Monday, 29 August 2016

प्रतिशोध



सौरभ:


आज फिर से ये दिन आ गया, पूरे साल में एक यही दिन है जो मुझे हमेशा दुविधा में डाल देता है। इण्डिया से भेजी गई अपनी राखी बांधू या नहीं, शिल्पी हर साल भेजती है और हर साल ही मुझे इस कशमकश के गुजरना पड़ता है। ना पहनूं तो शिल्पी के साथ नाइंसाफी, उस बेचारी का क्या दोष और अगर पहन लूं तो जाने अनजाने प्रिया का दिल जरूर ही दुखा जाऊँगा। हालांकि प्रिया भरपूर कोशिश करती है कि आज के दिन वो नार्मल दिखे पर मैं आखिर पति हूँ उसका, जानता हूं कि वो मन ही मन खूब रोती है, क्या जाने छुप के भी रोती हों। मैं कुछ कर भी तो नहीं पाता, उसको उसके भाई से यूँ जुदा करने वाला भी तो मैं ही हूँ, किस मुँह से उसे समझाऊं और समझाने को है भी क्या। जब मैं खुद राखी टाइम पर ना पहुंचे तो इतना उतावला हो जाता हूँ और ये बेचारी तो कभी भेज ही नहीं सकती।

कुंदन और मैं बहुत अच्छे दोस्त थे, लोग तो हमें सगा भाई ही समझते। ग्रेजुएशन में मिला था ये, ट्रांसफर ले कर जब पहली बार उस कॉलेज में एडमिशन लिया तो नया होने के कारण बाकी लड़के थोड़ा मजा लेने के मूड में रहते पर ये बन्दा बिलकुल अलग ही था, पढ़ाई लिखाई में तो बस पास भर हो लेता पर बाकी चीजों में नम्बर वन था। थोड़ा गुंडा टाइप था, इसे पता नहीं क्या पसन्द आया मुझमे कि दोस्त बन गया मेरा। हम उत्तर दख्खिन थे एक दूसरे के, फिर भी, वो कहते हैं न ऑपोज़िट एट्रैक्ट्स।

मेरे घर का दुलारा था ये और मैं इसके घर का। मेरे पापा मम्मी को तो जैसे इसने गोद ले लिया हो, साले तो ना तो कहना ही नहीं आता था, वो लोग जो भी कह दे, बस हुक्म की देर और ये जिन्न की तरह उसे पूरा करने में लग जाता। शिल्पी भी मुझसे ज्यादा इसी को भैया भैया बोल सारे काम निकलवा लेती। ये तो चोट्टी थी ही शुरू से, मैं इसके झांसे में नही आता पर कुंदन तो भोला शंकर, जो कह दो, नो इफ नो बट, काम हो जाना है चाहे जैसे भी हो।

इसके घर में मेरी इज्जत होने का सिर्फ एक कारण था कि मैं टॉपर था, पढ़ाई में सबसे आगे। मेरी वजह से बेचारे को रोज ताने मिलते, साला पढ़ता भी तो नहीं था कभी। बस एग्जाम से पहले मेरे घर में डेरा डाल लेता या मुझे अपने घर बिठा लेता, इसके लिए रात भर की पढाई काफी होती सेमेस्टर क्लियर करने के लिए। दिमाग तो था बन्दे में, पर खुराफात से बचे तो पढ़ाई में लगाए न। कभी किसी का सर फोड़ रहा होता या कहीं कोई समझौता, कभी इस यूनिवर्सिटी में तो कभी उस डिग्री कॉलेज में चुनाव लड़वा रहा होता, ना जाने किन किन फंदों में उलझा ही रहता हमेशा।
प्रिया इसकी सगी जुड़वाँ बहन है। हमउम्र होने की वजह से इन दोनों के बीच भी दोस्ती वाला रिश्ता ही था, तो मेरे से भी वैसा ही रिश्ता बन गया था। मैं थोड़ा शर्मिला टाइप इंसान हूं, जब भी ये सामने आती मेरी बत्ती गोल कर जाती, शरारत में तो कुंदन का बाप थी ये। पर मुझे भी इसकी शरारतें अच्छी लगती। कितनों को नसीब होता है भई लड़कियों से छिड़ना। सच मानिए, मैंने बहुत कोशिश की कि इस चक्कर में ना पडूं पर इस क्यूपिड ने तो अपना तीर निशाने पर बैठा के मारा था, क्या करता।

पता था, जानता था, और वो भी जानती थी कि कोई भी ना तो इसे समझेगा ना स्वीकार ही करेगा। क्या करता, उसकी शादी तय हो रही थी, कैसे हो जाने देता, और वो भी तो जिद किये बैठी थी। भाग गए हम, कितना वाहियात सा शब्द है ना 'भाग गये'। अबे पागल कुत्ते ने काटा था या भागने का शौक था, करा दी होती शादी। तुम भी चैन से रहते और हम भी, पर नहीं भई, तुम्हे तो इस समाज में अपनी ये बित्ते भर नाक जो संभालनी है। देख लो इसका अंजाम, ना तुम चैन से होगे और हम तो बस जी ही रहे हैं जैसे तैसे।

साले कुंदन, माफ़ कर दे यार अपने दोस्त को...
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कुंदन:

बाई गॉड, जिंदगी में इतने धोखे खाये पर कभी इतना अफ़सोस ना हुआ, ई साला सौरभवा कमीना जो धोखा दिया है न। ई साले को हम छोड़ेंगे नहीं। मने का, समझ का लिया है उसने कि कुंदन को धोखा देना और फिर उसे पचा जाना इतना आसान है का। मिलो साले तुम बताते हैं तुम्हे।

अबे, दुनिया में सारी लड़कियां मर गई रही जो अपने दोस्त के घर में ही डाका डाल दिए। साले, एक्को बार सोचे भी नहीं कि कर का रहे हो, किसके साथ कर रहे हो। कमीने, भाई मानते थे हम तुम्हें, का नहीं किये बे हम तुम्हारे लिए। तुम्हरे बाउजी बीमार थे तो हर पल तुम्हारे साथ खड़े रहे एक टांग पर, तुमरी माइ को अपनी गाड़ी में बैठा के चन्दौली ले जाते थे वैद्य जी के यहां गठिया के इलाज के लिए, काहे से कि तुम साले इंटरव्यू की तैयारी कर सको। और प्रियवा से जियादा तुमरी शिल्पीया को अपनी बहन माने थे बे, और तुम साले बेगैरत इंसान, हमरी बहन से ही फ्लर्ट किये। हमारी नाक के नीचे तुम ये गुल खिलाये और हमको अपना दोस्त भी बोलते रहे। का सच में तुम्हारे मन में एक्को बार ख्याल नहीं आया कि तुम कर क्या रहे हो।

आज भी वो दिन याद है जब तुम आये थे हमे बताने कि तुम प्रिया से शादी करना चाहते हो, हम समझाए थे ना तुम्हे कि संभव ही नहीं है ये, और तुम भी तो चले गए थे, और वादा भी कर गए थे कि कोई गलत काम नहीं करोगे, फिर साले मक्कार, चार ही दिन बाद तुम अपने घर ले गए हमारी बहन को भगा के। अरे शुक्र मनाओ कि शिल्पी आ गई थी बीच में, वरना महादेव की सौगंध, तुमरा तो उसी दिन राम नाम सत कर दिये थे हम।

तुम भाग के यहां अमरीका आ गए, का सोचे थे बे कि अमरीका मंगल पर हैं, और कुंदन इतना गवाँर है कि यहां आ ही नहीं सकता। देखो बे, आ गए है हम, और बेटा थोड़ी ही देर में तुमरे दरवाजे पे होंगे, इस बार कोई शिल्पी फिल्पी नहीं आएगी तुम्हे बचाने, इस बार का करोगे मुन्ना। आ रहे हैं बे, आ रहे हैं....
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प्रिया:

कोई ना कोई बहाना बना कर ये आज के दिन छुट्टी ले ही लेते हैं। सोचते हैं कि कैसे भी प्रिया को खुश रखूं आज के दिन। सोचते हैं कि मुझे आज के दिन अपने घर परिवार की याद आती है। मेरे क्यूट हबि, मुझे सिर्फ आज नहीं, रोज ही याद आती हैं उन सबकी। पर रोज रोज तो रो नहीं सकती न, और तुम्हारा क्या हाल हो जाता है मुझे परेशान देखकर। तुम भरपूर कोशिश करते हो मुझे खुश रखने की, अपनी राखी भी नहीं बाँधना चाहते कि कहीं मुझे बुरा ना लगे। पगलू, मुझे क्यों लगेगा बुरा, हाँ पर याद तो आती है ना। क्या करूँ, कैसे भूल जाऊं उन्हें।
कुंदन बस मुझसे 2 मिनट ही तो छोटा है। उसका मुझे चुड़ैल और चोट्टी कहना कितना बुरा लगता था मुझे, पर जब भी कोई बड़ा काण्ड करता माँ पा की डांट से बचने के लिए दीदी दीदी बोल मुझसे मदद मांगता। कितना भोला कितना प्यारा लगता उस समय।

भाई, फिर ना जाने कहां से तुम्हारा एक दोस्त आ गया हमारी जिंदगी में। तुमने ही तो मिलवाया था उससे, कितना भोंदू टाइप था तुम्हारा दोस्त। तुम्हारे बाकी दोस्तों से बिलकुल अलग, चुप शर्मीला और शरीफ। शराफत पहचानने का खास सिस्टम लगा होता है हम लड़कियों में। 

तुम्हे शायद लगता हो भाई कि तुम्हारे दोस्त ने धोखा दिया और तुम्हारी बहन तुमसे छीन ले गया, पर सच तो ये है भाई कि तुम्हारी बहन ने तुम्हारे दोस्त को तुमसे छीन लिया। पहल तो मैंने की थी भाई, तुम्हें समझाना भी चाहा था पर तुम बैल बुध्दि जो हो, कहां समझे।

सुकून तलाशते हम यहां आ गए पर आज इतने सालों बाद भी हम तुम्हें याद करते हैं कुंदन। हमें माफ़ कर दो भाई...
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ओफ्फो, अरे कभी इस फोन को छोड़ भी दिया करो, कब से तो डोरबेल बजी जा रही है, ये नहीं कि उठ के देख ही लूँ... अब क्या आ रहे हो, जाओ पसरो अपनी मुई चेयर पे, अब तो आ ही गई मैं। ये भी पता नहीं कौन आ गया दोपहर के समय, आ गई बबा....
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कौन है प्रिया.... कुंदन तू....


