जय कथा-2
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वृद्ध अमात्य ने युवराज के कार्यालय में प्रवेश किया और समुचित अभिवादन पश्चात बोले, "आपने मुझे याद किया युवराज।"
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वृद्ध अमात्य ने युवराज के कार्यालय में प्रवेश किया और समुचित अभिवादन पश्चात बोले, "आपने मुझे याद किया युवराज।"
युवराज देवव्रत ने अमात्य को अपने निकट बिठाया और कहा, "हाँ मन्त्रिवर, मुझे आपसे अतिआवश्यक परन्तु गुप्त विषय पर वार्ता करनी है।"
"वह तो मैं समझ ही गया था युवराज। अन्यथा आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि आपने मुझे अपने कार्यालय में बुलाया हो। सदैव आप ही मेरे पास आते रहे हैं। पदानुक्रम में आप मुझसे ऊपर हैं और अवश्य ही आप युवराज के अधिकार से मुझसे कुछ पूछना चाहते हैं।"
"आप अत्यंत बुद्धिमान हैं आर्य। आप मेरे पिता महाराज शांतनु के बालसखा रहे हैं। मैंने नगरजनों और सेनापतियों से आप लोगों द्वारा किये गए अभियानों के बारे में सुना है। मेरा अनुमान है कि मेरे पिता की कोई भी गुप्त बात कम से कम आपके समक्ष गुप्त नहीं होगी। क्या मेरा अनुमान सत्य है आर्य?"
"बिना बात जाने मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ युवराज! आप स्पष्टता से कुछ कहिये तो सही।"
"मन्त्रिवर! मैं अपने प्रश्नों का सही-सही उत्तर चाहता हूं। और चाहता हूं कि इसे मेरे पिता से गुप्त ही रखा जाय। इसे गंगापुत्र देवव्रत का निवेदन समझिये या शांतनुपुत्र युवराज का आदेश।"
अमात्य को चुप देखकर और इस चुप्पी को उनकी हामी समझ कर युवराज पुनः बोले, "मेरी धृष्टता को क्षमा कीजियेगा। परन्तु मुझे सत्य ही जानना है कि पिछले कई महीनों से पिताश्री इतने उदास से क्यों हैं? उन्हें कौन सी चिंता खाये जा रही है? छत्तीस वर्ष की अवस्था तक पिता से अलग रहे इस पुत्र से अपने पिता की उदासी नहीं देखी जाती। यदि आप कुछ जानते हैं तो मुझे बताइये। मुझे बताइये कि मैं ऐसा क्या करूँ कि मेरे पिता पुनः प्रसन्न हो सकें।"
"युवराज! क्या आपने महाराज से कुछ नहीं पूछा।"
"मैं महाराज के पास गया था। उन्होंने बताया कि वे मुझे लेकर चिंतित हैं। उनका कहना था कि मैं उनका एकमात्र पुत्र हूँ जो निरंतर राजनीति और युद्धों में लगा रहता है। लोग निरंतर मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। उनके अनुसार उनकी चिंता है कि यदि मुझे कुछ हो गया तो कुरु वंश का क्या होगा।"
"तो आपको उनकी किसी बात से संदेह है युवराज?"
"संदेह नहीं पर कुछ तो गलत है। मैं एकमात्र पुत्र हूँ पर यदि इसे मेरा अभिमान न समझा जाये तो बता दूँ कि स्वयं महादेव के अतिरिक्त युद्ध में मुझे कोई परास्त नहीं कर सकता। मेरे शरीर को रोग नहीं लग सकता। मेरी मृत्यु इतनी भी सरल नहीं। और यदि होती भी है तो काका देवापि भले ही सन्यासी हों, चाचा बाह्लीक और उनका वंश तो है ही, वे भी कुरु हैं, भरतवंशी है। जहाँ तक मेरे पिता के वंश की बात है, वे मुझे विवाह करने का स्पष्ट आदेश भी दे सकते थे। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया।"
"युवराज! पिता और पुत्र के बीच में चाहे कितना भी मधुर सम्बन्ध क्यों न हों, कुछ बातों में हिचक हो ही जाती है। यद्यपि यह बात गुप्त ही रहनी चाहिए थी, परन्तु मैं समझता हूं कि आपको यह ज्ञात होना चाहिए। कुछ महीनों पूर्व आपके पिताजी भ्रमण पर निकले थे और यमुना के किनारे बसी एक मछुआरों की बस्ती की एक कन्या को देख आसक्त हो गए।"
"तो समस्या क्या थी मन्त्रिवर। वे उस स्त्री से विवाह कर सकते थे। क्या उस स्त्री ने उन्हें अस्वीकार कर दिया?"
