Wednesday, 22 February 2017

मैं और तू, हम


शिवराज बाबू ने जब से ये खबर सुनी है, उनके कंधे झुक से गए हैं। शाम की ठंड बढ़ चली है पर उन्हें आग में सागौन के सूखे पत्ते डालने का होश नहीं। बुझ चुकी राख में उन्हें अपने बचपन से लेकर जवानी तक की यादें एक के बाद दिख रही हैं। ना जाने किस उम्र में उनकी दोस्ती मियांपट्टी के कमालू से हो गई थी। अली बे ते सीखते समय, उस्ताद जी की मार खाते समय, पटिया के लिए खड़िया घोलते समय पता नहीं कब कमालू उन का साथी बन गया। शोख शरारतें, भोर में खरहा पकड़ने की दौड़, तीतर का शिकार, गंगा में की गई अठखेलियां, तालाब से मछली मारना, बड़े हुए तो पहलवानी का अखाड़ा, ऐसी कोई जगह नहीं थी जहां कमालू साथ ना हो। एक जैसी पगड़ी और लुंगी, कई बार तो घर वाले ही पीछे से पहचान नहीं पाते कि शिवा है कि कमालू।

घड़रोज नीलगाय का शिकार हो या चँदवा गांव की लड़ाई, दोनों की बंदूकें और लाठियां एक साथ उठती थी। और आज उसी कमालू के नवासे ने चंदन का माथा फोड़ दिया। बेटा बहू तो गंगा मैया की भेंट चढ़ गए, बस एक चंदन ही तो बचा रह गया है उनके पास। कमालू की बेवा बेटी जिस बरस अपने दुधमुँहे जमाल को लेकर गांव आई थी हमेशा हमेशा के लिए, उसी बरस चंदन हुआ था। कमालू अपना दुख भूल कितना खुश हुआ था कि ऊपर वाले ने दो दो बच्चे बख्शे उसे।

इन दोनों बच्चों में दोनों बूढों ने अपना बचपन देखना चाहा था, पर ना जाने क्या बात थी कि चंदन और जमाल कभी दोस्त नहीं बन पाए। सीधे साधे खेल में भी पता नहीं कैसे झगड़ा खोज ही लेते दोनों।

जब कमालू बिस्तर पर जा पड़ा तो शिवा कई कई घण्टे उसका हाथ थामें पैताने बैठे रहते। अपना अंतिम बखत जानकर उसने कहा था कि यार मैं तो चला, मेरे जमाल का ध्यान रखना। मिट्टी डालते समय शिवा का अपना ही एक हिस्सा जैसे मर गया था।

और आज, आज वॉलीबॉल के छोटे से झगड़े में लड़ पड़े दोनों, गबरू जवान हो गए हैं पर बचपना गया नहीं अब तक, या बचपन की ही अनजानी तकरार आज जवानी के बल पर फूट पड़ना चाहती थी। बताते हैं कि खेत से लौट रहे रमेसरा का फरुसा छीन कर चला दिया था उसने, वो तो बाकियों के दखल से निशाना गलत बैठ गया नहीं तो भगवान जाने क्या हुआ होता। ऊपरी चोट है, ठीक हो जायेगी। सब कह रहे थे कि केस कर दो, पर कमालू के नवासे को शिवा खुद ही जेल भिजवाए, राम राम।
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शिवराज बाबू खाना पीना निपटा कर सोने की तैयारी कर रहे हैं कि उन्हें सामने अंधेरे में कोई साया सा नजर आता है। कड़क कर उसका परिचय पूछते हैं तो बाबा पालगी की आवाज सुनाई देती है और वो साया आगे बढ़कर उनके पैरों में गिर जाता है। अरे ये तो जमाल है, 12 दिन से गायब था और आज अचानक ऐसे?
"बाबा, गलती हो गई बाबा, तुम तो जानते हो कि गुस्सा संभाल नहीं पाता, मेरा उसे सच में ही मारने का इरादा नहीं था, वो तो बस, अब क्या कहूँ, चैन से नहीं रहा हूँ इतने दिन, बस तुम माफ़ कर दो बाबा, मैं कल ही जेल चला जाऊंगा। नानू की लाल आंखें दिखती हैं आँख बंद करते ही, तुम माफ़ कर दोगे तो मेरा नाना भी मुझे माफ़ कर देगा।"
शिवराज बाबू की उँगलियाँ उसके बालों में फिर रही हैं, उन उँगलियों को महसूस कर वो रोये जा रहा है। माफ़ कर दिया, मियांपट्टी तक छोड़ आए उसे। वापसी में सोचते हुए चले आ रहे हैं कि काश चंदन भी ये सब भूल जाए।
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महीनों हो गए इस बात को, जिंदगी वैसी ही चल रही है, बस अब चंदन उधर नहीं जाता, जमाल इधर नहीं आता। शिवा बाबा कंबल ओढ़ कर बैठे हैं और चंदन घर में ही छोटी सी जगह पर छोटे छोटे पौधे लगा रहा है। बाबा उसे कुछ ना कुछ हिदायत दिए जा रहे हैं। ये बुजुर्ग लोग भी ना, अरे बैठे रहो ना चुपचाप, हुक्का पियो, धुँआ निकालो, शांति से करने दो काम।

