Tuesday, 27 December 2016

ठहर जाओ


मैं खुद को लेखक नहीं मानता, फेसबुक पर लिखने वाला अगर लेखक है तो मुझ जैसे सैकड़ों हैं यहां। एकांतप्रिय और शायद अंतर्मुखी स्वभाव की वजह से मुझे बोलना नहीं पसंद, इसलिए जो भी अगड़म बगड़म दिमाग में आता है, लिख जाता हूँ।

जब फेसबुक पर लिखना शुरू किया था तो ये निश्चित किया था कि कभी भी धर्म और राजनीति पर नहीं लिखुंगा। पर अपने इस निश्चय में असफल पाता हूं खुद को। अब कोई निष्प्राण पत्थर तो हूँ नहीं कि जहां पड़ गया, बस पड़ गया।

मैं कभी नास्तिक हुआ करता था, आज खुद को धार्मिक पाता हूँ। मुझमें ये बदलाव कैसे आया ये फिर कभी। मैं इसलिए हिन्दू नहीं हूँ कि घर में सभी हिन्दू मतावलम्बी थे, हिन्दू होना मेरी चॉइस है, मैंने अपने अंदर हिंदुत्व महसूस किया है।

मैं भारत के और भारत मेरे अंदर बसता है, मुझे गौ और गंगा में अपनी माता दिखती हैं, देव मूर्तियां मेरे लिए सिर्फ बुत नहीं सशरीर भगवान हैं। तुलसी, पीपल सिर्फ पेड़ नहीं, गौमूत्र-गोबर किसी जानवर का मल-मूत्र नहीं। आज भी याद है अपना गांव, जहाँ गोबर से लिपाई होती थी घरों के फर्श और दरवाजों पर। किसी फिनायल, हिट, लक्ष्मण रेखा, पेस्ट कंट्रोल की जरूरत नहीं होती थी वहां।

बुराइयां किसमें नहीं होती, हममें भी थी/हैं, पर हम जड़ नहीं, सतत सुधार करना हमारी प्रकृति है। हम अपने तौरतरीकों में, अपनी परम्पराओं में समयानुकूल परिवर्तन करने में सक्षम हैं, और यही हमारी आत्मा है।

हमारे यहां हजारों मत और मतावलंबी हैं, एक ही घर में आपको कई मत मानने वाले मिल जाएंगे, मैं शैव हूँ, मेरे पिता निर्गुण उपासक थे, बाबा सूर्यपूजक। सहअस्तित्व बनाये रखना हमारी कमजोरी नहीं, हमारी ताकत है।

पर दिक्कत यही है कि आप इसे हमारी कमजोरी मान लेते हैं। आप लेखक लोग ना जाने वही क्यों लिखते हैं जिससे हमारी श्रद्धा को चोट लगे। इतना कुछ है लिखने को पर आपका विषय ब्रह्मा-सरस्वती, यम-यमी, राम-शम्बूक ही क्यों होता है। आप महान चित्रकार हो सकते हैं, लाखों दृश्य और अरबों मनुष्य हैं इस धरा पर, लेकिन आप पेंटिंग बनाएंगे तो उन्हीं की बनाएंगे जिन्हें हिन्दू पूजता है। आप छद्म सेकुलर, महिलाओं के सम्मान की बात करते हैं, पर लाखों करोड़ों के आराध्य काली, सरस्वती को एक महिला जितना भी सम्मान नहीं देते।

बकरा भेड़ गधा खच्चर ऊंट सूवर, कितने तो जानवर हैं पर सस्ता प्रोटीन और स्वाद आपको गाय में ही मिलता है। कुतर्क करने वाले कहते हैं कि गाय माता है तो सड़क पर क्यों छोड़ते हो, हम तो स्वाद के शौक़ीन है, हम तो खाएंगे। मेरे शब्दों के लिए मुझे क्षमा कीजियेगा, कोई फिर आपसे कहे कि घर की औरतों को बाहर मत जाने दीजिए क्योंकि हमें तो यौनसुख बहुत पसंद है।

आप लगातार अकारण ही चोट किये जा रहे हैं। आप मान कर बैठे हैं कि ये हिन्दू कमजोर है, रीढ़विहीन। जरा सा प्रतिकार कर देता है तो आप झुण्ड बना कर आ जाते हैं असहिष्णु इंटोलरेन्ट चिल्लाते हुए। और हिन्दू अपनी वैदिक विरासत, सहनशीलता, सहअस्तित्व, सहिष्णुता को ध्यान कर चुप हो जाता है। हिन्दू अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाता आया है, निभा रहा है, पर कब तक?