हाँ कमीने मैं, अंदर नहीं बुलाएगी दी।
हूं, घर तो बड़ा अच्छा बना रखा है यार,........ अरे तुम दोनों ऐसे क्या देख रहे हो, शॉक लगा क्या, आओ आओ, बैठो ना, तुम्हारा ही तो घर है।...........
यार बड़ी प्यास लगी है, पानी वाली पिलाने का रिवाज है तुम्हारे अमरिक्का में। और हां चोट्टी सुन, आज शाम को ही वापस जाना है मुझे, जो करना वरना है जल्दी कर लियो .................
अबे घूर क्यों रहे हो तुम दोनों, राखी नहीं मिलती क्या तुम्हारे अमरीका में.....



अजीत
29 अगस्त 16

Tuesday, 23 August 2016

पहला प्यार


आप में से कितने लोगों को अपना पहला प्यार याद है? सच में सोच के बताइयेगा, पहला प्यार हाँ, पहला कामयाब प्यार नहीं।

जहां तक मुझे याद है मेरा वास्तविक वाला बिलकुल जेनुइन, दिल की धड़कन बढ़ा देने वाला पहला प्यार कक्षा चार (हमारे यहां वैसे बोलते समय मुँह से कच्छा ही निकलता है) में हुआ था। ... अरे नहीं, मैडम से नहीं, हिंदी मीडियम विद्यालय वाले हैं भई, पब्लिक स्कूल वाले नहीं जो 'मैम' से प्यार हो जाए, हिंदी वाले विद्यालयों में 'बहिन जी' होती हैं। वैसा फील नहीं आ पाता। तो वो जो थी ना, हमारे ही कक्षा में पढ़ती थी, हम लड़कों वाली रो के साइड वाले फ्रंट बेंचर और वो लड़कियों वाली रो की।

नये नये आये थे हम मथुरा से, उस प्रेम नगरी का ही कुछ प्रभाव रहा होगा शायद। पिता जी जब हेड मासाब के ऑफिस से एक शक्ल से ही लगने वाले घनघोर जालिम माट साब के हवाले किये तो गंगा मैया की कसम पैन्ट गीली होते होते रही थी, जाने कहां फँस गये, पर जब क्लास में प्रवेश किये तो दो में से एक चुटिया के अंतिम छोरों के बालों के बीच से झांकते उन बिलकुल काली आँखों को देखते ही दिल जो धड़का कि लगा, ओ बेट्टा जी, जे का भवा।

पढ़ने लिखने में हम तो बचपन से ही 'तुषार कपूर' थे, स्कूल जाना तो जैसे रोज का 'काला पानी', पर अब उस लड़की को देखने के बाद स्कूल से आते ही अगले दिन स्कूल जाने का इंतज़ार रहता। इक बार अंग्रेजी वाले माट साब सनक गये, एक एक कर सारे बच्चों से एप्पल की स्पेलिंग पूछने लगे, इतना खूंखार चेहरा था उनका बच्चे डर के मारे सब उल्टा पुल्टा बोल दें, और फिर डस्टर से दो डस्टर उलटे हाथ पर। मेरी बारी आई तो डर के मारे कुछ भी मुँह से निकाल दिया, आती नहीं थी स्पेलिंग, जो भी बोलते गलत ही बोलते पर वो कहते हैं ना कि 'जिसके ऊपर हो तुम स्वामी...' तुक्का लग गया। पूरी छियालीस बच्चों की क्लास में एक मैं और दूसरी वो मार खाने से बचे, हम दोनों को ही खड़ा कर हमारी तारीफ़ हुई।

अब तो भई, हम दो ब्रिलिएंट, नोट्स एक्सचेंज होने लगे, एक दूसरे के टिफिन शेयर, पता नहीं ब्रेड के साथ कोई वो लिसलिसा जैम कैसे खा सकता है। ओहो भाई साब, क्या दिन थे, केवल उसको इम्प्रेस करने के लिए तेरह का पहाड़ा पूरा याद कर लिया था।

हमारी ये दोस्ती धुँवाधार चल रही थी और मैं अपने अंदर हिम्मत जगा रहा था कि जैसे भी हो इस दोस्ती को रिश्तेदारी में... नहीं नहीं ये तो बड़े लोग करते हैं... दोस्ती तो 'मोहोब्बत' में बदल दूँ। बड़ी रिसर्च के बाद पक्का किया कि अपने जन्मदिन के दिन क्लास में टॉफी बांटने के बाद उसे इंटरवल में अपने दिल की बात बताई जाये।

बड़े मन से उस दिन उसे चापाकल के पास वाले पेड़ के नीचे ले आये और बोले, ए हमको तुमसे कुछ कहना है, वो क्या है न कि हम... इतना ही अभी बोल पाये थे कि उसे जोर की आक-छिं आ गई, नाक से निकला इतना बड़ा गुब्बारा पहली बार ही देखा था मैंने, हालाँकि थूक से तो हम लड़के गुब्बारे बनाते ही रहते थे, आप भी ट्राई करना, पर नाक से निकला गुब्बारा, फिर वो फट्ट की आवाज से उसका फूट जाना और होंठों से होता हुआ ठुड्डी तक पहुंचना...। एक जोर की उलटी के साथ अंदर भरा सारा प्यार बाहर।

जी यही था मेरा पहला प्यार...
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अजीत
24 अगस्त 16

Monday, 22 August 2016

राम मिलाये जोड़ी


राम मिलाये जोड़ी...
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एक रहें जी पी सिंह। गजबे किरान्तिकारी, ना ना, आप गलत मत बूझिये, सब जेएनयू टाइप ही नहीं होते, ई थोड़े अलग टाइप के थे। क्रांति की शुरुआत अपने नाम से ही किये। दरअसल हुआ ये कि इनके चार अग्रज शैशवावस्था में ही कालकलवित हो गए तो पूर्वांचल बिहार की परम्परानुसार इनका अटपटा नाम रखा गया, घुस्सु परसाद। भले ही शुभ कामना से रखा गया हो, पर बताइये, जे भी कोई नाम हुआ, तो पहली फुर्सत में इन्होंने स्वयं का नामकरण किया ग्रिजेश प्रताप।

इतने किरान्तिकारी थे बचपन से कि जो कहा जाए उसका उल्टा ही करते। सब्जी मंडी जाते तो छाँट के रूढ़ भिन्डी और पिलपिले टमाटर लाते। पढ़ाई से इतना प्यार करते कि किताबों के अंदर पहिले कॉमिक्स फिर बड़े होने पर 'वेद प्रकाश शर्मा' या 'पाठक' डाल कर पढ़ते। माँ बाप की उम्मीदों का सफलतापूर्वक चूरा बनाते हुए कुल मिलाकर डेढ़ पंचवर्षीय योजना में 10वीं और 12वीं निपटाया। डॉक्टर इंजिनियर तो अब किस बूते बनते तो यूपी कॉलेज से बीए शुरू। अब ई उमर में प्रेम ना हो तो जिनगी बेकार है रे साथी। भरकस परयास चालू किये और कहते हैं न कि करत करत अभ्यास से... तो एक सावली सलोनी को अपने इशक में गिरफ्तार करा ही लिए। ओहो, फिर तो जो आनंद मिला जीवन का, बनारस कोई मुम्बई तो है नहीं तो गुपचुप इशारे होते, संकेतों से ही रूठना मनाना। नया नया मोबाइल चला तो अम्बानी को धनबाद देते हुए लंबी लंबी बातों के दौर चलने लगे। बड़ी हिम्मत से एक बार मिलने का प्रोग्राम बनाया भारत माता मंदिर में। विद्यापीठ के पास इस मंदिर और साथ लगे पार्क में ज्यादा भीड़ नहीं होती, वो क्या हैं ना कि ई SM में ही सारी भक्ति उड़ेल देने के बाद कुछ बचता जो नहीं है। आहा, इतने एकांत की पहली मुलाकात, तनी मनी प्रैक्टिकल करने का मौका, गंगा सिनेमा की मूवी याद आने लगी। वापस आते समय चेहरा अइसे जइसे... अब खुदे बूझ जाइये। फिर तो बनारस का कोई पार्क नहीं बचा जहां ये दो फूल आपस में लड़ ना जाते हों।
अब तो भाई किरान्तिकारी दिल ने प्रेम विवाह की ठान ली, मुहूर्त वगैरह निकाल लिए भगने का, और पीछे एक चिट्ठी छोड़ पहुंच गए कैंट स्टेशन। बेचारे फोन पर फोन किये जा रहे अपनी माशूका को और उधर से कोई जवाब नहीं। लौट के बुद्धू घर को आये। पर तब तक बाबूजी पढ़ चुके थे क्रांति का घोषणापत्र, फिर तो गालों पर आधा दिन और पीठ पर एक महीना क्रांति के लाल काले नीले निशान पड़े रहे। रे साथी, प्रेम बड़ा दर्द देता है रे।
सामन्तशाही ने कभी भी क्रांति को स्वीकार नहीं किया, संधि और शांति के सारे परयासों को कुचलते हुए सामन्त बाप ने बियाह तय कर दिया लड़के का, और जुलम ये कि लड़की की तस्वीर तक ना दिखाई। दिन नजदीक आते जाते, हल्दी के पीले रंग से खून और खौलता, पर उस लउर व उससे पड़े लाल काले नीले निशान याद आते ही खौलता खून झाग की तरह बैठ जाता। आखिर शादी हो ही गई, अब जब हो ही गई तो का कर सकत हैं। अपरम्परागत शराब पीकर और परंपरागत पान चुभलाते पहुँचे अपने कमरे में, देखा, दुल्हिन बैठी है अवगुंठन डाले। गला खखार के नजदीक बैठे, पान का आधा रस उदरस्थ और आधा बचाये रख ऊपर मुँह कर भरकस रोबीली आवाज में बोले,
सुनिए, देखिये हम लोग नई जिनगी शुरू करे जा रहे है तो अदरवाइज मत लीजियेगा, वो क्या है कि आई मीन टु से, हम लोगों को न एकदूसरे को अपनी पुरानी जिनगी के बारे में ना सबकुछ सच सच बात देना चाहिए, दैट्स भाई कि आगे कोनो कनफूजन ना रहे। एक्चुली हम ओपन माइंड हैं, तो बताइए अपने बारे में। (कॉकटेल पी लिए थे तो भाषा भी कॉकटेल ही न निकलेगी)

