वे दिन
*****
गर्मी बहुत है। इतनी कि अब मच्छर नहीं काटते, मर गए सब। बस यही एक अच्छी बात है गर्मियों की। अलसाई सी सुबह है, रात भर इधर उधर करवट बदलने के बाद सुबह थोड़ी नींद आई थी कि इन चिड़ियों ने खलल डाल दी। अंगड़ाई लेता हुआ उठा, सामने सूरज धीरे से अपना सर निकाल कर झांक रहा है। ढेरों तोते सर के ऊपर से टें टें करते निकल गए। ताड़ के पेड़ पर कोई बन्दर है शायद, अरे नहीं, ये तो कोई आदमी है जो किसी सर्कस के नट की भांति जल्दी जल्दी लटकी हुई लभनियाँ चेक कर रहा है। लभनी पता है ना, वो मिट्टी के करीब 5-7 लीटर के बर्तन जिन्हें पिछली शाम के फेरे में ताड़ के फलों के नीचे लगा दिया गया था।
भरी हुई दो लभनियों को उसने अपनी कमर में लगे रस्से में ना जाने कैसे लटका लिया और सरपट नीचे उतर आया, इतनी तेज तो फौज के जवान भी ना उतर पाएं। बड़े भैया भी उठ गए हैं, मैं प्रकृति निहार रहा हूँ और वो मुझे। फिर बैठे बैठे ही हांक लगाई और वो 'बन्दर' एक लभनी घर पहुंचा गया। ऊपर तैरते, रसपान की कोशिश में शहीद कीड़ों को हटा कर ताड़ी पी, आनन्द आ गया।
ऊंचे स्वर में कोई गा रहा है, नजर दक्षिण में बहती वरुणा की तरफ चली गई, कितनी सूख गई है, पर इतनी है कि मल्लाह की नाव अपने धंदे पर लग सके। ये गीत वही नाववाला मल्लाह गा रहा है। याद आया, इससे एक कील मांगी थी, पहुंचाया नहीं अभी तक।
तपन बढ़ रही है। नीचे आ गया। पिता अखबार निगल रहे हैं, मां किचन में सज्ज है। सारे भाई हैंडपंप से नहा रहे हैं, किल्लोल कर रहे हैं। मैं भी पहुंच गया हूँ, अभी ढंग से कपड़े भी नहीं उतारे की भीग चुका हूं, पता नहीं कौन पीठ पर साबुन लगा गया। 5 मिनट में ही, बिना हाथ हिलाए पूरी तरह नहा लिया है।
नाश्ता अमीर लोग करते होंगे, इधर तो भर पेट खाना खाते हैं। शिकायतों का अंबार लगा दिया है सबने। मुझे लौकी की दाल नहीं पसन्द, मुँह फुला लिया, एक भाई को दही कम मिला, एक की खीर में गरी क्यों है, मंझले भैय्या प्याज का टुकड़ा चाहते हैं पर इतने शोर में मां सुन ही नहीं पाती। अपना हुक्का छोड़ आजी (दादी) ने मोर्चा संभाला अब, 5 मिनट में सबको राजी कर लिया उन्होंने, प्यार से डांटकर 2 रोटी अधिक खिला दी सबको। उसके बाद भी सबके पेट दबा दबा कर देखती है कि कही कोई जगह बची है तो कुछ और ठूंस दिया जाय।
दोनों बड़े भाई पता नहीं क्या ये मोटी मोटी किताब पढ़ते हैं, उपन्यास, पर हम चारों को तो कॉमिक्स पसन्द है। कोई ध्रुव तो कोई नागराज का दीवाना, पर मुझे तो बाँकेलाल और हवलदार बहादुर अच्छे लगते हैं।
लाइट हो तो दोपहर में कूलर के आगे नींद बहुत अच्छी आती है। नींद खुलने पर पता चलता है कि कूलर के आगे आपका स्थान बदल चुका है, या कूलर की दिशा ही बदल दी गई है। बताओ, इतना कपट।
शाम होने से पहले ही हम चारों निकल पड़े हैं मैदान में, आज गेंतड़ी खेलेंगे। आस पास के 10-12 लड़के भी आ गए। एक घण्टा होने को आया, पापा वापस आने की आवाज लगा रहे हैं पर छोटा जाकर "10 मिनट" और मांग लाया है। अगले एक घण्टे में हम पस्त हो चुके हैं, पसीना फूट पड़ा है, आराम कर रहे हैं कि किसी लड़के ने खींच कर गेंद मारी जो भाई को लग गई। दौड़ा के पकड़ लिया उस लड़के को और जी-भर कूट दिया अच्छे से।
