Sunday, 17 July 2016

मिलन


राघव मेरा कोई बहुत घनिष्ठ मित्र नहीं था। रोज बस में मिल जाता आते जाते, फिर धीरे धीरे बातचीत होने लगी। पिताजी ने हरक़्यूलिश साइकिल ख़रीदी थी मेरे लिए, पर टाई के साथ साइकिल कुछ जमी नहीं, सो महानगरी बस से जाने लगा कॉलेज। भले पूरी बस खाली हो पर मैं पिछले गेट पर ही खड़ा होता, यही आदत राघव की भी थी। दोस्ती हो गई। 

9-9:30 के टाइम बस में ज्यादातर कॉलेज जाने वाले ही होते थे, कितनी ही प्रेम कहानियां उन बसों में बनती बिगड़ती। सबसे पिछली वाली सीट लड़कियों के लिए रिजर्व थी। उन लड़कियों में एक परी भी थी। हम दोनों ही को लगता की वो हमें ही देखती रहती हैं। अपने आप को ऋत्विक से कम समझता भी नहीं था मैं। पर कुछ ही दिनों में साफ़ हो गया की उसकी नजरेंइनायत मुझ पर नहीं राघव पर थी। दिल थोड़ा सा दरका जरूर पर लगभग तुरंत ही हमने उसे राघव की सीता मान लिया। राघव की प्रेमिका और मेरी दोस्त, नाम सिया सिंह।

प्रेम बढ़ता गया, सुगंध फैलती रही और सिया के पिताजी के नथुनों तक पहुँच गई। अब प्रेम कोई गुलाब तो है नहीं जो सबको पसंद आए तो सिया की शादी तय कर दी गई बच्चा सिंह से। 

बच्चा विद्यापीठ यूनिवर्सिटी का मठाधीश था, मठाधीश उन पुराने छात्र नेताओं को बोलते हैं जो पहले नेता बनते हैं फिर नेता बनाते हैं, पास आउट हो चुके होते हैं पर रहते हॉस्टल में हैं। बच्चा इसका उपनाम था। बनारस के छात्र नेताओं के उपनाम हुआ करते हैं जैसे बच्चा, डिस्को, बॉक्सर, झुनझुन। बच्चा मुझसे 5-6 साल बड़ा था, बचपन में गेंतड़ी या क्रिकेट खेलते समय खूब झगड़े होते थे इससे, महाझगड़ालू। मारपीट शराब दादागिरी इसके गुण थे, 3-4 पुलिस केस तो लगे ही रहते इस पर। विद्यापीठ से छात्रनेता बना। खूब पैसा कमाया, 2 बसें निकाल ली उन पैसों से। फिर ठेकेदारी शुरू की।

राघव, मैं और सिया इसे राक्षस कहते। राघव और सिया ने भागने का प्लान बनाया। प्लान था कि शादी के 6 दिन पहले ये दोनों पूना भाग जायेंगे। सिया को मुगलसराय स्टेशन तक लाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई, बाइक चलानी मुझे ही आती थी इसलिए। राघव स्टेशन पर मिलता। रात पौने तीन की ट्रेन थी और मैं 1 बजे राम भक्त हनुमान बनकर सिया के घर के बाहर पहुँच गया, पर सिया नहीं आई, बाद में मालूम चला कि घर वालों को शक हो गया था। प्लान फेल, और सिया हो गई राक्षस की। कुछ ही दिनों बाद राघव ने बताया कि सिया ने पहले ही दिन बच्चा को अपने बारे में बता दिया था। बच्चा को बहुत गुस्सा आया था, पर जब शांत हुआ तो सिया से कहा कि तुम जब चाहो जा सकती हो, अपने आशिक के कहो कि आकर ले जाए। तलाक का केस लगा दूंगा जल्द ही। 

राघव ने 2 साल का समय मांगा, अपने पैरों पर खड़ा हो जाता फिर सिया को ले जाता। पहली बार मुझे राघव समझ नहीं आया। जब पूना ले जा रहा था तब भी कौन सा वो कुछ कमाता था। इसका मतलब वो समझ भी रहा था? अगले दो साल तक सिया पत्नी, बहू, भाभी बनने का नाटक करती? क्या बच्चा ऐसा होने देता? पर ताज्जुब, ये सब हुआ। दो सालों तक ये नाटक खूब अच्छे से चला। 

अगले 2 सालों में राघव की नौकरी भी लग गई और सिया का तलाक भी हो गया। सिया कितनी खुश हुई होगी, और बच्चा ने भी मुक्ति की सांस ली होगी। मैदागिन के कॉफी कॉर्नर में विदाई तय हुई। इस बार सिया को राघव से मिलने से कोई नहीं रोक सकता था, खुद राक्षस ही मिलवा रहा था। मैं अकेला राजदार था तो मुझे भी बुलाया गया। मेरी आदत है समय से पहले पहुँचने की, सो 10 मिनट पहले ही आ गया। समय पर बच्चा और सिया भी आए। सिया के चेहरे की ख़ुशी देखने लायक थी। आखिर तपस्या का फल जो मिलने वाला था। बच्चा का चेहरा पढ़ नहीं पाया मैं। बड़े प्रेम से मिला मुझसे। राघव लेट हो रहा था, बनारस में जाम भी तो कितना लगता है। हम तीन अपने अपने ख्यालों में खोए बैठे रहे। चुप्पी सबसे पहले बच्चा ने ही तोड़ी, बचपन की मार पीट याद करने लगे हम। फिर तो जो बातों का सिलसिला चला की मजा ही आ गया। समय जैसे जैसे गुजरता गया, सिया के चेहरे की ख़ुशी कम होती गई। 3 घंटे बीत गए पर राघव की कोई खबर नहीं। उसके मोबाइल पर फोन लगाते तो अंदर बैठी औरत बोलती 'द पर्सन यू आर ट्राइंग टू कॉल इज़ नॉट रीचेबल'। समय बीतता जाता और चेहरों के रंग बदलते जाते, सिया का काला, मेरा लाल और बच्चा, पता नहीं किस मिट्टी का बना था, जैसा आया था वैसा ही बना रहा। 

आखिरकार जब शाम के 8 बज गए तो अचानक बच्चा उठा और मुझसे हाथ मिलाने के बाद सिया से अपनी भारी खरखरी आवाज में बोला "चलो, घर चलो।"।
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और मैं उन्हें जाते देखता रहा.....

देखता रहा सिया का हाथ मजबूती से थामे उस महामानव को.....
देखता रहा रावण को राम बनते हुए......



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