ल, चुप काहे हैं, अच्छा शर्मा रही हैं, तो चलिए हम ही पाहिले बताते हैं। देखिये हम बहुते शरीफ टाइप के आदमी हैं। लब वभ से कउनो प्रोबलम नहीं है पर हम कबो ना किये। बाबूजी जहां कहे हम चुप मार के मान लिए। अब कोई बुरा थोड़ी ना चाहेंगे हमरे बदे। अच्छा चलिये अब आप बताइए। अब बोलिए भी, गूंगी तो नहीं हैं न आप।
लड़की भी बेचारी कई रातों की जगी, थकी आवाज में, जी हम भी ई लब सभ नहीं मानते, छी छी, का जरूरत है ई सब का, हम भी कबो ना परे इसके फेरा में।
मन में लड्डू फोड़ते, बचा हुआ पान रस पीने के बाद, सौन्दर्यपान की अभिलाषा लिए धीरे धीरे घूंघट उठाया, अहा क्या चेहरा, ठुड्डी के नीचे उंगली लगा चेहरा उठाया और...
तुम....
लड़की भी
तुम...
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जा ए ग्रिजेश प्रताप, तू घुस्सु प्रसाद ही निकले...
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अजीत
22 अगस्त 16

Sunday, 14 August 2016

जो शहीद हुए हैं उनकी...


रमेसरा बहुते साधारण टाइप का लड़का था। साधारण जिले के साधारण गांव के साधारण किसान परिवार में जन्मा। थोड़ी सी खेती थी जो हर दूसरे साल मौसम की भेंट चढ़ जाती। इस पूत के पांव दिखने लगे थे बचपन से ही। गजब का चटोर और चोट्टा, राब गुड़ अचार इससे बचा के रखना पड़ता। कुछ नहीं पाता तो डलिया भर बाजरा या गेंहू ले पहुँच जाता बनिए के यहां, गावों में आज भी विनिमय का ये तरीका अपनाया जाता है। आलसी बड़ा वाला, एक काम टाइम पर नहीं करता, और मजबूरी में करना ही पड़े तो इतने बुरे तरीके से करता कि अगला उसे फिर कभी कोई काम बोल ही ना सके। स्कूल जाना बहुत पसंद करता, पर खाली जाना हाँ, पढ़ना नहीं, क्योंकि रास्ते में सड़क किनारे ढेरों आम बढ़हल कटहल जामुन बेर के पेड़ मिलते। उस टाइम गुरूजी लोग भी इतना पीटते कि कौन पिटने जाए, इससे तो अच्छा की बगीचे में कंचे खेल लो।
कोढ़ में खाज ये कि टीवी पुरे गाँव में सिर्फ इसके यहाँ, लाइट हो ना हो टीवी जरूर चलती, जुगाड़ में हमारे लोगों का ऐसे ही इतना नाम नहीं है, कार या ट्रक की बैटरी से आराम से चल जाते। लोग टीवी के साथ बैटरी भी याद से खरीद लेते, चार्जिंग फी यही कोई दो तीन रुपये। तो प्रोग्राम आता दिन में जो बंक मारने का बहुत बड़ा कारण था, शक्तिमान और युग बदला बदला हिन्दोस्तान।
जैसे तैसे 10वीं पास कर ली, इससे ज्यादा पढ़ने की हिम्मत ना थी छोरे में, सिर्फ आगे और ना पढ़ना पड़े, बन्दे ने सुबह सुबह भर्ती की तैयारी करते लड़कों की देखा देखी दौड़ लगानी शुरू कर दी। बैल बुद्धि तो था ही, ऊपर से लड़के ललकार भी देते, शुरू शुरू में तो सिर्फ पढ़ना ना पड़े इसके लालच में ये सब शुरू किया फिर उसका मन लग गया इसमें। दौड़ते हुए अपने शरीर से बहता पसीना और कसरत के बाद फूलते पिचकते मसल अच्छे लगने लगे। सुबह दौड़ते हुए गंगा तक जाना, फिर लंबी कूद की प्रैक्टिस, फिर वहीं नहा वहा के, साथ लाये भीगे चने चबाना, दोपहर बीतते ही सड़कों पर दौड़ लगाना फिर वापस आकर दंड बैठक डिप्स जैसे पचासों कसरतें करना उसका शौक हो गया।
पहली भर्ती बनारस देने गया, लंबाई थोड़ी कम रह गई, गुस्से में भुनभुनाता वापस आया और रोज घंटों पुल अप करने लगा, अगली भर्ती में फिजिकल स्टैण्डर्ड टेस्ट पास कर गया पर फिजिकल एफिशिएंसी टेस्ट में भरी दोपहरिया में थकान और डिहाइड्रेशन की वजह से दौड़ में रह गया। अब उसने गर्मियों की दोपहर में भी दौड़ना शुरू किया।
इलाहाबाद वाली भर्ती में उसकी मेहनत रंग लाई, रिटेन और मेडिकल भी निकल गए। सेलेक्ट हो गया सीआरपीएफ में। ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग काश्मीर मिली। कंपनी में अलग अलग राज्यों के बन्दे, सहज होने में थोड़ा समय लगा फिर सब ठीक हो गया। एक बार यूनिफॉर्म के कंधे की स्ट्रिप नहीं लगी थी तो साथियों ने मजाक बनाया कि क्यों बे तेरे दिन चल रहे हैं क्या। महिला सिपाही 'उन दिनों' में अपने कंधे की स्ट्रिप के बटन नहीं लगाती, ताकि कमांडर समझ जाए और ज्यादा भारी ड्यूटी ना लगाये। वैसे इन लड़कियों को देखकर बड़ा ताज्जुब होता, फिजिकल में भले ही मापदंड कम हों पर यहां मेहनत तो वो भी बराबर ही करती थी।
पहली बार जब दो महीने की छुट्टी में घर जाने का मौका मिला तो किसी आर्मी वाले की हेल्प से आर्मी कैंटीन से ढेर सारे डव लाइफबॉय आंवला तेल और ना जाने क्या क्या ले गया। दूसरे दिन ही पिता ने बरक्षा तय कर दिया था, लड़का नौकरी में है तो दाम भी अच्छे लगे थे। अगले साल शादी भी हो गई और कुछ ही दिनों में साहबेऔलाद भी हो गया।
काश्मीर यूनिवर्सिटी के गेट पर ड्यूटी थी तो वहाँ के लड़के लड़कियां मुस्कुराते हिकारत की नजर से देख आगे बढ़ जाते। एक बार एक लड़की ने तंज कसा, तुम लोगों की जरूरत नहीं यहां, गो बैक। इसने जवाब दिया, मैडम तुम पढ़ा लिखा है, मुझसे क्यों बोलता है, तुम वोट डालता है ना, अपने नेता से बोलो, मैं तो अपना ड्यूटी देता है।
खबर मिली कि कुछ आतंकी एक घर में छुपे बैठे हैं। मोर्चा लेने इसकी कंपनी गई। घंटो फायरिंग के बाद जब उधर से आवाजे आनी बन्द हुई तो कमांडर ने इसे आगे बढ़ कर खिड़की में से घर के अंदर बम फेंकने को कहा, कोहनी और घुटनों के बल बहुत तेज चलता था ये, छिपकली की तरह सरपट भाग बम फेंक आया, फिर हुक्म मिला, फिर गया, ऐसे ही सात बम फेंक आया। आंठवी बार भी यही हुक्म मिला तो बैल बुद्धि, सीना तान आगे बढ़ा, जब सात बार में कुछ नहीं हुआ, जो अंदर होगा वो तो मर ही गया होगा न, खिड़की पर पहुंच बम फेंकने की जगह अंदर झाँकने लगा, अंदर देखा कि जमीन से लगी लकड़ी के फट्टे से एक नाल झांक रही है और फिर रेट रेट...
साधारण किसान का बेटा बाकियों के लिए साधारण मौत मर गया। रमेश चंद्र का शरीर घर पहुंचा दिया गया, शहीद के तमगे के बिना, इस फोर्स के लोगों को सिर्फ अखबार के एक छोटे से टुकड़े में ही शहीद कहा जाता है।
अजीत
15 अगस्त 16

