Sunday, 22 January 2017

प्रेमम


कुछ व्यक्तित्व आपके उलट होते हैं, बिलकुल उजाले अँधेरे की तरह, और आप पता नहीं क्यों उधर ही आकर्षित होते हैं। परु, प्रशांत ऐसा ही था, मुझसे बिलकुल ही जुदा। स्टाइलिश, मस्त, बातूनी, हँसोड़, नंबर वन डांसर, उम्दा क्रिकेटर, स्नूकर चैंपियन, पढ़ाकू भी, एंड व्हाट नॉट। कोई तो गुण हो जो उसमें ना हो। उसे देख देख ईर्ष्या से जल मरता मैं, पर ना जाने क्यों उसकी तरफ खिंचता जाता। उसे भी शायद मुझमें कुछ दिखा हो, या जाने क्या, हम दोस्त बन गए, पक्के वाले। 

उम्र ही कुछ ऐसी थी, दिल से हिलोरें निकला करती। को-एड का एक फायदा तो है, कुंठा जन्म नहीं लेती। मेरा स्वभाव थोड़ा अख्खड़, बहुत गुस्सैल था, ऊपर से आदर्शवाद कुछ ज्यादा ही हावी, बच के रहता इन सब चीजों से, वैसे मुझे ज्यादा भाव कोई देता भी नहीं था। उधर परु, अहा, क्या तो फूल पर मधुमक्खियां आकर्षित होती होंगी। तकरीबन हर लड़की उसकी 'वी आर जस्ट फ्रेंड्स' हुआ करती।

मैच खेलने किसी दूसरे कॉलेज गये थे हम। सहवाग की आत्मा घुस गई थी उसमें उस दिन। कई फेमस कहानियों की तरह, उसका छक्का भी सुंदरतम लड़की की गोद में गिरा। लगता है जैसे कई सालों पहले क्यूपिड के तीरों ने बॉल रूप में अवतार लिया हो। जिसकी भी गोद में गिरा वो तुरन्त ही बल्लेबाज के प्रेम की गिरफ्त में।

लड़की, शुभ्रा ने प्रपोज़ किया और परु ने हमेशा की तरह एक्सेप्ट। ना जाने क्यों मुझे इस बार बहुत ही बुरा लगा था परु का यूँ हाँ बोलना। अब तक जिनसे भी उसके रिश्ते थे वो हमउम्र थी, साथ पढ़ती या कॉलोनी में साथ रहती थी, जानती थी उसके स्वभाव को, उसकी कारस्तानियों को। पर ये लड़की, उम्र में 3-4 साल छोटी थी, स्वभाव पहचानती नहीं थी। ये अव्वल दर्जे की धोखेबाजी थी, दोस्त होने के नाते मुझे ये अनैतिकता बहुत बुरी लगी थी। ऊपर से शुभ्रा के पिताजी, होटलों के मालिक और संभावित नेता थे, कल को कुछ उल्टा सीधा होता तो हमें ही झेलना पड़ता। कितना समझाया कि यार छोड़ इसे, एक तो गलत काम ऊपर से इतना खतरा, पर सुनता कौन है।

ना जाने क्या था उस लड़की में, बदलाव सिर्फ 2 महीने में दिखने लगा, अब इसे देखकर कहा जा सकता था कि क्यूपिड के बाण ने दोनों के दिल चीरे हैं। अच्छा लगा था मुझे, पर शुभ्रा को मैं कभी अच्छा नहीं लगा। एक तो मेरी खरी खरी बोलने की आदत, ऊपर से हम दोनों का हमेशा ही साथ रहना। इंसान भी अजीब होता है। उन रिश्तों से भी जलन महसूस कर लेता है जिनका उनके अपने रिश्ते से कोई लेना देना भी नहीं। पता नहीं क्या दिक्कत थी उसे मेरी और परु की दोस्ती से। "सौतन" बुलाती थी मुझे।

पीजी में मुझसे एक साल पीछे हो गया था परु। इधर शुभ्रा का एडमिशन पुणे के टॉप कॉलेज में हो गया। फोन आया कि बाबू मैं कैसे रहूंगी तुम्हारे बिना 2 साल। और बाबू पागल, चल दिए पुणे, अपनी खुद की बची हुई 2 साल की पढ़ाई छोड़। कॉलेज मैनेजमेंट को संभालने में देवता याद आ गए थे मुझे।

