रामा दिलचस्प आदमी थे। इनसे मुलाकात भी घनी दिलचस्पी की बात थी। नौकरी की तलाश में जब पुणे पहुंचा तो एक पूर्व बैचमेट के यहां ठहरा, मित्र ने धोखा जो दे दिया था। दो दिन बाद इशारों में ही अतिथि-मर्यादा समझा दी गई। अनजाना शहर, दगाबाज मित्र, कहाँ जाऊं क्या करूँ, यही सब सोचते हुए बिल्डिंग के बाहर पान की टपरी से एक के बाद एक धूम्रदण्डिका सुलगाये जा रहा था। शायद मेरा चेहरा भावों को छुपा नहीं पाता, मुझे ऐसे परेशान बदहवास देख बिल्डिंग के निचले तल पर सीडी लाइब्रेरी चलाने वाला पंकज पास आया, मराठी में बोला, "काय त्रास?"। जैसे तैसे अपनी व्यथा बताई तो बोला का मरदे, एतने में परेशान हो गइला, चला पहिले मूड सुधार किया जाए। जमनिया का निकला भाई।
मैं कुछ बोलता उसके पहले ही अपनी बाइक स्टार्ट की और मुझे लिए पहुंच गया एक ठीक ठाक बार में। पुणे में ये बड़ी अच्छी चीज है, कदम-कदम पर बार, और बादाखोरी हमारे पूरब की तरह इतनी नाजायज भी नहीं मानी जाती। ये भी अजीब बात है, लोग पता नहीं कैसे मुझे देखते ही मान लेते हैं कि "पीता" तो होगा ही। हद्द है, खैर साथ देने के लिए ठंडा मंगा लिया। बगल वाली टेबल पर एक साँवले से सज्जन बैठे हुए थे, गिलास पर गिलास यूँ चढ़ाए जा रहे थे जैसे अगले दिन कयामत आने वाली हो। मेरी नजर खुद पर गड़ी देख उठकर मेरे पास आ गए और प्यार से बोले, क्यों भैय्ये, काये को घूरता।
पंकज ने परिचय कराया, कुछ लम्बा सा नाम था, बोले, तुम रामा बोलो अपन को। तमिल थे। मयखाने में ही कुछ नशा होता है, ना जाने कैसे अपना रोना रो गया मैं। सुनकर बोले, तुम मेरे यहां ठहर सकता एकाध महीना।
बहुत बड़ी हेल्प थी ये, कमाल देखिये कि जिनके साथ तीन साल पढ़ाई की थी, जो मेरे अपने शहर के थे उन्होंने नहीं, बल्कि पंकज और रामा जैसे अनजाने लोगों ने मदद की।
बहुत बड़ी हेल्प थी ये, कमाल देखिये कि जिनके साथ तीन साल पढ़ाई की थी, जो मेरे अपने शहर के थे उन्होंने नहीं, बल्कि पंकज और रामा जैसे अनजाने लोगों ने मदद की।
रामा के साथ करीब 20-22 दिन रहा मैं। उनके बेटे बेटी मेरी ही उम्र के लगभग थे। पता नहीं क्यों आसपास के लोग हमेशा ही उनके और उनके परिवार के बारे में उल्टा सीधा बोलते रहते। खासकर लड़की राम्या को लेकर। चटखारे लेकर उसके चरित्र पर कीचड़ उछाला जाता। इतने दिन काफी होते हैं किसी को जानने के लिए, राम्या शरीफ सुशील लड़की थी, फिर भी लोग ना जाने क्या सुख पाते उसके बारे में बात कर। रामा और उनके लड़के करुण से कहा भी मैंने कि आप लोग कुछ करते कहते क्यों नहीं। जवाब मिला क्या करें, कितनों पर केस करें, दो बार पुलिस कंप्लेन कर चुके हैं, छोड़ो यार, बोलने दो, क्या फर्क पड़ता है।
अपनी व्यवस्था हो जाने पर उनका मकान छोड़ दिया पर मित्रता बनी रही। राम्या और उसके परिवार के बारे में उल्टा सीधा सुनकर अब गुस्सा नहीं आता था मुझे। जब उन्हें ही कोई खास फर्क नहीं पड़ता तो, मैं कौन तू खामखाँ।
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कुछ दिनों बाद सुना कि करुण और उसके कुछ दोस्तों ने राम्या की 'बातें' करते कुछ छोकरों को अच्छे से पीट दिया। कुछ दिन हल्ला हुआ, पर उन घटिया गपशप में आश्चर्यजनक घटोत्तरी महसूस हुई।
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हिंसा जायज नहीं, उसकी निंदा करो पर तभी जब पहले उन छोकरों की निंदा कर चुके हो। नहीं तो चुप ही रहो, और समझो कि सहनशक्ति कभी ना कभी तो जवाब देगी ही।
हालिया घटनाओं से इस पोस्ट का संबंध महज इत्तफाक 'नहीं' है।
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अजीत
31 जनवरी 17
31 जनवरी 17
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