एक दिन पहरेदार ने दूरबीन से देखा कि कुछ गोरे नाव में बैठकर इलाहाबाद की ओर जा रहे हैं। उसने तुरंत ही श्रीमंत नाना साहब को सूचित किया और उन्हें तोप से उड़ा देने की आज्ञा मांगी। पहरेदार ने ही बताया था कि नाव में औरतें और बच्चे भी हैं, स्त्रियों को मारने की आज्ञा कैसे देते श्रीमंत, मना कर दिया। उधर नाव आगे बालू में फंस गई। अब इसे मां गंगा की उन अंग्रेजों पर अकृपा मानते हुए वो पहरेदार फिर नाना साहब के पास आया और अनुमति के आवरण में सूचित कर गया कि हमें उन्हें उड़ा देना चाहिए और जाकर तोप में बत्ती दे दी। नाव में बारूद भरी थी जो गोला पड़ते ही धधक उठी और साथ ही जल मरे कुछ अंग्रेज मर्द, औरतें और बच्चे। जो 10 औरतें, 3 बच्चे और 4 पुरुष बच गए उन्हें कैद कर लिया।
ब्रह्मावर्त (बिठूर) की जेल में 8 अंग्रेज औरतों और कुछ बच्चों को कैद किया गया, 25 आदमी पहरे पर थे। सुबह दिशा-मैदान हाजत-रफा के लिए उन्हें गंगा किनारे लाया जाता और फिर वापस जेल। एक गोरी ने एक भंगिन को फोड़ लिया, एक दिन जब निपटने के बाद वो उसी जगह एक पत्र छोड़कर और भंगिन को इशारा कर जाने लगी तो एक पहरेदार ने देख लिया। लगभग तुरन्त ही पत्र खोज लिया गया और नाना साहब के सामने पेश किया गया। अंग्रेजी जानने वाले बुलाये गए जिन्होंने बताया कि खत में लिखा था कि यहां लोग अपनी जीत में मस्त हैं, फौज भी आराम कर रही है, हमला करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा।
ये सब पढ़कर सैनिक भड़क उठे और इन औरतों को मारने चले। नाना साहब रोकते रहे कि सिर्फ उस षणयंत्रकारी औरत को गोली मारो पर उन्माद कहाँ किसी की सुनता है और ये भी कि जब दिल में किसी विशेष रंग वर्ण के लिए नफरत भरी हो तो मस्तिष्क की आंखें सो जाती हैं। जैसे कागज को कोई बच्चा चिन्दी चिन्दी कर देता है, इन पापियों ने निरपराध औरतों बच्चों को काट डाला।
हिन्दू इतिहास में ऐसा कुकृत्य कभी नहीं हुआ था। ये वो घटना थी जिसने स्वतंत्रता संग्राम को बस एक गदर भर बन जाने दिया। लोगों को लगने लगा कि इस महापाप से अंग्रेजो पर बनाई बढ़त खत्म होगी और गोरे फिर से राज करेंगे।
बस 15 ही दिन बाद तो गोरी पलटनों और मद्रासी काली पलटनों ने घेर लिया था कानपुर को। जंग शुरू हुई और ग्यारहवें दिन नाना अपने भाइयों बाला साहब और राव साहब के साथ मैदान छोड़कर बिठूर वापस आ गए और उसी रात अपनी पत्नियों सहित गंगा पार कर लखनऊ की बेगम की शरण चले गए।
इधर दूसरे दिन कानपुर में 'खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल अंग्रेज सरकार का' की घोषणा कर दी गई। पेशवा के सहायकों को गोली मार दी गई, कुछ को सरेराह फाँसी दी गई। 2 दिन लगे ये सब व्यवस्था करने में, फिर गोरी और उनकी सहायक काली फौजें चली बिठूर अपना बदला लेने। बिठूर की सड़कों पर जो आदमी मिला उसे गोली मार दी गई, घरों में घुसकर औरतों का शील लूटा गया। हजारों लोग मरे, नगर मुर्दाघर बन गया। अगले दिन शहर लूटा गया, गोरों ने सोना चांदी, कालो ने तांबा पीतल कपड़े। 12 बजे तक शहर लूटने के बाद लुटेरे बढ़ चले श्रीमंत के महलों की ओर। तसल्ली से राजमहल को लूट कर उसमें आग लगा दी गई। राम मंदिर, उसकी मूर्ति, राजोद्यान सब तोड़ फोड़ दिया गया।
