Sunday, 14 August 2016

पडोस

अपने मोहल्ले में, मतलब गली में, शुरू शुरू में 4 घर थे। हमारा, सामने ठाकुर साब, दाएं बगल त्रिवेदी जी और उनके सामने पांडे जी। दस बारह साल हमारे किरायेदार रहे डॉक्टर साब भी हमारे बाएं बस गए। पांडे जी से आप लोग पहले भी मिल चुके हैं। तो ये हमारा छोटा सा मोहल्ला था, सारे के सारे ही उच्च शिक्षित, घरों के मुखिया ऊँचे सरकारी पदों पर। आपस में सौहार्द उतना ही था जितना ग्रामीण परिवेश से निकले मध्यमवर्गीय परिवारों में होता है। सबकी अलग विचारधारा, इसलिए खुद को छोड़ अन्य सभी अजीब टाइप के लोग थे। सुख दुख में इतना साथ जरूर देते कि सलाह देने और फिर मीनमेख निकालने पहुंच जाते, ई कर लेना त उ हो जाएगा, अइसे नहीं भाई वइसे न करना था, हम त पहिलही कहे रहे, बात नहीं मानियेगा त यही न होगा, आदि इत्यादि।
जैसा कि सामान्यतः हर मोहल्ले में होता है, एक दूसरे से ऊंचा दिखने की कामना सबमें ही थी, अब दिखे कैसे, तो इसके निमित्त बनते घर के सामान, सुविधाएं। पांडे जी को सबसे पहले फोन लगाने का अभिमान था, फोन की वजह से रूतबे में अप्रत्याशित उछाल आ गया मानों, जिसे देखो उसी की इनकमिंग आ जाती, झल्ला जाते, रौब दिखाते। कुछ ही दिनों में हमारे यहां भी फोन लग गया और वो पटा गये। किसी के यहां फ्रीज पहले आया तो किसी के यहां मिक्सर ग्राइंडर, जिसके यहां पहले सामान आ जाता वो खुद की नजर में ही ऊपर उठ जाता।
त्रिवेदी जी से उनकी बझी रहती हमेशा, त्रिवेदी जी श्वेत वेश श्वेत केश और श्वेत दाढ़ी वाले बाबा टाइप पुरुष थे, संस्कृत हिंदी इंग्लिश के प्रकांड विद्वान, ग्रह नक्षत्र नाड़ी विज्ञान पर भी पकड़ थी। जब मैंने होश संभाला तभी से रिटायर थे नौकरी से, आज भी जीवित और पूरी तरह स्वस्थ। वन्स अपान अ टाइम, पांडे जी को कोई काम करवाते समय कुछ हजार पांच सौ ईंटों की कमी पड़ गई तो त्रिवेदी जी की काई जमी ईंटें मांग ली। जब वापस देने का समय आया तो बोले कि तुम्हारी ईंटें गन्दी थी। त्रिवेदी कहां कम, बोले लाओ तुम ईंटें तो दो, मैं मजदूर लगवाकर उन्हें गन्दा करवा लूंगा। अजीबोगरीब बात पर लड़ जाते और बारी बारी से मेरे पापा से दूसरे की शिकायत कर जाते।
डाकदर बाबू रेडियो के रसिया, ड्यूटी से वापस आकर सीलोन से लेकर नेपाल तक के स्टेशन पकड़ लेते। लाइट बहुत जाती थी, रात 11-12 बजे तक हमारे बरामदे में डटे रहते। सोचता था कि कोई इंसान का बच्चा कैसे इतनी देर तक कुर्सी पर उकड़ू बैठ सकता है। क्रिकेट के दीवाने, भारत पाक का मैच था, अंतिम ओवर और ये जनाब रेडियो छोड़ बाहर जमीन पर उकड़ू बैठ गए। थोड़ी देर बाद हम लोग मातमी मुँह बनाये बाहर निकले तो फट पड़े, जानत रहें हम, ई साला रोबिनवा कउनो काम का नहीं है, गदहा मतिन मोटा के ससुर क्रिकेट खेलिहें, हम कितना जब्त करते, हँस पड़े, बताया कि छक्का पड़ा और हम जीत गए। जब पूरी तरह विश्वास हो गया तो बोले, देखा, हम कहे रहे ना, ई रोबिनवा में कोई बात है, गजब जुझारू लड़का है।
