यहाँ कई बार आपने देखा होगा कि मुझ जैसे कुछ लोग कभी-कभी यह सवाल पूछते हैं कि "कुछ किताबों के नाम बताइये"।
इन सुझाई गई किताबों में कई किताबें आचार्य चतुरसेन की होती हैं, आनन्द नीलकण्ठन की होती हैं, राहुल सांकृत्यायन की होती हैं। मजे की बात यह भी हैं कि सलाह देने वाले अधिकांश मित्रों ने ये किताबें पढ़ी नहीं होती, बस तारीफ सुनी होती हैं और यह मानकर कि इन फेमस लेखकों की किताबें तो अच्छी होंगी ही, सुझाव दे देते हैं।
सुझाव देने वालों की गलती नहीं बता रहा। वे तो सुझाव देकर मदद ही कर रहे होते हैं। ये भी पक्का है कि यदि उन्हें इन किताबों में लिखे कंटेंट की जानकारी होती तो वे यह जानते हुए कि पूछने वाला किस विचारधारा का है, इन नामों को नहीं बताते।
कुछ प्रसिद्ध अथवा अच्छी किताबों को पढ़कर उनके बारे में यहां बताता रहा हूँ। यहीं आपको काफी लोग मिल जाएंगे जिन्होंने मेरी लिखी कुछ पोस्ट्स पढ़कर नरेंद्र कोहली की महासमर और अभ्युदय तथा कन्हैय्यालाल माणिकलाल मुंशी जी की कृष्णावतार खरीदी/पढ़ी।
कुछ ऐसी किताबों के बारे में भी लिखा जो एक धार्मिक हिन्दू होने के नाते मुझे बहुत ज्यादा बुरी लगीं। आचार्य चतुरसेन और आनन्द नीलकण्ठन की किताबें उनमें प्रमुख हैं।
मुझे यह समझ नहीं आता कि यदि कोई इन किताबों को पढ़कर उनके विरोध में कुछ लिख रहा है तो यह उन किताबों का प्रचार कैसे हो सकता है! ये किताबें तो पहले से ही बेस्ट सेलर्स हैं और पहले ही सैकड़ों लोगों द्वारा पढ़ी जा चुकी हैं। उनमें से कुछ को ये वास्तव में पसन्द आई होंगी और उन्होंने आगे उसे रेकमेंड किया होगा।
अधिकांश लोग सजते और फबते से शीर्षक देखकर या ऑनलाइन साइट्स पर इंग्लिश में लिखे ढेरों रिव्यू की संख्या देखकर किताबें खरीदते हैं। पढ़ते हैं और निराश होते हैं। इससे भी बुरा कि वे उनमें लिखी बातों को सच मानते हैं। जैसे चतुरसेन लिखते हैं कि यज्ञ के दौरान सभी ऋषि दारू पीते हैं और दासियों संग मस्ती करते हैं। यकीनन उनके शब्द आलंकारिक होते हैं पर मतलब यही है। आनन्द लिखते हैं कि ब्राह्मण अनीश्वरवादी चार्वाक को जिंदा जला देते हैं, अर्जुन के पुत्र, नागवंशी और तथाकथित शूद्र इरावान को बलि चढ़ा देते हैं और कृष्ण मौन समर्थन देते हैं, राम विद्वान शम्बूक की हत्या कर देते हैं।
ये सब बातें जिस ढंग से प्रस्तुत की जाती हैं उनसे पाठक के मस्तिष्क में बैठ जाता है कि सनातन के इतिहास में यही सब गन्दगी भरी पड़ी है। यहां गुरु के पद पर आसीन ऋषि-समाज को भ्रष्ट बताया जाता है और भगवान माने जाने वाले राम/कृष्ण अन्यायी।