हे लेखकों, इतिहासकारों, चित्रकारों, अन्वेषण करो, सृजन करो, पर तुम इसकी ओट में विध्वंस लिख रहे हो। मान जाओ, नहीं तो इतिहास तुम्हें माफ़ नहीं करेगा।

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अजीत

27 दिसम्बर 16

Saturday, 24 December 2016

नया दौर...


आज सुपवा बड़ा खुश दिख रहा है। नाम छोड़िये, दोस्तन में ऐसे ही नाम चलते हैं, कान बड़े तो सुपवा, आँखें भूरी तो भुरिया, रंग गोरा तो दहीबड़ा। हाँ तो सुपवा बड़ा खुश, मने शाम को पार्टी पक्की। दोस्ती का कायदा, कोई भी ख़ुशी, सेलिब्रेट विथ दारू, कोई भी दुःख, गमगलत वाया दारू।


शर्मा - सुपवा संवाद:
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"सुपवा, बड़ा खुश दिख रहे हो बे, का भवा, कउनो गुड न्यूज़?"
"नाही बे, ऐसी कोई बात नहीं"।
"बा बेटा, कउनो बात नहीं तो ई चेहरा कैसे जगमग कर रहा है, बताओ ना बे, काहे भाव खा रहे हो"।
"बोले ना बे तुमसे, कोई बात नहीं है। मगज ना चाटो, जाओ अपनी टेबल पर, काम कर लो थोड़ा"।

शर्मा- भुरिया संवाद:
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"का भुरिया, तुमको का भवा, काहे मुँह लटकाये हो भाई, भउजी ने हाथ सेक दिया का आज तुमपर"।
"देख बे बभना, ढेर होशियार ना बना करो, एक तो वैेसही दिमाग गरम है, और मत तपाओ हमे।"

शर्मा-ठाकुर संवाद:
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"और मिस्टर बद्तमीज, का हाल चाल"।
"बढ़िया, अपनी सुनाओ"।
"अबे ठाकुर, ये बताओ कि कोई स्पेशल बात हुई है का, ई सुपवा बड़ा खुश दिख रहा है, और उ भुरिया इतना उदास काहे बैठा है"।
"तुझे बड़ी रहती है यार, कौन उदास कौन खुश। अच्छा एक बात का सोच के जवाब दे, किसी दोस्त की तरक्की पर दोस्त खुश होता है कि उदास। हैं, उदास ना, तो भुरिया इसीलिए उदास है, और सुपवा तरक्की पाकर खुश"।
"कैसी तरक्की भाई, बुझौनी मत बुझाओ, साफ़ साफ़ फूटो अपनी बात का मतबल"।
"कुछ नहीं बे, सरकार ने सुपवा की बिरादरी को "मण्डल" बिरादरी से प्रमोट कर "भीम" बिरादरी में कर दिया है। अब बुझे, इतने साल के विकास के बाद अगला पिछड़ा से दलित बन गया तो का खुश भी ना हो। रही भुरिया की बात, तो वो ये सोच के परेशान कि यहां तो पहिले से इतने भरे पड़े हैं, सुपवा जैसे कुल 17 और आ गए। साथ में ये भी कि ये तो प्रमोट होकर दलित बन गए, हम तो आज भी वहीं के वहीं।"
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"का हुआ, चुपा काहे गये, अबे तुम्हें का फर्क पड़ा, तुम तो कल भी जो थे, आज भी वही हो, कल भी वही रहोगे, का लेकर आये थे बाकि का लेकर जाओगे। अच्छा जाओ, फिर से पूछ के आओ सुपवा से, पार्टी देगा कि नहीं, नहीं तो तुम्हारा गमगलत हम करवाते हैं आज"।


प्रेम से बोलो जय समाजवाद

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अजीत
24 दिसम्बर 16

Sunday, 18 December 2016

कुछ देकर पाना है....


