Thursday, 22 March 2018

विरोध आवश्यक है

यहाँ कई बार आपने देखा होगा कि मुझ जैसे कुछ लोग कभी-कभी यह सवाल पूछते हैं कि "कुछ किताबों के नाम बताइये"।

इन सुझाई गई किताबों में कई किताबें आचार्य चतुरसेन की होती हैं, आनन्द नीलकण्ठन की होती हैं, राहुल सांकृत्यायन की होती हैं। मजे की बात यह भी हैं कि सलाह देने वाले अधिकांश मित्रों ने ये किताबें पढ़ी नहीं होती, बस तारीफ सुनी होती हैं और यह मानकर कि इन फेमस लेखकों की किताबें तो अच्छी होंगी ही, सुझाव दे देते हैं।

सुझाव देने वालों की गलती नहीं बता रहा। वे तो सुझाव देकर मदद ही कर रहे होते हैं। ये भी पक्का है कि यदि उन्हें इन किताबों में लिखे कंटेंट की जानकारी होती तो वे यह जानते हुए कि पूछने वाला किस विचारधारा का है, इन नामों को नहीं बताते।

कुछ प्रसिद्ध अथवा अच्छी किताबों को पढ़कर उनके बारे में यहां बताता रहा हूँ। यहीं आपको काफी लोग मिल जाएंगे जिन्होंने मेरी लिखी कुछ पोस्ट्स पढ़कर नरेंद्र कोहली की महासमर और अभ्युदय तथा कन्हैय्यालाल माणिकलाल मुंशी जी की कृष्णावतार खरीदी/पढ़ी।

कुछ ऐसी किताबों के बारे में भी लिखा जो एक धार्मिक हिन्दू होने के नाते मुझे बहुत ज्यादा बुरी लगीं। आचार्य चतुरसेन और आनन्द नीलकण्ठन की किताबें उनमें प्रमुख हैं।

मुझे यह समझ नहीं आता कि यदि कोई इन किताबों को पढ़कर उनके विरोध में कुछ लिख रहा है तो यह उन किताबों का प्रचार कैसे हो सकता है! ये किताबें तो पहले से ही बेस्ट सेलर्स हैं और पहले ही सैकड़ों लोगों द्वारा पढ़ी जा चुकी हैं। उनमें से कुछ को ये वास्तव में पसन्द आई होंगी और उन्होंने आगे उसे रेकमेंड किया होगा।

अधिकांश लोग सजते और फबते से शीर्षक देखकर या ऑनलाइन साइट्स पर इंग्लिश में लिखे ढेरों रिव्यू की संख्या देखकर किताबें खरीदते हैं। पढ़ते हैं और निराश होते हैं। इससे भी बुरा कि वे उनमें लिखी बातों को सच मानते हैं। जैसे चतुरसेन लिखते हैं कि यज्ञ के दौरान सभी ऋषि दारू पीते हैं और दासियों संग मस्ती करते हैं। यकीनन उनके शब्द आलंकारिक होते हैं पर मतलब यही है। आनन्द लिखते हैं कि ब्राह्मण अनीश्वरवादी चार्वाक को जिंदा जला देते हैं, अर्जुन के पुत्र, नागवंशी और तथाकथित शूद्र इरावान को बलि चढ़ा देते हैं और कृष्ण मौन समर्थन देते हैं, राम विद्वान शम्बूक की हत्या कर देते हैं।

ये सब बातें जिस ढंग से प्रस्तुत की जाती हैं उनसे पाठक के मस्तिष्क में बैठ जाता है कि सनातन के इतिहास में यही सब गन्दगी भरी पड़ी है। यहां गुरु के पद पर आसीन ऋषि-समाज को भ्रष्ट बताया जाता है और भगवान माने जाने वाले राम/कृष्ण अन्यायी।

