Sunday, 25 September 2016

एहसास



आज करीब बत्तीस साल बाद वैसा अनुभव हुआ। इतने साल पहले मैं भी तकरीबन इतनी ही उम्र का था जब मेरी पत्नी ने धीरे से मेरा हाथ पकड़ अपने उभरे हुए पेट पर रख दिया था। शायद सातवां या आठवां महीना था, पत्नी से विरक्ति सी हो रही थी, बेडौल शरीर, वाहियात चाल और अंग प्रत्यंगों पर काली भूरी रेखाएं और धब्बे। पर जब उसने अंदर से हल्की सी सरसराहट की तो ना जाने कैसा तो अहसास हुआ।
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हालाँकि मनौती मैंने लड़की की मांगी थी पर जब ये हाथ में आया तो लगा कि ये दुनियां की सबसे अनमोल नेमत है जो ऊपर वाले ने मुझे दी है। इतने नन्हें हाथ पैर, इतना कोमल, इतना मुलायम।

हाइजीन का कीड़ा है मुझे पर इस बच्चे के सामने जैसे कुछ पता ही ना चलता। परिवार के नाम पर हम पति पत्नी बस दो ही लोग थे, बहुत रोता था ये और जितना रोता उससे ज्यादा इसके कच्छे बदलने पड़ते, दिन रात सुबह शाम बस एक ही काम, ये निकालें और हम साफ करें।

जब पहली बार घुटनों पर चला और फिर जब खुद अपने पैरों पर, आहा, ऐसी खुशी का पल पहले कभी नहीं आया था जीवन में। कुछ कुछ बोलने भी लगा था और पहला शब्द इसने 'माँ' नहीं 'पा' कहा था।

ऑफिस से थक हार जब घर पहुंचो तो ये साहब हमेशा बाहर सड़क पर अपनी माँ की ऊँगली पकड़े मेरा इंतिजार करते हुए दिखते, और फिर जब तक इन्हें गाड़ी पर बिठा दो तीन चक्कर ना लगवा दो, घर जाने की आज्ञा नहीं मिलती।

स्कूल में सबसे अच्छे विद्यार्थियों में गिने जाते, इनकी माँ जो इनपर खूब मेहनत करती। आठवीं तक तो वे इनकी मदद करती रही फिर नवीं से मेरे हवाले हो गए। इनको पढ़ाने के लिए ऑफिस में दिन भर खुद पढ़ा करता और फिर शाम को इन्हें पढ़ाता।

शायद परवरिश में कोई कमी रह गई जो बुरी संगत में पड़ गए, गुटका और सिगरेट, ना जाने कैसा साहित्य। उसे दो तीन थप्पड़ मारने के बाद खुद कितना मानसिक आघात पहुंचता था, कैसे बताऊँ।

यहां वहां कई जगह पढ़ता कि एक उम्र के बाद पिता को पुत्र का मित्र बन जाना चाहिए। कई बार कोशिश की, पर जब भी ये सामने आता तो अंदर का पिता इस मित्रता को कुचल डालता, कैसे कोई पिता दोस्त बन सकता है। धीरे धीरे ना जाने कैसे एक गैप सा आता जा रहा था हम दोनों के बीच, कितनी कोशिश करता था इसे कैसे भी तो भर दूं पर होता ही नहीं था। बचपन में बोलना शुरू करता तो चुप ही नहीं होता था, पा ये क्या, पा ये क्यों, पा ये कैसे, और अब कुछ बोलता ही नहीं । मैं ही कुछ बोल दूं, कुछ पूछ दूं तो बस हां हूं ठीक है।

जीवन भर की कमाई इनकी पढ़ाई में होम कर दी, अच्छे से अच्छे कॉलेज में दाखिला करवाया, कॉलेज से निकलते ही अच्छी सी नौकरी मिल गई इन्हें। शायद नौकरी का ही इंतिजार कर रहे थे बरखुर्दार, देश के दूसरे कोने में पोस्टिंग ली और भूल गए कि कोई बाप भी है इनका। हद्द तो तब जब एक दिन फोन से बताया कि शादी कर ली किसी तमिल लड़की से। अगर मुझसे पूछा होता तो यकीनन मना ही करता पर ये तसल्ली तो रहती कि पूछा तो, और क्या पता मान ही जाता जिद्द करता तो।

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आज फोन किया और बताया कि पा, मैं पा बनने वाला हूं और आप दादा, लात मारी इसने आज, और हां, मुझे कुछ नहीं पता हां, इसकी परवरिश आप ही करोगे बस बता दे रहा हूं, कल की टिकट भेज रहा हूं.....

