पोरबंदर, नाम में लगा बन्दर मतलब बंदरगाह। बंबई के बनने से पहले यहीं से सिंध, बलुचिस्तान, पूर्वी अफ्रीका और फारस से व्यापार होता था। बम्बई बना तो पोरबंदर को बहुत नुकसान उठाना पड़ा।
पोरबंदर काठियावाड़ के सत्तर रजवाड़ों में से एक था। छोटा इलाका और इतने शासक। कोई 'राजा', कोई 'नवाब', कोई 'राव' तो कोई 'जाम साहेब'। पोरबंदर का राजा 'राणा' कहलाता था।
अंग्रेजों ने इस इलाके को सीधे अपने हाथों में नहीं लिया था। वे तब तक इन राजाओं को राज करने देते थे, जब तक उन्हें बर्दाश्त किया जा सके। राजाओं की सात कैटेगरी होती थी। क्लास वन का राजा अपनी प्रजा का सर्वेसर्वा होता था, किसी अपराधी को सजाए मौत तक दे सकता था। वहीं क्लास सेवन के राजा को 15 दिन की कैद की सजा देने के लिए भी अंग्रेजों की अनुमति लेनी होती थी। बहरहाल, 70000 की आबादी वाले पोरबंदर का 'राणा' श्रेणी वन का राजा था। पहले गांधी 'लालजी' थे जो पोरबंदर राजा की नौकरी में आये और इनकी चौथी पीढ़ी में हुए उत्तमचन्द गांधी उर्फ 'ओटा बापा' जो दीवान बने। दीवान मतलब राजा के बाद सबसे बड़ा अफसर। हालांकि ओटा बापा पढ़ाई में निल बटा सन्नाटा थे।
राणा की मृत्यु हुई, उसका बेटा नाबालिक था तो शक्ति रानी के हाथ में आ गई। रानी ओटा बापा को पसन्द नहीं करती थी तो ये पोरबंदर छोड़ जूनागढ़ चले आये। जब रानी मरी तो नए राणा विक्रमजीत ने उन्हें वापस बुलाया और दीवानी सौंप दी। फिर कुछ दिनों बाद राणा और दीवान में किसी मुद्दे को लेकर अनबन हुई तो राणा ने इन्हें हटाकर इनके बेटे करमचंद उर्फ कबा को दीवान बना दिया।
कबा की पहली दोनों पत्नियां मर गई, उनसे एक-एक बेटी भी हुई थी, वो भी नहीं बची। तीसरी शादी की, कोई बच्चा नहीं हुआ। फिर पत्नी की रजामंदी से उन्होंने अपने से बाइस साल छोटी पुतलीबाई से विवाह किया। उनसे इन्हें बच्चे हुए, लक्ष्मीदास, लड़की रैलियत, करसनदास और फिर हुए मोहनदास करमचंद गांधी।
मोहनदास के पैदा होने के समय राज्य पर विपत्ति आई हुई थी। राजा के बड़े बेटे की उत्तेजक दवाइयों (शराब) के प्रयोग से बड़ी दर्दनाक मौत हुई थी। राजा ने इसके लिए राजकुमार के सेवक लुकमान को दोषी माना, कि उसने ही उन दवाइयों की आपूर्ति की थी। नाक-कान काटकर उसे किले की दीवार से फेंककर मार डाला गया। एक अरब सिपाही को भी मार डाला गया। अंग्रेज इन सजाओं के लिए राणा के तर्कों से सहमत नहीं हुए और इसे सत्ता का गम्भीर दुरुपयोग मानते हुए राजा का दर्जा घटाकर तीन कर दिया।
राजा का दर्जा घट जाने से कबा को तकलीफ हुई और वे राजकोट चले आए। पोरबंदर में 20 सालों का दीवानी का अनुभव काम आया और वे दो साल में राजकोट के दीवान बन गए। मोहनदास की पढ़ाई वहीं शुरू हुई। इनके दोनों बड़े भाई पढ़ाई में डब्बा गोल रहे, ये भी कुछ खास नहीं थे पर फिर भी कइयों से बहुत बेहतर थे।
इनकी शादी हो गई। जब ये 16 साल के थे तो इनके पिता की मृत्यु हो गई (सन 1885)। 1888 में इन्होंने ग्रेजुएशन में दाखिला लिया। उसी समय इनके घर एक आदमी मेहमान बन कर आया जिसने लन्दन जाकर बैरिस्टरी करने की सलाह दी। बीए में 4-5 साल लगना था और बैरिस्टरी ढाई-तीन साल में हो जाती थी। पिता थे नहीं, माता धार्मिक थी जो नहीं चाहती थी कि बेटा विदेश जाए। गांधी ने जिद की तो कुछ वचन देने के बाद इन्हें परमिशन मिल गई। पूरा खानदान विरोध में था पर बड़े भाई लक्ष्मीदास इनके साथ मजबूती से खड़े रहे। उन्होंने आशीर्वाद के साथ पैसों का भरपूर बंदोबस्त किया, इसमें घर के जेवरात भी गिरवी रखने पड़े।