हर साल NSS के बच्चे आ जाते थे पुराने कपड़े लेने, इस बार पता नहीं क्या हुआ। पुराने कपड़ों का ढेर जमा हो गया है। एक बारगी तो मन हुआ कि रुद्रपुर-बाजार में दे आएं, कुछ छूट मिल जाती है नये कपड़ों पर, लेकिन दिल नहीं माना। कुछ रूपये पाने से अच्छा है कि किसी गरीब को देकर पुण्य कमाए। वैसे सुनते हैं कि पुण्य निःस्वार्थ कर्म पर प्राप्त होता है, तो पुण्य पाने की इच्छा भी तो स्वार्थ ही हुई ना? खैर, जो हो, पुण्य मिले ना मिले, इस भयंकर जाड़े में किसी गरीब को कपड़े तो मिलेंगे।

आज के जमाने में गरीब मिलना भी मुश्किल है। आपके यहां शायद हो, पर यहां कहाँ रखे हैं गरीब? ऊपर से ये डर भी कि अगला पलट कर ये ना कह दे कि भिखारी समझा हैं क्या? गरीबी का कोई पैमाना तो होता नहीं, सापेक्ष होती है। कई लोगों से कह दिया था कि कोई जरूरतमंद मिले तो बताना। पर आप मरे स्वर्ग कहाँ मिलता है?

किस्मत से घर के सामने ही स्कूल में काम लगा हुआ है। ठेकेदार के स्थाई मजदूरों की अस्थाई ईंट सीमेंट वाली झोपड़ी बनी है। शायद दो परिवार हैं, दो मर्द, तीन औरतें और छह कि सात तो बच्चे।

कल धूप खिली थी, काम ना जाने क्यों रुका हुआ था। मेरा मन छत पर कुर्सी डाल 'महासमर' पढ़ने का था पर पत्नी जी की हिदायत कि ये पुराने कपड़े उनमें से किसी को दे ही आऊं। कहीं फटकार ना दिया जाऊं, ये डर लिए कपड़ों की पोटली बांधे उस चौकोर ढांचे के सामने चला गया। एक 10-12 साल की बच्ची अस्थाई हैंडपंप पर कपड़े धोती दिखी, उससे कहा कि किसी बड़े को बुला कर ले आये। थोड़ी देर में पर्दे का दरवाजा हटा कर एक महिला सामने आती है, उससे पूछता हूँ कि बहन आप ये कपड़े लेना चाहेंगी क्या? थोड़े आश्चर्य, थोड़ी ख़ुशी, थोड़ी झिझक सी महसूस हुई उसके चेहरे पर, ले लिया उसने और ना जाने किस भाषा में कुछ कुछ बोले जा रही थी। शायद थैंक्यू या आशीष दे रही हो। अपने मन में दानदाता का भाव लिए वापस आ गया।

सुबह टहलने की आदत है। वो परिवार रोज ही दिखता था, पर आज घर के हर फर्द ने नमस्ते की। लुंगी पहना एक शख्स मुझे चाय पीकर जाने की गुजारिश करता है, पर मैं आगे बढ़ जाता हूँ। पता नहीं, उन्हें तकल्लुफ में नहीं डालना चाहता या मेरा अभिजात्य मन इसमें अपनी हेठी समझता है?

