Sunday, 22 July 2018

रामबोला



रामबोला: 1
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रामबोला के दिल में चैन नहीं था।

उसका बचपन भयंकर गरीबी में गुजरा था। पिता महान ज्योतिष थे जिन्होंने उसके पैदा होते ही उसे अपशगुनी मान त्याग दिया था। माता तो खैर उसका चेहरा देखे बिना ही मर गई थी। घर की दासी ने उस पर दया दिखाई और जंगल में छोड़ देने के आदेश का उलंघन कर उसे एक बुढ़िया भिखारी की गोद में डाल गई। बच्चा देखकर भीख ज्यादा मिलती है तो बुढ़िया को भी सुभीता हो गया। वो राम के नाम पर भीख मांगती, बच्चे ने भी वही सीखा। राम की ही कृपा थी जो कंठ बड़ा सुरीला था उसका। जब अपने मधुर स्वर में राम के भजन गाता तो लोग प्रसन्न होकर अधिक अन्न दे देते। राम-राम कहने से नाम भी रामबोला हो गया। मित्र वगैरह थे नहीं तो राम भक्त हनुमान को अपना मित्र मान लिया। उन्हीं को आँख के सामने मानकर खाली समय में खेलता, बतियाता।
एक दिन बुढ़िया मर गई, अनाथ रामबोला फिर से अनाथ हो गया। भिखारी-प्रतिस्पर्धियों ने उसकी झोपड़ी गिरा दी तो गुस्से में हनुमान से बात करते-करते किसी मंदिर तक पहुंचा और वहीं बैठ गया। भूख लगी तो बंदरों की ओर फेंके गए चने उठा लिए। बंदरों ने प्रतिशोध किया तो बजरंगबली का नाम लेकर उनसे भीड़ गया। दो-चार दिन में ही बंदरों के सरदार से दोस्ती हो गई। अब रामबोला मंदिर के चबूतरे को साफ कर देता और बंदरों के साथ चने खा लेता। हनुमान से विनती करता कि 'तुम तो राम के भक्त हो, उनसे रोज मिलते हो। देखो! भक्त तो मैं भी हूँ! जब से होश संभाला है, राम-राम ही किया है। मुझे भी मिलवा दो न उससे।' कभी भाव-विभोर होकर गाने लगता तो साथी बंदर अपनी हुड़दंग भूलकर उसके चारों ओर बैठ जाते और गाना खत्म होने पर अपनी मुठ्ठियों में चने वगैरह लेकर उसके सामने आ जाते।

ऐसे ही किसी अवसर पर एक संत बाबा की नजर उस पर पड़ी। उन्होंने न जाने क्या देखा उस बालक में, जो उसे अपने संरक्षण में ले लिया। बालक के जीवन को अर्थ देने के लिए उसे अयोध्या जी ले जाकर यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। फिर उसे काशी के प्रसिद्ध गुरु के हाथ सौंप दिया। बालक गुरु के आशीर्वाद से चमक उठा। गुरुकृपा से उसने वेद, वेदांग, सांख्य, नाटक, साहित्य, ज्योतिष सभी विधाओं में पांडित्य प्राप्त किया। पर वह सन्तुष्ट नहीं था। उसे राम का नाम मिला था, राम कहाँ मिले थे? विद्या मिली, राम नहीं।

उसे ईर्ष्या हुई थी जब पड़ोस में एक ब्राह्मण-भोज में उसका जाना हुआ। वहाँ एक भगत जी को राम-कथा कहते हुए भाव-विभोर होते देखा। भगत जी जब राम का नाम लेते ही बेहोश हो गए, और जब होश में आए तो उनकी आँखों से टपकते अश्रुओं ने पहले-पहल तो रामबोला के मन में कपट-अभिनय का आभास कराया, पर फिर उसे उन अश्रुओं में सच्चाई दिखी, ईर्ष्या हुई कि 'देख रामबोला! एक यह हैं जो लगभग तेरी ही आयु के हैं और इन्हें राम से इतना प्रेम है। और एक अधम तू है जो केवल वाणी से ही राम का नाम लेता है। क्या तेरे मन में भी राम हैं? बचपन से राम-राम बोलते-बोलते नाम तेरा रामबोला हो गया, पर क्या तेरी तड़प इन भगत जी के पासंग भी है? गत बारह वर्षों से तूने गुरुकृपा से समस्त विद्याएं सीख ली हैं पर अभागे, तेरे राम कहाँ हैं?'

उस सत्संग की भीड़ में से किसी ने एक लड़की को भजन गाने के लिए कहा। भगत जी भजन सुनकर मगन हो जाते थे। उस लड़की ने मीरा का भजन गाना शुरू किया, "सुनी री मैंने हरि आवन की आवाज"। इधर रामबोला व्याकुल था, जैसे ही वो लड़की चुप हुई, उसने गाना शुरू कर दिया। शब्द वही थे पर जहाँ उस लड़की का गायन एक नाचने-गाने वाली का कलात्मक, परिष्कृत और सांसारिक गायन था, वहीं यह एक भक्त की आवाज थी, उसकी पीड़ा थी, गुहार थी। निस्तब्धता छा गई। आवाज के चुप हो जाने पर भी कई पलों तक शांति बनी रही। सबको ऐसा लगा कि सबने ही हरि आवन की आवाज सुनी हो।

भगत जी उठ खड़े हुए और रामबोला से लिपट कर बोले, "मेरे भैया! तू कहाँ था रे? उसने कहा था कि तू आएगा। वो कपीश्वर महावीर भी कह गए थे कि, 'भगत, मेरा छोटा भाई आ रहा है।' मैं तेरे लिए ही तो हर बार इस काशी में आता रहा। अब तुझे जाने नहीं दूंगा। बोल! नहीं जाएगा न?"

रामबोला अचंभित, यह भगत जी तो अजीब व्यवहार कर रहे थे, बोला, "मैं गुरु के अधीन हूँ, वही मेरे मानस-पिता हैं, अभिभावक है। अतः स्वतंत्र नहीं हूँ। मैं अब गुरुकुल में अध्यापक हूँ। "
भगत जी मुस्कुराकर बोले, "तेरे गुरु तुझे क्यों रोकेंगे रे पगले! तू दस-बीस बालकों को शिक्षा देने के लिए पैदा नहीं हुआ है। अरे तूझे तो इस संसार को शिक्षा देनी है।" अपने भक्त कैलाश की ओर मुड़कर बोले, "सुन रे, तू मेरी बात याद रखना। लोग मुझे भले भूल जाए, पर मेरे इस भैय्या को कोई भूल नहीं पाएगा। जब तक संसार रहेगा, राम का नाम रहेगा, इस रामबोले का नाम रहेगा।"
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रामबोला: 2
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भगत जी का नाम मेघा था। वर्ष के चार महीने काशी प्रवास करते थे। रामभक्त के रूप में उनकी ख्याति थी, पर काशी तो काशी ही है, महादेव की नगरी। कुछ लोग भगवानों को भी अलग-अलग मान आदिदेव-शिव-शंकर को राम से ऊपर मानते और रामभक्तों को ओछी निगाह से देखते। मेघा भगत को अर्धपागल का दर्जा मिला हुआ था। अब कोई व्यक्ति घड़ी-घड़ी राम नाम लेते-लेते बेहोश हो जाए तो कहने वालों का भी क्या दोष!

पर जो हो, वैष्णवों के लिए तो वे तीर्थस्वरूप थे। उनके वचन सुन रामबोला को पहले आश्चर्य और फिर अभिमान की अनुभूति हुई। आसपास बैठे भक्तों ने भी उनके सुमधुर कंठ की बहुत प्रशंसा की। कुछ पल व्यतीत कर जब वे वापस गुरुकुल चलने को हुए तो मेघा भगत तड़प कर बोले, "कल फिर आएगा न भैया? आना रे, मैंने तो अभी से तेरी बाट जोहनी शुरू कर दी है।" अपने भक्त कैलाश से बोले, "अरे सुन कैलाश, अगर ये कल खुद से न आए तो तू जाकर लिवा आना। अब तू जा भैया। जाएगा, तभी न वापस आएगा! जा, जा।"

स्नेह का जन्म से प्यासा ब्रह्मचारी इस अतिरिक्त और अनचाहे स्नेह से अचंभित होता हुआ जब ड्योढ़ी से नीचे उतरा तो उस गाने वाली को पालकी के पास खड़ा पाया। उस पूर्ण युवा सुंदरी ने बंकिम मुस्कान के साथ अपने सामने खड़े भगवा वस्त्र धारी, कसरती बदन और चमकते मुखमंडल वाले तापस को हाथ जोड़ प्रणाम किया और कहा, "प्रणाम महराज, आपने तो आज समा बांध दिया। इतना मधुर पुरुष-स्वर मैंने कभी नहीं सुना था। क्या आपने संगीत की शिक्षा ली है महराज?"

रामबोला के जीवन में मातातुल्य भिखारन और गुरुपत्नी आई के बाद यह पहली स्त्री थी जो उससे सम्बोधित थी और अनचीन्हे भावों से उसे देखते हुए, अनजाने मादक स्वर में प्रश्न कर रही थी। खुद को संभालते हुए, स्वयं को संगीत विशारद होने से मना कर आगे बढ़ने को हुए कि युवती ने हठात उनकी कलाई पकड़ ली और तुरन्त ही छोड़कर बोली, "आपको संगीत कला सीखनी चाहिए। आप देखिएगा, तानसेन और बैजूबावरा आपके आगे झुककर सलाम करेंगे। अरे! मैंने अपना परिचय तो दिया ही नहीं। मैं मोहिनी, शहर कोतवाल की छत्रछाया में दालमंडी में निवास करती हूँ। मेघा भगत जब बनारस में होते हैं तो कोई न कोई श्रद्धालु उनके भजन रसिकता को तृप्त करने के लिए मुझ पापन को ले आता है। मैं कल भी आऊंगी। आप भी आएंगे न? आइयेगा, अब आपके बिना मुझसे गाया नहीं जाएगा।" वाणी के साथ-साथ निगाहों से भी अनुरोध करती हुई वह पालकी में बैठ चली गई।

ब्रह्मचारी रामबोला भी धीरे-धीरे गुरुकुल की ओर बढ़े। आज जाने कितने अनजाने भाव उनके जीवन में पहली बार ही उनके समक्ष प्रकट हुए। पहले मेघा भगत से ईर्ष्या, फिर प्रशंसा से उपजा अभिमान और फिर नारी आकर्षण। ईर्ष्या छणिक थी, जो वहीं अश्रुवों में धुल गई। अभिमान टिक न सका, क्योंकि उनसे भी अधिक विख्यात पुरुष वर्तमान थे पर नारी आकर्षण! बीस-बाईस वर्ष के युवा रामबोले को काम का बाण लग गया था। रात भर जो सपने में भी राम-राम का जाप चलता था, वेदों की ऋचाएं गूंजती थी, नक्षत्र तैरते थे, वहाँ मोहिनी सर्वत्र नाच रही थी। रह-रह कर मन राम की ओर भागता और कमजोर पड़ मोहिनी की ओर दौड़ लगाता।

सुबह हुई तो, कहाँ तो उन्होंने निश्चय किया था कि बावरे मेघा के यहाँ नहीं जाएंगे, फटाफट सब कार्य निपटाए, शिष्यों को अभ्यास की आज्ञा दे कक्षाएं भी जल्दी छोड़ दी, और आई के पास पहुँच मेघा भगत के यहाँ जाने की अनुमति माँगी। गुरुमाई से आज्ञा मिलते ही पैरों में पँख बांध उड़ चले। मेघा के दरवाजे पर पालकी को देख उनका मन मयूर नाच उठा। मन से आवाज भी आई कि राम के लिए उतावला हो, कहाँ किसी नश्वर के पीछे पड़ा है। प्रतिउत्तर मिला कि वह कितनी सुंदर, कितनी मोहक है! मन ने ही विरोध किया कि क्या राम से अधिक मनमोहक है? इसी आंतरिक द्वंद में वे अंदर गए और मेघा को झपटकर खुद के पास आते और गले लगाते देखा। ऊपरी मन से वे भी गले लग रहे थे पर आँखें उस हृदयचोरनी को खोज रही थी। नजरें मिली और रामबोला के अंदर का द्वंद समाप्त सा हो गया। राम प्रतीक्षा कर लेंगे, उन्हें थोड़ी देर बाद भी याद कर लेंगे। अभी तो इस सशरीर प्रत्यक्ष दिखती कंचनकाया में मन रम गया था।
मेघा भगत ने उन्हें अपने पास बैठाया और कुछ क्षण शांति से उन्हें तकते रहे। फिर खुद ही कबीर साहब का भजन गा उठे---

"माया महा ठगनी हम जानी।।
तिरगुन फांस लिए कर डोले
बोले मधुरे बानी।।
केसव के कमला वे बैठी
शिव के भवन भवानी।।
पंडा के मूरत वे बैठीं
तीरथ में भई पानी।।
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"
रामबोला पानी-पानी हो उठे। उन्हें लगा कि उनकी चोरी पकड़ी गई। शर्म से उनकी गर्दन जो झुकी तो झुकी ही रही। आँखों से अश्रु बह चले। उनकी ठोड़ी पर उंगली रख भगत जी बोले, "रे भैया! माया के लिए रोता है कि राम के लिए? चल मेरे साथ, कुछ दिन काशी के बाहर चल। तीरथ घूम आएं? चलेगा?" रामबोला के मुख पर असमंजस देख हँस पड़े और बोले, "ठीक है। कुछ और कष्ट सह ले। मन को फिर से तौल ले।"

रामबोला इस रात्रि हठ बांधकर सोए थे कि मोहिनी की सूरत नहीं, राम की मूरत ही बसे मन में। वे जितनी कोशिश करते, मोहिनी उतनी ही तेजी से उनकी आँखों के सामने कौंधती। कल तक आँख मूँदते ही जो सीताराम जी भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न के साथ दिखने लगते थे, वे लाख प्रयत्न पर भी नहीं दिखे। पसीना-पसीना होकर एक कराह के साथ उठ बैठे। सामने छोटी सी हनुमान मूर्ति को देख गिड़गिड़ा कर बोले, "हे बजरंगी! मुझ पर दया दिखाओ। राम जी को कहो न कि वो मेरा साथ न छोड़े। तुम्हारी बात नहीं टालते वे। भैया लक्ष्मण के प्राण बचाए तुमने, अब अपने रामबोले के प्राण भी बचाओ।"

रामबोले को लगा कि हनुमान की मूर्ति बड़ी होने लगी है। होते-होते इतनी बड़ी हो गई कि सर्वत्र वही छा गई। आँखों के परास से दूर, अदृश्य हो गई। आँखे मीच ली और जब पुनः आँखें खोली तो सब कुछ यथावत पाया।

'हाय! क्या बजरंगी भी साथ छोड़ गए। क्या अब वे मेरी नहीं सुनेंगे।' यह मर्मान्तक पीड़ा थी। बचपन के होश संभालने से लेकर अब तक हनुमान ही तो उनके मित्र, सखा, बड़े भाई और राम तक पहुंचने की सीढ़ी थे। अब वे भी साथ नहीं देंगे तो रामबोला क्या करेगा?

उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था। माया महाठगनी ने राम ही नहीं, रामभक्त हनुमान को भी उनसे दूर कर दिया था। सुबह हुई और वे झपटते हुए मेघा भगत के यहाँ पहुंच गए। इतनी सुबह उन्हें आया देख कुछ भक्तों ने उन्हें रोकने की कोशिश की पर आंधी की तरह चलते इस बलिष्ठ युवा से टकराकर इधर-उधर हो गए। वे सीधे भगत के चरणों में रोते हुए गिर पड़े। भगत मुस्कुरा कर बोले, "तू पहली सीढ़ी चढ़ आया रे। रोता क्यों है? चल उठ, तेरे गुरु के पास चलते हैं। उनसे आशीर्वाद ले और चल, मानसरोवर हो आते हैं।"
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रामबोला: 3
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महीनों की यात्रा कर, मानसरोवर में स्नान कर और कैलाश पर्वत को प्रणाम कर बद्रीनाथ होते हुए मेघा भगत, रामबोला और कवि कैलाश हरिद्वार पहुँच गए, जहाँ एक सुखद समाचार उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। मुगल बादशाह हुमायूं वापस दिल्ली कब्जाने में कामयाब तो हुआ था पर जल्द ही जन्नतनशीं हो गया। मौका देखकर लोधी पठानों ने हिंदुओं के साथ मिलकर अपने महान सेनापति हेमू बक्काल को अपना राजा घोषित कर दिया था। हेमू बक्काल अर्थात हेमचंद्र विक्रमादित्य, एक हिन्दू, तकरीबन तीन सौ वर्षों के अत्यधिक लंबे अंतराल के बाद दिल्ली की सत्ता का अधीश्वर बना था। हरिद्वार का साधु समाज, और आमजन भी अत्यंत प्रसन्न थे कि अब स्त्री, गौ और ब्राह्मण चैन से रह सकेंगे, कि अब उनके मंदिर नहीं तोड़े जाएंगे। अयोध्या में पुनः रामनवमी मनाई जा सकेगी, मथुरा में अब यमुनाजी में भक्त डुबकी लगा सकेंगे और काशी में कत्ल या कैद होने के डर से मुक्ति पा अब लोग बेखौफ हो 'हर हर महादेव' का जयकारा लगा सकेंगे। सिकन्दर लोधी के समय से मुंडन और चुटिया रखने पर लगा प्रतिबंध अघोषित रूप से हट गया था। गंगाघाट पर लोगों की भीड़ लगी थी।

इतना उत्साह देख, कवि कैलाश भी उत्साहित हो उठे और प्रताव किया कि उन लोगों को दिल्ली अधीश्वर को आशीर्वाद देने दिल्ली जाना चाहिए। मेघा भगत इस प्रस्ताव पर विचार कर बोले, "देख भई कैलाश, प्रसन्नता की बात तो है। मुदा, हमारा विचार है कि अब काशी लौट चला जाए। दिल्ली दूर ही भली। कुछ अनहोनी की आशंका लग रही है। तो भई, हम पंचों को तो दूर ही रहना ठीक रहेगा।"

कैलाश पिनक कर बोले, "क्या भगत जी, कब तक हम लोग डर-डर कर रहेंगे? अरे! अब तो राजा हिन्दू है। देश का भाग्य न जाने कितनी पीढ़ियों बाद बदला है और आप बच-बचाकर निकलने की आज्ञा दे रहे है! हमारा बहुत मन है कि जो चीज हमारे पाँच-सात पुरखे नहीं देख सके, हम देखें। देखें तो कि दिल्ली की गद्दी पर बैठा हिन्दू आखिर लगता कैसा है! क्यों भई रामबोला, तुम्हारा क्या विचार है?"

"मैं तो मथुरा जाने की सोच रहा था। यमुना जी में डुबकी भी लग जाती और अपने गुरुभाई नन्ददास से भेंट भी हो जाती। वहाँ से दिल्ली बहुत दूर नहीं, तो दिल्ली भी हो लेंगे। बाकी, मेघा भाई जैसा कहें।"

मेघा मुस्कुरा कर बोले, "क्या रे भैया! तुम दोनों का मन है तो चलो। हम क्यों रोकेंगे भला। चलो, हेमू महराज के दर्शन कर लो। जो कोई बाधा आई तो हम तो काशी चले जायेंगे।"
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मथुरा के मार्ग पर भरतपुर गांव के शिवालय पर तीनों लोग रात्रि विश्राम के लिए रुके थे। वहाँ पहुँचकर सूचना मिली कि पंजाब से एक बहुत बड़ी मुगल फ़ौज पानीपत की ओर चल चुकी थी। इधर से राजा हेमचंद्र भी कुछ दिन पहले ही पानीपत की ओर बढ़े हैं। भरतपुर उनकी रसद आपूर्ति करने वाला गाँव था।

रात में शोर मचा। तोप और तलवार की आवाजों से दिशाएं गुंजायमान हो उठी। जब तक लोग समझते, पूरा गाँव ही बन्दी बना लिया गया। सुबह उन सभी को किसी अगले पड़ाव तक जाने के लिए हाँक दिया गया। स्त्री, पुरुष, अमीर, गरीब, सबके सर पर बोझ। एक झटके में सब गुलाम बना दिए गए थे। भाषा बोलने वाले नव-मुस्लिम सिपाहियों से पता चला कि जंग में मुगल जलालुद्दीन मोहम्मद की जीत हुई और हेमू विक्रमादित्य की गरदन उतार दी गई। वीरों का सम्मान करने वाले किसी मुगल सैनिक ने बताया कि जंग में जब पठान सेनापति शादिखान शहीद हुआ तो स्वयं राजा हेमू अपने हाथी पर बैठकर लड़ने और अपने सरदारों का हौसला बढ़ाने आ गया। उधर मुगल सेनापति बैरम खां खानेजमा ने दूरबीन से देखकर हेमू की कोई कमजोरी खोजने की कोशिश की और अपने तीरंदाजों को हेमू की आँख का निशाना लेने को कहा। पचासों तुर्क तीरंदाज सिर्फ एक लक्ष्य लेकर आगे बढ़े। कितने ही खेत रहे पर किसी एक का निशाना लग ही गया। हेमू हाथी से भी ऊंची आवाज में चिंघाड़ा और अपनी आँख में धँसे तीर को निकाल कर, कपड़ा बांधकर पुनः युद्ध करने लगा। पर घाव मारक था। अत्यधिक रक्त बह जाने से हुई कमजोरी ने उसे हाथी से गिरा दिया। कहते है कि खुद जलालुद्दीन ने अपनी शमशीर से उसकी गरदन उड़ा दी।

केवल हेमू की गरदन नहीं उड़ी थी, हिंदुओं की आशाओं, आकांक्षाओं की निर्मम बलि थी यह। पर, होइए वहीं जो राम रची राखा। तीनों प्राणी, बाकियों की तरह ही बोझा उठाये घिसटते हुए चले जा रहे थे। दिन भर चलते, रात में रूखी-सुखी जो मिल जाता, खाते और अगली सुबह बिना स्नान-ध्यान किए फिर से चलने लगते। समस्या यह थी कि मेघा भगत चलते-चलते ही भाव में आ जाते, रुक जाते और फिर सैनिकों के हाथों कोड़े खाते। कैलाश को बड़ा दुख था। उनकी जिद के कारण ही भगत जी को इतना कष्ट मिल रहा था। अगली बार जब मेघा पुनः भाव समाधि में गए तो उस टुकड़ी का सरदार गुस्से और असमंजस में सामने आया। उसे देख रामबोला तुरन्त बोल पड़े, "यह आदमी सूफी है, कलंदर है। ऊपर वाले का भेजा हुआ बन्दा है। इसे कष्ट दोगे तो तुम्हारा खुदा तुम पर खफा होगा"। सरदार एक उजबक था, जो था तो मुसलमान पर उसके अंदर कदाचित अपने देश के बौद्ध संस्कार बचे हुए थे। उसने मेघा के बोझ को बाकी दोनों में बांट दिया और उन्हें मुक्त कर दिया।

कारवाँ फिर चला। कैलाश परेशान हो उठे थे। रामबोला ने कुछ विचारा और ठिठक गए। सरदार अब्दुल्ला गुस्से में फनफनाता आया और बोला, "क्यों बे काफ़िर! अब क्या तू भी सूफी है, कलंदर है? तुझे भी मुक्ति चाहिए? चल, चुपचाप आगे बढ़ वरना तेरी खाल खींच लूंगा।"

इधर सरदार के मुँह से पहला शब्द निकलते ही रामबोला ने गिनती चालू कर दी थी और उसके चुप होते ही बोल पड़े, "बधाई हो सरदार, आज तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।"

सरदार अकबका गया। उसकी पत्नी तो गर्भवती नहीं थी, फिर यह आदमी क्या कह रहा है! आँखे तरेर कर बोला, "क्या बक रहा है? मेरी बीवी माँ नहीं बनने वाली।"

"मैंने कब कहा कि आपकी पत्नी माँ बनने वाली है? मैं तो यह कह रहा हूँ कि आप पिता बनने वाले हैं।"

अब्दुल्ला के चेहरे पर पहले उलझन, फिर आश्चर्य और फिर परेशानी झलकने लगी। उसके सम्बन्ध अपने आला हाकिम अदहम खां की पत्नी से थे जो कुछ ही दिनों में माँ बनने वाली थी। अदहम खां था तो केवल सत्रह साल का, पर जलालुद्दीन को दूध पिलाने वाली माहामंगा का इकलौता बेटा था, इस नाते बादशाह का भाई था। वह इस नाते का पूरा फायदा उठाता, हालांकि बैरम खाँ की वजह से उसकी अधिक चलती नहीं थी। अब्दुल्ला ने डरते-डरते रामबोला से पूछा कि क्या वो नजूमी हैं? उनके हाँ कहने पर अदहम खां से बचने और इस बात को छुपा लेने की तजवीज़ पूछी।

रामबोला बोले, "आपको घबराने की क्या आवश्यकता है? आप अपने बच्चे के जन्म हेतु आवश्यक चिकित्सकीय व्यवस्थाएं कीजिये। बच्चा अवधि से पहले जन्म लेने वाला है, अतः उसे इन सबकी आवश्यकता होगी। ऐसा कर आप अपने बच्चे की ही नहीं, उसकी माँ की, और इन दोनों के पिता-पति की भी सहायता करेंगे। जो बात छुपी है, उसे प्रकट करने की तो कोई आवश्यकता वर्तमान में नहीं दिखती।"

समय पर सारी सुविधाएं उपलब्ध होने से जच्चा-बच्चा दोनों सकुशल रहते है। अदहम खां इस बात से बहुत खुश हुआ और अब्दुल्ला से इस तुरती-फुरती का कारण जानना चाहा, क्योंकि उसकी बेगम में अभी तो ऐसे कोई लक्षण दिखे नहीं थे कि समय पर सारे हकीम और दवाइयांं जुटा ली गई थी। महल होता, हरम होता तो कोई बात नहीं, पर चलते काफिले में? अब्दुल्ला को पीर जैसे दिखने वाले नजूमी के बारे में बताना पड़ कि उसमे ही भविष्यवाणी की थी कि आज आला हाकिम साहब अब्बा बनेंगे। उसकी बात पर भरोसा कर सारी तजवीज़े की गई। अदहम ने उस नजूमी को अगली सुबह अपने हुजूर में पेश होने का हुकुम सुनाया।

अगली सुबह अब्दुल्ला रामबोले को लेकर अदहम के पास गया। वहाँ अदहम किसी वृद्ध मुगल के साथ बैठा था जो एक तख्ती पर राशि-चक्र खींच कर बैठे थे। वृद्ध मुगल, मिर्जा साहब रामबोले को देख मुलायमियत से मुस्कुराए और बोले, "आओ बिरहमन, जरा इसे देखो और बताओ कि तुम्हें क्या समझ आता है?"

रामबोले को मुश्तरी और जोहरा को बृहस्पति और शुक्र समझने में थोड़ा समय लगा, पर जैसे ही उन्हें इन अनजाने सितारों में अपने ग्रहों की झलक दिखी, वे अचंभित होकर बोले, "यह किसकी कुंडली है श्रीमान?"

मिर्जा बोले, "तुम्हें इससे क्या बिरहमन, बस कुंडली विचारो।"

"जैसी इच्छा। यह किसी अद्भुत व्यक्ति की कुंडली है। नक्षत्रों का ऐसा खेल कम ही दिखता है। यह व्यक्ति अभी तो बालक ही है पर बहुत बड़ी आबादी पर इसका प्रभाव पड़ेगा। यह बहुत ही दुर्भाग्यशाली है पर उतना ही सौभाग्य भी है इसके पास। यह अत्यंत क्रोधी है, पर अत्यंत दयालु भी है। इसे सदैव धोखे ही मिलेंगे, पर इसे प्रेम करने वालो की कमी नहीं होगी। संसार के श्रेष्ठ पुरुष इसके आगे सर झुकायेंगे और यह श्रेष्ठ लोगों के आगे सर झुकायेगा। इसे सदियों तक याद रखा जाएगा। यह महान कहलाएगा, यद्यपि कुछ इसे निरंकुश भी मानेंगे।"

मिर्जा साहब इस बिरहमन की बात सुन कर जितना प्रसन्न हुए, अदहम को उतना ही गुस्सा आया। चिढ़ भरे स्वर में उसने पूछा, "इसकी मौत कब होगी?"
नजूमी बोला, "इसकी मृत्यु में अभी बहुत समय है। इसे मारने की अनगिनत चेष्टाएँ की जाएंगी पर यह अपनी आयु पूरी कर इस जीवन से विदा लेगा।"
अदहम का गुस्सा बढ़ चला, "मैं कब बादशाह बनूंगा?"
"कभी नहीं।"
"अच्छा! तो क्या मेरा कद कभी बैरम खां खानेजमा जितना होगा?"
"ऐसे तो कोई लक्षण नहीं दिखते। पर आप राजा की कृपा से अभी की तुलना में बहुत ऊपर तक जाएंगे।"
"राजा? बादशाह बोल काफ़िर। तो बादशाह चाहेगा तो ही मैं बड़ा बनूंगा।"
"जी हाँ।"
"और जो मैं बादशाह का कत्ल कर दूँ?"
"वो आपके हाथ में नहीं। और आपने कह ही दिया तो बता दूं कि आप ऐसा प्रयत्न जरूर करेंगे, और वह कर्म उल्टा आप पर ही पड़ेगा।"
"मैं तेरी इन बातों को नहीं मानता काफ़िर। चांद-तारे अदहम का नसीब नहीं लिखते, अदहम की शमशीर लिखेगी उसकी किस्मत। अच्छा! यह तो बता कि क्या तेरा हर ख्याल पूरा होता है?"
"अभी तक तो मेरी कोई बात गलत सिद्ध नहीं हुई श्रीमान।"
"तो बता तेरी मौत कब लिखी है?"

रामबोला इस प्रश्न पर चुप रह गए, लेकिन मिर्जा साहब बोल पड़े, "अदहम खां! इस आदमी की मौत तुम्हारी अपनी मौत के कई सालों बाद होगी। यह जो गरीब बन कर तुम्हारे सामने खड़ा है, एक दिन संसार इसके सामने झुकेगा। जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर को लोग भूल जाएंगे पर इसका नाम कयामत तक कोई भूल नहीं पायेगा।"

इन बातों ने कुंठित अदहम को क्रोध से भर दिया और वह इन भविष्यवाणियों को झुठलाने के लिए तलवार खींचकर रामबोले को मारने दौड़ा। कुछ कदम ही चल पाया कि रामबोले के चरणों में गिर पड़ा। उसका शरीर थरथराया और मुँह टेढ़ा हो गया। उसे लकवा मार गया था।

मिर्जा साहब बोले, "नीच अदहम, यह जो तेरे सामने खड़ा है, तू उसके पैरों के ही काबिल है। देख, खुदा ने तुझे तेरी जगह दिखा दी।" फिर पलट कर अब्दुल्ला से बोले, "इस बिरहमन और इसके साथियों को छोड़ दो। और जाओ, इस अधम अदहम के लिए किसी हकीम को बुलाओ।"
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रामबोला: 4
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मेघा भगत और कवि कैलाश को काशी की ओर विदा कर रामबोला ने मथुरा की राह पकड़ी। मथुरा जन्मभूमि मंदिर तो जाने कितनी बार टूटा, बना और फिर टूटा। समय ही ऐसा था कि हिंदुओं की आस्था के केंद्रों काशी, अयोध्या और मथुरा के मंदिरों को विधर्मी शासक तोड़ देते। फिर कोई धनवान राजा या व्यापारी उन बादशाहों को धन-धान्य-सैन्य-चाटुकारिता से सन्तुष्ट करता और मंदिर के पुनरुद्धार की अनुमति प्राप्त कर लेता। शासक बदलता, मंदिर फिर से टूटते, फिर चढ़ावा चढ़ता और मंदिरों में अल्पकाल के लिए ही सही, फिर से शंखनाद सुनाई देता। वर्तमान मंदिर सिकंदर लोधी ने तुड़वा दिया था। वर्षों बीत चुके थे पर अभी तक मंदिर पुनः बन नहीं पाया था।

बहुत बुरा समय था। लोगों की आस्थाओं को पग-पग पर तोड़ा जाता। आस्थाओं के तिरोहित होने से लोग विदेशी धर्म की ओर आकर्षित होते, और फिर प्रशासन से सहयोग पाकर दूसरों के लिए उदाहरण बनते। प्रशासनिक जोर जबरदस्ती के विरोध में संत समाज ने डट कर लोहा लिया था। कहीं निर्गुण का बखान करने वाले महात्मा कबीरदास जी थे, रविदास थे तो महारानी मीराबाई थी और थे श्यामसखा प्रज्ञाचक्षु सूरदास।

मथुरा में मित्र और गुरुभाई नन्ददास से मिलने पर नन्ददास के ही बताने पर रामबोला को पता चला कि जिस समय सिकंदर लोधी की सेना मथुरा का मंदिर तोड़ रही थी, उससे कुछ दिन पहले ही आचार्य महाप्रभु ने सपने में देखी एक जगह की खुदाई कर श्रीकृष्ण विग्रह प्राप्त किया और उसकी प्रतिष्ठा गोवर्धन पर्वत पर करवाई थी, जिसे धनी भक्तों ने एक बहुत विशाल मंदिर का रूप दे दिया था। यह भी सुना कि दिल्ली बादशाह का मंत्री राजा टोडरमल बड़ा धार्मिक और कृष्ण भक्त था। उसके रहते भले ही पुराने मंदिर फिर से न बनें, पर बने बनाए मंदिर नहीं तोड़े जा सकते। तीर्थयात्रा पर निकले रामबोला का मन श्यामसुंदर के दर्शन के लिए तड़प उठा। उन्होंने अगली सुबह ही नन्ददास के साथ गोवर्धन की राह पकड़ी।
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मंदिर से कुछ हटकर एक झोपड़ी में एक छियासी वर्षीय अंधा लेकिन बलिष्ठ वृद्ध मगन होकर भजन गा रहा था। कुछ भक्त उनके सामने मगन होकर भक्ति रस का पान कर रहे थे। अरहर की टट्टी हटाकर दो युवा पुरुषों ने प्रवेश किया जिनमें से एक हाथ जोड़े खड़ा रह गया जबकि दूसरा भूमि पर लेटकर आँखों से अश्रु बहाता साष्टांग प्रणाम करने लगा। तल्लीनता से भजन गाते अंधे वृद्ध ने भजन समाप्त कर कुछ महसूस कर पूछा, "मेरे श्याम का दुलारा आया है क्या?"

खड़े युवक ने कहा, "बाबा! मैं मथुरा का नन्ददास। और यह मेरे मित्र रामबोला।"
बाबा बोले, "नन्ददास! यह केवल तुम्हारा ही नहीं, मेरे गोपाल का भी मित्र लग रहा है। आपका परिचय भैया?"
रामबोला अकबका कर बोले, "बाबा! मैं रामबोला। बचपन में जब पेट में अन्न का दाना नहीं होता तो आपके गाये भजन गाकर हाथ फैलाता। मेरा परिचय तो यही कि मैं अकिंचन, आपके प्रसाद पर पला, आपका रामबोला।"
बाबा सूरदास मुस्कुरा कर बोले, "पर यह तुम्हारा असली परिचय तो नहीं महराज! अपना असली परिचय दो।"
"मैं आचार्य शेष सनातन का शिष्य, पंडित तुलसी शास्त्री।"
बाबा ठठाकर हँसे और बोले, "तो तुम पंडित हो, और विद्यावान भी हो, इसलिए शास्त्री उपाधि मिली है?"
"अब जन्म तो ब्राह्मण कुल में ही हुआ, और शास्त्र पढ़े तो शास्त्री भी हुआ। नरहरि बाबा ने नाम तुलसी रखा तो यही परिचय हुआ न बाबा?"


बाबा मुस्कुराते हुए बोले, "बचवा, जब तक ई आगे-पीछे का पुछल्ला रहेगा न, तुम अपना असली परिचय नहीं बूझ पाओगे। खैर, ये बताओ कि जो पाने के लिए काशी से निकले, पा गए।"
तुलसी उदास स्वर में बोले, "नहीं बाबा। जितना भागता हूँ, उतना ही खींचता है।"
तुलसी को संकोच करता देख बाबा सूरदास से बाकी सबको जाने के लिए कहा और तुलसी के कंधे पर हाथ रख टहलने लगे। हालांकि बाबा को किसी सहारे की जरूरत नहीं थी, यह तो बस तुसली के प्रति प्रेम प्रदर्शन ही था। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद तुलसी बोले, "बाबा! बाकी बातें तो मैं आपसे बाद में जानूँगा पर पहले यह बताइये कि आपने मुझे पहली बार में गोपाल का मित्र क्यों कहा? राम और श्याम बराबर हैं, मानता हूं पर मुझे न राम मिलते हैं न श्याम, फिर मैं उनका मित्र कैसे? आप तो देख भी नहीं सकते, और मैंने कुछ बोला भी नहीं था जो आप मेरे शब्द गिनते। तो आपने यह विचार कैसे बनाया?"


बाबा बालकों की तरह हँसकर बोले, "अरे तनिक धीमें-धीमें चल भाई। इतने प्रश्न एक साथ? सुन, आँख भले न हो पर ज्योतिष विद्या मैंने भी पाई थी। बहुत दिनों तक इस विद्या के भरोसे मैंने मजे किये। फिर जैसे-जैसे श्याम के नजदीक पहुँचता गया, ज्योतिष बेकार चीज लगने लगी। फिर मुझे कुछ विचारने की जरूरत नहीं पड़ती थी, सब सहज ही मस्तिष्क में उपज जाता। जैसे तेरे आते ही लगा कि कोई श्याम सखा, साक्षात सुदामा मेरी कुटिया में आया है। तू सुदामा की तरह ही तो अपने कृष्ण को खोज रहा है। है न?"


