Sunday, 17 July 2016

मुसल्ले ईमान




आपने कभी ध्यान दिया कि फिल्मों में अधिकांशतः मुसलमानों को दयालु भावुक मित्रवत देशभक्त दिखाया जाता है। शोले के इमाम साहब, अहमद, जंजीर का शेर खान जैसे तमाम उदाहरण मिल जायेंगे। मेरे कुछ मित्र भी हैं ऐसे। इन फिल्मों को देखकर बचपन से ही ये अवधारणा बन गई थी कि कुरता पायजामा, गोल सफ़ेद टोपी पहनने वाला, माथे पर काले निशान और दाढ़ी वाला शख्स मानवता के गुणों से लबरेज होगा।

धीरे धीरे बड़े हुए तो खुद देखने समझने की अक्ल भी आई। ईद बकरीद पर सेवई और बोटियाँ छक कर खाते पर होली में उन्हें रंग ना लगा पाते। मजार पर हम भी सर झुकाते पर वो हमारे हाथ से परशाद नहीं ले पाते।

जिन गलियों में हम धड़ल्ले से घूम आते थे, अब उनमें जाने में डर लगने लगा। पता नहीं कहाँ गलती हुई।

हम भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। हमारे यहाँ भी 1 से बढ़ के 1 नमूने हुए, आशाराम जैसे ना जाने कितने, पर हमने ही उनको खूब लताड़ा, पर ओसामा से लेकर बगदादी तक आप खुल कर उनकी मजम्मत ना कर पाए। 1 इबादतगाह तोड़ने पर पूरी दुनिया हिला दी, बामियान जैसे हज़ारों पर आप खामोश रहे। दूर फिलिस्तीन और म्यांमार का दर्द आपने महसूस कर लिया पर अपने ही मुल्क में मुहाजिर बने लोग आपको नहीं दिखे। आपको डेनमार्क का कार्टून बर्दाश्त नहीं होता पर आप उस बुढ्ढे चित्रकार की नंगी तस्वीरों पर आँखे मूंदे रहे। आप हम साथ रोटी बोटी खाते हैं पर कोई फ़िल्मी हीरो असहिष्णुता पर ज्ञान देता है तो आप जवाब नहीं देते।

सुनते हैं की इस्लाम खतरे में है, शायद आप सही हैं, पर सोचिये की खतरा किससे है। कहीं आपकी चुप्पी का योगदान सबसे ज्यादा तो नहीं।

आप कहेंगे कि मैं आपका विरोध कर रहा हूँ, हाँ भाई, कर रहा हूँ। अगर आप अपने हैं तो आपकी शिकायत आपसे ही तो करूँगा ना।


कल, आज, कल




थोड़ा असहज विषय है, धैर्य रखियेगा।

ये जाति और इससे पैदा हुआ जातिवाद मुझे कभी समझ नहीं आया। अपनी अपनी जाति में मगन लोगों को देखता हूँ तो थोड़ा दुःख थोड़ी हँसी आती है। कोई अपने ज्ञानी होने तो कोई अपने वीर होने के घमण्ड में डूबा है। पूछो तो सत्रह का पहाड़ा ना सुना पाएं, वीर तो ऐसे की सर पे छिपकली गिरे तो कुचिपुड़ी और ब्रेक डांस एक साथ निकल जाए। कुछ इमसें भी बड़े वाले हैं,अपने दलित शोषित होने का चेक भुना रहे हैं। पूछो कि भाई तुम जो इतना इतरा रहे हो, उसमें तुम्हारी क्या काबिलियत है। जैसे सब पैदा होते हैं वैसे ही तुम भी हुए, तुम ऊपर से तो टपके नहीं, ना ही खदान से खोद के निकाले गए, फिर ये घमण्ड क्यों?
क्या कांसेप्ट है जाति का, अगर सब ब्रह्मा के शरीर से ही निकले तो कुछ ऊँचे और कुछ नीचे कैसे, भगवान के अंश भी क्या एक दूसरे से कम महत्व रखते हैं। अगर सारी जातियां ऋषि कश्यप की संतान हैं तो भी हमारे पूर्वज तो 1 ही हुए।नास्तिकों के लिए यहीं तर्क है की हम सब मैथुनी क्रिया से ही पैदा होते हैं, और होमो सेपियन्स हैं, इसलिए हममें कोई अंतर नहीं। कोई अंडज, स्वेदज हो या होमो सेपियन्स ना हो तो बात अलग है।

फिर ये जातिगत श्रेष्ठता या हीनता की बात आई कहाँ से???

अलग अलग विधाओं के वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, रिसर्चर, मैथमेटिशियन, एस्ट्रोनॉमर, लेक्चरर, प्रोफेसर जैसे काम करने वाले लोगों को ऋषि मुनि कहा जाता था, अब ऐसे प्रोफ़ेशन की इज्जत तो आज भी की जाती है, उस समय भी होती थी।
आज भी हम अपने सैनिकों को गर्व और सम्मान से देखते हैं, और आज तो खैर उतना संकट भी नहीं है। पहले हर समय साल के 6 महीने यही मार काट मची रहती थी, सैनिक दैनिक जरुरत थे।
समाज का दूसरा वर्ग इनकी विद्वता वीरता का सम्मान करता था, कालान्तर में विद्व वीर वर्ग की संतानों ने इसे अपना अधिकार समझ लिया, उनकी एकमात्र (अधिकतर की) काबिलियत यह थी कि ये उन विद्वानों और वीरों के वंशज थे।
दूसरी तरफ वो वर्ग था जो देखता था की हमसे ज्यादा सम्मान का अधिकारी कोई और है, उसे अधिक सुविधाएं प्राप्त है, उतनी ही या शायद ज्यादा ही मेहनत करता है पर उसे in comparison फल नहीं मिलता, और ये कई पीढ़ियों तक होता रहा। सम्मानित वर्ग जिसे तमाम सुविधाएं मिली थी और कामगार वर्ग में खाइयां बढ़ती गई। जिसे लगातार विशेष सुविधाएं मिलेंगी वो श्रेष्ठ महसूस करेगा ही, और जिसे इन सबसे वंचित रखा जायेगा, उसका भी अधिकार किसी और को दिया जायेगा तो वो हीनता महसूस करेगा।


समय बदला 



फिर एक ऐसा समय भी आया जब लोगों ने महसूस किया कि ये तो गलत हो रहा है, क्यों 1 इंसान दूसरे इंसान से श्रेष्ठ समझा जाए। पीढ़ियों से जिन्हें दूसरों के मुकाबले कम अधिकार दिए गए थे, उन्हें समान अधिकार दिए गए। फिर उन्हें भी समाज के हर क्षेत्र में अपना स्थान बनाने के लिए कुछ विशेष सुविधाएं दी गई।


समय है, लगातार बदलता है

(कहीं भविष्य में)



1 समय था जब कुछ लोगों के अन्याय की वजह से 1 वर्ग को दमित शोषित रखा गया, फिर उन दमितों शोषितों को बराबर का हक़ देने के लिए उन्हें कुछ विशेष अधिकार दिए गए। और यह पीढ़ियों तक चला।
पहले कुछ लोगों ने अपने पूर्वजों की विद्वता वीरता को पीढ़ियों तक भुनाया, और दूसरों को दलित बना दिया। फिर कुछ लोगों ने अपने पूर्वजों के शोषण को पीढ़ियों तक भुनाया और पहले वालों को दलित बना दिया। अब उनसे सुविधाएं छीन कर इन्हें दे दो। चलने दो ये चक्र। बनते रहने दो अभिजात्य और दलित वर्ग।




"बड़ा कौन"


अगर आपसे पूछा जाय कि प्रेम और नफरत में से "बड़ा कौन", तो बेशक आपका जवाब होगा प्रेम। है ना? पर क्या वास्तव में है ऐसा?

आसान सा समीकरण, यदि A = B और B = C तो A = C,..... माना A, B और C जीते जागते इंसान हैं। A अगर B से सच्चा प्रेम करता है तो B जिससे प्रेम करता है, मतलब C, से भी करेगा। अब जरा प्रैक्टिकली अपने आस पास के लोगों पर, हो सके तो खुद को भी इनमें से किसी जगह रखकर सोचिये कि वास्तव में ऐसा है क्या? अगर प्रेम वास्तविक होता तो एक दूसरे से होते हुए ये पूरे विश्व में व्याप्त हो गया होता। यदि ऐसा होता तो क्या ये खाप टाइप ऑनर किलिंग सुनाई देती।

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आप जब किसी व्यक्ति से प्रेम करते है तो सिर्फ उस 1 व्यक्ति से प्रेम करते हैं, पर जब आप नफरत करते हैं तो उसके पूरे समुदाय, जात, धर्म, रंग, नस्ल से नफरत करने लगते हैं। केवल उदाहरण के लिए, आपका कोई मित्र बिहारी हो तो आप सारे बिहार के लिए कुछ अनुभव नहीं करते पर यदि किसी बिहारी से आपका पंगा हो तो आप पूरे बिहारियों के लिए नफरत पाल लेते हैं। अब बताइए कि बड़ा कौन?