अचानक गांव में शोर सा सुनाई देता है। रमेसरा ने आकर बताया कि चँदवा गांव में मैच के दौरान झड़प हो गई, जमाल बुरी तरह जख्मी है। शिवराज बाबा धम्म से खटिया पर गिर गए, आँखों के आगे अँधेरा छा रहा है। काश कि वो जवान होते तो इन चँदवा वालों को दिखा देते। तभी सामने से चंदन जाते हुए दिखता है, हाथ में तेल पिलाई हुई लाठी है, और उसने गांव को ललकार कर नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया है।

बाबा की आँखें चमक गई हैं।
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अजीत
23 फरवरी 17

Thursday, 16 February 2017

काला


सच कहूं तो मुझे घर अच्छा नहीं लगता, मतलब घर में रहना अच्छा नहीं लगता। शायद बीस बाइस की उम्र ही ऐसी होती है। बाकी दिन तो कॉलेज में कट जाते हैं, पर रविवार और छुट्टियां नहीं कटती, इसलिए आ जाता हूँ परेश के घर। परेश बिहारी है, बाप अमीर, भभुआ जिले के पुराने रईस। बेटे को बनारस पढ़ने भेजा तो लगे हाथ दो बिस्सा जमीन लेकर चार कमरे भी खड़े कर दिए। मकान बने साल होने को आया है और परेश बाबू यहां शिफ्ट कर गए हैं। तीन चेले भी साथ में रहते हैं इनके, बनारस वैसे तो सस्ता है पर फ्री में रहने को मिले तो क्या बुरा है।

मेरे घर से आठ दस किलोमीटर ही है तो पैदल भी आ जाता हूँ। उन दिनों जाड़ों में गुनगुनी धूप निकला करती थी, छत पर कुर्सियां डाले बैठ जाते थे हम। अपने अपने 'नशे' हाथ में पकड़े। मेरे हाथ में गिलास भर चाय और उपन्यास, उसके हाथ में कभी चुनौटी तो कभी चिलम। गांजे के शौकीन हैं बिहारी बाबू। खैर, उनके छत पर आने का असल मकसद पड़ोस की बिंदिया से आँख लड़ाना है। बिंदिया शैलजा मास्टरनी की हाइस्कूल-गामिनी बिटिया है। अल्हड़ यौवना, कुछ पाने को कुछ जानने को कुछ निछावर करने को पूरी तरह से उद्धिग्न। परेश बाबू की लॉटरी लगी हुई है। गाहे-बगाहे थोड़ा बहुत लेनदेन भी चलता रहता है।

शैलजा मास्टरनी भी नाजाने कैसी मास्टरनी हैं। प्राइमरी की टीचर हैं पर हमेशा अपने घर के अगले कमरे में, जिसे दूकान का रूप दे दिया है, बैठी हुई सौदा सुफल करते हुए दिखती हैं। इस दुकान में प्रत्यक्ष रूप से सुर्ती पान बीड़ी सिगरेट नमकीन बिस्कुट, और अप्रत्यक्ष रूप से गांजा भांग और अंग्रेजी बिकती है, दाम थोड़े महंगे हैं पर सर्विस टंच है। परेश बाबू को गांजे की आपूर्ति यहीं से हो जाती है।

अंग्रेजी उपलब्ध होने के बावजूद बेचू को देशी पसन्द हैं, पहड़िया से अकथा चौराहे के बीच कहीं भी और कभी भी दिख जाते हैं दीन-दुनिया से बेखबर, अधिकतर सोते हुए। सबको एक आँख से देखने वाला मुहावरा इन्हीं को देखकर बना है शायद, मतलब सोने के लिए कोई विशेष सुविधा की अभिलाषा नहीं हैं इनमें। किसी के भी घर दूकान का चबूतरा और बजबजाती नालियां सब बराबर। काम भगवान जाने क्या करते हैं। बेचू शैलजा मास्टरनी के पति लगते हैं।

