Tuesday, 21 November 2017

भानुमति_14

भानुमति_14
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प्रधानमंत्री विदुर धीर-गम्भीर व्यक्ति थे परंतु आज उनका उत्साह देखते ही बन रहा था। राजकर्मचारियों, सेवक-सेविकाओं को आश्चर्यचकित करते हुए वृद्ध विदुर बालकों की तरह उछल-उछल कर माता सत्यवती के कक्ष की ओर भागे जा रहे थे, फिर जाने क्या सोचकर महामहिम भीष्म की ओर चल दिये। अभी आधे रास्ते भी नहीं गए थे कि फिर महाराज धृतराष्ट्र की ओर मुड़ गए। महाराज अपने महल के संगीत कक्ष में संगीत में डूबे हुए थे तभी विदुर की चहकती हुई आवाज ने उन्हें चौंका दिया, "महाराज, महाराज, बधाई हो महाराज"।
"कौन? विदुर! क्या हुआ?"
"महाराज, कुरुओं के पीढ़ियों से शत्रु, पांचाल हमारे मित्र हुए। हमारे राजपरिवार सम्बंधी हुए।"
चेहरे पर अथाह प्रशंसा लिए धृतराष्ट्र बोले, "विदुर, पहेलियां मत बुझाओ, साफ बताओ, क्या हुआ?"
"महाराज, मेरे भतीजों ने स्वयंवर में अपना पराक्रम दिखाया। एक कुरुवंशी ने अचूक लक्ष्यवेध किया। पांचालराज याज्ञसेन द्रुपद की पुत्री द्रौपदी हस्तिनापुर की बहू हुई महाराज।"
"अहोभाग्य विदुर, अहोभाग्य। तुमने बहुत शुभ समाचार दिया। दुंदुभी पिटवाओ, प्रजाजनों को करों में छूट दो, नगरजनों से कहो कि वे अपने घरों को नए रंगों और विभिन्न चित्रकारियों से रंग दें, फूल मालाओं से सजा दें। जो असमर्थ हों उन्हें राजकीय सहायता दो। आज इसी प्रहर से वर वधु के आने तक अन्न भंडार और राजकीय पाकशाला आमजनों के लिए खोल दो। अच्छा ये तो बताओ विदुर, मेरे किस पुत्र ने स्वयंवर जीता? तुमने कहा कि लक्ष्यवेधन हुआ, क्या धनुर्विद्या की कसौटी थी? दुर्योधन निपुण धनुर्धर है। क्या दुर्योधन विजयी हुआ, या दुःशासन या युयुत्सु?"
"हाँ महाराज, धनुर्विद्या की कसौटी थी जिसमें एक कुरु-कुमार विजयी हुआ। पर इससे भी अधिक, अत्यधिक प्रसन्नता की बात है कि वो कुमार मेरा भतीजा, आपका भतीजा सव्यसाची अर्जुन है। हाँ महाराज, हमारे भाई पांडु के सभी पुत्र जीवित हैं और उन्होंने द्रौपदी से विवाह किया।"
क्षण भर पहले जो चेहरा प्रसन्नता से दमक रहा था, वह काला पड़ गया, जो आंखें चमक रही थी, पांडवों के सकुशल होने का समाचार सुनते ही बुझ गई। 'पांडव जीवित हैं। कहीं उन्हें यह ज्ञात तो नहीं कि उनकी हत्या करने का षडयंत्र दुर्योधन ने रचा था', यह सोचकर उसके प्राण सूख गए। परन्तु वह एक कुशल राजनीतिज्ञ था, अपनी भावनाएं छुपाना जानता था। पल भर में ही खुद को पुनः व्यवस्थित कर बोला, "अहोभाग्य विदुर, अहोभाग्य। यह तो अत्यंत प्रसन्नता की बात है। अनुज-वधु कुंती भी सकुशल होंगी। अनुज-पुत्र भी तो पुत्र ही हैं। मेरी दी हुए आज्ञाएं पूर्ववत हैं। जाओ, सारी व्यवस्था देखो।" यह सब बोलते समय उसकी वाणी में वह पहले वाला उत्साह नहीं था। कदाचित विदुर यही देखने आए थे। कभी कभी मन इस प्रकार शरारतें करता ही है।
थोड़ा और खिझाने के उद्देश्य से पुनः बोले, "अवश्य महाराज। सभी व्यवस्थाएं मैं स्वयं देख लूंगा। पर उन्हें लाने के लिए भी तो किसी कुरुवृद्ध को जाना चाहिए। मैं अकेले क्या-क्या करूँगा।"
"तो किसी को अपना सहायक रख लो। कृपाचार्य यहीं हैं, संजय को भी अपने साथ रखो। जाओ, जो उचित समझो करो। मुझे विश्राम करने दो।"
विदुर जब कक्ष से निकले तो प्रतिहारियों को पुनः आश्चर्य हुआ। विदुर जैसे वृद्ध को बालिकाओं की तरह अपनी हँसी रोकने के लिए मुँह को हाथ से दबाए जाते देख किसे आश्चर्य नहीं होता।
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फूलों से सजे कक्ष में एक पलंग पर द्रौपदी चुपचाप बैठी हुई अपने आज से पहले के जीवन को स्मरण कर रही थी। उसके पिता ने यज्ञ द्वारा उसे और उसके भाई को एक विशिष्ट कर्तव्य हुए मंत्रों से अभिषिक्त किया। शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा दी। वे द्रोण और उसके संरक्षक कुरु-साम्राज्य से प्रतिशोध लेने के लिए एक ऐसा जमाता चाहते थे जो सर्वश्रेष्ठ वीर हो। इसके लिए उन्होंने द्वारका के श्रीकृष्ण का चयन किया था। यद्यपि श्रीकृष्ण की पहले से ही कई पत्नियां थी, परंतु वही एक वीर थे जो निर्विवादित रूप से सर्वश्रेष्ठ कहे जा सकते थे। द्रौपदी ने अपने मन को समझा लिया था, पर कृष्ण ने उसे स्वीकार नहीं किया। क्या ये उसका अपमान था, कदाचित था पर फिर उन्होंने उसे अपनी सखी माना और उसके लिए स्वयंवर की योजना प्रस्तुत की। अपना सब कुछ दांव पर लगाकर उन्होंने इसे सफल बनाया और चमत्कार सा करते हुए पांडवों को शून्य में से प्रकट कर दिया। क्या कृष्ण वास्तव में चमत्कारी हैं?