सवितानारायण अपने घर जाने की तैयारी में हैं, मैं भी। घर के बाहर इन मजदूरों का पूरा परिवार कुछ न कुछ कर रहा है। फिर से सब नमस्ते करने लगे। शायद मेरा अहम सन्तुष्ट हो रहा है, थोड़ा और होना चाहता है, बाइक खड़ी कर दी।
"आइये आइये साहब, गरीब की चाय पी कर जाइये।"
सोचता हूँ कि एक कप चाय तो पी ही लूँ, घर के अंदर जाने में मेरी हिचक दिख जाती है उन्हें, अंदर से फोल्डिंग चेयर आ जाती है। मुझे बैठा कर खुद चार ईंटें जोड़ वो भी सामने बैठ जाता है।

इतने नजदीक से किसी टाई बांधे इंसान को शायद नहीं देखा इन्होंने, टकटकी लगाए देखे जा रही हैं तीनों। नाम सीमा रीना रबीना, दिमाग इन नामों में धर्म खोजता है पर असफल। कोई बेटा नहीं हुआ पूछता हूँ, पूछते ही खुद से ही प्रश्न करता हूँ कि इस प्रश्न की क्या आवश्यकता थी, कहीं मैं भी पुरुषवादी तो नहीं, और अगर मन में आने के बाद भी नहीं पूछता तो क्या ये जबरदस्ती का महिलावाद नहीं हो जाएगा। 

"1.5 साल का बेटा था पर पिछले जाड़ों की भेंट चढ़ गया, उसने दिया था, उसी ने वापस ले लिया।"
साला अनपढ़ जाहिल, बेटा ठंड से मर गया और ये ऊपर वाले की महिमा गा रहा है। क्या इसे नहीं पता कि धर्म अफीम होता है। मुझे तो ये भी नहीं पता कि किस अफीम का शौक़ीन है ये। हम दोनों की अफीम एक जैसी हुई तो ठीक, नहीं तो...
सोचता हूँ कि अगर ये अफीम ना होती तो अपनी संतान को यूँही, बेमतलब, बेमकसद मर जाने का गम कैसे सहता ये जाहिल।

उसकी पत्नी चाय ला रही है, अपने लिए स्टील गिलासों में और मेरे लिए एक बदरंग कप में जिसके टॉप और बॉटम दोनों हल्के-हल्के कहीं-कहीं टूटे हुए हैं। 20-22 साल पहले का अपना गांव याद आता है जब काकी घर के 'कमकर' के लिए ऐसी ही कप में चाय लाती हैं, बाकियों के लिए दूसरे कपों में। याद आता है पापा का गुस्सा, उसी समय कपों का नया सेट लाना और ये कहना कि मेरे और घर आने वाले हर आदमी को आज से इन्हीं कपों में चाय दी जायेगी।
यहाँ ये औरत हालांकि मेरी इज्जतअफजाई या खुद की अहसासेकमतरी की वजह से ये भेद बरत रही हो, कहना चाहता हूं कि जाओ और मेरे लिए भी गिलास में ही चाय ले आओ, पर...

वाह, ये तो वही बिना दूध की, हम स्टैंडर्ड लोगों वाली, ब्लैक-टी है। औरत भी अब सामने बैठी है, उसी से पूछता हूँ कि गांव कहा है तुम लोगों का।
"बंगाल"
"बंगाल में कहाँ?"
......
चुप, ख़ामोशी
ओह, तो ये बांग्लादेशी हैं क्या? साले, आ जाते हैं मुँह उठाये मेरे देश में। फिर वोटबैंक के चक्कर में इनके राशन से लेकर मतदाता तक सारे कार्ड बन जाते हैं। इतना बड़ा मुल्क है इनका, उसी में क्यों नहीं घूमते?

आर्य-द्रविड के झगड़े में नहीं पड़ता, पर सुना था कि मेरे पुरखे राजस्थान से आये थे यूपी के गाजीपुर में। पापा वहां से चले तो बनारस, मैं बनारस से यहां, पन्तनगर, उत्तराखंड। जहां खाने पीने रहने का जुगाड़ बैठा, वहीं बस गए। पुणे में देखा था मराठियों का बिहारियों के प्रति आक्रोश, बुरा लगता था। हजारों भारतीय भी निकल जाते हैं हर साल अमेरिका यूरोप। पैसा है जाने वालों के पास, अपनी काबिलियत से अपना मुकाम बना लेते हैं वहां। इन बेचारों के पास पैसा नहीं, पर काबिलियत है, भले ही मजदूरी की, और इन्हें तो पता भी नहीं होगा राष्ट्र 'The State', का मतलब।