नवाब अक्सर दिख जाता है शैलजा की दुकान पर। बाहर स्टूल पर बैठा रहता है और कभी बीड़ी का धुँआ तो कभी पान की पीक उगलता रहता है। इस गंदे मरघिल्ले से आदमी में पता नहीं क्या देखा इस मोटी शैलजा ने, हरदम बैठाए रखती है इसे। बेटी छत पर होंठों को दांत से चुभलाती रहती है और ये नवाब के सामने जब न तब अपना पल्ला ही संभालती दिखती है।

कल सामने वाले अधेड़ गुप्ता ने पत्थर में लपेट कर एक कागज फेंका था, बिंदिया ने अपनी माँ के लिए आया समझ झट से उठा कर पढ़ भी लिया। उर्दू-इंग्लिश की भरमार थी जो उसके पल्ले नहीं पड़ी तो कागज अपने बांके बिहारी को दे आई। ये महाशय भी कुछ खास समझ नहीं पाए तो मुझे थमा दिया। बकवास भरा हुआ था पत्र में पर ये तय था कि सारी शायरियां बिंदिया को समर्पित थी। बिहारी बाबू एक तो वैसे ही गर्म खोपड़ी, ऊपर से गांजा, आग में केरोसिन। शाम को गुप्ता जी के दो दांत शहीद।

थोड़ा आगे सिंह साहब भी हैं। 'कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना' की तर्ज पर ये बिजली विभाग में क्लर्क होने के बावजूद सट्टा लगाते हैं, नौकरानी में बड़ा रस लेते हैं, और अपने मकान के पिछले कमरे में जुए की फड़ चलाते हैं। उनसे सटा मकान बुधराम जी का है, पिछले साल इनकी बहु छत पर कपड़ा डालते वक्त 'दुर्घटनावश' पंद्रह फिट ऊपर से गुजरने वाली हाईटेंशन तारों की जद में आ गई थी, अब पुलिस रिपोर्ट तो यहीं कहती है। खैर...
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कुर्सी पर अधलेटा, रेलिंग पर पैर टिकाए बैठा हुआ हूँ। बिंदिया वापस जाते हुए और परेश बाबू अपने होंठ पोछते हुए आते हुए दिख रहे हैं। चार-पांच घर आगे शोर सुनाई दिया, मालुम चला कि बुधराम जी के यहां चोर घुस आया था। 10-12 लोगों की भीड़ चोर को मारते हुए सामने ही रुक गई है। परेश बाबू भी जल्दी जल्दी सुर्ती फांक कर नीचे पहुंच गए और जमा दी एक लात चोर को। शैलजा उसके लंबे बालों को पकड़ कर पूरी ताकत से हिला रही है। गुप्ता ने उसके जर्जर टीशर्ट को फाड़ दिया और नवाब ने उसकी पीठ पर पान की पीक छोड़ दी। बेचू उस चोर की मां बहन से आंतरिक सम्बंध जोड़ रहा है। बिंदिया ने बालकनी से थूक कर ही चोर के प्रति अपनी घृणा दिखा दी है। सिंह साहब पीछे से आकर उसका मुँह काला कर देते हैं। हुजूम आगे बढ़ जाता है।

चोर बारह तेरह साल का मरियल सा लड़का था, पता चला कि बुधराम के घर से कुल 300 रूपये सफलतापूर्वक चुरा लिए थे, वो तो जब भगौने से ही दूध पीने लगा और बर्तन खड़क गये तब पकड़ा गया।
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अब उस मोहल्ले में नहीं जाता, मुझे वहां के हर आदमी के मुँह पर कालिख दिखती है। कुछ छींटें अपने चेहरे पर भी महसूस करता हूँ।
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पुरानी डायरी का एक पन्ना
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अजीत
17 फरवरी 17