'अब वह पांडवों की, पांच पुरुषों की पत्नी है। क्या वह उन सभी को प्रसन्न रख पाएगी?' विवाह के पश्चात पिछले 15 दिनों के मांगलिक कार्यक्रमों के बाद आज उसकी प्रथम मिलन की रात्रि थी। वह ज्येष्ठ पांडव की प्रतीक्षा कर रही थी। द्वार पर हलचल हुई और उसे युधिष्ठिर आते हुए दिखे। उनके चेहरे पर सहज मुस्कान थी। उन्होंने पूछा, "तुम प्रसन्न तो हो पांचाली?"
"हाँ स्वामी।" कुछ दिनों पहले तक जिस पुरुष से उसका कोई सम्बंध नहीं था उसे यूँ स्वामी कहना बहुत अटपटा सा लगा उसे। युधिष्ठिर अपना मुकुट उतारकर उसे रखने का स्थान ढूंढ रहे थे कि द्रौपदी ने आगे बढ़कर मुकुट अपने हाथ में ले लिया। कल तक वह पिता के लिए भी तो ऐसा ही करती आई थी।
वे दोनों चुपचाप पलंग पर बैठ गए। यह भी एक आश्चर्य ही कहा जायेगा कि धर्मचर्चा में कई प्रहर तक लगातार बोलने वाले धर्मराज यहां चुप बैठे थे। अंततः पत्नी के समक्ष धर्मराज भी तो मात्र पति ही थे।
वार्तालाप का प्रथम सूत्र खोजते खोजते युधिष्ठिर को कुछ मिल ही गया, बोले, "अच्छा, तुम्हें पता है आज कौन आये?"
ऐसे अटपटे प्रश्न पर द्रौपदी अचकचा कर बोली, "मुझे तो कुछ भी ज्ञात नहीं स्वामी।"
"अरे, आज काका विदुर आये थे हस्तिनापुर से। वे राजा धृतराष्ट्र का संदेश लाये हैं कि अब हमें हस्तिनापुर चल देना चाहिए।" थोड़ा संकुचित होकर पुनः बोले, "कदाचित मुझे अभिषिक्त सम्राट बनाया जाए, कम से कम पितामह की यही इच्छा है।"
द्रौपदी हर्षातिरेक से भर उठी। विवाह होते ही हस्तिनापुर जैसे समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्य की साम्राज्ञी बनना, ये तो उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। स्वयं को संभालते हुए उसने प्रश्न किया, "आपके काका विदुर कौन हैं?"
"काका विदुर मेरे पिता सम्राट पांडु तथा पितृव्य धृतराष्ट्र के के भाई हैं। क्या तुम्हें ज्ञात है कि महर्षि व्यास हमारे पितामह हैं? परंतु काका विदुर का बस यही एकमात्र परिचय नहीं है। वे धर्मज्ञ हैं, नीतिज्ञ हैं, राजनीति-शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं। वे हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री हैं परंतु महल की अपेक्षा कुटिया में रहते हैं। निःसन्तान हैं, कदाचित इसीलिए वे समस्त प्रजा को अपना पुत्र ही मानते हैं। यदि आज हम भाई जीवित हैं तो ये उन्हीं की कृपा है। मुझे पक्का तो नहीं पता, मुझे ऐसा लगता है कि राज्य की गुप्तचर संस्था के अतिरिक्त उनकी अपनी ही एक गुप्तचर संस्था है।"
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वे पुनः बोले, "द्रौपदी, मैं तुमसे क्षमाप्रार्थी हूँ। मेरे ही कारण ये स्थिति उत्पन्न हुई जो तुम्हें पांच पुरुषों से विवाह करना पड़ा। पर यही उचित था। तुमने यदि महामुनि व्यास के बताए अन्य विकल्पों को स्वीकार किया होता तो हमारा परिवार अटूट नहीं रह पाता।"
"स्वामी, मैंने वही किया जो उचित था। जब मुनि व्यास, वासुदेव कृष्ण और स्वयं आप कोई व्यवस्था दे रहे हैं तो वह उचित ही हो सकता है। स्वामी, मैंने आप लोगों से पूछे बिना एक निश्चय किया है।"
"क्या?"
"कि मैं प्रत्येक पांडव के साथ एक-एक वर्ष का पत्नीव्रत निभाऊंगी। उस विशिष्ट वर्ष मैं केवल एक पांडव की पत्नी बन उनकी सेवा करूंगी। क्या आप और अन्य पांडव इस पर सहमत होंगे?"
