Friday, 3 February 2017

अजब-गजब


दो दिन पहले अपने अतुल शुक्ला भाई की पिछले साल की लिखी एक पोस्ट दिखी जिसमें आवारा कुत्तों के हमलों से मार डाले गए एक पिल्ले की लाश की रक्षा कुछ बन्दर कर रहे थे। हम इंसान, इंसानों की भावना पूरी तरह से समझ नहीं पाते, फिर इन्हें क्या समझेंगे।
चौथी क्लास में थे जब स्कूल से घर आते वक्त एक जगह मेरा छोटा भाई थमक कर खड़ा हो गया। मुझे सुबह की बासी रोटियां घर की तरफ खींच रही थी तो हम आगे बढ़ लिए। घर पहुंच कर रोटी में नून-तेल लगा कर 'ब्रंच' कर रहे थे कि भाई अपनी हथेली पर कुछ लाता हुआ दिखा। हथेली पर एक नन्हा सा सिकुड़ा हुआ गिलहरी का बच्चा। कितना सुन्दर। भाई ने बताया कि कौवे इसके भाई को मार चुके थे और इसे भी मार देते।
आपको 'गिल्लू' याद आ रहा होगा पर ये भी एक गिल्लू ही था, बस यहां 'वर्मा जी' की जगह पर चार छोटे भाई थे। ड्रॉपर से कोशिश की, बात नहीं बनी तो रुई भिगो कर दूध पिलाया। सहमा बच्चा 2 दिन बाद थोड़ा सही दिखने लगा था। हम चार भाई चार दिशाओं में खड़े हो जाते, ये देखने कि किसकी तरफ आता है ये। हर बार, पोजिशन चेंज करने पर भी वो बच्चा ना जाने क्यों मेरी तरफ ही आता। एक दुर्घटना में अपनी मृत्यु के दिन तक उसका यही व्यवहार रहा, जबकि बाकी तीन भी उतना ही प्यार. उतनी ही देखभाल करते थे।
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मंदिरों में रहने वाले बंदरों के सभ्य व्यवहार तो बहुतों ने देखे होंगे। बनारस के संकटमोचन मंदिर के शांत बन्दरों को देखा होगा, हालाँकि मेरा ख्याल है कि उनकी सुस्ती का कारण उनके भोजन में सिर्फ प्रसाद की मिठाइयां और उससे होने वाला डाइबिटीज है।
8-10 साल पहले शुरू में ताज्जुब, फिर आम सी घटना होती थी बनारस के सारनाथ से पहड़िया के बीच। एक लंगूर सारनाथ में किसी भी समय किसी की भी साइकिल के पीछे बैठ जाता और पहड़िया उतर जाता, फिर किसी और की साइकिल पर वहां से वापस सारनाथ। बनारसी वैसे भी मस्त मलंग होते हैं, धार्मिक प्रभाव भी रहता है, कितने ही लोग, जिनमें एक बार मैं भी था, अपनी साइकिल लिए इंतजार करते, पर लंगूर महाशय किसी अ-लालायित शख्स की साइकिल सवारी करते।
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"रांड़, सांड़, सीढ़ी संन्यासी। इनसे बचै तो सेवे काशी।।"
इसी काशी के सिगरा पर एक छोटा सा मंदिर है। एक साँड़ महाशय रोज सुबह करीब आधा घण्टा उस मंदिर में, बाहर नहीं, मंदिर में बैठते थे। फिर थोड़ी दूर स्थित एक दुकान पर पहुंच दूकानदार द्वारा दिए नाश्ते को हजम कर अपनी दिनचर्या शुरू करते। सालों से हो रहा था ऐसा। मंदिर और उस दुकान के बीच अन्य दुकानें भी हैं, पर एक ही दुकान, और उस दुकान के मालिक पिता-पुत्र के हाथ से ही खाते थे जनाब।
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मेरी एक फोटो याद होगी आप लोगों को, जिसमें मैं कुर्सी पर और एक बन्दर फर्श पर पसरे हुए हैं। ये बन्दर महाशय आस-पास की 5 इमारतों पर अलग-अलग पर निश्चित दिन पाए जाते थे। जैसे मेरी बिल्डिंग पर हर मंगलवार। बाकी 2 दिन कहां रहते, पता नहीं। मुझे दिन दिनांक देखने के लिए मोबाइल देखना पड़ता है, पर एक अल्पबुद्धि जानवर कैसे इतना हिसाब रखता होगा?
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अब जो बात बताने जा रहा हूँ उस पर शायद ही कोई यकीन करें। गांव में रहने या रह चुके मित्र शायद सहमत हों। आपने अपने आस-पास शाम या रात को सियारों की हुआँ-हुआँ सुनी होगी। क्या आप इसे बंद कर सकते हैं? उपाय बताऊँ?
बिलकुल ही अवैज्ञानिक बात है, पर कर के देखिएगा, सैकड़ों बार आजमाया तरीका है ये। जब भी हुआँ-हुआँ का शोर सुनाई दे, तीन मुट्ठियां बन्द कीजिये और फिर सुनिए, शोर बन्द हो गया होगा। तीन मुट्ठी मतलब दो आपकी और एक किसी दूसरे की।
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आप लोगों के पास भी कुछ किस्से होंगे, है ना, बताइएगा..
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अजीत
4 फरवरी 17

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