शिवाजी सावंत का नाम सबने सुना होगा। इनकी प्रसिद्ध किताब को 'मूर्तिदेवी' सहित दर्जनों राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हैं। 1974 में पहले और 2017 में छियालिसवें संस्करण के साथ इस किताब को आज तक लाखों लोगों ने पढ़ा (विविध भाषाओं में)। कर्ण पर आधारित है यह उपन्यास। इसमें कर्ण की इतनी तारीफ लिखी है कि जैसे उससे बड़ा धर्मात्मा कोई हुआ ही नहीं, जबकि मूल महाभारत में यह एक विलेन ही है बस। केवल मित्रता किसी को कैसे महान बना सकती हैं? कल को हाफिज सईद किसी की मदद करें और मदद पाने वाला हमेशा हाफिज सईद का साथ दें तो वह महान हो जाएगा क्या? सावंत जी लिखते हैं कि द्रौपदी कर्ण पर मोहित है और अपनी एक सखी से कहती है कि सखी, कितना अच्छा होता जो कर्ण भी पांडवों का भाई होता, एक साल के महीनों का इवन डिस्ट्रिब्यूशन हो जाता (2-2 महीने हर पति के साथ)। क्या यह एक विवाहित नारी को चरित्रहीन चित्रित करने का प्रयास नहीं है। विवाहित का परपुरुष या परनारी की प्रशंसा करना एक बात है और उसकी पति/पत्नी के रूप में आकांक्षा; पाप।
जब यह (या कोई भी) किताब पहली बार ही छपी थी तो किसी ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? कदाचित यह सोचकर नहीं किया कि छोड़ो, इसका विरोध करने से तो इस किताब का प्रचार ही होगा। और देखिए, बिना विरोध के भी वह किताब खूब प्रचारित हुई।
होता भी है प्रचार तो होने दीजिए न। पर प्रचण्ड विरोध से यह तो होगा कि कोई अगला लेखक ऐसा कुछ अनर्गल लिखने से पहले बीस बार सोचेगा। जिन्हें गन्दगी में ही रस मिलता है वे तो जैसे-तैसे मुँह मारेंगे ही, पर जो अनजान हैं, जो कुछ अच्छा, सकारात्मक, सात्विक पढ़ना चाहते हैं उन्हें तो पता चल जाएगा कि फलां-फलां किताब में बकवास लिखा है, और वो उन किताबों से बचेंगे।
कुछ दशक पहले की फिल्मों को याद कीजिये, जिसमें ठाकुर अत्याचारी, ब्राह्मण कपटी और लाला चोर दिखाया जाता था और दर्शक वर्ग ने जो दिखाया गया उसे जस का तस मान लिया। समाज को बांटने में इन फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। जब यह सब हो रहा था तो हम और आप चुप थे। आज देखिए हाल।
ऐसी किताबों ने बहुत मानसिक प्रदूषण फैलाया है। इसी वजह से कोई दुर्गा को अपशब्द बोल देता है और महिषासुर की पूजा होने लगती है। आज देश की तकरीबन आधी आबादी खुद को मूल निवासी बता कर बाकी आधों को देश से भगाने की बात करती है। क्यों? कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है, पर चूंकि कुछ लेखकों ने गप्प लिख दी तो वही प्रमाण हो गया।
यह सूक्ति वाक्य जैसा बहुत सुनाई देता है कि क्या पढ़ें से ज्यादा जरूरी है कि क्या न पढ़ें। पर 'क्या न पढ़ें' यह कोई तो बताएगा? उसके लिए उसे पढ़ना तो पड़ेगा? और जब वो यह काम करना चाहता है तो क्यों उसे यह कह कर चुप करा दिया जाता है कि ऐसा मत करो, यह नकारात्मक ही सही, है तो प्रचार ही।
आज गलत का विरोध नहीं करेंगे तो कल चारों ओर बस गलत ही गलत दिखेगा और हम यूहीं हाथ मलते रह जाएंगे। गलत का पुरजोर विरोध कीजिये और जो कर रहे हैं उन्हें करने दीजिए।
बाकी,
मस्त रहें, मर्यादित रहे, महादेव सबका भला करें।