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अजीत
25 सितंबर 16

Tuesday, 13 September 2016

धार्मिकता


किसी प्रगतिशील मुल्क के किसी प्रगतिशील शहर की किसी बहुमंजिला इमारत में सरकारी बाबू श्री नरेंद्र जी रहते हैं। श्वेत सम्प्रदाय के थे, ये उस मुल्क में अल्पसंख्यक समुदाय है पर चूँकि बहुसंख्यक समुदाय से ही निकला है तो बहुसंख्यक इसे अपना ही हिस्सा मानते हैं। उस मुल्क में पंथनिरपेक्षता का जोर है, पड़ोसी ड्रैगन की तरह धर्म पर कोई रोक टोक नहीं तो पूरे मुल्क के साथ साथ ये भी बड़े वाले धार्मिक। इनके यहां बीस के ऊपर पैगम्बर हुए, सारे राजा राजकुमार थे फिर साधू हो गए थे। अंतिम वाले तो इतने बड़े तपस्वी कि तपस्या में ही कपड़े लत्ते गल गये। अहिंसा पर बड़ा जोर है इनके यहां। जमीन के नीचे उगी सब्जी तक नहीं खाते, और तो और अपने यहां पेस्ट कंट्रोल तक नहीं होने देते। वैसे भले आदमी हैं, धार्मिक आदमी भला ही होता है।

बाकी बिल्डिंग और आस पास के मोहल्ले में भगवा सम्प्रदाय के लोग रहते हैं। ये वो सम्प्रदाय है जो आजकल असहिष्णु सा हो गया है, लोग तो यही बोलते हैं टीवी पर। पचास तरह के देवता और 100 तरह की रवायतें। गाय बैल सूवर पीपल बरगद, मतलब लगभग हर चीज की पूजा करते हैं। इन लोगों के यहां पैगम्बर तो ना जाने कितने आये, खुद ऊपर वाला भी कई बार आया। इज्जत तो इतनी देते हैं अपनी मान्यताओं को कि घर की छत पर पीपल उग जाए तो खुद नहीं उखाड़ते, दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को बुलाते हैं। धार्मिक लोग हैं, धार्मिक लोग भले ही होते हैं।

थोड़ी ही दूर पर हरे सम्प्रदाय के आठ दस घर भी हैं। ये सम्प्रदाय सुना कि बाहर से उस मुल्क में आया था। बड़ा शांतिप्रिय समुदाय है। धार्मिक तो इतना कि दिन में कई-कई बार चिल्ला-चिल्ला के पूरे शहर को अपने पूजा पाठ का टाइम बताता है। इनके यहाँ भी कई देवदूत आये गये, कितनी बार आते जाते तो अंतिम वाले ने ऊपर वाले से अंतिम तौर पर उसकी सारी हिदायतें मांग कर नोट कर ली। अब यही किताब इनके लिए जो है सो है। धार्मिक हैं तो बिलाशक भले भी होते हैं।

हुआ कुछ यूं कि किसी दूर देश में, कई शतक पहले 'हरों' ने 'भगवों' की इबादतगाह उजाड़ अपना पूजास्थल बना लिया था, इतने साल सहने के बाद 'भगवों' का खून खौला और उन्होंने अपनी इबादतगाह पर क्लेम कर लिया, मतलब तोड़ ताड़ दिया। तो 'हरों' का खून भी कौन सा हरा था, इन्होंने जगह जगह 'भगवों' के इबादतगाहों की मूर्तियों को तोड़ना चालू किया। इस खून की खौला खौली में बहुत खून बहा। ये बिमारी उस प्रगतिशील मुल्क तक भी पहुंची। अब पता नहीं यहाँ के 'हरों' ने पहले बुत तोड़े या 'भगवों' ने रंग फेंका, जो भी हुआ यहां भी कांड शुरू हो गए।

शहर में कर्फ्यू लगा था, रह रह कर शोर और चीख पुकार की आवाजें सुनाई देना जैसे आम बात हो गई। नरेंद्र बाबू ना तीन में ना तेरह में, चुपचाप अपने घर में बैठे चाय पी रहे थे कि किसी ने दरवाजा भड़भड़ाया, इनकी सिट्टी पिट्टी गुम। शोर की आवाजें पास आ रही थी और इधर दरवाजे के बाहर से दयनीय भीख सी मांगती पुकार, भाई बचा लो, दरवाजा खोल दो, अंदर आने दो, मैं और मेरा छोटा बच्चा, ऊपर वाले के लिए हमें बचा लो। ऊपर वाले के नाम पर, ऊपर वाले को याद कर बाबू साहब ने जैसे तैसे उन दोनों को अंदर ले तो लिया, पर फिर उन्हें याद सा आया कि अरे ये तो 'हरे' वाले हैं। कितना नापसंद करते हैं ये इन्हें। बड़ी कशमकश, क्या करें, बीवी से भी सलाह ली। फिर उन्हें 'भगवों' का पीपल वाला तरीका याद आ गया।
धार्मिक जो थे....


