रघुवर : 1
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श्रीराम अत्यंत व्याकुल हो इधर-उधर दौड़ रहे थे। वे अपनी भार्या को सकुशल छोड़ गए थे, पर अब आश्रम में कोई भी सजीव वस्तु दिखाई नहीं दे रही थी। आश्चर्य तो यह भी था कि वृक्ष भी अस्वाभाविक रूप से शांत थे। उनके पत्ते तक नहीं हिल रहे थे। पौधों के सारे पुष्प धरा पर गिरे हुए थे। आश्रम में सीता के पाले हुए मृग और खरगोशों का भी कोई पता नहीं था। अतिथि के लिए आरक्षित कक्ष में सीता का खड्ग और टूटा हुआ धनुष गिरा हुआ था। प्रतीत होता था कि सीता ने कोई छोटा-मोटा युद्ध किया था। परंतु अब वे कहीं दिख नहीं रही थी।
क्या कोई राक्षस अतिथि बन कर आया था और सीता का वध कर गया? या सीता का हरण कर गया? सीता थी भी तो श्री, ह्री, कीर्ति, लक्ष्मी के समान सुंदर। राम ने आश्रम का प्रत्येक कोना छान लिया, पर उन्हें सीता नहीं दिखी। वे अत्यंत दुखी होकर लक्ष्मण से बोले, "लक्ष्मण! मैंने तुम्हें वैदेही की रक्षा करने के लिए यहाँ छोड़ा था। तुम तो जानते हो कि यहां दुष्ट देव, दानव, किन्नर, गन्धर्व घूमते रहते हैं। तुम्हें उसे छोड़कर नहीं आना चाहिए था। अब बताओ कि मैं राजा जनक को क्या मुँह दिखाऊंगा? मैं सीता की माताजी से क्या कहूँगा?"
दुखी लक्ष्मण सिसकते हुए बोले, "अपराध हुआ भैया। मैं भाभी के कटु वचनों को सह नहीं सका। उन्होंने यह तक कह दिया कि मैं चाहता हूँ कि राम न रहें और भरत राज्य करें। मैं क्या करता?"
"अरे पागल, वह तो एक पत्नी का पति के लिए चिंतित स्वभाव था। पत्नी के लिए पति से बढ़कर कोई नहीं। वह जानती थी कि तुम कभी भी अपने भैया की आज्ञा को अनसुना कर उसे छोड़कर वन में मुझे ढूंढने नहीं जाओगे। तभी उसने ऐसे कठोर वचन कहे होंगे। पर तुम तो नीतिवान हो, बृहस्पति के शिष्य हो, तुम्हें तो नीति पर ही चलना चाहिए था। हाय लक्ष्मण! अब हम क्या करें।"
वे दोनों भाई आश्रम से बाहर आकर सीता के चिह्न ढूंढने लगे। कुछ दूर उन्हें धरा पर गिरे पुष्प दिखे जिन्हें देख राम उत्तेजित होकर बोले, "सौमित्र! ये पुष्प तो मैंने आज प्रातः ही वैदेही को उसके केशों में लगाने के लिए दिए थे। ये पुष्प कुछ कुचले हुए से प्रतीत होते हैं, जैसे किसी छीनाझपटी में सिर से गिर गए हों। कुछ अघटित घटा है भाई! वो सामने गोदावरी बह रही है। जाओ उससे पूछ कर आओ कि कहाँ है राम की सीता? या रुको, मैं ही आता हूँ।"
बहती गोदावरी को प्रणाम कर राम बोले, "हे गोदावरी! तुम तो यहाँ निरन्तर बह रही हो। क्या तुमने मेरी सीता को देखा? चुप क्यों हो, माना कि तुम अपनी मर्यादा में हो, बोल नहीं सकती। पर कोई संकेत तो करो! हे पर्वतराज प्रस्रवण! तुम ही कुछ बताओ। बताओ कि मेरी अर्धांगिनी कहाँ है?"
नदी और पर्वत से कोई उत्तर न पाकर राम को क्रोध आने लगा, "मेरे प्रश्न का उत्तर दो नदी, अन्यथा मैं अभी एक क्षण में तुम्हारा अस्तित्व समाप्त कर दूंगा। अरे पर्वत, उत्तर दे, नहीं तो जिन शिखरों पर तुझे गर्व है, उसे धूल में बदल दूंगा। उत्तर दो!"