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अजीत
22मार्च 18
इन सुझाई गई किताबों में कई किताबें आचार्य चतुरसेन की होती हैं, आनन्द नीलकण्ठन की होती हैं, राहुल सांकृत्यायन की होती हैं। मजे की बात यह भी हैं कि सलाह देने वाले अधिकांश मित्रों ने ये किताबें पढ़ी नहीं होती, बस तारीफ सुनी होती हैं और यह मानकर कि इन फेमस लेखकों की किताबें तो अच्छी होंगी ही, सुझाव दे देते हैं।
सुझाव देने वालों की गलती नहीं बता रहा। वे तो सुझाव देकर मदद ही कर रहे होते हैं। ये भी पक्का है कि यदि उन्हें इन किताबों में लिखे कंटेंट की जानकारी होती तो वे यह जानते हुए कि पूछने वाला किस विचारधारा का है, इन नामों को नहीं बताते।
कुछ प्रसिद्ध अथवा अच्छी किताबों को पढ़कर उनके बारे में यहां बताता रहा हूँ। यहीं आपको काफी लोग मिल जाएंगे जिन्होंने मेरी लिखी कुछ पोस्ट्स पढ़कर नरेंद्र कोहली की महासमर और अभ्युदय तथा कन्हैय्यालाल माणिकलाल मुंशी जी की कृष्णावतार खरीदी/पढ़ी।
कुछ ऐसी किताबों के बारे में भी लिखा जो एक धार्मिक हिन्दू होने के नाते मुझे बहुत ज्यादा बुरी लगीं। आचार्य चतुरसेन और आनन्द नीलकण्ठन की किताबें उनमें प्रमुख हैं।
मुझे यह समझ नहीं आता कि यदि कोई इन किताबों को पढ़कर उनके विरोध में कुछ लिख रहा है तो यह उन किताबों का प्रचार कैसे हो सकता है! ये किताबें तो पहले से ही बेस्ट सेलर्स हैं और पहले ही सैकड़ों लोगों द्वारा पढ़ी जा चुकी हैं। उनमें से कुछ को ये वास्तव में पसन्द आई होंगी और उन्होंने आगे उसे रेकमेंड किया होगा।
अधिकांश लोग सजते और फबते से शीर्षक देखकर या ऑनलाइन साइट्स पर इंग्लिश में लिखे ढेरों रिव्यू की संख्या देखकर किताबें खरीदते हैं। पढ़ते हैं और निराश होते हैं। इससे भी बुरा कि वे उनमें लिखी बातों को सच मानते हैं। जैसे चतुरसेन लिखते हैं कि यज्ञ के दौरान सभी ऋषि दारू पीते हैं और दासियों संग मस्ती करते हैं। यकीनन उनके शब्द आलंकारिक होते हैं पर मतलब यही है। आनन्द लिखते हैं कि ब्राह्मण अनीश्वरवादी चार्वाक को जिंदा जला देते हैं, अर्जुन के पुत्र, नागवंशी और तथाकथित शूद्र इरावान को बलि चढ़ा देते हैं और कृष्ण मौन समर्थन देते हैं, राम विद्वान शम्बूक की हत्या कर देते हैं।
ये सब बातें जिस ढंग से प्रस्तुत की जाती हैं उनसे पाठक के मस्तिष्क में बैठ जाता है कि सनातन के इतिहास में यही सब गन्दगी भरी पड़ी है। यहां गुरु के पद पर आसीन ऋषि-समाज को भ्रष्ट बताया जाता है और भगवान माने जाने वाले राम/कृष्ण अन्यायी।
