कुछ व्यक्तित्व आपके उलट होते हैं, बिलकुल उजाले अँधेरे की तरह, और आप पता नहीं क्यों उधर ही आकर्षित होते हैं। परु, प्रशांत ऐसा ही था, मुझसे बिलकुल ही जुदा। स्टाइलिश, मस्त, बातूनी, हँसोड़, नंबर वन डांसर, उम्दा क्रिकेटर, स्नूकर चैंपियन, पढ़ाकू भी, एंड व्हाट नॉट। कोई तो गुण हो जो उसमें ना हो। उसे देख देख ईर्ष्या से जल मरता मैं, पर ना जाने क्यों उसकी तरफ खिंचता जाता। उसे भी शायद मुझमें कुछ दिखा हो, या जाने क्या, हम दोस्त बन गए, पक्के वाले।
उम्र ही कुछ ऐसी थी, दिल से हिलोरें निकला करती। को-एड का एक फायदा तो है, कुंठा जन्म नहीं लेती। मेरा स्वभाव थोड़ा अख्खड़, बहुत गुस्सैल था, ऊपर से आदर्शवाद कुछ ज्यादा ही हावी, बच के रहता इन सब चीजों से, वैसे मुझे ज्यादा भाव कोई देता भी नहीं था। उधर परु, अहा, क्या तो फूल पर मधुमक्खियां आकर्षित होती होंगी। तकरीबन हर लड़की उसकी 'वी आर जस्ट फ्रेंड्स' हुआ करती।
मैच खेलने किसी दूसरे कॉलेज गये थे हम। सहवाग की आत्मा घुस गई थी उसमें उस दिन। कई फेमस कहानियों की तरह, उसका छक्का भी सुंदरतम लड़की की गोद में गिरा। लगता है जैसे कई सालों पहले क्यूपिड के तीरों ने बॉल रूप में अवतार लिया हो। जिसकी भी गोद में गिरा वो तुरन्त ही बल्लेबाज के प्रेम की गिरफ्त में।
लड़की, शुभ्रा ने प्रपोज़ किया और परु ने हमेशा की तरह एक्सेप्ट। ना जाने क्यों मुझे इस बार बहुत ही बुरा लगा था परु का यूँ हाँ बोलना। अब तक जिनसे भी उसके रिश्ते थे वो हमउम्र थी, साथ पढ़ती या कॉलोनी में साथ रहती थी, जानती थी उसके स्वभाव को, उसकी कारस्तानियों को। पर ये लड़की, उम्र में 3-4 साल छोटी थी, स्वभाव पहचानती नहीं थी। ये अव्वल दर्जे की धोखेबाजी थी, दोस्त होने के नाते मुझे ये अनैतिकता बहुत बुरी लगी थी। ऊपर से शुभ्रा के पिताजी, होटलों के मालिक और संभावित नेता थे, कल को कुछ उल्टा सीधा होता तो हमें ही झेलना पड़ता। कितना समझाया कि यार छोड़ इसे, एक तो गलत काम ऊपर से इतना खतरा, पर सुनता कौन है।
ना जाने क्या था उस लड़की में, बदलाव सिर्फ 2 महीने में दिखने लगा, अब इसे देखकर कहा जा सकता था कि क्यूपिड के बाण ने दोनों के दिल चीरे हैं। अच्छा लगा था मुझे, पर शुभ्रा को मैं कभी अच्छा नहीं लगा। एक तो मेरी खरी खरी बोलने की आदत, ऊपर से हम दोनों का हमेशा ही साथ रहना। इंसान भी अजीब होता है। उन रिश्तों से भी जलन महसूस कर लेता है जिनका उनके अपने रिश्ते से कोई लेना देना भी नहीं। पता नहीं क्या दिक्कत थी उसे मेरी और परु की दोस्ती से। "सौतन" बुलाती थी मुझे।
पीजी में मुझसे एक साल पीछे हो गया था परु। इधर शुभ्रा का एडमिशन पुणे के टॉप कॉलेज में हो गया। फोन आया कि बाबू मैं कैसे रहूंगी तुम्हारे बिना 2 साल। और बाबू पागल, चल दिए पुणे, अपनी खुद की बची हुई 2 साल की पढ़ाई छोड़। कॉलेज मैनेजमेंट को संभालने में देवता याद आ गए थे मुझे।
मैं भी पहुंचा पुणे, नौकरी की तलाश में। मुझ जैसे अर्धशहरी के लिए थोड़ी अजीब बात तो थी पर कोई नहीं, जमाना ही ऐसा है, लिव-इन इतना भी बुरा नहीं लगता मुझे।
इधर मैं पुणे आया, उधर शुभ्रा का कोर्स खत्म, वापस बनारस। फिर से वही, "बाबू, मैं कैसे रहूंगी तुम्हारे बिना", और बाबू फिर चल दिए साथ निभाने।
कभी कभी सोचता हूँ, ये प्यार कितनी मजबूत भावना होती है ना, लड़किया अपने सारे सम्बन्ध, अपनी इज्जत, अपना संभावित कैरियर छोड़ अपने प्रेमी के पास आ जाती हैं, वही परु जैसे आशिकमिजाज खिलंदड़े लड़के अपनी प्रेमिका के लिए अपना व्यवहार, अपनी पढ़ाई यहां तक कि अपने सपने भी छोड़ देते हैं।
वही बनारस के छोटे से टेक्निकल इंस्टिट्यूट में टीचिंग करने लगा था, केवल शुभ्रा के आसपास बने रहने के लिए, शुभ्रा की जिद पर।
लड़कों के प्रति हमेशा ही ये आशंका रहती है कि वे धोखेबाज होते है, पर परु को देखकर लगता ही नहीं था कि ये वही 4 साल पहले वाला मस्तमौला लड़का है।
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नौकरी की भागदौड़ में प्रिय से प्रिय मित्र का साथ छूट ही जाता है।
कई सालों बाद शुभ्रा से मिला, अपने प्रेमी के साथ मॉल में दिखी, पर वो मेरा परु नहीं था। सुना कि उसे छोटे से स्कूल का मास्टर स्वीकार नहीं था।
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आज परु जर्मनी में सेटल है, शुभ्रा किसी होटेलियर की पत्नी है।
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अजीत
22 जनवरी 17