पर मोहल्ले का नगीना थे ठाकुर साब, पापा और ये चंदौली में एक ही कॉलेज से डिप्लोमा किये, ये पहले सीनियर थे फिर साथी बन गए, फिर जमीन भी आमने सामने खरीदी, मकान बनाया लगभग एक ही डिजाइन का। महिलाओं में भी इतनी मित्रता हो गई थी कि घंटिया लगी थी दोनों घरों में, इधर बजाओ तो उनके घर में, उधर बजाओ तो हमारे घर में चिड़िया चहचहाती। थे तो थोड़े नाटे से, पर इसकी भरपाई अपनी आवाज से कर लेते। फोन पर बतियाते तो मोहल्ला जान जाता कि क्या मसला है। शुद्ध परिष्कृत और विशिष्ट गालियों के जनक थे, इनसे सीखा जा सकता था कि सामान्य बोलचाल से किसी के कानों से कैसे खून निकाल लो आप। रिटायर हो गए तो हमारे 16 घंटे मनोरंजन का जुगाड़ हो गया। सुबह दतुवन करते तो जो विचित्र आवाजें निकलती कि कोई माई का लाल उस समय नाश्ता नहीं कर सकता था। फिर निकलते बाहर एक डंडा लेकर अपनी नाली साफ़ करने, रोज का नियम था। एक बार डाक साब का छः वर्षीय सुपुत्र इनके सामने कमर पर हाथ रख खड़ा हो गया, बोला, का चचा, तोके कउनो अउर काम धाम ना हव का जवन कि रोजे नलिये साफ़ करेला। उस समय मैं और मेरे बड़े भाई छत पर चाय पी रहे थे और पापा सेविंग, इतनी कस के हँसी आई कि पापा ने अपना गाल काट लिया और हम दोनों भाइयों ने चाय का फुहारा मार अपने कपड़े गन्दे कर लिए। पड़ोसी मोहल्ले में कुछ सूवरें थी जो आ जाती हमारी नालियों में अपना नाश्ता खोजने, कितना भगाओ पर ये ढींठ, हिलती तक नहीं। एक बार इन्हें आया गुस्सा, हाथ फैला खड़े हो गए, बोले, भाग जो इहाँ से तोरी मतारी क..... और गहन आश्चर्य कि वो अपनी मतारी की इज्जत बचाते हुए पलट के भग ली। पहली बरसात के बाद निकलने वाले पीले मेंढकों के टर्राने से इतना व्यथित हो गए कि टॉर्च लेकर निकल पड़े, और एक एक मेंढक को इतना हड़काया कि पूरे पांच मिनट शांति रही।
इन सबमे पापा सबसे कम उम्र थे, फिर भी ये चारों महाशय हमारे यहाँ ही जुटते, ज्ञान विज्ञान धर्म राजनीति पर चर्चाएं होती। आपस में झगड़ा वगड़ा हो तो शिकायत भी पापा से की जाती। पांडे जी तो पहले ही निकल लिए, फिर पापा भी, उनके जाने के बाद कोई बैठकी कभी हो ना पाई। आज भी ठाकुर साब सारे ही काम करते हैं पर आवाज में वो बुलंदी नहीं दिखती, त्रिवेदी जी भी चुपचाप अपने घर में पूजा पाठ में लगे रहते है और डाक साब तो अब दिखते ही नहीं।

अजीत
9 अगस्त 16

No comments:

Post a Comment