चाय खत्म होने से पहले ही औरत झिझकते हुए बोल पड़ती है, "साहब, शाम का खाना हमारे यहां खाएंगे क्या?"
मेरे दिए खुद के लिए बेकार कपड़ों के बदले उसका शुक्रिया अदा करने का ये तरीका दिल छू गया। मुस्कुराते हुए पूछा कि क्या खिलाओगी, उसके बोलने से पहले ही सबसे छोटी रबीना बोल पड़ती है, "अम्मा गोश्त"।

बचपन में हमारे घर भी जब कोई मेहमान आता था तो हम ऐसे ही ललक पड़ते थे, कुछ मजेदार खाने को मिलेगा।

जानता था कि मेरे लिए गोश्त पकाने में उनका बजट गड़बड़ हो जाएगा। फिर भी बच्ची का दिल रखने के लिए हाँ कर दिया, शर्त ये कि मसाले तुम्हारे, गोश्त मैं लाऊंगा।

एक पन्नी में गोश्त पहुंचा दिया है, बहाना भी बना दिया कि यार कहीं शादी में जाना है, आ नहीं पाऊंगा।
दरअसल दिक्कत साथ खाने में नहीं है, मांसाहार में है, सालों पहले छोड़ चुका हूँ।
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कुछ देने गया था, पर ना जाने क्या तो अपने साथ वापस ले आया हूँ। जो मिला है उसे बयां करना संभव नहीं। बड़ा हल्का हल्का सा महसूस हो रहा है।

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**तीन साल पहले लिखी डायरी का एक पन्ना**


अजीत
18 दिसम्बर 16

Friday, 16 December 2016

तरक्की



महान योद्धा के नाम पर पड़े हमारे गाँव में भी अनेकानेक महान लोग पैदा हुए। महान लोग ही अपने गांव घर परिवार का नाम रौशन करते हैं। उन्हीं में से एक मंगलप्रसाद वल्द दुक्खी सिंह। दुक्खी सिंह अभी शायद अपनी पीढ़ी के अंतिम नामलेवा बचे हैं, अपनी बिरादरी के तो यकीनन। इनका वर्तमान गुण तो इनकी आयु ही है, पर शाश्वत गुण है इनकी चमड़ी का रंग। ये इतने ज्यादा गहरे रंग मने काले रंग के हैं कि एक बार इन्हें स्टेशन से रिसीव करना था तो हमें बताया गया कि जो दूर से ही चमके वही तुम्हारे काका।

इनका रंग हमेशा ही मेरी बिरादरी के लोगों के लिए अजूबा रहा। देखिये कि ये ऐसे समाज में है जहां हमारे सारे ही आराध्य काले रंग के हैं, राम कृष्ण शिव शनि यम, फिर भी। हमारे यहां चमड़ी के रंग को जाति विशेष से जोड़ दिया जाता है, और जाति ये निर्धारित करती है कि आप चारपाई के सिरहाने बैठेंगे या पैताने या जमीन पर चिड़िया उड़ाने वाली मुद्रा में। कभी किसी के यहाँ शादी, मरण, कार्य प्रयोजन में जाते थे तो झट से सिरहाने बैठ जाते, एक तरह का इंडिकेशन दे देते कि भई हम भी तुममें से ही हैं, कुछ और ना समझ लेना। सुना कि खपरैल की पट्टियों से इतना घिस घिस कर नहाते थे कि पट्टियां काली से सफेद हो गई पर इन पर रत्ती फर्क ना पड़ा।

मंगलप्रसाद गांव के सबसे लखैरे टाइप बालक, हिन्दूपट्टी से कटहल चुरा कर मियापट्टी में कोए की मौज हो या मियापट्टी से मुर्गी चुरा कर हिन्दूपट्टी में दावत, मंगलू सबसे आगे। चोरी करना हमारे महापुरुषों के बाल-जीवन का अभिन्न अंग जो ठहरा। ये अलग बात कि किशन कन्हैया की मैय्या ने हल्का दण्ड दिया, और गांधी बाबा के बापू ने कुछ नहीं कहा, पर यहां तो जो सुताई होती थी कि अगल बगल के कितने ही बालक सुधर गये, पर ये तो फिर ये ही थे।

