भानुमति_14
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प्रधानमंत्री विदुर धीर-गम्भीर व्यक्ति थे परंतु आज उनका उत्साह देखते ही बन रहा था। राजकर्मचारियों, सेवक-सेविकाओं को आश्चर्यचकित करते हुए वृद्ध विदुर बालकों की तरह उछल-उछल कर माता सत्यवती के कक्ष की ओर भागे जा रहे थे, फिर जाने क्या सोचकर महामहिम भीष्म की ओर चल दिये। अभी आधे रास्ते भी नहीं गए थे कि फिर महाराज धृतराष्ट्र की ओर मुड़ गए। महाराज अपने महल के संगीत कक्ष में संगीत में डूबे हुए थे तभी विदुर की चहकती हुई आवाज ने उन्हें चौंका दिया, "महाराज, महाराज, बधाई हो महाराज"।
"कौन? विदुर! क्या हुआ?"
"महाराज, कुरुओं के पीढ़ियों से शत्रु, पांचाल हमारे मित्र हुए। हमारे राजपरिवार सम्बंधी हुए।"
चेहरे पर अथाह प्रशंसा लिए धृतराष्ट्र बोले, "विदुर, पहेलियां मत बुझाओ, साफ बताओ, क्या हुआ?"
"महाराज, मेरे भतीजों ने स्वयंवर में अपना पराक्रम दिखाया। एक कुरुवंशी ने अचूक लक्ष्यवेध किया। पांचालराज याज्ञसेन द्रुपद की पुत्री द्रौपदी हस्तिनापुर की बहू हुई महाराज।"
"अहोभाग्य विदुर, अहोभाग्य। तुमने बहुत शुभ समाचार दिया। दुंदुभी पिटवाओ, प्रजाजनों को करों में छूट दो, नगरजनों से कहो कि वे अपने घरों को नए रंगों और विभिन्न चित्रकारियों से रंग दें, फूल मालाओं से सजा दें। जो असमर्थ हों उन्हें राजकीय सहायता दो। आज इसी प्रहर से वर वधु के आने तक अन्न भंडार और राजकीय पाकशाला आमजनों के लिए खोल दो। अच्छा ये तो बताओ विदुर, मेरे किस पुत्र ने स्वयंवर जीता? तुमने कहा कि लक्ष्यवेधन हुआ, क्या धनुर्विद्या की कसौटी थी? दुर्योधन निपुण धनुर्धर है। क्या दुर्योधन विजयी हुआ, या दुःशासन या युयुत्सु?"
"हाँ महाराज, धनुर्विद्या की कसौटी थी जिसमें एक कुरु-कुमार विजयी हुआ। पर इससे भी अधिक, अत्यधिक प्रसन्नता की बात है कि वो कुमार मेरा भतीजा, आपका भतीजा सव्यसाची अर्जुन है। हाँ महाराज, हमारे भाई पांडु के सभी पुत्र जीवित हैं और उन्होंने द्रौपदी से विवाह किया।"
क्षण भर पहले जो चेहरा प्रसन्नता से दमक रहा था, वह काला पड़ गया, जो आंखें चमक रही थी, पांडवों के सकुशल होने का समाचार सुनते ही बुझ गई। 'पांडव जीवित हैं। कहीं उन्हें यह ज्ञात तो नहीं कि उनकी हत्या करने का षडयंत्र दुर्योधन ने रचा था', यह सोचकर उसके प्राण सूख गए। परन्तु वह एक कुशल राजनीतिज्ञ था, अपनी भावनाएं छुपाना जानता था। पल भर में ही खुद को पुनः व्यवस्थित कर बोला, "अहोभाग्य विदुर, अहोभाग्य। यह तो अत्यंत प्रसन्नता की बात है। अनुज-वधु कुंती भी सकुशल होंगी। अनुज-पुत्र भी तो पुत्र ही हैं। मेरी दी हुए आज्ञाएं पूर्ववत हैं। जाओ, सारी व्यवस्था देखो।" यह सब बोलते समय उसकी वाणी में वह पहले वाला उत्साह नहीं था। कदाचित विदुर यही देखने आए थे। कभी कभी मन इस प्रकार शरारतें करता ही है।
थोड़ा और खिझाने के उद्देश्य से पुनः बोले, "अवश्य महाराज। सभी व्यवस्थाएं मैं स्वयं देख लूंगा। पर उन्हें लाने के लिए भी तो किसी कुरुवृद्ध को जाना चाहिए। मैं अकेले क्या-क्या करूँगा।"
"तो किसी को अपना सहायक रख लो। कृपाचार्य यहीं हैं, संजय को भी अपने साथ रखो। जाओ, जो उचित समझो करो। मुझे विश्राम करने दो।"