शिवाजी सावंत का नाम सबने सुना होगा। इनकी प्रसिद्ध किताब को 'मूर्तिदेवी' सहित दर्जनों राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हैं। 1974 में पहले और 2017 में छियालिसवें संस्करण के साथ इस किताब को आज तक लाखों लोगों ने पढ़ा (विविध भाषाओं में)। कर्ण पर आधारित है यह उपन्यास। इसमें कर्ण की इतनी तारीफ लिखी है कि जैसे उससे बड़ा धर्मात्मा कोई हुआ ही नहीं, जबकि मूल महाभारत में यह एक विलेन ही है बस। केवल मित्रता किसी को कैसे महान बना सकती हैं? कल को हाफिज सईद किसी की मदद करें और मदद पाने वाला हमेशा हाफिज सईद का साथ दें तो वह महान हो जाएगा क्या? सावंत जी लिखते हैं कि द्रौपदी कर्ण पर मोहित है और अपनी एक सखी से कहती है कि सखी, कितना अच्छा होता जो कर्ण भी पांडवों का भाई होता, एक साल के महीनों का इवन डिस्ट्रिब्यूशन हो जाता (2-2 महीने हर पति के साथ)। क्या यह एक विवाहित नारी को चरित्रहीन चित्रित करने का प्रयास नहीं है। विवाहित का परपुरुष या परनारी की प्रशंसा करना एक बात है और उसकी पति/पत्नी के रूप में आकांक्षा; पाप।

जब यह (या कोई भी) किताब पहली बार ही छपी थी तो किसी ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? कदाचित यह सोचकर नहीं किया कि छोड़ो, इसका विरोध करने से तो इस किताब का प्रचार ही होगा। और देखिए, बिना विरोध के भी वह किताब खूब प्रचारित हुई।

होता भी है प्रचार तो होने दीजिए न। पर प्रचण्ड विरोध से यह तो होगा कि कोई अगला लेखक ऐसा कुछ अनर्गल लिखने से पहले बीस बार सोचेगा। जिन्हें गन्दगी में ही रस मिलता है वे तो जैसे-तैसे मुँह मारेंगे ही, पर जो अनजान हैं, जो कुछ अच्छा, सकारात्मक, सात्विक पढ़ना चाहते हैं उन्हें तो पता चल जाएगा कि फलां-फलां किताब में बकवास लिखा है, और वो उन किताबों से बचेंगे।

कुछ दशक पहले की फिल्मों को याद कीजिये, जिसमें ठाकुर अत्याचारी, ब्राह्मण कपटी और लाला चोर दिखाया जाता था और दर्शक वर्ग ने जो दिखाया गया उसे जस का तस मान लिया। समाज को बांटने में इन फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। जब यह सब हो रहा था तो हम और आप चुप थे। आज देखिए हाल।

ऐसी किताबों ने बहुत मानसिक प्रदूषण फैलाया है। इसी वजह से कोई दुर्गा को अपशब्द बोल देता है और महिषासुर की पूजा होने लगती है। आज देश की तकरीबन आधी आबादी खुद को मूल निवासी बता कर बाकी आधों को देश से भगाने की बात करती है। क्यों? कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है, पर चूंकि कुछ लेखकों ने गप्प लिख दी तो वही प्रमाण हो गया।

यह सूक्ति वाक्य जैसा बहुत सुनाई देता है कि क्या पढ़ें से ज्यादा जरूरी है कि क्या न पढ़ें। पर 'क्या न पढ़ें' यह कोई तो बताएगा? उसके लिए उसे पढ़ना तो पड़ेगा? और जब वो यह काम करना चाहता है तो क्यों उसे यह कह कर चुप करा दिया जाता है कि ऐसा मत करो, यह नकारात्मक ही सही, है तो प्रचार ही।

आज गलत का विरोध नहीं करेंगे तो कल चारों ओर बस गलत ही गलत दिखेगा और हम यूहीं हाथ मलते रह जाएंगे। गलत का पुरजोर विरोध कीजिये और जो कर रहे हैं उन्हें करने दीजिए।

बाकी,
मस्त रहें, मर्यादित रहे, महादेव सबका भला करें।
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अजीत
22मार्च 18

आंनद नीलकण्ठन की महाभारत: एक सुनियोजित षड्यंत्र

#महाभारत

'महाभारत' मेरा प्रिय विषय है। एक से बढ़कर एक पात्र, उनके विशिष्ट चरित्र अपने आप में शोध का विषय हैं। मुझे महाभारत सम्बंधित जो भी मिलता है उसे पढ़ लेना चाहता हूँ। महाभारत पढ़ने की लालसा कभी खत्म नहीं होती।