तुलसी विगलित होकर बोले, "हाँ बाबा! पर अभी भी राम रूठे हैं। दर्शन नहीं देते।"
"देंगे। तू पहले रास्ता तो साफ कर। अभी तक तू काम को जीत नहीं पाया। पहले काम पर विजय पा, फिर एक-एक कर, या एक साथ क्रोध, लोभ और मोह को भी जीत। पर मुझे लगता है कि तू राम का कुछ ज्यादा ही चहेता है। अभी तुझे बहुत तपना है। इन सभी से होकर गुजरना है तुझे। राम तुझे बहुत कुछ देंगे, पर पहले तुझे उसके काबिल बनाने के लिए तेरी घोर परीक्षा भी लेंगे।"


अपनी बातों से तुलसी को उदास हुआ जान बाबा उनकी पीठ पर धौल जमाते हुए बोले, "अरे! परेशान क्यों होता है? राम तेरी जितनी कठिन परीक्षा लेंगे, उतना ही मीठा फल भी तो देंगे। अरे, उन्हें तुझसे अपना बहुत बड़ा काम करवाना है। तू राम का काम करेगा, पर उसके पहले उस लायक तो बनना पड़ेगा न? अच्छा! आज विश्राम कर। बाकी चर्चा कल करेंगे।"
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रामबोला: 5
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तुलसी अपने नित्य नियम के अनुसार तारों के प्रकाश में ही उठ बैठे। आस-पास की झोपड़ियों में सर्वत्र सन्नाटा था। किसी को उठा कर नदी का रास्ता पूछना अनुचित होता, इसलिए अनुमान से ही एक दिशा में बढ़ चले। घाट पर पहुँच कर मारे आश्चर्य और किंचित ग्लानि से उनका मुँह खुला रह गया। कहाँ तो वे यह सोच रहे थे कि वे सबसे जल्दी उठ कर नित्य कर्म, स्नान-ध्यान से फारिग हो लेंगे, और फिर राम-राम भजेंगे, यहाँ ज्योतिहीन और आयु के अंतिम पड़ाव पर ठहरे बाबा सूरदास दंड-बैठक पेल रहे थे। बाबा हर बैठक में सांस की लय के साथ मगन होकर मधुर आवाज में गा रहे थे।
"मुख दधि लेप किए
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥"

'अभी तुझे बहुत कुछ सीखना है रे तुलसी', तुलसी जल्दी जल्दी नित्यकर्म, स्नान से फारिग हो बाबा को दंडवत प्रमाण कर व्यायाम करने और उनके मुँह से निकलते श्रीकृष्ण के बाल्यकाल वर्णन का रसपान करने लगे। बाबा सूरदास जब व्यायाम कर चुके तो तुलसी उनके सम्मुख हाथ जोड़ खड़े हुए और बोले, "बाबा! मेरे राम के बाल्यकाल का कुछ वर्णन करो न!"

बाबा तुरन्त ही बोल पड़े,
"ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनियां।
किलकि किलकि उठत धाय, गिरत भूमि लटपटाय,
धाय मात गोद लेत, दशरथ की रनियां।।"

इतना बोल बाबा चुप। तुलसी को चैन नहीं। गिड़गिड़ाकर बोले, "बाबा, आगे?"
"आगे तू पूरा करना पंडित तुलसी शास्त्री।" तुलसी का असमंजस भांप, बोले, "घबरा मत। जब तेरे अंदर भाव जागेंगे, तब तू बालक राम को अपने आँखों के सामने चलते देखेगा, तब अपने आप ही सब होता जाएगा।"
"ऐसा होगा बाबा?

"यह तो तेरे ऊपर है बच्चा। मुझे तो मेरा श्याम सखा दिखता है। वो जैसा-जैसा करता है, मैं वैसा-वैसा बोल देता हूँ। उनको कोई लिख देता है तो सूरदास का नाम हो जाता है। नाम तो बस मेरे श्याम का, जो मुझे अपनी नटखट लीलाएं दिखाता रहता है। अच्छा छोड़ इन बातों को, आज मेरा कथा सुनने और सुनाने का मन है। ये बता कि तूने पहली रचना क्या की थी, किस परिस्थिति में की थी?"

तुलसी कुछ सोचते हुए बोले, "बाबा नरहरि ने मेरा उद्धार किया और अयोध्या जी में मेरे संस्कार करवा कर मुझे शिखा और सूत्र प्रदान किए। फिर शिक्षा हेतु अपने साथ काशी ले गए और पूज्यपाद आचार्य शेष सनातन जी को सौंप दिया। मेरी आयु दस ग्यारह वर्ष की रही होगी। गुरुजी काशी के श्रेष्ठ गुरु थे। थे क्या, अभी भी हैं। काशी और देश के सभी हिस्सों से उनके पास शिष्य आते। काशी निवासी शिष्य और दूसरे प्रदेशों के धनवान शिष्य अपने घरों में रहते और शिक्षा लेने नित्य समय पर आते। मैं अकेला था जो वहाँ सेवा-वृत्ति पर था। मुझे एक छोटा कमरा मिला था जिसमें मैं अपने बजरंगी के साथ सुख से रहता। दिन में शिक्षा और गुरुकुल के छोटे-मोटे काम, और रात में निद्रा आने तक बजरंगी से राम से मिला देने की गुहार।

"एक दिन मैं और मेरी ही आयु का सहपाठी मित्र गंगा आपस में बात कर रहे थे जो बहक कर मेरे कमरे के ऊपर छाए पीपल और उस पर रहने वाले भूत तक पहुँच गई। मन में वहम बैठ गया। रात में जब कमरे से बाहर देखता तो डर के मारे आंख बंद कर लेता। एक बार अंधेरे में नींद खुल गई तो लगा कि खिड़की से कोई झांक रहा है। मेरे मुँह से चीख निकलने को हुई पर खिड़की पर रखी बजरंगी की छोटी मूर्ति देख मुँह से निकला 'भूत पिसाच निकट नहीं आवें, महाबीर जब नाम सुनावें'। जाने कैसे मन से डर निकल गया और खिड़की से भूत की जगह जैसे साक्षात महावीर ही मेरी ओर अपने फूले हुए गालों और नाचती हुई आँखों के साथ झाँकते दिखे। मैंने उन्हें प्रणाम किया और अपने बड़े भाई समान बजरंगी को देखते-देखते सो गया।

"अगले दिन जब मैं बड़े उत्साह से गंगा को बता रहा था कि कल का भूत मेरे बजरंगी से डर कर भाग गया तो वहीं थोड़ी दूर पर बैठे अग्रज गुरुभाई बटेश्वर को मेरा यूँ बोलना पसन्द नहीं आया। वे तंत्र में रुचि रखते थे और रात्रि में किसी अन्य गुरु के साथ मणिकर्णिका घाट पर साधना करते। भूतों और पिशाचों को साधना, उनसे अपना मनचाहा काम करवाना उनकी शिक्षा का अंग था। उन्हें कदाचित अच्छा नहीं लगा कि उनसे दस वर्ष छोटा कोई बालक भूतों को ऐसे हल्के में ले। उन्होंने मुझे झूठा कहा। यह कि मेरी सारी बातें काल्पनिक थी, और भूत को भगाने में बड़ी साधना लगती है, केवल महावीर का नाम पर्याप्त नहीं।

"अब कोई मुझे झूठा कहता तो कोई बड़ी बात नहीं थी, पर अब तो बात मेरे बजरंगी पर आ गई थी। मुझे भी क्रोध आ गया और बोल गया कि एक क्या, संसार के सारे भूत, पिशाच, चुड़ैल इत्यादि जमा हो जाए, तो भी वो मेरे बजरंगी, महावीर हनुमान का नाम लेने भर से श्वान की भाँति पूछ दबा कर भाग जाएंगे। बात बढ़ते-बढ़ते परीक्षण और बदा-बदी पर आ गई। बटेश्वर भाई ने मुझे चुनौती दी कि अगर इतना ही हनुमान पर विश्वास है तो अर्धरात्रि पश्चात मणिकर्णिका घाट के शिव मंदिर में केवल एक बार शंख फूँक कर दिखला दो।

"मणिकर्णिका घाट पर सदियों से चिताएं जलती रही हैं। विश्व भर के अघोरी, कपालिक, तांत्रिक वहाँ साधना करते रहते हैं। काशी में सबका यही विश्वास है कि वहाँ रात्रि क्या, दिन में भी लाखों भूत तैरते रहते हैं। अब चूंकि शर्त बद गई थी तो मैं गुरुजी से रात में बाहर जाने की आज्ञा मांगने गया। उन्होंने कुछ प्रश्न किए और मुझे सच्चा मान, सन्तुष्ट होकर आशीर्वाद दिया।

"रात में गुरुमाता से शंख लेकर चल पड़ा। गलियों में सन्नाटा था और डर के कारण मेरी स्थिति नाजुक थी। फिर मैंने राम का नाम भजना शुरू किया। थोड़ी शक्ति मिली। घाट की सीढ़ियां उतरते समय मैं अपने हृदय की गति सुन सकता था। कुछ पल रुककर मैंने महावीर को याद किया और जैसे हृदय की गति सामान्य हो चली थी। अब तक जो अपने पीछे और सिर के ऊपर भूत चलते और उड़ते हुए से प्रतीत हो रहे थे, उनकी जगह महावीर थे। मैं जैसे उनकी छाया में चल रहा था। अपने आगे दाहिनी ओर उनके हाथ में गदा और बाईं ओर दूसरे हाथ में करताल दिख रहा था। वायु में मध्यम आवाज में राम-नाम-धुन तैर रही थी। स्वयं महावीर गा रहे थे।

"मैं पूर्णतः निःशंक होकर मंदिर की सीढ़ियां चढ़ गया। महादेव को प्रणाम किया। हर हर महादेव और जय श्री राम का जयकारा लगाया, फिर एक के स्थान पर कुल तीन बार पूरी शक्ति से शंखनाद किया। जैसे मेरे अंदर कोई ऊर्जा समाई हो। मेरा हृदय नाच रहा था। मैं सस्वर गा उठा,

'जय हनुमान ज्ञान गुन सागर
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर।
राम दूत अतुलित बल धामा
अञ्जनि-पुत्र पवनसुत नामा।
महाबीर बिक्रम बजरङ्गी
कुमति निवार सुमति के सङ्गी
कञ्चन बरन बिराज सुबेसा
कानन कुण्डल कुञ्चित केसा
... ... ...
... ... ...
... ... ...'
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रामबोला: 6
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हालांकि तुलसी अपनी कहानी सुना रहे थे पर हनुमान चालीसा का पाठ करते-करते वह पूरे भाव में आ गए थे। जब वे चुप हुए तो उन्हें लगा कि वे मथुरा में नहीं अपितु ऋष्यमूक पर्वत पर वानर समूह के साथ हनुमान के चरणों में बैठे उनकी वन्दना कर रहे हों। बाबा सूरदास भी मगन हो गए थे। सूर्योदय के साथ घाट पर आवाजाही बढ़ी और कुछ लोगों ने जब पुकार कर सूरदास को प्रणाम किया तो दोनों की तन्द्रा टूटी। तुलसी के कंधों पर अपना हाथ रखे बाबा चलने लगे और बोले, "तुमने कभी सोचा कि तुम कैसे हनुमान जी को देख सके, कैसे इतना उत्तम काव्य रच सके? तुमने अपने पूरे अंतर्मन से, शुद्ध अंतःकरण से उन्हें याद किया, उनके शरणागत हुए तो उन्होंने तुम्हें अपनी छत्रछाया में ले लिया। उसी तड़प से जब मेरे श्याम को, अपने राम को याद करोगे तो वे भी दौड़े-दौड़े आएंगे। अरे! तुम तो नर हो, वो तो गज के लिए, एक पशु के लिए भी नँगे पाँव दौड़ा चला आता है।"

तुलसी गुनते रहे फिर अचानक पूछ बैठे, "बाबा! क्या आपको कभी वासना ने, काम ने नहीं सताया?"
सूरदास ठठाकर हँसें, "क्यों रे! क्या मैं पुरुष नहीं? कामपीड़ा से कौन बचा है?" कुछ पल रुक कर बोले, "मैं समझ रहा हूँ जो तू पूछना चाहता है। तो सुन।" सांस लेकर बोले, "बालक था पर अंधा था। अंधे के साथ मित्रता तो कोई करता नहीं, तो मजाक का पात्र बना दिया जाता। कोई साथ खेलने वाला नहीं। अकेले रोता देख माँ ने श्याम की मूरत के पास बिठा कर कहा कि यही तेरा मित्र। मैं उसी के साथ बात करता, खेलता। वो चुप रहता तो झगड़ता। कभी-कभी वो मेरे अंदर से ही बोलता, जिसे केवल मैं सुन पाता। मेरे गाँव पारसौली, फिर सीही में पिता का बड़ा नाम था। उन्हें लोग भागवत महराज कहते। उनका गला बड़ा सुरीला था। कहीं भी कोई कथा-भागवत हो, उन्हें जरूर बुलाया जाता। मैं चौथा पुत्र था। सबसे बड़े भाई किसान थे, उनसे छोटे व्यापार में लग गए। मुझसे बड़े पिता के साथ गायन करते। वे मुझसे आठ वर्ष बड़े थे। जब पिता ने मेरे गले को अच्छा पाया तो संगीत की शिक्षा देने लगे। कथाओं में जाने लगा तो भाई से अधिक नाम होता। उन्हें मुझसे ईर्ष्या हो गई। बड़े भाइयों के साथ मिलकर कुचक्र रचे जाते। मेरी साहित्य की शिक्षा भी शुरू हुई, जिसमें न जाने कितने रोड़े लगाते सब।

"मुझे बुरा लगा और मैंने घर का त्याग कर दिया। जिस दिन घर त्यागा, उसी दिन सद्गुरु शूलपाणि मिले। उन्होंने शकुन विद्या प्रदान की। रमन और फलित ज्योतिष भी सिखाया। परन्तु उन्हें मेरा गाना, काव्य रचना पसन्द नहीं था। वे मुझे योगी बनाना चाहते थे जो मैं नहीं बन सका। क्षमा मांग उनसे विदा ली। फिर पंडित सीताराम जी मिले। उन्होंने अपने पुत्रों को योग्य नहीं समझा, सो सौभाग्यवश मुझे मंत्र विद्या प्रदान की।

"उन्होंने बताया था कि उनकी मृत्यु निकट है। उनकी आयु के नौ दिन बचे थे जिसमें उन्होंने मुझे यह विद्या दे देनी थी। और उनकी इच्छा थी कि नवें दिन वे अपने पुत्र के पास मथुरा पहुँच जाएं। तो उनके साथ नाव में बैठकर मैं भी मथुरा को चल दिया। वो सिकन्दर लोदी का जमाना था। मंदिर रोज तोड़े जाते, घाटों पर नहाना मना, होली-दीवाली पर खून-खराबा मामूली बात थी। हमारी नाव मथुरा से दो कोस पहले ही पहुंची थी कि लूट पड़ गई। मुझे बस इतना याद रहा कि किसी लाठी के वार से मैं पानी में गिर पड़ा।

"अगली सुबह आँख खुली तो नाव का मल्लाह कालूपरसाद मेरे पास बैठा मुझे उठाने की कोशिश कर रहा था। उसने ही बताया कि केवल हम दोनों ही बचे थे और उसकी नाव लूटेरे ले गए। तब तक मैं अपने पूरे होश में आ गया था। मैंने गणना कर उसे बताया कि उसकी नाव एक कोस आगे नदी में डुबोई गई है और उसमें छुपाया हुआ माल भी सलामत है। माल किसी सेठ का था, दो संदूक भर कर सोना। कालू सुनकर उछलने लगा और मुझे वहीं टिकाकर, मेरे खाने-पीने की व्यवस्था कर अपने सेठ के पास भागा।

सेठ चन्दनमल मथुरा का बड़ा व्यापारी था। उसने मेरे लिए निवास की व्यवस्था करनी चाही पर मुझे उसी विश्रामघाट के मणिकर्णिका कुंड पर रहना अधिक सुहाया। वहीं रहने लगा। कालू और चन्दनमल ने मेरी ज्योतिष विद्या का अच्छा प्रचार किया। अच्छे-बुरे सभी तरह के लोग मेरे पास आते। उनका भविष्य बाँचता और श्याम को याद करता, उसके भजन गाता। जाने क्यों, बचपन का श्यामसखा अब मेरी बात का उत्तर नहीं देता था। कालू जब-तब आकर मेरी सुध ले लेता था। वो नहीं आता तो उसकी बहन कन्ता आ जाती। कन्ता को कम दिखाई देता था, कुछ कुरूप भी थी जो उस उमर तक कुँवारी थी। मैं अंधा, वो अधिकांशतः अंधी। मेरी बातें उसे भली लगती। कुछ मेरी भी कमजोरी रही होगी जो उसे कुछ संकेत मिला होगा। जब कोई तुम्हें लगातार उस दृष्टि से देखे, मान दे तो मन में विकार आने लगते हैं। मैं भी उसकी तरफ झुकने लगा।

"बचने के लिए मैं विश्रामघाट से भाग गया। मथुरा रहा। मथुरा में बहुत सारे धनवानों ने मुझे अपने सर माथे बैठाया। ज्योतिष विद्या ने अन्न तो दिया, साथ ही अभिमान भी दिया। माया ने ईश्वर को दूर कर दिया। घबरा कर मथुरा से भागा तो जैसे-तैसे नदी पार कर गोकुल पहुँचा। वहाँ एक महात्मा मिले, दाऊ बाबा। उन्होंने मुझे बड़े प्रेम से अपने पास रखा। उनके साथ रहता। गाँव के अहीरों, और शहर से भगाए गए हिंदुओं को कथा सुनाता। जाने कैसे कन्ता वहाँ भी पहुँच गई। मैं परेशान होकर दाऊ बाबा के पास गया तो उन्होंने डाँट लगाते हुए कहा कि पाप है मन में जो भागता फिरता है? पाप नहीं है तो कन्ता साथ रहे या नहीं, क्या अंतर पड़ता है? क्या यश-अपयश का डर है? मन में श्याम है तो कुछ अनुचित हो ही नहीं सकता और यदि मन में कुछ अनुचित है तो श्याम कभी मेरे नहीं हो सकते। मैंने अपने मन को कसने के लिए, जाँचने के लिए कन्ता को अपने साथ बने रहने दिया।"

तुलसी मंत्रमुग्ध हो बाबा की जीवनी सुन रहे थे। उनके अचानक चुप हो जाने पर हठपूर्वक पूछ पड़े, "फिर?"
"फिर! हाँ, तो कुछ दिनों में यहाँ भी मेरी ख्याति बढ़ने लगी। मैं एकांत चाहता था, सो वहाँ से भी चल पड़ा। कन्ता भी पीछे-पीछे चल पड़ी। मेरा विचार काशी जी जाने का था। पैदल-पैदल हम अंधों की जोड़ी चली जा रही थी। रात में कन्ता पूरी अंधी हो जाती तो किसी पेड़ के नीचे रुक जाते। एक बार दिन में चलते समय बदली छा गई। कन्ता को दिखना बन्द हो गया, मैं भी कुछ सोच में मगन था तो हम रास्ता भटक गए। उस तरफ चल पड़े जिधर मुसलमानों के गाँव थे। किसी पठान का एक बैल मर गया था। उसने दो अंधे काफिरों को देखा तो हमें बैल की जगह कोल्हू में जोत दिया।

"श्याम घनघोर परीक्षा ले रहा था। दिन भर कोल्हू पीसकर रात में सूखी रोटियां मिल जाती। एक बार मैं तड़प कर श्याम को पुकार बैठा, गाने लगा। उसके बाद तनिक सा भी आराम मिलता तो गाने लगता। सब कहते कि यह काफ़िर गाता बढ़िया है। आसपास के गाँव तक भी मेरी खबर पहुँच गई। एक दिन पैर में गिल्टी के कारण मैं बहुत कमजोर हो रहा था, कन्ता को बार-बार अपना काम छोड़ मुझे सहारा देना पड़ता। मालिक को इसपर क्रोध आया तो कन्ता को छड़ी से पीटने लगा। मैंने बीच-बचाव किया तो मुझे डंडे पड़ने लगे। मुझे मार खाता देख उस भली औरत को बहुत गुस्सा आया। उसने उस मुसलमान की दाढ़ी खींचकर उसे गिरा दिया और उसके सीने पर चढ़ बैठी। हकबकाये आदमी ने अपने हवास ठीक किए और गुस्से में पागल होकर कन्ता की गला दबाकर हत्या कर दी। कुछ दिनों बाद एक हिन्दू धनवान ने मुझे चार बैलों के बदले में उस मुसलमान से छुड़वाया और काशी भिजवाने का प्रबंध कर दिया।"
"फिर?"
"फिर कुछ नहीं रे, कुछ वर्ष काशी में रहा। फिर वापस मथुरा आ गया। अब यहाँ हूँ।"
"बाबा! मेरे लिए क्या आज्ञा है?"

"तुम राम को खोजने निकले हो तो राम तो मिलेंगे ही। पर तुम तो काम से भाग रहे हो। अपने जीवन से मैंने तो यही पाया कि जितना भागोगे, काम उतना ही पीछे आएगा। काम से भागो मत, उसे साध लो। राम तो बस एक हाथ की दूरी पर हैं।"
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रामबोला: 7
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स्नान-ध्यान से मुक्त होकर तुलसी रोज सुबह की तरह बाबा सूरदास के साथ बैठे चर्चा कर रहे थे। आज वे कुछ उद्विग्न से थे। उनकी उद्विग्नता भाँप कर बाबा बोले, "क्या बात है शास्त्री जी! इतना परेशान क्यों हैं।"
तुलसी बोले, "बाबा! आप मुझे शास्त्री जी न कहा करें।"

"अरे भाई, विद्या का सम्मान तो होना ही चाहिए। शास्त्री बनने के लिए जो परिश्रम किया गया, उसके प्रति सम्मान है यह। दूसरे तो सम्मान करेंगे ही, पर व्यक्ति अपनी विद्या का सम्मान नहीं, वरन अभिमान करने लगता है। सुनो सबकी, पर चुनो वही जो श्रेष्ठ हो। खैर छोड़ो, बताओ कि परेशान क्यों हो?"

"बाबा! समझ नहीं आता कि क्या करूँ? कहाँ जाऊं? मानसरोवर, बदरीनाथ, हरिद्वार होते हुए यहाँ मथुरा आ गया। यूँ तो सब ठीक है पर कब तक भटकता रहूंगा। कल तक यही मन बनाया था कि आपके पास ही रह जाऊँ, पर कल स्वप्न में ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे हनुमानस्वामी मुझे आगे बढ़ने को कह रहे हैं। कहाँ आगे बढूं, कहाँ जाऊँ?"

"अब तेरे हनुमान ने कह दिया है तो जा। यह तो श्याम की नगरिया है, राम का शहर तो अयोध्या है। वहाँ जा। कुछ दिन वहाँ रह। उसके बाद अपने जीवन की वहीं से शुरुआत कर जहाँ से तेरा जीवन शुरू हुआ था।"
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अयोध्या में कुछ माह बिताने के बाद उनका मन ग्लानि और खेद से भर चुका था। राम की अयोध्या, और विदेशियों का राज! राज तो फिर भी सहन हो जाए पर आस्था पर निरंतर प्रहार! गलियों में विक्रय हेतु गौवंश का माँस! जन्मभूमि पर बने मंदिर के भग्नावशेष! देख कर हृदय धधक उठता कि उस मंदिर के पत्थर यूँ ही बिखरे पड़े हैं और देशी-विदेशी प्रजा उन्हीं पर अपने पैरों से चलती चली जाती है। विवशता तब चरम पर पहुँच कर अश्रु बन चली जब रामनवमी के दिन जनता को मस्जिद बना दिए गए मंदिर तक जाने से रोकने का फरमान जारी हुआ और इसका विरोध करने दूर-दूर से दल बनाकर अयोध्या आये साधुओं और लड़ाका जातियों के वीरों को काट डाला गया।

वे उस पीड़ा से व्यथित होकर अयोध्या से आगे बढ़ने का विचार करने लगे। उन्हें बाबा की बात याद आती कि जहाँ से जीवन शुरू हुआ था, वही से जीवन शुरू कर। पर जीवन किसे माने? वह गाँव जहाँ जन्म हुआ, या वह महादेव की काशी जहाँ जन्म को कोई अर्थ मिला?

उन्होंने अंततः अपने जन्म स्थान जाने का निर्णय किया।
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घाट पर उतर कर उन्होंने नाव वाले से पूछा, "भैया! यहाँ संत-साधु को शरण कहाँ मिल सकती है?
नाव वाला केवट बोला, "महराज! छोटी सी जगह है यह। यहाँ तो कोई धर्मशाला है नहीं। बाकी राजा नाम से अहीर हैं एक। बहुत संत मनई हैं। इधर आने वाले सब महात्मा जी लोग उन्हीं के यहाँ पधारते हैं। यह सेवा-सत्कार उन्हीं के बस का है भी। तीन-चार सौ गायें, बहुत सारी खेतिहर जमीन है उनके पास।" थोड़ा रुककर और किसी को देखकर फिर बोला, "अरे देखिए न! नाम लिए और राजा भैया चले आ रहे हैं।"

तुलसी ने देखा कि उन्हीं की आयु का एक बलिष्ठ युवक सीढ़िया उतरता चला आ रहा है। रास्ते में मिलने वाले सभी लोगों को अभिवादन करता यह युवक उन्हें पहली नजर में ही भला लगा। केवट ने राजा से तुलसी का परिचय करवाया। राजा तुरन्त ही खुशी-खुशी उन्हें अपने साथ ले चले।
राजा ने चलते-चलते पूछा, "किधर से आना हुआ महराज?"
"तीर्थयात्रा पर निकला हूँ भाई। राम-श्याम की जन्मस्थली से होता हुआ अब अपनी जन्मभूमि पर आया हूँ।"
"आपकी जन्मभूमि? कौन गाँव पड़ी महराज?"
"यही विक्रमपुर।"
"कौन घर महराज? इस पार तो कोनो बाभन परिवार नहीं अब। औ बिकरमपुर भी अब यहाँ कहाँ, नदी पार ही है अब बिकरमपुर।"
"ओह! पर मेरे जन्म के वक्त रहा होगा। मेरे पिता का नाम पंडित आत्माराम है।"

आत्माराम का नाम सुनते ही राजा चहक पड़े और बोले, "अहाहा! तो आप जोतिष जी महराज के बेटे हैं? अरे महराज! हमारा जन्म आपसे एक दिन बाद हुआ रहा। एह नाते आप हमारे भैया हुए।"
राजा की प्रसन्नता से संक्रमित हो तुलसी बोले, "हाँ राजा! हम तुम्हारे भैया और तुम हमारे राजा। पर यह तो कहो कि विक्रमपुर को क्या हुआ?"

"अरे, जिस बखत हम लोग का जनम हुआ रहा, उ समय पठानों और मुगलों में ठनी रही। हमारे राजा साहेब पठानों के साथ रहे। एक दिन मुगल फौज इधर निकल आई और खूब हत्या-लूट हुई। अहीर, बाभन, छतरी, जुलाहा सातों जात के सुरमा लड़े पर टिड्डी-दल से कौन बचा! हमारे बाप-चाचा, तुम्हारे बड़े महराज सब बलि चढ़ गए। फिर यहाँ हमारे जैसे कुछ परिवार रह गए, बाकी उस पार बस गए। अब तुम आ गए हो तो लगता है बड़े महराज खुदे आ गए हैं। अब ई गाँव भी बस जाएगा।"

"अरे भाई, मैं रमता जोगी, बहता पानी। मुझे कहाँ रोक रहे हो यहाँ!"

"भैया, केतना भी बहता पानी तो, कहीं तो रुकता ही है। ये जमुना जी भी तो प्रयाग में रुकती ही हैं। तुम भी रुक जाओ। यही रहो। बच्चों को पढ़ाओ। भजन करो। विवाह करो। हमें अपनी सेवा का मौका दो।"

तुलसी को हँसता देख राजा फिर से बोले, "भैया, यहीं रह जाओ। मैं तुम्हारे लिए उस स्थान पर कुटिया बनवा दूंगा जहाँ सीताराम जी भाई लक्ष्मण जी के साथ चित्रकूट जाते समय नाव से उतरे थे।"
तुलसी आश्चर्यचकित और प्रसन्न होकर बोले, "सच में ऐसा हो सकता है? तब तो तुम्हारी ही सही राजा। जैसा तुम कहो। पर विवाह की जिद मत करना।"
"चलो कोई नहीं, रहना तो शुरू करो। शादी-ब्याह बाद में होता रहेगा।"

तुलसी मुस्कुरा कर रह गए।
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रामबोला: 8
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कुटिया बन कर तैयार हुई और तुलसी बच्चों की तरह अंदर-बाहर, नदी किनारे फुदकते रहे। यहाँ भैया लक्ष्मण और जानकी माता के साथ प्रभु श्री राम आए थे। यहाँ की भूमि पर उनके पाँव पड़े और अब तुलसी इस भूमि पर रहेंगे, यह विचार इतना उत्साहित करने वाला था कि उनके अंदर का कवि चहक-चहक जाता, काव्य का स्रोत बाहर आने को मचल उठता। उधर राजा भैया ने भरपूर प्रचार किया कि काशी से पढ़कर लौटे पंडित आत्माराम के सुपुत्र पंडित तुलसीदास शास्त्री अपने घर वापस आ गए हैं और अब यहीं प्रवचन करेंगे।

प्रचार का व्यापक असर पड़ा था। प्रवचन के दिन भारी भीड़ जुटी। प्रवचन करने का तुसली का यह पहला ही अवसर था। प्रथम प्रयास और इतनी भीड़, हिचक और उत्साह का विषम संयोग। तुलसी ने अपनी आँखें बंद की और उन्हें दिखाई दिए नाव से छलांग लगा कर उतरते कुमार लक्ष्मण। उन्होंने मल्लाह के साथ मिलकर नाव को किनारे लगाया और नाव को इतनी कस कर पकड़ लिया कि वह तनिक भी न हिले। नाव के डोलने से भैया-भाभी को कष्ट नहीं होना चाहिए। श्रीराम उतरे और उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया। माता सीता उसे हौले से पकड़ उतर पड़ी। किनारे पर उनके स्वागत को खड़ा जन-समुदाय आगे बढ़ा और राम उनसे उनका इस तरह से कुशलक्षेम पूछते हैं जैसे वे उन्हें बरसों से जानते हों।

ऐसा खाका खिंचा कि तुलसी गा उठे,
"जलजनयन , जलजानन जटा है सिर,
जौबन-उमंग अंग उदित उदार हैं
साँवरे-गोरे के बीच भामिनी सुदामिनी-सी,
मुनिपट धारैं, उर फूलनि के हार हैं॥
...
...
..."

इस कलिकाल में भी संत तो बहुत थे, यद्यपि अधिकांश संत-वेषधारी लंपट थे, पर ऐसा सुरीला गाने वाला, इतना सहज और सजीव वर्णन करने वाला संत जो शब्दों द्वारा चित्र खींच दे, उस क्षेत्र की जनता ने पहली बार ही देखा था। एक कान से होते हुए दूसरे कान तक तुलसी के प्रवचन का इतना प्रचार हुआ कि दो ही दिन में भीड़ दस गुनी हो चली। सात दिन के प्रवचन में इतना चढ़ावा चढ़ा कि वर्ष भर के लिए अन्न पूरा पड़ गया और तांबे के सिक्कों के ढेर और चांदी के कुछ सिक्के भी जमा हो गए। इस धन-धान्य को देख तुलसी को संतोष हुआ कि अब आजीविका का कोई संकट नहीं। बस रामनाम जपो, और भजन करो।

कुछ ही हफ़्तों में उजड़ा सा गाँव बसने लगा। राजा प्रसन्न मन तुलसी के पास गए और बोले, "भैया! हम कह रहे थे कि तुम्हारे चरण बहुत शुभ पड़े इधर। गाँव बसने लगा है। हमको लगता है कि तुमरे प्रताप से ये गाँव उस पार वाले बिकरमपुर से ज्यादा खुशहाल रहेगा। बाद में कहीं गाँव के नाम पर ही झंझट न हो जाए तो हमारे विचार से इस गाँव का कुछ नाम रख देना चाहिए। तुम क्या कहते हो?"


तुलसी बोले, "हम भी वही कहते हैं जो तुम कहते हो। तो बताओ, क्या नाम सोचा है?"

"हम तो कहते हैं कि तुम्हारे ही नाम पर न रख दें! तुलसीनगर या तुलसीपुर।" तुलसी के मुँह पर अप्रसन्नता देख राजा जल्दी से बोले, "या राम जी के नाम पर रामनगर, नहीं तो रामपुर?"
तुलसी मुस्कुरा कर बोले, "रामपुर तो हर दस कोस पर हैं ही। यह गाँव तुम्हारी वजह से आज भी सलामत है तो इसका नाम राजापुर होगा।"

थोड़ी नानुकुर के बाद राजा मान गए और जेब से दो सोने के और दस चांदी के सिक्के निकाल तुलसी की चटाई पर रख कर बोले, "उस पार गए थे तो पाठक जी ने थमा दिया। जो कुंडलियां उन्होंने तुम्हें भेजवाई थी उसी का चढ़ावा दिया जजमानों ने। पाठक जी का तो तुम्हें पता ही है कि इस क्षेत्र के सबसे बड़े जोतिष महराज हैं। बता रहे थे कि वो तुम्हारे पिता बड़े महराज के बाल सखा थे और उन्हें जोतिष बिद्या में खुद से बहुत ऊपर मानते थे। हमारे बताने से पहले ही वो तुम्हारे बारे में सब जानते थे। बोले कि लगता है उनके आत्माराम ही वापस आ गए हैं। दस-पाँच दिन में यहाँ आएंगे, नहीं तो तुम्हें ही कहा है कि समय निकाल कर दर्शन दे जाना।"

तुलसी के नेत्र उन स्वर्ण और रजत मुद्राओं पर और कान राजा की बातों में लगे हुए थे। वे सहसा बोले "राजा! ये तो बताओ कि इन मुद्राओं का क्या करना है? हम सोच रहे हैं कि इनसे हमारे महावीर बजरंगी का एक मंदिर बन जाए। जिस दिन शिलान्यास हो, उसी दिन गाँव का नाम भी घोषित कर दिया जाए। बहुत जल्दी न हो तो पाठक जी से भी उसी दिन मिल लिया जाएगा।"
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शिलान्यास के दिन पाठक जी से भेंट करते समय तुलसी को लगा ही नहीं कि वे किसी अनजान व्यक्ति से मिल रहे हैं। यद्यपि कई महीनों से उन दोनों के बीच व्यावसायिक सम्बन्ध तो बन ही चुके थे। अपनी ढलती आयु को देखते हुए और तुलसी को योग्य पाकर पाठक जी अपने जजमानों की कुंडलियां तुलसी के पास भिजवाते रहते थे। पाठक जी ने तुलसी को उनके पिता की बहुत सी बातें बताई, उनके बारे में पूछा और जाने कब व्यावसायिक सम्बन्ध पारिवारिक सम्बन्ध जैसे हो गए। मालूम चला कि पाठक जी का कोई पुत्र नहीं है, एकमात्र सन्तान पुत्री रत्नादेवी है जिसके लिए योग्य वर की तलाश है। यों तो सजातीय और सम्पन्न वरों की कोई कमी नहीं परंतु रत्ना के लायक पाठक जी को कोई मिला ही नहीं। रत्ना मात्र युवती ही नहीं थी, मेधावी युवती थी। पाठक जी जब अपनी ज्योतिष विद्या अपने भतीजे को देने का प्रयास करते तो वह खेलने के लिए अन्य किसी भाई-बहन की नितांत अनुपस्थिति में पिता और चचेरे भाई के साथ बैठ जाती। जो बात लाख जतन कर भी भतीजे गंगेश्वर के मस्तिष्क में न घुसती, पुत्री रत्ना झट समझ लेती। कुंडली इत्यादि बनाने में अब उनकी साथ देती थी। पाठक जी गर्व से कहते कि उनकी रत्नावली ज्योतिष में उनके टक्कर की है। काश कि वह पुत्र होती। उनके मरने के बाद बारह पीढ़ियों से चली आ रही गद्दी सूनी न पड़ती।

पाठक जी ने उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण दिया और राजा को राजापुर गाँव के फिर से बस जाने की बधाई दी और प्रसन्न मन, तथा मन में एक निश्चय बांध लौट चले। इधर तुलसी पुनः भजन-कीर्तन और ज्योतिष बखानने में अपना समय प्रसन्न होकर काटने लगे।

वे कई दिनों से देख रहे थे कि उनके शांत मन में बार-बार विघ्न पड़ रहा है। प्रवचन पर भीड़ तो अब भी उतनी ही जमा होती पर महिलाओं की संख्या बढ़ गई थी। कुछ महिलाएँ विशेष प्रयास कर आगे बैठती और तुलसी का ध्यान आकर्षित करने हेतु विशेष प्रयत्न करती। कोई घूरती ही चली जाए तो कोई सायास झुक कर बैठे। किसी का पल्ला बार-बार गिरे तो किसी के होंठ अजीब तरह से दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे हो। वे झुंझला उठते। रहा नहीं गया तो राजा से बोल पड़े, "अरे भाई, इन औरतों को क्या हुआ है? ये इतना अजीब विन्यास बना कर क्यों बैठती हैं?"

