Sunday, 14 August 2016

होता है कभी कभी


इधर पहाड़ों के स्कूलों में जाड़ों में भी छुट्टियां होती थी पूरी जनवरी, एक महीने का बम्पर बोनस। मुझे जितना प्यारा बनारस है उतने ही प्यारे पहाड़, बस पहाड़ पे चढ़ना उतारना बड़ा घिनौना काम है। लोग जो भी घर से खा कर चले होते हैं न, वो इस बलखाती इठलाती सड़कों पर डगमगाती बसों के शीशों पर चित्रांकित दिख जाता है। आप कितने ही मजबूत दिल के आदमी हों, ये नजारे बर्दास्त नहीं कर सकते और इसमें कभी न कभी अपना योगदान दे ही देते हैं। तो अगर एक बार चढ़ गए तो इस 'उमड़ घुमड़ घिरी आये बदरा' के डर से आपका उतरने का मन नहीं करेगा और उतर गये तो चढ़ने का। 

छुट्टियां एक्सटेंड हो गई थी और हम बनारस के रस में सराबोर हो रहे थे कि खबर आई कि प्रैक्टिकल प्रीपोंड हो गया है। कुछ मजबूरियां थी कि पापा मम्मी साथ नहीं आ सकते थे तो हमें अकेले ही इतने लंबे सफर पर भेज दिया गया। दूसरी बार अकेले यात्रा करने जा रहे थे, पर कोई खास उत्साह नहीं था, एक तो अपना शहर छोड़ के जाना और वो भी पढ़ाई की वजह से, दूसरे अकेला रहना रूमानी लग सकता है पर वास्तविकता भयावह है मुझ जैसे आलसियों के लिए, जामुन का बीज तक तो थूका नहीं जाता मुँह से, अकेले क्या बनाते क्या खाते। और मेरे पिता जी भी, बोलते, अरे कर लेगा, बच्चा थोड़ी है। 

तो खैर, सुबह सुबह 4:30 पर जेब में 1740 रुपये देकर छोड़ गए कैंट स्टेशन के बाहर, वरुणा निकलती थी सुबह पौने पांच पर। एक बड़े बैग में कपडे, जो छुट्टियों में कभी पहने नहीं गए, दूसरे बैग में किताबें, जो छुट्टियों में कभी खोली नहीं गई, लिए दिए चढ़ गए ट्रेन में। वरुणा पूरी की पूरी जनरल ट्रेन है, पर एक्सक्लूसिव टाइप, ऑफिस जाने वाले लोग ही ज्यादातर होते हैं इसमें। ज्यादा भीड़ भी नहीं होती। विंडो सीट कब्जिया के बैठ लिए हम। थोड़ी देर में एक जन आये, 'सद्' या 'दु:' अभी मालुम चलेगा, बोले, कब जायेगी ट्रेन, बोली से अहिन्दीभाषी या कम से कम अभोजपुरिभाषी लगे, बता दिया टाइम, ढेर सारा सामान, साथ में एक बीबी दो बच्चे ले चढ़ गए और मेरी सामने वाली सीट पर पसर गये। कुछ लोग शक्ल से ही भोले, दयालु, परोपकारी, परहिताभिलाषी लगते हैं, ये उसके बिलकुल उलट दिख रहे थे। थोड़ी देर में इनकी खिड़की के बाहर से किसी ने पूछा, कब जायेगी ट्रेन, बोले, मैं ड्राइवर दिख रहा हूँ तुम्हे, अनपढ़ हो, ट्रेन का टाइम नहीं पता तुम्हे, ब्ला ब्ला ब्ला....

ट्रेन अपने टाइम से आगे बढ़ी, हर हर महादेव बोल हम भी बढ़ लिए। अगर आप घनघोर टाइप के सुतक्कड़ नहीं हैं तो जो आनन्द आप ट्रेन में ले सकते है वो और कही नहीं। ट्रेन चली और हमने क्रिकेट टुडे और बांकेलाल कॉमिक्स बाहर निकाल ली। बांकेलाल जो भी बोलता उसे ये 'जन' अपनी आवाज से काट देते, पता नहीं क्या प्रॉब्लम थी, उन चारों के बदले खुद ही बोले जा रहे थे, और बस बोले ही जा रहे थे। पढ़ने तो वो दे नहीं रहे थे, सोचा चलो इनकी ही बात सुन लें। पूछा, अरे अंकल, का हुआ, काहे इतना परेशान हैं। पहली बार बन्दा पूरे 10 सेकंड चुप रहा, तबियत से हमें घूरने के बाद बोला
तुमसे मतलब, तुम बनारसी है।
हाँ अंकल है हम बनारसी।
तुम लोग चोर होता है, चोरी कर लेता है। मेरा बटुआ चुरा लिया मुगलसराय में। तुम लोग ठग होता है, मंदिर में ठग लिया तुम लोगों ने। तुम लोग गन्दा होता है, पान थूकता रहता है। ब्ला ब्ला ब्ला...