इधर की तरफ कोई मर जाए तो उसकी तेहरी के दिन उस गांव, कभी कभी तो 8-10 गांव के घरों में मर्दों का भोजन नहीं बनता। दोपहर बाद से ही लोग दल बाँध कर पूड़ी खाने चल देते हैं। ऐसे ही किसी अवसर पर दोनों बाप बेटा दिवंगत के घर तेरही में शामिल होने पहुंचे थे, पांत उठने में समय था तो अपनी पुरानी आदत अनुसार बाबू दुक्खी सिंह एक चारपाई के सिरहाने बैठ गए। कुछ बातें अनुभव से आती हैं, और नवजवानों में वो अनुभव कहाँ, कुछ शिक्षा संस्कार का दोष, तो एक नौजवान को एक काले आदमी का यूँ चारपाई के सिरहाने बैठना खल गया। रंग की गलफत में गालियों और जातिसूचक शब्दों का जो धाराप्रवाह प्रयोग किया उसने कि क्या बताएं।

मंगल को ये बात चुभ गई, उसने पहली बार अपने पिता की आँखों में जो शर्म झिझक देखी कि उसका रोयां रोयां उबल पड़ा, वही कसम खाई कि इस परगने का सबसे बड़ा आदमी बन के दिखायेगा।

बाकी तो इतिहास में दर्ज होने वाली कथा है। मेहनत रंग लाती है, मंगलप्रसाद जमीन जायदाद लिखा पढ़ी रजिस्ट्रार लग गए। इतना पैसा बनाया कि क्या कोई कभी देखा होगा। घर इतना भेजते कि खर्च करने के लिए हाथ कम पड़ जाते। दुक्खी को अब कोई दुख नहीं था। दूर होने की वजह से साल दो साल में एक बार अपने बेटेे और उसके परिवार से मिलने शहर चले जाते।
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पिछली बार जब शहर से वापस आये तो बड़े खुश खुश लग रहे थे। लोगों ने पूछा तो बताया कि "बचवा हमे बड़ा इज्जत बख्सलन भाई, इनकर दोस्त लोग आये रहे त हमहुँ ओइजे जा के बैठ गइनी, ओम्मा से एक जनी पुछलन कि भाई ये कौन साहब है, बचवा बोललन कि ये मेरे सरभेन्ट हैं।....

                                                                                                                  

                                                                              (कानों सुनी सत्य घटना)
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अजीत
17 दिसम्बर 16

Monday, 12 December 2016

दोहरे मापदंड


दुनिया में भांति भांति के प्राणी, उन्हीं में से एक बिरादरी मुँहफट बद्तमीजों की। इसी बिरादरी से ठाकुर नाम का एक मित्र है, अब लोग तो ऐसा ही कहते हैं, हालाँकि मुझे कभी नहीं लगा, पर लोग अक्सर उसे बद्तमीज कह कर निकल जाते।