बाजीराव (द्वितीय) पेशवा ने गंगा किनारे श्री सरस्वतेश्वर महादेव मंदिर बनवाया था, जो पूरी तरह संगमरमर का था और जिसकी लागत लाखों रुपये थी।
बाजीराव जैसे भी रहे हों, अपनी पत्नी से अथाह प्रेम करते थे। सरस्वती बाई थी भी अद्वितीय। रूपसी, गुणवती, दिलदार, तेजस्विनी, न्यायपरायण, हँसमुख पर साथ ही नियम कायदों की पाबंद। इतनी कि चाहे वो कोई भी हो, गर रत्ती भर भी नियम कायदों का उलंघन करता, उसे तुरंत ही महल से बाहर करवा देती।
आप सबसे ज्यादा उसी से डर सकते हैं जिससे सबसे अधिक प्रेम करते हों, बाजीराव पेशवा भी कोई अपवाद नहीं थे। सरस्वती बाई अगर कभी बैठक में आने वाली होती तो पेशवा अपने आप-पास बैठे ऐरो-गैरों को तुरन्त हटा देते। बीमारी के कारण बाई दिवंगत हुई तो पेशवा बहुत दुखी हुए। गंगा किनारे उचित जगह देखकर उनकी चंदन कपूर की चिता जली। उसी जगह पर पेशवा ने बाई साहब की याद में एक भव्य विशाल संगमरमर के शिवमन्दिर का निर्माण कराया।
अंग्रेजों ने पूरा मंदिर तहस नहस कर दिया, शिवलिंग तोड़ दिया। वो शानदार इमारत धूल में मिल गई। वो महिला जिसे प्रजा का एक एक बच्चा प्यार करता था, उसके गुणों का बखान करता था, आज उसका कोई नाम तक नहीं जानता। उसके पति ने पत्नी का नाम चिरकाल तक अमर रखने के लिए जिस अजीम शिवमन्दिर की स्थापना की, उस सरस्वतेश्वर महादेव शिवालय दुनिया के नक्शे से बस यूं ही गायब कर दिया गया। आज उस जगह शायद कुत्ते लोटते हों या घूरा पड़ा हो।
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अजीब था ये गदर, अपने मूल चरित्र के विरुद्ध हिंदुओं ने स्त्रियों बच्चों की हत्या की, और अंग्रेजों ने कत्लेआम के साथ-साथ स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरणों, कई मंदिरों भवनों को मटियामेट कर दिया।
मेरे मन में हमेशा ये प्रश्न रहा कि क्या वास्तव में 1857 पहला स्वतंत्रता संग्राम था या सिर्फ एक गदर?
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मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।
ब्रह्मावर्त (बिठूर) की जेल में 8 अंग्रेज औरतों और कुछ बच्चों को कैद किया गया, 25 आदमी पहरे पर थे। सुबह दिशा-मैदान हाजत-रफा के लिए उन्हें गंगा किनारे लाया जाता और फिर वापस जेल। एक गोरी ने एक भंगिन को फोड़ लिया, एक दिन जब निपटने के बाद वो उसी जगह एक पत्र छोड़कर और भंगिन को इशारा कर जाने लगी तो एक पहरेदार ने देख लिया। लगभग तुरन्त ही पत्र खोज लिया गया और नाना साहब के सामने पेश किया गया। अंग्रेजी जानने वाले बुलाये गए जिन्होंने बताया कि खत में लिखा था कि यहां लोग अपनी जीत में मस्त हैं, फौज भी आराम कर रही है, हमला करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा।
ये सब पढ़कर सैनिक भड़क उठे और इन औरतों को मारने चले। नाना साहब रोकते रहे कि सिर्फ उस षणयंत्रकारी औरत को गोली मारो पर उन्माद कहाँ किसी की सुनता है और ये भी कि जब दिल में किसी विशेष रंग वर्ण के लिए नफरत भरी हो तो मस्तिष्क की आंखें सो जाती हैं। जैसे कागज को कोई बच्चा चिन्दी चिन्दी कर देता है, इन पापियों ने निरपराध औरतों बच्चों को काट डाला।
हिन्दू इतिहास में ऐसा कुकृत्य कभी नहीं हुआ था। ये वो घटना थी जिसने स्वतंत्रता संग्राम को बस एक गदर भर बन जाने दिया। लोगों को लगने लगा कि इस महापाप से अंग्रेजो पर बनाई बढ़त खत्म होगी और गोरे फिर से राज करेंगे।