वंदे मातरम

पुस्तक कला नाम का एक विषय हुआ करता था, छोटी मोटी घरेलू चीजें, सजावटी सामान बनाना सिखाते थे उसमें। चिरौरी करके बीस पच्चीस रूपये निकलवा लेते मम्मी से, सुतली रस्सी और रंगीन अबरी पेपर खरीद लाते। गोंद घर में ही बना लेते आंटे का, बदबू बहुत आती थी उससे। जैसे तैसे काट कूट के बनाते ढेरों रंगीन झंडियां, पूरी छत पर कतरने उड़ा करती।
वैसे बाकी तैयारियां एक महीने पहले से ही शुरू हो जाती थी, छोटा सा स्कूल था हमारा, जैसे जैसे दिन नजदीक आते, क्लासेज कम लगती, तैयारी का समय बढ़ता जाता। कोई "सारे जहां से अच्छा..., हम होंगे कामयाब..., ऐ मेरे वतन के लोगों..." जैसे गाने गाता तो कोई लंबी लंबी स्पीचें रटता, कुछ लड़कियां डांस करती। डांस वांस तो हमें आता नहीं था, पर उस समय गला सुरीला था, तो एक गाने के ग्रुप में शामिल कर लिया गया। साथ में सुर में सुर मिला लेते, पर गाना याद नहीं हुआ, प्रिंसिपल मैडम ने पकड़ लिया कि ये तो कमजोर कड़ी है, ग्रुप से हो गए बाहर। फिर ये सोचकर कि बालक मन पर कोई बुरा प्रभाव ना पड़े तो चुटकुला सुनाने का काम दिया हमें।
गजब उन्माद सा था 14 की रात, नींद ही नहीं आ रही थी कि कब सुबह हो और कब भागें स्कूल। रात में 6-7 बार तो नींद टूटी होगी, बार बार अँधेरा देख गुस्सा आता। जैसे ही पहली किरण का आभास हुआ, फटाफट नहा वहा के तैयार, आधा अधूरा नाश्ता किया और पहुंच गए स्कूल। झंडे के अंदर डालने के लिए कितने ही घरों से मांग कर, या चोरी कर ढेर सारे फूल इकट्ठा किया गया। फिर हम दो लड़के छत पर चढ़े झंडा फिट करने, पहली दो बार तो हरा ऊपर और केसरिया नीचे हो गया था। सारे ही बच्चे छोटे मोटे काम कर रहे थे। फिर प्रभात फेरी निकालने की जल्दी मची। सबसे आगे तिरंगा लिए एक बालक, पीछे स्कूल का नाम लिखा बैनर लिए एक लड़का एक लड़की, और उनके पीछे पूरा स्कूल छोटे छोटे तिरंगों के साथ, मा साब और बहन जी लोग दाएं बाएं। बुलंद आवाज वाले लड़के नारा लगाते, पीछे वाले जय जिंदाबाद अमर रहे बोलते। ये वाला सबसे अच्छा लगता, अन्न जहां का .... वो है प्यारा....। लोग बाहर निकल निकल कर देखते। गार्जियन लोग दिख जाते जग में पानी लिए अपने अपने घर के बाहर। ऐसे ही गाते चीखते चिल्लाते यही कोई पांच सात किलोमीटर का चक्कर लगा वापस स्कूल पहुंचे, थक तो गये थे पर उत्साह कम नहीं हुआ था। लाइन लगा खड़े थे और प्रिंसिपल मैम ने रस्सी खींच दी। वो लहराता तिरंगा और उससे निकल कर हवा में तैरती हुई नीचे की ओर आती फूलों की पंखुड़ियां, आज भी याद आ जाती हैं।
जन गण मन के बाद तीन चार बोरिंग भाषण सुनने पड़े बड़े लोगों के, फिर हम बच्चों की बारी आई। नाच गाना, फिर मेरे नंबर से पहले प्रतिभा दीदी ने गाना गाया था, ऐ मेरे वतन के लोगों... गाते गाते खुद रो पड़ी, साथ मुझे भी रुला दिया (ये ताना कई बार सुन चुका हूं, 'मर्द होके रोते हो', उस समय तो निपट बालक ही था)। अब चढ़ तो गया स्टेज पर, पर चुटकुला याद आये तब ना, मन तो 'जो शहीद हुए हैं.....' पर अटका था। पीछे से किसी ने शुरू के कुछ शब्द बोले तो जैसे तैसे चुटकुला सूना दिया, कोई नहीं हँसा। फिर अंत में दोना भर बुनिया मिला था।
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अब लगता है कि शायद बच्चे ही बचे हैं जो मन से मनाते हैं 15 अगस्त। अहसास भी है किसी को कि कैसे और कितने संघर्ष से मिली हैं ये, क्या कोई वैल्यू बची है हमारी नजरों में इसकी, क्यों होगी, फ्री में जो मिल गई। अपने घर के सदस्य का बड्डे कितने जोशोखरोश से मनाते हैं पर देश के लिए इतनी लापरवाही। 4 जुलाई का अमेरिका या 14 जुलाई का फ्रांस देखिये और सोचिये कि आप कितने नाशुक्रे हैं।
हर बात में दूसरों को, सरकार को गरिया दो पर खुद को मत देखना कभी। सबसे आसान काम जो है।
देशभक्ति सिर्फ फौजियों के लिए रिजर्व नहीं है और ना ही शहीद होना जरूरी है। जो करते हो बस वही करो, पर ईमानदारी से, इतना काफी है, इससे ज्यादा की जरूरत नहीं।
वंदे मातरम

अजीत
13 अगस्त 16

पडोस

अपने मोहल्ले में, मतलब गली में, शुरू शुरू में 4 घर थे। हमारा, सामने ठाकुर साब, दाएं बगल त्रिवेदी जी और उनके सामने पांडे जी। दस बारह साल हमारे किरायेदार रहे डॉक्टर साब भी हमारे बाएं बस गए। पांडे जी से आप लोग पहले भी मिल चुके हैं। तो ये हमारा छोटा सा मोहल्ला था, सारे के सारे ही उच्च शिक्षित, घरों के मुखिया ऊँचे सरकारी पदों पर। आपस में सौहार्द उतना ही था जितना ग्रामीण परिवेश से निकले मध्यमवर्गीय परिवारों में होता है। सबकी अलग विचारधारा, इसलिए खुद को छोड़ अन्य सभी अजीब टाइप के लोग थे। सुख दुख में इतना साथ जरूर देते कि सलाह देने और फिर मीनमेख निकालने पहुंच जाते, ई कर लेना त उ हो जाएगा, अइसे नहीं भाई वइसे न करना था, हम त पहिलही कहे रहे, बात नहीं मानियेगा त यही न होगा, आदि इत्यादि।
जैसा कि सामान्यतः हर मोहल्ले में होता है, एक दूसरे से ऊंचा दिखने की कामना सबमें ही थी, अब दिखे कैसे, तो इसके निमित्त बनते घर के सामान, सुविधाएं। पांडे जी को सबसे पहले फोन लगाने का अभिमान था, फोन की वजह से रूतबे में अप्रत्याशित उछाल आ गया मानों, जिसे देखो उसी की इनकमिंग आ जाती, झल्ला जाते, रौब दिखाते। कुछ ही दिनों में हमारे यहां भी फोन लग गया और वो पटा गये। किसी के यहां फ्रीज पहले आया तो किसी के यहां मिक्सर ग्राइंडर, जिसके यहां पहले सामान आ जाता वो खुद की नजर में ही ऊपर उठ जाता।
त्रिवेदी जी से उनकी बझी रहती हमेशा, त्रिवेदी जी श्वेत वेश श्वेत केश और श्वेत दाढ़ी वाले बाबा टाइप पुरुष थे, संस्कृत हिंदी इंग्लिश के प्रकांड विद्वान, ग्रह नक्षत्र नाड़ी विज्ञान पर भी पकड़ थी। जब मैंने होश संभाला तभी से रिटायर थे नौकरी से, आज भी जीवित और पूरी तरह स्वस्थ। वन्स अपान अ टाइम, पांडे जी को कोई काम करवाते समय कुछ हजार पांच सौ ईंटों की कमी पड़ गई तो त्रिवेदी जी की काई जमी ईंटें मांग ली। जब वापस देने का समय आया तो बोले कि तुम्हारी ईंटें गन्दी थी। त्रिवेदी कहां कम, बोले लाओ तुम ईंटें तो दो, मैं मजदूर लगवाकर उन्हें गन्दा करवा लूंगा। अजीबोगरीब बात पर लड़ जाते और बारी बारी से मेरे पापा से दूसरे की शिकायत कर जाते।
डाकदर बाबू रेडियो के रसिया, ड्यूटी से वापस आकर सीलोन से लेकर नेपाल तक के स्टेशन पकड़ लेते। लाइट बहुत जाती थी, रात 11-12 बजे तक हमारे बरामदे में डटे रहते। सोचता था कि कोई इंसान का बच्चा कैसे इतनी देर तक कुर्सी पर उकड़ू बैठ सकता है। क्रिकेट के दीवाने, भारत पाक का मैच था, अंतिम ओवर और ये जनाब रेडियो छोड़ बाहर जमीन पर उकड़ू बैठ गए। थोड़ी देर बाद हम लोग मातमी मुँह बनाये बाहर निकले तो फट पड़े, जानत रहें हम, ई साला रोबिनवा कउनो काम का नहीं है, गदहा मतिन मोटा के ससुर क्रिकेट खेलिहें, हम कितना जब्त करते, हँस पड़े, बताया कि छक्का पड़ा और हम जीत गए। जब पूरी तरह विश्वास हो गया तो बोले, देखा, हम कहे रहे ना, ई रोबिनवा में कोई बात है, गजब जुझारू लड़का है।
पर मोहल्ले का नगीना थे ठाकुर साब, पापा और ये चंदौली में एक ही कॉलेज से डिप्लोमा किये, ये पहले सीनियर थे फिर साथी बन गए, फिर जमीन भी आमने सामने खरीदी, मकान बनाया लगभग एक ही डिजाइन का। महिलाओं में भी इतनी मित्रता हो गई थी कि घंटिया लगी थी दोनों घरों में, इधर बजाओ तो उनके घर में, उधर बजाओ तो हमारे घर में चिड़िया चहचहाती। थे तो थोड़े नाटे से, पर इसकी भरपाई अपनी आवाज से कर लेते। फोन पर बतियाते तो मोहल्ला जान जाता कि क्या मसला है। शुद्ध परिष्कृत और विशिष्ट गालियों के जनक थे, इनसे सीखा जा सकता था कि सामान्य बोलचाल से किसी के कानों से कैसे खून निकाल लो आप। रिटायर हो गए तो हमारे 16 घंटे मनोरंजन का जुगाड़ हो गया। सुबह दतुवन करते तो जो विचित्र आवाजें निकलती कि कोई माई का लाल उस समय नाश्ता नहीं कर सकता था। फिर निकलते बाहर एक डंडा लेकर अपनी नाली साफ़ करने, रोज का नियम था। एक बार डाक साब का छः वर्षीय सुपुत्र इनके सामने कमर पर हाथ रख खड़ा हो गया, बोला, का चचा, तोके कउनो अउर काम धाम ना हव का जवन कि रोजे नलिये साफ़ करेला। उस समय मैं और मेरे बड़े भाई छत पर चाय पी रहे थे और पापा सेविंग, इतनी कस के हँसी आई कि पापा ने अपना गाल काट लिया और हम दोनों भाइयों ने चाय का फुहारा मार अपने कपड़े गन्दे कर लिए। पड़ोसी मोहल्ले में कुछ सूवरें थी जो आ जाती हमारी नालियों में अपना नाश्ता खोजने, कितना भगाओ पर ये ढींठ, हिलती तक नहीं। एक बार इन्हें आया गुस्सा, हाथ फैला खड़े हो गए, बोले, भाग जो इहाँ से तोरी मतारी क..... और गहन आश्चर्य कि वो अपनी मतारी की इज्जत बचाते हुए पलट के भग ली। पहली बरसात के बाद निकलने वाले पीले मेंढकों के टर्राने से इतना व्यथित हो गए कि टॉर्च लेकर निकल पड़े, और एक एक मेंढक को इतना हड़काया कि पूरे पांच मिनट शांति रही।
इन सबमे पापा सबसे कम उम्र थे, फिर भी ये चारों महाशय हमारे यहाँ ही जुटते, ज्ञान विज्ञान धर्म राजनीति पर चर्चाएं होती। आपस में झगड़ा वगड़ा हो तो शिकायत भी पापा से की जाती। पांडे जी तो पहले ही निकल लिए, फिर पापा भी, उनके जाने के बाद कोई बैठकी कभी हो ना पाई। आज भी ठाकुर साब सारे ही काम करते हैं पर आवाज में वो बुलंदी नहीं दिखती, त्रिवेदी जी भी चुपचाप अपने घर में पूजा पाठ में लगे रहते है और डाक साब तो अब दिखते ही नहीं।