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ये प्रेम और नफरत हमें सिखाता कौन है? इस सवाल से ज्यादा वाजिब सवाल ये कि आप सीखते क्या हैं? जीजस और राम, नानक और बुद्ध सबने क्या सिखाया और हम इन्हीं के नाम पर एक दूसरे का कत्ल कर देते हैं। पढ़ते है कि मानव मात्र में प्रभु का वास है, और जात के नाम तलवारें निकाल लेते हैं। आप अपने अपने आराध्य तक की बात नहीं मानते, बताइए बड़ा कौन?
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विश्व की राजनीति देख लें या अपने भारत की, जितने भी गठबंधन बने हैं, उनकी बुनियाद क्या है? नाम भले ही UN रख ले या फलाना ढिमकाना मोर्चा, इनका फेविकोल कमोबेश प्रेम के उलट ही है। बताइए .........



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ये सवाल दसियों और उदाहरण देकर भी पूछने का मन है पर......

पुकार



कांकड़-पाथर जोड़ के, मस्जिद लिया बनाय। 
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।
                                                                 (कबीर)
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कल डिनर करने बाहर गए थे (फेसबुक स्टेटस नहीं डाले क्योंकि वेट करना पड़ा और हम रिसिया गए)। काफी लेट घर पहुंचे, गर्मी प्रचण्ड, जैसे तैसे सोये। आपने भी अनुभव किया होगा कि गर्मियों की भोर में गजब प्यारी नींद आती है। कुनमुनाते कुनमुनाते भोर के टाइम मस्त नींद आई ही थी की धर्म ध्वज रक्षकों की आवाजें आने लगी, चलिए गनीमत थी की 3-4 मिनट में फिर से शांति छा गई, हम भी खर्रामा खर्रामा 10 मिनट बाद फिर से निन्दियां गए, बमुश्किल 10 मिनट बाद किसी बिरहा स्टाइल का भजन शुरू हो गया। अब सोचिये कि हमरे मन में किस किस के लिए मुख पूजन का ख्याल आया होगा। 

शिकायत करने गए तो पंडि जी बोले, "भाई अजीत तुम तो यार धार्मिक टाइप आदमी हो, कम से कम तुम तो ऐतराज ना करो। हम तो लोगों को इसी बहाने भजन सुना देते हैं।" लो सुनो, मुझे तो भोजन में भी बड़ी रूचि है, कब्बो बुलाये, और कभी मन नहीं तो क्या मुँह में जबरी तरकारी ठूस दोगे कि भाई हम तो खिला ही रहे हैं न। 

पुराने जमाने में नहीं थी घड़ी, थी तो सबके पास नहीं थी। अलार्म जैसी चीज भी 'मुर्गा' ही थी, और ये मुर्गे भी बड़े बदमाश, कभी भी चिल्ल पों। तो किसी समझदार ने मोहल्ले को बताने के लिए कि भाई चलो इबादत का टाइम हो गया, मीनार पे चढ़ के आवाज देने का बहुत बढ़िया इन्तिजाम सोचा। 
आज तो लोग सास बहु सिरियल के लिए भी वेक अप कॉल, नोटिफिकेशन टोन सेट करके रखते हैं, हर घर में अट्ठारह फोन हैं, अब क्या जरूरत है मुर्गा बनने की। 

10-12 साल हो गए गाँव छोड़े, उस समय लाइट वाइट होती नहीं थी (वैसे अब भी कौन सा होती है), लोग दिन भर खेत खलिहान, गाय गोरु, गाली गुफ़्ता से थके हारे शाम 7 बजे तक सो जाते फिर 4 बजे उठ कर निपट निपटा के फिर लग जाते काम में। अब करो अजान, बजाओ भजन, आदमी प्रसन्न मन से भक्ति करेगा। पर शहरों में संभव है क्या, यहां तो बच्चे तरस जाते है बाप की शक्ल देखने को, बेचारा 8 बजे ऑफिस से निकल 9 बजे बाद घर पंहुचा, परिवार से हँसने बोलने बतियाने झगड़ने के बाद 12 बजे सोया और सुबह 5 बजे आप शुरू......


अलार्म लगा लिया करो यारों, थोड़ा धीरे गा लिया करो मित्रों, ऊपरवाला बहरा नहीं है।





पूर्वाग्रह


थक गई हूँ मैं, क्या मैंने ठेका ले रखा है आदर्श बहू बनने का। हद्द हो गई है अब तो। सब कहने लग गए हैं कि ऋतू बदल गई है। मैं, ऋतू, जिसने अपने आप को सिर्फ इन लोगों के लिए पूरा का पूरा बदल लिया, यही लोग अब मुझे ताना मारते हैं, छी। जानते भी हैं ये कि मैंने क्या क्या नहीं किया आदर्श बहू बनने के लिए। सात साल पहले वाली ऋतू में और आज की ऋतू में जमीन आसमान का फर्क है। मैं तीन भाइयों की अकेली बहन, माँ बाप की लाडली बेटी, एमबीए किया है मैंने। चाहती तो प्रज्ञा की तरह मैं भी नौकरी कर सकती थी।
कितनी शरारती थी मैं, कितनी जिद्दी, जो चीज चाहिए तो चाहिए। पापा मम्मी सारे भाई एक टांग पर खड़े रहते, मुँह से बात निकलती और वो चीज मेरे पास होती।
कॉलेज टाइम में कितने लट्टू घूमते थे मेरे आगे पीछे, किसी को भाव नहीं देती थी, वो यूनिवर्सिटी का कैप्टन भी, कूल ड्यूड विशाल, कितना पीछे पड़ा था, पर मैं ये प्यार व्यार के चक्कर में नहीं पड़ना चाहती थी। मेरे घर में किसी ने लव मैरिज नहीं की थी, मुझे भी नहीं करनी थी।
किसी सहेली की शादी में देखा था इन्होंने मुझे, कुछ दिन बाद ही पापा जी और मम्मी जी को भेज दिया हमारे घर, रिश्ते की बात करने। बड़े व्यापारी परिवार से हैं ये लोग, पापा ने हाँ कर दी। पर शर्त ये रखी की पढ़ाई पूरी होने के बाद ही शादी होगी। मैंने कभी किचेन का मुँह नहीं देखा था, पर इस एक साल में खाना बनाना सीख लिया। साड़ी वाड़ी सिर्फ कॉलेज फंक्शन में पहना था। अब केवल साड़ी। कोई सुबह 8 बजे से पहले नहीं होती थी मेरी पर जब से इस घर में आई हूँ, नियम से 6 बजे उठ जाती हूँ। व्रत वगैरह भी रखने लगी। ये पूजा पाठ, सिन्दुर बिंदी, चूड़ी बिछिया ढकोसले लगते थे पर शादी के बाद लगता था कि जब सब पहनते हैं तो पहनना चाहिए। ये बम्बई जाना चाहते थे, वहां भी ब्रांच है इनकी, पर मैंने ही मना कर दिया, अच्छा लगता है क्या यूँ सास ससुर को अकेला छोड़ कर जाना, लोग क्या कहेंगे। और तो और मुझे बच्चियां कितनी पसंद हैं, पर जब मैं माँ बनने वाली थी तो कितनी मन्नते मांगी थी मैंने कि लड़का ही हो। भगवान ने मेरी सुन ली, गौरव 6 साल का है अब। 
जब से ये प्रज्ञा आई है, अरे मेरे देवर की बीवी, लव मैरिज है, मेरा तो सोच सोच के दिमाग पक गया है। नौकरी करती थी शादी से पहले, शादी के बाद भी नहीं छोड़ी, वो तो अब मुन्नी हुई है तो घर पर ही रहती है। कितनी प्यारी है मुन्नी, सब उसे खूब प्यार करते हैं। ये महरानी 8 बजे सो कर उठती हैं,खाना वाना बनाना नहीं आता इसे। व्रत वगैरह तो करती ही नहीं। कहती है, क्यों करने हैं ये ढकोसले, कभी मन आया तो मंगलसूत्र पहनती है वरना भूल गई तो भूल गई। सुना है देवर के साथ बम्बई जायेगी।
इसे तो कभी कोई कुछ बोलता नहीं, पर कल मैं जरा देर से क्या उठी, मम्मी जी ने ताना मार दिया, लगता है बड़ी बहू की तबियत खराब है। लो जी, इन महरानी को तो कोई कुछ नहीं कहता, और मुझे जो 7 साल से वो सब करती आई है, जो आदर्श बहू को करना चाहिए, ऐसा ताना। मैं थक गई हूँ। आप ही बताइए, क्या गलती है मेरी.....