Friday, 3 February 2017

अजब-गजब


दो दिन पहले अपने अतुल शुक्ला भाई की पिछले साल की लिखी एक पोस्ट दिखी जिसमें आवारा कुत्तों के हमलों से मार डाले गए एक पिल्ले की लाश की रक्षा कुछ बन्दर कर रहे थे। हम इंसान, इंसानों की भावना पूरी तरह से समझ नहीं पाते, फिर इन्हें क्या समझेंगे।
चौथी क्लास में थे जब स्कूल से घर आते वक्त एक जगह मेरा छोटा भाई थमक कर खड़ा हो गया। मुझे सुबह की बासी रोटियां घर की तरफ खींच रही थी तो हम आगे बढ़ लिए। घर पहुंच कर रोटी में नून-तेल लगा कर 'ब्रंच' कर रहे थे कि भाई अपनी हथेली पर कुछ लाता हुआ दिखा। हथेली पर एक नन्हा सा सिकुड़ा हुआ गिलहरी का बच्चा। कितना सुन्दर। भाई ने बताया कि कौवे इसके भाई को मार चुके थे और इसे भी मार देते।
आपको 'गिल्लू' याद आ रहा होगा पर ये भी एक गिल्लू ही था, बस यहां 'वर्मा जी' की जगह पर चार छोटे भाई थे। ड्रॉपर से कोशिश की, बात नहीं बनी तो रुई भिगो कर दूध पिलाया। सहमा बच्चा 2 दिन बाद थोड़ा सही दिखने लगा था। हम चार भाई चार दिशाओं में खड़े हो जाते, ये देखने कि किसकी तरफ आता है ये। हर बार, पोजिशन चेंज करने पर भी वो बच्चा ना जाने क्यों मेरी तरफ ही आता। एक दुर्घटना में अपनी मृत्यु के दिन तक उसका यही व्यवहार रहा, जबकि बाकी तीन भी उतना ही प्यार. उतनी ही देखभाल करते थे।
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मंदिरों में रहने वाले बंदरों के सभ्य व्यवहार तो बहुतों ने देखे होंगे। बनारस के संकटमोचन मंदिर के शांत बन्दरों को देखा होगा, हालाँकि मेरा ख्याल है कि उनकी सुस्ती का कारण उनके भोजन में सिर्फ प्रसाद की मिठाइयां और उससे होने वाला डाइबिटीज है।
8-10 साल पहले शुरू में ताज्जुब, फिर आम सी घटना होती थी बनारस के सारनाथ से पहड़िया के बीच। एक लंगूर सारनाथ में किसी भी समय किसी की भी साइकिल के पीछे बैठ जाता और पहड़िया उतर जाता, फिर किसी और की साइकिल पर वहां से वापस सारनाथ। बनारसी वैसे भी मस्त मलंग होते हैं, धार्मिक प्रभाव भी रहता है, कितने ही लोग, जिनमें एक बार मैं भी था, अपनी साइकिल लिए इंतजार करते, पर लंगूर महाशय किसी अ-लालायित शख्स की साइकिल सवारी करते।
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"रांड़, सांड़, सीढ़ी संन्यासी। इनसे बचै तो सेवे काशी।।"
इसी काशी के सिगरा पर एक छोटा सा मंदिर है। एक साँड़ महाशय रोज सुबह करीब आधा घण्टा उस मंदिर में, बाहर नहीं, मंदिर में बैठते थे। फिर थोड़ी दूर स्थित एक दुकान पर पहुंच दूकानदार द्वारा दिए नाश्ते को हजम कर अपनी दिनचर्या शुरू करते। सालों से हो रहा था ऐसा। मंदिर और उस दुकान के बीच अन्य दुकानें भी हैं, पर एक ही दुकान, और उस दुकान के मालिक पिता-पुत्र के हाथ से ही खाते थे जनाब।
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मेरी एक फोटो याद होगी आप लोगों को, जिसमें मैं कुर्सी पर और एक बन्दर फर्श पर पसरे हुए हैं। ये बन्दर महाशय आस-पास की 5 इमारतों पर अलग-अलग पर निश्चित दिन पाए जाते थे। जैसे मेरी बिल्डिंग पर हर मंगलवार। बाकी 2 दिन कहां रहते, पता नहीं। मुझे दिन दिनांक देखने के लिए मोबाइल देखना पड़ता है, पर एक अल्पबुद्धि जानवर कैसे इतना हिसाब रखता होगा?
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अब जो बात बताने जा रहा हूँ उस पर शायद ही कोई यकीन करें। गांव में रहने या रह चुके मित्र शायद सहमत हों। आपने अपने आस-पास शाम या रात को सियारों की हुआँ-हुआँ सुनी होगी। क्या आप इसे बंद कर सकते हैं? उपाय बताऊँ?
बिलकुल ही अवैज्ञानिक बात है, पर कर के देखिएगा, सैकड़ों बार आजमाया तरीका है ये। जब भी हुआँ-हुआँ का शोर सुनाई दे, तीन मुट्ठियां बन्द कीजिये और फिर सुनिए, शोर बन्द हो गया होगा। तीन मुट्ठी मतलब दो आपकी और एक किसी दूसरे की।
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आप लोगों के पास भी कुछ किस्से होंगे, है ना, बताइएगा..
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अजीत
4 फरवरी 17