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अजीत
13 सितम्बर 16

Sunday, 11 September 2016

बुद्धिजीविता


जिस तरह आवश्यकता आविष्कार की जननी है वैसे ही अपने लिए अतिआवश्यकता ही कुछ सीखने की मजबूरी। कुछ मामलों में सम्पन्न थे हम, जैसे की दोपहिया। बचपन से ही देखते आये थे पर कभी सीखने का मन नहीं हुआ, वो तो कहो की एग्जाम सेंटर काफी दूर पड़ा तो सिर्फ एग्जाम देने के लिए लगे हाथ बाइक चलाना भी आ ही गया। ऐसे ही पड़ी रहती थी घर में रिटायर्ड बुजुर्गों की तरह, पिताजी पहाड़ पर थे और बड़े भाई की अपनी बाइक, तो अलिखित समझौते की तरह ये तिरासी मॉडल सीडी 100 हमारी सम्पत्ति मान ली गई। पिता कठोर अनुशासन प्रिय थे पर रूपये पैसे दे देते थे, भाई लिबरल थे पर पैसे नहीं देते थे, दोनों का ही उद्देश्य बच्चे को बुराई की तरफ जाने से रोकना ही था पर 'जाको बिगड़ना ही होय, का करी सके कोय'। इस समय हम भाई की छत्रछाया में थे, बाइक तो मिल गई पर चले कैसे, इस मामले में हमारे मित्रगण काम आये। खुद के आने जाने या गर्लफ़्रेंड को घुमाने के लिए बाइक मांगते तो भलमनसाहत से या शायद शुद्ध व्यापारिक रीत से 20 रूपये का तेल डलवा देते। उस समय WTC वाला काण्ड हुआ था फिर भी तेल 25-30 के रेंज में था, अपना काम चल जाता।

सर्वीसिंग जैसी चीज भी होती है पता नहीं था, घिसे जा रहे थे कि एक दिन बड़े भाई ने कान पकड़ 500 रूपये थमाये और बोले, घोड़े हो गए हो तो का हमसे भी बड़े हो गए, मांगने में शर्म आती है, गाभिन भैस की तरह चिचिया रही है गाड़ी और तुम इसे ठेले जा रहे हो।

बनारस में दो ही जगह है जो थोड़ी ठीकठाक है, जहां ठेठ बनारसी अपनी टुच्चई नहीं दिखा पाता, फलस्वरूप ये दो जगह बनिस्पत थोड़े साफ़ हैं, एक बीएचयू दूसरा कैंटोमेंट एरिया। इसी एरिया में बड़े बड़े होटल हैं, बनारस की शान ताजगंगे के सामने, मखमल के कपड़े में पैबंद की तरह, बाइक मिस्त्री की दुकान वर्तमान थी। एक नंबर का मिस्त्री और दो कौड़ी का आदमी। सुबह 8 बजे गाड़ी दो तो 12 बजे का टाइम देता और सच में 3 बजे तक ही दे पाता। ये सारा हिसाब लगा हम 4 बजे इसकी दुकान पहुँचे, हमारी प्रियतमा बाइक 36 टुकड़ो में बिखरी पड़ी थी, आंतरिक हिस्से तेल ग्रीस में लटपटाये बिखरे पड़े थे और मिस्त्री साब रंगीन दांत लिए हमारे सामने बिखर गए, हमें सांत्वना सी देते बोले, बाबूसाब बस 10 मिनट, होई गयल बस।

एक कुर्सी रख दी गई हमारे लिए सड़क से लगी हुई, आधी डब्बी सिगरेट बमय माचिस पेश कर दी गई। हम भी इतनी आवभगत देख, अनुप्रास के तहत, भले आदमियों की तरह भोलेनाथ के भगत बन मुँह से भकाभक धुँआ भकोसने उगलने लगे। सड़क पार थोड़ी दूर स्थित टी हॉउस से, जिसकी इमारत चार पहियों पर चलने वाले ठेले पर बनी थीे, छोटू को आवाज लगा चाय मंगवा ली। किसी भी ट्रक या कार के गुजरने पर होने वाली दहशत के अलावा राजाओं वाली फीलिंग थी ये। सामने के नजारे भी मनभावन थे, हर पांच मिनट बाद गोरे काले विदेशी दिख जाते, ये वो विदेशी थे जो केवल पर्यटन के लिए आते थे, उन गंगा किनारे वाले विदेशियों से रंग वर्ण छोड़ बिलकुल अलग। वो तो हम बनारसियों से बड़े बनारसी लगते हैं अब।