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कल बहुत लोगों के फोन आये, सब मुझे कोस रहे थे कि मैं अपनी इतनी भोली भाली 'आदर्श' बहू के साथ ज्यादती करती हूँ। मुझे बहुत बुरा लगा, मुझसे दिक्कत थी तो मुझसे ही कहना था, पूरे मोहल्ले में ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत थी। और आप लोगों में भी मुझे विलेन मान लिया। आपका भी क्या कसूर, धारणा बन गई है कि सास तो जालिम ही होती है। अब जब उसने आप लोगो से अपनी व्यथा कह ही दी, तो मैं भी उससे क्या कहूँ, आप लोग ही उसे बता देना। मेरे कुछ कहने से पहले ऋतू की बातों को फिर से याद कर लीजियेगा।
मेरी दो बहुएं हैं, ऋतू और प्रज्ञा। ऋतू को मेरे बेटे ने पसंद किया था, वैसे ही जैसे प्रज्ञा को छोटे बेटे ने। बेटों की पसंद से शादी लव मैरिज ही तो मानी जायेगी ना। ऋतू इस घर में आई तो ये उसका ही फैसला था की वो जॉब नहीं करेगी, तो क्या मैं खुद उससे कहती कि जाओ जॉब करो। मैंने तो उसे हमेशा सुबह 6 बजे ही उठते देखा, मुझे क्या सपना आता कि वो देर तक सोने की आदी है। पहले दिन से ही वो साड़ी, सिन्दुर, बिछिया वगैरह पहनती आई थी। मैं क्यों कहती की ना पहन, मुझे कैसे मालूम चलता कि उसे ये सब नहीं पसंद। कहती है की बेटी पसंद थी पर बेटे के लिए मन्नत मांगी, क्यों, क्या मैंने कहा था? बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ बम्बई जाना चाहता था, ना जाने का फैसला तो इसका खुद का था, मैंने कब मना किया था? 'ताना', वो कहती है कि मैंने ताना मारा। रोज सुबह उठकर पूजा पाठ करने वाली लड़की अगर देर से उठे, उदास दिखे तो परिवार के सदस्य क्या कहेंगे, यही ना कि 'लगता है आज तबियत ठीक नहीं', क्या ये कहना ताना हो जाता है। 
मेरी दूसरी बहू भी तो है, आठ बजे उठती है, मुन्नी के होने से पहले जॉब भी करती थी, चूड़ी बिंदी बिछिया नहीं पहनती। मैंने तो उससे भी कभी कुछ नहीं कहा। ये बात तो खुद ऋतू ने ही आपको बताई। 'मुन्नी को सब प्यार करते हैं' भी उसने ही बताया। 
क्या चाहती है वो कि मैं प्रज्ञा को कोसू कि तूने बेटी क्यों पैदा की, जॉब क्यों करती है, देर से क्यों उठती है, व्रत वगैरह क्यों नहीं करती। हां, शायद वो यहीं चाहती है, क्योंकि वो 'आदर्श बहु' है तो मैं भी टिपिकल सास बन जाऊ। 
क्या आपको नहीं लगता कि बचपन से ही शायद देख सुन कर उसने धारणा बना ली, चश्मा पहन लिया, कि ससुराल और सास कैसी होती है, वहाँ आपको बदलना पड़ता है। ऋतू ने भी ये चश्मा पहना था, अपने आप को बदल लिया और अब कुंठित है। इसी चश्मे को ही तो पूर्वाग्रह कहते है ना।


खुद की ही बनाई अवधारणा में कैद मेरी बहू मुझे दोष देती है।


आप बताइए कि इसमें मेरी क्या गलती.......

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6 जुलाई 2016

प्रगति


बहुत सालों बाद पिछले महीने अपने चचेरे भाई की शादी में गांव जाना पड़ा। जी हां, सही सुना आपने, 'जाना पड़ा', कई साल पहले खानदानी लड़ाई में इतने कांड हुए कि अब जाने में कई बार सोचना पड़ता है, पर वो फिर कभी। हां तो करीब पांच साढ़े पांच साल बाद अपने गाँव गया। वैसे गांव जाना और वहां तक का सफ़र यदि बाइक से हो तो बहुत आनन्द देता है। छोटे भाई की बिलकुल नई नकोर अवेंजर बाइक, पिट्ठू बैग और गर्मियों की मस्त सुबह। सैदपुर में पहला स्टॉप लिया, रेलवे क्रोसिंग बहुत रुलाती है वहां लोगों को, पर हमें कोई जल्दी नहीं थी, जा के बैठ गए चाय की दुकान पर। प्रगति केवल शहरों तक ही सिमित नहीं रही अब, छोटे कस्बों और गावों तक में फ़ैल चुकी है, इसका अहसास हमे 5 रूपये की डिस्पोजेबल कप में मिली चाय से हो गया। 10 परसेंट दिल टूट गया, जिन्होंने कुल्हड़/भरुका में कभी चाय पी हो वो समझ सकते हैं इसे। एक बात तो है वैसे, गांव के लोग गजब मजेदार बातें करते हैं। एक पेपर पीने और चाय पगुराने में मशगूल शख्स ने कहा, भाई बड़ मस्त गाड़ी ह हो, बिल्कूले घोड़ा मतिन, केतना में मीलल मरदे? मेरे एक लाख के आसपास बताने पर बोला, हैं! त एम्मे पेट्रोले पड़ेला की सोना चांदी। 

रेलवे क्रॉसिंग खुल गया, और हम बढ़ लिए। मस्ती में चलते हुए लगभग 2 घंटे में नजदीक पहुँच गए। अब बस मेन रोड की बाजार जिसे चट्टी कहते है से करीब 1 किलोमीटर अंदर खड़ंजे वाली रोड पार करते ही नहर और फिर उसके बाद मेरा गांव। रोड से अंदर मुड़ते ही 20 परसेंट दिल फिर टूट गया। वो जानी पहचानी खड़ंजों वाली रोड की जगह, वही काली नीली सड़क, बड़े बड़े गढ्ढों के साथ। नहर पर आते ही बाकी बचा खुचा दिल था वो भी कीरिच कीरिच हो गया। 

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गांव की जो पहली बिलकुल साफ़ सुथरी याद है वो पांचवी क्लास की है, पापा मम्मी छोटा भाई और मैं, सीडी100 बाइक पर सवार, पीछे सिलेंडर बंधा हुआ। आज कार में वो मजा नहीं आता जो उस बाइक की टंकी पर आता था। 
नहर के दोनों किनारों पर ढेरों लिप्टस के पेड़, नहर में बहता पानी, उसमें नहाते बच्चे और भैंस, पुल से उतरते ही करीब 40 42 आम कटहल, ज्यादातर आम का बगीचा, तालाब, पाठशाला।
शहरी लड़का था तो गांव के बच्चे घेरे रहते। उन हट्टे कट्टे और अधनंगे बच्चों में मैं दुबला पतला, हरी हाफ पेंट और लाल टीशर्ट में अजीब लगता। हिटलर पापा भी हातिम ताई मोड में आ गए थे गांव में। सुबह गांव से दूर गंगा में नहाना, खरहों के पीछे भागना, टिकोरा बीनना, दोपहर में देहाती बच्चों से 'ज्ञान' प्राप्त करना, पन्ना पीना, आम और जामुन की पार्टी डायरेक्ट पेड़ो से, और ना जाने क्या क्या। पानी तो इतना मीठा कि जवाब नहीं। 
एक पागल बुढ़उ थे, बटेसर बाबा, अजीब सनकी। बगीचे में बच्चों के पीछे पीछे लगे रहते, जैसे ही कोई बच्चा आम चूस चाट कर गुठली फेक देता, लपक के उठा लेते। बड़े गौर से उस लशलशी चिपचिपी गुठली को घूरते, कभी कभी तो लगता कही मुँह में ना डाल ले। बाकी बच्चे देखकर हँसते और मुझे घिन के मारे उल्टी जैसा होने लगता। बच्चे तो बच्चे, बड़े लड़के भी कभी उन्हें देखते तो लिहाड़ी लेते, खाया अधखाया आम उन्हें दिखाते और विपरीत दिशा में फेंक देते। फिर तो जो गालियां झड़ती उनके मुखारबिंदु से की कान पक जाए। इतनी गालियां खा कर भी लड़के रोज यही काम करते और वो इतनी बत्तमीजी सह कर भी गुठली जरूर उठाते, उसे देखते, फिर अपनी मड़ई में चले जाते।
अपने बाबा से पूछा कि ये करते क्या है इन गुठलियों का। बाबा बोले, एकाध दिन में खुदे देख लेना।फिर एक दिन उन्हें देखा, बगीचे में गुठली दबाते हुए, कई जगह उन्होंने गुठलियां दबाई। बाबा को बताया मैंने आँखों देखा हाल, बोले ये पूरा बागीचा जो तुम देख रहे हो, पिछले 40-50 साल से इस बटेसर की वजह से ही है। ये आदमी गुठली देखकर समझ जाता है कि इससे पेड़ बनेगा, हर साल बीसों गुठलियां दबाता है। कुछ कुत्ते खोद जाते हैं, जो उगती हैं उन्हें बकरी बैल खा जाती है या ये बच्चे खेल खेल में उखाड़ देते हैं। फिर भी तीन चार साल में एक दो पेड़ बच ही जाता है। ये हरियाली इस पगले बटेसर की वजह से ही है। बाबा और भी पता नहीं क्या क्या बोलते रहे और मेरा ध्यान बाहर चरती बकरियों पर था, कल ही एक लड़के ने बकरी की दूध की धार डायरेक्ट मेरे मुँह में मारी थी।