मैं भी पहुंचा पुणे, नौकरी की तलाश में। मुझ जैसे अर्धशहरी के लिए थोड़ी अजीब बात तो थी पर कोई नहीं, जमाना ही ऐसा है, लिव-इन इतना भी बुरा नहीं लगता मुझे।

इधर मैं पुणे आया, उधर शुभ्रा का कोर्स खत्म, वापस बनारस। फिर से वही, "बाबू, मैं कैसे रहूंगी तुम्हारे बिना", और बाबू फिर चल दिए साथ निभाने।

कभी कभी सोचता हूँ, ये प्यार कितनी मजबूत भावना होती है ना, लड़किया अपने सारे सम्बन्ध, अपनी इज्जत, अपना संभावित कैरियर छोड़ अपने प्रेमी के पास आ जाती हैं, वही परु जैसे आशिकमिजाज खिलंदड़े लड़के अपनी प्रेमिका के लिए अपना व्यवहार, अपनी पढ़ाई यहां तक कि अपने सपने भी छोड़ देते हैं।

वही बनारस के छोटे से टेक्निकल इंस्टिट्यूट में टीचिंग करने लगा था, केवल शुभ्रा के आसपास बने रहने के लिए, शुभ्रा की जिद पर।

लड़कों के प्रति हमेशा ही ये आशंका रहती है कि वे धोखेबाज होते है, पर परु को देखकर लगता ही नहीं था कि ये वही 4 साल पहले वाला मस्तमौला लड़का है।
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नौकरी की भागदौड़ में प्रिय से प्रिय मित्र का साथ छूट ही जाता है।
कई सालों बाद शुभ्रा से मिला, अपने प्रेमी के साथ मॉल में दिखी, पर वो मेरा परु नहीं था। सुना कि उसे छोटे से स्कूल का मास्टर स्वीकार नहीं था।
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आज परु जर्मनी में सेटल है, शुभ्रा किसी होटेलियर की पत्नी है।
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अजीत
22 जनवरी 17

जइसन बोअबऽ......



हरिशंकर बाबू का खानदान बहुत इज्जतदार था, अब कम से कम वे तो ऐसा ही मानते थे। उनके बाउजी ने बताया था, और उनका भी दृढ़ विश्वास था कि इज्जत पैसों से आती है और पैसे ज्यादा से ज्यादा "लेने" में। अब वो चाहे टूथपेस्ट का प्लास्टिक तक चबा जाना हो या सब्जी तौलवाते समय 'घलुआ' में पाव आधा किलो ज्यादा ले लेना। ये सब तो खैर छोटी छोटी सेविंग थी, असली बचत तो उनके तैयार हो रहे बच्चे थे। उनके बाउजी ने भी खूब लिया था, अपने समधी को निचोड़ दिया था, और हरि बाबू को प्रयोगात्मक सीख दे गए थे कि जितना भी जमा-जथा कर लो, असली माल तो दहेज से ही मिल सकता है, एक बार ही मौका मिलता है, देख ताक कर, समझ बूझ कर समधी चुनो, ज्यादा से ज्यादा मांगो। घर-बार तो भरता ही है, आस पड़ोस भी जितना ज्यादा सामान देखेगा, उतनी ही इज्जत करेगा, कि देखो भाई, इत्ता इत्ता सामान मिला है तो बात होगी लड़के और ऊके बाप में, नहीं तो इत्ता सामान कौन देता है भला।

हरि बाबू भगवान से जितने खुश कि इतनी गुणवान स्त्री दी, उससे कहीं ज्यादा पत्नी से सन्तुष्ट कि उसने जब भी दिया, बेटा ही दिया। तीन बेटों का बियाह निपटा चुके थे, अब बेटे भले उतने काबिल नहीं निकले थे, फिर भी जम कर दान दक्षिणा वसूल चुके थे। 'सातों' गांव में लिए गए दहेज और हरि बाबू की ही चर्चा छाई रही कई दिनों तक। अबकी पूरे 'परगना' में फेमस होना चाहते थे, छोटुआ था भी तो बहुते काबिल, आबकारी निकाल लिया था। मक्खी की तरह आते तिलकहरू, पर कोई मोटा बकरा नहीं फँसता। कोई बात नहीं, अभी 2-3 साल और देख सकते थे, कभी तो कोई चर्बीदार फँसेगा ही।

अगुआ एक रिश्ता लेकर आये, साझा खानदान की इकलौती लड़की, लंबी, गोरी, सुन्दर। इन सबके अलावा एक बात ये भी कि आप उसे सौ बातें सुना दो, छत्तीस गालियां दे लो, उफ्फ नहीं करेगी, पलट के जवाब नहीं देगी, बिलकुल गऊ, लब्बोलुआब ये कि जन्मजात गूंगी थी।