शिवाजी सावंत का नाम सबने सुना होगा। इनकी प्रसिद्ध किताब को 'मूर्तिदेवी' सहित दर्जनों राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हैं। 1974 में पहले और 2017 में छियालिसवें संस्करण के साथ इस किताब को आज तक लाखों लोगों ने पढ़ा (विविध भाषाओं में)। कर्ण पर आधारित है यह उपन्यास। इसमें कर्ण की इतनी तारीफ लिखी है कि जैसे उससे बड़ा धर्मात्मा कोई हुआ ही नहीं, जबकि मूल महाभारत में यह एक विलेन ही है बस। केवल मित्रता किसी को कैसे महान बना सकती हैं? कल को हाफिज सईद किसी की मदद करें और मदद पाने वाला हमेशा हाफिज सईद का साथ दें तो वह महान हो जाएगा क्या? सावंत जी लिखते हैं कि द्रौपदी कर्ण पर मोहित है और अपनी एक सखी से कहती है कि सखी, कितना अच्छा होता जो कर्ण भी पांडवों का भाई होता, एक साल के महीनों का इवन डिस्ट्रिब्यूशन हो जाता (2-2 महीने हर पति के साथ)। क्या यह एक विवाहित नारी को चरित्रहीन चित्रित करने का प्रयास नहीं है। विवाहित का परपुरुष या परनारी की प्रशंसा करना एक बात है और उसकी पति/पत्नी के रूप में आकांक्षा; पाप।
जब यह (या कोई भी) किताब पहली बार ही छपी थी तो किसी ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? कदाचित यह सोचकर नहीं किया कि छोड़ो, इसका विरोध करने से तो इस किताब का प्रचार ही होगा। और देखिए, बिना विरोध के भी वह किताब खूब प्रचारित हुई।
होता भी है प्रचार तो होने दीजिए न। पर प्रचण्ड विरोध से यह तो होगा कि कोई अगला लेखक ऐसा कुछ अनर्गल लिखने से पहले बीस बार सोचेगा। जिन्हें गन्दगी में ही रस मिलता है वे तो जैसे-तैसे मुँह मारेंगे ही, पर जो अनजान हैं, जो कुछ अच्छा, सकारात्मक, सात्विक पढ़ना चाहते हैं उन्हें तो पता चल जाएगा कि फलां-फलां किताब में बकवास लिखा है, और वो उन किताबों से बचेंगे।
कुछ दशक पहले की फिल्मों को याद कीजिये, जिसमें ठाकुर अत्याचारी, ब्राह्मण कपटी और लाला चोर दिखाया जाता था और दर्शक वर्ग ने जो दिखाया गया उसे जस का तस मान लिया। समाज को बांटने में इन फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। जब यह सब हो रहा था तो हम और आप चुप थे। आज देखिए हाल।
ऐसी किताबों ने बहुत मानसिक प्रदूषण फैलाया है। इसी वजह से कोई दुर्गा को अपशब्द बोल देता है और महिषासुर की पूजा होने लगती है। आज देश की तकरीबन आधी आबादी खुद को मूल निवासी बता कर बाकी आधों को देश से भगाने की बात करती है। क्यों? कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है, पर चूंकि कुछ लेखकों ने गप्प लिख दी तो वही प्रमाण हो गया।
यह सूक्ति वाक्य जैसा बहुत सुनाई देता है कि क्या पढ़ें से ज्यादा जरूरी है कि क्या न पढ़ें। पर 'क्या न पढ़ें' यह कोई तो बताएगा? उसके लिए उसे पढ़ना तो पड़ेगा? और जब वो यह काम करना चाहता है तो क्यों उसे यह कह कर चुप करा दिया जाता है कि ऐसा मत करो, यह नकारात्मक ही सही, है तो प्रचार ही।
आज गलत का विरोध नहीं करेंगे तो कल चारों ओर बस गलत ही गलत दिखेगा और हम यूहीं हाथ मलते रह जाएंगे। गलत का पुरजोर विरोध कीजिये और जो कर रहे हैं उन्हें करने दीजिए।
बाकी,
मस्त रहें, मर्यादित रहे, महादेव सबका भला करें।
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अजीत
22मार्च 18