"चहलारी कौ नरेस निजदल मो सलाह कीन,
तोप को पसारा जो समीपै दागि दीना है।
तेगन से मारि मारि तोपन को छीन लेत,
गोरन को काटि काटि गीधन को दीना है।
लंदन अंग्रेज तहां कंपनी की फौज बीच,
मारे तरवारिन के कीच करि दीना है।
बेटा श्रीपाल को अलेंदा बलभद्र सिंह,
साका रैकवारी बीच बांका बांधि दीना है।।"
अहिंसा और शांति के नाम पर कायर बुजदिल वाजिद अली शाह कलकत्ता चला गया, पर उसकी ढेरों रानियों में से थी एक, पूर्व नर्तकी, बेगम हजरत महल जिसे अंग्रेजो का छतिपूर्ती के नाम पर अपने ही राज्य से दिया जाने वाला 16 कोस का इलाका मंजूर नहीं हुआ, जिसने लड़ने की ठानी, और क्या खूब लड़ी। लड़ने का मतलब सिर्फ तलवार चलाना या गोली दागना नहीं, रणनीति बनाना भी होता है।
हार के बाद उसने शहीद होने से बेहतर गुरिल्ला युद्ध करने की ठानी। अपने ही राज्य के छोटे छोटे जमींदारों, जिन्हें राजा की पदवी दी गई थी, से मिली, उन्हें संगठित किया और ढेरों छिटपुट युद्ध छेड़ दिए।
पर कभी तो होनी थी बड़ी लड़ाई, हुई भी। बाराबंकी के नवाबगंज में। ओबरी का मैदान था वो। सर होपग्रान्ट के नायकत्व में संगठित अंग्रेज सेना और सामने छोटे छोटे कई राजाओं की छोटी छोटी सेनाओं का असंगठित जमावड़ा। कोई स्पष्ट नीति नहीं, कोई स्ट्रेटजी नहीं, कोई एक सर्वमान्य नेता नहीं। पर थी एक भावना जो ये कहती होगी कि हम पर कोई विदेशी क्यों राज करे। कुछ नया पा जाने की लालसा के बिना, बल्कि जो है उसे भी खो देने की संभावना के बाद भी डटी थी ये खिचड़ी फौज, जिसे सिर्फ उनके रंग और भावना ने एकसूत्र में बाधा हुआ था।
तोप की मार चालू हुई और फौजें भिड़ गए एक दूसरे से। उस मार काट में राजा लोग अपने अपने हाथियों से फौजों को आदेश देते रहे, बंदूकों से फायर करते रहे, भालों को फेंक फेंक के शहसवारों को गिराते रहे, पर उन्होंने देखा कि युद्ध सिर्फ भावनाओं से नहीं जीते जाते, स्पष्ट युद्धनीति चाहिए होती है। देशी फौज अंग्रेजों की मार से तितर बितर होने लगी, दोपहर होते होते हार तय हो गई थी।
राजा 'बौन्डी' हरदत्त सिंह, राजा 'चदरा' जोतसिंह सहित तमाम जमींदार युद्ध को उसके हाल पर छोड़ भाग लिए, इतनी कुव्यवस्था फैली कि लड़ने का उत्साह भंग हो गया देशियों का, या तो भागो या कटो। नियति ने ही तय कर दी थी अंग्रेजों की जीत। इतना पलायन देख उस आलीशान हाथी का महावत घबरा गया, बोला राजा साहब, हुकुम कीजिये, इतना घिरने के बाद भी सकुशल बाहर निकल जाएंगे हम।
वो अठ्ठारह साल का 33 गांवों का जमींदार जिसकी मूछें भी अभी ढंग से नहीं आई, जिसने कुछ दिन पहले ही शादी रचाई है, बोलता है कि अरे काका, पीठ दिखा के भाग जाऊं तो पुरखों को क्या मुँह दिखाऊंगा। मैं तो यहीं मरूंगा आज पर तुम निकल जाओ, क्योंकि अब तुम डर चुके हो, तुम्हारी स्वामिभक्ति अब इस मैदान में मेरे किसी काम की नहीं, बस एक घोड़ा मंगवा दो, और हाथी बैठा दो, देखते हैं कि मेरी तलवार को अंग्रेज खून पसन्द आता है या नहीं।
घोड़े पर बैठकर उस बालक राजा ने पल भर में ही बारह फिरंगियों को जमीन पर लिटा दिया, पर भीड़ बहुत थी और थोड़ी ही देर में घोड़े को इतनी चोटें लगी कि वो अब किसी काम का ना रहा। घोड़ा गिरा उसके पहले ही उछल कर खड़ा हो गया वो वीर। अंग्रेजों ने अपने सामने 6 फुट से अधिक कद के हट्टे कट्टे एक युवक को देखा जिसके गले पर बहुत बड़ा घेंघा था, जिसके दाढ़ी मूंछ विहीन चेहरे पर खून की बूंदें छिटक कर आ पड़ी थी, और जिसने बड़े आराम से अपने ढाल फेंककर अपने बाएं हाथ में भी तलवार पकड़ ली। जाने क्या सोचकर वो थोड़ा सा मुस्कुराया और जय श्री राम बोल पैदल ही टूट पड़ा। उत्तर दक्खिन पूरब पश्चिम जिधर पैर समाया उधर ही जैसे किसान खड़ी फसल काटता है, वो राजा काटता गया इंसान। भागती फौज ने देखा ये मंजर, देखा कि उनका एक राजा अकेला ही मरने को इतना उतावला है तो स्वर्ग में जाने की जैसे होड़ मच गई। आते गए, कटते गए, अपने राजा की वीरता को देख एक एक कर मरते गए।
