Sunday, 17 July 2016

मुसल्ले ईमान




आपने कभी ध्यान दिया कि फिल्मों में अधिकांशतः मुसलमानों को दयालु भावुक मित्रवत देशभक्त दिखाया जाता है। शोले के इमाम साहब, अहमद, जंजीर का शेर खान जैसे तमाम उदाहरण मिल जायेंगे। मेरे कुछ मित्र भी हैं ऐसे। इन फिल्मों को देखकर बचपन से ही ये अवधारणा बन गई थी कि कुरता पायजामा, गोल सफ़ेद टोपी पहनने वाला, माथे पर काले निशान और दाढ़ी वाला शख्स मानवता के गुणों से लबरेज होगा।

धीरे धीरे बड़े हुए तो खुद देखने समझने की अक्ल भी आई। ईद बकरीद पर सेवई और बोटियाँ छक कर खाते पर होली में उन्हें रंग ना लगा पाते। मजार पर हम भी सर झुकाते पर वो हमारे हाथ से परशाद नहीं ले पाते।

जिन गलियों में हम धड़ल्ले से घूम आते थे, अब उनमें जाने में डर लगने लगा। पता नहीं कहाँ गलती हुई।

हम भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। हमारे यहाँ भी 1 से बढ़ के 1 नमूने हुए, आशाराम जैसे ना जाने कितने, पर हमने ही उनको खूब लताड़ा, पर ओसामा से लेकर बगदादी तक आप खुल कर उनकी मजम्मत ना कर पाए। 1 इबादतगाह तोड़ने पर पूरी दुनिया हिला दी, बामियान जैसे हज़ारों पर आप खामोश रहे। दूर फिलिस्तीन और म्यांमार का दर्द आपने महसूस कर लिया पर अपने ही मुल्क में मुहाजिर बने लोग आपको नहीं दिखे। आपको डेनमार्क का कार्टून बर्दाश्त नहीं होता पर आप उस बुढ्ढे चित्रकार की नंगी तस्वीरों पर आँखे मूंदे रहे। आप हम साथ रोटी बोटी खाते हैं पर कोई फ़िल्मी हीरो असहिष्णुता पर ज्ञान देता है तो आप जवाब नहीं देते।

सुनते हैं की इस्लाम खतरे में है, शायद आप सही हैं, पर सोचिये की खतरा किससे है। कहीं आपकी चुप्पी का योगदान सबसे ज्यादा तो नहीं।

आप कहेंगे कि मैं आपका विरोध कर रहा हूँ, हाँ भाई, कर रहा हूँ। अगर आप अपने हैं तो आपकी शिकायत आपसे ही तो करूँगा ना।


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