#आनन्द_नीलकण्ठन' से मेरा परिचय उनकी पहली किताब Asura:Tale of the Vanquished: The Story of Ravana and His People (हिंदी अनुवाद: असुर : पराजितों की गाथा, रावण व उसकी प्रजा की कहानी) से हुआ था। आनन्द पराजितों की कथा लिखते हैं, और इतनी बेहतरीन लिखते हैं कि रावण जैसे खल चरित्रों को बिलकुल देवता दिखा देते हैं। एक उदाहरण देखिए कि रावण ने सीता का अपहरण इसलिए किया कि सीता उनकी बेटी थी और बेटी को जंगल में तकलीफ न हो, इसलिए उसे उठाकर लंका ले आया। सीता की अग्नि परीक्षा के समय वे अग्नि में कूदते समय अपने पिता रावण को याद करती हैं।

आनन्द की दूसरी किताब महाभारत पर है और दो भागों में है। पहली Ajaya: Roll of the Dice (अजय: पांसों का खेल) और दूसरी Ajaya: Rise of Kali (अजय: कली का उदय)।

महाभारत में आपने जो भी अच्छा पढ़ा होगा, यहाँ उसका सब उल्टा मिलेगा, और जो भी बुरा पढ़ा होगा उसका और अधिक बुरा रूप देखने को मिलेगा।

कथा की शुरुआत गांधार पर भीष्म के आक्रमण से होती है। वे धृतराष्ट्र के लिए गांधारी का हरण करने आये हैं और 'परम्परानुसार' सभी मर्दों की हत्या कर देते हैं। पर उन्हें पलंग के नीचे छुपे 5 वर्ष के राजकुमार शकुनि पर दया आ जाती है और वे उसे हस्तिनापुर ले आते हैं और अपने बेटे की तरह उसका लालन पालन करते हैं। ऐसा आनन्द ही लिख सकते हैं। भीष्म-शकुनि की नहीं, विजेता द्वारा विजितों की हत्या की बात कर रहा हूँ। ज्ञात इतिहास में इस किताब से पहले कभी नहीं पढ़ा था कि किसी भारतीय हिन्दू राजा ने युद्ध जीतने के बाद नगर की प्रजा की हत्या और लूटमार की हो।

इस प्रसंग के बाद उन्होंने भीष्म को बख्श दिया है। भीष्म ऐसे व्यक्ति हैं जो समाज में फैले जातिवाद से नफरत करते हैं और उन्होंने एक शूद्र #विदुर को अपना प्रधानमंत्री बनाया है। वे विदुर के साथ मिलकर बिना जाति का विचार किये राज कार्य करना चाहते हैं, परन्तु दक्षिण भारत के राजाओं पर प्रभाव रखने वाले घनघोर जातिवादी मानसिकता वाले #परशुराम से हुए एक युद्ध में, उन्हें एक संधि करनी पड़ी जिसके अनुसार उन्हें देश में पुरोहित वर्ग के वर्चस्व को स्वीकार करना पड़ा। दूसरे शब्दों में ब्राह्मणों के अनैतिक जातिवादी सोच को पनपने की छूट देनी पड़ी।

विदुर प्रधानमंत्री होते हुए भी शूद्र हैं और इस बात पर कोई भी कभी भी उनका मजाक बना देता है। जातिवादी द्रोण तो इतने दुष्ट हैं कि विदुर का सबके सामने ही अपमान कर देते हैं। वे राजकुमारों की शिक्षा के लिए नियुक्त हैं और दुर्योधन से इसलिए नफरत करते हैं कि वह छोटी जातियों के लोगों से घुलता मिलता है और हृदय से एक कोमल भावनाओं वाला कवि जैसा है। जब तब उसे 'अंधे का बेटा' होने का ताना देकर दुर्योधन की सुकोमल भावनाओं का मजाक बनाते हैं।

शकुनि एक देशभक्त गांधारवासी व्यक्ति है जो अपने गांधार का बदला लेने के लिए पूरे भारत देश को तबाह कर देना चाहता है। वो कुटिल चालें चलता है और इसके लिए पश्चिम दिशा में मुँह करके प्रार्थना करता है। कुछ पन्नों बाद वह प्रार्थना की जगह नमाज पढ़ने लगता है, कुछ पन्नों बाद उसका ईश्वर खुदा हो जाता है। लोग उसे म्लेच्छ कहते हैं। मतलब कि लेखक ने धीरे-धीरे ही सही, शकुनि को एक मुसलमान के रूप में चित्रित किया है।