अजीत
9 अगस्त 16

मित्र

ट्रेन से पीलीभीत पहुँचने के बाद 1 खटारा सी रोडवेज बस में पहली बार पहाड़ की यात्रा शुरू हुई थी। 3-4 घंटे की खड़खड़ तड़तड़ से त्रस्त होने के बाद जब टनकपुर से आगे बढ़े तब पहली बार सुकून सा मिला, बस वही थी पर बाहर के नजारे बदल गए थे, अचानक ही ठण्ड बढ़ सी गई, इतनी हरियाली, पेड़ों की पत्तियां पतली होती जा रही थी, फिर वो बड़े दिन वाले पेड़ों की तरह के पेड़ दिखे, चीड़, और उनसे बहकर आती हुई अलग सी खुश्बू, एक डेढ़ घण्टे बाद बादलों से हमारी दूरी कम इतनी कम हो गई कि वो हमारे साथ ही चलने से लगे, कभी तो लगता कि वो बस के अंदर ही घुस गए हों, ये ऊँचे पहाड़, और वो गहरी खाइयां, कहीं कहीं पतली पतली पानी की धाराएं सड़क पर आती और फिर खाई में गिरती दिख जाती।रोमांच चरम पर था, मन करता कि निकल जाऊ बस से, चढ़ जाऊं पहाड़ों पर। 

तबादला हुआ था पापा का, लोहाघाट, उस समय का यूपी, आज का उत्तराखंड। शायद पहली बार थैंकफुल था पापा के लिए कि मुझे वो इतनी खूबसूरत जगह ले आये थे। लोहाघाट जैसे कटोरी में बसा कस्बा टाइप शहर, आठों तरफ विशाल पहाड़, एक मकान की छत दूसरे की दहलीज, सांप जैसी सड़कें, बड़ी बड़ी सीढ़ियों वाले रास्ते और उनकी दोनों तरफ दुकानें।

राजकीय विद्यालय में एडमिशन लिया नवीं क्लास में, ख़ुशी ख़ुशी गया कि नया दिन, नये दोस्त बनेंगे, पर अनुभव खराब रहा। कोई खुद आगे नहीं आया दोस्ती करने, 100 से ज्यादा बच्चों में दुर्भाग्यवश अकेला देशी था मैं, देशी मतलब जो पहाड़ी नहीं। कुछ ही दिन में प्रसिद्ध हो गया था, नाम तो शायद ही किसी को याद हो पर नए नामकरण हो गए, देशी, बनारसी, बिहारी। कोई दोस्त नहीं, चिढ़ाने वाले सारे, कोई कोई तो पीछे से चपत भी लगा देता, 3-4 बार धुलाई भी कर दी गई तबियत से। इंटरवल में चुपचाप जंगले पर बैठा रहता, सोचता की सामने से मेरे 8वीं के दोस्त चन्द्रिका प्रेम आ रहे हैं और मैंने उन्हें दौड़ के गले लगा लिया है। खूब रोता अकेले में, नफरत सी हो गई पहाड़ियों से, कत्ल कर देने का मन करता। बच्चे तो बच्चे, अध्यापक लोग भी कम नहीं थे, देशी अध्यापक तो पढ़ाते और निकल लेते पर कुछ पहाड़ी अध्यापक मजे लेते, हिंदी के गुरूजी बहुत चिढ़ते थेे देसियों से, पढ़ाते प्रेमचन्द और कबीर को, मजाक बनारस का उड़ाते। बैंक में गया किसी काम से तो क्लर्क ने पूछा कि बनारस बिहार में है ना। कुल मिला के गजब नफरत करते लोग देसियों से। 

अब सोचता हूँ तो समझ आता है कि कारण भी था इसका, अलग राज्य का आंदोलन जोरों पर था, सरकार सारी खटारा बसें पहाड़ों पर भेज देती, करप्ट अफसरों को दंड के तौर पर पहाड़ पर भेज दिया जाता, सबसे बेकार पुलिस अध्यापक डॉक्टर इंजीनियर अफसर मिलते पहाड़ को, लोग नफरत करते और वो उनके बच्चों में भी आ जाती।

इतना डिप्रेस हो गया कि 9वीं में फेल हो गया। 14 बच्चे फेल थे, अब मेरी नई पहचान देशी नहीं रह गई, फेलियर हो गई, उन्ही फेलियरों में 1 था प्रकाश जोशी। मेरा पहला पहाड़ी दोस्त, सुन्दर सा, गोरा, हल्के सफेदी लिए बाल। गरीब, ठेठ पहाड़ी, स को श बोलने वाला। पहली बार क्लास बंक उसके ही साथ की थी, हम दोनों ने एक साथ सिगरेट पीना शुरू किया, फेलियर थे तो दबदबा सा हो गया, डर खत्म हो गया था। रोज ही क्लास बंक कर चढ़ जाते पहाड़ों पर, जंगली मुर्गियां खोजते, बुरांश के फूल, काफल और ककड़ी तोड़ते, खाते, भवल्टा नाम की एक जगह थी एक पहाड़ी पर, अंग्रेजो की पुरानी बस्ती, थोड़ी दूर पर उनका कब्रिस्तान, अधिकतर भगोड़े लड़के वहीं आकर ताश खेलते। हम दोनों को ये लत नहीं थी, दिन भर बात करने में निकाल देते। एक दिन तो पता नहीं क्या फितूर चढ़ा कि एक कब्र खोद दी, अक्ल नहीं थी, आज अफ़सोस है। पहाड़ी लोग नाम छोटा कर देते हैं, मैं अजीत से अज्जू या अज्या बन गया था और प्रकाश पर्क्या या पारो।

पांच साल रहा पहाड़ पर, मोहब्बत सी हो गई इनसे, बहुत अच्छे दोस्त बने यहां, एक से बढ़ कर एक, दो बड़ी प्यारी लड़कियों ने भाई माना मुझे, फिर कुछ सालों बाद एक पहाड़ी लड़की से ही प्यार भी हुआ, शादी हुई। आज भी पहाड़ के नजदीक ही रहता हूँ, घर की छत से नैनीताल दिखता है जगमगाता हुआ।