बस 15 ही दिन बाद तो गोरी पलटनों और मद्रासी काली पलटनों ने घेर लिया था कानपुर को। जंग शुरू हुई और ग्यारहवें दिन नाना अपने भाइयों बाला साहब और राव साहब के साथ मैदान छोड़कर बिठूर वापस आ गए और उसी रात अपनी पत्नियों सहित गंगा पार कर लखनऊ की बेगम की शरण चले गए।
इधर दूसरे दिन कानपुर में 'खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल अंग्रेज सरकार का' की घोषणा कर दी गई। पेशवा के सहायकों को गोली मार दी गई, कुछ को सरेराह फाँसी दी गई। 2 दिन लगे ये सब व्यवस्था करने में, फिर गोरी और उनकी सहायक काली फौजें चली बिठूर अपना बदला लेने। बिठूर की सड़कों पर जो आदमी मिला उसे गोली मार दी गई, घरों में घुसकर औरतों का शील लूटा गया। हजारों लोग मरे, नगर मुर्दाघर बन गया। अगले दिन शहर लूटा गया, गोरों ने सोना चांदी, कालो ने तांबा पीतल कपड़े। 12 बजे तक शहर लूटने के बाद लुटेरे बढ़ चले श्रीमंत के महलों की ओर। तसल्ली से राजमहल को लूट कर उसमें आग लगा दी गई। राम मंदिर, उसकी मूर्ति, राजोद्यान सब तोड़ फोड़ दिया गया।
बाजीराव (द्वितीय) पेशवा ने गंगा किनारे श्री सरस्वतेश्वर महादेव मंदिर बनवाया था, जो पूरी तरह संगमरमर का था और जिसकी लागत लाखों रुपये थी।
बाजीराव जैसे भी रहे हों, अपनी पत्नी से अथाह प्रेम करते थे। सरस्वती बाई थी भी अद्वितीय। रूपसी, गुणवती, दिलदार, तेजस्विनी, न्यायपरायण, हँसमुख पर साथ ही नियम कायदों की पाबंद। इतनी कि चाहे वो कोई भी हो, गर रत्ती भर भी नियम कायदों का उलंघन करता, उसे तुरंत ही महल से बाहर करवा देती।
आप सबसे ज्यादा उसी से डर सकते हैं जिससे सबसे अधिक प्रेम करते हों, बाजीराव पेशवा भी कोई अपवाद नहीं थे। सरस्वती बाई अगर कभी बैठक में आने वाली होती तो पेशवा अपने आप-पास बैठे ऐरो-गैरों को तुरन्त हटा देते। बीमारी के कारण बाई दिवंगत हुई तो पेशवा बहुत दुखी हुए। गंगा किनारे उचित जगह देखकर उनकी चंदन कपूर की चिता जली। उसी जगह पर पेशवा ने बाई साहब की याद में एक भव्य विशाल संगमरमर के शिवमन्दिर का निर्माण कराया।
अंग्रेजों ने पूरा मंदिर तहस नहस कर दिया, शिवलिंग तोड़ दिया। वो शानदार इमारत धूल में मिल गई। वो महिला जिसे प्रजा का एक एक बच्चा प्यार करता था, उसके गुणों का बखान करता था, आज उसका कोई नाम तक नहीं जानता। उसके पति ने पत्नी का नाम चिरकाल तक अमर रखने के लिए जिस अजीम शिवमन्दिर की स्थापना की, उस सरस्वतेश्वर महादेव शिवालय दुनिया के नक्शे से बस यूं ही गायब कर दिया गया। आज उस जगह शायद कुत्ते लोटते हों या घूरा पड़ा हो।
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अजीब था ये गदर, अपने मूल चरित्र के विरुद्ध हिंदुओं ने स्त्रियों बच्चों की हत्या की, और अंग्रेजों ने कत्लेआम के साथ-साथ स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरणों, कई मंदिरों भवनों को मटियामेट कर दिया।
मेरे मन में हमेशा ये प्रश्न रहा कि क्या वास्तव में 1857 पहला स्वतंत्रता संग्राम था या सिर्फ एक गदर?
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मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।