कुंती शक्तिशाल महिला है, वे दरबार में अत्यधिक प्रभाव रखती हैं। उसका कारण है ब्राह्मण वर्ग। दरअसल दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। कुंती ब्राह्मणों की सभी जायज-नाजायज बातों का समर्थन करती हैं और बदले में ब्राह्मण उनके पर-पुरुषों से पैदा हुए बच्चों को पाण्डुपुत्रों के रूप में माम्यता देते हैं। एक जगह तो इन्होंने लिखा है कि इंद्र विपन्नावस्था में हैं और जब उन्हें पैसों के बदले कुंती को पुत्र प्राप्ति हेतु कुछ सप्ताह साथ रहने का प्रस्ताव दिया जाता है तो वे बड़े खुश होते हैं।

युधिष्ठिर धर्म का दिखावा करने में बहुत कुशल है और बचपन में जब तब मौका देखकर दुर्योधन को पीट देता था। एक प्रमुख पात्र एकलव्य है जो जंगल जंगल अपने काकी और उसके पाँच बच्चों के साथ भटक रहा है। एकलव्य शूद्रों में भी शूद्र निषाद जाती का है। अंगूठे वाली कथा समान ही है पर यहाँ अर्जुन खुश होता है और दुर्योधन को बहुत बुरा लगता है।

एकलव्य निराशा में भंगी का काम करने लगता है और मैला ढोता है। मतलब लेखक के अनुसार भंगी और मैला ढोने की प्रथा उस समय भी थी। कर्ण को जब दुर्योधन राजा बना देता है तो एकलव्य को प्रेरणा मिलती है और वह फिर से अपनी प्रैक्टिस शुरू कर देता है। इससे वह अपनी काकी और उनके पाँच बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाता। काकी और उसके बच्चे एकलव्य को छोड़कर नए बन रहे शहर वारणावर्त आ जाते हैं। वहाँ कुंती और युधिष्ठिर उन्हें अपने महल में बुलाकर नींद की दवाईयां मिला भोजन करवाते हैं और उनके सो जाने पर महल में आग लगाकर निकल जाते हैं। आग लगाने से पहले जब अर्जुन इस अमानवीय कार्य का विरोध करते हैं तो युधिष्ठिर उन्हें समझाते हैं कि वे सभी धर्म के लिए मर रहे हैं और इस कारण वे अगले जन्म में ऊँची जाति में पैदा होंगे। इस बहस के दौरान भीम उकता कर नकुल-सहदेव के पास चले जाते हैं जो शराब और जवान लड़कियों की बातें कर रहे होते हैं।

इन कुटिल योजनाओं में दुर्योधन का कोई रोल नहीं है। भीम को जहर देकर डुबाने की योजना शकुनि की थी, पर वहां भी वो भीम को बस कुछ दिनों के लिए गायब करना चाहता है, जिससे लोगों को लगे कि दुर्योधन ने ऐसा कुछ किया और पाण्डवों-कौरवों में बैर बढ़े। लाक्षागृह भी शकुनि की योजना थी, कि पाण्डवों का महल तो जले पर वे साफ बचकर निकल जाए और शक दुर्योधन पर हो। पांडव बचकर निकल जाते हैं और कुछ दिनों बाद द्रौपदी को जीत लेते हैं। यहाँ विशेष यह है कि द्रौपदी कर्ण की सुंदरता और वीरता पर मोहित है पर कृष्ण के दबाव में वह कर्ण को सूतपुत्र बोलकर खारिज कर देती है। बहुत बाद में भीम याद करता है कि जब वह और द्रौपदी प्रेम कर रहे होते हैं तो द्रौपदी अक्सर ही कर्ण का नाम फुसफुसाती है। युद्ध बाद हिमालय की किसी खाई में गिरकर मरने से पहले भी द्रौपदी कर्ण का नाम पुकारती है।

यहाँ सुभद्रा भी है। सुभद्रा यौवन के प्राथमिक चरण में दुर्योधन की प्रेमिका है और वे हाथों में हाथ डाले घण्टों घूमते हैं, चुम्बन लेते हैं और साथ जीने मरने की कसमें खाते हैं। कुछ समय बाद जब द्रोण शिष्यों की परीक्षा के समय दुर्योधन कर्ण का साथ देता है तो यह सुभद्रा को अर्जुन का अपमान लगता है। वह अर्जुन की तरफ आकर्षित हो जाती है और बाद में शादी कर लेती है।