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नहर पर आकर अपनी बाइक रोकी। सूखी नहर, दोनों किनारों पर कुल 2 लिप्टस के पेड़, फिर जब नहर से आगे बढ़ा तो बागीचा दिखा ही नहीं, उसकी जगह एक तरफ थ्रेसर लगा था भूसा छोड़ता हुआ, दूसरी तरफ बच्चे क्रिकेट खेलते हुए, जहां तालाब था वहां कूड़े का ढेर। 

प्रगति मेरे गांव तक पहुँच गई थी।

बटेसर बाबा को मरे 15 साल हो गए थे।




3 जुलाई 16

'भगवान' और व्यापारी


शहर बनारस देखा जाए तो 1 तरह से पूर्वांचल का बम्बई है, सारे पूर्वांचल और बिहार से ना जाने कितने लोग रोज ही बनारस प्रवास करते हैं। रोजी रोटी कमाने के लिए आने वालों के अलावा भी काफी लोग अपने परिजनों के बेहतर इलाज के लिए बनारस आते हैं। बीएचयू जिसे स्थानीय लोग बेचू कहते हैं, जैसा बड़ा अस्पताल तो है ही, कुछ बड़े प्राइवेट अस्पताल भी हैं जिनका काफी नाम है, इसके अलावा भी सैकड़ों की संख्या में प्राइवेट क्लीनिक है। शहर के बीचोबीच शुक्ला हॉस्पिटल में मेरे पिता का इलाज चल रहा था, कोमा में थे, आईसीयू में। शुक्ला हॉस्पिटल के मालिक स्वयं डॉक्टर हैं, गणमान्य व्यक्तियों में शुमार किये जाते हैं। माफियाराज तो खैर पूरे देश में ही है, अपहरण टाइप क्राइम बनारस में भी है। सुनते हैं कि एक बार डॉ. शुक्ल पर भी अपहरण अटेम्प्ट हो चुका था, रंगदारी देते ही होंगे। अमीरों की जान पर भी सौ अलामते होती हैं साहब। इसलिए मजबूरी में दो बॉडीगॉर्ड लेकर चलते, एक सरकारी एक निजी। वैसे होने को ये भी हो सकता है कि खुद ही अफवाह उड़ाई हो, सम्पन्नता दिखाने के लिए बॉडीगॉर्ड भी बहुत जरुरी जो हैं आजकल।

भगवान ना करे कि आपको कभी भी हॉस्पिटल या आईसीयू का मुँह देखना हो। आईसीयू में जिंदगी बहुत धीमी रफ़्तार से चलती है, लोग अपने अपने मरीजों के साथ चुपचाप बैठे रहते हैं उनका हाथ थामे, कहीं अंदर वो जानते हैं कि साथ छूटने वाला हैं पर मानव मन उम्मीद नहीं छोड़ता। भर्ती के दूसरे दिन जब मेरे होश हवाश थोड़े ठिकाने आए तो आस पास भी नजर दौड़ाई। चार बेड के कमरे में दूसरी छोर पर एक 12 साल का लड़का जलते बुझते डब्बों से घिरा लेटा हुआ था और साथ लगी टेबल पर मेरी ही उम्र का एक लड़का उस बेहोश बच्चे से ना जाने क्या बातें किये जा रहा था। कुछ देर बाद उसकी नजर मुझपर पड़ी, एक जैसे ही थे हमारे हाल, उठकर उसके पास गया, पूछा उसके मरीज के बारे में। उसने बताया की उसका एकलौता भाई, एकलौता जीवित सगा है ये लड़का। माँ बहुत पहले मर चुकी थी और बाप पिछले साल ही खत्म हुआ था। यहीं दो भाई बचे हैं, गांव के बटवारे में जो जमीन मिली वो अधिया पर छोड़ बनारस किसी दुकान पर काम करता है। आज 21 दिन से हॉस्पिटल में है। 21 दिन! 21 दिन आईसीयू में! और मेरी हालत आज दूसरे दिन ही ख़राब हो चली थी। असली बीमारी जिस लिए वो भर्ती हुआ था वो तो मुझे याद नहीं रहा पर अब उस बच्चे की पीठ कमर और नीचे के हिस्से में लगातार लेटे रहने से बेडसोर हो गया था। मिसरा जी कंपाउंडर अभी कुछ दिन पहले ही ड्यूटी पर लौटे थे, वो बहुत ख्याल रखते, जो बन पड़ता वो करते। थोड़ी देर बाद वापस अपनी टेबल पर आ गया, और वो बड़ा भाई फिर से अपने छोटे बेहोश भाई से बात करने लगा।

अगली सुबह सामने गोपला की दुकान से चाय पीकर जब वापस अस्पताल लौटा तो नीचे लॉबी में ही काली गाड़ी के पास वो लड़का मिल गया, उसका छोटा भाई अब भी लेटा हुआ था, बस अंतर इतना कि बेड की जगह अर्थी टाइप कोई चीज थी। उस लड़के की नजर मुझसे मिली, मैं स्तब्ध था और अचानक उसके होंठों पर एक ना समझ आने वाली हँसी तैर गई। मुझमें उसे और देखने की ताब नहीं थी, वापस उस चार बेड के कमरे में आ गया। 

मिसरा जी अपनी ड्यूटी टाइम पर आये। पता नहीं क्यों तीनों कम्पाउंडरों में से मुझे मिसरा जी बहुत भले लगते, हल्का निकला पेट और रजनीगंधा भरा मुँह। औरों के चेहरे पर जहां कृत्रिम या पेशेगत गंभीरता दिखती, वो हमेशा मुस्कुराते रहते। जौनपुर के थे पर ठेठ बनारसी लगते। बोलते, का गुरु, इतना काहे टेंसन ले रहे हो। आओ चलो चाय लड़ाया जाए। मस्त आदमी, गजब गपोड़ी।
अगली शाम कोई बीसेक साल की लड़की भर्ती हुई, बगल वाले बेड पर, पूरा ससुराल ही आया था। नाजुक हालत थी लड़की थी, खून के पाउच चढ़ रहे थे। धीरे धीरे उसके परिवार के लोग कम होते गए, अगले पांच घंटों में कोई नहीं रहा। रात दो बजे वो लड़की कांपने सी लगी, कहीं हाथों से सुइयां ना निकल जाए, मैंने उसके दोनों हाथ कस के पकड़ लिए। उस समय मेरे अलावा कोई था ही नहीं वहां। थोड़ी देर बाद लड़की शांत हो गई। शायद मर ही गई। सुबह चार बजे उस लड़की को वहां से हटा दिया गया।

मन खिन्न हो गया, चाय पीने बाहर गोपला की दुकान पर आया, मिसरा जी बैठे दिखे, चुप, उन्हें यूँ चुप देखना ताज्जुब की बात थी। दुआ सलाम की तो मेरी तरफ देखा, मुझे उनकी आँखों में पानी सा दिखा, मूछें शायद आंसुओं से गीली हो गई थी, देखा और उठ कर चल दिए। बाद में गोपला ने बताया की अइसही बउरा जाते हैं हफ्ता दस दिन में। 
कंपाउंडर केबिन में जा कर मिला उनसे, मुझ पर भड़क गए, बुजरो के, तुमको यहीं हॉस्पिटल मिला रहा अपने बाउजी के इलाज के लिए। साले इहा डाक्टर नहीं व्यापारी इलाज करते हैं। ई सुसीला का पूरा इलाज नाही किये सब, पइसा कम पड़ रहा था और परसो उ मुन्ना, तुम्हे का लगता है बिमारी से मरा, उ बिमारी को लापरवाही कहते है। होते थे कभी डॉक्टर भगवान, हमें तो ससुर यहां इंसान भी नाहीं दिखते। जाओ इहां से, बीएचयू या पीजीआई ले जाओ उन्हें, दफा हो जाओ इहां से।

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क्या सच में, 'भगवानों' की जगह 'व्यापारी' ही इलाज का जिम्मा संभाले हैं?
सुना कल डॉक्टर्स डे था..... Happy Doctor's Day





2 जुलाई 16

दोमुहांपन


मीरा, कामतापरसाद जी की कई संतानों में से पांचवी थी कि छठी, ये जानने के लिए वो अपनी पत्नी पर ही निर्भर थे। महाशय उच्च कोटि के ब्राह्मण, पूरे गाँव के सम्पन्न परिवारों के पुरोहित थे। थोड़ी बहुत जजमानी और फिर कथा प्रवचन में दिन भर इतने व्यस्त होते कि अपने बच्चों पर ध्यान ना दे पाते। कृष्ण भक्त कामतापरसाद के दिन की शुरुआत मन्दिर में राधा-कृष्ण की विधिवत पूजा से शुरू होती। प्रवचन ना दे रहे होते तब भी मुँह से राधा-राधा निकलता रहता। जजमानी से इतना कमा ही लेते जिससे भोजन वस्त्र की व्यवस्था हो जाती।