"नहीं युवराज। उस कन्या ने नहीं, अपितु महाराज ने ही अस्वीकार कर दिया। महाराज ने उस कन्या के पिता, मछुआरों के सरदार से कन्या का हाथ मांगा। सरदार सहर्ष तैयार था परन्तु उसने एक शर्त रखी जिसे महाराज पूर्ण नहीं कर सकते थे।"
"आश्चर्य! महाराज प्रतीप के यशस्वी पुत्र, भरतवंशी हस्तिनापुर नरेश सम्राट शांतनु के लिए कुछ ऐसा भी है जो असम्भव है? ऐसी कौन सी शर्त थी जो पिताजी पूरी नहीं कर सके?"
"उस मछुआरे ने यह शर्त रखी कि उस कन्या से उत्पन्न पुत्र ही हस्तिनापुर का युवराज और समय आने पर सम्राट बने। अब महाराज अपने सुख के लिए आपको आपके अधिकारों से वंचित तो नहीं कर सकते थे न। "
कुछ देर विचार करने के पश्चात युवराज बोले, "मन्त्रिवर! मैं सदैव ही सोचता रहा हूँ कि मैं इस राजनीति के लिए नहीं बना। तुलना करूँ तो जब मैं अपने गुरुओं वशिष्ठ, बृहस्पति, शुक्र और परशुराम के विभिन्न गुरुकुलों में था, अधिक प्रसन्न और शांत था। देवयोग से मुझे इस राजनीति से छुटकारा मिल रहा है। मुझे इसे गंवाना नहीं चाहिए। आप राजसभा के मुख्य मंत्रियों, सेना के प्रमुख सेनापतियों, नगर के श्रेष्ठ व्यापारियों और सेवक दलों के मुखियाओं को बुलाइए। हम सब अभी इसी क्षण कुरुकुल की महारानी और होने वाले सम्राट की माता को सादर लिवाने ले चलेंगे। वर्तमान युवराज होने के नाते मेरे पास कुछ अधिकार हैं जिन्हें मैं आज अंतिम बार उपयोग करना चाहता हूँ। जैसे भी हो, आज ही होने वाली महारानी इस राजमहल में होंगी। भले ही अंतिम उपाय के तौर पर मुझे बलप्रयोग ही क्यों न करना पड़े।"
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दासराज और उनके साथियों ने इतने बड़े राजसी समूह को अपनी बस्ती के निकट आते देखा तो वे किसी अनहोनी के विचार से सशंकित हो उठे। थोड़ी देर पश्चात जब उन्होंने आती हुई भीड़ को मांगलिक वस्त्रों में देखा तो उनका भय जाता रहा। चारणों से युवराज देवव्रत का परिचय दिया, जिसे सुन कर दासराज और बस्ती के प्रमुख सदस्यों ने उनका सत्कार करते हुए उन्हें बैठाया। औपचारिकताओं को निभा लेने के पश्चात दासराज ने हाथ जोड़कर युवराज के आने का प्रयोजन जानना चाहा। युवराज ने प्रतिउत्तर में कहा, "दासराज! आप निश्चित ही जानते हैं कि हम सब यहाँ क्यों आये हैं। श्रीमान! क्या आप हस्तिनापुर नरेश को अपना जामाता बनने योग्य नहीं समझते। इस विश्व में उनसे अधिक सामर्थ्यवान कोई अन्य नहीं। फिर किस कारण आपने उन्हें अपनी कन्या का दान नहीं किया? क्या आपकी दृष्टि में कोई और सुयोग्य वर है?"
दासराज हाथ जोड़कर बोले, "नहीं, नहीं युवराज। ऐसा कौन सा पिता होगा जो यशस्वी कुरुकुल का सम्बन्धी नहीं होना चाहेगा। मैं अपनी पुत्री के लिए महाराज शांतनु से श्रेष्ठ वर कहाँ प्राप्त कर सकता हूँ! श्रेष्ठतम की इच्छा से ही मैंने कई वीरों, राजाओं और यहाँ तक कि असित मुनि को भी सूखा उत्तर दे दिया था। युवराज! मेरी पुत्री की कुंडली कहती है कि उसके पुत्रों का शत्रु बहुत बलवान होगा। यदि आप किसी के शत्रु हो जाये तो वह चाहे देवता हो या असुर, जीवित नहीं रह सकता। मुझे क्षमा करें, मैंने बस यही सोचकर राजा शांतनु को मना कर दिया था कि यदि भविष्य में कभी आप मेरे दौहित्रों के शत्रु बन गए तो मेरी पुत्री का क्या होगा?"