पिछली सर्दियों में एक बुजुर्ग सहकर्मी के देहांत पर घाट जाना हुआ। पुरानी रीत के अनुसार हम सब अपने कपड़े साथ ले गए थे, पर ये बन्दा यूँ ही, खाली हाथ। अंतिम क्रिया सम्पन्न होने के बाद सबने डुबकी लगाई, पर ये महाशय नहीं उतरे। सबने सोचा कि कपड़े नहीं लाया, या शायद ठण्ड है, इसलिए नहा नहीं रहा।
वापसी में उसके कमरे से होते हुए आना था, साथ में एक और सहकर्मी थे। घर पहुंच कर भी बन्दा नहाने नहीं गया तो सहकर्मी से रहा नहीं गया, बोल पड़े कि नहा ले भाई। इसने पूरी ढिठाई से कहा कि मैं तो नहीं नहाता, या बताओ कि क्यों नहाऊं। सहकर्मी बोले, भाई रीत है, मुर्दा जला के आओ तो नहाना होता है। अब इसका जवाब हालांकि मुझे उस समय थोड़ा अजीब सा लगा पर...। बोला, अच्छा, और जो तुम कल मुर्गे की टँगड़ी नोच रहे थे, हड्डियां तक चूस गये उसकी, फिर नहाया था क्या? था तो वो भी मुर्दा ही, जलाया तो उसको भी था खाने से पहले, या उसे जीव नहीं मानते, या मुर्दा खाना ना हो तो नहाओ, और खाना हो तो ना नहाओ, बा भई।
थोड़ी देर पहले ही गमी से वापस आया था, धार्मिक विश्वास भी हैं, अपना ही एक साथी मरा था, इसलिए हँस तो नहीं पाया पर बात तो पते की थी उसकी।
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पर कल तो उसे मैंने भी बद्तमीज कह ही दिया। हमारे साथ रिटायरमेंट की उम्र के नजदीक पहुंचे एक साहब काम करते थे। अक्सर आदमी येन केन अहंकार पाल ही लेता है, इन्हें भी था/है। इन्हें अपनी उम्र का अहंकार। इनके फैसले सामान्य रूप से कभी सही कभी गलत होते रहते, पर साहब कभी भी नई उम्र के सहयोगियों की सलाह नहीं मानते। अक्सर ही कह जाते, अब तुम मुझे सिखाओगे, बच्चे, ये बाल सफेद हो गए यही काम करते करते, 24 साल की बेटी है मेरी, मुझे मत बताओ कि क्या करना है, कैसे करना है।

हुआ यूं कि रोज की तरह कल भी शाम को टहलने के बाद हम लल्ला की दुकान पर चाय लड़ा रहे थे (हम बनारसी लोग चाय पीते नहीं, लड़ाते हैं)। टहलते हुए ये साहब भी आ गए। कर्टसी, चाय के लिए पूछा तो पसर गए। बगल में चाट गोलगप्पे की दुकान, हमेशा ही लड़के लड़कियों की भीड़ लगी रहती है यहां। बैठते समय इन्होंने अपनी आँखों का फोकस चाट की दुकान पर लगा रहे, इसका विशेष ध्यान दिया था।
* आगे आने वाले कुछ 'शब्द' शालीन नहीं हैं, पर मजबूरी है, अग्रिम क्षमा।
थोड़ी देर बाद मुझसे बोले, डाक साब, उसे देखिये, क्या माल है। पहली बार ही उनके मुंह से ऐसा कुछ सुना, रिटायर आदमी, अचंभित रह गया। मेरे कुछ बोलने से पहले ही मित्र को संबोधित कर बोल पड़े, ठाकुर, देखो तो क्या बनी हुई है, भई चीज हो तो ऐसी। देखो देखो, अबे हम पारखी नजर रखते हैं, तुम लोग तो अभी बच्चे हो बच्चे, क्यों, क्या कहते हो। ठाकुर ने बड़ी शांति से जवाब दिया, हां साहब, सही कह रहे हो, इतना अनुभव है आपको, आप नहीं जानोगे तो कौन जानेगा, आखिर 26 साल की लड़की है आपकी।

उन्होंने जैसे तैसे चाय में अपना सर घुसाया और मैं जोर से हँसते हुए बोल पड़ा, "बड़े बद्तमीज हो बे तुम"।
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अजीत
13 दिसम्बर 16

Thursday, 8 December 2016

यौतक



उनका यूँ हाथ जोड़ना मुझे अच्छा नहीं लग रहा। कंधे कितने झुके से लग रहे हैं। धँसी हुई आँखें, और उसमें घर बना कर बैठी उदासी, मुझे विचलित कर रहीं है। गलती भी तो उन्हीं की है ना, पूरी तैयारी क्यों नहीं की थी उन्होंने? उन्हें तो सब कुछ साफ़ साफ़ पहले ही दिन बता दिया गया था, मानना, ना मानना तो उनकी मर्जी थी न, फिर आज ये नौटँकी क्यों?