मीरा बालिका से युवा बनने के चरण में थी। बचपन से ही गजब शरारती। अल्हड़ मस्त छोरी, घर के छोटे मोटे काम निपटा निकल जाती मस्ती करने। अजीब शरारतें होती उसकी, धागे में टिड्डा बाँध छिपकली को खिलाती, फिर छिपकली पर पूरा नियंत्रण उसका, मेंढक की टांगों को रस्सी से बांधना, कोहड़े के गूदे को बड़ी नफासत से निकाल यथास्थान रख देना, अपने कालू कुत्ते के लिए गेंहू बेच कर बर्फ के गोले खरीदना, दादी की हुक्के की चिलम छुपा देना, तालाब में घुस सिंघाड़े खाना और ना जाने क्या क्या। 

जब तक बच्ची कहलाने की उमर थी लोग हस के टाल जाते। पर अब बड़ी होने लगी, पड़ोस की चाचियों और भौजियों ने मीरा की अम्मा को टोकना शुरू कर दिया। बच्चियों से उनका बचपन छीनकर उन पर जवानी का बोझ डालने का काम बखूबी करती हैं ये पड़ोसनें। टोकाटाकी शुरू, बड़ी हो गई है, संभल के चला कर, कितनी बेशर्म हो रही है, दुपट्टा, कपड़े, आँखें नीचे। इतना कूट कूट कर भरा जाता है ये सब कि उन्हें लगने लगता है कि कुछ तो हो रहा है। टोकाटाकी करने वाली भी वही होती हैं जो सबसे ज्यादा कलुषित करती हैं मन। निर्बोध बालिकाओं के मन में नई उमंगे पैदा करती हैं ये नई अधकचरी बातें। अल्हड़ मीरा पर भी प्रभाव पड़ने लगा। अब उसने भी खुद में होने वाले परिवर्तनों को महसूस किया। दूसरों की बदलती निगाहों को भी समझने लगी धीरे धीरे। अब उसका मन इस फालतू की शरारतों में नहीं लगता। 

शहरियों को गाँव बड़े प्यारे से लगते हैं। आपसी मेलजोल और सद्भाव, लहलहाते खेत, मुस्कुराता किसान, गाय बैल। कुछ गांव शायद होते हो ऐसे, पर यकीन मानिए गांव भी गंदगियों से भरपूर होते हैं। बजबजाती नालियां, सड़ते घूरे, गलियों सड़कों पर होते अवैध कब्जे, दीवानी और फौजदारी के मुक़दमे। सबका ध्यान इस पर होता है कि किसकी आयुष्मति पुत्री बड़ी हो गई है और अब वो किसके चिरंजीवी पुत्र के साथ 'सेट' है। युवक युवतियों में 'जिज्ञासा' बनी रहती है। परन्तु कुछ सच्चे प्रेमी भी होते हैं। इन सच्चों में एक किसना भी था। ठाकुर साहब का साहबजादा, बांका जवान, नाग पंचमी के दंगल का वीर। मीरा को जब भी देखता, आँखें चमक सी जाती, सिर में तितलियाँ उड़ने लगती, पेट में गुड़गुड़, मीठा दर्द सा होने लगता दिल में।

समस्या थी कि दिल का हाल बताए कैसे। पर उसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। मीठा वाला दर्द उधर भी होता, आँखों की मूक भाषा ने ही सारा हिसाब समझ लिया। बिना बोले वो एक दूसरे के हो गए। एक दूसरे को बिना देखे उन्हें चैन नहीं आता, और पता नहीं एक नजर में वो क्या बातें कर जाते। चंचल चुलबुली हँसी शांत मुस्कान में बदल गई। दिन बीतते जाते, प्रेम प्रगाढ़ होता जाता। 

कोई कितना भी होशियार क्यों ना हो ले, इश्क़ मुश्क़ वाली कहावत, इन भौजियों की नजरों से बचा है कोई आज तक, सुगबुगाहट शुरू हो गई। कामतापरसाद तक भी बात पहुँची, जैसे पैरों तले जमीन खिसक गई। ब्राह्मण की बेटी राधा, ठकुरे किसना के साथ, घोर कलजुग आ गया अब तो। समाज क्या कहेगा, ये कुलच्छनी तो इज्जत डुबोने में लगी है। आनन फानन बिटिया का बियाह तय कर दिया। एक बार भी उन्हें अपने आराध्य राधा-कृष्ण की याद नहीं आई। रुक्मणी का प्रेम या प्रेमवश सुभद्रा हरण याद नहीं आया, जबकि दिन भर यहीं कथा कहानियां बांचते।


जैसे जैसे शादी का दिन नजदीक आता, मीरा सूखती जाती, फिर विवाह के एक दिन पहले वो अल्हड़ मीरा जो अपने किसना से बिछड़ने का गम बर्दाश्त नहीं कर सकती थी, उसने राधा के किशन के सामने सर पटक दिया।


कृष्ण भक्त कामता की इज्जत बच गई, लड़की मर गई।





बारी-बारी

गजेन्द्र प्रताप सिंह बहुत दबंग आदमी थे। दबंग का इनके नाम 'सिंह' से कोई लेना देना नहीं। बचपन बहुत गरीबी में बीता। पिता किसान थे, और जैसा गांवों में होता आया है, जमीन को लेकर खानदान के झगड़े, बटवारे में अधिकतर बंजर जमीन ही आई थी जिसमें मुश्किल से ही साल भर का अनाज उपजता। एक कुरता और एक धोती में पूरा साल गुजरता। गाँव में जब पहली बार किसी सरकारी मुलाजिम को साइकिल और जूते में देखा तो इन्होंने भी ठान लिया कि अब वो भी 'इंसान' बनेंगे। पहलवानी छोड़ पढ़ने में मन लगाया। जैसे तैसे सरकारी स्कूल से पढ़ गुड सेकंड से बारहवीं पूरी की। इस बीच शादी भी हो गई, ससुर के पैसों से डिप्लोमा किया, और फिर लग गए नौकरी ढूढ़ने में। भाग्य ने साथ दिया, ओसियर (जे.इ.) लग गए बिजली विभाग में।
मंजिल मिल गई थी, लक्ष्य पूरा हुआ तो बाकी चीजों पर मन लगाया। पढ़ने की लत पाल ली। गरीबी भुगत चुके थे, इसलिए शिक्षा का महत्व समझते थे, जहाँ तक संभव होता गरीबों की मदद करते। धर्म और जात के ढकोसले से दूर रहते, कहते कि सिर्फ दो जातियां होती हैं, गरीब और अमीर। बाकी सब, बकवास। इनके पुत्र का नाम अमरेंद्र था, पर जब हाईस्कूल का फॉर्म भरवाया तो नाम और उपनाम (first name और second name) की बंदिश के चलते केवल अमरेंद्र की जगह अमर इंद्र लिखवाया। कहते कि जातिवाद के दीमक ने बर्बाद कर रखा है देश और समाज को, जातिसूचक नाम होने ही नहीं चाहिए।
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राज्य में 1 भयंकर राजनेता हुई, जब जब सत्ता में आती, तबादलों और बर्खास्तगी के दौर चलते। तो 1 बार अपने गजेन्द्र जी, सहायक अभियंता, भी लपेटे में आ गए। ईमानदार आदमी थे, कनिष्ठ अधिकारियों की गलती से सस्पेंड हो गए। चार बच्चों के पिता, ऊपर से ईमानदार और खुद्दार, करें तो क्या करें की कशमकश में इन्हें अपने राजू की याद आई।
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राजू, 15 साल का छोरा, अपने शराबी चपरासी बाप के साथ नौगढ़ में रहता। वही चंद्रकांता, गुलजारी लाल नन्दा वाला नौगढ़ (देवकी नंदन खत्री वाला बताने पर शायद कुछ लोग समझ ना पाएं)। मस्त छोरा था, दिन भर जंगल में शिकार करता, मछली पकड़ता। अच्छा शिकार या मछलियां मिलने पर अपने बाप के साहब गजेन्द्र बाबू को दे देता, कुछ पैसे मिल जाते। 
गजेन्द्र बाबू इस लड़के में अपना अक्स देखते, इसे पढ़ाने का फैसला किया। बाप को कोई मतलब था नहीं, वो तो दारु में मस्त। गजेन्द्र बाबू राजू की लाई मछलियों के बदले किताबें देने लगे, शाम से रात बैठ के पढ़ाते, मछली पकाते और प्यार से उसे खिलाते।
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अगली सुबह ही मिनिस्टर राजवीर महतो के पीए से 9 बजे का समय लेकर गजेन्द्र बाबू अपने बेटे अमर के साथ उसके महलनुमा बंगले पर पहुँच गए। मालुम चला मंत्री जी अभी उठे नहीं हैं, फिर जरूरी मीटिंग में हैं। फरियादियों का नंबर दोपहर 2 बजे आया। इस बीच गजेन्द्र बाबू अमर को अपने और राजवीर उर्फ़ राजू के नौगढ़ वाले किस्से सुनाते रहे। 
गजेन्द्र बाबू अपने बेटे के साथ राजवीर के कमरे में जैसे ही घुसे, राजवीर ने उठ कर 'जय भीम' बोलकर अभिवादन किया। 19 साल के अमर ने ये अभिवादन पहली बार सूना, बड़ा अच्छा लगा उसे, मन ही मन सोच लिया की अब वो भी जय भीम, जय सुभाष, जय भगत का अभिवादन किया करेगा। राजवीर ने गम्भीरता से बातें सुनी, आश्वासन दिया और दरवाजे तक छोड़ने आया। 
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गजेन्द्र बाबू अपने छात्र की उन्नति देख गदगद थे और अमर सोचता रहा की ये कैसा शिष्य जिसने 9 बजे का समय देकर 2 बजे अपने गुरु से मुलाकात की। पानी तक नहीं पूछा।
अचानक याद आया कि बाइक की चाभी तो टेबल पर ही छोड़ आया, पिता को बाहर इन्तजार करने का बोल वापस राजवीर के कमरे की ओर बढ़ा। अंदर की आवाजें दरवाजे के बाहर सुनाई दे रही थी। पीए पूछ रहा था कि नेताजी क्या करना है आपके गुरु जी का, बहिन जी को फोन लगाए? नेताजी बोले अभी 1 महीना रहने दो सस्पेंड, इनके पुरखों ने हम लोगों को बहुत कष्ट दिया है, 1 महीना इन्हें भी भोगने दो, फिर देखेंगे।
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अमर ने धीरे से दरवाजा खटखटाया, अंदर जाकर चाभी उठाई, नेताजी को जय हिन्द बोला और बाहर आ गया।