अगर प्रकाश नहीं होता तो शायद आज भी नफरत करता पहाड़ियों से, प्रकाश ना होता तो अन्धेरा ही रहता सालों तक मेरे जीवन में। आखिरी दिन एक दूसरे से अलग होते समय खूब रोये थे हम गले मिलकर, बाजार के लोग रुक रुक कर देखते पर हम रोये जा रहे थे, अपना बनारस का एड्रेस दिया था उसे, पता नहीं एड्रेस गलत था या जाने क्या, आज तक कोई चिट्ठी नहीं आई उसकी।

सुबह से फेसबुक पर फ्रेंडशिप डे चल रहा था तो उसकी याद आ गई।



अजीत
7 अगस्त 16

नाग पंचमी

कल नाग पंचमी है, नहीं पता कि क्यों मनाते है इसे पर मुझे बचपन से ही ये दिन बहुत अच्छा लगता था। मैं और मेरा छोटा चचेरा भाई कभी कभी मिलने वाले 10-20 पैसे बचा बचा कर यहीं कुछ 5-6 रूपये जमा कर लेते, इस दिन छोटी छोटी दुकानों पर छोटे छोटे चित्र बिका करते थे नागों के, अलग अलग तरह के, शेषनाग पर लेटे विष्णु, वासुकी पर नाचते कृष्ण, नीलकंठ के गले में लिपटे नागराज, और भी तरह तरह के एकमुहे से पंचमुहें छमुहें साँप। बच्चा ही था, घर में पूजा पाठ की परंपरा कुछ खास नहीं थी, पर नास्तिक कोई नहीं था मेरे अलावा। पर इस दिन इन चित्रों पर बहुत प्यार सा आता था, रंग बिरंगे, चमकते, छूने पर उंगलिया जैसे तैरती थी इन पर। हम दोनों भाई देर तक उनमें से सबसे बढ़िया छांटने की कोशिश करते, डिस्प्यूट होने पर 11 महीने बड़े और 1 क्लास आगे होने से मेरा वीटो चलता। 12-15 चित्र जमा हो जाते तो घर पहुंचकर घरवालों की नजर से बच बचाकर गोबर लिपे खुरदुरे दरवाजों पर ये नरम मुलायम चित्र चिपका देते। मम्मी आजी तो कुछ नहीं कहती पर बड़े भाई के कमरे के दरवाजे पर अगर चिपकाते पकड़े गए तो मुझे तो घुड़की मिलती और भाई को सजा के तौर पर छोटा मोटा काम।
इस मौके पर गांव देहात में कुश्तियां खेली जाती पर हमने केवल सुना ही, कभी देख नहीं पाए, वैसे भी इतने पतले दुबले थे कि मझले भैया खूंटा कह कर चिढ़ाते थे, कुश्ती क्या देखते क्या लड़ते।
बड़े होते गए, सुना, पढ़ा, महसूस भी किया कभी कभी, नास्तिकता आस्तिकता में बदल गई पर पता नहीं क्या फितूर था कि सांप देखते ही मारने की इच्छा कर जाती। ना जाने कितनों को मारा, अहसास होता कि इन्हें मारकर किसी इंसान की जान बचा रहा हूं।
अब सोचता हूं कि इनका भी क्या दोष, हम इनके घरों पर अपने मोहल्ले बसाते जा रहे हैं, ये जाएं भी तो कहां, अतिक्रमण तो हमने किया इनकी जगहों पर। इनका तो प्रकृति प्रदत्त स्वभाव है जहर उगलना, जहर ना हो तो शिकार कैसे करेंगे, खायेंगे कैसे। शायद इनकी प्रजाति को सुरक्षा मुहैया कराने के लिए ही इस त्यौहार का सृजन किया गया हो।
वैसे आजकल इन दिन की प्रासंगिकता बस इतनी ही दिखाई देती है कि हम अपने विरोधी विचारधारा वाले व्यक्ति, समाज या नेता को इस दिन विशेष से जोड़कर चुटकुले बना देते हैं, हँसते हैं, और इस व्यंग कला में वे लोग भी माहिर हैं जो हर दिन रक्षक की भूमिका में दिखते हैं। दूसरों को नीचा दिखाने के चक्कर में अपनी ही परम्परा का मजाक बनाते हैं, अनजाने ही।
पता नहीं नाग पंचमी की बधाई देते है या नहीं पर फिर भी हैप्पी नाग पंचमी, और साथ ही हैप्पी फ्रेंडशिप डे 😊
(किसी को नाग पंचमी का महत्व और उत्पत्ति के बारे में पता हो तो अवश्य बताएं)


अजीत
6 अगस्त 16



तेरा-मेरा

आज किसी को राखी पोस्ट करने का हुक्म मिला तो याद आया कि राखी आने वाली है, पोस्टऑफिस पर इतनी भीड़, इतनी गर्मी, हालत खराब। क्यों मनाते हैं ये रक्षाबंधन? बहन अपना प्यार जताती है और भाई उसकी रक्षा का वचन देते हैं, पर सवाल ये है कि साल में 1 ही दिन क्यों, और अगर ये त्यौहार ना भी हो तो क्या बहन प्यार नहीं करेगी या भाई उसकी रक्षा नहीं करेगा। कितनी मजाकिया बात है न। क्यों जरूरत पड़ी इस 1 दिन को इतना भाव देने की, भाई बहन का प्यार मोहताज है क्या इस दिन का, गजब बेवकूफी है।
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कितनी चुभ रही हैं ना ये बातें, खूब गुस्सा आ रहा होगा। आना भी चाहिए, मैं पढ़ता तो मुझे भी आता। कुछ दिन पहले मदर्स डे आया था, उसके पहले फादर्स डे, तब कुछ संस्कृति रक्षकों ने कुछ ऐसी ही बातें की थी कि माँ बाप को प्यार सम्मान देने के लिए 'दिन' मनाने की क्या जरूरत है, साल भर करो प्यार सम्मान। अब ऐसा ही कुछ सिस्टर्स डे होता तब भी ऐसे ही लिजलिजे तर्क सुनाई देते। राखी का भावानुवाद किया जाए तो सिस्टर्स डे या ब्रदर्स डे ही तो बनेगा, मतलब कोई बात अगर किसी और भाषा में हो तो बिना सोचे जाने विरोध कर दो।
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बचपन में कहानी सुनी थी कि किसी हिन्दू रानी ने किसी बादशाह को राखी भेजी और वो चल पड़ा उसकी रक्षा को। कितना अच्छा लगता था कि देखो एक विदेशी हमारी संस्कृति का कितना मान करता है, पर जब किसी विदेशी त्यौहार या 'दिन' की बात आती है तो जुबान से मार काट मचानी शुरू कर देते हैं हम। ऐसा ही 1 दिन होता है वेलेंटाइन, क्या होता है उस दिन सबको पता ही होगा, रक्षकों की फ़ौज निकलती है सड़कों और सोशल मीडिया पर। ये उसी संस्कृति की रक्षा करते हैं जिसमें कृष्ण रास रचाते हैं, पार्वती तपस्या करती हैं शिव को पाने की, सुभद्रा अर्जुन का हरण करती हैं और रुक्मिणी अरेंज मैरिज नहीं करना चाहती तो पूरा यदुवंश ही आ जाता है उन्हें ले जाने, स्वयं का वर चुनने के लिए स्वयंवर किये जाते हैं। पर चूँकि ये वेलेंटाइन शब्द विदेशी है, बाहर से आया है, इसलिए इसका तो विरोध करना ही है।
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क्या अच्छा क्या बुरा, खुद से क्यों नहीं सोचते, जनरलाइज क्यों कर देते हैं हर चीज को। बुराई तो हर जगह ही हैं, आपमें भी और उनमें भी, पर ये श्रेष्ठ होने का जो अहंकार पाल लिया है ना हमने...
हमारी संस्कृति क्या इसलिए अच्छी थी कि हम दूसरों को गालियां पढ़ते थे या इसलिए कि हमने सदैव ही दूसरों का सम्मान किया और जो सत था, जो उत्तम था उसे अंगीकार कर लिया।
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पावन सावन और आने वाले त्योहारों की हार्दिक बधाई



अजीत
5 अगस्त 2016

शब्द मेरे, भाव उसके


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अपनी पिछली ट्रेन यात्रा वाली कहानी में मैंने एक लड़की टाइप लड़के का जिक्र किया था, उसी के कहने पर ये पोस्ट लिख रहा हूं, उसी की जुबान में...
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माँ की महीनों की शारीरिक और पिता की मानसिक तपस्या का फल संतान रूप में प्राप्त होता है, जब घर में बच्चा पैदा होता है तो पूरे परिवार के लिए ख़ुशी का माहौल बन जाता है, पर मेरा जन्म मेरे परिवार के लिए लज्जा का विषय था। अनुमान ही लगा सकता हूँ कि दाई ने लड़का हुआ या लड़की के प्रश्न पर कैसे और क्या जवाब दिया होगा, शायद चुप ही रह गई हो। घर के सारे मेहमान उसी दिन वापस चले गए होंगे। 

उन लोगों को जाने कैसे पता चल जाता है कि घर में बच्चा हुआ है, आ जाते है ख़ुशी में अपना हिस्सा कैश रूप में लेने, पर यहां मेरे घर वालों के लिए कोई ख़ुशी थी ही नहीं, ख़ुशी तो शायद उनके लिए थी, उनकी जमात में शामिल होने के लिए एक नया रंगरूट धरती पर आया था। माँ बताती है कि घरवाले उन्हें ही सौंप देना चाहते थे, पर उसकी ममता के आगे किसी की ना चली। मेरा बाप भी शायद मेरी ही वजह से इतना चिढ़चिढ़ा हो गया होगा। 

