते हुए।

हाँ, तुम्हारी परिभाषा के हिसाब से नपुंसक हूं मैं, पुंसत्व नहीं है मुझमें, पर क्या तुममें है?
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शब्द मेरे, भाव उसके...
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तेरा बड्डे गिफ्ट, फिर से हैप्पी बड्डे


अजीत
28 जुलाई 16

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