समय बदल गया था, गांधी के बाप-दादा अनपढ़ होते हुए भी दीवान बन पाए थे पर अब राजाओं को पढ़े लिखे नौजवान चाहिए थे। लक्ष्मीदास और करसनदास कुछ खास पढ़ नहीं पाए थे, तो यही सोचा गया कि छोटे को पढ़ा दिया जाए कि यही बन जाए दीवान।
गांधी निकल लिए इंग्लैंड। इधर करसनदास राजकोट रियासत में और लक्ष्मीदास पोरबंदर रियासत में छोटे मोटे नौकर हो गए। इस समय तक पोरबंदर के राणा का दर्जा वापस मिल गया था लेकिन उसे बम्बई में रहना होता था। वह कभी-कभी अपनी रियासत आ तो सकता था लेकिन लगातार रह नहीं सकता था। जो राजकुमार मर गया था उसके बड़े बेटे को राजा बनने की ट्रेनिंग दी जा रही थी। पर उसका मन शिकार, शराब और शबाब में लगता था। शादीशुदा था, बावजूद इसके उसका अपना हरम था। अनाप-शनाप खर्चे। राजा उससे नाउम्मीद हो चुका था और अंग्रेज भी उससे खफा थे।
एक बार राजकुमार अपने दादा मतलब राजा के महल में घुस आया और ताला तोड़कर जवाहरात और महंगे बर्तन उठा ले गया। मुकदमा चला तो उसने कहा कि राजा इन्हें खर्च कर देता इसलिए उसने यह सब अपने कब्जे में कर लिया।
यह सब तो रजवाड़ों में होता ही रहता था। पर दिलचस्प बात यह थी कि उस राजकुमार के मुख्य सलाहकार थे अपने लक्ष्मीदास गांधी। आरोप तो यह भी था कि उस रात राजकुमार के साथ लक्ष्मीदास भी थे। उन्हें पोरबंदर से तड़ीपार की सजा दी गई।
जब मोहनदास गांधी बैरिस्टर बनकर वापस लौटे तो उनके दीवान बनने के चांस खत्म हो चुके थे। विडम्बना ही थी कि जिस भाई ने अपनी सारी जमा-जथा गांधी को दीवान बनते देखने के लिए उनकी पढ़ाई में खर्च कर दी, अब उन्हीं के कर्मों की वजह से गांधी के सारे मौके खत्म हो गए। अपराधी के भाई को दीवान कौन बनाता?
गांधी वहां से बम्बई आ गए, कोर्ट में नामांकन कराया। करीब एक साल तक कमरे से कोर्ट आते-जाते रहे और नाकाम होते रहे। वकालत जमी नहीं बम्बई में तो वापस राजकोट आ गए। वहीं एक ऑफिस बनाया और मसौदे वगैरह तैयार करते। इसमें वे सफल रहे। बढ़िया पैसा कमाने लगे। पर वे थक चुके थे। इतनी उच्च शिक्षा और लेखकीय कौशल बर्बाद हो रहा था यहां। (गांधी उच्चकोटि के लेखक थे।)
एक मौका बना। पोरबंदर का एक मुस्लिम गुजराती दादा अब्दुल्ला नटाल और ट्रांसवाल (साउथ अफ्रीका) में रहता और व्यापार करता था। नटाल खुद देखता और ट्रांसवाल की दुकानें अपने रिश्ते के भाई तैयब हाजी खान को सौंप रखी थी। उनमें ही कुछ गबन घोटाला हुआ था, जिससे मुकदमा दायर हो गया। दादा अब्दुल्ला की दिक्कत थी कि उनका सारा खाता-बही गुजराती में था। उसे ऐसे वकील की जरूरत थी जो गुजराती जानता हो, अंग्रेजी पर अधिकार हो और जो कुछ महीनों या साल तक नटाल और ट्रांसवाल में रह सके।
उसने पोरबंदर के अपने मित्र लक्ष्मीदास को ऐसा वकील ढूंढ देने को कहा। लड़का घर में ही था और बाहर निकलने के लिए तड़प रहा था। जहाज के टिकट, रहने-ठहरने के खर्च और 150 पाउंड फीस ने गांधी को 23 अप्रैल 1893 को बम्बई से डरबन के जहाज पर सवार करवा दिया।
और मोहनदास को 'दि गांधी' बनाया साउथ अफ्रीका ने।
गांधी में यकीनन बहुत कुछ खास बातें थी, पर खास इंसानों को महामानव बनाने में नियति का भी योगदान होता है। कौन जानता है कि यदि परिस्थितियां वैसी न बनी होती तो गांधी किसी छोटी सी रियासत के दीवान बने रहते या राजकोट में मसौदे लिखकर पेट पालते।
बाकी फिर कभी.....
मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।
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अजीत
30 जनवरी 18