लड़ते लड़ते उस मैदान के पांच आम के पेड़ों की कतारों के सामने घिर गया वो चहलारी का ठाकुर। अंग अंग से टपकता अपना और शत्रुओं का खून, शरीर पर चिपका हुआ मानव मांस। थकान और प्यास से बेहाल शरीर, पर अकड़ बरकरार। आंखों ही आंखों में तौलकर फिर बढ़ाया उसने कदम, और अपनी एक तलवार पर वार सहते हुए दूसरी से काटता गया दुश्मनों को। पर फिर पीछे से चलाई गई एक तलवार ने बहुत गहरा घाव कर दिया। इंसान कितना ही वीर हो, शरीर को चलने के लिए रक्त तो चाहिए ही। रक्त बहता गया, मस्तिष्क धुंधलाने लगा, पैर डगमगाने लगे पर हाथों में पकड़ी तलवार चलती रही।
और, और फिर वो गिर गया। वो मर गया, वो अमर हो गया।
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अंग्रेजों के सेनापति सर होपग्रान्ट अपनी किताब Incedents In The Sepoy War में लिखते हैं कि उन्होंने बड़ी बड़ी लड़ाइयां लड़ी, हिंदुस्तान के एक से बढ़कर एक वीरों से लोहा लिया, पर नवाबगंज की लड़ाई जैसी लड़ाई उन्होंने कभी नहीं देखी थी। इन जाबांज वीरों में भी एक वीरों का वीर, महावीर था।
लंदन टाइम्स के रिपोर्टर और उस समय के सेनानी सर विलियम रसल ने उस महावीर का नाम लिखा "ठाकुर बलभद्र सिंह चलहारी"।
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18 साल के उस युवक सेनानी, हमारे युग के "अभिमन्यु", चलहारी के ठाकुर श्री बलभद्र सिंह को उनके गर्वित देशवासी वंशज सादर प्रणाम करते हैं।
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अजीत
6 अगस्त 17
तोप को पसारा जो समीपै दागि दीना है।
तेगन से मारि मारि तोपन को छीन लेत,
गोरन को काटि काटि गीधन को दीना है।
लंदन अंग्रेज तहां कंपनी की फौज बीच,
मारे तरवारिन के कीच करि दीना है।
बेटा श्रीपाल को अलेंदा बलभद्र सिंह,
साका रैकवारी बीच बांका बांधि दीना है।।"
अहिंसा और शांति के नाम पर कायर बुजदिल वाजिद अली शाह कलकत्ता चला गया, पर उसकी ढेरों रानियों में से थी एक, पूर्व नर्तकी, बेगम हजरत महल जिसे अंग्रेजो का छतिपूर्ती के नाम पर अपने ही राज्य से दिया जाने वाला 16 कोस का इलाका मंजूर नहीं हुआ, जिसने लड़ने की ठानी, और क्या खूब लड़ी। लड़ने का मतलब सिर्फ तलवार चलाना या गोली दागना नहीं, रणनीति बनाना भी होता है।
हार के बाद उसने शहीद होने से बेहतर गुरिल्ला युद्ध करने की ठानी। अपने ही राज्य के छोटे छोटे जमींदारों, जिन्हें राजा की पदवी दी गई थी, से मिली, उन्हें संगठित किया और ढेरों छिटपुट युद्ध छेड़ दिए।
पर कभी तो होनी थी बड़ी लड़ाई, हुई भी। बाराबंकी के नवाबगंज में। ओबरी का मैदान था वो। सर होपग्रान्ट के नायकत्व में संगठित अंग्रेज सेना और सामने छोटे छोटे कई राजाओं की छोटी छोटी सेनाओं का असंगठित जमावड़ा। कोई स्पष्ट नीति नहीं, कोई स्ट्रेटजी नहीं, कोई एक सर्वमान्य नेता नहीं। पर थी एक भावना जो ये कहती होगी कि हम पर कोई विदेशी क्यों राज करे। कुछ नया पा जाने की लालसा के बिना, बल्कि जो है उसे भी खो देने की संभावना के बाद भी डटी थी ये खिचड़ी फौज, जिसे सिर्फ उनके रंग और भावना ने एकसूत्र में बाधा हुआ था।
तोप की मार चालू हुई और फौजें भिड़ गए एक दूसरे से। उस मार काट में राजा लोग अपने अपने हाथियों से फौजों को आदेश देते रहे, बंदूकों से फायर करते रहे, भालों को फेंक फेंक के शहसवारों को गिराते रहे, पर उन्होंने देखा कि युद्ध सिर्फ भावनाओं से नहीं जीते जाते, स्पष्ट युद्धनीति चाहिए होती है। देशी फौज अंग्रेजों की मार से तितर बितर होने लगी, दोपहर होते होते हार तय हो गई थी।