"अवश्य द्रौपदी, अवश्य। और यह भी है कि नियम का पालन हेतु, नियम भंग करने वाले के लिए सजा का प्रावधान भी होना चाहिए। तो यदि कोई अन्य पांडव बिना किसी सूचना के पति-पत्नी के कक्ष में प्रवेश करता है तो उसे बारह वर्ष के लिए नगर छोड़कर जाना होगा। मेरे सभी भाई इस हमारे इस निर्णय पर सहमत होंगे।"
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हस्तिनापुर की आज की राजसभा युवराज दुर्योधन ने बुलाई थी। वह अत्यंत क्रोधित दिख रहा था। उसने धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा, "महाराज, पांडव जीवित हैं और उन्हें आपने हस्तिनापुर बुला लिया। वे यहां आकर अव्यवस्था फैलाएंगे। आज जब सब कुछ सकुशल चल रहा है, उनके आने से सब अव्यवस्थित हो जाएगा। वे सम्राट से अपना अनुचित अधिकार मांगेंगे, मंत्रीपद चाहेंगे। युधिष्ठिर तो कदाचित युवराज पद पर ही अपना दावा कर सकता है या आपको ही सिंहासन से उतरने के लिए कहा जा सकता है। महाराज, उनका रक्त भी तो कुरु-रक्त नहीं है।"
अंधा राजा बोला, "तो तुम क्या सलाह देते हो युवराज?"
"उन्हें यहां ना आने दिया जाए। जो राज्य में अव्यवस्था फैलाना चाहते हों, वे शत्रु ही हैं। मैं तो कहता हूं कि सेना सजा कर उन पर आक्रमण कर दिया जाए। उन्हें बन्दी बनाकर कारागार में डाल दे या उनका वध कर दें।"
आचार्य द्रोण बोले, "वध? पांडवों का वध प्रत्यक्ष युद्ध में? युवराज, वे पांडव हैं कोई गाजर मूली नहीं जो तुम खेल-खेल में ही उन्हें काट सको। मत भूलो कि उधर अर्जुन है, अर्जुन। और उसके साथ खड़े हैं भीम, कृष्ण, बलराम, सात्यकि, कृतवर्मा, सारे यादव अतिरथी योद्धा, द्रुपद और उसके साथ सारे सोमवंशी राजा, मत्स्य नरेश विराट, नागराज कर्कोटक, गन्धर्वराज चित्रसेन। हस्तिनापुर का सैन्य-प्रमुख होने के अधिकार से भी मैं ये कहता हूं कि हमारी सेना पांडवों के नेतृत्व वाली पांचाल, यादव, मत्स्य, गन्धर्व तथा नागों की सम्मिलित सेना के समक्ष टिक नहीं सकेगी।"
धृतराष्ट्र बोला, "तो आपका क्या सुझाव है आचार्य द्रोण?"
"राजन, यह सही है कि अभी आप महाराज हैं तथा दुर्योधन युवराज। परंतु आप कार्यकारी राजा हैं। महाराज पांडु के ना होने पर आपको कार्यभार सौंपा गया था, राजा के रूप में आपका अभिषेक नहीं हुआ। परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि पांडवों की अनुपस्थिति में दुर्योधन का युवराज के रूप में अभिषेक हुआ। यद्यपि युधिष्ठिर ने आपके कहने पर यह पद त्याग दिया था पर उसका अधिकार सिद्ध है। उसे युवराज अथवा सम्राट बनना चाहिए। यहां यह भी देखना है कि अधिकार भले उसका हो, आधिपत्य दुर्योधन का है जो इसे किसी भी तरह छोड़ना नहीं चाहता। तो मेरा सुझाव यह है कि राज्य का बंटवारा कर दिया जाए। एक भाग पर आप अथवा दुर्योधन राज करें तथा दूसरे पर युधिष्ठिर का स्वतंत्र राजा के रूप में अभिषेक हो।"
सभा में पल भर के लिए सन्नाटा छा गया, जिसे देवव्रत भीष्म की क्रोधित वाणी ने भंग किया, "आचार्य द्रोण! क्या कहा आपने? बंटवारा! मेरे पूर्वजों की इस भूमि का बंटवारा? आप ऐसा सुझाव दे भी कैसे पाए? क्या आपको नहीं पता कि राज्य का बंटवारा स्थाई शत्रुता का कारण बनता है? कभी एक ही देश के नागरिक इस छुद्र राजनीति के कारण आजन्म शत्रु बन एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो जाते हैं? किसी अन्य का आधिपत्य मात्र होने से क्या राज्य के अधिकारी से उसका आधा राज्य छीनकर उसे दण्ड दिया जाएगा? यदि आधिपत्य ही कसौटी है तो कल भविष्य में भी क्या किसी अन्य के आधिपत्य से राष्ट्र के और टुकड़े नहीं होंगे? फिर ये राष्ट्र का टूटना कब तक चलेगा, कोई अनुमान है किसी को?