वापस आये तो नहाने का एक और दौर चालू, पर इस बार ना हैडपम्प है ना कपड़े उतारने का मौका ही मिला। बड़े भैया पौधों को पाइप से पानी दे रहे थे, इस समय प्रेशर भी खूब आता है, वही पाइप हम लोगों की ओर मोड़ दिया। बेचारी चिड़िया, हमारी धमाचौकड़ी से डर कर उड़ गईं, थी भी तो बहुत, और कितने अलग अलग टाइप की।
अंधेरा होने लगा है, 50 मीटर पर स्थित तपोवन आश्रम के साधू विशाल बरगद पर बैठे गिद्धों को उड़ाने के लिए थाल और नगाड़े पीट रहे हैं, उन्हें उसी बरगद तले सोना जो है, पता चला रात में कोई बीट कर दिया तो। ये गिद्ध वहां से उड़ इधर की तरफ बीसियों ताड़ के पेड़ों पर बैठ जाते हैं। आजी भुनभुनाते हुए कहती है कि "ज्जा ये भइय्या, जाने कवन करम कइला जा कि साधू क जनम मिलल, अब बेचारी चिड़िया उड़ावत बाटा जा, अगले जनम जाने का बनबा"। हा हा हा, जैसे कोई जन्म से साधू ही पैदा होता हो, आजी भी ना...
थोड़ी देर में ही घण्टनाद और शंखनाद सुनाई देता है, घण्टियाँ बज रही हैं, मतलब शाम की आरती होने लगी। कान लगा कर सुनो तो कितना सुंदर, कितना सुमधुर लगता है इन साधुओं और भक्तों का एकलय में गाना।
रात हो गई, छत पर पानी छिड़कने के बाद सबने अपने अपने बिस्तर बिछा लिए हैं, बतियाते बतियाते कब नींद आ जाएगी, पता ही नहीं चलेगा।
आई लव गर्मी
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डेढ़ साल बाद बनारस आया हूँ। सुबह सोकर उठा और बालकनी में चाय लिए बैठा हूँ। घर के आसपास इतने नए और ऊंचे घर बन गए कि उगता हुआ सूरज नहीं दिखता, वरुणा नहीं दिखती, मल्लाह की आवाज नहीं आती, वरुणा पर पुल बने भी तो कई साल हुआ अब।
याद ताजा करने को ताड़ के पेड़ों की ओर देखता हूँ, 40-50 में से गिनती के 3 पेड़ दिखते हैं, आवाज देता हूँ तो एक 'बन्दर' बोतल में ताड़ी पहुँचा जाता है। (सुबह की ताड़ी, बिना मिलावट वाली नशा नहीं करती, स्वास्थ्य के लिए उत्तम कही जाती है।)
ना अब हैडपम्प है ना यहाँ भाई, सामूहिक स्नान अब स्वप्न है। अकेले बैठ कर खाना खाया और फेसबुक लेकर बैठ गया। दोपहर हुई तो एसी चलाकर सो गया।
शाम छत पर आ गया, मैदान बहुत छोटा रह गया है, पर एक भी बच्चा नहीं दिखता। बाबाओं का वो थाली और नगाड़े का शोर नहीं, अब गिद्ध बचे ही कहाँ जो उन्हें उड़ाने की जरूरत पड़े। नीचे आंगन में झांकता हूँ तो 2 फाख्ते और तीन चार बया दिखती हैं, पर मेरी फेवरेट गौरैया कहीं नहीं। गौरैयों की बहुत याद आती है, उनकी जाने कितनी पीढियां साल दर साल हमारे कमरे के रौशनदान में अपना घोंसला बनाती थी, हम डर के मारे पंखा नहीं चलाते थे।
समय तो हो गया, पर घण्टनाद और शंखनाद क्यों नहीं सुनाई दे रहा। क्या साधू भी बदल गए? नहीं, ध्यान से सुनों को सब सुनाई दे रहा है, पर सभी घरों में एकसाथ चलाये गए 'टुल्लू' मशीन की आवाज में, पुल के ट्रैफिक में सब दब गया हैं। हां, इस तरफ के दैत्रा बाबा मंदिर में बजता डिजिटल भजन अपने पूरे जलाल पर सभी आवाजों को दबाता हुआ मेरे सर में घुस रहा है।
रात हो गई, सोने जा रहा हूँ, फिर से वही बोरिंग दिन शुरू होगा कल।
ये गर्मी का मौसम बहुत बुरा लगता है।
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अजीत
30 मई 17
