Wednesday, 18 April 2018

जय कथा-1


जय कथा-1 (पूर्व गाथा)
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माता पृथ्वी अत्यंत कष्ट में थी। उनके संसार में उपद्रवी अधर्मियों की जैसे बाढ़ आ गई थी। कुछ ही धर्मनिष्ठ प्राणी शेष बचे थे, जो दिनोंदिन कम होते जा रहे थे। व्याकुल पृथ्वी अपनी संततियों को यूं नष्ट होते नहीं देख सकती थी। वो प्रार्थना लेकर जगतपिता ब्रह्मा के पास गई और निवेदन किया, "हे परमपिता! आपकी बनाई सृष्टि में मैं एक बहुत छोटी सी इकाई हूँ। परन्तु आपने मुझे अनगिनत जीवों की माता बनाया है। मेरे पुत्रों में से सर्वाधिक बुद्धिमान, मनुष्य आज अपने कर्मों से अपनी स्वयं की जाति एवं मेरे अन्य पुत्रों यथा चौपायों, जलचरों और वनस्पतियों का शत्रु बना बैठा है। वह स्वार्थ में इतना अंधा हो चुका है कि अपने ही घर को तहस-नहस करने में लगा हुआ है। मेरे पुत्रों की रक्षा कीजिये देव, अपनी पुत्री की रक्षा कीजिये परमपिता।"

पृथ्वी की ऐसी बातें सुन ब्रह्मा बोले, "प्रत्येक चर-अचर, सजीव-निर्जीव, काल और युग का एक निश्चित समय होता है पुत्री। तुम्हारी इन पीड़ाओं को समाप्त करने का समय निकट है। धर्मात्माओं को एक तरफ इकठ्ठा करने के लिए स्वयं नारायण पृथ्वी पर अवतरित होंगे। उनका साथ देने के लिए अन्य अनेक देवी और देवता विभिन्न अवतार लेंगे। विपक्ष को भी एक तरफ इक्कठा करने के लिए अनेक दानव मनुष्य योनि में जन्म लेंगे।

विप्रचित्ति जरासंध और हिरण्यकशिपु शिशुपाल बनेगा। संह्लाद शल्य, कालनेमि कंस और महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से अश्वथामा जन्म लेगा। हंस नामक गन्धर्व धृतराष्ट्र और साक्षात धर्म विदुर बनेंगे। कलियुग से दुर्योधन और पुलस्त्य वंशी राक्षसों से उसके 100 भाई जन्म लेंगे। धर्म, वायु, इंद्र और अश्वनी कुमारों से युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और नकुल, सहदेव का जन्म होगा। चंद्रमा का पुत्र वर्चा अभिमन्यु बनेगा।

जाओ पुत्री, प्रसन्न रहो। संसार को चलाने का भार भगवान विष्णु पर है। वे शेषनाग के साथ उचित समय पर अवतरित होंगे और तुम्हें निर्भय करेंगे।"
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शिवलोक में द्यो नामक वसु के नेतृत्व में आठ वसु श्रीगंगा की प्रतीक्षा कर रहे थे। माता गंगा के आने पर उन्होंने चरण स्पर्श कर अपनी व्यथा सुनाई। उन्होंने कहा, "माता हम वशिष्ठ ऋषि द्वारा श्रापित आपकी शरण में आये हैं। हमारा उद्धार करें माता।"

श्री गंगा बोली, "ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ ने तुम्हें श्राप दिया है! परंतु क्यों?"

"माता, हम आठों वसु अपनी पत्नियों के साथ विहार करने पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे थे। मार्ग में शांत और मनभावन स्थल देख रुक गए। वह ऋषि वशिष्ठ का आश्रम था माता। ऋषि अनुपस्थित थे, परन्तु वहाँ माता कामधेनु के गर्भ से उत्पन्न सर्वश्रेष्ठ गौ नन्दिनी थी। मेरी एक पत्नी ने उन्हें हर लेने का आग्रह किया। पत्नी प्रेम में मैंने यह कुकर्म किया और मेरे इन सात मित्रों ने मेरा साथ दिया।

आश्रम लौटने पर जब ऋषि ने अपनी प्यारी गाय को अनुपस्थित पाया और यह जाना कि उनको हरने वाले हम लोग हैं तो हमें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दिया। गौ लौटाने और क्षमा मांगने पर उन्होंने कहा 'दिया हुआ वचन वापस नहीं ले सकता परन्तु इतना अवश्य हो सकता है कि तुम्हारे अलावा बाकी सात वसु मात्र एक वर्ष के लिए ही मनुष्य योनि भोगेंगे। तुम्हारा अपराध बड़ा है इसलिए तुम्हें वर्षों तक मनुष्य बने रहना होगा। अपने इन सम्बन्धियों के बल पर तुमने मेरे अधिकार के हनन का प्रयास किया, इसलिए तुम्हें सत्ता के शीर्ष पर होने के बाद भी कभी कोई अधिकार प्राप्त नहीं होगा, तुम्हें अपने प्रिय सम्बन्धियों का कभी साथ नहीं मिलेगा। तुमने स्त्री और उसकी वासना के वश में आकर अपहरण का प्रयास किया, तो जाओ तुम नारी अपहरण के दोषी बनोगे पर तुम्हें कभी भी स्त्री सुख नहीं मिलेगा। तुमने अपनी मनमानी की है तो जाओ, मृत्युलोक में कभी भी कोई भी बात तुम्हारे मन की नहीं होगी।'