मेरे पितृव्य देवापि ने राज्य का मोह छोड़ अपने अनुज अर्थात मेरे पिता शांतनु को सम्राट बनाया। महात्मा देवापि के पुत्र-पौत्र भी हैं इस कुरु-सभा में, उन्होंने तो कभी सम्राट शांतनु के वंशजों के राजसिंहासन पर बैठने को लेकर कोई आपत्ति नहीं जताई। तो आज दुर्योधन को क्या आपत्ति है? ये सिंहासन पांडु का है, उसके पश्चात उसके पुत्रों का। धृतराष्ट्र का इस पर कोई अधिकार नहीं, ना ही उसके पुत्रों का। यदि वंश ना भी देखें तब भी युधिष्ठिर राजा बनने के लिए किसी भी अन्य कुरु-कुमार से अधिक योग्य है।
और तुमने क्या कहा दुर्योधन, कि उनका रक्त कुरु-रक्त नहीं है? क्या तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारे पिता, तुम्हारे पितामह विचित्रवीर्य की औरस सन्तान नहीं हैं? यदि तुम पांडवों को पांडु का पुत्र नहीं मानोगे तो अपने पिता को भी कुरु-वंशज विचित्रवीर्य की संतान नहीं मान पाओगे। सिंहासन पर तुम्हारा दावा तो तुम्हारे ही तर्क से अप्रमाणित हो जाएगा पुत्र।
यदि कुरु-रक्त ही सिंहासन का अधिकारी है तो यहां मात्र मैं ही अधिकारी हूँ और यह मेरा निर्णय है कि पांडवों के आते ही युधिष्ठिर का हस्तिनापुर के सम्राट के रूप में अभिषेक किया जाएगा। दुर्योधन चाहे तो युवराज बना रह सकता है, या हस्तिनापुर के अधीन किसी राज्य का मांडलिक परन्तु स्वायत्त राजा बन सकता है।"
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अजीत
21 नवम्बर 17

Saturday, 11 November 2017

भानुमति_11

भानुमति_11
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नए राजा वृकोदर ने अपनी पहली ही राजाज्ञा द्वारा नरमांस-भक्षण निषेध कर दिया था। दोषी राक्षसों के लिए प्राणदण्ड का प्रावधान था। परंतु दण्ड कितना भी कठिन हो, अपराधी अपराध करना कहाँ छोड़ते हैं। जिह्वा के दास कुछ राक्षस प्रायः ही मुख्य बस्ती से दूर जाकर अपनी जठराग्नि शांत करते। जब हिडिम्ब राजा था तो वे शिकार करने निकटवर्ती राज्यों में निकल जाते। युद्ध और विज्ञान में प्रवीण आर्यों की बस्तियों में वे अधिक सफल नहीं होते पर आर्यों की तुलना में कम विकसित नागों की बस्तियां उनका आसान शिकार होती। पहले जो शिकार वैध था अब राजा वृकोदर के सत्ता संभालने पर अवैध हो गया था।
ऐसे ही किसी अभियान में जब राक्षस नागों की किसी बस्ती से वापस लौट रहे थे, उनके साथ का एक दस वर्षीय बालक किसी गड्ढे में गिरकर घायल हो गया। उसे मरा हुआ समझ उसके साथियों ने उसे वही छोड़ दिया। वह बालक मृत्यु की प्रतीक्षा करता वही पड़ा रहा कि उसपर भगवान विरोचन की कृपा हुई, पांडवों की खोज में निकले उद्धव ने उसे देख लिया। मानव मात्र के लिए प्रेम से भरे उद्धव के लिए उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाना सम्भव नहीं था। उन्होंने उसे गढ्ढे से निकाला और अपने अथर्ववेद के ज्ञान से उसे कुछ ही दिनों में ठीक कर दिया। 
जहाँ प्रेम हो वहां भाषा की कठिनाई नहीं आती, बालक और उद्धव संकेतों में बात करते। एक दिन बालक कुम्भ के मुंह से अस्पष्ट सा शब्द 'भीम' निकला। उद्धव के कानों को यह शब्द अमृत जैसा लगा। उन्होंने कुम्भ से संकेतों में ही ढेरों प्रश्न किये। उन्हें समझ आया कि एक विशाल व्यक्ति अपने कुछ साथियों के साथ कुम्भ की बस्ती में रहता है। उत्साह से भरे उद्धव बालक कुम्भ के साथ उसकी बस्ती की ओर चल पड़े।
एक दोपहर उन्हें वन में हलचल सुनाई दी। राक्षसों का झुंड उनकी ओर बढ़ रहा था। कुम्भ तत्काल ही एक ऊंचे वृक्ष पर चढ़ा और नीचे उतर कर उद्धव को उनकी विपरीत दिशा में खींचने लगा। उद्धव को समझ नहीं आया कि अपने सजातीय राक्षसों की ओर जाने की अपेक्षा कुम्भ उन्हें दूर क्यों ले जाना चाहता है। वे अभी इसी उहापोह में थे कि वन शांत हो गया, जैसे उन्हें मानव गंध मिल गई हो। अस्पष्ट ध्वनियों से यह निश्चित हो गया कि उन्हें एक लंबे वृत्त में घेरा जा रहा है। कुम्भ ने यकायक ही उनसे अपना हाथ छुड़ाकर उन्हें वृक्ष पर चढ़ जाने का संकेत किया और स्वयं तीर की तेजी से झाड़ियों की ओर दौड़कर विलुप्त हो गया।
