कल नाग पंचमी है, नहीं पता कि क्यों मनाते है इसे पर मुझे बचपन से ही ये दिन बहुत अच्छा लगता था। मैं और मेरा छोटा चचेरा भाई कभी कभी मिलने वाले 10-20 पैसे बचा बचा कर यहीं कुछ 5-6 रूपये जमा कर लेते, इस दिन छोटी छोटी दुकानों पर छोटे छोटे चित्र बिका करते थे नागों के, अलग अलग तरह के, शेषनाग पर लेटे विष्णु, वासुकी पर नाचते कृष्ण, नीलकंठ के गले में लिपटे नागराज, और भी तरह तरह के एकमुहे से पंचमुहें छमुहें साँप। बच्चा ही था, घर में पूजा पाठ की परंपरा कुछ खास नहीं थी, पर नास्तिक कोई नहीं था मेरे अलावा। पर इस दिन इन चित्रों पर बहुत प्यार सा आता था, रंग बिरंगे, चमकते, छूने पर उंगलिया जैसे तैरती थी इन पर। हम दोनों भाई देर तक उनमें से सबसे बढ़िया छांटने की कोशिश करते, डिस्प्यूट होने पर 11 महीने बड़े और 1 क्लास आगे होने से मेरा वीटो चलता। 12-15 चित्र जमा हो जाते तो घर पहुंचकर घरवालों की नजर से बच बचाकर गोबर लिपे खुरदुरे दरवाजों पर ये नरम मुलायम चित्र चिपका देते। मम्मी आजी तो कुछ नहीं कहती पर बड़े भाई के कमरे के दरवाजे पर अगर चिपकाते पकड़े गए तो मुझे तो घुड़की मिलती और भाई को सजा के तौर पर छोटा मोटा काम।
इस मौके पर गांव देहात में कुश्तियां खेली जाती पर हमने केवल सुना ही, कभी देख नहीं पाए, वैसे भी इतने पतले दुबले थे कि मझले भैया खूंटा कह कर चिढ़ाते थे, कुश्ती क्या देखते क्या लड़ते।
बड़े होते गए, सुना, पढ़ा, महसूस भी किया कभी कभी, नास्तिकता आस्तिकता में बदल गई पर पता नहीं क्या फितूर था कि सांप देखते ही मारने की इच्छा कर जाती। ना जाने कितनों को मारा, अहसास होता कि इन्हें मारकर किसी इंसान की जान बचा रहा हूं।
अब सोचता हूं कि इनका भी क्या दोष, हम इनके घरों पर अपने मोहल्ले बसाते जा रहे हैं, ये जाएं भी तो कहां, अतिक्रमण तो हमने किया इनकी जगहों पर। इनका तो प्रकृति प्रदत्त स्वभाव है जहर उगलना, जहर ना हो तो शिकार कैसे करेंगे, खायेंगे कैसे। शायद इनकी प्रजाति को सुरक्षा मुहैया कराने के लिए ही इस त्यौहार का सृजन किया गया हो।
वैसे आजकल इन दिन की प्रासंगिकता बस इतनी ही दिखाई देती है कि हम अपने विरोधी विचारधारा वाले व्यक्ति, समाज या नेता को इस दिन विशेष से जोड़कर चुटकुले बना देते हैं, हँसते हैं, और इस व्यंग कला में वे लोग भी माहिर हैं जो हर दिन रक्षक की भूमिका में दिखते हैं। दूसरों को नीचा दिखाने के चक्कर में अपनी ही परम्परा का मजाक बनाते हैं, अनजाने ही।
इस मौके पर गांव देहात में कुश्तियां खेली जाती पर हमने केवल सुना ही, कभी देख नहीं पाए, वैसे भी इतने पतले दुबले थे कि मझले भैया खूंटा कह कर चिढ़ाते थे, कुश्ती क्या देखते क्या लड़ते।
बड़े होते गए, सुना, पढ़ा, महसूस भी किया कभी कभी, नास्तिकता आस्तिकता में बदल गई पर पता नहीं क्या फितूर था कि सांप देखते ही मारने की इच्छा कर जाती। ना जाने कितनों को मारा, अहसास होता कि इन्हें मारकर किसी इंसान की जान बचा रहा हूं।
अब सोचता हूं कि इनका भी क्या दोष, हम इनके घरों पर अपने मोहल्ले बसाते जा रहे हैं, ये जाएं भी तो कहां, अतिक्रमण तो हमने किया इनकी जगहों पर। इनका तो प्रकृति प्रदत्त स्वभाव है जहर उगलना, जहर ना हो तो शिकार कैसे करेंगे, खायेंगे कैसे। शायद इनकी प्रजाति को सुरक्षा मुहैया कराने के लिए ही इस त्यौहार का सृजन किया गया हो।
वैसे आजकल इन दिन की प्रासंगिकता बस इतनी ही दिखाई देती है कि हम अपने विरोधी विचारधारा वाले व्यक्ति, समाज या नेता को इस दिन विशेष से जोड़कर चुटकुले बना देते हैं, हँसते हैं, और इस व्यंग कला में वे लोग भी माहिर हैं जो हर दिन रक्षक की भूमिका में दिखते हैं। दूसरों को नीचा दिखाने के चक्कर में अपनी ही परम्परा का मजाक बनाते हैं, अनजाने ही।
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