श्रीराम का यह रूप देख ऐसा लगा कि जैसे गोदावरी और प्रस्रवण काँपने लगे हों। तभी राम और लक्ष्मण को किसी के विशाल पगचिह्न दिखाई दिए। इन चिह्नों को देख यह लगता था जैसे कोई विशाल राक्षस यहाँ से निकला हो। लक्ष्मण की दृष्टि समीप आ चुके मृगों पर पड़ी। उन्हें लगा कि सारे मृग कुछ कहना चाहते हैं। लक्ष्मण को अपनी ओर देखता हुआ देख सारे मृग ग्रीवा ऊँची कर चीत्कार करते हुए दक्षिण दिशा की ओर भागे। लक्ष्मण ने यह देख राम से कहा, "भैया, यह देखिए। सारे मृग जैसे हमें नैर्ऋत्य दिशा की ओर ले जाना चाहते हैं। आइए, इधर चलते हैं।"
थोड़ी ही दूर चलने पर उन्हें एक युद्धक रथ के टूटे हुए हिस्से दिखे। उस रथ में एक सारथी की मृत देह भी थी। दो खण्डों में टूटा हुआ एक विशाल धनुष भी था। बाणों से भरे दो तुरीण और अनगिनत प्रयुक्त बाण गिरे हुए थे। कुछ अत्यंत विशाल गधे भी मृत पड़े हुए थे। यह देख राम अत्यंत व्याकुल होकर बोले, "देखो सौमित्र, लगता है यहाँ कोई युद्ध हुआ है। हो न हो, सीता को लेकर ही यह युद्ध हुआ है। हाय, मेरी सीता।"
राम की भंगिमा बदलने लगी। दुख से भरे नेत्रों से चिंगारी निकलने लगी। माथे की नसें स्पष्ट दिखने लगी। छाती और भुजाएं फड़फड़ाने लगीं। ओंठ विचित्र रूप से विकृत से हो गए। उन्होंने अपने दाहिने पैर को पृथ्वी पर पटका। अपनी कमर से एक कपड़ा निकाल बिखरे हुए केशों को कसकर बाँधा और लक्ष्मण से अपना विशाल धनुष लेकर उसकी प्रत्यंचा खींचकर छोड़ दी। इस टंकार से सारा वन रोमांचित हो उठा। उन्होंने गरज कर कहा, "मेरी धर्मपत्नी का हरण हुआ है! अथवा उसका वध हो गया है! पर जब यह सब हो रहा था तो यह सृष्टि उसे होता हुआ कैसे देखती रही? क्या इस जगत में कोई पुरुष नहीं है? वो त्रिपुरारी महेश्वर शिव इसे देखते रहे? मैं जीवों पर करुणा करता हूँ, जितेंद्रिय हूँ, इसलिए इंद्र आदि देव मुझे निर्बल समझते हैं? देखो लक्ष्मण, मेरी दयालुता, मेरी करुणा ही मेरा दोष बन गई। अन्यथा क्या कारण है कि मेरी पत्नी मारी गई और ये देव चुप बैठे रहे? मेरा एक गुण देखा संसार ने, अब दूसरा भी देख ले। जैसे सूर्य चन्द्रमा की रोशनी खा जाता है, मैं इस संसार को ही निगल जाऊंगा। अब न देव, न दानव, न गन्धर्व, न राक्षस कोई भी चैन से नहीं रह पाएगा। मैं अभी सभी नदियों और सागरों को सुखा डालूंगा। सौमित्र! यदि अभी इसी क्षण ये सभी देवगण मेरी सीता को मेरे सम्मुख नहीं करते तो मैं इस सारे जग की मर्यादा छिन्न-भिन्न कर दूंगा।"
इतना कह राम ने एक प्रज्वलित बाण को धनुष पर रखा और प्रत्यंचा खींच दी। लक्ष्मण अपने भाई का यह रूप देख थर-थर कांपते हुए और सूखते मुख से बोले, "आर्य, आप जितेंद्रिय हैं, क्रोध में अपना मूल दयालु स्वभाव न छोड़े। यह देखिए, यहाँ मात्र एक रथ के चिह्न हैं। यहाँ अवश्य की भयंकर युद्ध हुआ है पर रथी एक ही था। यहाँ किसी सेना के चिह्न नहीं हैं। यह किसी एक व्यक्ति का दोष है श्रेष्ठ। आप तो राजवंशी हैं, राजा हैं। किसी एक के अपराध का दंड समस्त संसार को देना उचित नहीं होगा प्रभु। आप तो सदैव मुझे ही सीख देते आए हैं, मैं आपकी ही बात आपसे कहता हूँ देव।