हे माता! हमें ज्ञात हुआ है कि इक्ष्वाकुवंश के स्वर्गवासी राजा महाभिष के पुनर्जन्म पर आप उनकी पत्नी बनने के लिए मानव अवतार लेने वाली हैं। आप पापनाशिनी हैं, हमारे पापों का नाश कीजिये माता। अन्यथा अन्य कौन सी साधारण मानवी स्त्री अपने सात-सात बच्चों को जन्मते ही मुक्त कर सकेगी।"

"यदि विधाता यही चाहते हैं तो ऐसा ही हो पुत्रो। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।"
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मांडव ऋषि हठ योग तपस्या में लीन थे। उन्होंने मौन व्रत लिया था। वन में बनी अपनी कुटिया के द्वार पर तपस्या में लीन थे कि कुछ चोर राजकीय सैनिकों से बचते हुए उनके आश्रम से होकर गुजरे। सैनिक नजदीक आ गए थे इसलिए उन्होंने चोरी का सारा सामान आश्रम में ही कहीं छुपा दिया और भाग गए। जब सैनिक आश्रम पहुँचे तो उन्होंने तपस्यारत ऋषि से चोरों की दिशा जानने हेतु प्रश्न किया। मौन व्रत धारी ऋषि चुप रहे। सैनिकों को शंका हुई तो उन्होंने आश्रम की तलाशी ली। उन्हें छुपाया हुआ धन मिल गया तो उन्होंने ऋषि को भी चोर और पाखण्डी समझ कैद कर लिया। कुछ समय पश्चात सभी चोर भी पकड़ में आ गए। सैनिकों ने सभी को न्याय हेतु राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने उन सभी को शूली पर चढ़ाने का दण्ड दे दिया।

शूली पर चढ़ाने से अन्य सभी की तत्काल मृत्यु हो गई परन्तु योगाचार्य ऋषि मांडव शूली पर अविचलित बैठे रहे। कई दिनों पश्चात राजा को यह जानकर कि ये तो कोई महान ऋषि हैं, अपनी भूल का ज्ञान हुआ और उन्होंने ऋषि को शूली से नीचे उतार कर अपने अन्याय के लिए दण्ड की मांग की। ऋषि ने उन्हें सद्बुद्धि और न्यायबुद्धि पाने की कामना की और कहा कि परम न्यायकर्ता तो धर्मराज हैं, वही तुम्हारे लिए दण्ड बताएंगे और मुझे मिले दण्ड का कारण भी उन्हें बताना होगा।

अपनी मृत्यु पश्चात धर्मराज के समक्ष उन्होंने प्रश्न किया, "हे धर्मराज! मैंने कभी भी किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाया। अपने ज्ञान से मनुष्यों को लाभान्वित किया, अपनी शरण में आये प्रत्येक प्राणी की रक्षा की। कभी असत्य नहीं बोला, कभी अन्न अथवा धन का परिग्रह नहीं किया। अपने सभी वरिष्ठों का समुचित आदर किया और सभी कनिष्ठों से स्नेह रखा। मेरे हृदय से कभी दया, ममता का लोप नहीं हुआ, और न कभी अहंकार एवं ईर्ष्या का जन्म ही हुआ। मुझे बताइये धर्मराज कि मुझे अपने किस अपराध की सजा मिली जो मुझे शूली पर चढ़ाया गया?"

धर्मराज बोले, "हे ब्राह्मण! आपने सात वर्ष की अवस्था में खेल-खेल में ही घास काटने वाले औजार से अपने पिता के आश्रम में रहने वाले एक श्वान की पूँछ काट दी थी। यह उसी कर्म का फल था। जिस प्रकार छोटे से छोटे पुण्य के लिए महान सद्फल प्राप्त होता है, उसी प्रकार छोटे से छोटे पाप के लिए बड़े दण्ड का प्रावधान होता है। यही उचित है, यही न्याय है।"

धर्म के यह विचार सुन मांडव ऋषि क्रोधित हो उठे और बोले, "हे सर्वोच्च न्यायाधीश! क्या आपका न्याय वेदों से भी परे है? क्या वेद नहीं कहते कि बारह वर्ष तक की अवस्था के बालकों को पुण्य और पाप का भान नहीं होता? क्या सर्वोच्च पद पाकर आप अपनी स्वेच्छा से अपना विधान बनाएंगे? न्याय करने वाले न्यायाधीश! आप अपनी सत्ता के नशे में चूर हैं और अपने गलत आचरण को न्याय कह रहे हैं? सर्वोच्च पद पाकर ही आप ऐसा कर सके तो जाइये, मैं मांडव आपको मनुष्य योनि में सेवक वर्ग में जन्म लेने का श्राप देता हूँ। सत्ताधारियों के लिए सेवा से बड़ा शिक्षक कोई नहीं हो सकता। आप मछुवारी कन्या के गर्भ से उत्पन्न महान ऋषि कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा एक दासी के गर्भ से जन्म लेंगे। संसार आपको विदुर के नाम से जानेगा।"
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अजीत
19 अप्रैल 18

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