विदुर जब कक्ष से निकले तो प्रतिहारियों को पुनः आश्चर्य हुआ। विदुर जैसे वृद्ध को बालिकाओं की तरह अपनी हँसी रोकने के लिए मुँह को हाथ से दबाए जाते देख किसे आश्चर्य नहीं होता।
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फूलों से सजे कक्ष में एक पलंग पर द्रौपदी चुपचाप बैठी हुई अपने आज से पहले के जीवन को स्मरण कर रही थी। उसके पिता ने यज्ञ द्वारा उसे और उसके भाई को एक विशिष्ट कर्तव्य हुए मंत्रों से अभिषिक्त किया। शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा दी। वे द्रोण और उसके संरक्षक कुरु-साम्राज्य से प्रतिशोध लेने के लिए एक ऐसा जमाता चाहते थे जो सर्वश्रेष्ठ वीर हो। इसके लिए उन्होंने द्वारका के श्रीकृष्ण का चयन किया था। यद्यपि श्रीकृष्ण की पहले से ही कई पत्नियां थी, परंतु वही एक वीर थे जो निर्विवादित रूप से सर्वश्रेष्ठ कहे जा सकते थे। द्रौपदी ने अपने मन को समझा लिया था, पर कृष्ण ने उसे स्वीकार नहीं किया। क्या ये उसका अपमान था, कदाचित था पर फिर उन्होंने उसे अपनी सखी माना और उसके लिए स्वयंवर की योजना प्रस्तुत की। अपना सब कुछ दांव पर लगाकर उन्होंने इसे सफल बनाया और चमत्कार सा करते हुए पांडवों को शून्य में से प्रकट कर दिया। क्या कृष्ण वास्तव में चमत्कारी हैं?
'अब वह पांडवों की, पांच पुरुषों की पत्नी है। क्या वह उन सभी को प्रसन्न रख पाएगी?' विवाह के पश्चात पिछले 15 दिनों के मांगलिक कार्यक्रमों के बाद आज उसकी प्रथम मिलन की रात्रि थी। वह ज्येष्ठ पांडव की प्रतीक्षा कर रही थी। द्वार पर हलचल हुई और उसे युधिष्ठिर आते हुए दिखे। उनके चेहरे पर सहज मुस्कान थी। उन्होंने पूछा, "तुम प्रसन्न तो हो पांचाली?"
"हाँ स्वामी।" कुछ दिनों पहले तक जिस पुरुष से उसका कोई सम्बंध नहीं था उसे यूँ स्वामी कहना बहुत अटपटा सा लगा उसे। युधिष्ठिर अपना मुकुट उतारकर उसे रखने का स्थान ढूंढ रहे थे कि द्रौपदी ने आगे बढ़कर मुकुट अपने हाथ में ले लिया। कल तक वह पिता के लिए भी तो ऐसा ही करती आई थी।
वे दोनों चुपचाप पलंग पर बैठ गए। यह भी एक आश्चर्य ही कहा जायेगा कि धर्मचर्चा में कई प्रहर तक लगातार बोलने वाले धर्मराज यहां चुप बैठे थे। अंततः पत्नी के समक्ष धर्मराज भी तो मात्र पति ही थे।
वार्तालाप का प्रथम सूत्र खोजते खोजते युधिष्ठिर को कुछ मिल ही गया, बोले, "अच्छा, तुम्हें पता है आज कौन आये?"
ऐसे अटपटे प्रश्न पर द्रौपदी अचकचा कर बोली, "मुझे तो कुछ भी ज्ञात नहीं स्वामी।"
"अरे, आज काका विदुर आये थे हस्तिनापुर से। वे राजा धृतराष्ट्र का संदेश लाये हैं कि अब हमें हस्तिनापुर चल देना चाहिए।" थोड़ा संकुचित होकर पुनः बोले, "कदाचित मुझे अभिषिक्त सम्राट बनाया जाए, कम से कम पितामह की यही इच्छा है।"
द्रौपदी हर्षातिरेक से भर उठी। विवाह होते ही हस्तिनापुर जैसे समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्य की साम्राज्ञी बनना, ये तो उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। स्वयं को संभालते हुए उसने प्रश्न किया, "आपके काका विदुर कौन हैं?"