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गर्मी बहुत है। इतनी कि अब मच्छर नहीं काटते, मर गए सब। बस यही एक अच्छी बात है गर्मियों की। अलसाई सी सुबह है, रात भर इधर उधर करवट बदलने के बाद सुबह थोड़ी नींद आई थी कि इन चिड़ियों ने खलल डाल दी। अंगड़ाई लेता हुआ उठा, सामने सूरज धीरे से अपना सर निकाल कर झांक रहा है। ढेरों तोते सर के ऊपर से टें टें करते निकल गए। ताड़ के पेड़ पर कोई बन्दर है शायद, अरे नहीं, ये तो कोई आदमी है जो किसी सर्कस के नट की भांति जल्दी जल्दी लटकी हुई लभनियाँ चेक कर रहा है। लभनी पता है ना, वो मिट्टी के करीब 5-7 लीटर के बर्तन जिन्हें पिछली शाम के फेरे में ताड़ के फलों के नीचे लगा दिया गया था।
भरी हुई दो लभनियों को उसने अपनी कमर में लगे रस्से में ना जाने कैसे लटका लिया और सरपट नीचे उतर आया, इतनी तेज तो फौज के जवान भी ना उतर पाएं। बड़े भैया भी उठ गए हैं, मैं प्रकृति निहार रहा हूँ और वो मुझे। फिर बैठे बैठे ही हांक लगाई और वो 'बन्दर' एक लभनी घर पहुंचा गया। ऊपर तैरते, रसपान की कोशिश में शहीद कीड़ों को हटा कर ताड़ी पी, आनन्द आ गया।
ऊंचे स्वर में कोई गा रहा है, नजर दक्षिण में बहती वरुणा की तरफ चली गई, कितनी सूख गई है, पर इतनी है कि मल्लाह की नाव अपने धंदे पर लग सके। ये गीत वही नाववाला मल्लाह गा रहा है। याद आया, इससे एक कील मांगी थी, पहुंचाया नहीं अभी तक।
तपन बढ़ रही है। नीचे आ गया। पिता अखबार निगल रहे हैं, मां किचन में सज्ज है। सारे भाई हैंडपंप से नहा रहे हैं, किल्लोल कर रहे हैं। मैं भी पहुंच गया हूँ, अभी ढंग से कपड़े भी नहीं उतारे की भीग चुका हूं, पता नहीं कौन पीठ पर साबुन लगा गया। 5 मिनट में ही, बिना हाथ हिलाए पूरी तरह नहा लिया है।
नाश्ता अमीर लोग करते होंगे, इधर तो भर पेट खाना खाते हैं। शिकायतों का अंबार लगा दिया है सबने। मुझे लौकी की दाल नहीं पसन्द, मुँह फुला लिया, एक भाई को दही कम मिला, एक की खीर में गरी क्यों है, मंझले भैय्या प्याज का टुकड़ा चाहते हैं पर इतने शोर में मां सुन ही नहीं पाती। अपना हुक्का छोड़ आजी (दादी) ने मोर्चा संभाला अब, 5 मिनट में सबको राजी कर लिया उन्होंने, प्यार से डांटकर 2 रोटी अधिक खिला दी सबको। उसके बाद भी सबके पेट दबा दबा कर देखती है कि कही कोई जगह बची है तो कुछ और ठूंस दिया जाय।
दोनों बड़े भाई पता नहीं क्या ये मोटी मोटी किताब पढ़ते हैं, उपन्यास, पर हम चारों को तो कॉमिक्स पसन्द है। कोई ध्रुव तो कोई नागराज का दीवाना, पर मुझे तो बाँकेलाल और हवलदार बहादुर अच्छे लगते हैं।
लाइट हो तो दोपहर में कूलर के आगे नींद बहुत अच्छी आती है। नींद खुलने पर पता चलता है कि कूलर के आगे आपका स्थान बदल चुका है, या कूलर की दिशा ही बदल दी गई है। बताओ, इतना कपट।
शाम होने से पहले ही हम चारों निकल पड़े हैं मैदान में, आज गेंतड़ी खेलेंगे। आस पास के 10-12 लड़के भी आ गए। एक घण्टा होने को आया, पापा वापस आने की आवाज लगा रहे हैं पर छोटा जाकर "10 मिनट" और मांग लाया है। अगले एक घण्टे में हम पस्त हो चुके हैं, पसीना फूट पड़ा है, आराम कर रहे हैं कि किसी लड़के ने खींच कर गेंद मारी जो भाई को लग गई। दौड़ा के पकड़ लिया उस लड़के को और जी-भर कूट दिया अच्छे से।