कथा में दुर्योधन और अर्जुन इत्यादी के बच्चे भी हैं। दुर्योधन के बच्चे हैं लक्ष्मण और लक्ष्मणा। अर्जुन का बेटा है अभिमन्यु, जिससे उसके काका दुर्योधन बहुत प्रेम करते हैं। लक्ष्मण कवि हृदय है और क्षत्रियोचित व्यवहार नहीं करता। अभिमन्यु उसकी खिल्ली उड़ाता रहता है। लक्ष्मणा बहुत ही सुंदर युवती है और उसके पिता का मित्र, एकलव्य उसे अपनी पुत्री मानता है। एकलव्य को दुर्योधन ने वन प्रान्त का राजा बना दिया था। अपनी बहन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करवाने में असफल रहे बलराम, अब अपनी पुत्री वत्सला का विवाह दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण से करवाना चाहते हैं। वत्सला ने पहले तो कोई ऐतराज नहीं किया, पर वो अभिमन्यु को चाहती है। दोनों कृष्ण के पास मदद मांगने जाते हैं। कृष्ण भीम के पुत्र घटोत्कच को एक काम सौंपते हैं। वह लक्ष्मण के कमरे में घुसकर लक्ष्मण को पकड़ लेता है और तभी बलराम उन्हें उनकी "आपत्तिजनक" अवस्था में देख लेते हैं। शादी टूट जाती है और बाद में वत्सला की शादी अभिमन्यु से कर दी जाती है। उत्तरा से शादी के बाद अभिमन्यु वत्सला को भूल जाता है।

यहाँ कृष्ण और आदिवासी रीक्ष जाति की जामवंती का बेटा सांब भी है जो लम्पट और निरंकुश है। एक उत्सव में दुर्योधन की लड़की लक्ष्मणा के साथ अभद्रता कर देता है। बाद में हस्तिनापुर से उसका अपहरण कर बलात्कार करता है और जंगल में यूहीं छोड़कर चला जाता है। लक्ष्मणा को कर्ण वापस लाता है और एकलव्य सांब को पकड़ने द्वारिका जाता है और लाकर हस्तिनापुर की कालकोठरी में बंद कर देता है। तय होता है कि सांब और लक्ष्मणा की शादी कर दी जाए। शकुनि एकलव्य को भड़काता है और उधर कृष्ण को भी सूचित कर देता है। एकलव्य जेल में घुसकर सांब को जान से मारने के लिए उसका गला दबाता है, तभी कृष्ण पहुंचते हैं और छुड़ाने की कोशिश में असफल होने पर एकलव्य के सर में पत्थर मार-मार कर उसे मार देते हैं। यह हत्या छुपा ली जाती है और आगे सांब इसी बात पर कृष्ण को ब्लैकमेल करता है।

युद्ध शुरू होने से पहले बलराम और कृष्ण में भारी बहस होती है, जहां बलराम कृष्ण के तर्कों (गीता के श्लोक) का तार्किक विरोध करते है और कृष्ण बेवकूफ जैसे लगते हैं। अंततः किसी से यह कहते हुए कि किसी और जन्म में अहिंसा का प्रचार-प्रसार करने वे फिर से आएंगे, अहिंसा के पुजारी द्वारिकाधीश (वर्तमान गुजरात) बलराम अपनी परित्यक्ता बेटी वत्सला और सांब की परित्यक्ता बीवी लक्ष्मणा के कंधों पर हाथ रखे महल से निकल जाते हैं। कृष्ण की सेना दुर्योधन से मिल जाती है क्योंकि उनके अनुसार धर्म दुर्योधन के साथ है। युद्ध में पांडव सारे अधर्म करते हैं और दुर्योधन धर्म पर टिका रहता है।

भीम-पुत्र घटोत्कच और अर्जुन-पुत्र इरावान राक्षस और नाग कन्याओं के पुत्र हैं, इसलिए अछूत हैं। वे अपने पिताओं के सामने खुद को साबित करना चाहते हैं और एकलव्य से शिक्षा पाते हैं। लोग क्या कहेंगे कि भीम एक अछूत को अपना बेटा मान रहा है, यह सोचकर वे उससे कभी बात नहीं करते, पर घटोत्कच के मरने पर खूब रोते हैं।