राजा ठट्ठा मारकर हँसे और बोले, "भैया, गुड़ की भेली पर मख्खियां और चींटियां तो लगेंगी ही। तुम सुंदर हो, जम के कसरत करते हो जैसे पहलवानी लड़नी हो, फिर गाते एतना सुंदर हो और बड़ी बात की साधु हो, ब्रह्मचारी हो।"

"तो भाई, ये कोई अपराध है?"

"अरे नहीं भैया। हम तो ये कह रहे थे कि तुम उनकी निगाह में जोग्य तो हो ही, पर ब्रह्मचारी होने के कारण दुर्लभ भी हो। औ आदमी को तो जो नहीं मिल सकता, उसी के पीछे भागता है। जदी तुम्हारा बियाह हो गया होता, घर में हमारी भौजाई होती तो मजाल जो कोई ऐसी ओछी हरकत करता।"

तुलसी को चुप देख राजा अनुनय भरे स्वर में बोले, "ए भैया! तुम कहो तो हम जरा आसपास देखे तुमरे जोग कोई जो हमरी भौजाई बन सके? कुछ नहीं तो तुम्हारे लिए रोटी ही पका देगी और हम भी कब तक ये तुम्हारे अनाज और पैसों का हिसाब रखें?"

तुलसी 'हे राम' बोल आँख मूंद चुप मार गए।
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रामबोला :9
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वैसे तो सब ठीक चल ही रहा था। भजन-कीर्तन तो चलता ही रहता था, मंदिर बन गया तो गाँव की प्रतिष्ठा भी हो गई। आस-पड़ोस के बच्चे भी आ जाते जिन्हें पढ़ाने में तुलसी को असीम आनन्द मिलता। पठन-पाठन का पुराना अभ्यास था ही। फिर उनके ज्योतिष विद्या का भी बहुत नाम हो गया था। पाठक जी अपने जजमानों की कुंडलियां तो भेजते ही रहते थे, अब कई लोग स्वतंत्र रूप से भी उनके पास आने लगे थे। कई छुटभैये ज्योतिषियों का बाजार खराब होने लगा। जब किसी गुणी के कारण किसी के पेट पर लात पड़ती है तो उस गुणी के अवगुणों को खोजा जाता है। और यदि ढूंढने से भी अवगुण न मिले तो अवगुण पैदा करने वाली परिस्थितियों को पैदा किया जाता है। वही यहाँ भी होने लगा।

तुलसी के ब्राह्मण न होने पर भ्रांतियाँ फैलाई जाने लगी, पर अधिक सफलता इसलिए नहीं मिली कि पाठक जी जैसे पुराने और राजा अहीर जैसे नए और इज्जतदार लोग तुलसी के पक्ष में थे। जन्म में कीड़े निकालने में सफलता नहीं मिली तो कर्म में किसी कीड़े की खोजबीन चालू हुई।

तुलसी के भजन में यूँ भी बहुत सारी भक्तिनें आने लगी थी। एक युवा विधवा ब्राह्मणी सुबह से शाम तक द्वार पर बैठी रह जाती। किसी छोटे जमींदार घराने की बहू आवश्यकता से अधिक दक्षिणा देती और प्रणाम करते समय जानबूझकर तुलसी के पैरों को देर तक स्पर्श किए रहती। यद्यपि तुलसी अधिक ध्यान नहीं देते पर सतत प्रयासों पर तो विश्वामित्र जैसे ऋषि की तपस्या भंग हो गई थी, तुलसी तो निरे युवा ही थे। एक बार जमींदार बहू का हाथ घुटने से कुछ ऊपर आ गया तो तुलसी तिलमिला गए। राजा से कहा तो उन्होंने उस महिला को सख्ती से डपट दिया। परन्तु असली समस्या विधवा ब्राह्मणी थी। निरीह सी लड़की, न कुछ बोलती, न किसी की कुछ सुनती। बस दिन भर तुलसी के आँगन में पड़ी रहती। भजन के समय भजन सुनती, अन्य समय में फूलों को पानी दे देती, नदी से पानी भर लाती, जमीन लीप देती। करने को सौ काम होते, और वह सब कर देती।

एक बार तुलसी मंदिर से वापस लौटे तो देखा कि ब्राह्मणी उनकी रसोई में घुसी दोपहर का खाना बना रही है। वे उल्टे पाँव जो वापस लौटे तो तीन दिन तक मंदिर पर ही बैठे रहे। विचारते रहे कि क्या यह ब्राह्मणी और मैं, बाबा सूरदास और उनकी कन्ता जैसे हैं? यदि वे किसी महिला के साथ रहकर भी उससे पर्याप्त दूर रहकर श्याम को हृदय में बसाए रह सकते थे तो मैं क्यों नहीं? फिर अपने ही तर्क को काट दिया कि बाबा सूरदास और तुलसीदास में अंतर है। उनका लगाव दैहिक नहीं था, उसमें वासना नहीं थी। और यहाँ तो वासना साफ झलक रही है। नहीं, नहीं, अब नहीं। काशी से मोहिनी को छोड़कर भागा तो क्या चित्रकूट में वापस उसी कुएं में कूदने के लिए!

राजा भैया तीसरे दिन उन्हें समझा-बुझा कर घर ले आये। ब्राह्मणी को भी समझ आ गया कि यहाँ दाल नहीं गलेगी तो उसने आना छोड़ दिया। पर नुकसान तो हो चुका था। विरोधियों को बातें बनाने का मौका मिल गया। 'अरे, कोई आदमी इतनी कम उम्र में साधू बनता है क्या? हो न हो, काशी में भी कोई गुल खिलाया होगा इसने। शरीर तो देखो, किसी साधू को इतने कसरती शरीर की क्या आवश्यकता? अवश्य ही नारियों को आकर्षित करने के प्रयोजन से इतनी कसरत करता है ये। अरे, कुछ तो विचार कर इसके पिता ने इसका बचपन में ही त्याग किया होगा।'

इन बातों का कोई ओर-छोर तो था नहीं, पर तुलसी को जब इन सब बातों की सूचना मिलती तो वे व्यथित हो जाते। हालांकि वे यह जरूर सोचते कि मुझे सभी परिस्थितियों में सम रहना चाहिए। पर मनुष्य की प्रकृति है कि जो वह नहीं हैं, यदि बार-बार उसे वही बताया जाय तो संसार के समक्ष स्वयं को निरपराध दिखाने की ललक बढ़ती जाती है। राजा ने सुझाव दिया था कि यह सब बातें तभी तक हैं, जब तक विवाह नहीं हो जाता। विवाह से मात्र स्त्रियों को ही सुरक्षा प्राप्त नहीं होती, पुरुषों को भी होती है। समाज विवाहित मनुष्य और विवाह की आयु पर पहुँचे मनुष्य, दोनों के प्रति विपरीत रूप से पक्षपाती होता है। विवाहित को आमतौर पर ठहरा हुआ, सच्चरित्र और अविवाहित के चरित्र को सदैव ही फिसलने को तत्पर मानता है।

तुलसी सोचते, 'तो क्या मुझे विवाह कर लेना चाहिए? जैसा मेघा भगत का सधा कि वे सामने बैठ कर गा रही वैश्या का सिर्फ भजन सुन पाए, जैसा सूर का सधा कि न्योछावर होने को तत्पर युवती को अपने साथ तो रहने दिया और न केवल खुद, अपितु उसे भी शरीर छोड़ आत्मा से प्रेम करना, निष्काम प्रेम करना सिखा दिया, वैसा मेरा मन तो नहीं सधता। मैं तो मोहिनी की आशंका से ही काशी छोड़ भाग आया, यहाँ भी उस बेचारी से डरकर मंदिर में बैठा रहा। यदि मेरा मन सधा होता तो क्या मुझे काशी या इस कुटिया से भागने की आवश्यकता होती? फिर देखा जाए तो कितने ही संत-महात्माओं ने विवाह किया है, इसके पश्चात भी उन्हें हरि दर्शन हुए। स्वयं हरि ने भी तो विवाह किया था। वासना से मुक्त होने के चक्कर में वासना अधिक जोर मारती है। क्या यह अधिक उचित नहीं कि उचित विधि से इस वासना का शमन किया जाए और फिर उससे मुक्त होकर एकांतचित्त होकर हरि भजन हो।'

वे यह सब सोच ही रहे थे कि राजा ने उन्हें याद दिलाया कि कल प्रातः उन्हें पाठक जी के यहाँ चलना है।
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पाठक जी चाहते थे कि आम जनमानस में जो प्रभाव तुलसी का पड़ चुका है, उसे संभ्रांत वर्ग तक भी पहुँचाया जाए। उन्होंने इसी उद्देश्य से वाल्मीकि रामायण का पाठ रखवाया था और तुलसी से साधिकार आग्रह किया था कि कथा वे ही सुनाए। अंधा क्या मांगे, दो आँखें। तुलसी तो आज तक इस डर से ही पाठक जी के घर नहीं गए कि कहीं पाठक जी उनके हाथ में अपनी बेटी का हाथ न थमा दें। अब इस रामायण कथा से इसकी आशंका कम हो चली थी कि ऐसे वातावरण और इतनी भीड़ में पाठक जी ऐसी कोई बात चलाएंगे। उधर पाठक जी ने रामायण का पाठ इसलिए भी रखवाया था कि तुलसी रत्ना को और रत्ना तुलसी को देख-परख लें। अपने मन में तो वे तुलसी को अपना दामाद मान ही चुके थे। वे तो जब भी रत्ना को देखते, उन्हें उसके दाहिने तुलसी खड़े दिखाई देते। यद्यपि वे चाहते तो घरजमाई थे पर कदाचित तुलसी को यह पसन्द न आता। एक नदी का ही तो अंतर था। इतना गुणी दामाद, नदी उस पार भी हो तो सौदा बुरा नहीं था।

तुलसी जब पाठक जी के यहाँ पहुँचे तो आवभगत देख अभिभूत हो उठे। इतना मान-सम्मान तो उन्हें कभी स्वप्न में भी नहीं मिला था। बांदा से लेकर चित्रकूट तक के नामी पंडित और बड़े जमींदार, सोने और हीरों की अंगूठियां पहने पचासों व्यापारी और सैंकड़ों की संख्या में उपस्थित आम जनसमुदाय, इन सबसे तुलसी का परिचय करवाया गया कि आप इस क्षेत्र के महान ज्योतिष पंडित आत्माराम जी के सुपुत्र हैं और काशी में वर्तमान सर्वश्रेष्ठ गुरु श्री शेष सनातनजी महराज के शिष्य हैं एवं वेद-वेदांग, उपनिषद, श्रुति, ज्योतिष, साहित्य में प्रवीण हैं। कुछ समय पश्चात तुलसी ने रामायण कथा शुरू की। वे वाल्मीकि रामायण के श्लोकों को तो सुमधुर कंठ से गाकर, भाषा में उनका अर्थ तो बताते ही जाते, बीच-बीच में भाषा में स्वरचित पद्य का भी पाठ कर जाते। इतनी लालित्य पूर्ण भाषा, संस्कृत का शुद्ध उच्चारण, डूबकर कथा कहने की कला और चित्र खींच देने वाली शैली ने तुलसी को कहीं ऊँचे पायदान पर बैठा दिया।

पाठ समाप्त होने पर, उस दिन के अतिथियों को भोजन इत्यादि करवाकर, अगले दिन पुनः आने का निवेदन कर विदा किया गया और पाठक जी तुलसी को लेकर अपने बैठके में आ गए। वहाँ उनके एक-दो सम्बन्धी भी थे। ज्योतिष पर ही बात चली तो पाठक जी तुलसी से उन्हीं की कुंडली के बारे में पूछ बैठे कि क्या उन्होंने अपनी कुंडली देखी है। तुलसी जानते तो थे कि अब मुझे घेरा जा रहा है, हो न हो विवाह के बारे में पूछा जाएगा इसलिए चुप मार गए। पाठक जी ने फिर कुरेदा और कुछ सोचकर बोले, "तुम्हारी कुंडली को लेकर एक ज्योतिष का विचार हम सबसे अलग है।"

तुलसी ने भृकुटियां सिकोड़ी तो पाठक जी बोले, "रुको, तुम्हें उस ज्योतिष से ही मिलवाते हैं।" इतना कह वे रत्ना, रत्ना पुकारने लगे। तुलसी नहीं चाहते थे कि वे रत्ना के सामने पड़ें पर रत्ना को आना ही था, आ ही गई। सभी को यथोचित अभिवादन कर पिता से बुलाने का कारण पूछा तो पाठक जी पूछ पड़े कि उसने जो उस विशिष्ट कुंडली के बारे में बताया था, जरा सबके सामने तो बताए। रत्ना ने विधिवत बताया कि सबके मतानुसार कुंडली का स्वामी अभागा नहीं है, अपितु परम सौभाग्यशाली है क्योंकि व्यक्ति अभुक्तमूल नक्षत्र के चतुर्थ चरण में पैदा हुआ था। अन्य ज्योतिष उन्हें प्रथम चरण में पैदा हुआ मानते थे, क्योंकि उनकी माता का तुरन्त और पिता का कुछ वर्षों बाद निधन हो गया था। पर रत्ना के अनुसार चरण चतुर्थ ही था क्योंकि जातक निरंतर ही प्रसिद्धि और समृद्धि की ओर अग्रसर है। श्रद्धेय आत्माराम जी से भी उस संकटकाल के दौरान मामूली गलती हो जाना बड़ी बात नहीं मानी जानी चाहिए।

जिस रत्ना से तुलसी बचना चाहते थे, उसी की विद्वता से इतने प्रभावित हुए कि उनका दृढ़ निश्चय कुछ कमजोर सा पड़ गया। अगले सात दिन वे निरंतर रामायण पढ़ते रहे, और विश्राम के समय पाठक जी, उनकी सुपुत्री रत्नावली, भतीजे गंगेश्वर व अन्य परिजनों के साथ ज्योतिष और अन्य विषयों पर चर्चा करते। अंतिम दिन तक मनों अन्न, ढेर ताम्र-रजत-स्वर्ण मुद्राएं और कुछ गौवें जमा हो गई। अंतिम दिन चर्चा के समय तुलसी ने आग्रह किया कि इस धन-धान्य को पाठक जी अपने ही पास रखे। उस समय रत्ना नहीं थी। रत्ना के हँसमुख और मुँहफट मामाजी थे। उन्होंने हँसते हुए कहा, "अरे बचवा! ई सब की चिंता आप तनिक मत कीजिये। ई सब हमारी भांजी सम्भाल लेगी।" तुलसी सर झुका कर चुप रह गए।

इस चुप्पी से पाठक जी को बहुत बल मिला। जो वो कहना चाहते थे, उसकी भूमिका उनके साले ने तैयार कर दी थी। विदाई के समय नाव पर चढ़ाने से पहले पाठक जी ने तुलसी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "निकट शुभमुहूर्त में गंगेश्वर फलदान लेकर आएगा। राजा से कहना कि कल आकर मुझसे मिल ले।"

तुलसी ने सिर झुका कर उत्तर दिया, "जो आज्ञा।"
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#रामबोला: 10
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तुलसी नित्य की भांति यमुना में स्नान कर मंदिर में हनुमान के दर्शन कर वहीं बैठ गए और भक्तजनों के आग्रह पर कथा सुनाने लगे। आज जनकसुता माता जानकी के विवाह का प्रसंग चल रहा था और तुलसी गा रहे थे,

"चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥"

विवाह के अवसर पर कोई पाषाण हृदय ही होगा जो श्रृंगार की ओर से आँखें मूंद ले। भावातिरेक में बहते तुलसी की दृष्टि स्वयंवर में आती माता जानकी और प्रभु श्रीराम को देख रही थी। 'माता सीता ने प्रभु के गले में वरमाला डाल दी और सौमित्र का उत्साह उनकी मुखमुद्रा से परिलक्षित हो रहा है। तभी महावीर परशुराम गरजते हुए सभा में प्रवेश करते हैं। उनके क्रोधित वचनों को सुन सौमित्र को भी क्रोध आ जाता है और वे विनम्रता और उदण्डता की मध्यरेखा पर चलते हुए परशुराम को प्रतिउत्तर देते हैं।'

कथा चल ही रही थी कि राजा की खखार से तुलसी का ध्यान भंग हुआ। यह नियम सा बन गया था कि तुलसी नित्य ही मंदिर में कथा कहते समय, समय का ध्यान नहीं रख पाते थे। दोपहर के भोजन के समय रत्ना के कहने पर राजा भैया तुलसी को बुलाने मंदिर पहुंचते और राजा भैया की गोद में अपने एक वर्षीय पुत्र को देखते ही उनकी तन्द्रा भंग हो जाती और वे ताराचंद के पेट में अपनी नाक घुसाते, उसे हँसाते हुए घर की ओर चल देते।

घर पहुँचकर तारा को घर के छोटे-मोटे कामों में हाथ बटाने वाली यमुना काकी के पास छोड़, तुलसी आँगन में हाथ-पैर धोकर सीधे रसोई में घुस गए और चूल्हें पर रोटियाँ सेंकती रत्ना से सटकर बैठ गए। दोनों ने आपस में मूक भाषा और सहज मुस्कान से संवाद किया। फिर उन्होंने तवा और चिमटी थाम ली। रत्ना रोटियां सेंकती जाती, तुलसी उसे आग पर पकाते। भोजन की थाली लगाने के बाद नित्य की ही भाँति तुलसी रत्ना को अपने साथ बिठाकर, अपने हाथों से उसे खिलाने लगे। विवाह के दो वर्ष पश्चात भी यह नियम सा था कि यदि तुलसी घर पर हैं तो रसोई में रत्ना की सहायता अवश्य करेंगे और भोजन करते समय अपने हाथों पहले रत्ना को खिलाएंगे, फिर खुद खाएंगे।

भोजनोपरांत अभी तुलसी कुछ पल विश्राम ही कर पाए थे कि बाहर से राजा भैया ने आवाज लगाई। उठकर गए तो राजा, अपने साले गंगेश्वर पाठक और दो अपरिचित व्यक्तियों को अपना इंतजार करता हुआ पाया। दोनों व्यक्ति पहनावे से पठान अथवा तुर्क लग रहे थे। गंगेश्वर ने बताया कि वे दोनों सूबेदार साहब के प्यादे थे और सूबेदार साहब के कहने पर दीनबंधु पाठक जी से कुछ ज्योतिष सम्बंधित परामर्श करने आये थे। पाठक जी ने रत्ना के विवाह पश्चात सन्यास ले लिया था और घर त्याग नदी किनारे एक झोपड़ी में रहते थे। सूबेदार के आदमी जब उन्हें खोजते उनकी झोपड़ी में आये तो उन्होंने स्वयं को असमर्थ बताते हुए तुलसीदास से मिलने की सलाह दी थी। अतः खुद गंगेश्वर उन्हें लेकर तुलसी के पास पधारे थे।

तुलसी ने उन पठानों की ओर देखा तो उनमें से एक बोल पड़ा, "पंडी जी, हमें सूबेदार साहब ने यह पुछवाने के लिए भिजवाया है कि आगरा दरबार में पुराने लोग अब निकाले जा रहे हैं और नए लोगों की तरक्की हो रही है, तो हुजूर सूबेदार साहब किसका पक्ष लें? मतलब माहममंगा और अदहम खान के पाले में रहें या हिन्दू राजा टोडरमल के साथ? यह इन सभी की कुंडलियां रही। आप एक नजर देख लेते तो बड़ी मेहरबानी होती।"

तुलसी बोले, "अदहम से एक बार ईश्वर ने मिलवाया था। अब उनका लकवा कैसा है?"

"अब तो बहुत हद तक ठीक है पंडी जी।"

"अच्छा, कुंडलियां लाइए। अदहम की रहने दीजिए, उनका तो देखा-भाला है।" कुछ देर कुंडलियों को देखने के बाद तुलसी बोले, "माहममंगा और उनके पक्ष के लोग डूबते सूरज हैं। यद्यपि उनका महत्व बना रहेगा पर राजनीति में उनका कार्यक्षेत्र बहुत सीमित हो जाएगा। राजा टोडरमल का भाग्य प्रबल है, इन पर आपके बादशाह की कृपादृष्टि बनी रहेगी। राजसभा में टोडरमल का महत्व सबसे अधिक होगा।"

दूसरा पठान थोड़ा हिचकते हुए बोला, "लेकिन हमारे सूबेदार साहब थोड़े मजहबी किस्म के हैं। वे किसी हिन्दू की सरपरस्ती बाखुशी कुबूल नहीं करेंगे।" थोड़ा रुककर फिर से बोला, "पंडी जी, आप कुछ जादू-टोना नहीं कर सकते कि अदहम खान ही ऊपर रहे? और नहीं तो यही हो जाए कि हुजूर सूबेदार साहब के दिल का मैल साफ हो और वे टोडरमल के पक्ष में चले जाएं।"

तुलसी मुस्कुरा कर बोले, "नहीं श्रीमान, तंत्र विद्या नहीं सीखी मैंने। और चाहे जो हो, अदहम कभी भी सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंच पाएंगे।"

अपना काम पूरा हुआ समझ एक पठान ने तुलसी के चरणों में दस सोने के सिक्के रख दिए जिसे देख गंगेश्वर की आँखें मारे ईर्ष्या के जल उठी। उसने अदहम की कुंडली उठा ली और बोल पड़ा, "शास्त्री जी से लगता है भूल हुई है। जहाँ तक मेरा विचार है, श्रीमान के ग्रह उन्हें उच्च पद का स्वामी बता रहे हैं।"

गंगेश्वर की इस धृष्टता ने तुलसी को चिढ़ा दिया, "क्या कहते हो गंगेश्वर, क्या मेरी विद्या को झुठलाना चाहते हो?"

"नहीं, नहीं। पर मैं तो समझता हूं कि आपसे त्रुटि हुई है, और त्रुटि तो किसी से भी हो सकती है।"

तुलसी और गंगेश्वर की बात सुन दोनों पठान असमंजस में आ गए, उधर राजा भैया को भरसक क्रोध आ गया। बोल पड़े, "सम्हल कर बोलिये पाठक जी। तुलसी भैया काशी से विद्या प्राप्त शास्त्री हैं। शेष सनातन महराज के शिष्य हैं।"

गंगेश्वर झटकते हुए बोले, "तो क्या मैं किसी से कम हूँ? पूज्यपाद दीनबंधु पाठक जी महाराज का मात्र शिष्य ही नहीं, सगा भतीजा हूँ। जन्म लेते ही ग्रहों-नक्षत्रों की शिक्षा ली है। चाचाजी ने शास्त्री जी को भले ही अपनी सारी पोथियां दे दी हों, पर ज्ञान तो मुझे ही दिया है।"

तुलसी ने बड़ी कठिनता से स्वयं को संयत किया और सामने भौचक्के बैठे पठानों से कहा, "आप दोनों श्री गंगेश्वर पाठक जी से ही परामर्श कर लें। मेरी बातों को भूल जाएं। सत्य है कि ये दीनबंधु जी के सगे भतीजे हैं और इन्हें तंत्र विद्या का ज्ञान भी है।" राजा की ओर मुड़कर बोले, "राजा! इन्हें जलपान करवाकर विदा कर देना, और इनकी दक्षिणा भी वापस कर देना। मैं तनिक विश्राम करने जाऊंगा।"

इतना कहकर वे घर के अंदर चले गए और बच्चे को सुलाने का प्रयत्न करती रत्ना से तनिक ऊँची आवाज में बोल पड़े, "सुनो रत्नावली, आज के बाद तुम्हारा यह दुष्ट भाई मेरे घर नहीं आना चाहिए।"

रत्ना पहले तो पति की क्रोधित मुद्रा देख अचंभित हुई फिर उसने कारण पूछा जिसके उत्तर में तुलसी ने सारी घटना ज्यों की त्यों सुना दी। आगे बोले, "यह मूर्ख मेरे ही घर में बैठकर मेरे ग्राहकों के सामने मेरा अपमान करता है। मैं यह सहन नहीं कर सकता।"

रत्ना समझ रही थी कि दोष उसके भाई का है पर नारी-हृदय। भाई को अपने घर आने से कैसे रोके, और क्यों रोके? क्या घर केवल पति का होता है? पति यदि घर चलाने के लिए आजीविका कमाता है तो यह पत्नी ही होती है जो घर को घर बनाती है। जब जीवन में दोनों की समान महत्ता है, घर पर दोनों का समान अधिकार है तो पति का एकतरफा निर्णय कैसे स्वीकार किया जा सकता है! वैसे भी, स्त्रियां नैसर्गिक रूप से पीहर का पक्ष लेती आई हैं।

थोड़ी मनुहार और थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में बोली, "तुम भी तो समझो कि बप्पा के सन्यास ले लेने पर सारे ग्राहकों को उनके पास जाना चाहिए था पर सब तुम्हारे पास दौड़े चले आते हैं। आखिर उनका भी तो घर-बार है, पत्नी है, बच्चे हैं। वे अपने जीवनयापन के लिए क्या करें?"

तुलसी आश्चर्य से बोले, "तो क्या उसकी अज्ञानता का दोषी में हूँ? उसके पास लोग नहीं जाते तो वो मेरा अपमान करेगा? खुद विद्याहीन होकर मेरी विद्या पर शंका करेगा? मेरे ग्राहकों के सामने मुझे नीचा दिखायेगा?"

"देखो, तुम अभी क्रोधित हो। ठंडे दिमाग से सोचोगे तो तुम्हें इतना बुरा नहीं लगेगा।"

"मैंने सोच लिया है। अब गंगेश्वर मेरे घर नहीं आएगा। बोल देना उससे।"

अब रत्ना को भी क्रोध आ गया, "मैं उनसे कुछ नहीं बोलूंगी। तुम समझते ही नहीं। वे मेरे एकलौते भाई हैं। उन्हें यहाँ आने से कैसे मना कर सकती हूं? औरत को तो अपने मायके का कुत्ता भी प्यारा होता है। वे तो मेरे भाई है। उन्हें अपने घर आने से मना करके उनका अपमान नहीं कर सकती।"

"ओह! वे तुम्हारे एकलौते भाई हैं तो उनका अपमान नहीं कर सकती, पर वे भाई साहब तुम्हारे ही घर में तुम्हारे एकमात्र पति का अपमान करने के लिए स्वतंत्र हैं? तुम्हें मायके का कुत्ता तक प्यारा है, बढ़िया, पर ससुराल के इस जीव का क्या?"

इतना कह तुलसी क्रोध में घर से निकल गए।
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संकटमोचन बालमित्र हनुमान के मंदिर में बैठे तुलसी रत्ना के बारे में ही सोच रहे थे। उस स्त्री की सुंदरता, बुद्धिमता, प्रबंधपटुता, विद्वता पर ही तो रीझे थे तुलसी, पर उन्होंने कभी अनुमान भी न लगाया था कि रत्ना अन्याय का पक्ष लेगी। माना कि घर उसका भी है पर घरवाला भी तो उसी का है। घरवाले का अपमान क्या घरवाली का भी अपमान नहीं है? पति की अपेक्षा दुष्ट और कपटी भाई का पक्ष लेना, फिर यह भी कहना कि मायके का कुत्ता भी प्यारा होता है? कितनी अपमानजनक बात है! रत्ना के इस अन्याय को प्रश्रय नहीं दिया जा सकता।

क्रोध शांत होने पर वे देर शाम वापस लौटे। आँगन में अपना पैर धोने के लिए लोटा ढूंढ रहे थे कि रत्ना को जल लाते हुए देखा। लोटा पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि रत्ना खुद ही बैठकर उनके पैर धोने लगी। रत्ना के हाथों का अपने पैरों पर स्पर्श पाते ही तुलसी का सारा क्रोध बह चला। उन्होंने रत्ना का कंधा पकड़ कर उसे उठाया तो नेत्रों में ठिठकी अश्रुबूँदों ने तुलसी को द्रवित कर दिया। नारी भी विचित्र है! जीतने का प्रयत्न करती है तो हार जाती है। हार मान लेती है तो जीत जाती है।

रात में सोते समय तुलसी ने अपनी बाहों पर सिर टिकाए रत्ना की आँखों में देखकर कहा, "रत्नु! सोचता हूँ कि अपनी आजीविका का केंद्र काशी को बनाऊं। तुम क्या कहती हो?"

रत्ना बोली, "पर मैं बप्पा को छोड़कर नहीं जाऊंगी। मेरे अतिरिक्त उनका है ही कौन? वे मेरे बिना नहीं रह पाएंगे।"

"हाँ, समझता हूँ। पर सोचता हूँ कि जब तक यहाँ रहूँगा, गंगेश्वर और उसके जैसे ज्योतिषियों की नजर में खटकता रहूँगा। उन्हें लगता रहेगा कि मैं उनके भाग का धन और सम्मान हड़प रहा हूँ। मेरे बारे में वैसे भी यहाँ इतनी बे-सिरपैर की बातें उड़ाई गई हैं कि तुम्हें बताते भी लज्जा आती है। एक शंका तो यह भी बोई गई है कि मैं पाठक जी का अवैध पुत्र हूँ। इसी लज्जा में मेरी माता के प्राण मेरे जन्म लेते ही निकल गए और मेरे पिता ने मेरा त्याग कर दिया था।"

रत्ना को अपनी तरफ आँखें फाड़े देखकर हँसते हुए बोले, "और भी बहुत कुछ है रत्नु। कहाँ तक बताऊँ! मैंने तुम्हारे भाई की कुंडली देखी है, तुमने भी देखी ही होगी। उसके भाग्य में पागल होना लिखा है। मेरे विरुद्ध प्रचार में वही सबका नेता बना हुआ है। अस्तु, तुम मेरे साथ नहीं चलना चाहती तो कोई बात नहीं। मैं ही कुछ दिन के लिए काशी हो आता हूँ। अंततः तो मुझे वही बसना है। अभी जाकर देख आता हूँ कि वहाँ मेरे लिए कैसी संभावनाएं हैं। तुम भी कुछ महीने अपने मायके रह लोगी। बप्पा भी ताराचंद के साथ रहकर प्रसन्न होंगे। आजकल तुम जो कुंडलियां देख रही हो, उसके पैसे गंगेश्वर को मिलेंगे तो उसकी भी थोड़ी मदद हो जाएगी।"

"ठीक है स्वामी। पर यह तो बताओ कि तुम इतने दिन मेरे बिना रह पाओगे?"

"कुछ कह नहीं सकता रत्नु। पाँच-सात दिनों के लिए कहीं जाता हूँ तो हर पल तुम्हारी याद आती है। जाने कैसे इतने दिन कटेंगे! पर मुझे जाना तो है ही। नहीं जाऊंगा तो क्रोध और अपमान के कारण कुंठित हो जाऊँगा।"

रत्ना के नेत्रों में अश्रुकणों को देख तुलसी ने उसे अपने अंक से लगा लिया।

अगली सुबह तुलसी काशी प्रस्थान कर गए।
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रामबोला: 11 *********** काशी का प्रह्लाद घाट। घाट के बिलकुल किनारे पर एक सफेद चूना किया हुआ घर। घर की छत पर शीशम के तख्त पर श्वेतवस्त्र धारी एक युवा पंडित और उसके सामने फैली हुई ढेरों पोथियां। पंडित इस अल्पायु में ही काशी का सर्वश्रेष्ठ ज्योतिषी कहलवाने का हक पा चुका था। क्यों न हो! आखिर शेष सनातन जी महाराज का पट्टशिष्य जो था। उसके माथे पर पड़ी सिकुड़न बता रही थी कि वह अभी किसी गंभीर उलझन में फँसा हुआ है। कोई समस्या थी जो लाख चाहने पर भी हल नहीं हो रही थी। बाएं हाथ की हथेली अपने सर पर त्रस्त भाव से लगाये दाहिने हाथ से कुछ लिखते, गिनते और गिने हुए को काटते पंडित गंगाराम शास्त्री के हाथ बाहर दरवाजे की सांकल के खटखटाने की आवाज से थोड़े हिल से गए। इस समय किसी आगंतुक का आना उन्हें बहुत बुरा लगा। तनिक चिढ़े स्वर में बोले, "कौन है भाई?" आवाज आई, "हम रामबोला तुलसी। गंगाराम जी का मकान यही पड़ेगा महराज?" तुलसी की आवाज और परिचय सुन गंगा की हालत ऐसी हुई जैसे किसी बछड़े ने अपनी माँ की आवाज सुन ली हो। जल्दबाजी में तख्त से उतरते समय थोड़ा लड़खड़ा गए, पोथियां पैरों से लग इधर-उधर छिटक गई। धड़धड़ाते हुई सीढ़ियों से उतरे और दरवाजा खोला कि तुलसी को देख भावातिरेक में समझ ही नहीं पाए कि करें क्या! न बोलते बनता, न आगे बढ़ते। सामने उनका बालसखा, उनका एकमात्र सखा, उनका रामबोला खड़ा था। वर्षों बाद देखा, पर नाक-नक्श में बहुत परिवर्तन नहीं था, बस मार्ग की धूल लगी थी चेहरे पर जिससे रंग थोड़ा दब सा गया था। इधर तुलसी मुस्कुराते हुए दो पग आगे बढे, कि गंगा झपट कर गले लग गए। उन्हें खुद से लगाए घर के अंदर आए और किसी शिष्य को पानी लाने का आदेश देने के पश्चात पूछा, "कहाँ से आ रहे हो तुलसी?" "राजापुर, अपने घर से।" "घर! घर से तो घरवाली का आभास होता है। शादी कर लिए क्या गुरु?" "हाँ भाई, शादी भी कर लिए और एक बच्चे का बाप भी बन गए।" "अरे वाह, जियो-जियो।" एक किशोर तब तक पानी ले आया था। तुलसी ने लोटा पकड़ना चाहा पर गंगा ने खुद ही लोटा लेकर तुलसी के पाँव धोए और बड़े प्रेम से हाथ पकड़ ऊपर बरामदे में ले गए। तुलसी ने इतनी पोथियां बिखरी देखी तो पूछ बैठे, "ई सब का टिटिम्मा फैलाए बैठे हो?" तुलसी के आने की खुशी में अब तक सब भूले बैठे गंगा को फिर अपनी उलझन याद आ गई, बोले, "का बताये भाय, लगता है गंगा की नाक कट जाएगी। सब हमें जाने क्या-क्या कहते हैं और हम एक ठो प्रश्न भी नहीं विचार पा रहे।" "सीधा बताओ, हुआ क्या?" "हुआ ये कि राजा साहब के राजकुमार, कुँवर साहब परसों शिकार खेलने गए। दोपहर में जाने कितना तेज घोड़ा दौड़ाए कि सब सेवक लोग पीछे छूट गए। परसों का दिन बीता, कल का दिन बीता, आज का दिन भी गया ही समझो पर हुजूर कुँवर साहब का कोई पता नहीं। जाने दुश्मन उड़ा ले गए या जानवर खा गए। महाराज ने लाख रुपये का इनाम रखा है। सही-सही राजकुमार का पता बता दे कोई तो लाख रुपये पाए। काशी के सभी पंडित यही प्रश्न विचार रहे हैं। अगर कोई कुछ बता नहीं पाया तो लाख रुपये तो कोई नहीं, पर काशी से भरोसा उठ जाएगा लोगों का। म्लेच्छों के राज में वैसे भी बहुत अपघटन हो चुका, अब यह विफलता?" "आश्चर्य है मित्र कि तुम ऐसी बात कर रहे हो। रुको, मुझे देखने दो।" गंगा को अधिक विश्वास तो नहीं था, पर मित्र को मना नही किया। करना भी क्यों था! तुलसी के कंधे पर हाथ रख बोले, "तुम भी देखो, पर पहले भोजन कर लो। फिर आराम से देखते रहना।" भोजन इत्यादि से निपट कर तुलसी अतिथि कक्ष में कागज-पत्तर लेकर बैठ गए। बैठे-बैठे शाम हो गई। रात हो गई तो नौकर दीया रख गया। तुलसी ने अलग से तेल और बाती भी मंगा लिया। रात बीतती जाती, तुलसी का गुणा-गणित चलता रहा। दीये में तेल कम होने लगता तो तेल डालने भर या बत्ती ठीक करने भर का अंतराल होता, बाकी सारा समय तुलसी हिसाब-किताब में लगे रहे। सुबह होने को आई। गंगाराम शास्त्री उठकर तुलसी के पास पहुँचे ही थे कि तुलसी उन्हें देख मुस्कुराते हुए बोल पड़े, "गंगा! रामाज्ञा मिल गई भाई। नहा-धोकर राजा जी के पास चले जाओ। उनसे कहना कि न शत्रु ने कुछ किया, न किसी जानवर ने। राजकुमार रास्ता भटक गए हैं। आज डेढ़ पहर बीतने से पहले ही सकुशल घर आ जाएंगे।" गंगा को पहले तो विश्वास ही न आया, कह बैठे, "सच्ची तुलसी? तुम्हें पक्का भरोसा है?" "अरे क्यों नहीं होगा! यह रामाज्ञा है भई। रात भर रामदरबार में निवेदन किया। संकटमोचन ने खुद अपने हाथों दी ये रामाज्ञा। गलत होने का तो प्रश्न ही नहीं है। और हाँ, वचन दो कि किसी को मेरे बारे में नहीं बताओगे। " गंगाराम तैयार होकर चले गए। ठीक दो पहर पश्चात राजा के हाथी पर, राजा के सैनिकों के साथ गंगाधर जी अपने घर को चले आ रहे थे। हाथी के आगे-आगे पंडित जी की जय जयकार करते बम-भोले के बनारसी खुशी के मारे अगड़म-बगड़म भंगिमा में नाचते चल रहे थे। ब्राह्मण समुदाय भी हर्ष से पागल हो गया था। क्यों न होता! जब सब हार मान ही चुके थे, सबके सिर झुक गए थे तो महान ज्योतिषी गंगाराम शास्त्री जी ने सबकी नाक कटने से बचा ली थी। गंगा घर पहुँचे और तुलसी के चरणों में गिरने को हुए कि तुलसी ने उन्हें गले लगा लिया। भीगी आवाज में गंगा बोले, "तुलसी! तुमने चमत्कार किया भाई। मैं तुम्हारे भरोसे राजा के पास गया और बोल दिया कि डेढ़ पहर में राजकुमार सकुशल वापस आएंगे। मेरी यह वाणी सुन राजपण्डित देवदत्त शर्मा बोले कि ढाई पहर की भद्रा है और तुम डेढ़ पहर की बात करते हो? मुझे उनका टोका जाना बहुत बुरा लगा सो वहीं पालथी मार बैठ गया कि या तो कुमार डेढ़ पहर में वापस आएंगे या डेढ़ पहर बाद मैं वहाँ से उठकर सीधे गंगा जी में समाधि ले लूंगा।" थोड़ी सांस लेकर गंगा आगे बोलते गए, "और मित्र, तुम्हारी वाणी सत्य हुई। कुमार वापस आ गए। मेरी इतनी जयजयकार हुई कि तुम्हें क्या बताऊँ! राजा ने लाख की कही थी, सवा दे दिए। सब मेरी जय कर रहे थे और मैं शर्म से पानी-पानी हो रहा था। तुमने मना न किया होता तो मैं सबको बता देता कि जयजयकार तो मेरे गुरुभाई तुलसी, मेरे रामबोले की होनी चाहिए। अच्छा, यश तो तुमने मुझे दे ही दिया। पर ये धन तुम रखो। ये सवा लाख तुम्हारे हैं।" "अरे नहीं भाई। मेरा पुरस्कार तो मुझे रात ही मिल गया जब राम ने रामाज्ञा दी। वैसे भी, कार्य तुम्हारा था तो धन भी तुम्हारा ही हुआ।" "नहीं तुलसी। धन तो तुम्हें लेना ही होगा। आखिर तुम भी बाल-बच्चे वाले हो!" बड़ी देर की बक-झक के बाद यह तय हुआ कि लाख रुपया गंगाराम जी रखेंगे। हजार गरीबों को दान कर देंगे। जो बचा, उसका आधा तुलसी का, और बचे आधे किसी साहूकार के पास जमा होंगे जिसका उपयोग भविष्य में तुलसी की इच्छानुसार किया जाएगा। -------------------------

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रामबोला: 12
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अभी नाव राजापुर के घाट पर लगी ही थी कि मौसम ने अपना मिजाज दिखाना शुरू कर दिया। बादलों का रंग इतना काला हुआ कि रौशनी बहुत कम रह गई। हवाएं तेज चलने लगी थी और कभी-कभी एकाध मोटी सी बूँद गिर पड़ती थी। लग रहा था कि बारिश हुआ ही चाहती है। केवट ने नाव लगाकर चैन की सांस ली। लोग उतरने को खड़े हुए पर पहले तुलसी को उतर जाने देने के लिए रास्ता देने लगे। सबको सीताराम बोल तुलसी उतरे और केवट के हाथ कुछ पैसे देने चाहे तो केवट हाथ जोड़ बोल पड़ा, "अरे महराज! आप किराया जिन दीजिये। अब आपसे भी किराया लेंगे तो राम जी को का मुँह दिखाएंगे? आप तो बस आशिर्बाद दीजिये।"

तुलसी मुस्कुराकर बोले, "अरे भाई! आशीर्वाद तो हमारा रहेगा ही। क्या इन चंद पैसों के बदले में आशीर्वाद चाहते हो? जब हम खुद अपनी सेवा के बदले पैसे पाते हैं और सम्मान भी पाते हैं तो तुम्हारी सेवा के बदले तुम्हें भी पैसा और आशीर्वाद दोनों मिलना चाहिए। है न? लो पैसे पकड़ो।" केवट को जबरी पैसे पकड़ा कर फिर बोले, "अच्छा, एक काम हमारा और करो। कोई छोटी डोंगी बुलवा दो। हम कुछ समय बाद उस पार जाएंगे।"

"
जो आज्ञा महराज, बाकी बेरुत की बर्षा होखे वाली है। शायदे कोई मिले। पर हम खोज देंगे। आप निफिकिर रहिए।"

अभी तुलसी कुछ पग चले ही थे कि घाट पर उनके मित्र राजा अहीर दिख गए। तुलसी उन्हें आवाज देते उससे पहले ही राजा भैया ने उन्हें देख लिया और पुकार कर बोले, "अरे भैया! आ गए। जय सिरी राम।" और तेजी से चल तुलसी के पास आ गए। कुछ पल दोनों मित्रों ने एक-दूसरे को प्रेम से निहारा, फिर राजा तुलसी का हाथ पकड़ पग बढ़ाते हुए बोले, "चलो भैया, घर चलो। बहुत तेज बारिश होने वाली है।"

तुलसी बोले, "पर घर पर तो कोई होगा नहीं तो घर जाकर क्या करेंगे?"