ध्वनियां पास आती गई। उद्धव ने अपने अस्त्र-शस्त्र देखे, केवल एक धनुष, कुछ बाण और एक कटार शेष रह गई थी। वन के उबड़-खाबड़ पथरीले मार्गों पर खड्ग, गदा या भरा हुआ तुरिण लेकर चलना अव्यवहारिक सोचकर उन्होंने पहले ही उनका त्याग कर दिया था। इनके बल पर भिड़ना वीरता नहीं मूर्खता होगी, यह विचार कर वे पेड़ पर चढ़ गए।
धीरे-धीरे वे राक्षस आये और उद्धव को पेड़ पर चढ़ा देख शोर करने लगे। उनकी आवाज इतनी भयंकर थी कि कोई सामान्य व्यक्ति हृदयाघात से वहीं मर जाता। उद्धव बहुत वीर थे परंतु उनकी रीढ़ में भी शीतल जल बह चला। उन्होंने पेड़ की शाखा कसकर पकड़ ली। राक्षसों की संख्या तीस के आसपास थी, और उनके साथ रस्सियों में जकड़े दो अभागे मानव भी थे। एक राक्षस ने पेड़ पर चढ़ने का प्रयास किया जिसे उन्होंने तीर मारकर नीचे गिरा दिया।
थोड़े समय पश्चात राक्षसों ने उद्धव से ध्यान हटा लिया। कदाचित यह सोचा हो कि ये तो पेड़ पर ही है, जब चाहेंगे, उतार लेंगे। उनमें से कुछ सूखी टहनियां तथा कुछ बड़े-बड़े पत्थर ले आये। आग लगाकर पत्थरों को गर्म किया गया और फिर उन अभागे मनुष्यों को उनपर बिठा दिया गया। मर्मान्तक चीखों से वन गूंज उठा और उद्धव की आखों से यह सोचकर अश्रु बह चले कि मुझ क्षत्रिय के होते हुए यह अत्याचार हो रहा है और मैं कुछ कर भी नहीं सकता।
अर्धरात्रि में राक्षसों का महाभोज शुरू हुआ और सुबह तक चला। काटने, चबाने और डकार की भयंकर आवाजों ने उद्धव को पागल सा कर दिया था। कहीं वे इस मनस्थिति में वृक्ष से कूद ना जाये, उन्होंने स्वयं को दुप्पटे द्वारा एक तने से बांध लिया।
अगला पूरा दिन राक्षस सोते रहे और उद्धव थकान, चिरांध और उस वीभत्स भोज से आंदोलित अर्धमूर्छित अवस्था में थे। उन्हें लगता कि अब किसी भी समय वे गिर पड़ेंगे, या कोई राक्षस ऊपर चढ़कर उन्हें नीचे धकेल देगा। उन्हें भी गर्म पत्थर पर भूना जाएगा, उनके शरीर को खंड-खंड कर इन राक्षसों का भोजन बना दिया जाएगा। उन्हें कभी-कभी कृष्ण दिखाई देते जो उनकी तरफ बढ़े चले आ रहे थे। अपनी पत्नियां कपिला और पिंगला दिखाई देती, पिता देवभाग दिखाई देते। उन्होंने कृष्ण के साथ, कृष्ण के लिए अनगिनत पराक्रम के काम किये थे, पर आज कायरों की भांति इस वृक्ष पर खुद को बांधे अपनी निश्चित मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे  थे। उनके हृदय से आवाज निकली, 'हे गोविंद, तेरा ये भक्त तुझे अपने हृदय में समाए तुझमें विलीन होता है। मुझे मुक्त कर, यमराज मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं'। उन्हें कृष्ण की गूंजती आवाज सुनाई दी, 'जब तक कृष्ण जीवित है, उद्धव को यमराज नहीं ले जा सकेंगे'।
दूर कहीं हलचल से उद्धव की तन्द्रा टूटी तो उन्होंने देखा कि मांसभक्षी राक्षसों में भगदड़ मची थी और सैनिकों जैसे लगने वाले राक्षस उन्हें पकड़ रहे थे। वृक्ष के नीचे कुम्भ के साथ खड़े एक अतिविशाल राक्षस ने विशुद्ध देववाणी में उनसे कहा, "अरे बन्दर, डाली से क्या चिपका है। कूद जा, राजा वृकोदर की ये बलिष्ठ बाहें तुझे लपक लेंगी।"
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नींद से बोझिल आंखें जब दुबारा खुली तो उन्होंने भाई भीमसेन को देखा, जिन्होंने राक्षसी भड़कीले वस्त्र पहने थे, बस एक अंतर था कि उनके दांत राक्षसों की तरह घिस कर नुकीले नहीं बनाए गए थे। भीम ने उनकी तरफ देखकर कहा, "उठ गया? अभी और सो ले। तब तक इन राक्षसों को दंड दे लूँ।"
अगली सुबह वे सभी मुख्य बस्ती गए। रास्ते में उन्होंने भीम से पूछा, "तुम इनके राजा कैसे बन गए?"
