मैं खुद को लेखक नहीं मानता, फेसबुक पर लिखने वाला अगर लेखक है तो मुझ जैसे सैकड़ों हैं यहां। एकांतप्रिय और शायद अंतर्मुखी स्वभाव की वजह से मुझे बोलना नहीं पसंद, इसलिए जो भी अगड़म बगड़म दिमाग में आता है, लिख जाता हूँ।
जब फेसबुक पर लिखना शुरू किया था तो ये निश्चित किया था कि कभी भी धर्म और राजनीति पर नहीं लिखुंगा। पर अपने इस निश्चय में असफल पाता हूं खुद को। अब कोई निष्प्राण पत्थर तो हूँ नहीं कि जहां पड़ गया, बस पड़ गया।
मैं कभी नास्तिक हुआ करता था, आज खुद को धार्मिक पाता हूँ। मुझमें ये बदलाव कैसे आया ये फिर कभी। मैं इसलिए हिन्दू नहीं हूँ कि घर में सभी हिन्दू मतावलम्बी थे, हिन्दू होना मेरी चॉइस है, मैंने अपने अंदर हिंदुत्व महसूस किया है।
मैं भारत के और भारत मेरे अंदर बसता है, मुझे गौ और गंगा में अपनी माता दिखती हैं, देव मूर्तियां मेरे लिए सिर्फ बुत नहीं सशरीर भगवान हैं। तुलसी, पीपल सिर्फ पेड़ नहीं, गौमूत्र-गोबर किसी जानवर का मल-मूत्र नहीं। आज भी याद है अपना गांव, जहाँ गोबर से लिपाई होती थी घरों के फर्श और दरवाजों पर। किसी फिनायल, हिट, लक्ष्मण रेखा, पेस्ट कंट्रोल की जरूरत नहीं होती थी वहां।
बुराइयां किसमें नहीं होती, हममें भी थी/हैं, पर हम जड़ नहीं, सतत सुधार करना हमारी प्रकृति है। हम अपने तौरतरीकों में, अपनी परम्पराओं में समयानुकूल परिवर्तन करने में सक्षम हैं, और यही हमारी आत्मा है।
हमारे यहां हजारों मत और मतावलंबी हैं, एक ही घर में आपको कई मत मानने वाले मिल जाएंगे, मैं शैव हूँ, मेरे पिता निर्गुण उपासक थे, बाबा सूर्यपूजक। सहअस्तित्व बनाये रखना हमारी कमजोरी नहीं, हमारी ताकत है।
पर दिक्कत यही है कि आप इसे हमारी कमजोरी मान लेते हैं। आप लेखक लोग ना जाने वही क्यों लिखते हैं जिससे हमारी श्रद्धा को चोट लगे। इतना कुछ है लिखने को पर आपका विषय ब्रह्मा-सरस्वती, यम-यमी, राम-शम्बूक ही क्यों होता है। आप महान चित्रकार हो सकते हैं, लाखों दृश्य और अरबों मनुष्य हैं इस धरा पर, लेकिन आप पेंटिंग बनाएंगे तो उन्हीं की बनाएंगे जिन्हें हिन्दू पूजता है। आप छद्म सेकुलर, महिलाओं के सम्मान की बात करते हैं, पर लाखों करोड़ों के आराध्य काली, सरस्वती को एक महिला जितना भी सम्मान नहीं देते।
बकरा भेड़ गधा खच्चर ऊंट सूवर, कितने तो जानवर हैं पर सस्ता प्रोटीन और स्वाद आपको गाय में ही मिलता है। कुतर्क करने वाले कहते हैं कि गाय माता है तो सड़क पर क्यों छोड़ते हो, हम तो स्वाद के शौक़ीन है, हम तो खाएंगे। मेरे शब्दों के लिए मुझे क्षमा कीजियेगा, कोई फिर आपसे कहे कि घर की औरतों को बाहर मत जाने दीजिए क्योंकि हमें तो यौनसुख बहुत पसंद है।
आप लगातार अकारण ही चोट किये जा रहे हैं। आप मान कर बैठे हैं कि ये हिन्दू कमजोर है, रीढ़विहीन। जरा सा प्रतिकार कर देता है तो आप झुण्ड बना कर आ जाते हैं असहिष्णु इंटोलरेन्ट चिल्लाते हुए। और हिन्दू अपनी वैदिक विरासत, सहनशीलता, सहअस्तित्व, सहिष्णुता को ध्यान कर चुप हो जाता है। हिन्दू अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाता आया है, निभा रहा है, पर कब तक?
हे लेखकों, इतिहासकारों, चित्रकारों, अन्वेषण करो, सृजन करो, पर तुम इसकी ओट में विध्वंस लिख रहे हो। मान जाओ, नहीं तो इतिहास तुम्हें माफ़ नहीं करेगा।
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अजीत
27 दिसम्बर 16