Thursday, 8 December 2016

यौतक



उनका यूँ हाथ जोड़ना मुझे अच्छा नहीं लग रहा। कंधे कितने झुके से लग रहे हैं। धँसी हुई आँखें, और उसमें घर बना कर बैठी उदासी, मुझे विचलित कर रहीं है। गलती भी तो उन्हीं की है ना, पूरी तैयारी क्यों नहीं की थी उन्होंने? उन्हें तो सब कुछ साफ़ साफ़ पहले ही दिन बता दिया गया था, मानना, ना मानना तो उनकी मर्जी थी न, फिर आज ये नौटँकी क्यों?

पर क्या सच में ही नौटँकी कर रहे हैं वे?
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तीन साल पहले की वो शादी याद आ रही है जब मेरी बहन दुल्हन बनी थी। कितना शौक था दिदिया को अपनी शादी का। लोग कुछ बनने के सपने देखते हैं पर इसे सिर्फ एक ही सपना जीना था, उसे ही पूरा करना था। बचपन की गुड्डी-गुड़िया से कभी बाहर निकली ही नहीं। उससे कोई पूछता था ना कि गुड्डी, तू बड़ी होकर क्या बनेगी, अगली जवाब देती, दुल्हन, और सब हँस पड़ते।

पिताजी को भी समझ आ गया था कि इसे पढ़ना लिखना तो है नहीं, शादी ही कर दो। एक तो हमारे यहां ढंग के लड़के नहीं मिलते, मिलते हैं तो उनके बाप टेढ़े होते हैं। बकरा देखा है आपने, बकरीद वाला, खूब खिला-पिला कर मोटे किये गए, चर्बी वाले बकरे सबसे महंगे बिकते हैं। वैसे ही खूब पढ़े-लिखे, नौकरीशुदा, जमीन-जायदाद वाले लड़कों की खूब बड़ी बड़ी बोली लगती है। कीमत तो खैर सबकी ही लगती है, मोटा चाहे पतला, पर जानबूझ कर कोई पतला बकरा तो नहीं खरीदता ना।

लड़का इंजीनियर, मिलाजुला परिवार, पुस्तैनी घर, बाग़ बागीचा, खेत खलिहान। अब ऐसे सरकारी दामाद को कौन अपना दामाद नहीं बनाना चाहेगा। लड़की की एक तरह से नुमाइश की जाती है हमारे यहां, खैर लड़की पसन्द आ गई उन्हें। बात अटकी तो बस 'बकरे की कीमत' पर। ऐसा नहीं है कि कुछ जमा जथा नहीं था पिता जी के पास, हर लड़की के बाप की तरह उन्होंने भी दिदिया के लिए कुछ पैसे रख छोड़े थे, पर ये उनकी मांग के पासंग भी नहीं था। इतना अच्छा लड़का छोड़ना भी नहीं चाहते थे, इसलिए कुछ सोच विचार कर रिश्ता पक्का कर दिया।

घर में जब फाइनल मोल-भाव बताया तो शुरुआती प्रतिरोध के बाद मांग पूरी करने के गम्भीर प्रयास शुरू किए गए। एफ-डी, एल-आई-सी, जी-पी-एफ से भी जब पूरा नहीं पड़ा तो थोड़े से खेत जो अपने हिस्से में आते थे, वो भी इस शादी यज्ञ में आहूत कर दिए गए।

अपने कठोर पिता की वो दयनीय मुद्रा देखी नहीं जाती थी, तनी मूंछें थोड़ी झुक सी गई थी, खुलकर खर्च करने वाला इंसान अब कुछ महीनों में ही कंजूस हो गया था। फिर भी जीवट वाले, जुबान के पक्के इंसान थे, इसलिए जैसे तैसे सारी मांगों को तकरीबन पूरा कर दिया था उन्होंने।

शादी के दिन बारात आने से पहले ही उनका फोन आ गया था। आश्वस्त होने के बाद ही उधर से बारात चली थी। इतना कुछ करने के बाद भी उन लोगों के मुंह टेढ़े के टेढ़े ही रहे, इसकी क्वालिटी खराब है, बारात का स्वागत ढंग से नहीं किया, खाने में स्वाद नहीं था, और ना जाने क्या क्या।
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आज मेरी शादी है।
पर मुझे दिदिया की शादी ना जाने क्यों याद आ रही है।

क्या अंतर है दोनों में?

होने वाले जीजे की जगह आज मैं हूँ, क्या उस दिन उसे वैसा कुछ महसूस हुआ होगा जो आज मुझे हो रहा है?

आज दिदिया की जगह पर मेरी होने वाली पत्नी है, इसे भी शायद दिदिया की तरह कभी पता नहीं चलेगा कि उसके बाप कई सालों के लिए कर्जदार हो चुके हैं।

और क्या मेरे पिताजी को अपने सामने अपना तीन साल पुराना अक्स नहीं दिख रहा होगा?

वो मेरा होने वाला साला, क्या आने वाले किसी कल में, उसे भी ये बीता हुआ कल याद आएगा?
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अजीत
8 दिसम्बर 16

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