भीम ने अपनी गूंजती आवाज में कहा,"जब पापी दुर्योधन ने हमें जलाकर मारने का षडयंत्र किया था तो चाचा विदुर के आदेशानुसार हम इधर वन की ओर चल दिये। यद्यपि मुझे समझ नहीं आया कि साक्ष्य होते हुए भी अपराधी दुर्योधन के स्थान पर हमें सजा क्यों दी जा रही है। यदि बड़े भैया का आदेश ना होता तो मैं उसी समय हस्तिनापुर जाकर दुर्योधन को पटक-पटक कर मार डालता।
वन में एक रात्रि जब सभी विश्राम कर रहे थे, राक्षसों का राजा हिडिम्ब अपनी बहन हिडिम्बा सहित आ धमका। तुम मेरी देह तो देख ही रहे हो, उसे लगा होगा कि इस एक व्यक्ति से कई दिनों तक उसकी उदरपूर्ति होती रहेगी। मुझसे आ भिड़ा, और जानते हो उद्धव, मैंने दुर्योधन, कर्ण, शकुनि का सारा क्रोध उस अभागे राक्षस पर उतार दिया। उसको इतना पटका कि उसकी हड्डियों का चूरा बन गया।
इनकी संस्कृति हमसे अलग है। पिता या भाई की द्वंदयुद्ध में वध करने वाले वीर से ये प्रेम करने लगती हैं, उनसे विवाह करती हैं। चूंकि ये आर्य कन्या नहीं थी, माता ने बड़े भाई के होते हुए भी आपद्धर्म मान मुझे हिडिम्बा से विवाह करने की अनुमति दी। तुम मिलना उससे, वह बहुत ही अच्छी है। हमारी संस्कृति समझने का, अपनाने का प्रयास करती है।"
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माता सत्यवती के आदेश पर महामुनि व्यास राक्षसावर्त पधारे थे। राक्षस राजा वृकोदर तथा नागराजा कर्कोटक के मध्य उद्धव की मध्यस्थता से संधि हो गई थी। संधि के अनुसार अब नागों के सीमावर्ती गाँवों की सुरक्षा राक्षस करते थे। मांस, चमड़े तथा औषधियों का व्यापार, कृषि, पशुपालन, शिकार तथा सुरक्षा की तकनीकों का आदान प्रदान शुरू हुआ था तथा नए मार्ग बनाये जा रहे थे।
महामुनि का आना राक्षसों के लिए कौतूहल का विषय था। उनकी आंखें तब फटी रह गई जब उन्होंने अपने महान राजा को किसी दास की तरह उनके चरणों में लोटता हुआ पाया। राजा की बूढ़ी माता तथा अन्य भाइयों ने भी उसी प्रकार अभिवादन किया। देखा देखी राक्षसों ने भी दण्डवत करने का प्रयास किया।
औपचारिकताओं के पश्चात महामुनि कुंती से बोले, "कैसी हो पुत्री, सब कुशल तो है?"
"हाँ गुरुवर। मेरे पुत्र जहाँ हों वहां कुशलता क्योंकर नहीं होगी। मेरा तो अधिकांश जीवन ही वनों में बीता है। परंतु आर्यपुत्र के साथ हम जिस भी वन में रहे वे सभी आर्य ऋषि थे। यहां की संस्कृति हमसे भिन्न है।"
"सब एक जैसे ही हो जाएं तो जीवन में माधुर्य कहाँ बचेगा पुत्री। तुम सुनाओ पुत्रो, तुम सब कैसे हो?"
नकुल बोल पड़े, "पितामह, आपके दर्शनों से हम अत्यंत प्रसन्न हैं। परंतु यहां सबसे अधिक दुखी मैं ही हूँ। बड़े भैया को तो बस धर्मचर्चा के लिए एक भी व्यक्ति मिले तो ये सारा जीवन कहीं भी काट सकते हैं, कोई नहीं मिला तो माता तो हैं ही। भैया भीम तो यहां के राजा ही हैं, इन्हें राजकाज से ही अवकाश नहीं मिलता, जो मिला भी तो भाभी हिडिम्बा के साथ वन में घूमते रहते हैं। ये सव्यसाची अर्जुन, महान धनुर्धर वनों में अपने खिलौना धनुष-बाण से मृगया करते रहते हैं, राक्षस बालकों को धनुर्विद्या सिखाते हैं। अब तो घटोत्कच भी आ गया है तो उसी के साथ लगे रहते हैं। फिर ये मेरे प्रिय सहदेव हैं, ये कभी सीधे देखते ही नहीं। या तो ऊपर आकाश में तारों को देखते हैं या नीचे धरती पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचते रहते हैं। बचा मैं, मैं अपना समय काटने के लिए यहां बकरियों और खरगोशों को प्रशिक्षित करता हूँ, अगली सुबह तक वे राजा वृकोदर की प्रजा के उदर में समा जाते हैं। मुझे लगता है पितामह कि हम सब भूल गए हैं कि हम क्षत्रिय हैं, वनवासी नहीं।"
"तो तुम सब बाहर क्यों नहीं आते? वन में क्यों छुपे हो? क्या दुर्योधन से डरते हो?"
"पाण्डुपुत्र किसी से नहीं डरते गुरुदेव। ये तो हमारे बड़े भैया का आदेश है कि हमें उचित समय तक वन में ही रहना चाहिए।"
"हूँ, और धर्मराज युधिष्ठिर, वह उचित समय कब आएगा पुत्र?"
सत्यनिष्ठ युधिष्ठिर अपने युवराजत्व के अल्पकाल में ही अपनी न्यायप्रियता और सदाशयता के कारण चहुँओर धर्मराज के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे, बोले, "पितामह, चाचा विदुर ने हमें लाक्षागृह की गुप्तसूचना दी थी, और वन में छुपे रहने के लिए कहा था। वे जब कहें, हम स्वयं को प्रकट करने के लिए सज्ज हैं।"
भीम बोले, "मुझे समझ नहीं आता कि हमें छुपे रहने की आवश्यकता ही क्या थी, हम क्यों बार-बार दुर्योधन से छुपते फिरें। मेरे हाथ में मेरी गदा हो, अर्जुन के पास उसका धनुष, खड्गधारी नकुल हो तो हमें त्रिलोक में कौन हारा सकता है?"