राजा 'बौन्डी' हरदत्त सिंह, राजा 'चदरा' जोतसिंह सहित तमाम जमींदार युद्ध को उसके हाल पर छोड़ भाग लिए, इतनी कुव्यवस्था फैली कि लड़ने का उत्साह भंग हो गया देशियों का, या तो भागो या कटो। नियति ने ही तय कर दी थी अंग्रेजों की जीत। इतना पलायन देख उस आलीशान हाथी का महावत घबरा गया, बोला राजा साहब, हुकुम कीजिये, इतना घिरने के बाद भी सकुशल बाहर निकल जाएंगे हम।
वो अठ्ठारह साल का 33 गांवों का जमींदार जिसकी मूछें भी अभी ढंग से नहीं आई, जिसने कुछ दिन पहले ही शादी रचाई है, बोलता है कि अरे काका, पीठ दिखा के भाग जाऊं तो पुरखों को क्या मुँह दिखाऊंगा। मैं तो यहीं मरूंगा आज पर तुम निकल जाओ, क्योंकि अब तुम डर चुके हो, तुम्हारी स्वामिभक्ति अब इस मैदान में मेरे किसी काम की नहीं, बस एक घोड़ा मंगवा दो, और हाथी बैठा दो, देखते हैं कि मेरी तलवार को अंग्रेज खून पसन्द आता है या नहीं।
घोड़े पर बैठकर उस बालक राजा ने पल भर में ही बारह फिरंगियों को जमीन पर लिटा दिया, पर भीड़ बहुत थी और थोड़ी ही देर में घोड़े को इतनी चोटें लगी कि वो अब किसी काम का ना रहा। घोड़ा गिरा उसके पहले ही उछल कर खड़ा हो गया वो वीर। अंग्रेजों ने अपने सामने 6 फुट से अधिक कद के हट्टे कट्टे एक युवक को देखा जिसके गले पर बहुत बड़ा घेंघा था, जिसके दाढ़ी मूंछ विहीन चेहरे पर खून की बूंदें छिटक कर आ पड़ी थी, और जिसने बड़े आराम से अपने ढाल फेंककर अपने बाएं हाथ में भी तलवार पकड़ ली। जाने क्या सोचकर वो थोड़ा सा मुस्कुराया और जय श्री राम बोल पैदल ही टूट पड़ा। उत्तर दक्खिन पूरब पश्चिम जिधर पैर समाया उधर ही जैसे किसान खड़ी फसल काटता है, वो राजा काटता गया इंसान। भागती फौज ने देखा ये मंजर, देखा कि उनका एक राजा अकेला ही मरने को इतना उतावला है तो स्वर्ग में जाने की जैसे होड़ मच गई। आते गए, कटते गए, अपने राजा की वीरता को देख एक एक कर मरते गए।
लड़ते लड़ते उस मैदान के पांच आम के पेड़ों की कतारों के सामने घिर गया वो चहलारी का ठाकुर। अंग अंग से टपकता अपना और शत्रुओं का खून, शरीर पर चिपका हुआ मानव मांस। थकान और प्यास से बेहाल शरीर, पर अकड़ बरकरार। आंखों ही आंखों में तौलकर फिर बढ़ाया उसने कदम, और अपनी एक तलवार पर वार सहते हुए दूसरी से काटता गया दुश्मनों को। पर फिर पीछे से चलाई गई एक तलवार ने बहुत गहरा घाव कर दिया। इंसान कितना ही वीर हो, शरीर को चलने के लिए रक्त तो चाहिए ही। रक्त बहता गया, मस्तिष्क धुंधलाने लगा, पैर डगमगाने लगे पर हाथों में पकड़ी तलवार चलती रही।
और, और फिर वो गिर गया। वो मर गया, वो अमर हो गया।
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अंग्रेजों के सेनापति सर होपग्रान्ट अपनी किताब Incedents In The Sepoy War में लिखते हैं कि उन्होंने बड़ी बड़ी लड़ाइयां लड़ी, हिंदुस्तान के एक से बढ़कर एक वीरों से लोहा लिया, पर नवाबगंज की लड़ाई जैसी लड़ाई उन्होंने कभी नहीं देखी थी। इन जाबांज वीरों में भी एक वीरों का वीर, महावीर था।
लंदन टाइम्स के रिपोर्टर और उस समय के सेनानी सर विलियम रसल ने उस महावीर का नाम लिखा "ठाकुर बलभद्र सिंह चलहारी"।
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18 साल के उस युवक सेनानी, हमारे युग के "अभिमन्यु", चलहारी के ठाकुर श्री बलभद्र सिंह को उनके गर्वित देशवासी वंशज सादर प्रणाम करते हैं।
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अजीत
6 अगस्त 17