पारसनाथ बाबू भी खोज ही रहे थे कि इज्जतदार घराना मिले तो कन्यादान करें। लड़की महंगाई की तरह बढ़ती जा रही थी पर जानते बूझते मक्खी कौन निगलना चाहता है। पहुंचे हरि बाबू के यहां, साफ़ बताया कि देखिये लड़की में सारे गुण हैं, बस बोल नहीं सकती, बाकी जो आप बताइये।

हरि बाबू को लम्बी तपस्या का फल मिल रहा था, अंतिम और सुनहरा मौका, बोले देखिये साहब, हमें अपनी इज्जत बहुत प्यारी है, लड़की में 'हमें' तो ऐसा कोई दोष नहीं दिखता, बल्कि ये गुण तो औरतों में होना ही चाहिए, आप बस ये देख लीजिए कि इस शादी को लोग लंबे समय तक याद रखे। ये भी है कि आपकी लड़की की तीन जेठानियाँ होंगी, जो उसे ताने वाने मार सकती हैं। तो उनका मुँह भी तभी बन्द होगा जब उन्हें अपने मायके के तोहफे कमतर लगें। बाकि आप तो समझदार हैं ही, जो करेंगे सोच समझ कर ही करेंगे।

पारसनाथ जी भी सोच समझ कर ही चले थे रिश्ता करने, हिसाब किताब बैठा चुके थे, बोले, आप कुछ तो बोलिये। थोड़ी देर टालमटोल करने के बाद मांगों की जो बाढ़ आई की पारस बाबू लड़खड़ा गये। अनुमान का तिगुना खर्च हो जाने की संभावना बन रही थी, और हरि बाबू तो अब भी बोले ही जा रहे थे। बड़े यत्न से रोका उन्हें और कहा कि साहब आप मुँहजुबानी जो इतना कुछ बता रहे है, इतना सब तो मैं याद भी नहीं कर सकता, आप लिख कर दे दो।

तीन दिन बाद यत्नपूर्वक बनाई गई लिस्ट पारस बाबू के हाथों में थी। थोड़ी गुंजाइश बनाने के लिए फोन मिलाया तो आठ आइटम और जुड़वा बैठे। साथ में ये चेतावनी कि अगर एक भी सामान कम हुआ तो हम उठ जाएंगे, आखिर हमारी इज्जत का सवाल है।

लिस्ट के सामान जुटाते जाते और कुछ छूट मिल जाए इस उम्मीद में फोन करते, पर उधर से चेतावनी और इज्जत का हवाला दोहरा दिया जाता। छछूंदर जैसी हालत हो गई थी। समझ में नहीं आता कि कैसे करेंगे सब, गूंगी लड़की के लिए सह रहे थे इतना, ये भी समझते थे कि अगर इतना सामान दे दिया तो भले कंगाल हो जाएं पर बिटिया प्रसन्न रहेगी ससुराल में। भला कोई उस लड़की को कुछ बोल सकता है जो मुँहमाँगा दहेज लाई हो।

फिर से लिस्ट में सर घुसाया और अचानक ही उनकी आंखें चमक गई।

शादी के तीन दिन पहले तिलक में सारा सामान पहुंचा दिया। हरि बाबू लिस्ट से एक एक सामान मिलाते जाते और गदगदाते जाते, बोले पारस बाबू हमारी इज्जत बढ़ा दिए आप। पारस बाबू हाथ जोड़ बोले, समधी जी, फिर से देख लीजिए, कुछ छूट गया हो तो आदेश कीजिये। कुछ छूटा होता तब न बोलते, पर फिर से देखा जरूर।
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बारात लेकर जैसे ही उतरे बाबू साहब, भौचक, कही कोई पंडाल नहीं, टेंट नहीं, कुर्सी नहीं, फोल्डिंग नहीं, जलपान नहीं। खाली एक मंडप, जहां शादी होनी थी। तमतमाया चेहरा लिए पारस बाबू से कुछ बोलने को हुए, उससे पहले ही पारस बाबू हाथ जोड़ बोले, क्यूँ बाबू साहब, लिस्ट में कुछ रह गया था क्या? बाकी उसमें बरात स्वागत तो लिखा था नहीं।
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(सूबा बिहार में घटी सत्यघटना पर आधारित)

अजीत
20 जनवरी 17