"यह कैसे बात है दासराज? मैं अपने ही भाइयों का शत्रु क्यों बनूंगा। ऐसा कदापि नहीं होगा।"
"मैं छोटे से समूह का मुखिया हूँ युवराज। और इस समूह की सत्ता के लिए भी रोज ही कुटिल राजनीति देखता और भुगतता रहता हूँ। मुझे समझ नहीं आता कि यह कैसे सम्भव है, जब सत्ता में आपके प्रतिद्वंद्वी पैदा हो जाएंगे तो क्या राजनीति नहीं होगी।"
"सत्ता! प्रतिद्वंद्विता! अपने ही भाइयों से! आप कदाचित कुरुकुल का इतिहास नहीं जानते दासराज। मेरे पिता के बड़े भाई श्री देवापि ने स्वेच्छा से सत्ता छोड़ दी थी और छोटे भाई महावीर बाह्लीक ने कभी भी सत्ता का लोभ नहीं किया। आप क्या चाहते हैं, स्पष्ट कहें।"
"मैं अपनी पुत्री और उसकी संततियों की सुरक्षा और अक्षुण्य सम्मान चाहता हूँ। राजपरिवार में मछुआरे की पुत्री का ताना और उसके बच्चों के लिए व्यंगबाण नहीं चाहता। मुझे इसका मात्र एक ही उपाय दिखता है कि मेरी पुत्री महारानी हो, उसका ज्येष्ठ पुत्र युवराज हो। समय आने पर मेरी पुत्री राजमाता कहलाये और उसका पुत्र सम्राट।"
देवव्रत ने हँसते हुए कहा, "यह मेरे समक्ष नितांत ही गौण बात थी श्रीमान। आपको पहली ही बार में यह सब कह देना चाहिए था। मैं इन सभी मंत्रियों, सेनापतियों, नगर के व्यापारियों और प्रमुखों के सम्मुख आपको वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री ही महारानी एवं राजमाता होंगी, मेरा छोटा भाई ही युवराज और फिर महाराज होगा।"
दासराज अब भी सशंकित लग रहे थे। कुछ सोचकर बोले, "आप धन्य हैं युवराज। इस प्रकार क्षण भर में ही अपना अधिकार आपके अतिरिक्त और कौन छोड़ सकता है? कदाचित कोई नहीं। कोई नहीं में आपकी सन्ततियाँ भी हो सकती हैं। है न?"
"नहीं दासराज! मेरे पुत्र मेरे वचन से बंधे होंगे। मुझे नहीं लगता कि कभी भी ऐसा कुछ होगा।"
"युवराज, आपकी ही वाणी सत्य हो। परन्तु आपको अपनी संततियों की ओर से ऐसा वचन देने का अधिकार नहीं। किसी भी पिता को अपने पुत्र की तरफ से वचन देने का अधिकार नहीं होता। यदि होता तो स्वयं महाराज शांतनु ने आपकी तरफ से वचन दे दिया होता। आपको यहाँ आने की आवश्यकता नहीं होती।"
देवव्रत कुछ क्षणों तक दासराज को देखते रहे। फिर अपनी माता और गुरुओं का स्मरण कर बोले, "आपको यदि यही शंका है तो मैं इस शंका का समूल नाश करता हूँ। मैं इस पृथ्वी, पवन और आकाश को साक्षी मानकर यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं, गंगापुत्र देवव्रत आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा, अविवाहित रहूँगा और अपने भाइयों की संततियों को अपनी ही सन्तति समझूंगा।"
मंत्रियों के ऊपर जैसे बिजली गिर गई। वे तड़प कर बोले, "यह क्या किया देव?"
"मन्त्रिवर! आपने सुना होगा कि मेरी माँ ने मेरे सात भाइयों को मुक्त कर दिया था। वे किस चीज से मुक्त करना चाहती होंगी? लोभ और तृष्णा से, इच्छा और आशंका से? आज मैं मुक्त हो गया हूँ आर्य। मुझे राज्य का भार नहीं उठाना, मुझे सांसारिक लोभ-माया में नहीं पड़ना। यह मुक्ति ही तो हैं। दासराज! अब यदि और कुछ शेष न रह गया हो तो अपनी कन्या को बुलाइए। हम उन्हें आज ही राजधानी ले जाना चाहेंगे।"
दासराज के कहने पर परिवार की महिलाओं ने एक अनिद्य सुंदरी को देवव्रत के सामने खड़ा कर दिया। यह देवव्रत द्वारा देखी गई अबतक की सबसे सुंदर नवयुवती थी। देवव्रत ने उनका गौरवर्ण देखकर हठात् प्रश्न किया, "दासराज! क्या यह आपकी ही पुत्री हैं?"
"हाँ युवराज! यह मेरी पुत्री है। मैं इसका पिता हूँ, परन्तु मैं इसका जनक नहीं हूँ। मैंने इसका पालन पोषण किया है।"
युवराज ने संकेतों से ही दासराज और अन्य सभी से विदा ली और अपनी से आधी आयु की नवयुवती के चरणों में झुक श्रद्धानत हो बोले, "आइए माता, आपका हस्तिनापुर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।"
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अजीत
22 अप्रैल 18
22 अप्रैल 18