Thursday, 2 February 2017

अपने



पुत्र-कामना सर्वाधिक वांछित कामनाओं में से एक होती है, ना जाने क्यों। ये जो पुत्र-कामना है न, इसी ने सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया हुआ है, महिला-पुरुष विभेद का सबसे बड़ा कारण, और महान आश्चर्य ये कि अधिकतर महिलाएं ही मनौती मांगती रहती है पुत्र की।

मीना जायसवाल की गिनती शहर के टॉप अमीरों में होती थी। पिता की एकमात्र सन्तान, थोड़ी गर्विष्ठ, दबंग हो ही जाती है, ये भी थी। पिता अपने समय में ही कहने को 'कन्यादान' कर चुके थे, वास्तव में जमाई खरीद लाये थे। समय के साथ मीना जी का परिवार पुष्पित पल्लवित होता गया, बेला गुलाब जूही जैसी तीन सुन्दर कन्याओं की माता बन गई। पर एक पुत्र ना हुआ, कोशिशें पुत्र पाने के लिए होती, ना होने पर 'गिरा' दी जाती, अब तीन तो पहले से थी न, और क्या चाहिए थी।

अंतिम कोशिश के परिणाम की असफलता को 'मिटाने' के चक्कर में कुछ गड़बड़ हो गई थी शायद, जिससे अन्य कोशिशें करनी मुमकिन ना रही।

इंसान का स्वभाव बड़ा अजीब सा होता है, अप्राप्य के लिए जिद बैठ जाती है, येन केन जो चाहिए वो चाहिए, मीना उन्हीं व्यक्तियों में से थी। खुद का पुत्र नहीं हुआ तो पुत्र गोद भी तो लिया जा सकता है। बड़ी खोजबीन के बाद अपनी ही बिरादरी से एक दरिद्र के नवजात लड़के को विधिवत कानूनी रूप से गोद ले लिया।

मीना की सारी कठोरता इस बच्चे ने हर ली, अपने मुलाजिमों, बेटियों और पति पर भी सख्त रुख रखने वाली मीना इस बच्चे शशिकांत के सामने पानी हो जाती। शशि सुन्दर तो था ही, जैसे-जैसे बड़ा होता गया उसके सद्‍गुण भी दिखने लगे। नौकरों से भी अदब से बात करने वाले, पढ़ाई में अपने गुरुओं के भी कान काटने वाले बालक शशि ने बालिग होते ही कारोबार में माँ का हाथ थाम लिया। जैसे विश्वकर्मा का आशीर्वाद मिला हो, शशि के सानिध्य में कारोबार खूब चमका।

अपनी बड़ी बहनों की शादी भी एकतरह से शशि ने ही कराई। माँ की इच्छानुसार ऐसे सुन्दर, गुणी, कारोबार में दक्ष लड़के चुने जो जरूरत होने पर घर-जमाई बनने में संकोच ना करें।
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काल से कौन बचा है, मीना जी को गुजरे आज महीना हो चला है। शशि ने ये दिन आँखों में बिता दिए। सारे काम निपट चुके हैं और आज वकील साहब वसीयत पढ़ने वाले हैं। बेटियां और दामाद निराश हैं कि सबकुछ शशि को ना दे गई हो माँ, शशि सोच रहा है कि कुछ भी हो वो अपनी बहनों और उनके परिवार को अपने से दूर नहीं करेगा। "वसीयत के चंद लफ्ज तेरे शशि से उसकी बहनों को दूर तो नहीं कर सकते ना माँ?"