वापस आये तो नहाने का एक और दौर चालू, पर इस बार ना हैडपम्प है ना कपड़े उतारने का मौका ही मिला। बड़े भैया पौधों को पाइप से पानी दे रहे थे, इस समय प्रेशर भी खूब आता है, वही पाइप हम लोगों की ओर मोड़ दिया। बेचारी चिड़िया, हमारी धमाचौकड़ी से डर कर उड़ गईं, थी भी तो बहुत, और कितने अलग अलग टाइप की।
अंधेरा होने लगा है, 50 मीटर पर स्थित तपोवन आश्रम के साधू विशाल बरगद पर बैठे गिद्धों को उड़ाने के लिए थाल और नगाड़े पीट रहे हैं, उन्हें उसी बरगद तले सोना जो है, पता चला रात में कोई बीट कर दिया तो। ये गिद्ध वहां से उड़ इधर की तरफ बीसियों ताड़ के पेड़ों पर बैठ जाते हैं। आजी भुनभुनाते हुए कहती है कि "ज्जा ये भइय्या, जाने कवन करम कइला जा कि साधू क जनम मिलल, अब बेचारी चिड़िया उड़ावत बाटा जा, अगले जनम जाने का बनबा"। हा हा हा, जैसे कोई जन्म से साधू ही पैदा होता हो, आजी भी ना...
थोड़ी देर में ही घण्टनाद और शंखनाद सुनाई देता है, घण्टियाँ बज रही हैं, मतलब शाम की आरती होने लगी। कान लगा कर सुनो तो कितना सुंदर, कितना सुमधुर लगता है इन साधुओं और भक्तों का एकलय में गाना।
रात हो गई, छत पर पानी छिड़कने के बाद सबने अपने अपने बिस्तर बिछा लिए हैं, बतियाते बतियाते कब नींद आ जाएगी, पता ही नहीं चलेगा।
आई लव गर्मी
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डेढ़ साल बाद बनारस आया हूँ। सुबह सोकर उठा और बालकनी में चाय लिए बैठा हूँ। घर के आसपास इतने नए और ऊंचे घर बन गए कि उगता हुआ सूरज नहीं दिखता, वरुणा नहीं दिखती, मल्लाह की आवाज नहीं आती, वरुणा पर पुल बने भी तो कई साल हुआ अब।
याद ताजा करने को ताड़ के पेड़ों की ओर देखता हूँ, 40-50 में से गिनती के 3 पेड़ दिखते हैं, आवाज देता हूँ तो एक 'बन्दर' बोतल में ताड़ी पहुँचा जाता है। (सुबह की ताड़ी, बिना मिलावट वाली नशा नहीं करती, स्वास्थ्य के लिए उत्तम कही जाती है।)
ना अब हैडपम्प है ना यहाँ भाई, सामूहिक स्नान अब स्वप्न है। अकेले बैठ कर खाना खाया और फेसबुक लेकर बैठ गया। दोपहर हुई तो एसी चलाकर सो गया।
शाम छत पर आ गया, मैदान बहुत छोटा रह गया है, पर एक भी बच्चा नहीं दिखता। बाबाओं का वो थाली और नगाड़े का शोर नहीं, अब गिद्ध बचे ही कहाँ जो उन्हें उड़ाने की जरूरत पड़े। नीचे आंगन में झांकता हूँ तो 2 फाख्ते और तीन चार बया दिखती हैं, पर मेरी फेवरेट गौरैया कहीं नहीं। गौरैयों की बहुत याद आती है, उनकी जाने कितनी पीढियां साल दर साल हमारे कमरे के रौशनदान में अपना घोंसला बनाती थी, हम डर के मारे पंखा नहीं चलाते थे।
समय तो हो गया, पर घण्टनाद और शंखनाद क्यों नहीं सुनाई दे रहा। क्या साधू भी बदल गए? नहीं, ध्यान से सुनों को सब सुनाई दे रहा है, पर सभी घरों में एकसाथ चलाये गए 'टुल्लू' मशीन की आवाज में, पुल के ट्रैफिक में सब दब गया हैं। हां, इस तरफ के दैत्रा बाबा मंदिर में बजता डिजिटल भजन अपने पूरे जलाल पर सभी आवाजों को दबाता हुआ मेरे सर में घुस रहा है।
रात हो गई, सोने जा रहा हूँ, फिर से वही बोरिंग दिन शुरू होगा कल।
ये गर्मी का मौसम बहुत बुरा लगता है।
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अजीत
30 मई 17