किसी व्यक्ति को नापसन्द करने के जितने संभावित गुण और लक्षण होने चाहिए वो सब थे सर्वेश्वर प्रसाद सिंह में। सिंह साहब मेरे पिता के शिक्षण काल के सीनियर फिर सहपाठी थे, पिता की मत मारी गई होगी जो नौकरी लगने के बाद भी इस दोस्ती को कायम रखते हुए अगल-बगल मकान खड़ा कर लिया।
छोटा कद, काली त्वचा, धूर्त आँखें, तीखी आवाज, झकड़ा मूछें, मटका पेट। ऐसे गुणों के विलक्षण संयोजन को देखकर ताज्जुब नहीं कि हम बच्चे इन्हें अव्वल दर्जे का घृणित प्राणी मानते थे। समाज की अवधारणा ही ऐसी होती है, बच्चों का क्या कसूर। ऊपर से इनके कारनामें भी कम नहीं थे।
जमाना कोई भी रहा हो, वर्तमान हमेशा ही महंगा होता है, वो तो हमें भूतकाल स्वर्णिम और भविष्य अंधकारमय देखने की आदत सी है इसलिए कह जाते हैं कि पुराना जमाना बड़ा सस्ता था। तो ऐसे ही किसी जमाने में ये महाशय लगातार चार पुत्रियों, फिर एक पुत्र बाद दो पुत्रियों के पिता बने।
हालाँकि हम खुद चार भाई और एक बहन हैं पर ये सोच कर हम पिटी फील करते थे कि देखो कैसा इंसान है, बेटे की चाह में बेटी पर बेटी पैदा करते गया। उनसे घृणा करने का सिर्फ यही कारण नहीं था, छोटी मोटी अनेक बातें थी। बचपन में मेरी हमउम्र उनकी दुहिता जब भी साथ खेलती तो उन्हें दिक्कत होती कि ये बच्चे परिवार वाला खेल क्यों खेलते हैं, और मैं हमेशा उसका पति क्यों बनता हूँ। हंसिये मत जनाब, उस जमाने में मोबाइल गेम नहीं होते थे, बच्चे यही सब खेलते थे।
गालियों के बड़े रसिया थे। ऐसी ऐसी अद्भुत गालियां निकालते कि ठेठ बनारसी भी इनके आगे पानी भरते। और गालियां अर्पण करने में कोई भेदभाव नहीं, आवाज लगाते कबाड़ी वाले हों कि सब्जी ठेले वाले, हल्ला करते बच्चें हों कि फुसफुसाती बीवी, टिटियाती टिटहरी हो कि कूंकती कोयल, टरटराते मेंढक हों या गोबर करती भैंस, ये किसी को नहीं बख्शते। गरारे की भयानक आवाज हमारी नींद तोड़ देती, सुर्ती की पीक जी घिना देती।
जब थोड़े बड़े हुए तो मैं और मेरे भाई बाल स्वभाव अनुसार शरारतें शोरगुल करते, जिसपर उन्हें हमेशा ही दिक्कत होती, अक्सर तो शिकायत करते पर कभी कभी पिता के अनन्य मित्र होने के अधिकार का इस्तेमाल कर लपड़िया भी देते।
सरकारी नौकर अधिकांशतः भ्रष्ट होते ही हैं, भ्रष्टाचार को सामाजिक मान्यता मिली ही है, तो छोटे मोटे भ्रष्ट आचरण को लोग नोटिस ही नहीं करते पर हमने इन्हें खुलेआम लूट मचाते देखा था। घर आया कोई भी आसामी उनके आंगन में रोता हुआ और घर से निकलते समय गालियां बकता हुआ ही दिखता। एक बार तो भीड़ इन्हें मारने पर आमादा थी, हम तो खुश ही हुए पर ना जाने क्यों पिताजी बीचबचाव करने कूद पड़े, मजबूरन मुझे और बड़े भाई को भी जाना पड़ा, और एक मनभावन घटना घटते घटते रह गई।
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धीरे धीरे अपनी बेटियों की शादी करते गये, सुनते कि लड़कियां बस ऐसे वैसे घरों में जैसे तैसे खपा दी गईं थी, खुश नहीं थी वे। अब दीदी बोलते थे उन्हें, बुरा लगता था और सिंह साहब के प्रति घृणा बढ़ती जाती।
अपने एकलौते बेटे की भी शादी की। समय पर प्रसव भी हुआ, और पहली सन्तान कन्या। पता नहीं उन्होंने कैसा महसूस किया होगा, पर मुझे बुरा लगा था, ऐसे घरों में लड़कियां ना ही पैदा हो तो अच्छा। पर कुछ दिनों बाद इतना ललक ललक कर उन्हें उस बच्ची को खिलाते हुए देखा कि लगा चलो आदमी जैसा हो, बच्चे को प्यार तो दे ही रहा है। उनके कहे कई सारे जुमले आज मैं अपनी बच्ची से कहकर उसे खिलाता हूँ।
पर मेरा ये भ्रम बहुत दिन तक रहा नहीं। सुना कि भाभी फिर से उम्मीद से हैं, पर फिर कुछ हुआ नहीं, कुछ दिनों बाद हवाओं में फिर से 'उम्मीद' तैर रही थी पर हुआ इस बार भी कुछ नहीं। जाहिर है कि कुछ कर-कुरा दिया जाता होगा। 4-5 सालों में कई बार ऐसा हुआ। इस आदमी पर इतना गुस्सा आता, और भाभी के लिए इतना बुरा लगता कि क्या बताऊँ। क्या फायदा औरत का इतना पढ़ा लिखा होने का, जब कायदे से विरोध भी ना कर सके।
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पीजी के टाइम पर अपनी एक दोस्त के साथ घर और कॉलेज से काफी दूर सुंदरपुर के एक ठीकठाक रेस्टोरेंट में नाश्ता कर रहा था, अचानक ही सिंह साहब और उनके बेटे-बहू आते हुए दिखे। चोरी करते हुए रंगेहाथ पकड़े जाने वाली फीलिंग थी। क्या करूं, कहां जा कर मरूं, समझ नहीं आ रहा था। वो तीनों बैठे भी तो मेरी टेबल के जस्ट पीछे। एक झलक देखा, वो लोग अपने आप में ही डूबे थे, किसी और पर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं थी उन्हें। दम साध कर बैठा रहा और वे लोग भी अपने आप में ही मगन, सब चुप।
अचानक ही सिंह साहब की भर्राई हुई आवाज सुनाई दी, अपनी बहू से कह रहे थे, "बेटा, बस करो, कितनी बार, अरे मैं पालूंगा इसे, इतना पाप मत करो बेटा, नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी"।
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अजीत
15 मार्च 17