"तुम्हें इसलिए छिपना था पुत्र कि आमने-सामने के युद्ध में भले ही त्रिलोक में तुम्हें कोई ना हरा सके पर पीठ पीछे किये गए प्रहार का क्या उत्तर है तुम्हारे पास? तुम एक बार बचोगे, दो बार बचोगे, बारम्बार कैसे बच पाओगे। स्मरण रखो, उन्हें बस एक बार ही तो सफल होना है। यदि आज तुम्हें शस्त्र दे भी दिए जाएं तो भी तुम्हें दुर्योधन पर वार नहीं करने दिया जाएगा, और उसे वार करने से कोई रोक नहीं सकेगा। हम चाहते हैं कि तुम इतने शक्तिशाली बनो कि तुम्हारा अहित करने का विचार भी कोई अपने मन में ना ला सके।"
धर्मराज बोले, "तो हमें क्या करना चाहिए गुरुदेव?"
"इस वनवास का समय समाप्त हुआ। श्रीकृष्ण इस प्रयास में हैं कि तुम जब संसार के सामने आओ तो पर्याप्त शक्तिशाली होकर आओ। कुछ ही समय में याज्ञसेनी द्रौपदी का स्वयंवर है। गोविंद चाहते हैं कि तुम सब उसमें सम्मिलित हो। काम्पिल्य नरेश को अपने जमाता के रूप में सर्वश्रेष्ठ वीर चाहिए, तो आज पाण्डवों से बढ़कर वीर कौन है? पांडवों को शक्तिशाली मित्र चाहिए, तो आर्यावर्त में पांचालों के अतिरिक्त सामर्थ्यवान तथा धर्मपरायण कौन हो सकता है भला? राजनीति बदल रही है पुत्रो, इस एक विवाह से कई पुराने समीकरण टूटेंगे तो कई नई संधियां जन्म लेंगी। पुरुषार्थ दिखाने का इससे उत्तम अवसर नहीं मिलेगा पुत्रो।"
भीम की भुजाएं फड़कने लगी, पराक्रम प्रदर्शन का कोई अवसर वे नहीं छोड़ना चाहते थे। परंतु जितनी तीव्रता से उनके चेहरे पर चमक आई थी, उतनी ही तीव्रता से उनका चेहरा कुम्हला गया। महामुनि ने इसे देखा और मुस्कुराते हुए पूछा, "क्या हुआ पुत्र? तुम विचलित दिख रहे हो।"
"पितामह, मेरा पुत्र घटोत्कच, मैं उसे छोड़कर कैसे जाऊं? वह अभी केवल 4 माह का है। हमारे अपने पिता हमें बाल्यावस्था में ही छोड़ दिवंगत हो गए थे। उनके ना रहने पर हम भाइयों ने सदैव ही सौतेलापन पाया है। अपने अधिकारों के लिए भी हमें भिक्षुक समान माना गया। मैं अपने पुत्र के लिए ऐसी परिस्थिति नहीं चाहता पितामह।"
"बालकों जैसी बातें ना करो पाण्डुपुत्र भीम। क्या पांडु के ना होने पर मैंने, भीष्म ने या विदुर ने तुम लोगों में कभी भेद किया है, तुम्हारे गुरु द्रोण ने तुम्हें कम शिक्षा दी? किसी के होने ना होने से सृष्टि रुक नहीं जाती पुत्र। बंधन में मत बंधो, अपना कर्म करो। रही घटोत्कच की बात, तो उसे मैं देखूंगा कि वह शास्त्र और शस्त्र में पारंगत हो। वह एक महान योद्धा बनेगा पुत्र, और संसार तुम्हें उसके पिता के रूप में याद रखेगा।"
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प्रस्थान से एक दिन पूर्व हिडिम्बा अपने पति राजा वृकोदर को एक अत्यंत ही मनोरम स्थान पर ले आयी। भीम ने प्रकृति की ऐसी अद्भुत छटा पहले कभी नहीं देखी थी। यकायक उनके मुख से उद्गार निकला, "अहा, ये तो साक्षात स्वर्ग है। मन करता है कि आजीवन यहीं रह जाऊं।"
हिडिम्बा बोली, "तो रह क्यों नहीं जाते वृकोदर? क्यों जाना चाहते हो यहां से? ये दृश्य तो कुछ भी नहीं, मैं तुम्हें ऐसे-ऐसे स्थान दिखाउंगी जो तुम्हारी जाति के किसी मनुष्य की कल्पना में भी नहीं आये होंगे। तुमनें इसे स्वर्ग कहा, परन्तु तुम्हें उन स्थानों के लिए कोई शब्द नहीं मिलेगा।"
भीम चुप ही रहे तो हिडिम्बा पुनः बोली, "और तुम चाहते हो कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ। पर क्या तुम्हारे नगर यहां की तरह हैं? क्या वहां मुझे वही स्वतंत्रता प्राप्त होगी जो यहां हैं? तुम्हारी माता कुंती मुझे बहुत प्रेम करती हैं, मेरी गर्भावस्था में उन्होंने मेरा इतना ध्यान रखा कि जब भी सोचती हूँ, आंखों में अश्रु आ जाते हैं। पर उनके अनुशासन में मेरी सांस रुकती है। यदि एक आर्य स्त्री के होने पर ऐसा है तो मुझे डर है कि अनेक आर्य स्त्रियों की रोकटोक से मैं कहीं मर ही ना जाऊं।
