Sunday, 17 July 2016

प्रगति


बहुत सालों बाद पिछले महीने अपने चचेरे भाई की शादी में गांव जाना पड़ा। जी हां, सही सुना आपने, 'जाना पड़ा', कई साल पहले खानदानी लड़ाई में इतने कांड हुए कि अब जाने में कई बार सोचना पड़ता है, पर वो फिर कभी। हां तो करीब पांच साढ़े पांच साल बाद अपने गाँव गया। वैसे गांव जाना और वहां तक का सफ़र यदि बाइक से हो तो बहुत आनन्द देता है। छोटे भाई की बिलकुल नई नकोर अवेंजर बाइक, पिट्ठू बैग और गर्मियों की मस्त सुबह। सैदपुर में पहला स्टॉप लिया, रेलवे क्रोसिंग बहुत रुलाती है वहां लोगों को, पर हमें कोई जल्दी नहीं थी, जा के बैठ गए चाय की दुकान पर। प्रगति केवल शहरों तक ही सिमित नहीं रही अब, छोटे कस्बों और गावों तक में फ़ैल चुकी है, इसका अहसास हमे 5 रूपये की डिस्पोजेबल कप में मिली चाय से हो गया। 10 परसेंट दिल टूट गया, जिन्होंने कुल्हड़/भरुका में कभी चाय पी हो वो समझ सकते हैं इसे। एक बात तो है वैसे, गांव के लोग गजब मजेदार बातें करते हैं। एक पेपर पीने और चाय पगुराने में मशगूल शख्स ने कहा, भाई बड़ मस्त गाड़ी ह हो, बिल्कूले घोड़ा मतिन, केतना में मीलल मरदे? मेरे एक लाख के आसपास बताने पर बोला, हैं! त एम्मे पेट्रोले पड़ेला की सोना चांदी। 

रेलवे क्रॉसिंग खुल गया, और हम बढ़ लिए। मस्ती में चलते हुए लगभग 2 घंटे में नजदीक पहुँच गए। अब बस मेन रोड की बाजार जिसे चट्टी कहते है से करीब 1 किलोमीटर अंदर खड़ंजे वाली रोड पार करते ही नहर और फिर उसके बाद मेरा गांव। रोड से अंदर मुड़ते ही 20 परसेंट दिल फिर टूट गया। वो जानी पहचानी खड़ंजों वाली रोड की जगह, वही काली नीली सड़क, बड़े बड़े गढ्ढों के साथ। नहर पर आते ही बाकी बचा खुचा दिल था वो भी कीरिच कीरिच हो गया। 

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गांव की जो पहली बिलकुल साफ़ सुथरी याद है वो पांचवी क्लास की है, पापा मम्मी छोटा भाई और मैं, सीडी100 बाइक पर सवार, पीछे सिलेंडर बंधा हुआ। आज कार में वो मजा नहीं आता जो उस बाइक की टंकी पर आता था। 
नहर के दोनों किनारों पर ढेरों लिप्टस के पेड़, नहर में बहता पानी, उसमें नहाते बच्चे और भैंस, पुल से उतरते ही करीब 40 42 आम कटहल, ज्यादातर आम का बगीचा, तालाब, पाठशाला।
शहरी लड़का था तो गांव के बच्चे घेरे रहते। उन हट्टे कट्टे और अधनंगे बच्चों में मैं दुबला पतला, हरी हाफ पेंट और लाल टीशर्ट में अजीब लगता। हिटलर पापा भी हातिम ताई मोड में आ गए थे गांव में। सुबह गांव से दूर गंगा में नहाना, खरहों के पीछे भागना, टिकोरा बीनना, दोपहर में देहाती बच्चों से 'ज्ञान' प्राप्त करना, पन्ना पीना, आम और जामुन की पार्टी डायरेक्ट पेड़ो से, और ना जाने क्या क्या। पानी तो इतना मीठा कि जवाब नहीं। 
एक पागल बुढ़उ थे, बटेसर बाबा, अजीब सनकी। बगीचे में बच्चों के पीछे पीछे लगे रहते, जैसे ही कोई बच्चा आम चूस चाट कर गुठली फेक देता, लपक के उठा लेते। बड़े गौर से उस लशलशी चिपचिपी गुठली को घूरते, कभी कभी तो लगता कही मुँह में ना डाल ले। बाकी बच्चे देखकर हँसते और मुझे घिन के मारे उल्टी जैसा होने लगता। बच्चे तो बच्चे, बड़े लड़के भी कभी उन्हें देखते तो लिहाड़ी लेते, खाया अधखाया आम उन्हें दिखाते और विपरीत दिशा में फेंक देते। फिर तो जो गालियां झड़ती उनके मुखारबिंदु से की कान पक जाए। इतनी गालियां खा कर भी लड़के रोज यही काम करते और वो इतनी बत्तमीजी सह कर भी गुठली जरूर उठाते, उसे देखते, फिर अपनी मड़ई में चले जाते।
अपने बाबा से पूछा कि ये करते क्या है इन गुठलियों का। बाबा बोले, एकाध दिन में खुदे देख लेना।फिर एक दिन उन्हें देखा, बगीचे में गुठली दबाते हुए, कई जगह उन्होंने गुठलियां दबाई। बाबा को बताया मैंने आँखों देखा हाल, बोले ये पूरा बागीचा जो तुम देख रहे हो, पिछले 40-50 साल से इस बटेसर की वजह से ही है। ये आदमी गुठली देखकर समझ जाता है कि इससे पेड़ बनेगा, हर साल बीसों गुठलियां दबाता है। कुछ कुत्ते खोद जाते हैं, जो उगती हैं उन्हें बकरी बैल खा जाती है या ये बच्चे खेल खेल में उखाड़ देते हैं। फिर भी तीन चार साल में एक दो पेड़ बच ही जाता है। ये हरियाली इस पगले बटेसर की वजह से ही है। बाबा और भी पता नहीं क्या क्या बोलते रहे और मेरा ध्यान बाहर चरती बकरियों पर था, कल ही एक लड़के ने बकरी की दूध की धार डायरेक्ट मेरे मुँह में मारी थी।

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नहर पर आकर अपनी बाइक रोकी। सूखी नहर, दोनों किनारों पर कुल 2 लिप्टस के पेड़, फिर जब नहर से आगे बढ़ा तो बागीचा दिखा ही नहीं, उसकी जगह एक तरफ थ्रेसर लगा था भूसा छोड़ता हुआ, दूसरी तरफ बच्चे क्रिकेट खेलते हुए, जहां तालाब था वहां कूड़े का ढेर। 

प्रगति मेरे गांव तक पहुँच गई थी।

बटेसर बाबा को मरे 15 साल हो गए थे।




3 जुलाई 16

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