"काका विदुर मेरे पिता सम्राट पांडु तथा पितृव्य धृतराष्ट्र के के भाई हैं। क्या तुम्हें ज्ञात है कि महर्षि व्यास हमारे पितामह हैं? परंतु काका विदुर का बस यही एकमात्र परिचय नहीं है। वे धर्मज्ञ हैं, नीतिज्ञ हैं, राजनीति-शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं। वे हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री हैं परंतु महल की अपेक्षा कुटिया में रहते हैं। निःसन्तान हैं, कदाचित इसीलिए वे समस्त प्रजा को अपना पुत्र ही मानते हैं। यदि आज हम भाई जीवित हैं तो ये उन्हीं की कृपा है। मुझे पक्का तो नहीं पता, मुझे ऐसा लगता है कि राज्य की गुप्तचर संस्था के अतिरिक्त उनकी अपनी ही एक गुप्तचर संस्था है।"
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वे पुनः बोले, "द्रौपदी, मैं तुमसे क्षमाप्रार्थी हूँ। मेरे ही कारण ये स्थिति उत्पन्न हुई जो तुम्हें पांच पुरुषों से विवाह करना पड़ा। पर यही उचित था। तुमने यदि महामुनि व्यास के बताए अन्य विकल्पों को स्वीकार किया होता तो हमारा परिवार अटूट नहीं रह पाता।"
"स्वामी, मैंने वही किया जो उचित था। जब मुनि व्यास, वासुदेव कृष्ण और स्वयं आप कोई व्यवस्था दे रहे हैं तो वह उचित ही हो सकता है। स्वामी, मैंने आप लोगों से पूछे बिना एक निश्चय किया है।"
"क्या?"
"कि मैं प्रत्येक पांडव के साथ एक-एक वर्ष का पत्नीव्रत निभाऊंगी। उस विशिष्ट वर्ष मैं केवल एक पांडव की पत्नी बन उनकी सेवा करूंगी। क्या आप और अन्य पांडव इस पर सहमत होंगे?"
"अवश्य द्रौपदी, अवश्य। और यह भी है कि नियम का पालन हेतु, नियम भंग करने वाले के लिए सजा का प्रावधान भी होना चाहिए। तो यदि कोई अन्य पांडव बिना किसी सूचना के पति-पत्नी के कक्ष में प्रवेश करता है तो उसे बारह वर्ष के लिए नगर छोड़कर जाना होगा। मेरे सभी भाई इस हमारे इस निर्णय पर सहमत होंगे।"
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हस्तिनापुर की आज की राजसभा युवराज दुर्योधन ने बुलाई थी। वह अत्यंत क्रोधित दिख रहा था। उसने धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा, "महाराज, पांडव जीवित हैं और उन्हें आपने हस्तिनापुर बुला लिया। वे यहां आकर अव्यवस्था फैलाएंगे। आज जब सब कुछ सकुशल चल रहा है, उनके आने से सब अव्यवस्थित हो जाएगा। वे सम्राट से अपना अनुचित अधिकार मांगेंगे, मंत्रीपद चाहेंगे। युधिष्ठिर तो कदाचित युवराज पद पर ही अपना दावा कर सकता है या आपको ही सिंहासन से उतरने के लिए कहा जा सकता है। महाराज, उनका रक्त भी तो कुरु-रक्त नहीं है।"
अंधा राजा बोला, "तो तुम क्या सलाह देते हो युवराज?"
"उन्हें यहां ना आने दिया जाए। जो राज्य में अव्यवस्था फैलाना चाहते हों, वे शत्रु ही हैं। मैं तो कहता हूं कि सेना सजा कर उन पर आक्रमण कर दिया जाए। उन्हें बन्दी बनाकर कारागार में डाल दे या उनका वध कर दें।"
आचार्य द्रोण बोले, "वध? पांडवों का वध प्रत्यक्ष युद्ध में? युवराज, वे पांडव हैं कोई गाजर मूली नहीं जो तुम खेल-खेल में ही उन्हें काट सको। मत भूलो कि उधर अर्जुन है, अर्जुन। और उसके साथ खड़े हैं भीम, कृष्ण, बलराम, सात्यकि, कृतवर्मा, सारे यादव अतिरथी योद्धा, द्रुपद और उसके साथ सारे सोमवंशी राजा, मत्स्य नरेश विराट, नागराज कर्कोटक, गन्धर्वराज चित्रसेन। हस्तिनापुर का सैन्य-प्रमुख होने के अधिकार से भी मैं ये कहता हूं कि हमारी सेना पांडवों के नेतृत्व वाली पांचाल, यादव, मत्स्य, गन्धर्व तथा नागों की सम्मिलित सेना के समक्ष टिक नहीं सकेगी।"
धृतराष्ट्र बोला, "तो आपका क्या सुझाव है आचार्य द्रोण?"