"
अरे, हम अपने घर की कह रहे भैया। ई तो हमें भी पता है कि भौजी मुन्ना के साथ मायके गई हैं। हम अभी परसों ही मिले थे उनसे। सब ठीक हैं। अब ज्यादा समय यहीं खड़े-खड़े मत बिताओ, चलो। बारिश हुई तो सब सामान-गठरी भीग जाएगा।"

"
चलते हैं भाई, पर हमारी भी तो सुन लो। हम तो सीधे उसी पार जा रहे थे। इधर तो इसलिए आ गए कि कुछ हुंडी तुम्हें दे देते और तुम उसे आजकल में किसी सेठ से भजा लाते। होली आ रही है, थोड़ा खर्चा निकल आता।"

"
अच्छा, यही हुआ। पर अब तो मौसम देख ही रहे हो। इतनी भी क्या उतावली। अभी घर चलो, कल नाउ भेजकर बता देंगे। फिर शाम को चले जाना। वैसे भी ससुराल में बिना खबर दिए जाना सही नहीं। और तुम तो अपने साले-सलहज का सुभाव जानते ही हो।"

"
अच्छा, अभी गंगेश्वर के क्या हाल हैं?"

"
अभी तो सही है। भौजाई ने इस बीच पैसे से बहुत मदद की है उनकी।"

"
अच्छा तो सुनो। यह बीस हजार की हुंडी है। गिरधारी सेठ के यहाँ इसे जमा कर देना और मेरे लिए सौ और अपने लिए दो हजार निकाल लाना। ना, ना! तुम्हें ये लेना पड़ेगा। कहाँ-कहाँ तो अपनी जेब से मेरे लिए खर्च करते रहते हो। तो कल चले जाना और शाम तक लेते आना। बाकी जमा रहेंगे तो फिर कभी काम आएंगे। अच्छा, अब हमें जाने दो। इतने पास आकर ताराचन्द से दूर रहना हमें सही नहीं लगता। तो हम चलते हैं। कल, नहीं तो परसों तक रत्ना और तारा को लेकर आ जायेंगे। ठीक है। जय सियाराम।" 

तुलसी जल्दी-जल्दी सब बोल गए कि राजा पैसे लेने का विरोध न कर सके और न उन्हें ससुराल जाने से रोक सके। उधर केवट ने उनके लिए एक डोंगी तय कर दी थी। तुलसी राजा को वहीं हक्का-बक्का छोड़ डोंगी में बैठ गए और केवट ने पतवार चला दी। 

अभी नाव कुछ दूर ही गई होगी कि हवाएँ प्रचण्ड हो उठी। पतवार संभालना मुश्किल हो गया। कोढ़ में खाज, बारिश भी होने लगी। इतनी भयंकर बारिश कि बूँदों से शरीर को भयंकर चोट लगती। शरीर बचाओ कि नाव, बड़ी दुविधा। केवट बेचारा अनुभवी था, फिर भी उसके हाथ-पाँव फूल गए थे। दोनों प्राणी राम नाम के सहारे जैसे-तैसे पतवार खेते पार लग ही गए। तुलसी भूमि देखते ही नाव से जो कूदे कि घुटने से ऊपर तक गीली मिट्टी में धँस गए। साथ की दोनों पोटलियां वैसे भी गीली तो हो ही चुकी थी, अब कीचड़ से सन भी गईं। बजरंगबली का नाम लेकर बड़ी मुश्किल से कीचड़ से निकल साफ़ भूमि पर पहुंचे। दस कदम की दूरी नापने में पूरी कसर हो गई। अभी लम्बा जाना था, और इस भयानक रुत में सवारी-डोली तो क्या मिलती, कोई आदमी तक न दिखा जो पोटलियों को अपने सिर पर रखे पाठक जी के घर तक पहुँचा देता। यदि जो बारिश न हो रही होती तो अब तक तो आधा गाँव तुलसी के पैरों में लोट चुका होता और उनकी सहायता कर स्वयं को धन्य समझता। पर हा रे भाग्य! थोड़ी हिम्मत बांध, वर्षा के जल और कीचड़ से दस गुना भारी हो चुकी पोटलियों को जैसे-तैसे सिर और पीठ पर लादे बढ़ चले और पाठक जी के घर पहुँच सांकल खटखटाई। बड़ी देर तक खटखटाने के बाद अंदर से आवाज आई, "अरे, इस बखत कौन आ मरा भई?"

तुलसी बोले, "अरे गंगेश्वर, हम हैं तुलसी।"

गंगेश्वर ने कुंडी खोली और पूरी तरह भीगे तुलसी को देख बोले, "अरे दामाद जी! आप तो पूरा फागुन खेल आए। आइए, आइए, अंदर आइए।"

तुलसी अंदर पहुंचे भी नहीं थे कि गंगेश्वर की पत्नी की आवाज आई, "अरे कौन है? बारिश में भी चैन नहीं है किसी को।"

गंगेश्वर बोले, "अरे, देख-सुन के बोल। अपने जमाई जी हैं। आकर देख दो, अपनी रत्ना के वियोग में कैसे अड़भंगी बने हुए हैं।" तुलसी सच में विचित्र भेष में थे। कपड़े पूरे भीगे बदन से चिपके हुए, काँपते हुए, दाँत किटकिटाते हुए। सलहज ने दर्शन दिए, और दर्शन पाकर फिस्स से हँस दी। फिर तनिक व्यंगात्मक स्वर में बोली, "लगता है सीधे चले आ रहे हैं। एक दिन भी सबर नहीं हुआ। बड़भागी है रत्ना। बेचारी को तो तनिक चैन नहीं लेने देते होंगे महराज।"

तुलसी इस मजाक पर थोड़े लज्जित से हो गए। कुछ कहते उसके पहले ही रत्ना सीढ़ियों से उतरती दिखी। उसे देखते ही तुलसी का मन हरा हो गया। जाने बदन में इतनी गर्मी कैसे आई कि ठिठुरना बन्द हो गया। तब तक गंगेश्वर अंगीठी ले आए थे। तुलसी की गठरी देख हँसते हुए बोले, "एह, कपड़ा-लत्ता तो सब गीला हो गया है। का पहिनेंगे?" अपनी पत्नी की ओर देख बोले, "जाओ जरा हमारी एक धोती ला दो।" फिर कुछ सोचकर बोले, "अच्छा, नई धोती लाना। वैसे भी जमाइयों का तो काम ही होता है हाथ डुलाते आना और कुछ न कुछ झटक लेना।" फिर हेहेहे कह हँस पड़े। उनकी पत्नी ने भी होंठ सिकोड़ पति के कथन में सहमति सी दर्शाई। रत्ना को यह बात चुभ गई। अपने नेत्रों से ही भैया-भाभी को ऐसे देखा कि दोनों की हँसी लुप्त हो गई। क्यों न होती, आखिर रत्ना ही पिछले दो महीने से पति-पत्नी और उनके छह बच्चों का खर्च चला रही थी। 

सकपका कर गंगेश्वर अपनी पत्नी से बोले, "अरे, खड़ी क्या देखती है। देख नहीं रही, शास्त्री जी कांप रहे हैं। जा, कुछ कम्बल ला और कुछ गर्म-गर्म खाने-पीने की व्यवस्था कर।"

अब रिश्ता तो सलहज वाला ही था। कैसे चूकती, बोल पड़ी, "ठंड की इतनी चिंता क्यों करते हो। शास्त्री जी जिस गरमाई के लिए आए हैं, वह जे सामने खड़ी तो है।" इतना कह, फिस्स से हँस कर वे तो चली गई। गंगेश्वर भी मुस्कुराकर रह गए। थोड़े समय पश्चात खा-पीकर सब अपने-अपने कमरे में गए।

ताराचंद सो रहा था। तुलसी और रत्ना एक दूसरे की ओर मुँह किये लेटे थे। रत्ना ने पूछा, "कहो, कैसी रही काशी-यात्रा?" 

"
शिव की नगरी तो मेरे लिए सदैव ही सौभाग्यशाली रही है। पिछली बार ज्ञान मिला था, अबकी धन। पर रामजी ने बड़ी परीक्षा ली। वो तो कहो कि हनुमान जी ने लोभ-माया से निकाल लिया।" फिर उन्होंने गंगाराम, राजा, राजकुमार, लाख रुपये और रामाज्ञा, सारी बातें बता डाली। रत्ना बड़ी खुश हुई, पूछा, "तो वो पैसे कहाँ हैं?"

"
यही तो असली परीक्षा थी रत्नु। इतने अधिक रुपये से दूरी भली। वैसे भी वह तो मित्र गंगाराम के लिए किया था। उसी का था, उसी को दे दिया।"

रत्ना को यह बात सही नहीं लगी, बोली, "पर प्रश्न तो तुमने हल किया था।"

"
पर प्रश्न मेरे सामने थोड़ी आया था। गंगा के पास आया था, मैंने तो बस उसकी सहायता की। मैं तो यह भी कह आया कि किसी को मेरे बारे में मत बताना।"

"
तुम भी कमाल करते हो। यश भी दिया, विद्या भी दी और पैसे भी दिए।"

"
अरे! तो तुम इतना परेशान क्यों होती हो। सवा लाख थे, उसमें से लाख ही स्वीकारे गंगा ने। फिर कुछ और काम भी देखे तो इतने ही और बना लिए थे। तुम क्यों चिंता करती हो। मैं तो तुम्हारे लिए इतना कमा कर धर दूंगा कि दोनों हाथ लुटाओगी तो भी खत्म न हो। अरे, पीढ़ियां बैठे-बैठे खाएंगी।"

"
हाँ, पर यह तो हमारे पहले एक लाख थे न! छोड़ो, बाकी पैसे कहाँ हैं?"

"
बारह तो मैं वहीं जमा कर आया। एक हनुमान मंदिर बनवाना है वहाँ। कुछ मंदिरों के पुनरुद्धार के लिए दे दिए। तीन निर्धन कन्याओं का विवाह कराया। एक निर्धन का घर बनवाया। जो बचे वो यहाँ ले आया। हाँ, उसमें से दो हजार राजा को दिए। यही कुछ अट्ठारह हजार बचे होंगे।"

रत्ना को सच में बुरा लगा। कोई भला ऐसे भी पैसे लुटाता है। कहाँ डेढ़ लाख और कहाँ अट्ठारह हजार! कुछ बोली तो नहीं पर उसकी भंगिमा उसका मन बता रही थी। तुलसी को भी थोड़ा अजीब लगा। उन्होंने कोई गलत काम तो किया नहीं था। बोले, "तुम्हारी नाराजगी समझ नहीं आती। राम की कृपा से पैसा आया, राम के काम में लगा। और अभी ऐसे अवसर तो बहुत आएंगे।" रत्ना को अपनी बाहों में भर प्रेम से बोले, "देखो, तुमने मेरी कुंडली तो देखी ही है। संधि ग्रह हैं, अर्थात या तो करोड़पति बनूंगा या विरक्त।" 

रत्ना छिटकते हुए बोली, "तो बन जाइए विरक्त। किसने रोका है?" 

हँसते हुए बोले, "तुमने। यदि तुम न होती तो मैं तो विरक्त बन ही गया होता। सच कहता हूँ, ईश्वर न करे, तुम्हें कुछ हो गया तो तारा को किसी योग्य के सुपुर्द कर सन्यासी हो जाऊंगा।" 

रत्ना को बात लग गई। 'क्या मैं ही इनका मार्ग रोक रही हूँ। अरे कोई ईश्वर भक्ति करना चाहेगा और न कर पाने का दोष पत्नी को देगा? स्त्री का दोष क्यों? क्या यह पुरुष के काम का दोष नहीं? और स्त्री के न रहने पर पुत्र को त्याग सन्यासी बन जायेगा? परिवार का अर्थ क्या केवल काम-सुख ही है कि पत्नी न रहे, काम-सुख का साधन न रहे तो पुत्र-परिवार त्याग दे। और इसे राम-भक्ति का नाम दे?' तुनक कर बोली, "यही अंतर है पुरुष और स्त्री में। माना कि स्त्री भी काम-सुख की इच्छा रखती है। उसी से सन्तान प्राप्त करती है। पर सन्तान होने के बाद वह किसी अर्थ में निष्काम भी हो जाती है पर पुरुष, वह तो चाम का दास है। उसके अंदर कर्तव्य भावना तो होती ही नहीं। नाम के लिए दान करेगा पर परिवार की नहीं सोचेगा। वह बस शरीर से प्रेम करता है, शरीर में बसे राम से नहीं। जितना प्रेम शरीर से करता है, यदि राम से करे तो उसका इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाए।" 

तुलसी पर जैसे घड़ों पानी गिर गया। क्या वह सच में काम में इतने दग्ध हो गए कि राम को भूल बैठे? 'मैं सच में काम का दास हूँ। मैं नीच, पामर राम को भूल काम में, कंचन में, लोभ में लगा हूँ। जिस तड़प से मन रत्ना की ओर भागता है, क्या राम की ओर भागा कभी? सही हुआ तेरे साथ तुलसी, सही हुआ। तू राम को भूल चाम की ओर भागा, तभी तुझे आज यह सुनना पड़ा। और कितना सुनेगा रे अभागे। और कितना लज्जित होगा। अभी और कितना गिरेगा। तू काशी से क्यों भागा था? यही न कि मोहिनी के रूप में काम तुझे घेर रहा था, पर भाग के यहाँ आ पहुँचा। काम से भागा और काम में इतना गिर गया कि तुझे यह सुनना पड़ा। नहीं! बस बहुत हुआ। अब नहीं। अब नहीं।

अब लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥'

रत्ना को लग गया कि बात चुभ गई है। तुलसी को अपनी ओर खींचने का प्रयत्न किया पर वे तो काठ बने बैठे थे। समझ गई कि कुछ अधिक ही नाराज हो गए है। बोली, "नाराज हो गए क्या?" तुलसी चुप ही रहे तो फिर उन्हें खुद से लगाने का प्रयास किया। तुलसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो रत्ना समझ गई कि बात बहुत तीव्रता से लगी है। थोड़े भर्राए स्वर में बोली, "अब इतना भी नाराज न होवो अपनी रत्ना से। बात ही तो कर रही थी। कष्ट पहुँचाया तो क्षमा कर दो। लो, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, क्षमा कर दो।" इतना कह रत्ना ने तुलसी के पैर पकड़ लिए। तुलसी ने शांत और गंभीर आवाज में कहा, "मेरे चरण स्पर्श न करो देवी। गुरु को शिष्य के पैर नहीं छूने चाहिए।"

"
गुरु! कौन गुरु? मैं तुम्हारी गुरु नहीं, पत्नी हूँ।"

"
अवश्य हो। पर अब तुम मेरी गुरु भी हो। तुमने मुझे आज जो सीख दी है, वह कोई गुरु ही दे सकता है। मैं तो स्वयं तुम्हारे चरण छूना चाहता हूँ। तुमने मुझे काम से दूर कर, राम के निकट ला खड़ा किया है। मेरा प्रणाम स्वीकार करो।"

"
क्यों ऐसी बातें करते हो जिससे मेरा हृदय दुखता है। क्या मैं कभी इच्छा नहीं करती। काम तो सहज भावना है, स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम का एक भाग है। चलो, मेरी कही बात भूल जाओ। विनती करती हूँ। भूल हुई, क्षमा करो।" 

तुलसी लेट गए तो रत्ना उनके निकट आ गई। शरीर के स्पर्श से सदैव की भाँति जो उद्वेग उत्पन्न होता था, वह नहीं हुआ। तुलसी निश्चेत पड़े रहे। उनके मन में बस 'अब लौं नसानी, अब न नसैहों। रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं' गूंज रहा था। रत्ना कब तक प्रयत्न करती। मुँह फेर रोने लगी। रोते-रोते सो गई। 

बहुत देर पश्चात तुलसी उठे। तारा और रत्ना को एक बार देखा और धीरे से किवाड़ खोल बाहर निकल आए। एक बार मन हुआ कि वापस लौट चले और रत्ना को अपनी बाहों में भर लें। परन्तु उन्होंने स्वयं को रोका, बाहरी दरवाजा खोला और चलते चले गए। रात बीत गई। सुबह हो गई। दोपहर हो गई और वे चलते रहे। उनके मन में बार-बार एक ही बात आ रही थी,

अब लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥
पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन मधुपहिं प्रन करि, तुलसी रघुपति पदकमल बसैहौं॥

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रामबोला: 13
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चित्रकूट पर्वत पर तुलसी भग्न हृदय बैठे हुए थे। पत्नी और पुत्र को सदा के लिए छोड़ कर आ जाना उन्हें अंदर ही अंदर काटे जा रहा था। पुरुष का कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी और पुत्र का पालन और रक्षण करे, पर वे कैसे पुरुष थे जो सोती हुई विदुषी पत्नी और मासूम तारापति को छोड़ कायरों की तरह भाग आए थे। एक मन उन्हें बारम्बार उलाहना देता तो दूसरा उसे सहलाता कि वे तो बचपन से ही बस राम से ही प्रेम करते आए थे। राम के दरबार में एक चाकर की भाँति रहने की इच्छा तो उनकी पहली इच्छा थी। माया-प्रपंचों ने उन्हें घेर-घार कर अपने वश में कर लिया था। अब बड़ी मुश्किल और हिम्मत से वे सब कुछ छोड़ कर आ गए हैं तो उन्हें उनके बारे में सोच कर परेशान भी नहीं होना चाहिए। वे एक बार खुद को दोषी मानते और उनका मन होता कि वापस राजापुर लौट जाएं, फिर मन कहता कि जो छोड़ दिया, छोड़ दिया। जिसके लिए छोड़ा, अब उनकी ओर बढ़।

बड़ी दुविधा थी। वे यह सब सोच रहे थे कि उन्हें अपने पीछे आहट सुनाई दी। मुड़कर देखा तो एक साधु कुछ गुनगुनाता हुआ चला आ रहा था। तुलसी पर नजर पड़ते ही साधू बोल पड़ा, "राम-राम कह बेटा। राम-राम कह। इतना क्या सोचता है? कब तक सोचेगा? सोचता ही रह जायेगा तो राम का नाम कब लेगा। राम के अलावा जो मन में आये उसे राम को ही दे दे और राम को याद कर। वो तेरे काम की चीज तुझे लौटा देंगे और बेकाम की चीज से तेरा पीछा छूट जाएगा। चल, राम-राम कह।" साधु इतना बोलते हुए आगे बढ़ गया। असल में, वह रुका ही नहीं था। बस चाल धीमी कर ली थी।

कभी-कभी हमें रास्ता पता होता है, हम जानते हैं कि हमें क्या करना है, कहाँ जाना है। पर मन! बिना किसी कारण हमें रोकता रहता है। रोकने के हजार बहाने बनाता है और हम उससे लड़ते है कि नहीं, हमें तो आगे जाना ही है। मजे की बात यह कि लड़ने के बाद भी, चाहने के बाद भी आगे बढ़ने में हिचकते हैं। दरअसल हमें एक उत्प्रेरक चाहिए होता है, चाहते है कि कोई बाहरी शक्ति धक्का लगा दे, कि जो हम करना चाहते हैं उसका कोई अनुमोदन कर दे जिससे हमें लगे कि हमारा फैसला सही है। उस साधु की वाणी ने तुलसी के लिए उत्प्रेरक का काम किया। उन्होंने अपने शरीर को झटका, मन को झिड़का और राम का नाम लेते हुए चित्रकूट की ओर चल पड़े।
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ब्रह्मदत्त घटवाले के घर रुके थे तुलसी। दिन भर राम का नाम लेते और अपने मन-मस्तिष्क में बसी सभी चीजों को रामार्पण करते जाते। वेद, वेदांग, ज्योतिष की बातें राम को सौंप दी। भिखारन माई, नरहरि बाबा, शेष सनातन गुरुजी, गुरुमाई, गंगा-राजा जैसे मित्र-सखा, रत्नावली, तारापति सबकी यादें राम को सौंप मुक्त हो गए। अब वे हर चीज को राम से सम्बंधित करके देखते।

बस्ती में शाक-भाजी की दुकान के बगल में एक तमोली की दुकान थी। पान इत्यादि के शौकीन दुकान को घेरे रहते। पान कम कचरते, बातें अधिक फेंटते। उन लोगों में एक पंडित गोपाल जी भी थे। बड़े रसिक व्यक्ति। कल्याणमल्ल, पद्मश्री, और कोक्कोक की बातें तो ऐसे करते, जैसे उनके लँगोटिया रहे हों। बात-बात में अनङ्गरङ्ग और नागरसर्वस्व से सप्रमाण बातें करते। किसी भी स्त्री की चर्चा होती तो उसे मृगी, अश्वा, करिणी अथवा पद्मिनी, चित्रिणी, शंखिनी, हस्तिनी में वर्गीकृत अवश्य करते। उनके चेले-चपाटे भी साथ रहकर इस वर्गीकरण को समझ गए थे। सभी पान खा रहे थे कि सामने से एक महिला आती हुई दिखाई दी। एक चेला बोला, "गोपाल गुरु! देखो चित्रिणी।", दूसरा चेला बोलो, "अरे नहीं, यह तो साक्षात पद्मिनी लग रही है।" गोपाल गुरु की दृष्टि महिला को एकटक देखे जा रही थी, चेलों की बात पर बोले, "नहीं बे, तुम लोग भी अधजल गगरी हो। यह तो शंखिनी है। बेटा, इस इलाके में एक-दो ही चित्रिणी होंगी, पद्मिनी तो लगता है कि पूरे चित्रकूट में नहीं है।"

गोपाल पंडित के पूरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य काम की सेवा करना था। वे प्रत्येक बात को काम से जोड़ देते, प्रत्येक बात में काम निकाल देते। स्त्री की आयु उनके लिए कोई विशेष अंतर नहीं डालती और वे किसी न किसी के आगे-पीछे पड़े ही रहते। किसी को अपने धन से तो किसी को अपनी लल्लो-चप्पो से पटाने की जुगत भिड़ाये रहते। बस्ती में अपने इस गुण/अवगुण के लिए प्रसिद्ध थे। पंडित तुलसीदास शास्त्री उन्हें देख-सुन आश्चर्य में पड़ जाते कि कैसे कोई व्यक्ति काम में इतना निमग्न हो सकता है। पर वे उसकी विषय में इतनी निष्ठा देख प्रेरणा भी पाते कि जब यह पापी निकृष्ट काम में इतना रम सकता है कि रोम-रोम से बस काम की आवाज निकलती है तो मैं इन नश्वर सांसारिक विषयों से कहीं ऊपर, सर्वश्रेष्ठ राम में इतना निमग्न क्यों नहीं हो सकता कि मेरे रोम-रोम से राम की आवाज निकले!

एक दोपहर वे अपने कमरे में पालथी मारे, आँखे मूंदे राम-ध्यान कर रहे थे। न जाने कब उनके परममित्र राजा भैया कमरे में आ गए थे और चुपचाप खड़े बड़ी देर से तुलसी की समाधि के टूटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब लगा कि तुलसी तो ऐसे ही बैठे रह जाएंगे तो धीरे से खांसें, फिर खांसते ही गए। तुलसी ने धीरे से अपनी आँखें खोली, नेत्र खुले तो पर उनमें ज्योति कुछ समय बाद ही आई। राजा पर दृष्टि गई तो प्रसन्न होकर बोले, "आओ राजा। कहो कैसे हो?"

राजा बहुत गुस्से में थे, बोले, "तुम बहुत बुरे हो भैया! यहाँ आलती-पालथी मारे बैठे हो, खुश भी दिखते हो और वहाँ भौजी का रो-रोकर बुरा हाल है। इतने महीने से उसे कष्ट दे रहे हो। का अपनी पत्नी को कष्ट देकर ही तुम्हें तुम्हारे राम मिलेंगे। हम बता रहे हैं, चलो घर नहीं तो हम मारे गुस्से के तुम्हें कुछ अपशब्द बोल देंगे।"

तुलसी बोले, "राजा, तुम तो जानते थे कि मैं विवाह इत्यादि के चक्करों में नहीं पड़ना चाहता था। और फिर तुम्हारी भौजी ने ही तो मुझे मार्ग दिखाया है। मैं उसे कष्ट नहीं देना चाहता पर तुम ही बताओ कि अब उसके साथ रहकर क्या उसे अधिक कष्ट नहीं पहुंचाऊंगा। या तो मैं उससे विरक्त रहूंगा या अगर विरक्त नहीं रहा तो अपराधबोध से घिरा रहूंगा और कदाचित इसका दोषी स्वयं के साथ-साथ तुम्हारी भौजी को भी मानूँगा। वह विदुषी है, इस बात को समझ जाएगी। तब तनिक सोचो कि क्या उसे आज की तुलना में अधिक कष्ट नहीं होगा?"

लगा कि राजा रो देंगे, बोले, "और तारापति! उसे काहे भूल गए भैया? नन्हा तारापति, हमारा तारापति नहीं रहा भैया!"

इतने महीनों की एकाग्रता इस एक सूचना से भरभरा के ढह गई, "नहीं रहा? कहाँ गया मेरा तारापति?"

"राम के धाम।"

"राम के धाम? कैसे, कब?"

"बड़ी माता निकली थी भैया। बहुत जंतर-मंतर, दवा-औषधि, झाड़-फूंक की पर बचवा चले गए। हमारी भौजी का रोना हम देख नहीं सके। जानते थे कि तुम नहीं लौटोगे, एह लिए भौजी को साथ लाए हैं। बाहर खड़ी हैं। हम जाते है, उन्हें भेजते है।"

तुलसी ने अपनी आँखें मूंद ली। उन्हें वह समय याद आ गया जब उन्होंने अपने बेटे को पहली बार अपनी गोद में लिया था। जब पहली बार उसे अपनी उंगलियों से शहद चटाया था। जब पहली बार उसने उनके कपड़े खराब कर दिए थे। जब वह पहली बार अपने घुटनों के बल, और पहली बार बिना सहारे अपने पैरों पर चला था। जब उसने उन्हें अपनी तोतली बोली में बाबा कहा था, और जब वो उन्हें देखते ही उनके पास लुढ़कते-पुढ़कते दौड़ता चला आया था। हाँ तारापति!

रत्ना ने कमरे में धीरे से प्रवेश किया और सुबकने लगी। तुलसी समझ ही न पाए कि क्या कहें? 'कहो, कैसी हो' जैसी बात कहने का मौका नहीं था। कुछ समय तक खुद को संयत करने के बाद बोले, "तुम्हें यहाँ नहीं आना था रत्नावली। मानता हूँ कि तुम्हारा अपराधी हूँ पर विवश हूँ। मैं वापस नहीं लौट सकता।"

रत्ना की बड़ी देर से रोकी रुलाई फूट पड़ी। दौड़ते हुए आई और तुलसी के पैरों को अपनी बाहों में जकड़ रोने लगी। आंसुओं का वेग थोड़ा थमा तो खुद को तनिक संयत कर बोली, "ऐसा न कहो। मेरी एक बात का इतना बड़ा दण्ड मत दो। मैं रोज मर रही हूँ, मुझे और मत मारो। मुझे प्रेम करना मत छोड़ो।"

"मैं तुम्हें दण्ड नहीं दे रहा रत्नावली। मैं तुमसे तनिक भी क्रोधित नहीं हूँ। बजरंगी की शपथ, मैं तुमसे नाराज नहीं, अपितु कृतज्ञ हूँ कि तुमने मुझे सही मार्ग दिखाया।"

"जो दण्ड नहीं दे रहे तो साथ क्यों नहीं रहते? अब तक तारा में तुम्हारी सूरत देख जिंदा थी, अब क्या करूंगी? तुम गए, तारा भी गया, बस मैं पापिन रह गई। नहीं, नहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी। तुम मेरे साथ घर मत चलो, मुझे ही अपने साथ ले चलो। देखो, ना मत कहना। मैं तुम्हे तनिक भी परेशान नहीं करूंगी। कहोगे तो तुम्हारे सामने भी नहीं आऊंगी। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि तुम्हारे आसपास तुम्हारी रत्नू है।"

"यह कैसी बात रत्नावली! तुम साथ होगी तो हम जहाँ भी होंगे, वही घर हो जाएगा। नहीं, मुझे क्षमा करना। न तुम्हारे साथ जा सकूंगा, न तुम्हें अपने साथ रख सकूंगा।" कुछ देर रुक कर पुनः बोले, "अच्छा, बैठो। बहुत दूर से आई हो। कुछ जलपान की व्यवस्था करता हूँ। बैठो, बैठो।"

रत्ना को कमरे में छोड़, तुलसी बाहर निकल आए। बाहर राजा बैठे थे, तुलसी को आता देख खड़े होने लगे। राजा के कुछ बोलने से पहले ही तुलसी बोल पड़े, "बैठो, बैठो। कुछ जलपान, भोजन इत्यादि की व्यवस्था देखता हूँ। बस गया और आया। तुम बैठो।"

तुलसी तेज गति से बढ़ चले। जो चित्रकूट से निकले तो फिर जगतजननी माता सीता की मिथिला में जाकर रुके।
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रामबोला 14
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मिथिला क्षेत्र में तुलसी को आए कुछ दिन हुए थे। भले लोग थे वहां के। तुलसी ब्राह्मण तो थे ही, बचपन में भिक्षा मांगने का अभ्यास भी था। यद्यपि वर्षों तक किसी सम्पन्न व्यक्ति की तरह जीवन बिताने के बाद पेट की क्षुधा मिटाने के लिए अब किसी के सामने हाथ फैलाना कष्टकारी तो था पर जब पत्नी, पुत्र, घर त्यागा तो मिथ्या अहंकार भी त्यागना उचित ही था। पाँच घरों से भिक्षा मांग, भोजन पका-खा कर वे घूमने निकल जाते। धर्मयात्रा पर निकले तीर्थयात्रियों के पीछे -पीछे चलते और उन तीर्थयात्रियों का मार्गदर्शन करते पंडों को बड़े ध्यान से सुनते। पंडे बताते कि इस जगह पर कर्मसन्यासी राजा जनक ने अकाल-मुक्ति के लिए हल चलाया था, यहाँ उन्हें जगज्जननी आद्याशक्ति भगवती श्री जानकी जी शिशु रूप में मिली थी, यहाँ उनका महल था, यहाँ शिव धनुष पिनाक की पूजा होती थी, यहाँ स्वयंवर रचा गया था।

तुलसी इन बातों को सुनते और उन सबको सुन जैसे उनके नेत्रों के सामने सब कुछ साक्षात घटित होने लगता। पंडे और तीर्थयात्री आगे निकल जाते और वे उसी जगह पर उस दृश्य को विस्तार से देख रहे होते। देखते-देखते कब रात्रि हो जाती, उन्हें पता ही नहीं चलता। संसार में कुछ नहीं बदलता, सब कुछ वैसा ही रहता। पर तुलसी के लिए उस एक दिन केवल स्वयंवर की तैयारी हो रही होती दिखती, तो अगले दिन महर्षि विश्वामित्र धनुष यज्ञ दिखाने के बहाने श्रीराम और सौमित्र को साथ लिए आते दिखते। नेत्रों के सम्मुख दिखती घटनाओं ने उनके अंदर सोए पड़े कवि को झकझोर कर उठा दिया।

उन्होंने सभी घटनाओं को भाषा में, काव्य में ढाल दिया। उन्होंने माता जानकी और परात्पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के विवाह को बहुत विस्तार से लिखा। यज्ञ में राम का आना, धनुष तोड़ना, वरमाला पहनना, फिर लग्न पत्रिका और तिलक लेकर राजा जनक के कुलपुरोहित और ऋषि गौतम एवं सती अहिल्या के पुत्र महर्षि शतानन्द का अयोध्या जाना, कौशलाधिपति महाराज दशरथ का बारात लेकर आना, विवाह संस्कार, विदाई, और भृगुनन्दन भगवान परशुराम का मार्ग में मिलना, सब लिखा। उन्होंने विवाह के अवसर पर हर प्रकार की नारियों की कल्पना की। लोहारिन, तमोलिन, अहीरिन, नाइन इत्यादि सब। बल्कि खुद उनके रूप में उल्लसित हुए। इतना श्रृंगार बखाना परन्तु कल तक के कामी तुलसी के मन में वासना का लेश न जगा। कैसे जागता! माता सीता की दासियों, उनकी सँगनियों के प्रति कोई अन्य विचार आ भी कैसे सकता था! तुलसी 'जानकी मंगल' रच काम से मुक्त हो गए। राम के और पास हो गए।
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काफी दिन मिथिला में व्यतीत कर तुलसी काशी और प्रयाग के बीच की एक जगह सीतामढ़ी पहुंचें। यहाँ आदिकवि वाल्मीकि का आश्रम माना जाता है। वे गंगा के किनारे एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठ जाते और दिन भर माता सीता के चरणों में ध्यान लगाते। कभी-कभी उन्हें बरगद के पेड़ की झूलती लटें, देवाधिदेव शिव की जटाएं लगती तो वे शिवमय हो जाते।

एक रात्रि वे राम मिलन की आस बांधे उसी वटवृक्ष के नीचे सो रहे थे। स्वप्न में उन्हें माता जानकी दिखी। उन्होंने चट अपना शीश जगदम्बा के चरणों में नवाया और बालक की भाँति रोते हुए पूछा कि माँ, मेरे राम मुझसे कब तक रूठे रहेंगे? मुझे कब दर्शन देंगे? मुझे बताओ कि मैं क्या करूँ जो वे मुझ पर प्रसन्न हों और मुझे उनके दरबार में आने की अनुमति मिले? मुझे मार्ग दिखाओ माँ? अपने इस पुत्र की उंगली थाम लो या अपनी उंगली से संकेत ही कर दो कि मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ?