16 साल के लड़के से वो आदमी दुनियां जहां की शिकायत कर रहा था। उसके बड़े बेटे ने, जो बेटी जैसा लग रहा था, उसे चुप कराने की कोशिश की तो उसे भी हड़का दिया।
अपनी बीबी से बोला पैसे सम्भाल के रखो, या लाओ मुझे दो। मेरे सामने ही बीबी से पैसे लेकर अपने नए नकोर पर्स में डाल लिए।
मालुम चला आमची मुंबई के हैं, उनके यहां रामराज्य है, वहां जेब नहीं कटती, ठगी नहीं होती, कूड़ा कचरा कोई नहीं फेंकता, स्लम वगैरह तो अफवाह है जी।

हमने इस बार सौरभ गांगुली में ध्यान लगाया तो बेटे जैसी बेटी ने या बेटी जैसे बेटे ने आँखों से ही बांकेलाल की डिमांड कर दी, कौन सा घिस जाता, दे दिया हमने। इस पर वो 'जन' फिर शुरू हो गए, नहीं चाहिए तुम लोगों का कुछ, रखो अपने पास ये चीप कॉमिक्स। हद्द आदमी था यार।

मम्मियां भी मजेदार होती है, 5-6 घंटे के बाद लखनऊ पहुँच ही जाना था मौसी के यहां (वहां से शाम की ट्रेन थी), फिर भी पूड़ी भुजिया बाँध दी थी, वैसे तरजीह बाटी को दी जाती है।
एक रूपये का 'आज' खरीदकर हमने पूरी बोगी में अचार की सुवास फैलाते हुए दस्तरखान बिछाया, कर्टसी, सामने वालों से भी पूछ लिया, मेंढक फिर टर्राया,
क्यों जहर मिला है क्या, लूटना चाहते हो क्या, बेवकूफ समझा है क्या। ब्ला ब्ला ब्ला...

कसम से, गला दबा देने का मन किया, आचार की गुठली में उसका तसबरा कर इतना चबाया कि गाय क्या पगुराती होगी।
तहजीब के शहर पहुँच गये, ट्रेन ढंग से रुकी भी नहीं और ये महाशय फुदकने लगे, पता नहीं क्या जल्दी थी। ये आगे बढ़ गए तो उस लड़के/लड़की ने आगे बढ़ते समय झेंपने वाली मुस्कान के साथ धीरे से सॉरी बोला।

स्टेशन पर उतर पहले तो हमने बदन तोडा अपना, सुबह ब्रश कर के चले थे, पर दातुन दिख गया तो ले लिए चुभलाने को। कोई जल्दी तो थी नही, फिर चाय सुड़कने के बाद प्लेटफार्म से निकले। रिक्शावालों, फिर टैक्सी टैम्पो को पार का आगे बढ़े तो ये चारों दिख गए मंदिर के बाहर खड़े। आगे बढ़ रहा था कि आंटी की आँखों में कुछ ऐसा दिखा कि जा कर पूछ ही लिया, का हुआ, जवाब मिला कि अंकल की जेब कट गई।

कसम से, पेट से इतनी हंसी निकलने की कोशिश कर रही थी कि उसे रोकने में आँख से आँसू निकलने को तैयार हो गए। इतना मजा आया, दिल को इतना सुकून मिला कि क्या बताएं।
पीठ फेरी, चौड़ी सी मुस्कान लिए आगे बढ़ लिए। सड़क पार कर उनकी तरफ पलट कर देखा तो वो बड़ा लड़का कातर नजरों से मुझे ही देख रहा था। आज की तरह एटीएम और मोबाइल नहीं हुआ करते थे उन दिनों।
वापस लौटा, दिल मजबूत कर अपनी जेब से 500 निकाल अंकल की तरफ बढ़ा दिया। उन्होंने नहीं पकड़े तो बड़े लड़के को पकड़ाए, उनके कहने पर अपना एड्रेस लिख कर दे दिया।

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चौदह साल बाद पिछले साल फेसबुक पर उसने मुझे खोज लिया। आज मेरा बहुत अच्छा दोस्त है। बड्डे है उसका आज, गिफ्ट के तौर पर अपनी कहानी मेरी जुबानी आप सबको सुनाना चाहता है।
आज तो नहीं दोस्त पर अगली कहानी तेरी ही होगी।
हैप्पी बड्डे
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अजीत
26 जुलाई 2016

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