रमेसरा बहुते साधारण टाइप का लड़का था। साधारण जिले के साधारण गांव के साधारण किसान परिवार में जन्मा। थोड़ी सी खेती थी जो हर दूसरे साल मौसम की भेंट चढ़ जाती। इस पूत के पांव दिखने लगे थे बचपन से ही। गजब का चटोर और चोट्टा, राब गुड़ अचार इससे बचा के रखना पड़ता। कुछ नहीं पाता तो डलिया भर बाजरा या गेंहू ले पहुँच जाता बनिए के यहां, गावों में आज भी विनिमय का ये तरीका अपनाया जाता है। आलसी बड़ा वाला, एक काम टाइम पर नहीं करता, और मजबूरी में करना ही पड़े तो इतने बुरे तरीके से करता कि अगला उसे फिर कभी कोई काम बोल ही ना सके। स्कूल जाना बहुत पसंद करता, पर खाली जाना हाँ, पढ़ना नहीं, क्योंकि रास्ते में सड़क किनारे ढेरों आम बढ़हल कटहल जामुन बेर के पेड़ मिलते। उस टाइम गुरूजी लोग भी इतना पीटते कि कौन पिटने जाए, इससे तो अच्छा की बगीचे में कंचे खेल लो।
कोढ़ में खाज ये कि टीवी पुरे गाँव में सिर्फ इसके यहाँ, लाइट हो ना हो टीवी जरूर चलती, जुगाड़ में हमारे लोगों का ऐसे ही इतना नाम नहीं है, कार या ट्रक की बैटरी से आराम से चल जाते। लोग टीवी के साथ बैटरी भी याद से खरीद लेते, चार्जिंग फी यही कोई दो तीन रुपये। तो प्रोग्राम आता दिन में जो बंक मारने का बहुत बड़ा कारण था, शक्तिमान और युग बदला बदला हिन्दोस्तान।
जैसे तैसे 10वीं पास कर ली, इससे ज्यादा पढ़ने की हिम्मत ना थी छोरे में, सिर्फ आगे और ना पढ़ना पड़े, बन्दे ने सुबह सुबह भर्ती की तैयारी करते लड़कों की देखा देखी दौड़ लगानी शुरू कर दी। बैल बुद्धि तो था ही, ऊपर से लड़के ललकार भी देते, शुरू शुरू में तो सिर्फ पढ़ना ना पड़े इसके लालच में ये सब शुरू किया फिर उसका मन लग गया इसमें। दौड़ते हुए अपने शरीर से बहता पसीना और कसरत के बाद फूलते पिचकते मसल अच्छे लगने लगे। सुबह दौड़ते हुए गंगा तक जाना, फिर लंबी कूद की प्रैक्टिस, फिर वहीं नहा वहा के, साथ लाये भीगे चने चबाना, दोपहर बीतते ही सड़कों पर दौड़ लगाना फिर वापस आकर दंड बैठक डिप्स जैसे पचासों कसरतें करना उसका शौक हो गया।
पहली भर्ती बनारस देने गया, लंबाई थोड़ी कम रह गई, गुस्से में भुनभुनाता वापस आया और रोज घंटों पुल अप करने लगा, अगली भर्ती में फिजिकल स्टैण्डर्ड टेस्ट पास कर गया पर फिजिकल एफिशिएंसी टेस्ट में भरी दोपहरिया में थकान और डिहाइड्रेशन की वजह से दौड़ में रह गया। अब उसने गर्मियों की दोपहर में भी दौड़ना शुरू किया।
इलाहाबाद वाली भर्ती में उसकी मेहनत रंग लाई, रिटेन और मेडिकल भी निकल गए। सेलेक्ट हो गया सीआरपीएफ में। ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग काश्मीर मिली। कंपनी में अलग अलग राज्यों के बन्दे, सहज होने में थोड़ा समय लगा फिर सब ठीक हो गया। एक बार यूनिफॉर्म के कंधे की स्ट्रिप नहीं लगी थी तो साथियों ने मजाक बनाया कि क्यों बे तेरे दिन चल रहे हैं क्या। महिला सिपाही 'उन दिनों' में अपने कंधे की स्ट्रिप के बटन नहीं लगाती, ताकि कमांडर समझ जाए और ज्यादा भारी ड्यूटी ना लगाये। वैसे इन लड़कियों को देखकर बड़ा ताज्जुब होता, फिजिकल में भले ही मापदंड कम हों पर यहां मेहनत तो वो भी बराबर ही करती थी।
पहली बार जब दो महीने की छुट्टी में घर जाने का मौका मिला तो किसी आर्मी वाले की हेल्प से आर्मी कैंटीन से ढेर सारे डव लाइफबॉय आंवला तेल और ना जाने क्या क्या ले गया। दूसरे दिन ही पिता ने बरक्षा तय कर दिया था, लड़का नौकरी में है तो दाम भी अच्छे लगे थे। अगले साल शादी भी हो गई और कुछ ही दिनों में साहबेऔलाद भी हो गया।
काश्मीर यूनिवर्सिटी के गेट पर ड्यूटी थी तो वहाँ के लड़के लड़कियां मुस्कुराते हिकारत की नजर से देख आगे बढ़ जाते। एक बार एक लड़की ने तंज कसा, तुम लोगों की जरूरत नहीं यहां, गो बैक। इसने जवाब दिया, मैडम तुम पढ़ा लिखा है, मुझसे क्यों बोलता है, तुम वोट डालता है ना, अपने नेता से बोलो, मैं तो अपना ड्यूटी देता है।
खबर मिली कि कुछ आतंकी एक घर में छुपे बैठे हैं। मोर्चा लेने इसकी कंपनी गई। घंटो फायरिंग के बाद जब उधर से आवाजे आनी बन्द हुई तो कमांडर ने इसे आगे बढ़ कर खिड़की में से घर के अंदर बम फेंकने को कहा, कोहनी और घुटनों के बल बहुत तेज चलता था ये, छिपकली की तरह सरपट भाग बम फेंक आया, फिर हुक्म मिला, फिर गया, ऐसे ही सात बम फेंक आया। आंठवी बार भी यही हुक्म मिला तो बैल बुद्धि, सीना तान आगे बढ़ा, जब सात बार में कुछ नहीं हुआ, जो अंदर होगा वो तो मर ही गया होगा न, खिड़की पर पहुंच बम फेंकने की जगह अंदर झाँकने लगा, अंदर देखा कि जमीन से लगी लकड़ी के फट्टे से एक नाल झांक रही है और फिर रेट रेट...
साधारण किसान का बेटा बाकियों के लिए साधारण मौत मर गया। रमेश चंद्र का शरीर घर पहुंचा दिया गया, शहीद के तमगे के बिना, इस फोर्स के लोगों को सिर्फ अखबार के एक छोटे से टुकड़े में ही शहीद कहा जाता है।
अजीत
15 अगस्त 16
No comments:
Post a Comment