लगा कि जगदम्बा अपने हठी बालक को देख मुस्कुरा उठी। उनके होंठ तो न हिले पर लगा कि दिशाएं बोल रही हों कि अब तू अयोध्या जा। तुझे वहीं तेरा मार्ग दिखेगा।

इधर जगदम्बा अंतर्ध्यान हुई, कि उनकी नींद टूटी। देखा तो सामने उनके बालसखा, उनके बजरंगी अपने विशालतम रूप में खड़े हैं। तुलसी के कातर नेत्रों को देख उन्होंने अपना आकार छोटा किया और जब वे मनुष्याकार हुए तो सामने कपीश्वर हनुमान के स्थान पर कवीश्वर वाल्मीकि खड़े थे। तुलसी ने आदिकवि को साष्टांग प्रणाम किया तो उन्हें उठाते हुए महर्षि ने कहा, "मेरा एक काम करोगे वत्स?"

"आज्ञा करें महर्षि।"

"जो मैंने उस युग में किया था, वह तुम्हें इस युग में करना है पुत्र। इस कलिकाल में राम-नाम के सहारे की अत्यंत आवश्यकता है समाज को। धर्म गर्त में जा रहा है पुत्र। इसे राम ही बचा सकते हैं! परन्तु राम दूर हैं। उन्हें पास ला सकता है तो कोई कवि ही। स्वयं को पहचानो पुत्र। आम जनमानस की भाषा में रामायण रचो। लोगों को उनके राम के पास ले जाओ, तुम्हारे राम तुम्हारे पास स्वयं आ जाएंगे।"

तुलसी कुछ उत्तर देते उसके पूर्व ही उनके नेत्र पूरी तरह खुल गए। वे स्वप्न के अंदर स्वप्न देख रहे थे। पूरी रात्रि वे ऊहापोह में रहे कि स्वप्न में क्या स्वयं माता जगदम्बा और आदिकवि आये थे? क्या उनकी आज्ञा थी या मन की, स्वयं की कल्पना। शायद कल्पना ही हो। कभी-कभी कवि स्वयं की कल्पना को सच मान बैठते हैं।

सुबह हुई और वे अनिश्चित से उठे। नित्यकर्म इत्यादि पश्चात ध्यान में बैठे। जब नेत्र खोले तो सामने एक-वस्त्रधारी हट्टे-कट्टे साधु को अपनी ओर निहारता हुआ पाया। साधु ने बड़े प्रेम से उनका परिचय पूछा। पश्चात कहा कि मैं अयोध्या जी जा रहा हूँ, न हो तो आप भी साथ चलिए। जाने किस भावना से साधु ने ऐसा कहा पर तुलसी उनके साथ हो लिए। उन्हें बारम्बार यही ध्यान आता कि स्वयं हनुमान देहधारी हो उन्हें मार्ग दिखा रहे हैं।

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रामबोला 15
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अभी-अभी रावण अपनी पत्नियों के साथ आकर माता सीता के सामने यह प्रस्ताव रख गया कि वे यदि रावण को स्वीकार कर लें तो मंदोदरी सहित सभी रानियों को उनकी दासी बनाकर उन्हें पटरानी के पद से सम्मानित करेगा। माता सीता ने उसे भला-बुरा कह वापस लौटा दिया। माता बहुत व्यथित दिख रही थी। उन्होंने अपनी परिचायिका त्रिजटा से विनती की कि वे कुछ सूखी लकड़ियों की व्यवस्था कर दें और उनमें अग्नि प्रज्वलित कर दें, ताकि इस अग्नि में भस्म होकर वे मुक्त हो जाए। त्रिजटा उन्हें समझा-बुझाकर कुछ जलपान लाने चली गई। उसके जाते ही सामान्य वानर का रूप धरे, पेड़ पर बैठे, कपिराज सुग्रीव के मंत्री और रामदूत हनुमान को मौका मिल गया। उन्होंने चुपके से राम जी की एक निशानी, उनका स्वर्णाभूषण माता के सम्मुख गिरा दिया। माता ने आभूषण उठाया और चकित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगी। पेड़ पर एक वानर दिखा, जो धीरे-धीरे नीचे उतरा और पिछले पैरों पर खड़ा हो माता को प्रणाम कर बोला, "माता! शंका न करें। मुझे भगवान राम ने भेजा है।"

"मेरे राम ने! क्या उन्हें पता है कि मैं यहाँ हूँ?"

"माता! यदि उन्हें पता होता तो मेरे स्थान पर वे स्वयं सेना सहित आते और राक्षस कुल का वध कर आपको ससम्मान ले जाते। उन्होंने आपका पता लगाने के लिए ही तो मुझ जैसे अनगिनत दूतों को दसों दिशाओं में भेजा है। अब मैं जाऊंगा और उन्हें आपकी सूचना दूंगा। वे हम वानरों की आठ पदम् सेनापतियों वाली सेना लेकर लंका पर चढ़ाई करेंगे।"

इतने छोटे और कृशकाय वानर के मुँह से ऐसी वीरोचित बात सुन माता को बड़ा आश्चर्य हुआ। ऐसे दुर्बल प्राणियों की सेना से क्या रावण जैसे विश्वविजेता का सामना करेंगे राम? माता ने वानर से पूछा, "क्या तुम वानरों की सेना में सब तुम्हारे जैसे ही हैं?"

"कुछ मुझ जैसे भी हैं माता, परन्तु अधिकांश मुझसे कहीं अधिक शक्तिशाली और अनुभवी हैं।" माता को कुछ विचार करता देख हनुमान ने साग्रह पूछा, "माता! मैंने कल से कुछ नहीं खाया। आपका पता लगाने के विचार ने भूख को दबा दिया था। अब जब आप मिल गई हैं तो भूख लग आई हैं। यदि अनुमति हो तो इस सुंदर वन में लगे दो-चार फल खा लूँ?"

माता ने मुस्कुरा कर सिर के संकेत से आज्ञा दी। आज्ञा मिलते ही वानरोचित उत्साह से हनुमान एक केले के बड़े पौधे से केले के गुच्छे को खींचने लगे। गुच्छा हाथ नहीं आया तो तनिक जोर लगा दिया। गुच्छे के साथ पूरा पेड़ ही हाथ आ गया। पेड़ टूटने की हल्की सी आवाज हुई। अभी हनुमान एक केला छील भी नहीं पाए थे कि वन रक्षकों ने उन्हें घेर लिया और उन्हें पकड़ना चाहा। हनुमान ने पास आते रक्षक को मृदु हाथों से धक्का दे दिया। इतना उस रक्षक के प्राण लेने के लिए पर्याप्त था। एक-दो रक्षक और आये और समान गति को प्राप्त हुई। बाकी भाग गए। केले निपटाने के बाद ऊँचे वृक्षों पर लटकते लाल-लाल आमों ने उन्हें आकर्षित किया। इतना लंबा समुद्र लांघकर आ गए, अब कुछ आमों के लिए पेड़ पर भी चढ़ें! आम तक जाने दे अच्छा आम को स्वयं तक लाया जाए, ऐसा विचार कर हनुमान ने पूरे वृक्ष को ही उखाड़कर भूमि पर लिटा दिया। कुछ फल कच्चे थे तो दूसरे पेड़ को भी अवसर दिया। बीच-बीच में वन-रक्षक आते रहते, कुछ एकाध थप्पड़ में मारे जाते, बाकी भाग जाते। कुछ देर बाद पहले की तुलना में और अधिक सैनिक आते, पहले की तुलना में और अधिक मारे जाते, और जो बचते वे भाग जाते। हनुमान पेड़ तोड़ते जाते, एक हाथ से फल खाते, दूसरे हाथ से निशाचरों को मारते जाते।

कोई बड़ी सेना आई इस बार। आगे वाले अश्वारोही ने चिल्लाकर बताया कि रावण के प्रियपुत्र कुमार अक्ष पधारे हैं। रथ पर अस्त्र-शस्त्र से युक्त एक सुदर्शन पुरुष बैठा था। हनुमान ने देखा और जैसे मख्खी उड़ाई हो, एक पेड़ खींचकर फेंक दिया। अक्ष कुमार टें बोल गए और सेना फिर भाग गई।

रक्षिकाएँ पल-पल की सूचना माता सीता को दे रही थी। उन्होंने बताया कि इन्द्रजीत मेघनाथ ने उस विशाल वानर को बंदी बना लिया है। फिर सूचना मिली कि रावण उसे प्राणदण्ड दे रहा था पर विभीषण और कुछ मंत्रियों के कहने पर उन्हें कोई हल्की सजा देकर छोड़ दिया। अगली सूचना की आवश्यकता नहीं पड़ी। अग्नि की ऊँची लपटों और नगरजनों के आर्तनाद ने सब कुछ स्पष्ट कर दिया था।

कुछ प्रहर बाद माता सीता के सम्मुख मुस्कुराते हनुमान खड़े थे। माता समझ गई थी कि जो मैंने इसे दुर्बल समझा तो मुझमें विश्वास जगाने के लिए इसने पूरी लंका ही फूंक दी। स्वयं ही कहा था इसने कि इससे भी अधिक शक्तिशाली सेनापति हैं वानरों की सेना में। अर्थात राम को उचित सहयोगी मिल गए हैं। हनुमान ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया, "माता! जैसे प्रभु ने आपके लिए कोई निशानी दी थी, आप भी उनके लिए कोई निशानी दीजिये।" माता से एक आभूषण लेकर वे पुनः बोले, "आप तनिक चिंता न कीजिये। प्रभु शीघ्रातिशीघ्र आएंगे। अब मुझे आज्ञा दें।"
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तुलसी हड़बड़ाकर उठे। सांझ होने वाली थी। अगल-बगल देखा तो सीतामढ़ी से साथ चले हट्टे-कट्टे साधु बाबा कहीं दिखे नहीं। लगता है जैसे अयोध्या तक पहुंचा देने के लिए ही साथ चले थे। आज सुबह ही उन दोनों ने पैदल अयोध्या की सीमा में प्रवेश किया था। शहर तक आते-आते दोपहर हो गई थी। थकान लगी तो जो पहला छायादार बाग दिखा वहीं लेट गए। निद्रा आने से पहले तुलसी ने पेड़ों से लटकते रसीले फल देखे थे। कदाचित इसीलिए उन्हें अशोक-वन के दृश्य दिखे सपने में। पेट की भूख की अनुभूति के साथ उन्हें एक सुखद अनुभूति भी हुई कि उन्होंने अपने को इतना तो साध लिया कि अब उनका अवचेतन भी उनके प्रत्येक विचार को राम-कथा के साथ मिलाकर देखता है।

वे सोच रहे थे कि कहाँ जाए, कि सामने से एक वैश्य आता हुआ दिखा। पेड़ के नीचे किसी क्लांत ब्राह्मण को देख वैश्य रुक गया और प्रणाम निवेदन कर बोला, "कहाँ से आना हो रहा है महराज?"

तुलसी ने आशीर्वाद देकर कहा, "प्रयागराज से चला आ रहा हूँ। थकान लगी तो इस बगीचे में लेट गया। लगता है यह बाग आपका ही हैं?"

"जी महाराज, आपकी कृपा से हमारा ही है। आप क्लांत लगते हैं। लगता है कुछ दिनों से भोजन नहीं किया। आइए, चलिए। अपना जूठा हमारे घर पर गिराकर हमें अनुग्रहित कीजिये। चलिए।"

तुलसी नहा-धोकर भोजनोपरांत कुछ पलों के विश्राम के बाद तरोताजा बैठे थे। व्यापारी ने अतिथिगृह में प्रवेश किया और हाथ जोड़ बोला, "हमारे धन्यभाग जो हमें आपकी सेवा का अवसर मिला। कोई और आज्ञा हो तो दास हाजिर है महराज।"

"आप सात्विक पुरुष हैं श्रीमान। राम आपका कल्याण करें। वैश्य जम कर धनोपार्जन करें और उसे धर्म कार्य में लगाए तभी धर्म टिक सकता है। जगतमल जी, प्रभु के कार्य से मुझे अयोध्या में कदाचित कुछ रहना पड़े। क्या मेरी कहीं व्यवस्था हो सकती हैं जिससे मैं निश्चिंत होकर रामकाज कर सकूं?"

"कैसी बात करते हैं आप? आप जब तक चाहें, यहाँ रहें।"

"नहीं, नहीं। ब्राह्मण को यह शोभा नहीं देता। आप तो कुछ ऐसा बताए कि मुझे श्रम के बदले दो बार का भोजन, रहने को छत और स्वाध्याय के लिए पर्याप्त समय मिल जाए।"

"ऐसा है तो... महराज! आप पढ़े-लिखे हैं?"

"जी। काशी में शिक्षा पाई है।"

"तो महराज, अभी कुछ दिन पहले ही रामानुज मठ के महंत बता रहे थे कि उनके कोठारी जी अस्वस्थ चल रहे हैं। मरणासन्न हैं। मठ को एक कोठारी की आवश्यकता है। यदि आप कहें तो महंत जी से बात कर लेता हूँ।"

"अतिकृपा होगी जगतमल जी।"
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रामानुज मठ में तुलसी को कोठारी का काम संभाले कुछ सप्ताह हो गए थे। मठों में अब पहले जैसी बात नहीं रह गई थी, फिर भी रुपये-पैसे और अन्न इत्यादि मिलता ही था जिसका हिसाब रखने के लिए कोठारी जी लोग रखे जाते थे। सारी चल सम्पत्ति, अन्न, वस्त्र, पूजा की वस्तुओं इत्यादि का हिसाब रखने में तुलसी को सुबह के कुछ घण्टे ही लगते। भोजन इत्यादि के बाद वे मठ से निकल जाते और अयोध्या जी में घूमते रहते। प्रत्येक व्यक्ति उन्हें रामायण काल का कोई चरित्र लगता। घोड़े पर चलते सैनिक उन्हें राम के सैनिक दिखते। पेड़ों पर उछलते बंदरों में कभी अंगद दिखते तो कभी सुग्रीव। कोई वृद्ध महिला देख कौशल्या, सुमित्रा और कैकई माता दिखती। कोई कुबड़ी दिखती तो लगता कि मंथरा चली आ रही है। कभी ध्यान लगाने बैठते तो दक्षिण में हनुमान, बाएँ माता जानकी और दाएँ सौमित्र दिख जाते पर मध्य में कोई चेहरा कभी नहीं दिखता। तुलसी रो पड़ते। कभी हनुमान को पकड़ते तो कभी सीता से विनती करते। हनुमान से कहते कि तुम तो उनके प्रिय हो, बोलते क्यों नहीं कि मुझे दर्शन दो। न हो तो सौमित्र से ही कह दो। वे तो मुँहफट हैं भी, राम से कहने में तुम्हारी तरह संकोच नहीं करेंगे। माता से कहते कि आप तो पत्नी है उनकी। भला आपकी बात भी टालेंगे वे! जब अधिक व्यथित हो जाते तो फकीरों के साथ बाबरी मस्जिद के सामने बैठ जाते जिसे मंदिर तोड़ कर बनाया गया था। वहीं बैठे-बैठे आँसू बहाते। उन्हें इस तरह रोता देख सूफी और पहरा देते सैनिक उनसे बहुत प्रभावित होते।

कलिकाल था, धर्म छिज रहा था। अधर्म के पाँव धर्म के घरों में, अर्थात मठों तक में प्रवेश कर चुके थे। माना जाता था कि मठ के निवासी ब्रह्मचारी होते हैं, परन्तु ऐसा था नहीं। व्यभिचार का बोलबाला था। आम नागरिक भले भी साधुओं, महंतों को भगवान माने पर अधिकांश मठवासी धार्मिक नहीं रह गए थे। इस मठ के महंत तक एक भगतिन से फँसे हुए थे। एक तरह से उस भगतिन की सत्ता चलती थी मठ में। किसी मठवासी को अपनी उचित-अनुचित मांग पूरी करवानी होती तो भगतिन के माध्यम से पूरी करवाई जाती। बस भगतिन को लल्लो-चप्पो से खुश कर दो, फिर भगतिन महंत जी से सिफारिश कर देगी। कभी ऐसा हुआ नहीं कि भगतिन ने कुछ कहा और महंत जी ने न की हो।

असीमानन्द जी को कुछ रुपयों की आवश्यकता थी। अपनी चेली को कुछ उपहार देना चाहते थे। पर समस्या थी कि नया कोठारी बिना महंत के कहे कुछ देने को राजी नहीं था। पिछले कोठारी जी तो खुद भी खाते थे, और दूसरों को भी खिलाते थे। आखिर सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे। पर यह कोठारी तो न केवल ईमानदार था अपितु सच्चा ब्रह्मचारी भी था। इतना गोरा वर्ण, लम्बा कद, बलिष्ठ शरीर और दमकता माथा देख कितनी भी भगतिन और चेलियों ने इसे फंसाना चाहा पर सब व्यर्थ। जाने किस मिट्टी का बना था। असीमानन्द जी ने कोठारी से कुछ कहने की अपेक्षा महंत जी की चेली को पकड़ा। अपना दुखड़ा रोया और वादा किया कि जितना भी रुपया मिलेगा उसका चार आना भगतिन को दे देगा।

अगले दिन भगतिन असीमानन्द को लेकर कोठारी जी के पास पहुँची। तुलसी उस समय सारा बही निपटाकर राम नाम भज रहे थे। भगतिन की आवाज पर आँखें खोली। भगतिन ने कहा, "पा लगी कोठारी जी। तनिक असीमानन्द जी को दस मुद्राएं दे दीजिए।"

तुलसी बोले, "जी जरूर! परन्तु पहले महंत जी की लिखित अनुमति चाहिए होगी।"

"उसकी कोई आवश्यकता नहीं। आप रुपये दे दीजिए। और उसे किसी खाते में मत लिखियेगा। महंत ही से मैं समझ लूंगी।"

"आपका समझना पर्याप्त नहीं है देवी। और समझना न आपका कार्य है न महंत जी का। यह मेरा कार्य है और मुझे समझाना महंत जी का। अतः आप उनसे अनुमति ले आइए। यदि कोई अन्य कार्य न हो तो मुझे क्षमा करें। नमस्कार।" इतना कह तुलसी फिर से अपनी माला फेरने लगे।

भगतिन का मुँह क्रोध से लाल हो गया। पाँव पटकती महंत जी की गद्दी के पास गई। कुछ ही देर में तुलसी का बुलावा आया। वे कमरे के अंदर गए तो देखा महंत जी गद्दी पर पसरे हुए हैं और सिरहाने बैठी सुबकती भगतिन के कंधे थपथपा रहे हैं। तुलसी को देखते ही महंत जी ऊँची आवाज में बोले, "क्यों भई कोठारी जी! आपने देवी जी का अपमान क्यों किया?"

"मैंने इनका कोई अपमान नहीं किया श्रीमान।"

"तो ये रो क्यों रही हैं? झूठ मत बोलो। तुमने इनका अपमान किया है। तुम्हें इनसे क्षमा माँगनी होगी?"

तुलसी को भी क्रोध आने लगा, "क्षमा! किसलिए! अपना कर्तव्य पालन के लिए? आपकी देवी जी चाहती थी कि इनके कहने पर मैं खजाने से दस मुद्राएं दे दूँ। और उसे कहीं लिखूं भी नहीं।"

महंत ने भगतिन की ओर देखा, भगतिन और जोर से सुबकने लगी। महंत जी तनिक और ऊँची आवाज में बोले, "तो क्या हुआ? दस मुद्राएं ही तो थी। दे देते। दस क्या, अगर ये पूरा खजाना माँगे तो भी दे देना चाहिए था।"

"क्षमा कीजियेगा। मैं केवल मठ के महंत की आज्ञा ले सकता हूँ। अन्य किसी की भी नहीं।"

"तो यह महंत तुम्हें आज्ञा देता है कि भविष्य में जब भी देवी जी आपसे कुछ कहें, आपको बिना प्रश्न किए मानना होगा।"

तुलसी क्रोधित हो उठे। क्या अब ऐसे पापियों के अंतर्गत काम करना होगा? इन व्याभिचारियों की आज्ञा माननी होगी। उन्हें तो पता ही नहीं था कि महंत का चरित्र भी इतना स्याह होगा, और ऐसी न्यायबुद्धि कि बेईमान का साथ देकर ईमानदार का अपमान करे। अपनी वाणी को भरसक शांत कर बोले, "मैं देख रहा हूँ कि यहाँ व्यभिचार न्याय पर भारी है। मैं यहां काम नहीं कर सकता। हिसाब समझ लीजिए, और मेरी छुट्टी कीजिये।"

महंत को इस बात से और गुस्सा आ गया। चिल्लाते हुई बोला, "तेरा इतना साहस कि मुझे व्यभिचारी बोले।" महंत का चिल्लाना सुन दो-तीन मठवासी कमरे में आ गए थे। महंत ने उनकी ओर देख कर कहा, "पकड़ लो इस दुष्ट को।" यह सब देख तुलसी का सारा क्रोध तिरोहित हो गया और उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई। उन्होंने अपनी धोती कसी और दुपट्टे से अपने लंबे केशों को बाँध कर मुस्कुराते हुए बोले, "गुरु की सिखाई समस्त विद्याओं का कभी न कभी उपयोग किया था। बस यह मल्ल विद्या ही रह गई थी। लगता है आज इसका उपयोग भी हो ही जायेगा।" अपनी जंघा पर हाथ मारते हुए बोले, "आ जाओ। आज तुम्हें मालूम चलेगा कि रामबोला राम भक्त होने के साथ-साथ बजरंगबली का मित्र भी है। आओ!"

तुलसी को इस वीरमुद्रा में देख सब सकपका गए। किसी को आगे न बढ़ता देख, तुलसी अपनी सहज मुद्रा में लौट आए। अपनी कमर से तिजोरी और भंडार की चाभी निकाल महंत के आगे धीरे से फेंक दी और जाने लगे। उन्हें अपनी ओर पीठ करता देख मारे गुस्से के मुँह से फेन उगलता महंत चिल्लाया, "तू मठ छोड़कर जा रहा है, मैं तुझे अयोध्या से बाहर फिंकवा दूँगा। तुझे चैन से नहीं रहने दूंगा।"

तुलसी पलटे और शांतचित्त होकर बोले, "अयोध्या राम की है। किसी व्यभिचारी, कपटी, अधर्मी की इतनी सामर्थ्य नहीं कि वो राम के रामबोला को अयोध्या से निकाल सके। पर तुम अपनी सामर्थ्य भर प्रयास अवश्य कर देखना। चलता हूँ। जय श्री राम।"