लज्जा से बचने के लिए शहर बदल दिया गया, पर शहर बदल देने से क्या सच में कुछ बदला। आप अनुमान लगा सकते हैं उस बच्चे की पीड़ा जिसे कोई प्यार ही नहीं करता, कहीं कोने में पड़ा, डरा सहमा सा, जिसे मतलब ही नहीं पता उस बात की सजा भुगतता हुआ। कोई जिद नहीं कोई ख्वाहिश नहीं, जिसे हँसना नहीं आता, जिसके रोने का कोई फायदा नहीं। जब से होश संभाला, खुद को बिस्तर गीला करता हुआ ही देखा, आज भी, बच्चा था तो रोज ही डांट पड़ती। हर बच्चे की माँ होती है जो उसे सीने में छुपा लेती है पर मुझे ये भी नसीब नहीं था, शुरू में जो ममता दिखाई थी शायद उसकी वैलिडिटी एक्सपायर हो गई थी। 

घर में रखा ही था और सरकारी स्कूलों में फीस भी कम ही होती थी तो पढ़ाई भी चल ही रही थी। पहला दिन याद है जब मास्टर ने कहा था दूसरे बच्चों से कि इसे परेशान मत करना, नर्क में जाओगे। अगले दिन उन बच्चों को नर्क का मतलब पता चल गया था, साथ खेलते तो झगडे भी होते, इसलिए कोई खेलता ही नहीं, ना बांस, ना बांसुरी। घर में अकेला, यहां भी अकेला।

पता नहीं कौन सा क्षण था जब सोच लिया कि पढ़ने से शायद इज्जत कमा सकूँ, वजीफे मिलने लगे तो आगे की पढाई में कोई दिक्कत नहीं आई। बैंक क्लर्क बन गया था 21 की उम्र में। 
पर अब समझ में आ गया कि इज्जत हम जैसों के भाग्य में नहीं। मैं पेपर पर महिला होने के अलावा वो सब हूँ जिसे इस देश में शोषित समझा जाता है। पर इनमें से किसी ने भी मुझे वो इज्जत नहीं दी जो एक सामान्य इंसान को मिलनी चाहिए। महिलाएं भी बड़ा हल्ला करती हैं कि पुरुष उन्हें अपने बराबर नहीं समझता, दोयम दर्जे का मानता है, फिर तुम्हें तो हमारा दर्द समझना चाहिए था ना, पर तुमने भी तो हमें खुद से कमतर ही माना। 

तुम गाय गोबर बंदर सुअर सबकी पूजा करते हो, कहते भी हो कि सबके अंदर परमात्मा, पर जब मुझ जैसों को देखते हो तो तुम्हारी ये थ्योरी हवा हो जाती है। काश कि उसने बन्दर बामन सूवर आदमी औरत के साथ साथ हमारे रूप में भी अवतार लिया होता। वो तो भला हो कि राम कुछ कह गए, कमाने खाने का जुगाड़ हो गया वरना तुमने तो कोई कसर ना छोड़ी होती। 
तुम्हारा स्त्रीत्व और तुम्हारा पुरुषत्व भी अजीब है, जो इंसान सिर्फ अपनी संतति पैदा करने के काबिल नहीं, क्योंकि जिसके माँ बाप के X और Y का गणित गड़बड़ था, तुम उसे हिकारत की नजर से देखते हो। सड़कों पर नंगे फटेहाल बच्चे छोड़ देने वाला भी मुझसे बेहतर माना जाता है।

देखता हूं तुम जैसों को, स्कूलों में सोते हुए, आफिसों में घूस खाते हुए, हॉस्पिटलों में खून चूसते हुए, घरों में औरतों को पीटते हुए, सड़कों पर अपनी मर्दानगी दिखाते हुए, अजन्मे बच्चों को मारते हुए, बूढ़ों को घर से धकेलते हुए, समधी को लूटते हुए, टुकड़ा टुकड़ा जमीन और चंद पैसों के लिए संबंधों और शरीरों की हत्या करते हुए।

हाँ, तुम्हारी परिभाषा के हिसाब से नपुंसक हूं मैं, पुंसत्व नहीं है मुझमें, पर क्या तुममें है?
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शब्द मेरे, भाव उसके...
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तेरा बड्डे गिफ्ट, फिर से हैप्पी बड्डे


अजीत
28 जुलाई 16

होता है कभी कभी


इधर पहाड़ों के स्कूलों में जाड़ों में भी छुट्टियां होती थी पूरी जनवरी, एक महीने का बम्पर बोनस। मुझे जितना प्यारा बनारस है उतने ही प्यारे पहाड़, बस पहाड़ पे चढ़ना उतारना बड़ा घिनौना काम है। लोग जो भी घर से खा कर चले होते हैं न, वो इस बलखाती इठलाती सड़कों पर डगमगाती बसों के शीशों पर चित्रांकित दिख जाता है। आप कितने ही मजबूत दिल के आदमी हों, ये नजारे बर्दास्त नहीं कर सकते और इसमें कभी न कभी अपना योगदान दे ही देते हैं। तो अगर एक बार चढ़ गए तो इस 'उमड़ घुमड़ घिरी आये बदरा' के डर से आपका उतरने का मन नहीं करेगा और उतर गये तो चढ़ने का। 

छुट्टियां एक्सटेंड हो गई थी और हम बनारस के रस में सराबोर हो रहे थे कि खबर आई कि प्रैक्टिकल प्रीपोंड हो गया है। कुछ मजबूरियां थी कि पापा मम्मी साथ नहीं आ सकते थे तो हमें अकेले ही इतने लंबे सफर पर भेज दिया गया। दूसरी बार अकेले यात्रा करने जा रहे थे, पर कोई खास उत्साह नहीं था, एक तो अपना शहर छोड़ के जाना और वो भी पढ़ाई की वजह से, दूसरे अकेला रहना रूमानी लग सकता है पर वास्तविकता भयावह है मुझ जैसे आलसियों के लिए, जामुन का बीज तक तो थूका नहीं जाता मुँह से, अकेले क्या बनाते क्या खाते। और मेरे पिता जी भी, बोलते, अरे कर लेगा, बच्चा थोड़ी है। 

तो खैर, सुबह सुबह 4:30 पर जेब में 1740 रुपये देकर छोड़ गए कैंट स्टेशन के बाहर, वरुणा निकलती थी सुबह पौने पांच पर। एक बड़े बैग में कपडे, जो छुट्टियों में कभी पहने नहीं गए, दूसरे बैग में किताबें, जो छुट्टियों में कभी खोली नहीं गई, लिए दिए चढ़ गए ट्रेन में। वरुणा पूरी की पूरी जनरल ट्रेन है, पर एक्सक्लूसिव टाइप, ऑफिस जाने वाले लोग ही ज्यादातर होते हैं इसमें। ज्यादा भीड़ भी नहीं होती। विंडो सीट कब्जिया के बैठ लिए हम। थोड़ी देर में एक जन आये, 'सद्' या 'दु:' अभी मालुम चलेगा, बोले, कब जायेगी ट्रेन, बोली से अहिन्दीभाषी या कम से कम अभोजपुरिभाषी लगे, बता दिया टाइम, ढेर सारा सामान, साथ में एक बीबी दो बच्चे ले चढ़ गए और मेरी सामने वाली सीट पर पसर गये। कुछ लोग शक्ल से ही भोले, दयालु, परोपकारी, परहिताभिलाषी लगते हैं, ये उसके बिलकुल उलट दिख रहे थे। थोड़ी देर में इनकी खिड़की के बाहर से किसी ने पूछा, कब जायेगी ट्रेन, बोले, मैं ड्राइवर दिख रहा हूँ तुम्हे, अनपढ़ हो, ट्रेन का टाइम नहीं पता तुम्हे, ब्ला ब्ला ब्ला....

ट्रेन अपने टाइम से आगे बढ़ी, हर हर महादेव बोल हम भी बढ़ लिए। अगर आप घनघोर टाइप के सुतक्कड़ नहीं हैं तो जो आनन्द आप ट्रेन में ले सकते है वो और कही नहीं। ट्रेन चली और हमने क्रिकेट टुडे और बांकेलाल कॉमिक्स बाहर निकाल ली। बांकेलाल जो भी बोलता उसे ये 'जन' अपनी आवाज से काट देते, पता नहीं क्या प्रॉब्लम थी, उन चारों के बदले खुद ही बोले जा रहे थे, और बस बोले ही जा रहे थे। पढ़ने तो वो दे नहीं रहे थे, सोचा चलो इनकी ही बात सुन लें। पूछा, अरे अंकल, का हुआ, काहे इतना परेशान हैं। पहली बार बन्दा पूरे 10 सेकंड चुप रहा, तबियत से हमें घूरने के बाद बोला
तुमसे मतलब, तुम बनारसी है।
हाँ अंकल है हम बनारसी।
तुम लोग चोर होता है, चोरी कर लेता है। मेरा बटुआ चुरा लिया मुगलसराय में। तुम लोग ठग होता है, मंदिर में ठग लिया तुम लोगों ने। तुम लोग गन्दा होता है, पान थूकता रहता है। ब्ला ब्ला ब्ला...