इरावान के लिए लेखक ने बहुत ही विचित्र बात लिखी है। मूल महाभारत में इरावान युद्ध में भाग लेता है और असुर अलम्बुष से युद्ध करते हुए मारा जाता है। पर यहां! यहां पाण्डवों के पुरोहित और ब्राह्मण समाज के मुखिया मुनि धौम्य युद्ध से पहले ही इरावान को बलि चढ़ा देते हैं। और जब कृष्ण गुस्से में इसका विरोध करना चाहते हैं तो धौम्य 'एकलव्य की हत्या' याद दिलाकर ब्लैकमेल करते हैं। इरावान के सर को एक खंबे पर लगा दिया जाता हैं।
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और भी बहुत कुछ लिखा है लेखक ने। लेखक ने आज के (निकट भूतकाल के) परिदृश्य को महाभारत में पिरो दिया है। कई जगह वे बहुत प्रभावित भी करते हैं। पर उनका एकतरफा लेखन चिढ़ पैदा करता है। मूल महाभारत से बस शकुनी और भीष्म का चरित्र मिलता है। दोनों जगहों पर शकुनि दुष्ट है और भीष्म विवश बुजुर्ग।
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उपसंहार में लेखक यह निवेदन करते हैं कि सबको मूल महाभारत पढ़नी चाहिए, और उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए। निश्चित ही ऐसा किया जाना चाहिए, पर यह लिखकर लेखक अपनी महाभारत 'अजय' को एक तरह से जेनुइन बताने की कोशिश करते हैं। जबकि तमाम बातें मूल महाभारत से बिलकुल ही जुदा हैं। सबसे अजब बात तो शकुनि का नमाज पढ़ना और खुदा से दुआ मांगना है। यदि महाभारत को कुछ विद्वानों के अनुसार 3 से 5000 वर्ष पुराना भी माने तो उस समय तक भी इस्लाम का तो कहीं कोई जिक्र ही नहीं था। द्रौपदी और सुभद्रा का पर-पुरुषों को याद करना, कुंती का पैसे देकर गर्भ धारण करना, मेले वगैरह में छिछोरों द्वारा की जाने वाली बदतमीजी को सांब पर आरोपित करना, बलराम और जरासंध का मित्र होना, परशुराम का शूद्र समाज का इतना विरोधी होना, यह सब कहाँ लिखा है महाभारत में? कृष्ण द्वारा एकलव्य का वध है, पर वह एक युद्ध में किया जाने वाला कर्म है। यहाँ तो कृष्ण भगवान बनने की साजिश करते और लोगों द्वारा ब्लैकमेल होते दिखाए गए हैं।

पता नहीं उन्होंने महाभारत खुद भी ध्यान से पढ़ी या नहीं। क्योंकि महाभारत शुरू ही होती है 'सूत जी महाराज' के कथा सुनाने से। सूत जी महाराज खुद सूत हैं जिनके आसन के नीचे सारा ऋषि समाज हाथ जोड़कर कथा सुनने के लिए बैठा है। वे कहते हैं कि वेद व्यास अपनी रचना को लिखने के लिए लिपिक के तौर पर ब्रह्मा से गणेश की मांग करते हैं। माताओं के नाग और राक्षस होने से क्षत्रियों के पुत्रों को भी अछूत चित्रित करने वाले लेखक ध्यान नहीं देते कि महाभारत के रचयिता खुद उसी निषाद जाति की स्त्री के बेटे हैं जिस जाति का एकलव्य है।
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आनन्द नीलकण्ठन की नवीनतम किताब 'बाहुबली: शिवगामी' वास्तव में बहुत बढ़िया किताब है। इसकी समीक्षा बड़े भाई अरुण ने की है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए। किताब की प्रस्तावना में लेखक कहते हैं कि बाहुबली के निर्देशक राजामौली उनकी #असुरा से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने उन्हें बाहुबली मूवी से पहले की कथा लिखने के लिए प्रेरित किया।

सुना है कि राजामौली महाभारत पर फ़िल्म बनाने वाले हैं। यदि वे आनन्द नीलकण्ठन से आगे भी इतने ही प्रभावित रहते हैं तो भूल जाइए "पद्मावत" का विरोध। महाभारत का महाविरोध देखेंगे आप सन 2020 में।

बाकी,
मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।
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अजीत
18 मार्च 18