Sunday, 17 July 2016

दोमुहांपन


मीरा, कामतापरसाद जी की कई संतानों में से पांचवी थी कि छठी, ये जानने के लिए वो अपनी पत्नी पर ही निर्भर थे। महाशय उच्च कोटि के ब्राह्मण, पूरे गाँव के सम्पन्न परिवारों के पुरोहित थे। थोड़ी बहुत जजमानी और फिर कथा प्रवचन में दिन भर इतने व्यस्त होते कि अपने बच्चों पर ध्यान ना दे पाते। कृष्ण भक्त कामतापरसाद के दिन की शुरुआत मन्दिर में राधा-कृष्ण की विधिवत पूजा से शुरू होती। प्रवचन ना दे रहे होते तब भी मुँह से राधा-राधा निकलता रहता। जजमानी से इतना कमा ही लेते जिससे भोजन वस्त्र की व्यवस्था हो जाती।

मीरा बालिका से युवा बनने के चरण में थी। बचपन से ही गजब शरारती। अल्हड़ मस्त छोरी, घर के छोटे मोटे काम निपटा निकल जाती मस्ती करने। अजीब शरारतें होती उसकी, धागे में टिड्डा बाँध छिपकली को खिलाती, फिर छिपकली पर पूरा नियंत्रण उसका, मेंढक की टांगों को रस्सी से बांधना, कोहड़े के गूदे को बड़ी नफासत से निकाल यथास्थान रख देना, अपने कालू कुत्ते के लिए गेंहू बेच कर बर्फ के गोले खरीदना, दादी की हुक्के की चिलम छुपा देना, तालाब में घुस सिंघाड़े खाना और ना जाने क्या क्या। 

जब तक बच्ची कहलाने की उमर थी लोग हस के टाल जाते। पर अब बड़ी होने लगी, पड़ोस की चाचियों और भौजियों ने मीरा की अम्मा को टोकना शुरू कर दिया। बच्चियों से उनका बचपन छीनकर उन पर जवानी का बोझ डालने का काम बखूबी करती हैं ये पड़ोसनें। टोकाटाकी शुरू, बड़ी हो गई है, संभल के चला कर, कितनी बेशर्म हो रही है, दुपट्टा, कपड़े, आँखें नीचे। इतना कूट कूट कर भरा जाता है ये सब कि उन्हें लगने लगता है कि कुछ तो हो रहा है। टोकाटाकी करने वाली भी वही होती हैं जो सबसे ज्यादा कलुषित करती हैं मन। निर्बोध बालिकाओं के मन में नई उमंगे पैदा करती हैं ये नई अधकचरी बातें। अल्हड़ मीरा पर भी प्रभाव पड़ने लगा। अब उसने भी खुद में होने वाले परिवर्तनों को महसूस किया। दूसरों की बदलती निगाहों को भी समझने लगी धीरे धीरे। अब उसका मन इस फालतू की शरारतों में नहीं लगता। 

शहरियों को गाँव बड़े प्यारे से लगते हैं। आपसी मेलजोल और सद्भाव, लहलहाते खेत, मुस्कुराता किसान, गाय बैल। कुछ गांव शायद होते हो ऐसे, पर यकीन मानिए गांव भी गंदगियों से भरपूर होते हैं। बजबजाती नालियां, सड़ते घूरे, गलियों सड़कों पर होते अवैध कब्जे, दीवानी और फौजदारी के मुक़दमे। सबका ध्यान इस पर होता है कि किसकी आयुष्मति पुत्री बड़ी हो गई है और अब वो किसके चिरंजीवी पुत्र के साथ 'सेट' है। युवक युवतियों में 'जिज्ञासा' बनी रहती है। परन्तु कुछ सच्चे प्रेमी भी होते हैं। इन सच्चों में एक किसना भी था। ठाकुर साहब का साहबजादा, बांका जवान, नाग पंचमी के दंगल का वीर। मीरा को जब भी देखता, आँखें चमक सी जाती, सिर में तितलियाँ उड़ने लगती, पेट में गुड़गुड़, मीठा दर्द सा होने लगता दिल में।

समस्या थी कि दिल का हाल बताए कैसे। पर उसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। मीठा वाला दर्द उधर भी होता, आँखों की मूक भाषा ने ही सारा हिसाब समझ लिया। बिना बोले वो एक दूसरे के हो गए। एक दूसरे को बिना देखे उन्हें चैन नहीं आता, और पता नहीं एक नजर में वो क्या बातें कर जाते। चंचल चुलबुली हँसी शांत मुस्कान में बदल गई। दिन बीतते जाते, प्रेम प्रगाढ़ होता जाता। 

कोई कितना भी होशियार क्यों ना हो ले, इश्क़ मुश्क़ वाली कहावत, इन भौजियों की नजरों से बचा है कोई आज तक, सुगबुगाहट शुरू हो गई। कामतापरसाद तक भी बात पहुँची, जैसे पैरों तले जमीन खिसक गई। ब्राह्मण की बेटी राधा, ठकुरे किसना के साथ, घोर कलजुग आ गया अब तो। समाज क्या कहेगा, ये कुलच्छनी तो इज्जत डुबोने में लगी है। आनन फानन बिटिया का बियाह तय कर दिया। एक बार भी उन्हें अपने आराध्य राधा-कृष्ण की याद नहीं आई। रुक्मणी का प्रेम या प्रेमवश सुभद्रा हरण याद नहीं आया, जबकि दिन भर यहीं कथा कहानियां बांचते।


जैसे जैसे शादी का दिन नजदीक आता, मीरा सूखती जाती, फिर विवाह के एक दिन पहले वो अल्हड़ मीरा जो अपने किसना से बिछड़ने का गम बर्दाश्त नहीं कर सकती थी, उसने राधा के किशन के सामने सर पटक दिया।


कृष्ण भक्त कामता की इज्जत बच गई, लड़की मर गई।





No comments:

Post a Comment