नेताजी से मिलने अमर इंद्र गया था,

वापस आया अमरेंद्र प्रताप सिंह।



मिलन


राघव मेरा कोई बहुत घनिष्ठ मित्र नहीं था। रोज बस में मिल जाता आते जाते, फिर धीरे धीरे बातचीत होने लगी। पिताजी ने हरक़्यूलिश साइकिल ख़रीदी थी मेरे लिए, पर टाई के साथ साइकिल कुछ जमी नहीं, सो महानगरी बस से जाने लगा कॉलेज। भले पूरी बस खाली हो पर मैं पिछले गेट पर ही खड़ा होता, यही आदत राघव की भी थी। दोस्ती हो गई। 

9-9:30 के टाइम बस में ज्यादातर कॉलेज जाने वाले ही होते थे, कितनी ही प्रेम कहानियां उन बसों में बनती बिगड़ती। सबसे पिछली वाली सीट लड़कियों के लिए रिजर्व थी। उन लड़कियों में एक परी भी थी। हम दोनों ही को लगता की वो हमें ही देखती रहती हैं। अपने आप को ऋत्विक से कम समझता भी नहीं था मैं। पर कुछ ही दिनों में साफ़ हो गया की उसकी नजरेंइनायत मुझ पर नहीं राघव पर थी। दिल थोड़ा सा दरका जरूर पर लगभग तुरंत ही हमने उसे राघव की सीता मान लिया। राघव की प्रेमिका और मेरी दोस्त, नाम सिया सिंह।

प्रेम बढ़ता गया, सुगंध फैलती रही और सिया के पिताजी के नथुनों तक पहुँच गई। अब प्रेम कोई गुलाब तो है नहीं जो सबको पसंद आए तो सिया की शादी तय कर दी गई बच्चा सिंह से। 

बच्चा विद्यापीठ यूनिवर्सिटी का मठाधीश था, मठाधीश उन पुराने छात्र नेताओं को बोलते हैं जो पहले नेता बनते हैं फिर नेता बनाते हैं, पास आउट हो चुके होते हैं पर रहते हॉस्टल में हैं। बच्चा इसका उपनाम था। बनारस के छात्र नेताओं के उपनाम हुआ करते हैं जैसे बच्चा, डिस्को, बॉक्सर, झुनझुन। बच्चा मुझसे 5-6 साल बड़ा था, बचपन में गेंतड़ी या क्रिकेट खेलते समय खूब झगड़े होते थे इससे, महाझगड़ालू। मारपीट शराब दादागिरी इसके गुण थे, 3-4 पुलिस केस तो लगे ही रहते इस पर। विद्यापीठ से छात्रनेता बना। खूब पैसा कमाया, 2 बसें निकाल ली उन पैसों से। फिर ठेकेदारी शुरू की।

राघव, मैं और सिया इसे राक्षस कहते। राघव और सिया ने भागने का प्लान बनाया। प्लान था कि शादी के 6 दिन पहले ये दोनों पूना भाग जायेंगे। सिया को मुगलसराय स्टेशन तक लाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई, बाइक चलानी मुझे ही आती थी इसलिए। राघव स्टेशन पर मिलता। रात पौने तीन की ट्रेन थी और मैं 1 बजे राम भक्त हनुमान बनकर सिया के घर के बाहर पहुँच गया, पर सिया नहीं आई, बाद में मालूम चला कि घर वालों को शक हो गया था। प्लान फेल, और सिया हो गई राक्षस की। कुछ ही दिनों बाद राघव ने बताया कि सिया ने पहले ही दिन बच्चा को अपने बारे में बता दिया था। बच्चा को बहुत गुस्सा आया था, पर जब शांत हुआ तो सिया से कहा कि तुम जब चाहो जा सकती हो, अपने आशिक के कहो कि आकर ले जाए। तलाक का केस लगा दूंगा जल्द ही। 

राघव ने 2 साल का समय मांगा, अपने पैरों पर खड़ा हो जाता फिर सिया को ले जाता। पहली बार मुझे राघव समझ नहीं आया। जब पूना ले जा रहा था तब भी कौन सा वो कुछ कमाता था। इसका मतलब वो समझ भी रहा था? अगले दो साल तक सिया पत्नी, बहू, भाभी बनने का नाटक करती? क्या बच्चा ऐसा होने देता? पर ताज्जुब, ये सब हुआ। दो सालों तक ये नाटक खूब अच्छे से चला। 

अगले 2 सालों में राघव की नौकरी भी लग गई और सिया का तलाक भी हो गया। सिया कितनी खुश हुई होगी, और बच्चा ने भी मुक्ति की सांस ली होगी। मैदागिन के कॉफी कॉर्नर में विदाई तय हुई। इस बार सिया को राघव से मिलने से कोई नहीं रोक सकता था, खुद राक्षस ही मिलवा रहा था। मैं अकेला राजदार था तो मुझे भी बुलाया गया। मेरी आदत है समय से पहले पहुँचने की, सो 10 मिनट पहले ही आ गया। समय पर बच्चा और सिया भी आए। सिया के चेहरे की ख़ुशी देखने लायक थी। आखिर तपस्या का फल जो मिलने वाला था। बच्चा का चेहरा पढ़ नहीं पाया मैं। बड़े प्रेम से मिला मुझसे। राघव लेट हो रहा था, बनारस में जाम भी तो कितना लगता है। हम तीन अपने अपने ख्यालों में खोए बैठे रहे। चुप्पी सबसे पहले बच्चा ने ही तोड़ी, बचपन की मार पीट याद करने लगे हम। फिर तो जो बातों का सिलसिला चला की मजा ही आ गया। समय जैसे जैसे गुजरता गया, सिया के चेहरे की ख़ुशी कम होती गई। 3 घंटे बीत गए पर राघव की कोई खबर नहीं। उसके मोबाइल पर फोन लगाते तो अंदर बैठी औरत बोलती 'द पर्सन यू आर ट्राइंग टू कॉल इज़ नॉट रीचेबल'। समय बीतता जाता और चेहरों के रंग बदलते जाते, सिया का काला, मेरा लाल और बच्चा, पता नहीं किस मिट्टी का बना था, जैसा आया था वैसा ही बना रहा। 

आखिरकार जब शाम के 8 बज गए तो अचानक बच्चा उठा और मुझसे हाथ मिलाने के बाद सिया से अपनी भारी खरखरी आवाज में बोला "चलो, घर चलो।"।
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और मैं उन्हें जाते देखता रहा.....

देखता रहा सिया का हाथ मजबूती से थामे उस महामानव को.....
देखता रहा रावण को राम बनते हुए......



नर्क और न्याय



हमारे मोहल्ले में एक से बढ़कर एक महानुभाव रहते थे। इन रत्नों में 1 थे पांडे जी, सरकारी मुलाज़मत से रिटायर, और घोर अंग्रेजीदा। तन, मन, रहन सहन सब अंग्रेजो टाइप। महीने, दो महीने में 1 बार हमारे घर आते और पापा को छोड़ सबको नाराज कर जाते। पापा से तकरीबन 20 साल बड़े होंगे, इसलिए शायद पापा उन्हें कुछ कहते नहीं, हमारे नाराजगी दिखाने पर कहते कि छोड़ो, उनके अपने विचार हैं, और दूसरों के विचारों का सम्मान करना चाहिए। पांडे जी हर विषय के विशेषज्ञ समझते खुद को और सबको टोकते रहते। ये वो समय था जब पड़ोसी भी घर का सदस्य जैसा होता था। हम बच्चों की आदत थी स्कूल जाने से पहले घर के सभी बड़ों के पैर छूने की, 1 बार ये भी बैठे थे तो हम कुल जमा 7 बच्चों ने इनके भी चरण स्पर्श कर लिए, ये महोदय भड़क गए पापा पर, क्या कूपमंडूक बना रहे हो बच्चों को। दादी पर भड़क जाते कि क्या सुबह सुबह मन्दिर जाती हो इस उमर में, माँ को बोलते कि क्या जरूरत है इतनी मेहनत से अचार मुरब्बे बनाने की, बाजार से ले आओ।
घर तो इनका बड़ा नहीं था पर खाली जमीन बहुत थी, आम अमरूद के पेड़ लगे थे, वो विलायती वाले, छोटे छोटे पेड़, फलों से भरपूर। हम बच्चे तोड़ लाते, इन्हें और बहाना मिल जाता हमारे संस्कारों को गरियाने का। 

