Sunday, 17 July 2016

पुकार



कांकड़-पाथर जोड़ के, मस्जिद लिया बनाय। 
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।
                                                                 (कबीर)
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कल डिनर करने बाहर गए थे (फेसबुक स्टेटस नहीं डाले क्योंकि वेट करना पड़ा और हम रिसिया गए)। काफी लेट घर पहुंचे, गर्मी प्रचण्ड, जैसे तैसे सोये। आपने भी अनुभव किया होगा कि गर्मियों की भोर में गजब प्यारी नींद आती है। कुनमुनाते कुनमुनाते भोर के टाइम मस्त नींद आई ही थी की धर्म ध्वज रक्षकों की आवाजें आने लगी, चलिए गनीमत थी की 3-4 मिनट में फिर से शांति छा गई, हम भी खर्रामा खर्रामा 10 मिनट बाद फिर से निन्दियां गए, बमुश्किल 10 मिनट बाद किसी बिरहा स्टाइल का भजन शुरू हो गया। अब सोचिये कि हमरे मन में किस किस के लिए मुख पूजन का ख्याल आया होगा। 

शिकायत करने गए तो पंडि जी बोले, "भाई अजीत तुम तो यार धार्मिक टाइप आदमी हो, कम से कम तुम तो ऐतराज ना करो। हम तो लोगों को इसी बहाने भजन सुना देते हैं।" लो सुनो, मुझे तो भोजन में भी बड़ी रूचि है, कब्बो बुलाये, और कभी मन नहीं तो क्या मुँह में जबरी तरकारी ठूस दोगे कि भाई हम तो खिला ही रहे हैं न। 

पुराने जमाने में नहीं थी घड़ी, थी तो सबके पास नहीं थी। अलार्म जैसी चीज भी 'मुर्गा' ही थी, और ये मुर्गे भी बड़े बदमाश, कभी भी चिल्ल पों। तो किसी समझदार ने मोहल्ले को बताने के लिए कि भाई चलो इबादत का टाइम हो गया, मीनार पे चढ़ के आवाज देने का बहुत बढ़िया इन्तिजाम सोचा। 
आज तो लोग सास बहु सिरियल के लिए भी वेक अप कॉल, नोटिफिकेशन टोन सेट करके रखते हैं, हर घर में अट्ठारह फोन हैं, अब क्या जरूरत है मुर्गा बनने की। 

10-12 साल हो गए गाँव छोड़े, उस समय लाइट वाइट होती नहीं थी (वैसे अब भी कौन सा होती है), लोग दिन भर खेत खलिहान, गाय गोरु, गाली गुफ़्ता से थके हारे शाम 7 बजे तक सो जाते फिर 4 बजे उठ कर निपट निपटा के फिर लग जाते काम में। अब करो अजान, बजाओ भजन, आदमी प्रसन्न मन से भक्ति करेगा। पर शहरों में संभव है क्या, यहां तो बच्चे तरस जाते है बाप की शक्ल देखने को, बेचारा 8 बजे ऑफिस से निकल 9 बजे बाद घर पंहुचा, परिवार से हँसने बोलने बतियाने झगड़ने के बाद 12 बजे सोया और सुबह 5 बजे आप शुरू......


अलार्म लगा लिया करो यारों, थोड़ा धीरे गा लिया करो मित्रों, ऊपरवाला बहरा नहीं है।





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