पर क्या सच में ही नौटँकी कर रहे हैं वे?
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तीन साल पहले की वो शादी याद आ रही है जब मेरी बहन दुल्हन बनी थी। कितना शौक था दिदिया को अपनी शादी का। लोग कुछ बनने के सपने देखते हैं पर इसे सिर्फ एक ही सपना जीना था, उसे ही पूरा करना था। बचपन की गुड्डी-गुड़िया से कभी बाहर निकली ही नहीं। उससे कोई पूछता था ना कि गुड्डी, तू बड़ी होकर क्या बनेगी, अगली जवाब देती, दुल्हन, और सब हँस पड़ते।

पिताजी को भी समझ आ गया था कि इसे पढ़ना लिखना तो है नहीं, शादी ही कर दो। एक तो हमारे यहां ढंग के लड़के नहीं मिलते, मिलते हैं तो उनके बाप टेढ़े होते हैं। बकरा देखा है आपने, बकरीद वाला, खूब खिला-पिला कर मोटे किये गए, चर्बी वाले बकरे सबसे महंगे बिकते हैं। वैसे ही खूब पढ़े-लिखे, नौकरीशुदा, जमीन-जायदाद वाले लड़कों की खूब बड़ी बड़ी बोली लगती है। कीमत तो खैर सबकी ही लगती है, मोटा चाहे पतला, पर जानबूझ कर कोई पतला बकरा तो नहीं खरीदता ना।

लड़का इंजीनियर, मिलाजुला परिवार, पुस्तैनी घर, बाग़ बागीचा, खेत खलिहान। अब ऐसे सरकारी दामाद को कौन अपना दामाद नहीं बनाना चाहेगा। लड़की की एक तरह से नुमाइश की जाती है हमारे यहां, खैर लड़की पसन्द आ गई उन्हें। बात अटकी तो बस 'बकरे की कीमत' पर। ऐसा नहीं है कि कुछ जमा जथा नहीं था पिता जी के पास, हर लड़की के बाप की तरह उन्होंने भी दिदिया के लिए कुछ पैसे रख छोड़े थे, पर ये उनकी मांग के पासंग भी नहीं था। इतना अच्छा लड़का छोड़ना भी नहीं चाहते थे, इसलिए कुछ सोच विचार कर रिश्ता पक्का कर दिया।

घर में जब फाइनल मोल-भाव बताया तो शुरुआती प्रतिरोध के बाद मांग पूरी करने के गम्भीर प्रयास शुरू किए गए। एफ-डी, एल-आई-सी, जी-पी-एफ से भी जब पूरा नहीं पड़ा तो थोड़े से खेत जो अपने हिस्से में आते थे, वो भी इस शादी यज्ञ में आहूत कर दिए गए।

अपने कठोर पिता की वो दयनीय मुद्रा देखी नहीं जाती थी, तनी मूंछें थोड़ी झुक सी गई थी, खुलकर खर्च करने वाला इंसान अब कुछ महीनों में ही कंजूस हो गया था। फिर भी जीवट वाले, जुबान के पक्के इंसान थे, इसलिए जैसे तैसे सारी मांगों को तकरीबन पूरा कर दिया था उन्होंने।

शादी के दिन बारात आने से पहले ही उनका फोन आ गया था। आश्वस्त होने के बाद ही उधर से बारात चली थी। इतना कुछ करने के बाद भी उन लोगों के मुंह टेढ़े के टेढ़े ही रहे, इसकी क्वालिटी खराब है, बारात का स्वागत ढंग से नहीं किया, खाने में स्वाद नहीं था, और ना जाने क्या क्या।
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आज मेरी शादी है।
पर मुझे दिदिया की शादी ना जाने क्यों याद आ रही है।

क्या अंतर है दोनों में?

होने वाले जीजे की जगह आज मैं हूँ, क्या उस दिन उसे वैसा कुछ महसूस हुआ होगा जो आज मुझे हो रहा है?

आज दिदिया की जगह पर मेरी होने वाली पत्नी है, इसे भी शायद दिदिया की तरह कभी पता नहीं चलेगा कि उसके बाप कई सालों के लिए कर्जदार हो चुके हैं।

और क्या मेरे पिताजी को अपने सामने अपना तीन साल पुराना अक्स नहीं दिख रहा होगा?

वो मेरा होने वाला साला, क्या आने वाले किसी कल में, उसे भी ये बीता हुआ कल याद आएगा?
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अजीत
8 दिसम्बर 16