इनका बेटा बड़ा काबिल निकला, अच्छी नौकरी, बहू की खोज शुरू की। पढ़ी लिखी वेल एजुकेटेड लड़की से कोर्ट मैरिज करा ले आए घर। पांडे जी जितने पतले दुबले, इनकी श्रीमती उतनी ही तंदरुस्त। कुर्सी से उठाने के लिए 1 वयस्क या 2 बालक लगते थे। शरीर के अनुपात से ये विचारों में भी अपने पति से आगे ही थी।

समय अपने रफ़्तार से बढ़ता गया और पांडे जी का हमारे घर का फेरा भी बढ़ा। पहले जो महीने में 1 बार आते थे अब रोज ही आने लगे। अपने पुत्र और पुत्रवधु की जी भरकर तारिफ करते। पता नहीं क्यों, घर में क्या बना था, आज क्या खाया, जैसी चीजें बताने लगे। हाँ, कुछ बदल से गए थे, अब हर बात का विरोध करना छोड़ दिया था, और तो और पापा से धर्म और भारतीय साहित्य पर बातें करने लगे। हमें उकसाते कि जाओ बच्चों, पेड़ पर अमरुद पक गए हैं, जाओ तोड़ लो। माँ से कहते, सुनो अजीत की माँ जरा वो मुरब्बा तो चखाओ। बाटी चोखा बनवाने की जिद करते। कभी होरहा भुनता तो मचल जाते। 
जिस रफ़्तार से इनके विचार बदलते गए उसी रफ़्तार से स्वास्थ घटता गया। पत्नी का भी वही हाल। पांडे जी पहले मुक्त हुए जीवन से, अब इनकी पत्नी आने लगी हमारे घर। 8-8 घंटे बैठी रहती। पांडे जी के गुजरने के 7 महीने बाद ये भी निकल ली। 1 दिन पहले खिचड़ी बनवाकर खाई थी।

बहुत दिनों बाद चाचा ने बताया, पांडे जी के छोटे भाई ने कई बार इनसे गुहार लगाई थी कि माँ को ले जाओ गावँ से, कब तक अकेले सेवा करू इनकी। कई बार कहने पर ये अपनी माँ को ले आये बनारस। इनकी माँ दिन भर पड़ी रहती मन्दिर में, शाम को याद आने पर ले आते उन्हें वापस घर। बड़ा बुरा अंत बीता था बुढ़िया का।

कुछ सालों बाद सुना कि छोटे पांडे जी (सुपुत्र) की पत्नी जी को कैंसर हो गया था, अपने पीछे 10 साल के बच्चे को छोड़कर दर्दनाक मृत्यु को प्राप्त हुई। इनके मरने के 10 महीने बाद छोटे पांडे जी ने फिर से विवाह कर लिया। 
सुना है वो बच्चा भी अब युवक हो गया है, प्रोफाइल बनाई है शादी डॉट कॉम पर।




अन्धविश्वास या विश्वास


मेरे मामा अलमस्त फक्कड़ आदमी, उपन्यास और शराब कबाब के शौक़ीन। जमींदार टाइप पिताओं के बेटे शायद ऐसे ही होते हैं। कहते हैं कि लगातार निकालने से तो कुबेर का खजाना भी खाली हो जाय सो अमीरी से गरीबी की ओर बढ़ रहे थे सब। लड़के को जिम्मेदारी का एहसास दिलाने के लिए फटाफट शादी कर दी जाती है हमारे गावों में, उनकी भी हो गई। जिम्मेदारी तो गई तेल लेने पर पहले मर्दानगी भी तो साबित करनी होती है तो 2 बार 'लक्ष्मी' के पिता भी बन गए। लोग कहते तो हैं की लक्ष्मी हुई है पर गौर से उनके चेहरे देखे तो उनकी ख़ुशी में मिलावट साफ़ दिखती है।

अब 1 परिवार में 2 लक्ष्मियां काफी है, अब तो कुलदीपक का इंतिजार था। पूरे परगना के सभी देवताओं बाबाओं के आशीर्वाद से इस बार लक्ष्मी जी रूठ गई और कुलदीपक जी पधारे। शायद पहली बार गाना वाला हुआ होगा। बड़ा प्यारा बालक था। उसकी अपनी माता के साथ साथ सभी माताएं उसे प्यार करती थी, फिर 'छोटी माता' का भी प्यार मिला उसे।

बनारस में अचानक मामा अपने बेटे को लेकर आये, 4 साल का था उस समय। बोले थोड़ी तबियत खराब है इसकी, आँख में सफ़ेद दाग हो गया है। आई स्पेशलिस्ट के पास ले गया अपनी बाइक पे बैठा के, दिन के 12 बजे नंबर आया। डाक साब ने पूरा परीक्षण करने के बाद पिता पुत्र को तो भेजा बाहर और मुझ पर बरस पड़े। पढ़ा लिखा दिखा शायद इसलिए, बोले चिकेनपॉक्स है लड़के को, और अब आँखों तक में फैल गया है, तुम पढ़े लिखे लोग भी ना, जाहिल ही मरोगे। बाहर आकर मामा से पूछा तो बताया कि हां माता आई थी, पर चली जाएंगी, इतना क्या परेशान होना। अब क्या समझाता, बगल के बाल रोग विशेषज्ञ के पास ले गया, उन्होंने भी पहले हड़काया फिर इलाज करने से मना कर दिया। ये दोनों डॉक्टर पूर्वपरिचित थे, इसलिए डाँटना उनका हक़ था। फिर तीसरे डॉक्टर के पास ले गया....फिर चौथे ..... ..... फिर 12वे ....फिर....। अब तक मामा को भी समझ आ गया था कि मामला गंभीर है। बनारस वाले मित्र जानते हैं कि पाण्डेपुर से यूपी कॉलेज के बीच पचासों डॉक्टर और क्लीनिक हैं। तकरीबन 15 डॉक्टरों को दिखाने और अस्वीकार किये जाने के बाद आखिरकार रात 2 बजे BHU पहुंचे। वहां भी डॉक्टर के क्रिटिकल कंडीशन बताने और बचाने की उम्मीद ना देने पर मामा भड़क गए और अपशब्द भी कह गए। डाक साब भी भड़क गए, उन्हें भी समझना चाहिए था तिल तिल कर मरते बेटे के पिता का दर्द। पर उनकी भी क्या गलती, यथार्थ ही तो बता रहे थे। फिर इंग्लिश में उन्होंने बातें की ताकि मामा को समझ ना आये, 1 विशेषज्ञ का नाम सुझाया। वहां ले गए, उन डॉक्टर साहब ने भी साफ़ कह दिया कि ये बचेगा नहीं, गिड़गिड़ा गया मैं कि साहब आप भर्ती कर लो। जिए मरे पर बाप को ये हौंसला तो हो की इलाज चल रहा है। 
और जैसे चमत्कार हुआ, सातवें दिन पहली बार वो लड़का बोला, बुआ अंगूर खाना है। मेरी मम्मी खुश, पापा को फोन किया, पापा ने अजीब बात कही कि तैय्यारी कर लो।

दोपहर तक कुलदीपक बुझ गया।

## अन्धविश्वास ने 1 जान ले ली।##

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शादी के पहले की बात है। सासू माँ बहुत बीमार थी। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था। घर पर ही दिन कट रहे थे। लोग अंतिम बार मिलने को आते। उनकी बेटी (अब मेरी पत्नी) को भगवान पर अटल विश्वास है। पहाड़ के हैं ये लोग। पहाड़ों पर हर गाँव के 1 देवता होते हैं। और गाँव इतनी दूर होते हैं कि जाने का सोचने में ही डर लगे। पता नहीं कोई सपना या कोई अंतःप्रेरणा ने बेटी को बताया कि 1 बार गाँव जा अपने देवता के पास। ये चल पड़ी, 4 किलोमीटर तो गाड़ी का रास्ता फिर 2 पहाड़ चढ़ के उतरने के बाद उनका गावँ। पतली घुमावदार पगडंडी और चीड़ की सूखी पत्तियां। यूपी बिहार के लोग शायद इस यात्रा की कठिनाई को ना समझ पाएं, पर यकीन जानिये, है ये हौंसले की बात। मंदिर पहुँच कर बिना गावँ में रुके वो उसी समय वापस चल दी। लुढ़कते पुढ़कते वापस अपने घर पहुँच ही गई। मंदिर से लाये गए किसी फूल की 1 पंखुड़ी अपनी माँ के सर रख दी।
और जैसे चमत्कार हुआ। आराम तो तुरंत ही मिला, 7 दिन में वो पूरी तरह स्वस्थ भी हो गई।
## विश्वास ने 1 जान बचा ली।##
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इस संस्मरण/कहानी का निष्कर्ष मुझे नहीं पता। क्षमा......

