गजेन्द्र प्रताप सिंह बहुत दबंग आदमी थे। दबंग का इनके नाम 'सिंह' से कोई लेना देना नहीं। बचपन बहुत गरीबी में बीता। पिता किसान थे, और जैसा गांवों में होता आया है, जमीन को लेकर खानदान के झगड़े, बटवारे में अधिकतर बंजर जमीन ही आई थी जिसमें मुश्किल से ही साल भर का अनाज उपजता। एक कुरता और एक धोती में पूरा साल गुजरता। गाँव में जब पहली बार किसी सरकारी मुलाजिम को साइकिल और जूते में देखा तो इन्होंने भी ठान लिया कि अब वो भी 'इंसान' बनेंगे। पहलवानी छोड़ पढ़ने में मन लगाया। जैसे तैसे सरकारी स्कूल से पढ़ गुड सेकंड से बारहवीं पूरी की। इस बीच शादी भी हो गई, ससुर के पैसों से डिप्लोमा किया, और फिर लग गए नौकरी ढूढ़ने में। भाग्य ने साथ दिया, ओसियर (जे.इ.) लग गए बिजली विभाग में।
मंजिल मिल गई थी, लक्ष्य पूरा हुआ तो बाकी चीजों पर मन लगाया। पढ़ने की लत पाल ली। गरीबी भुगत चुके थे, इसलिए शिक्षा का महत्व समझते थे, जहाँ तक संभव होता गरीबों की मदद करते। धर्म और जात के ढकोसले से दूर रहते, कहते कि सिर्फ दो जातियां होती हैं, गरीब और अमीर। बाकी सब, बकवास। इनके पुत्र का नाम अमरेंद्र था, पर जब हाईस्कूल का फॉर्म भरवाया तो नाम और उपनाम (first name और second name) की बंदिश के चलते केवल अमरेंद्र की जगह अमर इंद्र लिखवाया। कहते कि जातिवाद के दीमक ने बर्बाद कर रखा है देश और समाज को, जातिसूचक नाम होने ही नहीं चाहिए।
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राज्य में 1 भयंकर राजनेता हुई, जब जब सत्ता में आती, तबादलों और बर्खास्तगी के दौर चलते। तो 1 बार अपने गजेन्द्र जी, सहायक अभियंता, भी लपेटे में आ गए। ईमानदार आदमी थे, कनिष्ठ अधिकारियों की गलती से सस्पेंड हो गए। चार बच्चों के पिता, ऊपर से ईमानदार और खुद्दार, करें तो क्या करें की कशमकश में इन्हें अपने राजू की याद आई।
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राजू, 15 साल का छोरा, अपने शराबी चपरासी बाप के साथ नौगढ़ में रहता। वही चंद्रकांता, गुलजारी लाल नन्दा वाला नौगढ़ (देवकी नंदन खत्री वाला बताने पर शायद कुछ लोग समझ ना पाएं)। मस्त छोरा था, दिन भर जंगल में शिकार करता, मछली पकड़ता। अच्छा शिकार या मछलियां मिलने पर अपने बाप के साहब गजेन्द्र बाबू को दे देता, कुछ पैसे मिल जाते।
गजेन्द्र बाबू इस लड़के में अपना अक्स देखते, इसे पढ़ाने का फैसला किया। बाप को कोई मतलब था नहीं, वो तो दारु में मस्त। गजेन्द्र बाबू राजू की लाई मछलियों के बदले किताबें देने लगे, शाम से रात बैठ के पढ़ाते, मछली पकाते और प्यार से उसे खिलाते।
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अगली सुबह ही मिनिस्टर राजवीर महतो के पीए से 9 बजे का समय लेकर गजेन्द्र बाबू अपने बेटे अमर के साथ उसके महलनुमा बंगले पर पहुँच गए। मालुम चला मंत्री जी अभी उठे नहीं हैं, फिर जरूरी मीटिंग में हैं। फरियादियों का नंबर दोपहर 2 बजे आया। इस बीच गजेन्द्र बाबू अमर को अपने और राजवीर उर्फ़ राजू के नौगढ़ वाले किस्से सुनाते रहे।
गजेन्द्र बाबू अपने बेटे के साथ राजवीर के कमरे में जैसे ही घुसे, राजवीर ने उठ कर 'जय भीम' बोलकर अभिवादन किया। 19 साल के अमर ने ये अभिवादन पहली बार सूना, बड़ा अच्छा लगा उसे, मन ही मन सोच लिया की अब वो भी जय भीम, जय सुभाष, जय भगत का अभिवादन किया करेगा। राजवीर ने गम्भीरता से बातें सुनी, आश्वासन दिया और दरवाजे तक छोड़ने आया।
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गजेन्द्र बाबू अपने छात्र की उन्नति देख गदगद थे और अमर सोचता रहा की ये कैसा शिष्य जिसने 9 बजे का समय देकर 2 बजे अपने गुरु से मुलाकात की। पानी तक नहीं पूछा।
अचानक याद आया कि बाइक की चाभी तो टेबल पर ही छोड़ आया, पिता को बाहर इन्तजार करने का बोल वापस राजवीर के कमरे की ओर बढ़ा। अंदर की आवाजें दरवाजे के बाहर सुनाई दे रही थी। पीए पूछ रहा था कि नेताजी क्या करना है आपके गुरु जी का, बहिन जी को फोन लगाए? नेताजी बोले अभी 1 महीना रहने दो सस्पेंड, इनके पुरखों ने हम लोगों को बहुत कष्ट दिया है, 1 महीना इन्हें भी भोगने दो, फिर देखेंगे।
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अमर ने धीरे से दरवाजा खटखटाया, अंदर जाकर चाभी उठाई, नेताजी को जय हिन्द बोला और बाहर आ गया।
नेताजी से मिलने अमर इंद्र गया था,
वापस आया अमरेंद्र प्रताप सिंह।