मुझे यह भी समझ नहीं आता कि उनके चार अन्य पुत्र भी तो हैं, वे मेरे पति को मुझे सौंप क्यों नहीं देती, मेरे पति को भी अपने साथ क्यों रखना चाहती हैं। हमारे यहां तो वयस्क होते ही पुरुष अपनी पत्नी के साथ अलग हो जाता है।"
"सालकंटकटी, क्या तुम नहीं जानती कि मैं यहीं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं, पर यह असम्भव है। यदि तुम मेरा वास्तविक परिचय जानती तो कदाचित तुम मुझे रोकने का प्रयास नहीं करती। आह! यदि मैं तुम्हें बता सकता कि हमारा पुत्र केवल विरोचन का ही वंशज नहीं, अपितु संसार के श्रेष्ठतम कुल का उत्तराधिकारी है। यदि मैं तुमसे तुम्हारे पुत्र को अलग कर दूं तो तुम्हें कैसा लगेगा? मैं भी तो अपनी माता का प्रिय पुत्र हूँ, उनसे अलग कैसे रह सकता हूँ? मैं माता से उसके पुत्र को अलग नहीं करना चाहता पर मेरा पुत्र अनन्य वीर होना चाहिए प्रिये। उसे वीर बनाना।"
"इसमें कोई संदेह हैं क्या, वह वीर पुत्र है। वीर ही बनेगा।"
"केवल किसी का पुत्र होने भर से कोई वीर नहीं होता हिडिम्बा, उसे आधुनिक शिक्षा लेनी होती है, संस्कार सीखने होते हैं।"
"कभी-कभी तुम विचित्र बातें करते हों। हमारे समाज में ये सब नहीं होता तो क्या हम लोग वीर नहीं हैं?"
"तुम वीरता किसे मानती हो? तुम्हें लगता है कि तुम्हारा भाई बहुत वीर था?"
"हाँ, क्या वो वीर नहीं था? उसके भय से सभी कांपते थे, कोई उसके पास नहीं आता था। हमारे इस वन में मनुष्य पैर नहीं रखते थे।"
"तुम इसे वीरता कहती हो? क्या मेरे पुत्र को भी तुम अपने भाई जैसा ही वीर बनाओगी? क्या वह भी किसी पेड़ पर बैठा जंगली पशु या किसी मानव की प्रतीक्षा करता हुआ लटका रहेगा, और आखेट मिलते ही उसे कच्चा चबा जाएगा? अच्छा हिडिम्बा, क्या मैं वीर नहीं हूं?"
"तुम तो वीरों के वीर हो, तुमसे अधिक वीर पुरुष मैंने नहीं देखा।"
"तो क्या मैंने कभी किसी मानव या राक्षस की हत्या कर उसका मांस खाया? जब मैंने हिडिम्ब का वध किया तो तुम्हारी प्रथा के अनुसार तुम्हारे पुजारियों ने उसे पकाकर खा जाने का प्रस्ताव किया था, तुम भी उसकी खोपड़ी अपने पास रखना चाहती थी। मैंने ये सब नहीं होने दिया।
हिडिम्ब की प्रजा उससे भय खाती थी, उसके राज्य में कोई मनुष्य प्रवेश नहीं करता था। परंतु आज तुम्हारे समाज का कोई बालक भी निःसंकोच मेरे पास आ जाता है। नागों और आर्यों से व्यापार शुरू हुआ है।
तुम्हारा भाई केवल अपना पेट भरने के लिए हत्याएं करता फिरता था, मैंने अपनी, अपने माता तथा भाइयों की प्राणरक्षा के लिए उसका वध किया। मैंने अपने प्राणों को संकट में डाल अनगिनत मानव-मांसभक्षी राक्षसों का वध किया। मेरे पुत्र को मुझ जैसा वीर बनाना। संसार यह जाने कि वह मेरा पुत्र हैं, कि मैं घटोत्कच का पिता हूँ। उसे जिस भी गुरु से शिक्षा दिलवाना पर उसे मूल शिक्षा तुम देना कि उसे कमजोरों की ढाल बनना है, और आतताइयों का वध करना है।"
"तो क्या उसे तुम्हारे समाज में जाना होगा। तुम लोगों की रीतियाँ अपनानी होंगी।"
"यदि ऐसा करने से कुछ शुभ हो तो अवश्य। संस्कृतियों को एक दूसरे में मिल ही जाना चाहिए। जो तुमसे अलग हैं, आवश्यक नहीं कि तुम्हारे शत्रु ही हों। उनसे कुछ सीखो, उन्हें कुछ सिखाओ। एक दूसरे को नष्ट करने की अपेक्षा साथ रहकर स्वयं का विकास प्रत्येक दृष्टि से शुभ है प्रिये।"
"ठीक है वृकोदर, मुझे मेरा मार्ग दिख गया है। मैं अपने पुत्र को उसके पिता जैसा वीर बनाउंगी। वह राक्षसों के आर्य राजा वृकोदर का सच्चा उत्तराधिकारी होगा। मुझे वचन दो कि यदि भविष्य में कभी तुम संकट में घिरे तो हमें बुलाने में संकोच नहीं करोगे। हमसे सम्पर्क बनाये रखना प्रिय, हमें स्मरण रखना"
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अजीत
12 नवम्बर 17