Sunday, 17 July 2016

नर्क और न्याय



हमारे मोहल्ले में एक से बढ़कर एक महानुभाव रहते थे। इन रत्नों में 1 थे पांडे जी, सरकारी मुलाज़मत से रिटायर, और घोर अंग्रेजीदा। तन, मन, रहन सहन सब अंग्रेजो टाइप। महीने, दो महीने में 1 बार हमारे घर आते और पापा को छोड़ सबको नाराज कर जाते। पापा से तकरीबन 20 साल बड़े होंगे, इसलिए शायद पापा उन्हें कुछ कहते नहीं, हमारे नाराजगी दिखाने पर कहते कि छोड़ो, उनके अपने विचार हैं, और दूसरों के विचारों का सम्मान करना चाहिए। पांडे जी हर विषय के विशेषज्ञ समझते खुद को और सबको टोकते रहते। ये वो समय था जब पड़ोसी भी घर का सदस्य जैसा होता था। हम बच्चों की आदत थी स्कूल जाने से पहले घर के सभी बड़ों के पैर छूने की, 1 बार ये भी बैठे थे तो हम कुल जमा 7 बच्चों ने इनके भी चरण स्पर्श कर लिए, ये महोदय भड़क गए पापा पर, क्या कूपमंडूक बना रहे हो बच्चों को। दादी पर भड़क जाते कि क्या सुबह सुबह मन्दिर जाती हो इस उमर में, माँ को बोलते कि क्या जरूरत है इतनी मेहनत से अचार मुरब्बे बनाने की, बाजार से ले आओ।
घर तो इनका बड़ा नहीं था पर खाली जमीन बहुत थी, आम अमरूद के पेड़ लगे थे, वो विलायती वाले, छोटे छोटे पेड़, फलों से भरपूर। हम बच्चे तोड़ लाते, इन्हें और बहाना मिल जाता हमारे संस्कारों को गरियाने का। 

इनका बेटा बड़ा काबिल निकला, अच्छी नौकरी, बहू की खोज शुरू की। पढ़ी लिखी वेल एजुकेटेड लड़की से कोर्ट मैरिज करा ले आए घर। पांडे जी जितने पतले दुबले, इनकी श्रीमती उतनी ही तंदरुस्त। कुर्सी से उठाने के लिए 1 वयस्क या 2 बालक लगते थे। शरीर के अनुपात से ये विचारों में भी अपने पति से आगे ही थी।

समय अपने रफ़्तार से बढ़ता गया और पांडे जी का हमारे घर का फेरा भी बढ़ा। पहले जो महीने में 1 बार आते थे अब रोज ही आने लगे। अपने पुत्र और पुत्रवधु की जी भरकर तारिफ करते। पता नहीं क्यों, घर में क्या बना था, आज क्या खाया, जैसी चीजें बताने लगे। हाँ, कुछ बदल से गए थे, अब हर बात का विरोध करना छोड़ दिया था, और तो और पापा से धर्म और भारतीय साहित्य पर बातें करने लगे। हमें उकसाते कि जाओ बच्चों, पेड़ पर अमरुद पक गए हैं, जाओ तोड़ लो। माँ से कहते, सुनो अजीत की माँ जरा वो मुरब्बा तो चखाओ। बाटी चोखा बनवाने की जिद करते। कभी होरहा भुनता तो मचल जाते। 
जिस रफ़्तार से इनके विचार बदलते गए उसी रफ़्तार से स्वास्थ घटता गया। पत्नी का भी वही हाल। पांडे जी पहले मुक्त हुए जीवन से, अब इनकी पत्नी आने लगी हमारे घर। 8-8 घंटे बैठी रहती। पांडे जी के गुजरने के 7 महीने बाद ये भी निकल ली। 1 दिन पहले खिचड़ी बनवाकर खाई थी।

बहुत दिनों बाद चाचा ने बताया, पांडे जी के छोटे भाई ने कई बार इनसे गुहार लगाई थी कि माँ को ले जाओ गावँ से, कब तक अकेले सेवा करू इनकी। कई बार कहने पर ये अपनी माँ को ले आये बनारस। इनकी माँ दिन भर पड़ी रहती मन्दिर में, शाम को याद आने पर ले आते उन्हें वापस घर। बड़ा बुरा अंत बीता था बुढ़िया का।

कुछ सालों बाद सुना कि छोटे पांडे जी (सुपुत्र) की पत्नी जी को कैंसर हो गया था, अपने पीछे 10 साल के बच्चे को छोड़कर दर्दनाक मृत्यु को प्राप्त हुई। इनके मरने के 10 महीने बाद छोटे पांडे जी ने फिर से विवाह कर लिया। 
सुना है वो बच्चा भी अब युवक हो गया है, प्रोफाइल बनाई है शादी डॉट कॉम पर।




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