वसीयत पढ़ी जा रही है, सब प्रसन्न दिख रहे हैं, माँ किसी को भूली नहीं है, सबको कुछ ना कुछ दिया ही है।

वसीयत पढ़ी जा चुकी है, बहनें बहुत खुश हैं, बहुत कुछ उन्हें दे दिया गया है। शायद माँ शशि को भूल गई है...
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अजीत
3 फरवरी 17

सहिष्णु


रामा दिलचस्प आदमी थे। इनसे मुलाकात भी घनी दिलचस्पी की बात थी। नौकरी की तलाश में जब पुणे पहुंचा तो एक पूर्व बैचमेट के यहां ठहरा, मित्र ने धोखा जो दे दिया था। दो दिन बाद इशारों में ही अतिथि-मर्यादा समझा दी गई। अनजाना शहर, दगाबाज मित्र, कहाँ जाऊं क्या करूँ, यही सब सोचते हुए बिल्डिंग के बाहर पान की टपरी से एक के बाद एक धूम्रदण्डिका सुलगाये जा रहा था। शायद मेरा चेहरा भावों को छुपा नहीं पाता, मुझे ऐसे परेशान बदहवास देख बिल्डिंग के निचले तल पर सीडी लाइब्रेरी चलाने वाला पंकज पास आया, मराठी में बोला, "काय त्रास?"। जैसे तैसे अपनी व्यथा बताई तो बोला का मरदे, एतने में परेशान हो गइला, चला पहिले मूड सुधार किया जाए। जमनिया का निकला भाई।
मैं कुछ बोलता उसके पहले ही अपनी बाइक स्टार्ट की और मुझे लिए पहुंच गया एक ठीक ठाक बार में। पुणे में ये बड़ी अच्छी चीज है, कदम-कदम पर बार, और बादाखोरी हमारे पूरब की तरह इतनी नाजायज भी नहीं मानी जाती। ये भी अजीब बात है, लोग पता नहीं कैसे मुझे देखते ही मान लेते हैं कि "पीता" तो होगा ही। हद्द है, खैर साथ देने के लिए ठंडा मंगा लिया। बगल वाली टेबल पर एक साँवले से सज्जन बैठे हुए थे, गिलास पर गिलास यूँ चढ़ाए जा रहे थे जैसे अगले दिन कयामत आने वाली हो। मेरी नजर खुद पर गड़ी देख उठकर मेरे पास आ गए और प्यार से बोले, क्यों भैय्ये, काये को घूरता।
पंकज ने परिचय कराया, कुछ लम्बा सा नाम था, बोले, तुम रामा बोलो अपन को। तमिल थे। मयखाने में ही कुछ नशा होता है, ना जाने कैसे अपना रोना रो गया मैं। सुनकर बोले, तुम मेरे यहां ठहर सकता एकाध महीना।
बहुत बड़ी हेल्प थी ये, कमाल देखिये कि जिनके साथ तीन साल पढ़ाई की थी, जो मेरे अपने शहर के थे उन्होंने नहीं, बल्कि पंकज और रामा जैसे अनजाने लोगों ने मदद की।
रामा के साथ करीब 20-22 दिन रहा मैं। उनके बेटे बेटी मेरी ही उम्र के लगभग थे। पता नहीं क्यों आसपास के लोग हमेशा ही उनके और उनके परिवार के बारे में उल्टा सीधा बोलते रहते। खासकर लड़की राम्या को लेकर। चटखारे लेकर उसके चरित्र पर कीचड़ उछाला जाता। इतने दिन काफी होते हैं किसी को जानने के लिए, राम्या शरीफ सुशील लड़की थी, फिर भी लोग ना जाने क्या सुख पाते उसके बारे में बात कर। रामा और उनके लड़के करुण से कहा भी मैंने कि आप लोग कुछ करते कहते क्यों नहीं। जवाब मिला क्या करें, कितनों पर केस करें, दो बार पुलिस कंप्लेन कर चुके हैं, छोड़ो यार, बोलने दो, क्या फर्क पड़ता है।
अपनी व्यवस्था हो जाने पर उनका मकान छोड़ दिया पर मित्रता बनी रही। राम्या और उसके परिवार के बारे में उल्टा सीधा सुनकर अब गुस्सा नहीं आता था मुझे। जब उन्हें ही कोई खास फर्क नहीं पड़ता तो, मैं कौन तू खामखाँ।
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कुछ दिनों बाद सुना कि करुण और उसके कुछ दोस्तों ने राम्या की 'बातें' करते कुछ छोकरों को अच्छे से पीट दिया। कुछ दिन हल्ला हुआ, पर उन घटिया गपशप में आश्चर्यजनक घटोत्तरी महसूस हुई।
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हिंसा जायज नहीं, उसकी निंदा करो पर तभी जब पहले उन छोकरों की निंदा कर चुके हो। नहीं तो चुप ही रहो, और समझो कि सहनशक्ति कभी ना कभी तो जवाब देगी ही।
हालिया घटनाओं से इस पोस्ट का संबंध महज इत्तफाक 'नहीं' है।
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अजीत
31 जनवरी 17