"राजन, यह सही है कि अभी आप महाराज हैं तथा दुर्योधन युवराज। परंतु आप कार्यकारी राजा हैं। महाराज पांडु के ना होने पर आपको कार्यभार सौंपा गया था, राजा के रूप में आपका अभिषेक नहीं हुआ। परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि पांडवों की अनुपस्थिति में दुर्योधन का युवराज के रूप में अभिषेक हुआ। यद्यपि युधिष्ठिर ने आपके कहने पर यह पद त्याग दिया था पर उसका अधिकार सिद्ध है। उसे युवराज अथवा सम्राट बनना चाहिए। यहां यह भी देखना है कि अधिकार भले उसका हो, आधिपत्य दुर्योधन का है जो इसे किसी भी तरह छोड़ना नहीं चाहता। तो मेरा सुझाव यह है कि राज्य का बंटवारा कर दिया जाए। एक भाग पर आप अथवा दुर्योधन राज करें तथा दूसरे पर युधिष्ठिर का स्वतंत्र राजा के रूप में अभिषेक हो।"
सभा में पल भर के लिए सन्नाटा छा गया, जिसे देवव्रत भीष्म की क्रोधित वाणी ने भंग किया, "आचार्य द्रोण! क्या कहा आपने? बंटवारा! मेरे पूर्वजों की इस भूमि का बंटवारा? आप ऐसा सुझाव दे भी कैसे पाए? क्या आपको नहीं पता कि राज्य का बंटवारा स्थाई शत्रुता का कारण बनता है? कभी एक ही देश के नागरिक इस छुद्र राजनीति के कारण आजन्म शत्रु बन एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो जाते हैं? किसी अन्य का आधिपत्य मात्र होने से क्या राज्य के अधिकारी से उसका आधा राज्य छीनकर उसे दण्ड दिया जाएगा? यदि आधिपत्य ही कसौटी है तो कल भविष्य में भी क्या किसी अन्य के आधिपत्य से राष्ट्र के और टुकड़े नहीं होंगे? फिर ये राष्ट्र का टूटना कब तक चलेगा, कोई अनुमान है किसी को?
मेरे पितृव्य देवापि ने राज्य का मोह छोड़ अपने अनुज अर्थात मेरे पिता शांतनु को सम्राट बनाया। महात्मा देवापि के पुत्र-पौत्र भी हैं इस कुरु-सभा में, उन्होंने तो कभी सम्राट शांतनु के वंशजों के राजसिंहासन पर बैठने को लेकर कोई आपत्ति नहीं जताई। तो आज दुर्योधन को क्या आपत्ति है? ये सिंहासन पांडु का है, उसके पश्चात उसके पुत्रों का। धृतराष्ट्र का इस पर कोई अधिकार नहीं, ना ही उसके पुत्रों का। यदि वंश ना भी देखें तब भी युधिष्ठिर राजा बनने के लिए किसी भी अन्य कुरु-कुमार से अधिक योग्य है।
और तुमने क्या कहा दुर्योधन, कि उनका रक्त कुरु-रक्त नहीं है? क्या तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारे पिता, तुम्हारे पितामह विचित्रवीर्य की औरस सन्तान नहीं हैं? यदि तुम पांडवों को पांडु का पुत्र नहीं मानोगे तो अपने पिता को भी कुरु-वंशज विचित्रवीर्य की संतान नहीं मान पाओगे। सिंहासन पर तुम्हारा दावा तो तुम्हारे ही तर्क से अप्रमाणित हो जाएगा पुत्र।
यदि कुरु-रक्त ही सिंहासन का अधिकारी है तो यहां मात्र मैं ही अधिकारी हूँ और यह मेरा निर्णय है कि पांडवों के आते ही युधिष्ठिर का हस्तिनापुर के सम्राट के रूप में अभिषेक किया जाएगा। दुर्योधन चाहे तो युवराज बना रह सकता है, या हस्तिनापुर के अधीन किसी राज्य का मांडलिक परन्तु स्वायत्त राजा बन सकता है।"
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अजीत
21 नवम्बर 17
21 नवम्बर 17