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रामबोला: 16
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बसंत पंचमी का दिन था। रामघाट पर बहुत भीड़ थी। इस वर्ष अकाल पड़ा था। गाँवों-देहातों से गरीब जनता शहरों में उमड़ी आती थी। धनी-मानी लोग भी कितने को खिलाते! एक को दो तो दस हाथ फैले हुए दिखते। लोग देने में संकोच करने लगे थे। पर बसंत पंचमी को नदी में डुबकी लगाना पवित्र कर्म है, और डुबकी के बाद अन्न-दान महादान। धनी-मानी और मध्यमवर्गीय लोग अपने साथ खिचड़ी का चावल ले आते और नहाने के बाद गरीबों को मुठ्ठी, दो मुठ्ठी अन्न दान करते जाते। क्या पता इन रवायतों को इसीलिए बनाया गया हो कि धर्म के लाभ से अथवा भय से साधन-सम्पन्न लोग गरीब जनता की कुछ मदद कर दें। घाट पर देने वाले और लेने वालों के अतिरिक्त कुछ कथावाचक लोग भी बैठे थे। लोग नहाने के बाद कथा सुनने के लिए उनके सामने बैठ जाते, थोड़ी कथा सुनते, थोड़ा संसार बतियाते, दो मुठ्ठी अन्न या कुछ मुद्राएं चढ़ाकर आगे बढ़ जाते।
एक वयोवृद्ध कथावाचक अपनी चौकी पर बैठे लोगों की राह तक रहे थे। सामने बिछे अंगोछे पर न तो अन्न न ही कोई मुद्रा, बस देवता को चढ़ाए कुछ पुष्प पड़े हुए थे। कदाचित कभी वे उत्तम कथावाचक रहे हों, इसीलिए तो रामघाट जैसी जगह पर खुद की छोटी सी दो कमरों की कोठी थी। पर अब न उनके गले में वो आवाज रही थी और न वे नए कथावाचकों की तरह लच्छेदार अंदाज में कथा कह पाते थे। बगल में एक कथावाचक महोदय अपनी भोंडी आवाज में खूब ऊँची आवाज में कथा कह रहे थे, पर भाषा इतनी लच्छेदार थी कि जनता खिंची-खिंची जाती। वृद्ध बाबा के सामने एक लाला जी पधारे। पालगी करने के बाद पूछा, “का महराज! सूखे-सूखे बैठे हैं। कोई आया नहीं का?”
बाबा बोले, “नहीं लाला, जनता को अब नई आवाज अधिक लुभाती है, भले ही उसमें सत्व हो या न हो।”
“तो आप इतना परेशान क्यों होते हैं? हम तो कब से कह रहे हैं कि कहाँ आप इस उमर में इतना श्रम करते हैं! अरे, इतने मौके पर जमीन है आपकी, कोई बाल-बच्चा तो हैं नहीं जो आगे कोई भोगे। तो इसे आप हमें बेच काहें नहीं देते। पूरे पचास रूपये देंगे। न हो तो एक्कावन ले लीजिए।”
वृद्ध कुछ बोले नहीं तो लालाजी तांबें का एक सिक्का चढ़ाकर आगे बढ़ लिए। वृद्ध को अत्यधिक क्रोध आ गया था। तांबें को सिक्के को उठाकर दूर फेंक दिया और जाने किसे सुनाते हुए बोले, “चंद पैसे के लिए बाप-दादा की जमीन किसी बोपारी के बेंच दे। समझता क्या है? न सही आज का भोजन। दूर हो।”
थोड़ी दूर पर बालू पर बैठे तुलसी यह सब सुन रहे थे। उठकर बाबा के पास आए और पालगी करने के बाद बोले, “महात्मन, मैंने अभी तक की सारी बातें सुनी हैं। यदि अनुमति दे तो एक निवेदन करू?”
वृद्ध बाबा बोले, “तुम कौन हो पुत्र? कुछ जाने-चीन्हें से लगते हो।”
“मैं आपकी ही तरह राम जी की शरण में आ गया हूँ, नाम भी रामबोला है। कुछ दिनों से रोज सुबह यहीं आपके बगल में बैठता हूँ। कदाचित इसीलिए आपको मेरा चेहरा ध्यान में रहा होगा।”
“अच्छा-अच्छा, तो तुम कुछ कहना चाहते थे। बताओ क्या बात है?”
“देखता हूँ यहाँ कई कथावाचक हैं। आपको पिता और स्वयं को आपका पुत्र मान निवेदन करना चाहता हूँ कि हो सके तो मुझे आपके स्थान पर कथा कहने का अवसर दें। जो भी चढ़ावा चढ़े वो आपका। आपके लिए भोजन भी पका दिया करूँगा और उसमें से थोड़ा मैं भी खा लिया करूँगा।”
थोड़े अभिमान भरे स्वर में वृद्ध बोले, “कथा कहना इतना सरल नहीं है युवक। क्या पहले भी कभी कथा कही है तुमने?”
“जी श्रीमान। गृहस्थाश्रम में मेरी जीविका का साधन कथावाचन और ज्योतिष ही था। यद्यपि ज्योतिष का भाग अधिक था।”
“तो पहले तुम मुझे कथा सुनाओ। संतुष्ट हुआ तो आगे देखी जाएगी”। इतना बोल बाबा ने अपना स्थान छोड़ दिया। तुलसी ने उन्हें सहारा देकर अपने स्थान पर बैठाया और स्वयं बाबा की चौकी पर बैठ गए। सामने बैठे बाबा के अंदर राम का ध्यान किया, गुरु को प्रणाम किया और बुलंद आवाज में बोल उठे,
“खेती न किसान को, भिखारी को न भीख ,बलि,
बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी।
जीविकाबिहीन लोग सीद्यमान सोचबस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई , का करी?’,
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी , दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।”
आस-पास के लोगों ने इतनी मधुर और प्रभावशाली आवाज सुनी तो एकबारगी चौंक उठे। वर्तमान की समस्याओं का इतना काव्यात्मक वर्णन और इतनी मार्मिक अरदास! लोग दूसरे कथावाचकों के पास से उठ-उठकर इस नए कथावाचक के पास बैठने लगे। यह कथावाचक आज की कठिनाइयों का वर्णन कर प्रभु श्रीराम से प्रार्थना कर रहा था कि ‘अब और कितनी देर करोगे प्रभु? आ जाओ और देखो अपनी प्रजा के कष्टों को। अब तुम्हारे अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं बचा। अनाथों को सनाथ करो भगवन।’ जन समूह को उसने बताया कि यह नगरी तो स्वयं श्रीराम की जन्मस्थली है। यहाँ उस मर्यादा पुरुषोत्तम ने जन्म लिया जिसने संसार भर के दुष्ट प्राणियों का वध किया और विश्व को भयमुक्त बनाया।
तुलसी जब तक बोलते रहे, लोग तन्मय होकर सुनते रहे। जब कथा समाप्त हुई, उस समय तक इतना धन और अन्न चढ़ चुका था कि अंगोछे की सीमा पार कर बालू में फैल गया था। लोग जाते-जाते कहते जाते कि भगत जी, हम कल भी आएंगे। कृपया कल भी कथा सुनाइएगा। वृद्ध बाबा इतनी चढ़त देख गदगद थे। उन्होंने तुलसी के कंधे पर हाथ रख कहा, “तुम तो उत्तम कोटि के कथावाचक हो। जो तुम रोज ही ऐसी कथा सुनाओ तो इतनी चढ़त चढ़े कि मैं इस कोठी पर चारदिवारी बांध दूं। अभी तुम कहाँ ठहरे हो आयुष्यमान?”
“अभी तो बस्ती में सरजू ग्वाले के यहां रोटी सेंक लेता हूँ। संध्या को वह एक कटोरी दूध दे देता है।”
“तो तुम ऐसा करो कि यहीं रह जाओ। यही रहो, कथा सुनाओ। मेरे मन में यह संतोष तो रहेगा कि मेरे बाप-दादा के स्थान पर एक गुणी ब्राह्मण रहता है। मेरे पश्चात यह स्थान भी तुम्हारा ही होगा। कहो तो लिखा-पढ़ी भी कर दूँ।”
“अरे नहीं श्रीमान। इस तरह तो मैं जिससे भागकर आया उसी में वापस लिप्त हो जाउँगा। मैं अभी जैसा हूँ उसी में परम संतुष्ट हूँ। पर आपको पिता बोला है तो जब तक अयोध्या में हूँ, यहीं से कथावाचन करूँगा। चढ़त पर आपका ही अधिकार होगा। कभी-कभी यहाँ रुक भी जाऊँगा पर किसी संपत्ति पर मेरा कोई अधिकार नहीं होगा।”
कुछ ही दिनों में तुलसी के नाम का ऐसा डंका बजा कि सरयू किनारे के कथावाचक ही नहीं, पूरे अयोध्या के बड़े-बड़े कथावाचकों, मंडलेश्वरों का सिंहासन डोल गया। होली के आने तक तो शहर का बच्चा-बच्चा तुलसी के नाम से परिचित हो चुका था। तुलसी की प्रसिद्धि ने नए-पुराने सभी मठाधीसों में खलबली मचा दी थी। शहर के एक मठ में कुछ नामी कथावाचक और महंत बैठे थे। रामचरणधूलिदास जी बोले, “ई नया बवाला कौन आ गया हो महराज। ई तो हम लोगन को लीले जा रहा है। कल तक जो लोग हमारे आगे हाथ जोड़े खड़े होते थे, आजकल उधर लपके जा रहे हैं।”
किशनचूनामनी जी बोले, “ये जो बगल हाथ में रामानुजी मठ है न, उसी का कोठारी था। सुना कि कुछ पैसे-वैसे का लफड़ा किया रहा सो महंत जी ने कान पकड़ कर बाहर निकाल दिया।”
रामानन्द जी बोले, “देखिए महराज! हमारा मुँह मत खुलवाइए। हम सबको जानते-चीन्हते हैं। उन महंत जी को भी और आप लोगों को भी। ये युवक सच्चा रामभक्त है। पैसे का लफड़ा करेगा ये? इतना चढ़ावा चढ़ता है कि दो महीने में आप लोगों से बड़ा महन्त बन जाए पर शाम को उस अहिर के यहाँ सोता है। पाँच गाय खुद खरीद सकता है पर केवल एक कटोरी दूध स्वीकारता है सरजू अहिर से।”
रामचरणधूलिदास जी तनिक खिंसियाते हुए बोले, “अरे हाँ-हाँ, ठीक है। बड़ा ईमानदार और पवित्र आदमी है। पर जो हमारे पेट पर लात पड़ी उसका क्या? देखिए, जो ये ज्यादा दिन रहा तो हम लोग भूखे मरेंगे। समय रहते कोई उपाय कीजिए।”
किशनचूनामनी जी ने प्रस्ताव किया, “जनता बड़ी भोली होती है। चारित्रिक दुर्बलता का आडंबर खड़ा कर हम किसी को भी नीचा दिखा सकते हैं। इन बातों का जनता बहुत जल्दी विश्वास कर लेती है। अभी परसो बमलहरी जी बता रहे थे कि जाने कैसे उनकी सेवा में रहने वाली गेंदा दाई गर्भवती हो गई है। यदि आप लोग कहें तो हम बात चलाएं? का कहते हैं?”
“अरे शुभस्य शीघ्रम।”
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रामघाट पर तुलसी अपनी जगह पर बैठे कथावाचन कर रहे थे। वे भाषा में रची अपनी 'जानकी मंगल' का पाठ करते और बीच-बीच में वाल्मीकि जी की रामायण के कुछ श्लोकों का तड़का लगा देते। फिर उसे विस्तार से समझाते। जनता मुग्ध हो उठती। पहले-पहल तो उन्होंने वृद्ध कथावाचक के अंदर राम का ध्यान कर कथा सुनाई थी, फिर जब लोग आने लगे और उनके वाचन की प्रशंसा करते तो उनमें बहुत उत्साह जगता। वे उन सभी के अंदर राम को प्रमाण कर कथा शुरू करते। एक समय ऐसा आया कि वे कथा कहते और वे ही सुनते। राम से कहते, राम जी सुनते।
वे किसी प्रसंग की चर्चा कर रहे थे कि भीड़ में से रास्ता बनाकर आगे बढ़ती गेंदा दाई ने चिल्लाकर कहा, "अरे ओ भगत जी! यहां तो बड़े धर्मात्मा बने बैठे हो। और इतने दिन से मेरी कोई खबर ही नहीं ली?"
लोगों में हड़कंप मच गया। कई लोग पुकार उठे, "हैं! हैं! क्या बात? क्या बात?"
गेंदा लोगों को सुनाकर बोली, "बात क्या! ये जो तुम लोगों के महात्मा जी बैठे भगतई कर रहे हैं न, रात-बिरात मोरे पास आते रहे। अब ये पेट फूल गया तो झांकने भी नहीं आते। पहले तो बड़ा कहते थे कि रानी बनाकर रखूंगा और अब देखो, कैसा साधु बना बैठा है।"
तुलसी भौचक्के! कोई स्त्री क्या इतना नीचे गिरकर ऐसा झूठ भी बोल सकती है? मुँह बाए देखते रह गए। तभी पीछे से कुछ युवकों ने उस गेंदा की चोटी पकड़ ली और गुस्से में बोलने लगे, "अरे अब क्या हम इतने अंधे हो गए हैं जो तुझ पापिन की बात का भरोसा कर इन महात्मा जी पर शंका करे। तुझे कौन नहीं जानता चुड़ैल! सारे मठों में डोलती फिरती है। और चाहे तू जो भी हो, हमें भगत जी पर पूरा भरोसा है। अजुध्या जी में कोई तो सत्पुरुष आया है। क्या हम लोग इन नीच की बात का भरोसा करेंगे?" लोगों ने उन युवकों की बात का अनुमोदन किया। गेंदा ने फिर कुछ बोलना चाहा तो युवक उसे खींच कर मंडली से बाहर के जाने लगे। तुलसी यूँ तो युवकों द्वारा उन पर विश्वास जताने से बहुत प्रसन्न हुए थे पर एक गर्भवती महिला को इस प्रकार ले जाते देख दौड़कर उन युवकों के बीच आ गए और हाथ जोड़कर बोले, "अरे भैया, क्या करते हो! किसी स्त्री का इस प्रकार अपमान करने पर जानकी मैय्या का दिल दुखेगा। छोड़ दो इसे।" गेंदा के हवास उड़े हुए थे, उसकी ओर देखकर बोले, "तुम स्त्री हो। तुम्हें ऐसा प्रपंच शोभा नहीं देता। स्त्री तो सूर्पनखा भी थी और भैया लक्ष्मण ने उसकी नाक काट ली थी। देख लो, इधर इतने लक्ष्मण खड़े हैं। जब अपनी नाक कटवानी हो तो ही इधर आना अब। जाओ, राम जी तुम पर कृपा करें। जाओ।"
इस घटना ने तुलसी को समाज की नजर में और ऊँचा कर दिया। जिस दिन जानकी मंगल का अंतिम पाठ था, लगता था कि पूरी अयोध्या ही रामघाट पर जमा हो गई है। तुलसी ने कथा पूरी की और फिर हाथ जोड़कर सभी श्रोताओं को विदा किया। बस कुछ वृद्ध बैठे रह गए थे। लाला हिरदयमल गदगद स्वर में बोले, "भगत जी, राम जी की किरपा रही जो हम इतने बरस जी लिए। जो अगर पहले चले गए होते तो इतनी सुंदर कथा से और आपके दरसन से मरहूम रह जाते। बहुत पैसा कमाया पर इन कुछ दिनों में जो कमाया, उसके सामने तो पिछली कमाई कुछ भी नहीं।"
तुलसी पहले ही गदगद थे। इन बातों पर बस विनम्रता से हाथ जोड़ दिए। लाला जी बड़े विनीत होकर बोले, "महराज, जदी अनुमति दे तो एक प्रार्थना है। आप चारों राजकुमारों की शादी तो करा दिए। अब जो ज्योनार भी हो जाता तो बड़ा मंगल होता। फिर जाने कब ऐसी वाणी सुनने को मिले, कि न मिले! इसलिए हाथ जोड़ प्रार्थना है कि आप कथा को आगे बढ़ाइए।" वृद्ध कथावाचक ने भी लाला जी की हाँ में हाँ मिलाई।
वृद्ध बाबा बोले, "मैं तो और आगे कहता हूं कि राम कथा पूरी की पूरी, आदि से लेकर अंत तक क्यों नहीं रचते। सुना है कि बंगाली और द्राविड़ी में भी है रामायण!"
पीछे खड़े युवकों में से एक बोला, "हाँ बाबा, महात्मा कम्बन और कृत्विदास ने लिखी है बंगभाषा और द्राविड़ी में।"
"लो बताओ! बाहर वाले अपनी-अपनी भाषा में रामायण लिख गए और राम जी के घर की भाषा में ही रामायण नहीं है! बेटा तुलसी, तुममें भक्ति भी है और कवित्व की शक्ति भी। यह कार्य बस तुम ही कर सकते हो। भाषा में रामायण लिख तुम समाज पर बहुत कृपा करोगे। बोलो पुत्र, क्या तुम ऐसा करोगे?"
तुलसी ने एक क्षण को आँखें मूंदी और फिर बोले, "मैं अयोध्या आया ही इसीलिए था कि सीतामढ़ी में माता सीता ने अयोध्या जाने का आदेश दिया था और स्वयं वाल्मीकि जी ने कहा था कि मैं भाषा में रामायण लिखूं। मुझे आभास हो रहा था कि कुछ बहुत शुभ होने वाला है। मुझे स्वयं पर विश्वास नहीं था बाबा। आपने, लाला जी ने और इन युवकों तथा अन्य श्रोताओं ने मुझसे आत्मविश्वास पैदा किया है। मैं आप सभी का आभारी हूँ। राम जी ने चाहा तो मैं यह कार्य अवश्य करूँगा।"
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उस दिन तुलसी रामघाट पर ही रुक गए थे। भोर में जब आँख खुली तो उन्हें सामने जो दृश्य दिखा, उसे देख वे चमत्कृत हो उठे। नदी में डुबकी मारकर बाहर निकलता श्यामवर्णी, लंबा, ऊंचा, बलिष्ठ युवा शरीर। जल से भीगे लंबे केश, उनसे बूंद-बूंद टपकता पानी, उन्नत ललाट, गहरी और कृपालु नेत्र, भयमुक्त करने वाली मुस्कान। 'क्या यह स्वयं श्रीराम चले आ रहे हैं? क्या मेरे राम ने मुझपर अपनी कृपा की है? अहा, अहा, जन्म सफल हुआ प्रभु। इस अकिंचन पर, इस पापी पर आपने इतनी कृपा करी। बचपन की साध पूरी की मेरे नाथ, मैं कैसे अपनी कृतज्ञता प्रकट करूँ। हे दीनदयाला! हे कृपानिधाना! अपने रामबोला का प्रणाम स्वीकार करो प्रभु!'
वृद्ध बाबा कमरे से बाहर निकले तो क्या देखते है कि तुलसी नदी की ओर एकटक देखे जा रहे हैं। चेहरा ऐसा हो आया है जैसे कोई अनहोनी देख ली हो। बाबा घबरा गए और तुलसी को कंधों से पकड़ हिलाकर बोले, "बेटा! क्या हुआ? सब ठीक तो है न?"
तुलसी के आंखों के सामने से राम जी चले गए। आंखों की पुतलियां फिरी और तुलसी संसार में वापस लौट आये। बाबा को देख प्रसन्न होकर बोले, "बाबा, मेरे राम ने मुझे आशीर्वाद दे दिया है। अब तो रामायण की रचना होकर रहेगी। रामनवमी कब है बाबा? मैं रामनवमी के शुभ दिन से इस पवित्र कार्य का आरम्भ करूँगा।"
"अहोभाग्य, अहोभाग्य। बोलो सियावर रामचन्न की जै! बेटा, जी हरियर कर दिया तुमने। मेरा पंचांग तो क्षत-विक्षत पड़ा है, नहीं अभी देखकर बताता रामनवमी का। चलो, बगल में जनेशर मिसिर के यहाँ से पता कर आते हैं।"
"आप बैठिए बाबा, मैं ही चला जाऊंगा।"
बाबा को वही छोड़ तुलसी पंचांग देखने गए। नवमी मंगल की दोपहर को लग रही थी। पर जनेशर मिसिर का कहना था कि नवमी सूर्योदय से मानी जायेगी, तो बुधवार को पड़ेगी। तुलसी प्रणाम कर चल दिये, और मन ही मन सोचते रहे कि जिसे जब मनाना हो, मनाए। हम तो अपने बजरंगी के दिन को ही नवमी मनाएंगे और उसी दिन से भाषा में रामायण लिखना प्रारम्भ करेंगे।
नवमी जैसे-जैसे नजदीक आती गई, तुलसी के उत्साह में दिनोंदिन बढ़ोतरी होती गई। यद्धपि वे देख रहे थे कि आसपास बहुत अधिक तनाव फैल गया था। रामजन्मभूमि मंदिर को तोड़कर जो बाबरी मस्जिद बनी थी, वह रह-रह कर वीर लड़ाकों को कचोटती रहती थी। जाट, गुर्जर, अहीर, क्षत्रिय, बाल्मीकि, केवट जैसी वीर जातियां दूर-दूर से प्रतिवर्ष अयोध्या जी को कूच करती और प्रतिवर्ष नवमी को भयंकर रक्तपात होता। इस वर्ष भी ऐसी ही आशंका बनी हुई थी। पर तुलसी जाने क्यों यह सब देखकर भी यही कहते कि जो होगा, शुभ होगा।
अष्टमी के दिन तुलसी बाजार निकले। मरघट का सन्नाटा फैला हुआ था। कुछ ही दुकानें लुके-छिपे ढंग से खुली हुई थी। तुलसी एक दुकान पर चढ़े और अभी कुछ बोले ही थे कि दुकान के नौकर को पीछे करते हुए लाला आगे आ गया और तुलसी की चरणरज लेकर बोला, "धन्यभाग हमारे जो भगत जी स्वयं यहाँ हमारी दुकान पर आए। आदेश कीजिये महराज, क्या सेवा करूँ?"
चांदी का एक सिक्का लाला की हथेली पर रखते हुए तुलसी बोले, "एक मिट्टी की दवात और स्याही, एक सरकंडे की कलम, एक पटरी और बाकी जो पैसा बचे उसका कागज। कागज तनी मुलायम और चिकना, उच्च गुणवत्ता वाला दीजियेगा।"
"अभी महराज।" इतना बोल लाला खुद उठा और एक-एक कर तख्त पर सामान रखता गया। सब सामान रखकर हाथ जोड़ खड़ा हो गया। तुलसी ने देखा तो सामान में पीतल की दवात, दो बढ़िया कलम, कागज के नाप की दो पटरी, कागज दबाकर रखने के लिए पीतल के दो नक्काशीदार गुटके, ढेरों बढ़िया कागज और एक बस्ता। साथ में तुलसी का दिया चाँदी का सिक्का भी। तुलसी कुछ बोलते, उसके पहले ही लाला बोल पड़ा, "न महराज! कुछ मत कहिये। हम आते रहे कथा सुनने आपके यहाँ। और हम सुने हैं कि आप भाषा में रामायण लिख रहे हैं। अब हम इतना तो कर ही सकते हैं महराज। बहुत सामान बेचा, बहुत लाभ कमाया। पर खरा लाभ तो आज हुआ है। बस आप ये सब सामान ले जाइए। मैं अपने लड़के को रोज आपके पास भेजूंगा। जो भी कमी होगी, हाथ के हाथ पूरी हो जाएगी।"
तुलसी उसे आशीर्वाद देकर घर वापस आ गए। अगली सुबह नवमी थी। उनके अंदर काव्य तरंगें उमड़ी पड़ी थी पर उन्होंने उन्हें बलात रोक रखा था। चौकी बिछाकर, कागज-कलम सहेज कर दोपहर की प्रतीक्षा थी कि नवमी लगे और कलम चले।
दोपहर होने के कुछ क्षण पहले डौंढ़ी पिटी, आवाज सुनाई दी, "खल्क खुदा का, मुल्क हिन्दोस्तान का, अमल शहंशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का.."। अकबर ने शहर में, और मस्जिद के अंदर भी एक छोटे से स्थान पर राम पूजा करने की अनुमति दे दी थी। शहर का सारा तनाव पल में हवा हो गया। दिशाएं श्रीराम के उद्घोष से गूंज उठी। तुलसी ने कलम उठाई और गुरु को प्रणाम कर कागज पर लिखना शुरू किया,
"जब तें रामु ब्याहि घर आए।
नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी।
सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई।
उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
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रामबोला: 17
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तुलसी अब रामघाट पर ही रहने लगे थे। प्रात: उठ नित्यकर्म इत्यादि पश्चात कलम लेकर बैठ जाते और दोपहर तक लगातार लेखन चलता रहता। लिखते समय दीन-दुनिया भूल जाते। वृद्ध कथावाचस्पति महोदय, जिन्हें तुलसी पिताजी कहने लगे थे, कोठरी के बाहर तख्त पर बैठे रहते और तुलसी के नए भक्तों को उनसे दूर रखते। कुछ तो उनके तेज और उनकी कथाओं से भक्त बने थे, पर अधिकाँश वैसे भक्त थे जैसे अन्य संतों के भक्त होते हैं। चमत्कार को नमस्कार करने वाले। दरअसल रामनवमी के पहले तक शहर का माहौल सदैव की भाँति ही तनावग्रस्त हो गया था। तुलसी नियम से मस्जिद के बाहर से ही अंदर विराजमान राम को प्रणाम करने जाते थे पर अन्य गैर-मुस्लिमों की तरह उन्हें भी एक दिन मस्जिद के आसपास आने से मना कर दिया गया था। फिर तुलसी का सबसे यह कहना की सब शुभ होगा, और ठीक नवमी के दिन आगरा से मस्जिद में पूजा करने की अनुमति मिलना। बड़ी जोर की अफवाह उड़ी थी कि यह तुलसी का ही चमत्कार था कि आगरे से ठीक नवमी के दिन परवाना आ गया था। आगे अफवाह यह भी थी कि जिस दिन भाषा में रामायण पूरा हो जाएगा, स्वयं रघुनन्दन श्रीराम का पुन: जन्म होगा।
तुलसी की कीर्ति पूरे अयोध्या में फैली हुई थी। यद्यपि अब वे केवल लिखते ही थे, कथा नहीं करते थे, फिर भी लोग इस उम्मीद में आस लगाए आस-पास मंडराते रहते कि संत-विरक्त का क्या पता, कब मौज आ जाए और कथा सुनाने लगे। पर कुछ ऐसे भी थे जिनकी दुनिया उन्हें खत्म होती हुई प्रतीत होती थी। ऐसे ही कुछ लोग की टोली पुन: जमा हुई। इस बार भी रामचरणधूलिदास जी ने ही बात शुरू की। मुँह में दबी सूर्ती को एक तरफ से दूसरी तरफ करते हुए बोले, “अरे! अब आप लोग कछु बोलेंगे भी या बस ऐसे ही भटुर-भटुर ताकेंगे एक-दूसरे को?”, कृष्णचूणामणि जी की ओर देखकर बोले, “का भई किसनचूनामनि जी, आपकी गेंदा तो फुस्स निकली! बड़ा भरोसा था आपको कि जनता उस तुलसी को धक्के मारकर अजोध्याजी से निकाल देगी। पर उसने तो उल्टा गेंदा को धकिया दिया। और जो अब सुना है कि सरवा भाखा में रमायन लिख रहा है! तो हमरी भविसवाणी सुन लीजिए सब जनि, कि जो ये काम हो गया न, तो हम महंतो, मठाधीसों और कथाबाचसपतियों को घर-घर भिक्छा मांगनी पड़ेगी और देगा तब भी कोई नहीं।”
कृष्णचूणामणि जी अपनी पिछली योजना के असफल होने से तनिक लज्जित थे, तुनक कर बोले, "प्रत्येक बार तो कोई भी सफल नहीं हो सकता न महराज! अब ऐका मतबल ये तो नहीं कि परयत्न ही न किया जाए। इ कल का छोरा हमें उखाड़ने चला है? चलों पिछली बार गलफत में दाँव उल्टा पड़ गया। पर अबकी हम सीधे रस्ते से घेरेंगे उसको। हमें तो यही समझ नहीं आ रहा कि ये लड़का अपने को बालमिकी जी महराज से जियादे ज्ञानी समझता है क्या? जब पहिले से ही आदिकबि जी रमायन लिख गये हैं तो इ फिर से भासा में लिखने की का आबस्यकता? यह तो साहित्यिक चोरी भई!”
रामचरणधूलिदास जी पिनक कर बोले, “अब ई सब हेन-तेन बतियाने का क्या लाभ? उपाय हो तो बताइये।”
“उपाय तो ये कि हम उसे शास्तार्थ की चुनौती देंगे। देखे तो कि कोई है माई का लाल जो किसनचूनामनी की तर्क शक्ति से पार पा सके।”
रामानन्द जी बड़ी देर से सब पंचायत सुन रहे थे। शास्त्रार्थ की बात सुने तो अपनी हँसी रोक नहीं पाए। बोल उठे, “आप उस रामभक्त से शास्त्रार्थ करेंगे श्रीमान! तनिक यह भी बताइए कि विषय क्या रखेंगे? आपके तर्कों का आधार क्या रहेगा?"
“हम कबीर की बात लेंगे। निरगुन उपासना। राम को भगवान मानेंगे पर मानव की तरह जन्म मरण नहीं। कबीर जी कह गए हैं कि जो राम को दसरथ का लड़िका माने वो अज्ञानी।”
रामानन्द को बड़ी तेज हँसी आई, “तो आप अयोध्या में बैठकर यह सब कहेंगे? कपाल पर जो कुछ केशराशियाँ शेष बची हैं न, जनता मार-मार के टकला बना देगी।”
“ह:, इतना सरल नहीं है। हम दशरथ को दश दिशाओं का प्रतीक बताएंगे। कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी को सत, रज और तम गुणों का प्रतीक दर्साएंगे।”
“अरे जाइए। ये आपके थोथे तर्क उसे हराने के लिए अपर्याप्त होंगे। वो सच्चा भक्त है। भक्ति को भला इन तर्कों से जीता जा सकता है। ऊपर से वह शेष समातन जी महाराज का शिष्य है। कोई हँसी-खेल हैं क्या? मैं उससे मिल चुका हूँ। वह सदियों में एक जन्मा है। आप और हम उसकी भक्ति करें तो जीवन सफल हो।”, थोड़ा रुककर फिर बोले, “अच्छा, मुझे आज्ञा दीजिए। पिछली बार आप लोगों का साथ दिया था उसका जीवन भर पश्चाताप रहेगा। अब और नहीं गिर सकता। आप लोग जो भी कीजिए, उसका रोआं नहीं हिला सकते। नमस्कार।”
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राम-सीता विवाह, दशरथ का उन्हें युवराज बनाने की घोषणा, कैकेयी का कोपभवन में जाना, वचन माँगना, वन-गमन, भरत मिलाप तक का प्रसंग लिख तुलसी कुछ संतुष्ट से सोए थे आज। अर्धरात्रि में मानवों और वानरों की चीख से उनकी नींद में विघ्न पड़ा। पहले तो उन्हें लगा कि कदाचित स्वप्न में हनुमान जी लीला दिखा रहे हैं पर निरंरत के कोलाहल से उनकी नींद पूरी तरह खुल गई। उठ कर देखा तो पिता जी उठ कर इधर-उधर देख रहे थे। घाट पर सोए कुछ अन्य लोग भी इधर ही भागते चले आ रहे थे। कोठरी की तरफ मुड़कर देखा तो तुलसी के मित्र बंदरों का सरदार, जिसे वे प्रेम से भूरा कहते थे, बैठा-बैठा क्रोध से दाँत किटकिटा रहा था। झपटकर उसके पास गए तो क्या देखते हैं कि दीवार में सेंध लगी है और एक मानव शरीर आधा कोठरी के अंदर और आधा बाहर। अवश्य की कोई चोर था जिसे सेंध लगाते देख भूरे ने काट लिया था। दूर कुछ बंदर एक दूसरे आदमी को दौड़ा रहे थे, वह इसी चोर का साथी रहा होगा। तुलसी ने भूरे के सिर पर प्रेम से हाथ रख उसे शांत किया और बेहोश चोर की ओर ध्यान दिया। उसकी कलाई से रक्त निकल रहा था। लोगों ने उसे बाहर निकाला और तुलसी के करने पर उसका थोड़ा-बहुत उपचार कर रक्त का बहना बंद किया। उसके मुँख पर पानी के छींटे डालने पर चोर उठा और सामने ही भूरे को गुर्राता देख तुलसी के पाँव पकड़ लिए। पूछने पर बताया कि कथावाचक श्री कृष्णचूणामणि जी के कहने पर वह उनकी पोथी चुराने आया था। तुलसी को झटका लगा, स्वयं को तनिक संभाल कर चोर से बोले, “मित्र, तुम पापी पेट के लिए इतना अधम कार्य करने लगे। भूरे ने तुम्हें उचित दंड दे दिया है, इसे ही पर्याप्त समझो। जो फिर कभी ऐसा कर्म किया तो शहर कोतवाल को दे दिए जाओगे। उसका दंड तो पता है न? चलो जाओ।” फिर अपने आसपास घिर आए लोगों की ओर देख, पिताजी को संबोधित कर बोले, “पिताजी, लगता है अब मेरा अयोध्या जी में रहना नहीं हो पाएगा। जब तक इस रचना का कार्यभार नहीं था, कोई समस्या नहीं थी। पर अब इस ईर्ष्या, द्वेष, कपट के बीच प्रत्येक क्षण चोरी हो जाने के डर से लेखन कार्य संभव नहीं होगा।”
पिताजी समझाते हुए बोले, “ऐसा न कहो तुलसी। मैं वचन देता हूँ कि दोबारा ऐसा नहीं होगा। मैं स्वयं पूरी रात्रि पहरा दूंगा। तुम अयोध्या छोड़कर न जाओ।” अन्य लोगों ने भी ऐसा ही कहा। पर तुलसी का निश्चय दृढ़ था। पिताजी को समझाते हुए बोले, “पिताजी, मैं भला अयोध्या छोड़ सकता हूँ? अयोध्या तो मेरे हृदय में हैं। पर यहां इस परिवेश में मुक्त हृदय से रचनात्मक कार्य नहीं हो सकता।”
“अब तुम कह रहे हो तो सत्य ही होगा पुत्र। तो कहाँ जाओगे?”
“उसी नगर में जो देवाधिदेव का नगर है। उस नगर में कवि, विद्वानों का समाज यहाँ से कहीं अधिक बड़ा है। कदाचित वहाँ मुझे इस अतीव ईर्ष्या का सामना न करना पड़े। मैं कल सुबह ही प्रस्थान करूंगा पिताजी। आप व्यथित न हों। जब तक आप अयोध्या में हैं, मैं प्रत्येक नवमी को यहाँ आऊँगा।”
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प्रहलाद घाट पर अपने बालसखा पंडित गंगाराम के घर के द्वार पर तुलसी पहुँचे। घर पिछली बार से अधिक समृद्ध दिख रहा था। द्वार पर दरबान भी खड़ा था। दरबान ने सामने खड़े धूल से लस्त साधु को झोली लटकाए देखा तो हाथ जोड़कर विनीत स्वर में बोला, “महराज, दानशाला का द्वार तनिक आगे बढ़कर है। पंडित जी के सुपुत्र बैठे हैं वहाँ। कृपा कर उधर चले।”
तुलसी को हँसी आ गई, “नहीं मित्र, मैं दान की आशा में नहीं आया हूँ। गंगाराम जी से मिलना है।”
“तो तनिक प्रतिक्षा करें श्रीमान। वे अभी किसी प्रतिष्ठित अतिथि के साथ बैठे हैं।”
“जैसा तुम कहो। पर उन्हें सूचना तो भिजवा ही दो कि अयोध्या से रामबोला आया है।”
दरबान उन्हें वहीं छोड़ अंदर गया और निमिष भर में ही गंगाराम दौड़ते हुए द्वार पर आ गए। तुलसी के मैले वस्त्रों को जैसे उन्होंने देखा ही नहीं, झपटकर उनसे लिपट गए। दोनों मित्रों ने एक-दूसरे की पीठ सहलाई। फिर गंगा बोले, “बड़े दिन पर दर्शन दिए मित्र। और यह क्या वेश बना रखा है। दाढ़ी-बाल में तो पूरे साधु दिखते हो।”
“तो सारी कथा यहीं द्वार पर सुनोगे गंगा?”
“अरे क्षमा करना। आओ-आओ।”, नौकर को पुकार कर लोटा मंगवाया और स्वयं ही तुलसी के पैर धोने को झुके। तुलसी हां-हां करते रहे पर गंगा कहाँ मानने वाले थे। जब उन्होंने हाथ-मुँह धो लिया तो हाथ पकड़कर बैठक में ले आए। वहाँ पहले से ही कोई संपन्न सा दिखने वाला व्यक्ति बैठा हुआ था। गंगा ने उनका परिचय करवाते हुए कहा, “यह टोडरमल जी हैं। चार गाँवों के सरदार और हमारे मित्र। और टोडर, यह हैं हमारे गुरुभाई, बाल मित्र पंडित तुलसीदास शास्त्री कथावाचस्पति। और ज्योतिष में तो यह समझिए कि काशी का सर्वश्रेष्ठ ज्योतिष कहा जाने वाला यह गंगा इनके सामने कुछ भी नहीं।”
तुलसी हँस कर बोले, “अरे नहीं टोडरमल जी, इनकी तो आदत है बचपन से। मुझसे इतना स्नेह करते हैं कि प्रशंसा करते समय कुछ देखते ही नहीं।”
गंगा तुलसी के कंधे पर हाथ रख बोले, “अच्छा यह सब छोड़ो, यह बताओं कि अचानक यहाँ कैसे आना हुआ। परिवार में सब कैसे हैं?”
“परिवार तो मेरा यह संपूर्ण जगत ही है अब। मैंने राम प्रेरणा से वैराग्य ले लिया है मित्र। अब इसके अतिरिक्त अन्य कुछ मत पूछना। अच्छा तुम्हें बताऊँ कि आजकल माता सरस्वती मुझ पर बड़ी कृपालु हैं।”
“अर्थात कोई नई रचना कर रहे हो?”
“हाँ मित्र, रामायण लिख रहा हूँ, भाषा में। और अयोध्या में इसका आरंभ कर दिया था। पर वहाँ कुछ जमा नहीं तो अब काशी में हूँ।”
“हाँ, हाँ, क्यों नहीं। यह तुम्हारा ही घर है। जिस कमरे में रामाज्ञा लिखी थी, उसी में बैठकर रामायण लिखो।”
“सही कहते हो मित्र कि यह मेरा भी घर है, परंतु मैं अभी किसी गृहस्थ के घर में नहीं रहना चाहता। यदि कोई अन्य व्यवस्था हो तो बताओ।”
गंगाराम कुछ कहते, उससे पहले भी टोडरमल जी बोल उठे, “महराज, यह सेवा का अवसर मुझे दीजिए। हनुमान फाटक पर मेरी कुछ जमीन है, और दो-एक कमरे भी हैं। आप उसी में पधारिए।”
तुलसी टोडरमल को कुछ देर देखते रहे, फिर बोले, “मैं आपको कोई कष्ट नहीं देना चाहता।”
“कष्ट कैसा महराज! रामायण की रचना मेरे घर में हो, यह तो खरा सौदा है।”, गंगाराम जी की ओर देखकर बोले, “तो पंडित जी, मैं आज ही सारी व्यवस्था कर दूँगा और महराज को कल लिवा ले चलुंगा। अब मुझे आज्ञा दीजिए।”
गंगाराम बोले, “ठीक है। हाँ, तुम्हारी और मंगलू अहिर की बात पर, भई मेरा तो कहना है कि तुम वह जमीन छोड़ दो। मंगलू भला आदमी है, और दो भलों का यूँ भिड़ना सही नहीं। क्यों तुलसी?” तुलसी को समझाते हुए बोले, “भृगु आश्रम के पास मंगलू की जमीन है जो उसने इनके यहाँ रेहन रखी थी। अब मियाद निकल चुकी है तो यह उसपर कब्जा चाहते हैं और मंगलू मियाद बढ़वाना चाहता है। मेरा कहना है कि मियाद क्या, उसे सब माफ ही कर दिया जाए।”
तुलसी ने टोडर को कुछ क्षण देखा और फिर बोले, “हाँ टोडरमल जी, आप यही करें। इसमें आपका बहुत लाभ होगा।”
“जैसी आप दोनों की आज्ञा। तो गंगाराम जी तो कल बाहर जा रहे हैं। यदि संभव हो तो महराज आप कल सुबह हनुमान फाटक चल चले।”
“अवश्य, पर मैं आपके साथ कल भृगु आश्रम भी चलूंगा। वर्षों पहले गया था। मंगलू और आपका निपटारा भी हो जाएगा।”
अगले दिन जब टोडर और तुलसी मंगलू अहिर के घर पहुँचे तो मंगलू को देखते ही तुलसी को उसके अंदर भक्त हृदय के दर्शन हुए। मंगलू भी उनसे बहुत प्रभावित हुआ। उसने दोनों को ही उस दिन अपने यहाँ रोक लिया। यह पता चलने पर कि शाष्त्री जी कथावाचक हैं, उसने कथा सुनाने का आग्रह किया। टोडर उत्साह में बोल गए कि शाष्त्री जी हनुमान फाटक पर कथा सुनाएँगे। तुलसी इस प्रेमाग्रह को ठुकरा नहीं पाए। यद्यपि वे चाहते थे कि पहले काशी के संस्कृत कवि समाज को अपने पक्ष में कर लें, जिससे अयोध्या जैसी कोई घटना न हो। पर दैव को यह कहाँ स्वीकार था!