माबदौलत अपनी रियासत की रियाया को साथ में इन विदेशियों की ओर गर्व से देख रहे थे कि ना जाने कहां से एक 10-11 साल का बालक सामने खड़ा हो गया हाथ फैलाये। आम लड़कों जैसा ही लड़का था, बस अपनी दिगम्बरता छुपाने के लिए एक कच्छा टाइप कुछ पहने था। आँख से अनवरत बहते आंसू जो आँखों की गंगोत्री से बहते बहते गालों से होते हुए गले को पार कर, मैदानी क्षेत्रों से गुजरते हुए कच्छे की खाड़ी में लुप्त हो रहे थे। वैसे बालक इतना सुदर्शन था कि रामानंद सागर का बाल बलराम या बी. आर. चोपड़ा का बालक भीम बन सकता था। आँखे बिलकुल बैल जैसी बड़ी बड़ी। बैल हमारे सांस्कृतिक पशु गाय जिसे हम श्रद्धावश माँ कहते है का पुत्र होता है और कुछ सालों पहले तक शहरों में कम और गाँवों में बहुतायत में पाया जाता था पर अब इसका उल्टा है, प्रकृति के अपने नियमों से जैसे हिरण शेरों के बावजूद जंगल में बचे हुए हैं, बैल भी कसाइयों और ट्रकों से बचकर बहुतायत में सड़कों पर स्वच्छंद घूमते और सफाई अभियान में अपना अमूल्य योगदान देते दिख जाते हैं।
अमूमन भिखारियों को देख दिल नहीं पसीजता, पर पता नहीं क्या था इस बच्चे में, इसे देख खुद भिखारी होने की अनुभूति हुई। इस और इस जैसे बच्चों को भीख मांगने पर क्यों मजबूर होना पड़ता है, क्या एक संप्रभु राष्ट्र की नाकामयाबी नहीं ये। बरसों से सुनते आ रहे साम्यवाद और राज करते आ रहे समाजवाद का मजाक सा उड़ाता ये बालक हाथ फैलाये एक रुपया नहीं, जवाब मांग रहा था। राष्ट्रवाद की परिभाषा के अंतर्गत क्या ये लज्जा का विषय नहीं कि भाषणों में जिन बच्चों से उम्मीद की जाती है कि वे आगे चलकर गांधी पटेल अम्बेडकर कलाम रमन बनेंगे वे आज भीख मांग रहे हैं।

इतना कुछ सोचकर लगा कि हल्का हो गया हूं, बुद्धिजीवी यही तो करते हैं ना, पर वो बालक तो अब भी खड़ा था, क्या देता, जेब में सिर्फ पांच सौ थे जो मिस्त्री को देने थे, फुटकर था नहीं, झिड़क दिया उसे। वो भी ढींठ, जाए ही ना, मांगता रहा और मुझे शर्मशार करता रहा। कभी तो उम्मीद टूटनी थी उसकी, आखिरकार कोई और आसामी दिखा तो उधर लपक लिया।

अगले 60-70 मिनट में मुझे वो कई बार दिखा, मेरी तरफ देख मुझे अनदेखा कर किसी और के आगे हाथ फैलाता, जब जब मेरी तरफ आशा से देखता, मैं और संकुचित हो जाता। उसके बहते आंसू मुझे परेशान कर रहे थे। कई बार तो मन आया कि फुटकर करा उसे बुला कर कुछ दे दूँ, पर फिर ना जाने क्या सोच ऐसा किया नहीं। शायद उसे देने वालों की कमी नहीं थी। सामने विदेशियों से भी कुछ ले ही ले रहा था।

आखिरकार मेरी प्रियतमा बाइक तैयार हो गई, पैसे वैसे दे किक मारते समय आज का सबसे बड़ा अजूबा देखा। सामने खोखे पर वही लड़का 7 रूपये वाली सिगरेट पी रहा था (मेरी वाली उस समय ढाई की आती थी), उसने मेरी तरफ देखते हुए धुँआ छोड़ना शुरू किया, लगा कि अनंत काल तक छोड़ता ही रहेगा, कुटिल मुस्कान से मुझे नवाजने के बाद, ठाठ से टैम्पो रुकवाया, हाथ में थामी हुई रेजगारी से भरी पारदर्शी थैली अंदर सीट पर फेंकी, टैम्पो के आगे बढ़ने से तुरंत पहले आधा बाहर लटक कर मुझे बनारस की प्रसिद्ध 'ब' शब्द 'भ' शब्द, जिनके बाद 'के' लगाते हैं और साथ ही भारत भर में प्रसिद्ध 'च' शब्द बोलता, ये जा वो जा।


भरे बाजार वो नंगा, मुझे नंगा कर गया।
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अजीत
11 सितंबर 16