थोड़ा असहज विषय है, धैर्य रखियेगा।
ये जाति और इससे पैदा हुआ जातिवाद मुझे कभी समझ नहीं आया। अपनी अपनी जाति में मगन लोगों को देखता हूँ तो थोड़ा दुःख थोड़ी हँसी आती है। कोई अपने ज्ञानी होने तो कोई अपने वीर होने के घमण्ड में डूबा है। पूछो तो सत्रह का पहाड़ा ना सुना पाएं, वीर तो ऐसे की सर पे छिपकली गिरे तो कुचिपुड़ी और ब्रेक डांस एक साथ निकल जाए। कुछ इमसें भी बड़े वाले हैं,अपने दलित शोषित होने का चेक भुना रहे हैं। पूछो कि भाई तुम जो इतना इतरा रहे हो, उसमें तुम्हारी क्या काबिलियत है। जैसे सब पैदा होते हैं वैसे ही तुम भी हुए, तुम ऊपर से तो टपके नहीं, ना ही खदान से खोद के निकाले गए, फिर ये घमण्ड क्यों?
क्या कांसेप्ट है जाति का, अगर सब ब्रह्मा के शरीर से ही निकले तो कुछ ऊँचे और कुछ नीचे कैसे, भगवान के अंश भी क्या एक दूसरे से कम महत्व रखते हैं। अगर सारी जातियां ऋषि कश्यप की संतान हैं तो भी हमारे पूर्वज तो 1 ही हुए।नास्तिकों के लिए यहीं तर्क है की हम सब मैथुनी क्रिया से ही पैदा होते हैं, और होमो सेपियन्स हैं, इसलिए हममें कोई अंतर नहीं। कोई अंडज, स्वेदज हो या होमो सेपियन्स ना हो तो बात अलग है।
फिर ये जातिगत श्रेष्ठता या हीनता की बात आई कहाँ से???
अलग अलग विधाओं के वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, रिसर्चर, मैथमेटिशियन, एस्ट्रोनॉमर, लेक्चरर, प्रोफेसर जैसे काम करने वाले लोगों को ऋषि मुनि कहा जाता था, अब ऐसे प्रोफ़ेशन की इज्जत तो आज भी की जाती है, उस समय भी होती थी।
आज भी हम अपने सैनिकों को गर्व और सम्मान से देखते हैं, और आज तो खैर उतना संकट भी नहीं है। पहले हर समय साल के 6 महीने यही मार काट मची रहती थी, सैनिक दैनिक जरुरत थे।
समाज का दूसरा वर्ग इनकी विद्वता वीरता का सम्मान करता था, कालान्तर में विद्व वीर वर्ग की संतानों ने इसे अपना अधिकार समझ लिया, उनकी एकमात्र (अधिकतर की) काबिलियत यह थी कि ये उन विद्वानों और वीरों के वंशज थे।
दूसरी तरफ वो वर्ग था जो देखता था की हमसे ज्यादा सम्मान का अधिकारी कोई और है, उसे अधिक सुविधाएं प्राप्त है, उतनी ही या शायद ज्यादा ही मेहनत करता है पर उसे in comparison फल नहीं मिलता, और ये कई पीढ़ियों तक होता रहा। सम्मानित वर्ग जिसे तमाम सुविधाएं मिली थी और कामगार वर्ग में खाइयां बढ़ती गई। जिसे लगातार विशेष सुविधाएं मिलेंगी वो श्रेष्ठ महसूस करेगा ही, और जिसे इन सबसे वंचित रखा जायेगा, उसका भी अधिकार किसी और को दिया जायेगा तो वो हीनता महसूस करेगा।
समय बदला
फिर एक ऐसा समय भी आया जब लोगों ने महसूस किया कि ये तो गलत हो रहा है, क्यों 1 इंसान दूसरे इंसान से श्रेष्ठ समझा जाए। पीढ़ियों से जिन्हें दूसरों के मुकाबले कम अधिकार दिए गए थे, उन्हें समान अधिकार दिए गए। फिर उन्हें भी समाज के हर क्षेत्र में अपना स्थान बनाने के लिए कुछ विशेष सुविधाएं दी गई।
समय है, लगातार बदलता है
(कहीं भविष्य में)
1 समय था जब कुछ लोगों के अन्याय की वजह से 1 वर्ग को दमित शोषित रखा गया, फिर उन दमितों शोषितों को बराबर का हक़ देने के लिए उन्हें कुछ विशेष अधिकार दिए गए। और यह पीढ़ियों तक चला।
पहले कुछ लोगों ने अपने पूर्वजों की विद्वता वीरता को पीढ़ियों तक भुनाया, और दूसरों को दलित बना दिया। फिर कुछ लोगों ने अपने पूर्वजों के शोषण को पीढ़ियों तक भुनाया और पहले वालों को दलित बना दिया। अब उनसे सुविधाएं छीन कर इन्हें दे दो। चलने दो ये चक्र। बनते रहने दो अभिजात्य और दलित वर्ग।
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