"हे नरेंद्र! विपत्ति किसपर नहीं आती? जो जन्म लेता है, उसे कष्ट भी भोगने पड़ते हैं। हमारे पिता धर्मात्मा थे, परन्तु उन्हें भी पुत्रवियोग सहना पड़ा। हमारे पिता के पुरोहित महर्षि वशिष्ठ सौ पुत्रों के पिता थे, पर हमारे गुरु विश्वामित्र ने उन सभी का एक ही दिन में वध कर दिया। सूर्य और चंद्रमा तक को ग्रहण लगता है प्रभु। देवाधिदेव महादेव भी पत्नी शोक से पीड़ित हुए थे।
"ककुत्स्थ कुलभूषण! जिसने माता सीता का हरण किया है, उसी को खोजना चाहिए। अपराध का दंड भी उसी को दिया जाना चाहिए। आप और मैं ऋषियों की सहायता से उनका पता लगाएंगे। विश्व के प्रत्येक कोने में उन्हें खोजेंगे। और यदि हम तब असफल हुए तो आपके आदेश पर स्वयं मैं इस संसार को नष्ट कर दूंगा।
"तब तक हे इक्ष्वाकुकुल शिरोमणि, हे मर्यादा पुरुषोत्तम, कृपया धैर्य धरें।"
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रघुवर : 2
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मृगों के बताए मार्ग पर हताश राम और उद्विग्न लक्ष्मण चले जा रहे थे। आगे-आगे चलते लक्ष्मण ने सहसा रुककर राम को रुकने का संकेत किया। राम क्षणभर में ही युद्धक मुद्रा में आ गए। हाथों में झूल रही तलवार तन गई। ध्यान से देखने पर उन्हें पेड़ों और झाड़ियों के पीछे किसी विशाल मानव का आभास हुआ। राम ने उसे देखते ही अपना धनुष सम्भाल लिया और लक्ष्मण से बोले, "देखो यह कोई राक्षस या दानव लेटा हुआ है। अवश्य ही इसने मेरी सीता को खा लिया है और अब विश्राम कर रहा है। मैं इसे नहीं छोडूंगा। अभी इस दुष्ट के प्राण हर लेता हूँ।"
यह सुन लक्ष्मण धनुष के सामने खड़े हो गए। अब राम बाण छोड़ते तो वह बिना सौमित्र को बेधे आगे नहीं बढ़ सकता था। राम के नेत्रों से अग्नि निकल रही थी, पर लक्ष्मण ने भी पूरी शक्ति से राम का धनुष पकड़ लिया और रोष भरी वाणी में बोले, "तनिक धैर्य धरें वीर। बिना विचारे आप यह क्या कर रहे हैं? अयोध्या सहित अनेक नगरों के नागरिक, भैया भरत, यहाँ तक कि समस्त ऋषिगण आपको नारायण का अवतार मानते हैं। क्या यह नारायण का व्यवहार है कि वह किसी का पक्ष सुने बिना अपने मन में ही न्याय करे और दंड भी दे दे? स्मरण कीजिए, हमारे पिता महाराज दशरथ ने भी बिना विचारे एक बाण छोड़ा था, और ब्रह्महत्या के दोषी बने थे। आपकी पत्नी का हरण हुआ है तो क्या आप किसी को भी राक्षस घोषित कर मृत्युदंड दे देंगे? और क्या कोई राक्षस होने भर से दंड का पात्र हो जाता है?"