कुछ दिनों बाद हनुमान फाटक पर बड़ी जनसभा उमड़ी। मंगलू के समाज के लोग तो थे ही, टोडरमल के समाज के लोग भी थे, और शेष सनातन महराज का शिष्य होने की बात भी वजन रखती थी। तुलसी ने कथा कहनी शुरू की और लोग झूम-झूम उठे। कथा समाप्ति पर अगले सप्ताह फिर कथावाचन की बात तय हुई।
सप्ताह भर में तुलसी के भाषा में रामायण रचने और कथा सुनाने की बात चहुंओर फैल चुकी थी। जिस दिन सभा थी, लोग सुबह से ही जमा होना शुरू हो चुके थे। तुलसी ने सबको हाथ जोड़ प्रणाम किया। जय श्री राम और हर-हर महादेव से उत्तर मिला पर साथ ही मिले ढेर सारे ढेले। आसपास के घरों की छतों से ढेलों की बरसात हो रही थी। लोग बचने के लिए भागे। कुछ पत्थर तुलसी को भी लगे। मालूम चला कि यह नए बने मुसलमान हैं जो आपसी झगड़े में बिगड़कर मुसलमान बन गए थे। नया मुल्ला अधिक प्याज खाता है। हिन्दू धर्म छोड़ा तो हिंदुओं की प्रत्येक बात से घृणा भी अपना ली। अगली सुबह तुलसी को अपने द्वार पर हड्डियां दिखी। जो भी उनके द्वारे आने का प्रयास करता, उसपर पत्थर बरसते। एक रात तो तुलसी के कमरे में आग ही लगा दी। तुलसी अपनी पोथियों को बचाते हुए निकल गए और उसी समय हनुमान फाटक छोड़ एक मंदिर की शरण ले ली। दोपहर तक टोडर उन्हें खोजते हुए मंदिर पहुंच गए और मंदिर की धर्मशाला में उनकी व्यवस्था कर यह कहते हुए गए कि दो-चार दिन में अस्सी घाट पर व्यवस्था कर देंगे।
तुलसी अस्सी घाट आ गए और अपने अंतिम समय तक वहीं रहे। टोडरमल ने वहां कुछ मल्ल भी रख छोड़े थे जिनके लिए तुलसी के कहने पर अखाड़ा बना दिया गया। तुलसी को यह व्यवस्था पसन्द आई। उन्होंने इच्छा जताई कि ऐसे हनुमान-अखाड़े पूरी काशी में खोले जाएं जहां प्रत्येक वर्ण के युवा मल्ल विद्या सीखें। उनका कहना था कि धर्म की रक्षा के लिए केवल धार्मिक बातों का ही नहीं, अपितु शक्ति-सामर्थ्य का भी संचय होना चाहिए।
तुलसी के साथी कवि कैलाश आए थे और समाचार लाये थे कि मेघा भगत पुराने समय में होने वाली रामलीला का फिर से मंचन करवाना चाहते हैं। आगरा के मंत्री टोडरमल जी के सुपुत्र राजा गोवर्धनधारी और उनके गुरु पूज्य नारायण भट्ट जी भी आएंगे। सप्ताह भर बाद मंचन होगा, जिसमें पहले दिन राम-जन्म होगा। तुलसी यह सुन मुदित हो उठे।
अगले दिन तुलसी अपने कुछ भजन भक्तों के साथ बैठे हुए थे। राम चर्चा चल रही थी कि एक आवाज सुनाई दी, "अरे कोई है राम का प्यारा जो इस बरमहतिया के दोसी को भोजन दे सके।" यह आर्तनाद सुन तुलसी तुरन्त बाहर निकले। भूख और थकान से जर्जर एक आदमी भोजन की आस में टकटकी लगाए खड़ा था। तुलसी उसकी बाँह थाम अंदर ले आये और हाथ-पैर धोने के लिए जल दिया। व्यक्ति इतना कमजोर था कि लोटा पकड़ ही नहीं पाया। तुलसी ने अपने हाथों उसके चरण और हाथ धुलवाए। अन्य लोगों को तनिक अखरा कि तुलसी जैसा उच्च कोटि का ब्राह्मण किसी के पैर धोए। वो भी ब्रह्महत्या के दोषी का। ब्रह्महत्या का दंड ही यही था कि वह भूखों मरे और उसे कोई भोजन न दे। एक ने बढ़कर उस व्यक्ति से उसकी जाति पूछनी चाही तो तुलसी ने बरजते हुए कहा, "व्यक्ति की जात-पात जो हो, भूखा व्यक्ति बस भूखा होता है। पहले पेट में अन्न जाने दीजिए, फिर बाकी बातें होती रहेंगी।" इतना कह तुलसी अंदर गए और दूध-रोटी ले आए। खुद ही रोटी मींजकर उसे अपने हाथों खिलाया।
भोजन से मिली शक्ति चेहरे पर दिखी। अशक्त के अंदर शक्ति का संचार हुआ। तुलसी ने उसे पानी देते हुए हाथ-मुँह धोकर बैठक में आने को कहा। अपने तख्त पर बैठ गए तो किसी ने फिर से उसकी जाति पूछी। आदमी हाथ जोड़ बोला, "मेरी वही जाति जो रैदास जी की।" लोगों को क्रोध चढ़ आया। एक तो चमार, फिर ब्रह्महत्यारा और ब्राह्मण से ही सेवा करवाये? तुलसी ने उन लोगों को शांत किया और उस व्यक्ति को कुछ रोटियां बांधकर दे दी। मालूम चला कि किसी लंपट ब्राह्मण ने उसकी पत्नी पर कुदृष्टि डाली थी, क्रोधवश उसने उस ब्राह्मण की हत्या कर दी। तुलसी ने उसे और अन्य सभी को सुनाते हुए कहा, "कोई ब्राह्मण यदि ऐसा  नीचकर्म करे तो वह ब्राह्मण नहीं रह जाता। रावण भी ब्राह्मण था और श्रीराम ने उसका वध किया। अपनी स्त्री पर कुदृष्टि डालने वाले को दंड देने वाला ब्रह्महत्यारा नहीं अपितु क्षत्रिय होता है। व्यक्ति चला गया और एक ऐसी चिंगारी लगा गया जिससे काशी में आग लग गई।
अगले दिन टोडरमल अपनी बिरादरी के सरदारों को लेकर आ गए। तुलसी को आश्वस्त करते हुए बोले कि काशी के किसी भुइंहार के जीवित रहते किसी माई के लाल में दम नहीं जो तुलसी का कुछ बिगाड़ सके। हांफते-दौड़ते मंगलू अहिर भी अपने लठैतों के साथ आ गया। पर आँधी की तरह आये कवि कैलाश। आते ही तुलसी से बोले, "वो पोंगा बंगाली गदर्भ बटेश्वर पंचायत बटोर रहा है। तुम्हारे खिलाफ जनमत बना रहा है कि तुम्हें काशी से निकाल दिया जाए।"
टोडरमल चिहुंककर बोले, "काशी किसी के बाप की है क्या जो निकाल देगा कोई। देखता हूँ कि इस भुइंहार के रहते कौन हमारे महराज को निकालता है।" मंगलू भी अपनी मूंछों पर ताव देता बोला, "अहीर लोग भी महराज के साथ खड़े हैं। मैं बाकी सरदारों को भी बोल आया हूँ। कई बिरादरी हमारा साथ देगी। कोई पंचायत ससुरी ऐसा फैसला कर के तो दिखाए। खून की नदियां न बहा दी मैंने तो सच्चा यदुवंशी नहीं।"
कैलाश बोले, "अरे पंचायत गई मेरे दक्खिन। मैं तो उस बैशाखनन्दन बटेश्वर को चुनौती दे आया हूँ कि जो तंत्र-मंत्र पढ़ना है पढ़ ले। कवि की भविष्यवाणी है कि हमारे मित्र पर जो अगड़म-बगड़म करेगा, वही पलटकर उसके ऊपर आयेगा। माँ काली क्या एक उसी की हैं? आया बड़ा तांत्रिक।"
तुलसी ने सबको शांत किया और हँसकर बोले, "अरे भाई, बटेश्वर जी मेरे अग्रज गुरुभाई हैं। बचपन से ही मुझसे ईर्ष्या रखते आए हैं। उनका कुछ नहीं हो सकता। और सच मानिए कि उनके किए मेरा कुछ बिगड़ने वाला भी नहीं। पर कैलाश, तुम यह तो बताओ कि मेघा भगत का क्या कहना है? क्या रामलीला में मैं सम्मिलित नहीं हो पाऊंगा?"
इस प्रश्न ने कैलाश को तनिक शांत किया। बोले, "मैं तुम्हारे उस गदर्भ गुरुभाई के पास से सीधा भगत जी के पास ही गया था। उन्होंने कहा कि रामलीला तो होकर रहेगी। चाहे कोई आए या न आए। कोई न भी आया तो मैं रहूंगा और मेरा रामबोला रहेगा। वैसे नारायण भट्ट जी के यहां दूत भेजे थे, उन्होंने भी कहा कि संत और विरक्त की कोई जाति नहीं होती। वो ब्राह्मणों से भी ऊँचा होता है। तो काशी की कोई सभा चाहे जो निर्णय ले, वे तुलसी के साथ अवश्य बैठेंगे।"
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(काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनरूद्धार राजा गोवर्धनधारी ने करवाया था जो बादशाह अकबर के वित्तमंत्री राजा टोडरमल के सुपुत्र थे। मंत्री टोडरमल और तुलसी के प्रिय सरदार टोडरमल अलग-अलग व्यक्ति हैं। आज जो रामलीला हम देखते हैं वह मेघा भगत की प्रेरणा से तुलसीदास ने प्रारम्भ किया था। मल्ल विद्या की पुरानी परंपरा भी हनुमान-अखाड़ों के रूप में तुलसी ने शुरू की थी।)
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रामबोला: 18
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भदैनी के जयराम साहू एक साधन-संपन्न व्यक्ति थे, और मेघा भगत के प्रिय शिष्य थे। मेघा भगत ने जो रामलीला का आयोजन किया था, उसकी सारी व्यवस्था जयराम साहू ही कर रहे थे। कुछ ही दिनों में उनका पंडित तुलसीदास जी से भी नेह-नाता हो गया था। रामलीला के दिन उन्होंने अपना रथ भेजने की बात कही थी पर कवि कैलाश के साथ तुलसी समय से पहले ही पहुँच गए थे। एक तो मेघा भगत का प्रेम और दूसरा लीला का एक भी दृश्य छूट न जाए, इसका लोभ। जयराम के बगीचे में विराट आयोजन था। मंच के सामने बैठने की अर्धवृत्ताकार व्यवस्था थी जिसमें आगे की कुछ चौकियों को विशेष रूप से सजाया गया था। उनमें से एक चौकी पर बैठे भगत जी राम-राम गुनगुना रहे थे। तुलसी को सामने देखा तो प्रेम से अपने पास बिठाया और बतियाने लगे। कुछ दूर बैठे ब्राह्मण समाज के धनाढ्य नवयुवकों को यह बात अखरी कि ब्रह्महत्यारे की सेवा करने वाले व्यक्ति को मेघा भगत जैसा संत यूँ उन लोगों के सिर पर बैठा दे। क्रोध तो बहुत आया, पर मेघा के सामने उनकी कुछ अनर्गल कहने की हिम्मत नहीं थी। तय हुया कि बहाने से तुलसी को मेघा के पास से हटाकर यहाँ लाया जाए और इसकी सारी विद्वता की हवा निकाली जाए।
कुछ युवकों का दल मेघा के पास पहुँचा और प्रणाम करते हुए उनमें से एक ने व्यंग्य मिश्रित निवेदन किया, “भगत जी, बड़े भाग्य हमारे जो आपके साथ हमें इन महात्मा जी के दर्शन भी मिले। आज से पहले किसी ने सोचा भी नहीं था कि कोई रामायण को दोबारा लिखेगा। हम लोगों का प्रणाम स्वीकार करें शास्त्री जी।”
भगत जी मुस्कुरा कर बोले, “आप लोग तो पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं। आपको तो पता होना चाहिए कि तुलसीदास जी कोई नई बात नहीं कर रहे। महात्मा कम्बन और कृत्विदास जी जैसे लोग बंगाली और द्राविड़ी में रामायण लिख चुके हैं। कितना भला हुआ बंगाली और द्राविड़ी जानने वालों का। और अब हमारे भाई तुलसी भाषा में रामायण लिख रहे हैं, जिसे आम-जन पढ़ और समझ सकेगा, नहीं तो आप लोग ही बताइए कि आप जैसे कुछ मेधावी संस्कृत के विद्वानों के अतिरिक्त कौन आज बाल्मीकि रामायण को पढ़ और समझ सकता है?”
दांव उल्टा पड़ता देख एक युवक बात संभालने हुए बोला, “अरे नहीं, नहीं भगत जी। हम लोगों का ऐसा तो कोई मतलब नहीं था। हम तो बस इनके दर्शन करना चाहते थे, और थोड़ा मेलजोल बढ़ाने के लिए वार्तालाप के इच्छुक थे। यदि आपकी अनुमति हो तो हम इन्हें थोड़ी देर अपने साथ अपनी मंडली में ले जाएं।”
“देखिए, तुलसीदास अब यहीं काशी में रहेंगे, आप लोग भी कल ही तो काशी छोड़कर जा नहीं रहे, और काशी चिरंतर काल से यहीं है, आगे भी यहीं रहेगी। आज तो राम-भरत को अलग मत कीजिए।”
इस बात पर एक युवक उखड़ गया, क्रुद्ध स्वर में बोला, “ओह, तो आप स्वयं को राम और इन्हें भरत समझते हैं। यह हमारे राम का अपमान है।”
भगत जी ठठाकर हँसे, “आपको लगता है कि मैंने स्वयं को राम कहा? यद्यपि मैंने उपमा दी थी, पर आप जो चाहें मानने के लिए स्वतंत्र हैं। बताइए, क्या कीजिएगा हमारा?”
बात बिगड़ती देख एक अन्य युवक ने बात संभाली, “अरे भगत जी, यह तो है ही निर्बुद्धि। आप क्रोधित न हों। बालक समझ कर क्षमा करें और बालहठ समझ कर तुलसी भैया को हमारे साथ आने दें। देखिए, यदि आपने हमारा हठ पूरा नहीं किया तो हम भोजन नहीं करेंगे।”
तुलसी सब समझ रहे थे। वे जानते थे कि यह सारा प्रपंच उन्हें अपमानित करने के लिए किया जा रहा है। पर राम के दरबार के चाकर को कोई क्या अपमानित करेगा। उन्होंने मुस्कुराते हुए भगत जी के कहा कि थोड़े समय की ही तो बात है। बस गए और आए। भगत जी ने तुलसी के कान में कहा, “जा रहे हो, पर तनिक संभल के। यह सब ईर्ष्या के मारे हुए हैं। खुद तुलसी बन नहीं सकते तो तुलसी को अपने स्तर पर खींच लाना चाहते हैं। शांति बनाए रखना।”
तुलसी युवकों के साथ उनकी मंडली में आ मिले। इन लोगों को देख दूसरे प्रौढ़ और वृद्ध लोग भी वहीं जमा हो गए। एक युवक ने बात शुरू की, “महात्मा जी, आजकल तो काशी में बस आप ही छाए हुए हैं। जिसको देखो, बस आपकी ही बात कर रहा है।”
“अरे भाई, मैं काहे का महात्मा! और मेरी बात हो ही क्यों रही है? मैं तो एक सामान्य व्यक्ति हूँ जो अपने राम-भजन में ही प्रसन्न है। यदि मेरी चर्चा हो रही है तो मैं समझता हूँ कि राम की ही चर्चा हो रही है।”
“तो क्या आप स्वयं को राम के बराबर मानते हैं?”
“नहीं, मैं तो राम का चाकर हूँ। पर यह तो आप भी मानेंगे कि राम घट-घट में हैं, मुझमें हैं और आपमें भी हैं।”
“यदि ऐसा है तो आपने उस कबीरपंथी को लाठी से क्यों मारा?”
“यह कब हुआ? और यदि मारा ही है तो रामनामी लाठी से मारा होगा।”
“तो जो आप कह रहे हैं कि राम मुझ में-आप में, यहाँ तक कि लाठी में भी हैं तो कबीरदास के राम और आपके राम में इतना अंतर क्यों है? आप तो राम को दशरथ का पुत्र कहते हैं और कबीर ऐसा नहीं मानते। आप कबीर से इतना चिढ़ते क्यों हैं?”
“मैं कबीरदास जी से नहीं चिढ़ता। अपितु मैं तो उन्हें महात्मा मानता हूँ। तनिक सोचिए कि उस काल में जब मंदिर और मूर्तियाँ तोड़ी जा रही थी तो आम जन क्या सोचता होगा? यही न कि ये कैसे भगवान जो स्वंय की ही रक्षा नहीं कर पाए। उस समय कबीर ने निर्गुण राम की महिमा बखानी। जनता को राम नाम का संबल दिया। यदि वे उस समय सगुण की बखानते तो कोई उनकी नहीं सुनता। उनके निर्गुण राम ने बहुतों को अपने धर्म में बनाए रखा। उन्होंने हमारी दीन-हीन आस्था को जैसे-तैसे बचाए रखने का काम किया। अब समय है कि उस आस्था को और ऊँचाइयों पर पहुँचाया जाए। पर कबीर और कबीरपंथियों में अंतर है। कबीरपंथी आस्था से हीन व्यक्ति को संबल नहीं देते, अपितु चार लात और लगाते हैं। इससे क्या भला होगा धर्म का?”
एक युवक ने उद्दंडता से कहा, “ओह! तो श्रीमान धर्म के ठेकेदार हैं। धर्म को बचाने के लिए ब्रह्महत्यारे पातकी की सेवा करेंगे और महर्षि बाल्मीकि की रचना की चोरी कर उसे अनुदित करेंगे। वाह रे धर्म-ध्वजरक्षक!”
वृद्धों में कुटिल मुस्कान खेल गई। कुछ युवक ठठाकर हँसे। तुलसी को पहले तो थोड़ा क्रोध आया फिर वे भी उनके साथ हँसते हुए बोले, “हाँ भाई, मैं हूँ धर्म-ध्वजरक्षक। धर्म में हूँ तो मेरा कर्तव्य है कि धर्म की रक्षा करूँ। क्या आपका भी यही कर्तव्य नहीं है? और भई, मैं रामायण लिख रहा हूँ, चाहे अपनी अंत:प्रेरणा से, चाहे चोरी से। आपको नहीं भाता तो मत सुनिए उसे। इसमें इतना विचलित होने की क्या बात है? हाँ, यदि मैं रावण की महिमा का बखान करूँ तब तो आपका विरोध समझ में भी आता है। जहाँ तक किसी भूखे की सेवा की बात है तो यह तो मानव-धर्म ही है। जब राम जी शबरी के जूठे बेर खा सकते हैं तो मैं किसी दरिद्र के पैर भला क्यों नहीं धो सकता? क्या काशी-विश्वनाथ देवाधिदेव महादेव भी दीन-दरिद्र में कोई भेद करते हैं?”
“पर आप तो कृष्ण के भी विरोधी हैं!”
“नहीं, मैं कृष्ण का विरोधी नहीं, अपितु मैंने तो उनके भी गीत गाए हैं। बाबा सूरदास जी के सानिध्य में कुछ समय बिताया है। राम और श्याम में कैसा भेद! पर यह अवश्य मानता हूँ कि इस समय भगवान श्रीकृष्ण का मुरलीधर रूप मुझे नहीं लुभाता। इस समय तो शस्त्रधारी राम ही भाते हैं जो दुष्टदलन कर रामराज्य की स्थापना करें।”
तर्कों में स्वयं को परास्त होता देख युवकों ने व्यक्तिगत हमले शुरू किए। एक बोला, “सुना है कि आपके विद्यार्थी जीवन में किसी नचनिया से आपकी गायन प्रतिस्पर्धा ठन गई थी।”
तुलसी तनिक विचलित अवश्य हुए, पर यह तो सत्य ही था। बोले, “उचित कह रहे हैं। उस समय ऐसा हुआ था।”
“तो कभी उससे फिर मिलना नहीं हुआ? आप चाहें तो हम मिलवा दें।” कुत्सित हँसी चहुओर पुन: फैल गई। तुलसी शांत रहे। यह तीर भी निष्फल होता देख एक ने कहा “आप वर्णाश्रम को मानते हैं?”

“हाँ मानता हूँ, पर मानवधर्म को उससे भी ऊपर मानता हूँ।”
लगातार हारते हुए युवकों का संयम चूक गया था। एक ने कहा, “तो क्या आप अवधूत हैं।” दूसरे ने कहा, “तो इसे ब्राह्मण मानता ही कौन है? जो एक ब्रह्महत्यारे के पैर धोए वो काहे का ब्राह्मण? यह तो किसी कुलटा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न राजपूत है।” तीसरे ने कहा, “अरे नहीं, यह तो कबीरदास की जाति का है।”
तुलसी अभी तक शांत थे। पर इन अमर्यादित टिप्पणियों ने उन्हें क्रोध दिला दिया। गरजते हुए बोले, “धूत, अवधूत, राजपूत, जुलाहा चाहे जो कहो, मुझे क्या? और तुम्हें भी क्या? किसी की बेटी से अपने बेटे का विवाह तो कराना नहीं है और किसी की जाति भी नहीं बिगाड़नी। अरे, यह रामबोला तो राम की दुकान का एक नौकर है, बाकियों को जो समझना हो, समझते रहें। मांग के खाऊंगा और मस्जिद में सोऊंगा। जिसकी पेट में बात पचे, पचा ले, न पचे तो जो मन आए बिगाड़ ले।”

इतना कह तुलसी झटके से उठ कर मेघा भगत की ओर बढ़ चले। एक युवक दौड़ता हुआ आया और हाथ जोड़कर बोला, “शास्त्री जी, अपराध क्षमा हो। यद्यपि मैं आपकी विचारधारा का समर्थक नहीं हूँ पर आपका अपमान करने वालों में भी मैं सम्मिलित नहीं हूँ। मैं पुन: आपसे क्षमा मांगता हूँ।”
तुलसी उस युवक के कंधे पर हाथ रख बोले, “अरे नहीं भाई, मैं किसी से भी क्रोधित नहीं हूँ। मेरे कारण किसी का मनोरंजन हुआ, अच्छा हुआ। और जो इतना ही क्रोधित होता रहा तो रचनात्मक कार्य कैसे कर पाउँगा! रही बात विचारधारा की, तो हमारा धर्म सभी विचारधाराओं का समान करता है। इसी कारण तो हम इतनी विपत्ति झेल कर भी आज भी इस संसार में बने हुए है।” तुलसी उस युवक को आशीर्वाद दे, भगत जी से आ मिले। तुलसी का सहज मुख देख भगत जी को चैन आया। यद्यपि तुलसी के क्रोधित हो उठने से रंग में भंग तो पड़ ही गया था, पर अधिकांश लोग युवकों का ही दोष मान रहे थे। समय पर राजा गोवर्धनधारी दास टण्डन जी और उनके गुरू पंडित नारायण भट्ट जी का आगमन हुआ। औपचारिकताओं के बाद संस्कृत के कुछ कवियों ने अपनी रचनाएं सुनायी। भट्ट जी अधिक प्रसन्न नहीं दिख रहे थे। भगत जी ने उनसे कहा, “भट्ट जी, इनसे मिलिए। शेष सनातन जी महराज का यह शिष्य तुलसी मुझे अपने छोटे भाई की तरह प्यारा है। यह कुछ रचना भी कर रहा है। आप इसकी रचना सुनिए”।
भगत जी के कहने पर तुलसी ने अपने मधुर स्वर में गाना शुरू किया,
“श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणम् ।
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम् ।।
कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरम् ।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि जनक सुतावरम् ।।
भज दीन बन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम् ।
रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम् ।।
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम् । आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर - दूषणम् ।।
... ... ...
... ... ...
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रामबोला: 19
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'अरण्यकांड' लिखते समय तुलसी को बहुत अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। पहले अयोध्या में उनके विरुद्ध रचे गए प्रपंच, पांडुलिपि चुराने का प्रयास, फिर तुलसी का काशी आना, हनुमान फाटक वाले घर में विधर्मी पड़ोसियों का विरोध, मकान में आग लगा देना और अब अस्सीघाट वाले घर पर सहधर्मियों का प्रच्छन्न विरोध। संध्या समय जुटती भीड़ में कोई न कोई उन ब्रह्महत्यापातकी की बात अवश्य ही उठा देता और तुलसी के ब्राह्मणत्व की आलोचना कर जाता। स्वयं तुलसी की जाति को लेकर इतने कटाक्ष होते कि उनका मन खिन्नता से भर उठता। मिथ्या-प्रपंचियों और दोषारोपण करने वाले इतने वाक्पटु होते कि उनसे कुछ कहते भी नहीं बनता।
एक संध्या तुलसी अपने मित्रों के साथ बैठे थे। टोडर और कैलाश किसी बात पर चर्चा कर रहे थे। अचानक ही उन्हें टोकते हुए तुलसी बोले, "कैलाश! अब मैं यहाँ नहीं रहूँगा भाई।"
कवि कैलाश चिहुंककर बोले, "हैं! अब क्या हुआ?"
"हुआ कुछ नहीं। पर मैं अब सरल, सहज गति से लिख नहीं पा रहा। यहाँ व्यवधान बहुत है।"
टोडर को लगा कि कहीं उन लोगों का संध्याबेला में यहाँ आकर बैठना ही व्यवधान तो नहीं, अतः लज्जित से होकर बोले, "बाबा! क्षमा करना। हम लोग नित्य ही जो आ जाते हैं, अब नहीं आएंगे।"
तुलसी खिन्नता से मुस्कुराते हुए बोले, "अरे नहीं भई टोडर! हम आप मित्रों को नहीं कह रहे। आप लोगों के आने से तो मन बहल जाता है। पर मैं इन भक्तों के भेष में आते दुष्टों से व्यथित हो गया हूँ। हम समय बस जाति, कुल, गोत्र! राम का दास रामबोला इन सब बातों से विरक्त है, पर रामायण लिखने वाला कवि तुलसी इन बातों से खीज उठता है। सृजन हेतु शांति चाहिए जो इन प्रपंचियों के रहते मुझे नहीं मिल पाती।"
टोडर हाथ जोड़कर बोले, "तो महराजा, आज्ञा दें। क्या प्रबंध किया जाए? कहें तो चार लठैत बिठा देता हूँ द्वार पर।"
"नहीं भई, मेरे सिर पर लठैत खड़े हों तो हो चुकी रचना। मैं सोचता हूँ काशी छोड़ दूँ। वापस चित्रकूट लौट जाऊँ।"
कैलाशनाथ बोले, "चित्रकूट से अयोध्या, अयोध्या से काशी और अब काशी से वापस चित्रकूट? कितना भागोगे तुलसी? मेरी मानो तो कहीं मत जाओ। बस यहीं काशी में स्थान बदल लो। किसी को बताने की आवश्यकता ही नहीं कि कहाँ हो।"
"पर ऐसा अस्पृश्य स्थान कहाँ हैं?"
अभी यह सब बात हो ही रही थी कि जयराम साहू आ गए। जब उन्हें मालूम हुआ कि समस्या क्या है तो तुरन्त बोले, "तो इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है! अरे, भदैनी में मेरा इतना बड़ा बगीचा है। मेघा भगत वहाँ रहते ही हैं। पड़ोस में एक मड़ई और छवा जाएगी। पूर्ण शांति है वहाँ। कुछ गाय, हिरन और मोर ही हैं जो व्यवधान उत्पन्न कर सकें, बाकी मनुष्यों का प्रवेश मेरी अनुमति के बिना नहीं हो सकता।"
अंधा क्या चाहे, दो आँखें। अगली प्रातः तुलसी बिना किसी को बताए भदैनी आ गए।
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बगीचा क्या था, छोटा-मोटा जंगल ही था। यहां 'अरण्यकांड' के शेष हिस्से को रचने में अधिक सुभीता हुआ। तुलसी प्रातः से संध्या तक मानस-रचना करते और संध्या को अपने मेघा भाई के साथ सत्संग करते। 'किष्किंधाकांड' भी अपनी सहज गति से चल रहा था, पर जब उसमें हनुमान का प्रवेश हुआ तो जैसे तुलसी के कंधों से भार उतर गया। बजरंगी तो रामबोला के बचपन के मित्र थे, उनके आ जाने से सब कुछ अत्यधिक सुगम हो गया था। 'सुंदरकांड' कब पूरा हुआ, पता ही नहीं चला।
"
'लंकाकांड' में घनघोर युद्ध हो रहा है। कुंभकर्ण की मृत्यु हो गई। बूढ़ा राक्षस माल्यवान जो रावण का नाना भी है, समझाकर थक गया कि बस कर, और श्रीराम की शरण में जा परन्तु रावण ने उसे दुर्वचन कह भगा दिया। पुत्र मेघनाद ने रावण को धीरज धराया और प्रातः की प्रतीक्षा करने लगा। सुबह होते ही वानरों ने किले को घेर लिया। किले से निशाचरों ने बड़े-बड़े पत्थर लुढकाए। वानरों ने उन पत्थरों को वापस किले में फेंक दिया। इंद्रजीत मेघनाद किले से बाहर निकला और गरजते हुए राम-लक्ष्मण, सुग्रीव, अंगद और हनुमान को ललकारा। उसने अनगिनत बाण छोड़े और वानर टपाटप मरने लगे। हनुमान क्रोधित होकर मारने दौड़े तो मेघनाद रथ सहित भाग गया। वह राम के पास गया और उन्हें ललकारने लगा। उसने बड़ी माया दिखाई पर मायापति के एक बाण ने उसकी माया हर ही। प्रभु से आज्ञा लेकर लक्ष्मण आगे बढ़े।
मेघनाद और सौमित्र लक्ष्मण के तीरों की वर्षा ने आकाश को ढक दिया। तांत्रिक मेघनाद जब कमजोर पड़ने लगा तो उसने माया का सहारा लिया। भगवान अंनत इस माया को पल-प्रतिपल तोड़ देते हैं। कपटी इंद्रजीत ने छुपकर वीरघातिनी शक्ति चला दी जिससे लक्ष्मण मूर्छित हो गिर पड़े।"
तुलसी अभी इतना ही लिख पाए थे कि एक अनुचर दौड़ता हुआ आया और सूचना दी कि मेघा भाई गिर पड़े हैं और मूर्छित हो गए हैं। तुलसी कागज-कलम छोड़ दौड़े। भगत जी के सिर में चोट लगी थी। तुलसी ने उनके सिर पर लेप इत्यादि लगाया और अनुचरों को कैलाश, जयराम, मंगलू के पास दौड़ाया। उधर मानस में श्रीराम लक्ष्मण को अपनी गोद में रखे सुषेण वैद्य की प्रतीक्षा कर रहे थे, और इधर तुलसी मेघा भगत को अपनी गोद में लिटाए योग्य वैद्य की। वहाँ हनुमान थे जो उचित समय पर औषधि ले आए थे, पर यहां ऐसा न हो सका। मेघा भगत सुषुप्तावस्था में ही चल बसे।
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मानस लिखते हुए तुलसी को 2 वर्ष 7 माह और 26 दिन हो चुके थे। आज संवत् 1633 मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष पंचमी (5 दिसम्बर 1576 ईस्वी) राम विवाह के शुभ दिन मानस के सातों कांड पूरे हुए। तुलसी ने यह दोहा लिखा,
"कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥"
इस दोहे को लिखकर अपनी कलम धर दी और पांडुलिपि को प्रमाण कर सिर उठाया तो उन्हें अपने सम्मुख दिखे भूमि पर बैठे सिंदूर से नहाए हनुमान, सेनापति शत्रुघ्न, सिंहासन के दोनों ओर चँवर डुलाते रामप्रिय भरत और शेषावतार अंनत लक्ष्मण। अनन्तर उन्हें जगतजननी माता सीता के दर्शन हुए जो बाईं ओर बैठी हुई थी, और फिर दिखे परम परमेश्वर, दीनदयाल, कृपानिधान अयोध्यापति प्रभु श्रीराम।
तुलसी ने उन्हें देख झट अपने नेत्र भींच लिए कि यह छवि उनके अंदर समाहित हो जाए। जब नेत्र खोले तो सप्तऋषि तारामंडल मानसरोवर में डुबकी लगाने की तैयारी में थे और काल पुरुष अस्तगिरि के शिखर को छूते दिखाई दे रहे थे। यह नई सुबह थी। यह नया दिन था।
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(ऊपर लिखी हुई रामचरितमानस की लेखन समाप्ति की तिथि गीताप्रेस गोरखपुर के श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार लिखी गई है। अमृतलाल नागर सहित कई अन्य विद्वान इसे संवत 1635 जेठ की तीज मानते हैं।)
रामबोला: 20
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तुलसी का एक मन बड़ा प्रसन्न था और एक मन बड़ा उदास। उन्होंने अपने मन की साध पूरी कर ली थी, या कहें कि कविराज और कपिराज की आज्ञानुसार भाषा में रामायण रच दी थी। उनका यह विश्वास कि मानस की रचना होने पर दीनदयाल उन्हें दर्शन देंगे, पूरा हुआ था पर अधूरा था। वे तो चाहते थे कि जैसे बजरंगी उन्हें जब-तब दिख जाते हैं, कभी स्वप्न में, कभी जागृत अवस्था में, कभी स्वर्गीय मेघा भगत में या कभी किसी साधु में, वैसे ही राम भी दिखें। जैसे बाबा सूरदास के पुकारने पर उनके श्याम दौड़े आते हैं, रामबोला के पुकारने पर राम भी आएं। परन्तु उन्होंने तो बस अपने दरबार की एक झलक भर दिखलाई और अदृश्य हो गए। लगता है अभी तपस्या पूरी नहीं हुई। कोई नहीं, प्रभु हठीले हैं तो भक्त भी कम नहीं।
मानस रचना होने के बाद, और मेघा भगत के स्वर्गवासी होने के बाद भदैनी जैसे सुरम्य स्थान पर तुलसी का मन नहीं लगा। मन में यह भी था कि जो रचना की है, उसे संसार के समक्ष प्रस्तुत करूँ। ऐसा इस बियावान में तो सम्भव नहीं। अतः तुलसी अस्सी घाट लौट आए थे। दीन-दुखी जन अपने बाबा तुलसीदास को वापस अपने बीच पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। रामचरितमानस के पाठ उन्हें भावनात्मक संबल प्रदान करने लगे थे। परन्तु संभ्रांत विद्वान समाज तुलसीदास से चिढ़ा बैठा था। तुलसी की जाति को लेकर अपवाद, और किसी ब्रह्महत्यारे शुद्र को अपने हाथों भोजन करवाने का पाप तो था ही, एक नया पाप जुड़ गया कि आदिकवि वाल्मीकिकृत रामायण में छेड़छाड़ की गई है।
एक संध्या तुलसी अपने अखाड़े में आए उत्साही युवाओं को  पहलवानी के दाँव-पेच सिखा रहे थे। दूर से जयराम साहू, टोडर, कैलाश, मंगलू और गंगा को आते देख अपनी खटिया पर आ बैठे और अपने शरीर को हथेलियों से रगड़ कर मिट्टी की बत्तियां निकालने लगे। राम-राम के पश्चात जयराम साहू बोले, "बाबा, एक बात कहनी थी।"
"मेरे सभी मित्र पहली बार एक-साथ पधारे हैं तो अवश्य ही कोई महत्वपूर्ण बात होगी। कहिए।"
जयराम हिचक रहे थे। जयराम ने टोडर को देखा, टोडर ने गंगा को। गंगा बचपन के मित्र अवश्य थे पर उनकी मित्रता दासभाव वाली थी। युवावस्था के मित्र कवि कैलाश ही तुलसी से समभाव रखते थे, अतः सबने नेत्रों से ही कैलाश को टहोका। कैलाश बेतकल्लुफ होकर बोले, "अरे! कोई इतनी बड़ी बात नहीं है। देखो, ये जो टोडरमल साहब हैं न, इतनी कोई बहुत धनाढ्य विधवा रिश्तेदार अपनी संपत्ति गोस्वामी जी को दान कर गई थी। अब वह मकान वैष्णव मठ है। गोस्वामी जी तो स्वर्गवासी भए, और उनके शिष्यों में कोई इतना योग्य है नहीं कि गद्दी पर बैठे। मठ की जो भी आय है वो अधिकांश टोडर के समाज वालों से आती है। एक बार बातों-बातों में टोडर आपका नाम सुझा बैठे तो इनके समाज वालों ने बस बात पकड़ ही ली। लोकार्क कुंड के बच्चे-बच्चे की जिह्वा पर है कि बाबा तुलसीदास गुसाईं बनकर पधारने वाले हैं।"
इतना बोलकर कैलाश साँस लेने के लिए रुके। उन्होंने तुलसी के चेहरे पर खिन्नता पढ़ ली। जल्दी से बोले, "देखो भई तुलसी। हम सब लोग बहुत अच्छी तरह सोच विचार कर तुम्हारे पास आए हैं। रिसियाओ मत। अरे ये टोडर, जयराम, मंगलू कब से तुम्हारी सेवा करने को मरे जा रहे हैं और तुम हो कि फलाहार पर जी रहे हो। तनिक अपने भक्तों, अपने प्रेमियों को अपनी सेवा का मौका तो दो। इसके अलावा, तुम जानते हो कि काशी का भद्र समाज तुम्हें अभी स्वीकार करने में हिचक रहा है। दीन-हीन लोग तो तुम्हारे पास बेखटके आता ही है पर भई, ये ऊँचे लोग भी तो तुम्हारी दयादृष्टि के योग्य हैं! ये तुम्हारे पास नहीं आते, तो तुम ही क्यों नहीं उनके पास जाते। गोस्वामी बनोगे तो उन लोगों की हिचक भी कम होगी। और सौ बातों की एक बात, जो यह पोथी लिखे हो, इसका प्रचार भी तो होना चाहिए! गोस्वामी रहोगे तो इस बात का बहुत सुभीता होगा।"
तुलसी के चेहरे से लगा कि वे कुछ-कुछ समझ रहे हैं। कैलाश ने फिर से जाल फेंका, "अब वैष्णव मठ है तो मूर्ति राधाकृष्ण की है। उन्हीं की पूजा होती है। यह अपना मंगलू अहीर है न! इसे शंका थी कि तुम तो हो राम भक्त, किशन की पूजा कैसे करोगे। अहीर है न, किशन से अधिक लगाव है इसे। पर ज्योतिष महराज डपट कर बोले कि तुलसी राम और कृष्ण में भेद नहीं करता। बताओ! सही बात है न?"
तुलसी मुस्कुराकर बोले, "मुझे बहलाओ मत कवि महोदय। सब समझ रहा हूँ मैं। पर सोचता हूँ कि जब मेरे सभी शुभचिंतक मित्रों की यही राय है तो जो राम जी की आज्ञा।"
मित्रों के चेहरे खिल गए। तुलसी कुछ ही दिनों में लोकार्क कुंड के वैष्णव मठ में आ गए। घनी दाढ़ी और केश त्याग रामबोला तुलसी, गोस्वामी तुलसीदास बन गए।
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रामबोला: 21
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              लोकार्क कुंड के मठ में तुलसी बड़े प्रेम से कृष्णभक्ति के पद गा रहे थे और भक्त झूम रहे थे। तुलसी के समक्ष जब गोस्वामी बनने का प्रस्ताव आया था तो उन्हें एक हिचक सी हुई थी कि क्या उनका राममय मन गोस्वामियों के आराध्य नटखट, लीलाधर, हृषिकेश भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति कर पाएगा! क्या पूरी श्रद्धा से उनके पद गा सकेगा! परन्तु जब उन्होंने पहली बार केशव की पीताम्बर-मुरली-मोरमुकुट वाली मूरत देखी, उन्हें अपने हृदयस्थल में धनुष-खड्ग-राजमुकुट वाली प्रभुश्रीराम की मूरत ही प्रतिबिंबित हुई। उन्हें बाबा सूरदास की बात याद हो आई कि मन में भक्ति हो तो तेरे राम और मेरे श्याम एक ही हैं।
पूजा समाप्त हुई। प्रसाद वितरण के बाद तुलसी किशनमूरत के सामने अकेले बैठे प्रार्थना कर रहे थे, "हे कृष्णमुरारी, हे नाथनारायण! मैं पुराणों में लिखी सभी बातों का पालन करता हूँ। मैं गुरुजनों, श्रेष्ठजनों, संतों के दिखाए मार्ग पर चलता हूँ। यथासंभव वह सब करता हूँ जो एक भक्त को करना चाहिए। फिर भी हे मधुसूदन! मेरे राम मुझे प्रत्यक्ष दर्शन क्यों नहीं देते? क्या मैं इतना अधम हूँ वासुदेव? हे पार्थ के सारथी, मुझे मार्ग दिखाओ।"
मठ के एक वासी ने उन्हें सूचना कि राजापुर से कोई राजा भगत दर्शन हेतु द्वार पर खड़े हैं। राजा का नाम सुनते ही तुलसी भावलोक से बाहर इहलोक में आ गए और शिष्य को आज्ञा दी कि अतिथि को अतिथि-कक्ष में बिठाए। वे स्वयं चौकी छोड़ने से पहले शेष क्रियाएं संपन्न कर अतिथि-कक्ष की ओर भागे। कक्ष में प्रवेश करते ही तुलसी राजा को गले लगाने आगे बढ़े ही थे कि ठिठक कर रुक गए। राजा अकेले नहीं आए थे, उनके साथ तुलसी की धर्मपत्नी रत्नावली भी खड़ी थी। रत्ना और राजा भी तुलसी के दाढ़ी-केश विहीन मुखमंडल को देख आश्चर्यचकित थे।
रत्ना को देख तुलसी का सारा उत्साह जाता रहा। उन्होंने राजा से औपचारिक मिलन पश्चात थोड़े कठोर शब्दों में पूछा, "इन्हें क्यों ले आए?"
राजा तुलसी के इस रुष्ट व्यवहार पर सकपका से गए। अतः चुप ही रहे। इधर रत्ना ने तुलसी के चरणस्पर्श किए तो तुलसी का रोष थोड़ा कम हुआ। दोषी तो वे स्वयं थे, और क्रोध भी कर रहे थे! अपने क्रोध को अनुचित समझ उन्होंने एक शिष्य को आवाज दी और कहा, "भगत जी का बिस्तरा हमारे कमरे में ही लगा दो।" रत्ना की ओर संकेत करते हुए कहा, "और यह तुम्हारी माताजी हैं। इन्हें ऊपर वाले कमरे में ले जाओ। और स्नान इत्यादि की व्यवस्था करवा दो। यदि ये गंगास्नान चाहें तो घाट पर ले जाना।" तुलसी के ऐसे वचन सुन रत्ना और राजा दोनों को तनिक चैन आया।
राजा-रत्ना को आए दो-तीन हफ्ते बीत गए थे। इस बीच तुलसी ने राजा से राजापुर और आसपास के गाँवों के बारे में, वहाँ के निवासियों के बारे में, अपने रहते बनवाए मंदिर और बालिका विद्यालय के बारे में हालचाल ले लिया था। अपनी यात्राओं और मानस-रचना में आई कठिनाइयों इत्यादि का वर्णन किया, और भी बहुतेरी बातें की पर कभी रत्ना के बारे में कुछ नहीं पूछा। इधर राजा भैया थे जो अपने तुलसी भैया से अपनी रत्ना भाभी के अतिरिक्त कोई अन्य बात करते ही नहीं थे। उन्होंने तो पंडित गंगा, कवि कैलाश और साह टोडर को भी अपने में मिला लिया था और यह सब मिलकर दबाव डाल रहे थे कि तुलसी अब रत्ना को अपना लें, मठ में ही रहने दें। उन लोगों का कहना था कि गोस्वामी लोग तो गृहस्थ होते ही हैं। इस मठ के पूर्व गोस्वामी यहाँ सपरिवार रहते थे, काशी नगरी के सभी गोस्वामी विवाहित हैं और सपरिवार रहते हैं। तो भला तुलसी को ही क्या आपत्ति है?
इधर तुलसी गोस्वामी के इस छप्पन भोग खिलाने वाली पदवी से ही भरे बैठे थे। उन्हें अयोध्या के वे दिन याद आते जब वे मानस रचना से पहले कथा बाँचते और शाम अपने हाथों अपने लिए खिचड़ी पकाते थे। गंगू अहीर कभी-कभी एक कुल्हड़ दूध या मट्ठा दे जाता तो कितना आनन्द मिलता था। और अब यह हाल था कि खूब ओइठायां हुआ मलाईदार दूध पीते, घी और खोया चाभते हुए उन्हें लगता कि वे माया के रसातल में गिरते चले जा रहे हैं। और अब यह लोग रत्ना को भी साथ में बाँधना चाहते थे। ऊपर उठने के लिए जिसे छोड़ा, क्या अब उसे भी साथ लेकर गिरना सही है? उन्होंने अपने सभी हितु मित्रों को बुलाया और अंतिम बार कह दिया कि वे गृहस्थ आश्रम छोड़ चुके हैं, और अब वे किसी भी दबाव में वापस नहीं लौटेंगे।
हताश रत्ना ने एक बार तुलसी से मिलने की अनुमति माँगी। वे जब से आई थी, एक बार भी तुलसी के सामने नहीं पड़ी थी। अब आज अंतिम बार मिलने की अनुमति चाही तो तुलसी मना नहीं कर पाए। रत्ना ने बैठके में प्रवेश किया और तुलसी के चरण छूने चाहे तो तुलसी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। जय श्री राम का अभिवादन कर उन्होंने उन्हें बैठने का संकेत किया। रत्ना पीढ़ा छोड़, भूमि पर बैठ गई और बोली, "मैं समझती हूं कि आप अब मुझे स्वीकार नहीं करेंगे, परन्तु मुझे दुत्कारिये मत। मैं इतने दिन से यहाँ हूँ, तो क्या कभी आपको कोई कष्ट दिया?"
"नहीं, देवी।"
"तो मुझे यहाँ रहने देने में क्या आपत्ति है।"
"आपत्ति है देवी। मैं अब केवल तुम्हारा पति ही नहीं हूँ। और केवल वह तुलसी भी नहीं हूँ जो अपने राम को खोजते बावला हो गया था। अब यह तुलसी आस्था का प्रतीक भी है। यह कलिकाल है देवी। यहाँ आस्थाएं बड़ी कठिनाई से पनपती हैं, और बड़ी आसानी से टूट जाती हैं। यहाँ का जनमानस मुझे वैरागी, सन्यासी मान मुझमें अपने सनातन के सत्य-स्वरूप का दर्शन करता है। अब यदि उनका सन्यासी सन्यास छोड़ देगा तो इन लोगों का मन केवल सन्यासी से ही नहीं, सनातन से भी बिदक जाएगा। विधर्मियों को धर्म पर आक्षेप लगाने का एक और अस्त्र मिल जाएगा। मैं सनातन को दृढ़ करूँ अथवा नहीं, परन्तु मुझे इसे कमजोर करने का कोई अधिकार नहीं देवी।"
"ठीक है। मत स्वीकारिये मुझे। मैं मठ से चली जाती हूँ। गंगाभैया की घरवाली मुझे अपने पास रखना चाहती हैं। आपकी आज्ञा हो तो वहाँ चली जाऊँ।"
"नहीं! यह उचित नहीं होगा।"
"तो मैं कहीं और रह लूंगी। मुझे अपने पास मत रखो, अपने मित्र के घर भी मत रहने दो, पर कम से कम इस काशी में तो रहने दो।"
"नहीं देवी। तुम्हें वापस राजापुर जाना है।"
"मेरे साथ यह अन्याय क्यों कर रहे हो?"
"मुझे क्षमा करो रत्नावली। इसे तपस्या समझो। मैं यहाँ तपस्या कर रहा हूँ। तुम राजापुर में करो।"
"ठीक है। जैसी तुम्हारी आज्ञा। एक विनती है। गंगाभैया के घर तुम्हारी रामचरितमानस पढ़ी मैंने। वाल्मीकीकृत रामायण  और तुम्हारी मानस में मुझे मानस अधिक भायी। क्या मुझे उसकी एक प्रति मिल सकेगी?"
"टोडर उसकी प्रतियां बनवा रहे हैं। यथाशीघ्र तुम्हारे पास पहुँचवा दूंगा।"
"आज्ञा हो तो एक प्रश्न पूछूं?"
तुलसी ने गरदन हिलाकर हाँ का संकेत किया तो रत्ना बोली, "महाकवि वाल्मीकि की रामायण में उत्तरकांड में एक धोबी के कहने से राम ने माता सीता का त्याग किया था। तुम्हारी मानस में यह प्रसंग क्यों नहीं है?"
तुलसी कुछ क्षण चुप रहे, फिर बोले, "अपनी पत्नी के साथ जो अन्याय मैंने किया है, वह अन्याय मेरे राम कभी नहीं कर सकते थे।"
इतना सुनना था कि रत्ना भरभराकर तुलसी के चरणों में गिर गई। इतने वर्षों की रोकी हुई रुलाई फूट पड़ी। उसके पति ने उसे अपराधी मान उसे नहीं त्यागा था। वह इस व्यवहार को दण्ड नहीं मानता, अपितु अपनी पत्नी पर स्वयं द्वारा किया गया अन्याय मानता था। अब संसार भले ही उसे अपराधी माने, वह निरपराध थी।
स्वयं को संभाल कर रत्ना बोली, "आमजन तुम्हें महात्मा मानता है, चमत्कारी सिद्ध पुरुष मानता है। क्या तुम इस दुखिया को एक आशीर्वाद दोगे?"
द्रवित तुलसी के हाँ के संकेत पर रत्ना बोली, "मैं चाहती हूं कि मेरी मृत्यु सधवा के रूप में हो, और आँखों की ज्योति निकलने से पहले उनमें अंतिम छवि तुम्हारी हो। क्या मुझे अपने इस अधम जीवन के अंतिम क्षण में तुम्हारे दर्शन होंगे?"
"हाँ देवी, राजा राम का यह चाकर उस दिन तुम्हारे सामने अवश्य होगा।"
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रामबोला : 22
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गोस्वामी तुलसीदास लोकार्क कुंड का मठ और अपना गोस्वामी पद छोड़ वापस अस्सी पर आ बसे। उस समय बाबा विश्वनाथ के टूटे हुए मन्दिर का जीर्णोद्धार बादशाह अकबर के वित्तमंत्री राजा टोडरमल के सुपुत्र राजा गोवर्धनधारी करवा रहे थे। काशीवासियों में मन्दिर बनने का उत्साह हिलोरे मार रहा था। विश्वनाथ गली में चहल-पहल रहती थी। एक दिन बाबा वहीं किसी दुकान पर बैठे मित्रों और भक्तों से घिरे बैठे थे, और त्रेता युग की अयोध्या से लेकर मुगलकाल की दिल्ली तक की बातें हो रही थी। उन लोगों में से एक ने बाबा से कहा, "बाबा! बड़ा बढ़िया किए आप जो अमीरों वाली भक्ति छोड़ दिए। बताइए, एक आपही तो रहे हमारे जिसके पास हम लोग निधड़क चले जाते रहे। फिर जब आप भी गुसाईं होई गए, डोली और रथ पर चलने लगे तो हम लोगों को बड़ा बुरा लगता रहा।"