चक्र


पढ़ने का शौक तो शुरू से ही था, बस कोर्स की किताबें छोड़ कर, कोर्स की किताबें पढ़ने में मेरी जन्नतनशीं नानी मरती। जैसे तैसे पीजी पूरी कर नौकरी ढूंढने निकले, चप्पलें घिस गई , नौकरी नहीं मिली। फिर भाग्य से ही अस्थाई अध्यापक की नौकरी लग गई यूनिवर्सिटी में। अच्छी नौकरी थी, हफ़्ते के 16 घंटे की टीचिंग ड्यूटी, अपनी मौज के लिए काफी टाइम बच जाता। हॉस्टल के बाहर लाला की चाय की दुकान पर, तशरीफ़ एक कुर्सी पर, पैर दूसरी कुर्सी पर, एक हाथ में कोई किताब और दूसरे में चाय, पूरा दिन कट जाता। कुछ को बोरिंग लग सकता है पर मेरे लिए तो यहीं दो नशे थे, चाय और किताब।

सेमेस्टर शुरू ही हुआ था, रंग बिरंगे बच्चे दिखते, पूरे भारत से, पर ज्यादातर हिंदी पट्टी के। कोई ड्रेस कोड नहीं था पर नए बच्चे भद्दी काली पैंट सफ़ेद शर्ट में दिखते और लड़कियां सलवार कुर्ते में। पूछने पर मालुम चला कि परंपरा है, जूनियर्स को सीनियर्स पहले सेमेस्टर में ऐसे ही भद्दे कपडे पहनने को कहते हैं। कभी कभी कैंटीन में दिख जाते ये नये नवेले शिकार, और शिकारी, अजीब सवाल पूछते ये सीनियर्स, कुछ सवाल तो परंपरागत होते जैसे इंटर कहां से किया, पटना कहां हैं पर कुछ तो इतने वाहियात और अश्लील होते कि उन्हें यहां लिखने की हिम्मत नहीं मुझमें। गंदे जोक सुनाये जाते, कोई हँस दे तो उसकी 'मुस्की' पुछवाई जाती। मुस्की पोछना मतलब काव्यात्मक ढंग की चुनिंदा गालियों में गोते लगाना। ऐसे देखने में उन बच्चों में कोई फर्क नहीं दिखता, पर कुछ आँखों में अजीब सी चमक और कुछ आँखों में बसी हुई दहशत साफ़ दिख जाती।

एक शाम अजीब नजारा दिखा, एक लड़का 'सिर्फ एक' कपड़े में, सड़क पर तेजी से चलता हुआ आया, रास्ते में जो भी मिलता उसे कोरस गा कर सलाम बोलता फिर आगे बढ़ता। एक दिन और वो लड़का ऐसा ही कुछ करता दिखा, मुझे उसपर दया आती पर मेरी दया का क्या मोल। 

एक शाम टहलते हुए शमशान के आगे से गुजरा, वो लड़का वहां उकड़ू बैठा हुआ दिखा। खाली ही था, जाके उसके पास बैठ गया। कुरेदने पर उसने बताया कि बिहार के किसी जिले का है, नाम मनोहर, मुर्दा जलाने का ही काम करते हैं बाप दादा। यहां शमशान में उसे घर सा अहसास होता है। गरीबी और सामाजिक कठिनाइयों से लड़ लुड़ कर यहां पढ़ने आया बच्चा शमशान में शांति ढूंढ रहा था। बहला फुसला कर ले गया उसे अपने साथ डिनर पे, वापसी में थोड़ी ख़ुशी थोड़ी रौनक दिखी उसके चेहरे पे।

एक दोपहर वो लड़का मेरे रूम पर आया और आते ही जैसे चिपक सा गया मेरे से, इतना रोते मैंने कभी किसी को नहीं देखा था, हिचकियां इतनी ज्यादा और आवाज इतनी तेज, गनीमत थी कि दोपहर का समय था, नहीं तो पूरा हॉस्टल इकठ्ठा हो गया होता। अपने आंसुओं और नाक के पानी से तर कर दी उसने मेरी शर्ट। जैसे तैसे चुप हुआ तो बताया कि कल शाम उसे वो 1 कपड़ा भी नहीं पहनने दिया गया, करीब दो घंटे तक सलामी ली गई फिर नचाया गया उसे आधी रात तक, उसी हाल में।
तमतमा गया था मैं, यदि दो साल पहले ऐसा कुछ सुना होता तो हाथ पैर तोड़ देता, पर अब पद की गरिमा बनाये रखनी थी तो प्रॉपर तरीके से शिकायत वगैरह की गई। तीन सीनियर्स ससपेंड हुए, कुल 5 को हॉस्टल से निकाल दिया गया। 
अब शायद मनोहर ठीक था, पहले रोज ही मिल जाता फिर धीरे धीरे उसने आना छोड़ दिया। मुझे भी स्टॉफ क़्वार्टर मिल गया था दूसरे छोर पर।
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तीन साल बाद मनोहर के बैच को पढ़ाने का मौका मिला। एक डेढ़ हफ्ते तक जब वो दिखा ही नहीं तो उसके साथियों से पूछा, मालुम चला कि रैगिंग लेने के आरोप में उसे ससपेंड कर दिया गया है...





14 जुलाई 16

कुकर्म



MCA के लास्ट सेमेस्टर की ट्रेनिंग पूरी कर ट्रेन पकड़ ली बनारस की और भारतीय रेलवे की मेहरबानी से 5-6 घंटे लेट उतरे कैंट स्टेशन। पहली बार घर वापस आये किसी भी बनारसी से आप पूछ लो, बिलकुल विवेकानंद वाली फीलिंग आती है कि झुक के मिट्टी को प्रणाम कर लें। ये विचार अपने में ही दबाये हम आगे बढ़े। प्रणाम क्यों नहीं किया? क्योंकि ये घटना स्वच्छ भारत अभियान से पहले की है।


स्टेशन से निकलते ही ऐसा लगा जैसे घर आ गए। माँ से मिलने की जल्दी थी पर ये बनारस भी तो माँ है, पहले इसका प्यार तो पा लूँ भरपूर, इसलिए महानगरी या टैम्पो छोड़ रिक्शे पर बैठ गया। दिल्ली वाली गहमागहमी छोड़ पूरे अलमस्त बनारसी बन गए 10 मिनट में ही। 


पान का शौक नहीं पर पान बनवाया, खुद भी खाया और रिक्शे वाले चच्चा को भी खिलाया। चच्चा गोरखपुर के थे, बच्चों ने घर बाँट बूंट के मरद मेहरारू को नमस्कार कर दिया तो आ गए बनारस, और रिक्शा किराये पे चलाने लगे। बताते थे कि बूढ़ा को गठिया के साथ साथ कोई महिलाओं वाली बीमारी है जिसका नाम नहीं जानते। इलाज चल रहा है बेचू में। 
70 के लमशम लग रहे थे, उनके पाँव में पट्टी बंधी थी, पूछा तो बोले, घाव लग गया था, मवाद भर गया, निकलवा के पट्टी बंधवा ली है। दया सी आने लगी, मेरे पिताजी से भी बड़ी उम्र का आदमी, घर से निकाला हुआ, बीमार बीवी। 
मेरी पढाई लिखाई के बारे में पूछा, मेरा इम्तिहान भी लिया, 17 का पहाड़ा, गुजरात और जिम्बाम्बे की राजधानी, यूपी में जिलों की संख्या, 75 पैसे के हिसाब से 18 अन्डो का दाम  
और मैं इंटर मैथ्स, BCA, MCA एक का भी जवाब नहीं दे पाया। चौकाघाट पुल पर उतर के धक्का लगाया। 


ऐसे ही बनारस के रस को पीते पीते अपने घर को जाने वाली गली में पहुँच गया, घर सड़क से ऊपर को जाते रास्ते में है तो सड़क पर ही रुकवा लिया रिक्शा। कायदे से 20 रूपये बनते थे पर थोडा ज्यादा देने का मन था, उन्हें वहीं रुकने का बोल बैग उठाये घर पहुँच गया।



अपने घर और माँ को देख भावुक। थका था ही, ये सोचते सोचते कि जरूर भिन्डी की करारी भुजिया बनी है , 4 टब पानी से नहा के आराम से बैठ कर 11रोटी और आधी कढ़ाई भुजिया पेलने के बाद मस्त कूलर के आगे सो गया। घर आखिर घर होता है न।
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कुकर्म??????
3 घंटे बाद अचानक याद आया कि चच्चा को तो पैसे.......
भागा भागा बाहर गया, कोई नहीं दिखा, बाइक उठाई, सारंग, अशोक बिहार, पहड़िया, पाण्डेपुर, कचहरी, चौकाघाट, कैंट, सारनाथ आशापुर कहाँ कहाँ नहीं खोजा, अगले 1 महीने तक लगातार। पर.....
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यही है मेरा पाप मेरा कुकर्म जो पिछले 10 साल से मेरे पीछे पड़ा है। 
पता नहीं क्यों गंगा नहाने के बाद भी ये बोझ उतरता नहीं.....