लक्ष्मण की न्यायोचित बात सुन राम ने अपना धनुष झुका लिया। यह देख लक्ष्मण हाथ जोड़ खड़े हो गए और क्षमा मांगते हुए बोले, "क्षमा कीजिये बड़े भैया। मैंने अपनी मर्यादा लांघ दी। छोटा होकर बड़े को शिक्षा देने का अपराध किया। मुझे क्षमा करें।"
सीता हरण पश्चात पहली बार राम तनिक मुस्कुराए और बोले, "नहीं लक्ष्मण, तुमने तो सत्य कहा है। सत्य बोलने वाले अपराध नहीं करते। यदि बड़े गलत कर रहे हों तो छोटों को मर्यादा तोड़ ही देनी चाहिए। नीति कोई पाषाण नहीं है कि उसका अक्षरशः पालन हो। समयानुसार नीतियों को भी परिवर्तित होना होता है। अच्छा चलो, देखते हैं कि यह कौन छुपा हुआ है।"
राम के इतना कहने पर उस स्थान से एक भारी आवाज गूंज उठी, "मैं छुपा नहीं हूँ दशरथ के पुत्र राम। घायल अवस्था में हूँ। वृद्ध हो गया हूँ, पर मेरी श्रवण शक्ति अभी भी उतनी ही तीव्र है। इसलिए आरम्भ से ही तुम भाइयों की वार्ता सुन रहा था। आ जाओ निकट। मैं शत्रु नहीं हूँ, अपितु तुम्हारे पिता दशरथ का मित्र जटायु हूँ। देवासुर संग्राम में तुम्हारे पिता और मैं साथ लड़े थे। आओ, निकट आओ पुत्र।"
राम और लक्ष्मण ने अपने आयुधों को यथास्थान लगाया और हाथ जोड़े आगे बढ़े। उन्होंने एक वृद्ध परन्तु विशाल देहयष्टि वाले एक मानव को देखा जिसके सिर के पास गिद्धों के पंखों से बना एक विशाल मुकुट पड़ा हुआ था। उस मानव के दोनों हाथ कटे हुए थे। राम तत्काल उन वृद्ध के सिरहाने बैठ गए और उनका सिर अपनी गोद में रख लिया। लक्ष्मण औषधि के लिए कुछ वनस्पतियों की पत्तियों को हाथ से मसलने लगे और लेई जैसा बनाकर कंधों पर लगा दिया। रक्त बहना बंद हुआ तो उन्हें पत्तों के बने दोने से पानी पिलाया। तनिक शक्ति बटोर कर जटायु बोले, "हे राम! मुझे क्षमा करना पुत्र। मैं अपना कर्तव्य न निभा सका।"
"हुआ क्या था तात?"
"मैं नित्य की भांति भोजनोपरांत यहाँ विश्राम कर रहा था कि आकाशमार्ग से एक विमान निकला। उस पर काले वर्ण का एक विशाल राक्षस एक युवती को लिए जा रहा था। युवती राम और लक्ष्मण के नाम पुकार रही थी और उस राक्षस को कोस रही थी। यह गीधराज वृद्ध भले हुआ पर अधर्म होता नहीं देख सका। मैंने अपनी सामर्थ्य भर उस दुष्ट से युद्ध किया। उसके धनुष और युद्धक रथ को तोड़ डाला, उसके सारथी और जुते हुए गधों को मार डाला। मैंने उसे भी मूर्छित कर दिया था और पुत्री सीता को विमान से उतारने बढ़ा ही था कि उस दुष्ट ने पीछे से वार किया और मेरी भुजाओं को काट दिया।"
राम अश्रुपूरित नेत्रों से बोले, "तात! मेरे पिता मुझ पातकी के लिए ही संसार छोड़ गए, अब आपकी मृत्य का कारण भी मैं ही बन रहा हूँ। मैं क्या करूँ तात?"
जटायु मुस्कुराते हुए बोले, "मैं तुम्हें जानता हूँ राम। यह तो तुम्हारी कृपा है जो तुमने हम नश्वर प्राणियों को अवसर दिया कि तुम्हारे काम आ सकें। तुम्हारे लिए जीना और तुम्हारे लिए मरना, इससे अधिक किसी मनुष्य को चाहिए भी क्या! अच्छा पुत्र, अब मुझे आज्ञा दो। मैंने कदाचित अपने जीवन का एकमात्र कर्तव्य पूरा कर लिया है। स्वर्ग में अपने पूर्वजों से मिलने का समय आ गया है।"
जटायु नेत्र मूँदते, उससे पूर्व ही लक्ष्मण ने अधीर होकर पूछा, "तात, आपने उस पापी का नाम तो बताया ही नहीं, जिसकी ग्रीवा मरोड़कर हमें माता सीता को छुड़ाना है। नाम बताने से पूर्व श्वास न छोड़ें तात!"