बाबा हँसते हुए बोले, "अरे रामभरोसे! सच कहें तो हमारा दम भी घुट गया था भाई। भगवान की भक्ति तो खैर कहीं भी हो जाती है। क्या अस्सीघाट क्या लोकार्क मठ, पर जो अर्थ इत्यादि का झमेला था, वो हमसे नहीं सपरता था। इन्हीं सब से तो हम जीवन भर भागते रहे, पर ये टोडर और गंगा हमें वहीं फँसा दिए।"

टोडर गरम दूध के कुल्हड़ के पीछे अपना मुँह छुपाने लगे और महाज्योतिष पंडित गंगा कुछ बोलने को हुए ही थे कि तुलसी की मृदु मुस्कान देख चुप रह गए। वहाँ बैठे लोगों में से एक ने कहा, "बाबा! अब तो आप आ ही गए हैं। तो अब अपनी वह  रामायण तो सुनाइए जिससे शहर में इतना बवाल हो गया था। अमीर-उमरा को तो आप सुना दिए, अब हम गरीब-गुरबा पर भी कृपा हो जाए!"

"जरूर लाला। हमने रामायण लिखी ही आमजन के लिए है। टोडर ने इसकी कुछ प्रतियां बनवाई हैं। मैं चाहता हूँ कि समर्थ लोग इन प्रतियों को लें, और इनकी अनेक प्रतियां बनवाकर सभी शिक्षित लोगों में वितरण करें। जो लोग पढ़ नहीं सकते, उनके लिए मेरा विचार है कि रामलीला का मंचन किया जाए।"

रामलीला की बात सुन अनेक लोग चिहुँक उठे। क्या नाटक खेला जाएगा? क्या रामकथा को इन नचनियों और भांडों का सहारा लेना होगा? कितनी शर्म की बात है!

तुलसी मुस्कुराते हुए बोले, "भाई! मैं सूर्य की ओर संकेत कर रहा हूँ और तुम लोग मेरी तर्जनी पर अटक गए! राम महत्वपूर्ण हैं या माध्यम? नाटक, प्रहसन को हेय दृष्टि से देख रहे हो, फिर किस आधार पर संस्कृतनिष्ठ ब्राह्मण समुदाय से रुष्ट हो जब उन्हें तुलसी की भाषा में लिखी रामायण से कष्ट होता है! ठीक तुम लोगों की तरह ही उनका कहना है कि क्या रामकथा संस्कृत की जगह भाषा में कही जाएगी!

"समस्त जनता को संस्कृत नहीं आती इसलिए रामचरितमानस लिखी जाती है। उसी प्रकार सबके पास पढ़ने का समय नहीं होता। अतः रामचरितमानस शब्दों से निकलकर दृश्यों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचेगी।" तुलसी कुछ रुककर बोले, "फिर मैं भी तो हूँ। प्रत्येक लीला के बाद मैं रामायण पाठ भी तो करूँगा।"

सभा सन्तुष्ट हो गई। और संध्या होते-होते पूरी काशी में यह बात फैल गई कि रामायण का मंचन किया जाएगा। भक्त खुश हो गए, प्रतिद्वंदी और अधिक रुष्ट हो गए।
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तुसली बनारसी सरदार के पास बैठे थे। बनारसी काशी के समस्त ठठेरों-कसेरों का सरदार था। तुलसी बाबा को अपने आंगन में देख बनारसी समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे, कैसे बाबा की सेवा करे। बस हाथ जोड़कर खड़ा रहा। बाबा बोले, "बनारसी! भई हम तुमसे मदद मांगने आये हैं।"

बाबा आगे कुछ बोलते, उसके पहले ही बनारसी उनके चरणों में झुक आद्र स्वर में बोला, "आज्ञा बाबा, आज्ञा। आप मदद नहीं मांगेंगे, आज्ञा करेंगे। अरे, हम ठठेरों के घर तो भगवान चले आए हैं। आप कोई भी आज्ञा दीजिये। भगवान विश्वकर्मा की सौगंध, मैं उसे जरूर पूरा करूँगा।"

"अरे भाई, कोई मेरा काम होता तो आज्ञा भी दे देता। पर यह तो रामकाज है। आपसी मदद से ही सम्भव है।"

"आप बतावें प्रभु।"

"तुमने तो सुना ही होगा कि रामलीला का मंचन होना है। हम चाहते हैं कि सेठ-साहूकारों की मदद न लेकर हम लोग आपस में ही मिल-बांटकर अपनी सामर्थ्य अनुसार कुछ करें। क्या कहते हो?"

"बहुत सही बात बाबा। हमारे राम की लीला का मंचन हम लोग खुद करें तो इससे बढ़कर क्या बात होगी!"

"तो सुनो। राम, लक्ष्मण, भरत, हनुमान, सुग्रीव, रावण, मेघनाद इत्यादि सभी लोग मुकुट पहनते हैं। और इनके मुकुट धातुओं के बनते हैं। धातुओं के शिल्पकारों के सरदार तुम हो। अब बताओ कि तुम क्या कर सकते हो?"

"अरे बाबा! बस इतनी सी बात! कितने मुकुट चाहिए? पूरे शहर में हम कुछ नहीं तो दो सौ लोग हैं। हर घर से एक मुकुट बन जाएगा। और कुछ धन इत्यादि नहीं लगना है इस पर। बरतन की घिसाई-कटाई में ही इतना तांबा, कांसा निकल जाता है कि एक-दो मुकुट बन जाए। बताइए! इतने के लिए आप इतना कष्ट किए। अरे, किसे चेले को भी भेज देते तो दो-तीन दिन में दो-ढाई सौ मुकुट हम खुदे चहुपा देते महराज।"

बाबा अत्यंत हर्षित स्वर में बोले, "तब मुझे एक और रामभक्त के दर्शन कैसे होते बनारसी?"
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मल्लाहों की बस्ती में शोर मचा हुआ था। तुलसी बाबा पधारे थे। कितने ही मल्लाह नवयुवक उनके साथ चले आ रहे थे। मल्लाहों के सरदार ने बाबा को देखते ही उनकी तरफ दौड़ लगा दी और उनके चरणों में झुकने को हुआ ही था कि बाबा ने उसे कंधों से पकड़ कर गले लगा लिया। तुलसी को एक साफ चबूतरे पर बैठाते हुए बुजुर्ग केशव ने कहा, "बाबा, धन्यधन्य हो गए हम लोग। आप आए, हमें लगा कि स्वयं राजा राम आ गए हमारी बस्ती में।"

बाबा केशव का हाथ पकड़ कर बोले, "अब यह तो आप अतिश्योक्ति कर गए काका। परन्तु राम सच में आने वाले हैं। हमारी रामलीला में राम जब वनवास को जाएंगे तो केवट महराज उनके पैर धुलायेंगे, उन्हें नदी पार कराएंगे। तो काका केशव, आपको ही बनना है केवट महराज।"

बुड्ढे की आँख में आँसू आ गए।

आसपास खड़े युवकों ने गगनभेदी नारा लगाया ---

"जय श्री राम"
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हिरदे अहीर तो बाबा का भक्त था ही। बाबा से मिलने आया था। वहीं टोडर और पंडित गंगा भी बैठे थे। हिरदे शिकायत लेकर आया था कि बनारस का लगभग हर समुदाय रामलीला में सक्रिय भाग ले रहा था पर बाबा ने अहीरों को भुला दिया। टोडर की भी यही शिकायत थी कि जब सब हैं तो भुमिहार क्यों नहीं हैं! कुश्ती से लौटे बाबा अपने शरीर पर लगी मिट्टी की पट्टियों को हटाते हुए बोले, "तुम लोगों का काम तो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। रामायण में बानर सेना कौन बनेगा? तो भई हिरदे, तुम अपने लड़कों से कहो कि बानर बनने के लिए तैयार रहें।"

हिरदे अपनी मूँछ मरोड़ता हुआ बोला, "जे हुई न बात। हमारे पट्ठे तो उछल जाएंगे। भगवान श्रीराम की सेना बनने का सौभाग्य! अहा!"

तुलसी टोडर की ओर देखकर बोले, "और तुम सुनो टोडर। कट्टर शैवपंथी, मुझसे द्वेष रखने वाले वैष्णव और मेरे गुरुभाई  बटेश्वर इस रामलीला को सफल होता नहीं देखना चाहते। यद्यपि वे लोग मुझ पर हाथ नहीं उठा सकते पर स्वरूपों को कष्ट या आयोजन स्थलों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। तो सुरक्षा की जिम्मेदारी तुम्हारी।"

टोडरमल पूरी विनम्रता से बोले, "जब तक एक भी भुमिहार जीवित है, स्वरूपों को कुछ नहीं हो सकता। पर बाबा, आपने आयोजन 'स्थलों' कहा। क्या एक से अधिक आयोजन स्थल हैं?"

"हाँ टोडर। मैं सारी रामलीला एक ही जगह नहीं करवाना चाहता। जब सारा नगर ही लीला में भाग ले रहा है तो आयोजन स्थल भी सारा नगर होना चाहिए। जैसे शूर्पणखा की नाक काटने वाला प्रसंग चेतगंज में हो, भरत मिलाप नाटीइमली में हो। कुछ लहुराबीर पर हो, कुछ रामनगर में हो।"
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दोपहर जाने वाली थी। बाबा अपने निवास पर पंडित गंगा के साथ कुछ चर्चा कर रहे थे कि एक ब्राह्मण युवक पसीने में सराबोर भागता-हाँफता हुआ आया और प्रणाम करने के बाद बोला, "बाबा! कलियुग आ गया। नगर के एक उमरा की बीवी किसी अधर्मी साधु के साथ भाग गई है। सुबह से ही सारी काशी के साधुओं-महात्माओं की गिरफ्तारी हो रही है। बाबा! आपसे हाथ जोड़ निवेदन है कि अभी मेरे साथ गंगा पार कर नगर से बाहर हो जाते हैं। नहीं तो कहीं आपकी गिरफ्तारी हो गई तो हम सनातनी किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे। आइए बाबा, उठिए!"

तुलसी उठे और गगरी में से एक लोटा पानी निकाल युवक को थमाया और शांतचित्त होकर बोले, "जल ग्रहण करो पुत्र और तनिक धैर्य रखो।" थोड़ा ठहरकर बोले, "पलायन करना उचित नहीं। क्या पलायन करने से समस्या हल हो जाएगी? इसके विपरीत, होगा यह कि पलायन करने के कारण ही मुझे दोषी मान लिया जाएगा। पुत्र! मुझे पता है कि यह किसका किया-धरा है। विडम्बना है कि मेरे ही गुरुभाई ईर्ष्या में इतने अंधे हो गए हैं। वे गुरु शेष सनातन का नाम लेकर मुझसे कहते तो मैं स्वयं ही काशी छोड़ कहीं और चला जाता। पर भाग्य में जो लिखा है, वह तो भोगना ही है। उन्हें भी और मुझे भी। तुम जाओ पुत्र। तुम्हारा कल्याण हो। देखना कि नगर में अधिक उत्पात न हो। जाओ!"

उसी संध्या बाबा तुलसीदास को गिरफ्तार कर लिया गया।
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काशी में आग लग गई थी। एक मोहल्ला ऐसा नहीं था जहाँ शांति हो। महिलाओं के मुख से शहर कोतवाल से लेकर मुगल बादशाह तक के लिए गालियां निकल रही थी। वृद्ध अपने पुत्रों-पौत्रों को डपट रहे थे कि क्या उनकी सन्ततितों में उनका रक्त नहीं! बाबा कारागार में हैं और ये लड़के घर पर बैठे हैं! युवकों के बाहुओं की मछलियां फड़फड़ा रही थी कि बस मौका मिले और वे आकाश-पाताल एक कर दें।

टोडरमल के घर पर बैलगाड़ी में बैठकर हिरदे अहीर पहुँचा। घोड़ा दौड़ाते धनञ्जय ठाकुर आए। अपने बटुकों के साथ पंडित गंगा पहुँचे। डोली में बैठकर केशव मल्लाह आया। पाँव पैदल चलकर सरदार बनारसी पहुँचा। सभी जातियों के सरगना टोडर की हवेली पर बैठे थे और सबके नथुने क्रोध से फड़क रहे थे। सबसे पहले जयराम साहू बोला, "यह अधर्म है। बाबा जैसे सद्पुरुष कारागार में! थू है हम लोगों पर। टोडरमल जी, मेरी बात सुनिए। मेरे पास बाहुबल नहीं, पर धनबल है। जितना धन लगता हो, लगाइए। पर मेरे बाबा सूर्योदय से पूर्व अपनी कुटिया में होने चाहिए।"

हिरदे अहीर तमक कर बोला, "अरे, इसमें मुद्राएं क्या करेंगी? क्या हम उस अधर्मी कोतवाल को रिश्वत देंगे कि हमारे बाबा को छोड़ दे। साह जी, बनारस के अहीरों का खून पानी नहीं हुआ है अभी। सबके सिर पर लाठी मारकर बाबा को लाकर यहां खड़ा करेगा यह अहीर। बाबा हमें राजा राम की बानर सेना बना रहे थे। तो यह काशी भी देखे कि राजा राम की बानर सेना, बाबा की यह अहीर सेना क्या करने का दम-खम रखती है।"

ठाकुर धनञ्जय सिंह के नेत्र आग उगल रहे थे। बोले, "इन मुगलों की यह हिम्मत! इन सबकी गरदनें उतार दूंगा मैं।"

सभी सरदारों ने धनञ्जय सिंह का समर्थन किया। सबके बोल लेने के बाद टोडरमल बोले, "तो यही तय रहा। आज शाम ही कोतवाली और छावनी पर हम सभी का संयुक्त धावा बोला जाएगा। अहीर और मल्लाह टुकड़ियां कोतवाली पर हमला करें। बाकी सभी छावनी पर। इस बात का ध्यान रखें कि रक्तपात न हो या कम से कम हो।

"और पंडित गंगा जी, आपके गुरुभाई के पाप का घड़ा भर चुका है। उन्हें उनके अपराधों का समुचित दण्ड मिलना चाहिए।"

गंगाधर दृढ़ स्वर में बोले, "ऐसा ही होगा।"
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अर्धरात्रि को छावनी और कोतवाली में कहर टूटा। सारे मुगल सिपाहियों के सिरों पर लाठियों की बरसात हुई। किसी की समझ में ही नहीं आया कि अचानक हुआ क्या। शहर कोतवाल को पकड़ लिया गया। हिरदे ने उसकी दाढ़ी नोच ली। कोतवाल ने कांपते हुए तुलसीदास को तुरंत बरी करने का आदेश दिया। हालांकि कारागार पर टोडरमल का कब्जा हो चुका था, पर तुलसीदास ने सभी साधुओं और बैरागियों को बाइज्जत बरी होने से पहले कारागार से निकलने से मना कर दिया था। मजबूरन सभी बैरागियों को छोड़ना पड़ा।

रात्रि के तीसरे पहर बाबा तुलसीदास का विजयी जुलूस निकला। उस दिन पहली बार ऐसा लगा कि काशी और तुलसी एक हो गए थे।

बटेश्वर सूर्योदय नहीं देख पाए। मुगल सिपाहियों ने अपनी बेइज्जती का बदला ले लिया था।

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#रामबोला : 23
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काशी में अबकी जो हो गया था वो अभूतपूर्व था। मुगलिया सल्तनत के इतने बड़े सूबे में ऐसा विद्रोह, वो भी अजीमोशान शहंशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के शासन-काल में! काशी के तमाम ओहदेदारों में इतना खौफ समाया कि छोटे से बड़े सबने खुद को बेगुनाह व फरमाबरदार और बाकियों को लापरवाह बताने की कोशिश में आगरे के बड़े ओहदेदारों के पास रिश्वतें भेजनी शुरू कर दी। उन बड़े ओहदेदारों ने उन रिश्वतों का भरपूर सिला दिया और अपने-अपने चमचों की सिफारिशें अकबर के पास पहुंचाई। यह सिफारिशें इतनी अधिक मात्रा में थी कि अकबर समझ गया कि कुछ गड़बड़ जरूर है। उसने तत्काल काशी-जौनपुर के सूबेदार को निलंबित कर अब्दुर्रहीम खानखाना को सूबेदार बना कर जौनपुर रवाना कर दिया।

तुलसी बीमार थे। उनको गिल्टियां निकल आई थी जिनमें बहुत दर्द था। टोडर और गंगा उनके साथ बैठे हुए थे। तुलसी को जब भी दर्द की टीस उठती, वे हनुमान से प्रेम भरी गुहार लगाते, 'दुनियां भर के दुख दूर करते हो, बस मेरी बारी आते ही बहरे बन जाते हो। राम जी के दर्शन तो तुमने करवाए नहीं, कम से कम यह दर्द तो हर लो'।

तुलसी का यह अलाप चलता ही रहा कि किसी ने भीतर आकर बताया कि नगर-हाकिम पधारे हैं और बाबा से मिलना चाहते हैं। हाकिम अंदर आये और बोले, "तुलसीदास जी, सूबे के नए सूबेदार आपके दीदार करना चाहते हैं। अगर सही समझें तो जब भी आप कहें, पालकी भिजवा दी जाए।" इसपर तुलसी के जवाब देने से पहले गंगाराम जी बोल उठे, "हुजूर! आप तुलसी की दशा देख ही रहे हैं। इस अवस्था में इनका कहीं निकलना इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है!"

शहर के प्रतिष्ठित ज्योतिष पण्डित गंगाराम की बात बीच में ही काटकर हाकिम सविनय बोले, "कोई दिक्कत की बात नहीं है। सूबेदार साहिब ने इल्तिज़ा की है कि यदि तुलसीदास जी खुद न आ सकें तो उन्हें यहाँ आने की अनुमति दी जाए।"

तुलसी मुस्कुराकर बोले, "यह कुटिया तो सबके लिए खुली है। रहीम साहब तो सूबेदार हैं, उन्हें कौन कुछ कह सकता है। परन्तु उससे अधिक महत्व की बात है कि वे बड़े कृष्णभक्त हैं। उनके दर्शन करना तो सौभाग्य की बात है। यदि मेरा स्वास्थ्य अनुमति देता तो मैं आज ही चलता। उनसे कहिएगा कि यह रामभक्त रामबोला किशनभक्त रहीम से मिलने के लिए उतावला है। वे जब चाहें, पधारें।"

अगली सुबह काशी-जौनपुर के सूबेदार अब्दुर्रहीम खानखाना पूरे औपचारिक ठाटबाट के साथ तुलसी की कुटिया पर पहुंचे। हाथी से उतरने के बाद उन्होंने अपनी पगड़ी और जूती उतार दी। फिर सेवक से पानी मंगवाकर अपने हाथ धुलवाए और तुलसी की ओर बढ़े। तुलसी अभी नमस्कार की मुद्रा भी नहीं बना पाए थे कि उन्होंने रहीम को अपने चरणों की ओर झुकता हुआ पाया। उन्होंने झट से रहीम को कंधों से पकड़ गले लगा लिया। तुलसी बड़े प्रेम से उन्हें अपने कक्ष में ले गए जहाँ रहीम उनके साथ भूमि पर बैठे। दोनों एक दूसरे को बड़ी देर तक बस देखते ही रहे, फिर रहीम बोले, "आप धन्य हैं बाबा। मैं न जाने कितने पीर-फकीरों से मिला, साधु-संतों की संगत की, लेकिन जनता का जो प्रेम आप पर दिखा, वह अन्यंत्र कहीं देखने को नहीं मिला। समाज का प्रत्येक वर्ण और वर्ग का व्यक्ति आपका भक्त है। यहाँ तक कि निम्न वर्ग का मुस्लिम समुदाय भी आपको बहुत श्रद्धा से देखता है। अभी आपके समक्ष बैठकर मुझे लग रहा है कि सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह चतुर्दिक दिशाओं में फैल रहा है। यह अवश्य ही आपकी उच्च कोटि की भक्ति का प्रभाव है। बाबा, क्या मैं भी कभी आपके स्तर पर पहुँचूँगा?"

बाबा स्नेह से रहीम का हाथ पकड़कर बोले, "खानेखाना! आप राजनीति और भक्ति को एक साथ साध रहे हैं। यह अत्यंत विलक्षण बात है। भक्ति का स्तर तो मुझे नहीं पता, पर मेरा राम कहता है कि जब तक भारतभूमि में शिक्षा का अस्तित्व रहेगा, समाज को दिशा दिखाने के लिए आपके दोहे प्रासंगिक रहेंगे।"

बहुत देर तक उन दोनों में दोनों दुनिया की बातें होती रही। चलते समय रहीम ने गुजारिश सी करते हुए कहा, "बाबा! महाबली चाहते हैं कि आप जैसे विद्वान सत्ता में प्रत्यक्ष भागीदारी करें और शासन व्यवस्था में उत्तरोत्तर सुधार के लिए उनके सहायक हों। मैं यहाँ से आगरे जाने वाला हूँ। यदि मैं उनसे आपके लिए किसी जागीर या मनसबदारी की सिफारिश करूँ तो क्या आप उसे स्वीकार करेंगे?"

अपनी विनम्र मुस्कान के साथ बाबा ने जवाब दिया, "हम चाकर रघुबीर के, पटो लिखो दरबार। तुलसी अब का होहिंगे, नर के मनसबदार।।"
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#रामबोला : 24
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सावन माह का कृष्ण पक्ष था। एक नाव किनारे आकर लगी और उससे तीन ब्राह्मण उतरे। सबसे छोटे ब्राह्मण की आयु तीस वर्ष से अधिक नहीं होगी, दूसरे अधेड़ावस्था को प्राप्त थे। वरिष्ठतम ब्राह्मण की आयु का कुछ पता नहीं चलता था। सोने की तरह पीला वर्ण, आँखों की आकर्षक ज्योति, सन की तरह सफेद चुटिया, हृष्ट-पुष्ट शरीर लेकिन सिकुड़ती-लटकती त्वचा सही आयु के भेद का पता नहीं लगने देती थी।

वृद्ध महात्मा राजापुर के तट और कस्बे को पहचानने का प्रयास कर रहे थे। झोपड़ियां तो बहुतेरी हो गई थी, कुछ कच्चे-पक्के मकान भी दिख रहे थे। महात्मा मुदित मन से बोले, "रामू! इस गाँव को देख रहे हो। यह मेरे पिता का गाँव है। हुमायूँ और शेरशाह की लड़ाई में यह उजड़ गया था। फिर मेरे मित्र राजा भैया और मैंने मिलकर इसे फिर से बसाया। तब यहाँ आठ-दस घर रहे होंगे। आओ, उधर चलते हैं। उधर हनुमानजी का मंदिर बनवाया था। हनुमानजी को प्रणाम कर आगे बढ़ेंगे।"

सत्तर वर्षीय पुजारी श्री चिंतामणि जी मन्दिर प्रांगण में कुछ शिष्यों को रामायण पढ़ा रहे थे। पढ़ाते-पढ़ाते उनकी दृष्टि दूर से आते तीन व्यक्तियों पर पड़ी। उनकी भृकुटियां सिकुड़ गई, जैसे वे आगन्तुकों को पहचानने का प्रयत्न कर रहे हों। अचानक ही उनकी भृकुटियां सहज हुई और एक ही समय पर उनके नेत्रों में पानी तथा होंठों पर मुस्कान आ गई। उन्होंने अपने बेटे को आवाज लगाते हुए कहा, "बेटा मुक्तमणि! जाओ रतना मैया के पास जाओ, बता दो कि गुरुजी आ गए हैं। राजा भैया को भी सूचित करते जाना बेटा। जाओ, भागो।" इतना कह खुद भागते हुए गए और बाबा के चरणों में गिर पड़े।

बाबा ने उन्हें उठाते हुए कहा, "कौन हो भई? चिंतामणि हो क्या?"

"जी हाँ, गुरुजी। मैं आपका चिंतामणि। मेरी पीठ ने आपकी छड़ी को बहुत याद किया गुरुजी।"

"अरे रे! तुम थे भी तो बहुत नटखट। पढ़ने में तो तुम्हारा ध्यान ही नहीं होता था। परन्तु मैं तो तुम्हें बस एक वर्ष की शिक्षा ही दे पाया था पुत्र।"

"आपके जाने के पश्चात गुरुमाता ही गुरु बन गई थी गुरुजी। आइए, पधारिए।"

"चलो, पर पहले इनसे मिलो। ये तुम्हारे गुरुभाई हैं। बेनीमाधव और रामू। बेनीमाधव मेरी जीवनी लिख रहे हैं।"

चिंतामणि जी ने स्वयं से पंद्रह वर्ष छोटे बेनीमाधव और चालीस वर्ष छोटे रामू के पैर छुए, उन दोनों ने भी यही किया। फिर सभी लोग मन्दिर की ओर बढ़ चले। बाबा हनुमान प्रतिमा को प्रणाम कर मन्दिर से निकले ही थे कि वयोवृद्ध राजा अहीर ने उन्हें अपने अंक में भर लिया। राजा कुछ बोलने को होते पर भावुकता उनका कंठ अवरुद्ध कर देती। अंततः बोले, "मोर भैया, तुलसी भैया। आवा भैया। भौजी को सुबहे से जमीन पर लिटावा गवा है। हम सब जनि यही सोच के परेशान रहे कि काहे प्राण अटका है। अब तुम्हे देख सब समझ आ गया। झटपट चलल जाय। चला।"

तुलसी अपने से मात्र एक दिन छोटे राजा भैया के पीछे चल पड़े। राजापुर में हल्ला हो चुका था कि महाज्ञानी, महाकवि, भक्तशिरोमणि मानस-रचयिता बाबा तुलसीदास पधारे हैं। बड़े-बूढ़े जो तुलसी के सामने बच्चे थे, युवा जिन्होंने अपने बड़ों से तुलसी के बारे में सुना था, और बालक जो वैसे भी उत्सवप्रिय होते हैं, सब भागते हुए तुलसी के दर्शनों को आते जा रहे थे। गलियों के दोनों ओर पुरुषों और घरों की छतों पर नारियों का जमघट लगा था। बाबा के प्रत्येक कदम पर अनगिनत हाथ चरण स्पर्श करने हेतु नीचे की ओर लपकते। जो दूर थे वे हाथ जोड़ खड़े रह जाते। बाबा अपने कमण्डल वाले हाथ को ऊंचा कर आशीर्वाद देते बढ़े जा रहे थे।

घर आ गया। आँगन महिलाओं से भरा हुआ था। हाथ के संकेत से बाबा ने स्वयं के लिए मार्ग बनाया और पूरे उनहत्तर वर्ष पश्चात उस कक्ष में प्रवेश किया जहाँ बैठकर कथावाचस्पति पण्डित तुलसीदास शास्त्री कथावाचन करते थे, और यजमानों की कुंडलियां बनाते थे। नीचे गोबर से लीपी गई भूमि पर एक वृद्धा अपनी अंतिम साँसें गिन रही थी। तुलसी ने दरवाजे को हल्का सा भिड़ा दिया और वृद्धा के निकट आ बैठे। कुछ देर उसका मुख निहारने के बाद कानों के पास झुककर बोले, "रत्ना! रत्ना!"

कोई उत्तर न पाता देख तनिक मृदु स्वर में बोले, "रतन! ओ रतन!"

वृद्धा के नेत्र खुले। उन नेत्रों में क्रमशः असमंजस, पहचान, स्नेह, गौरव और प्रेम के लक्षण प्रतिबिंबित हुए। वृद्धा उठना चाहती थी पर असमर्थ थी। वृद्धा के हाथों को एक हाथ में रख तुलसी उसका माथा सहलाते हुए बोले, "सीताराम बोलो रत्ना, सीताराम।" और खुद सीताराम बोलते चले गए।

वृद्धा ने कोशिश की, कुछ प्रयासों के बाद उसके कंठ से सीताराम का उच्चारण हुआ और प्राण निकल गए।
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काशी के अस्सी घाट पर अपनी कुटिया में अपने बिछौने पर तुलसीदास तड़प रहे थे। उनका पूरा शरीर रोगग्रस्त था। पूरे शरीर में फुंसियाँ थी और उनमें मवाद भर गया था। बिछौने के चारों तरफ तुलसी के बाल सखा पण्डित गंगाराम, मित्र कवि कैलाश, मित्र राजा अहीर, जयराम साहू, स्वर्गीय टोडर के पुत्र और पौत्र, रामू और बेनीमाधव खड़े थे।

तुलसी रह-रहकर कराहते और हर कराह के साथ राम-राम का उच्चारण करते। वे हनुमान की गुहार लगाते, 'हे वज्रांगी! मुझे यह कष्ट भी कष्टकारक नहीं लगता। हर टीस पर जब हृदय से रामनाम निकले तो कैसा कष्ट? पर मुझे यह तो बताओ कि मेरे राम मुझे किस अपराध की सजा दे रहे हैं? मुझसे क्या पाप हुआ?"

भोर होने वाली थी। जंगले के बाहर उन्हें एक वानर-शिशु दिखा। वह शिशु बड़ा होता गया। इतना बड़ा हुआ कि उसका सिर बृहस्पति तारे से जा लगा। वानर बोला, "भगवान भक्त को कष्ट उसकी परीक्षा लेने के लिए देते हैं। समझ लो कि रत्नावली जैसी सती नारी को समाज के प्रवाद का भागी बने रहने देने का दंड है यह कष्ट।"

"हाँ बजरंगी! यह पाप तो हुआ मुझसे। तो क्या मेरी विनय पत्रिका ऐसी ही रह जायेगी।"

"नहीं, तुम्हारे प्रयत्न आज पूरे हुए। आओ मेरे साथ। चलो, राम-दरबार में तुम्हारा बुलावा है।"

तुलसी की आँख खुल गई। उन्होंने अपने आसपास देखा और बोले, "गंगा, कैलाश, राजा, मैं चला भैया। बुलावा आया है। बेनीमाधव! पुत्र, तुम जो मेरी जीवनी लिख रहे हो, वह शायद उसी अवस्था में न रहे। पर तुम्हारा नाम जीवित रहेगा। मेरी जीवनी लिखने वाला प्रत्येक कवि, प्रत्येक लेखक तुम्हें प्रणाम किए बिना कुछ न लिख सकेगा। रामू! तुम्हें क्या कहूँ। अपने पुत्र के बाद मैंने तुम्हें ही अपना पुत्र माना है। जो भी मेरा कुछ बच रहा है, उसे धर्मकार्य में लगाना पुत्र। सनातन को तुम जैसे युवकों की आवश्यकता है। ज्ञान और बल अर्जित करो, उसका प्रसार करो।"

कुछ रुकने के पश्चात वे पुनः बोले, "आज ही के दिन एक वर्ष पूर्व रत्नावली गई थी। मैं चलता हूँ। आज मेरी बारी है। मेरा बजरंगी आ रहा है। सीताराम।"

रामू ने कोने में रखे गोबर से झटपट भूमि को लीप दिया। सबने मिलकर बाबा को भूमि पर लिटाया। वे लगातार सीताराम का जाप कर रहे थे।

हनुमान आये और तुलसी का हाथ पकड़ राजपथ पर ले चले। राजदरबार का द्वार आ गया। हनुमान मुस्कुराते हुए बोले, यहाँ तक ले आया हूँ। अब माता सीता और भैया भरत से गुहार लगाओ। तुलसी माता सीता और भरत जी से विनती करने लगे। द्वार खुल गया। भरत जी ने तुलसी की विनयपत्रिका लक्ष्मण भैया को पकड़ा दी। भरत जी और हनुमान जी की रजामंदी देख लक्ष्मण जी श्रीराम के पास गए और प्रार्थना की, "प्रभु! इस कलियुग में आपका एक भक्त पिछले सवा सौ वर्षों से आपके दर्शन हेतु तपस्या कर रहा है। अपने भक्त को दर्शन दें प्रभु!"

प्रभु श्रीराम विनयपत्रिका ले लेते हैं। कुंहासा छट जाता है। सिंहासन पर प्रभु राम बैठे हैं। उनके वामांग में जगत्जननी माता जानकी हैं। थोड़ा पीछे अंगरक्षक की भूमिका में धनुष से सुशोभित भैया लक्ष्मण हैं। सिंहासन के पीछे चँवर डुलाते भैया भरत और शत्रुघ्न खड़े हैं।

तुलसी के मुँह से सीताराम का स्वर मंद पड़ता जा रहा था। गंगा ने उनके मुख में गंगाजल डाला। गले से घरघराहट की आवाज आई और फिर शांति हो गई। गंगा कवि कैलास से लिपट कर बोले, "मेरा रामबोला चला गया। काशी का रामबोलवा बाबा चला गया।"
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समाप्त।

3 comments:

  1. एक बार सुरु करो तो एक सांस में खत्म हो जाता है बहुत सुंदर।

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  3. Koi shabd nahi hain mere paas, kya kahoo? Bas Ramji ki krupa aap pe bani rahe itna kahoonga.

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