16 साल के लड़के से वो आदमी दुनियां जहां की शिकायत कर रहा था। उसके बड़े बेटे ने, जो बेटी जैसा लग रहा था, उसे चुप कराने की कोशिश की तो उसे भी हड़का दिया।
अपनी बीबी से बोला पैसे सम्भाल के रखो, या लाओ मुझे दो। मेरे सामने ही बीबी से पैसे लेकर अपने नए नकोर पर्स में डाल लिए।
मालुम चला आमची मुंबई के हैं, उनके यहां रामराज्य है, वहां जेब नहीं कटती, ठगी नहीं होती, कूड़ा कचरा कोई नहीं फेंकता, स्लम वगैरह तो अफवाह है जी।

हमने इस बार सौरभ गांगुली में ध्यान लगाया तो बेटे जैसी बेटी ने या बेटी जैसे बेटे ने आँखों से ही बांकेलाल की डिमांड कर दी, कौन सा घिस जाता, दे दिया हमने। इस पर वो 'जन' फिर शुरू हो गए, नहीं चाहिए तुम लोगों का कुछ, रखो अपने पास ये चीप कॉमिक्स। हद्द आदमी था यार।

मम्मियां भी मजेदार होती है, 5-6 घंटे के बाद लखनऊ पहुँच ही जाना था मौसी के यहां (वहां से शाम की ट्रेन थी), फिर भी पूड़ी भुजिया बाँध दी थी, वैसे तरजीह बाटी को दी जाती है।
एक रूपये का 'आज' खरीदकर हमने पूरी बोगी में अचार की सुवास फैलाते हुए दस्तरखान बिछाया, कर्टसी, सामने वालों से भी पूछ लिया, मेंढक फिर टर्राया,
क्यों जहर मिला है क्या, लूटना चाहते हो क्या, बेवकूफ समझा है क्या। ब्ला ब्ला ब्ला...

कसम से, गला दबा देने का मन किया, आचार की गुठली में उसका तसबरा कर इतना चबाया कि गाय क्या पगुराती होगी।
तहजीब के शहर पहुँच गये, ट्रेन ढंग से रुकी भी नहीं और ये महाशय फुदकने लगे, पता नहीं क्या जल्दी थी। ये आगे बढ़ गए तो उस लड़के/लड़की ने आगे बढ़ते समय झेंपने वाली मुस्कान के साथ धीरे से सॉरी बोला।

स्टेशन पर उतर पहले तो हमने बदन तोडा अपना, सुबह ब्रश कर के चले थे, पर दातुन दिख गया तो ले लिए चुभलाने को। कोई जल्दी तो थी नही, फिर चाय सुड़कने के बाद प्लेटफार्म से निकले। रिक्शावालों, फिर टैक्सी टैम्पो को पार का आगे बढ़े तो ये चारों दिख गए मंदिर के बाहर खड़े। आगे बढ़ रहा था कि आंटी की आँखों में कुछ ऐसा दिखा कि जा कर पूछ ही लिया, का हुआ, जवाब मिला कि अंकल की जेब कट गई।

कसम से, पेट से इतनी हंसी निकलने की कोशिश कर रही थी कि उसे रोकने में आँख से आँसू निकलने को तैयार हो गए। इतना मजा आया, दिल को इतना सुकून मिला कि क्या बताएं।
पीठ फेरी, चौड़ी सी मुस्कान लिए आगे बढ़ लिए। सड़क पार कर उनकी तरफ पलट कर देखा तो वो बड़ा लड़का कातर नजरों से मुझे ही देख रहा था। आज की तरह एटीएम और मोबाइल नहीं हुआ करते थे उन दिनों।
वापस लौटा, दिल मजबूत कर अपनी जेब से 500 निकाल अंकल की तरफ बढ़ा दिया। उन्होंने नहीं पकड़े तो बड़े लड़के को पकड़ाए, उनके कहने पर अपना एड्रेस लिख कर दे दिया।

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चौदह साल बाद पिछले साल फेसबुक पर उसने मुझे खोज लिया। आज मेरा बहुत अच्छा दोस्त है। बड्डे है उसका आज, गिफ्ट के तौर पर अपनी कहानी मेरी जुबानी आप सबको सुनाना चाहता है।
आज तो नहीं दोस्त पर अगली कहानी तेरी ही होगी।
हैप्पी बड्डे
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अजीत
26 जुलाई 2016

गुरु


बाबा बड़े मस्त आदमी थे। पापा इंजीनियर थे इसलिए हर मामले में खुद को एक्सपर्ट समझते, खेती हो या किचेन, पुताई हो या पढ़ाई, फिर बाबा तो पापा के भी पापा थे। कोमल आँखे, (सिर्फ बच्चों के लिए आरक्षित), छोटे सफेद बाल, दो चार दिन की उगी दाढ़ी, गोरा रंग, दमदार आवाज। आँखों के अलावा सारा सिस्टम चाक चौबंद। मोटी फ्रेम का चश्मा पहनते, वो भी सिर्फ अखबार पढ़ते समय, अब ये अलग बात थी की पढ़ते वक्त चश्मा नाक की फुनगी पे टिका रहता और उनकी आँखे चश्मे के ऊपर से ही अक्षरों को ग्रहण करती। 

आज के हिसाब से तो गरीब ही थे पर उनके हिसाब से गरीबी जैसी कोई बात नहीं थी, जो था उसमें ही खुश, कुछ अलग कुछ नया पा लेने का उनका मन ही नहीं था। वैसे ये बात तो है कि गरीब आदमी अमीर बनकर गरीबी भूल जाता है पर अमीर गरीब हो जाने के बाद भी अपनी दिलदारी छोड़ नहीं पाता। इनके भी बाबा या उनके पिता बड़े जमींदार हुआ करते थे, गदर में बाबू कुँवर सिंह का साथ दिया तो सारी जमींदारी छिन गई, जान बच गई क्योंकि अंग्रेज महिलाओं बच्चों की हिफाजत की थी। ये भी दिलदार आदमी थे, कोई मदद मांग ले तो उसकी तो सहायता करते ही, उन लोगों की भी कर देते जिन्हें कुछ मांगने में कष्ट होता। कई बार बेवकूफ भी बने पर ये आदत छोड़ ना सके। अच्छी खासी नौकरी थी कटनी में, बड़े भाई की आज्ञा हुई कि खेती देखो, मैं नौकरी करूँगा तो गांव के ही होकर रह गए। बीस बाइस साल प्रधान भी रहे।

अलमस्त फकीर टाइप इंसान थे, सुबह अजान से पहले उठ जाते, ठण्ड के मौसम में आग जला देते, सामने खेतों से आलू निकाल आग में डाल देते, फिर सारे घर को उठाते, जिसका खेत होता वो दिख जाए तो उसे भी बुलाकर नाश्ते में आलू परोसते, कहते खाओ यार, शर्माओ मत, तुम्हारे ही खेत के हैं। 

पूरा गांव उन्हें कनहरे बाबा कहता, उनका तकियाकलाम था कनहरे, का नाम ह रे का शार्ट फॉर्म। एक बार कनहरे बाबा खेतों पर गए, थोड़ा काम किया फिर खैनी बनाने लगे, खैनी खाने के बाद देखा तो फावड़ा गायब, बड़े परेशान, फिर गुस्सा। दूर खेतों में कोई दिखा, उसे बुलाकर पुछा, उसे क्या पता। रौद्र रूप धारण कर गांव आये और एक सुर में पूरे गांव को गरियाना चालू, सारे चोर हो गए हैं गांव में। भीड़ लग गई, उनमें से एक बहादुर आगे बढ़ा और बोला, का बबा, तोहरे कन्धा पर त हव फरसा। बड़े इत्मीनान से उसे पास बुलाया और एक जोरदार थप्पड़ जड़ के बोले, सूअर का बच्चा, पहले नहीं बोल सकता था। ये अलग बात है कि शाम को उस सूअर के बच्चे को खस्सी की दावत कराई। आज तक मुझे समझ नहीं आया कि गुस्से में लोग कैसे भोजपुरी से खड़ी हिंदी में स्विच कर जाते हैं। 

पड़ोस के गांव में किसी ने प्रेम विवाह किया, पंचायत जात बाहर कर रही थी, ये अड़ गए, बोले अगर ये जात बाहर हुआ तो इसके साथ मैं भी होऊंगा। रोटी पानी के लिए जो भी बुलाता पहुँच जाते, किसी को भी अपनी थाली में खाने बैठा लेते।
बनारस आते तो सारे भाई उनसे कहानियां सुनते। वो एक ही कहानी सुनाते, दुष्यन्त शकुंतला की। हम भी टेल्सपिन और मोगली से ज्यादा इस कहानी को ही तरजीह देते। साहित्य से पहला परिचय उन्होंने ही कराया, हालाँकि उन्हें इंग्लिश पढ़ना ज्यादा आसान लगता। 

एक शाम पापा का फोन आया बड़े भैय्या के लिए, गांव चले जाओ, अगले दिन कोई तारीख थी शायद कोर्ट में। भैय्या मुझे भी साथ ले गए। गांव पहुँचे तो देखा बाबा नहर पर खड़े मेरे चचेरे भाइयों को पुकार रहे थे, गाय गोरु के लहना पानी का समय हो रहा था। शाम को साथ खाना खा कर सोए। अगली सुबह अजान हो गई, धूप कमरे में आ गई पर बाबा की आवाज नहीं आई। भैय्या उठे और दूसरे कमरे में उन्हें देखने गए, फिर दौड़ते हुए मेरे पास आये, बोले देखो तो बाबा नीचे लेटे हुए है। देखा तो वो उत्तर दक्खिन आराम से पीठ के बल चिरनिद्रा में थे। भैय्या रो रहे थे और मैं, शायद पहली बार मेरी आँखों से 1 आँसू भी ना निकला। 

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आज सुबह सुबह एक नए बने युवा फेसबुक मित्र ने गुरु पूर्णिमा की बधाई देते हुए मेरे गुरु के बारे में पूछा। बहुत सारे मानव रत्नों को अपना गुरु मानता हूँ पर अगर किसी एक का नाम लेना ही हो तो अपने कनहरे बाबा का नाम सबसे ऊपर रहेगा, हमेशा।


अजीत
19 जुलाई 16