जटायु ने अपनी पूरी शक्ति समेटते हुए कहा, "वह रक्ष सभ्यता का राजा, कुबेर का भाई लंकाधिपति रावण था। वह इसी मार्ग से गया है।" इतना कह पूरी श्रद्धा से श्रीराम-नाम का उच्चारण कर जटायु स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान कर गए। दोनों भाइयों के उनकी चिता सजाई। पूरे विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया और उन्हें प्रणाम कर आगे बढ़े।
वे चलते-चलते जनस्थान से दक्षिण-पश्चिम दिशा में तीन कोस दूर क्रोंचारण्य नामक गहन वन में पहुंच गए। वे उस वन को पार करते हुए पूर्व दिशा में दूसरे अत्यधिक घने वन में घुस गए। आगे-आगे लक्ष्मण थे, जो अपनी विशाल तलवार से झाड़ियों और पेड़ों की टहनियों-तनों को काटते, रास्ता बनाते चल रहे थे। पीछे राम थे जो अब उतने दुखी नहीं लग रहे थे। उन्हें जटायु द्वारा प्राप्त इस सूचना से कदाचित कुछ संतोष मिला था कि उनकी सीता अभी जीवित है, और राक्षसराज रावण ने उनका अपहरण किया है। अभी तक उनका क्रोध लक्ष्यविहीन थे, अब उसके पास एक लक्ष्य था, 'रावण'।
लक्ष्मण ने मार्ग रोकने वाली एक झाड़ी को अपनी तलवार से काटा ही था कि एक विशाल जनाना हाथ में उन्हें अपने आलिंगन में कस लिया। हकबकाये लक्ष्मण कुछ समझते, उससे पूर्व ही वह महिला बोली, "अहा, कितना सुंदर पुरुष है तू। वर्षों पश्चात इतना रमणीय पुरुष दिखा है। आजा, हम रमण करेंगे। मैं अयोमुखी हूँ। इस क्षेत्र की रानी। यह पूरा वन मेरा है, और आज से तेरा भी है। तू जिस वस्तु की इच्छा करेगा, वह मैं पूरी करूँगी। अरे ठहर! क्यों मचलता है। क्या तूझे काम-क्रीड़ा रुचिकर नहीं लगती? हाहाहा, न भी हो तो क्या! पर अब तू यहाँ से जा नहीं सकता।"
लक्ष्मण इस दुष्टा की बातें सुन क्रोध से भर उठे। उन्होंने बल लगाकर स्वयं को मुक्त किया और तलवार के वार से उसके नाक-कान काट किए। तदुपरांत दोनों भाई उसे वहीं तड़पता छोड़ आगे बढ़ गए।
कुछ समय पश्चात राम ने पूछा, "सौमित्र, तुमने पहले शूर्पणखा के साथ भी यही किया था, और अब अयोमुखी के साथ भी। तुमने इन दोनों को प्राणदण्ड क्यों नहीं दिया? मात्र अंग-भंग कर छोड़ना क्या उचित था?"
लक्ष्मण तनिक मुस्कुराते हुए बोले, "भैया! आप सब जानकर भी प्रश्न पूछते हैं, तभी तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आप निश्चित ही सब जानते हैं, पर संसार को बताने के लिए प्रश्न करते हैं कि वह भी कुछ ज्ञान प्राप्त कर सके। यद्यपि आपको कुछ बताना सूर्य को दीपक दिखाना है, पर आपकी आज्ञा मान गुरुजनों की सिखाई नीति बताता हूँ। शूर्पणखा और अयोमुखी बलात्कारी मानसिकता से ग्रसित नारियां थी। उन्हें यह घमण्ड था कि वे शक्तिशाली हैं, अतः अपनी वासना की पूर्ति के लिए किसी भी पुरुष का शिकार कर सकती हैं। इसी प्रकार शक्तिशाली पुरुष कमजोर महिलाओं पर अत्याचार करता है। यह मानसिकता लिंग-निरपेक्ष है प्रभु। मृत्युदंड तो बहुत छोटा दण्ड होगा इन कुत्सित अभिमानियों के लिए। नीति यही कहती है कि इन जैसों को समाज के सामने उदाहरण बना दिया जाए। अंग-भंग किये गए स्त्री-पुरुषों को देख समाज समझ जाएगा कि यह बलात्कारी व्यक्ति है। यह जीवन भर का अपमान ही उसका उचित दंड है। इसके अतिरिक्त अन्य अपराधी भी इस दंड को देख अपराध करने से डरेंगे। प्रभु! स्वयं आपने भी तो इसी अपराध के लिए इंद्र-पुत्र जयंत को अंधा बना दिया था।"
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