भानुमति_1
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युवराज युधिष्ठिर के बुलावे पर कृष्ण अपने मित्र ब्राह्मणश्रेष्ठ श्वेतकेतु और सात्यक पुत्र युयुधान जिन्हें सात्यकि के नाम से जाना जाता है और जिन्हें विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों में से एक माना जाता है, के साथ हस्तिनापुर की यात्रा पर हैं और अभी पुष्कर तीर्थ पर पड़ाव डाले हुए हैं। कृष्ण के चचेरे भाई और बालसखा देवभाग पुत्र उद्धव पूर्वसूचना देने कुछ दिनों पहले ही हस्तिनापुर जा चुके हैं। पूरे आर्यावर्त में कृष्ण के पराक्रम चमत्कार की तरह प्रसिद्ध हैं, उन्हें रास्ते में पड़ने वाली राजन्य वर्ग के साथ साथ आमजन का भी आतिथ्य स्वीकार करना पड़ रहा है। शांतिकाल है, मगध का जरासंघ शांत है, पांचाल में परोपकारी द्रुपद और हस्तिनापुर में धर्मराज युधिष्ठिर का राज है, कदाचित इसीलिए कृष्ण को भी कोई जल्दी नहीं हैं।
अचानक ही बाहर हलचल होती है और द्वारपाल के सूचित करने से पहले ही उद्धव औपचारिकताओं की अनदेखी करते हुए सीधे कृष्ण के गले लग जाते हैं। बलिष्ठ परन्तु सौम्य तथा मर्यादित उद्धव का यह भावुक व्यवहार देख सात्यकि अचंभित रह जाते हैं और श्वेतकेतु किसी बुरी सूचना का अनुमान लगा लेते हैं।
कृष्ण उद्धव की पीठ सहलाते हुए पूछते हैं, "क्या हुआ भाई, सब कुशल तो है?"
उद्धव जब बोलते हैं तो लगता है कि गले में कुछ फँसा हुआ है और बस रोने ही वाले हैं, "सब खत्म हो गया कृष्ण, पांडव नहीं रहे"।
तीनों चीत्कार कर उठे, श्वेतकेतु सर पकड़ कर बैठ गए, सात्यकि समझ नहीं पाए कि अर्जुन और सहदेव के होते ये कैसे सम्भव है, कृष्ण को लगा कि किसी ने उनके सीने में घूंसा मार दिया हो। सात्यकि पानी ले आये थे, उद्धव को पिलाने के बाद कहा, "हे देवभाग तनय, तनिक सांस ले लो, फिर बताओ कि हुआ क्या था?"
"वो लाक्षागृह में जल मरे युयुधान"।
कृष्ण उनके कंधे को दबाते हुए उन्हें आसन पर बिठाते हैं और कहते हैं, "पूरी बात बताओ भाई"।
"मैं जब हस्तिनापुर पहुंचा तो मंत्री विदुर मेरा स्वागत करने आये थे, फिर मैं उनके साथ आदरणीया माता सत्यवती, और पितामह को प्रणिपात करने के पश्चात पांडवों के भवन में गया। युधिष्ठिर अपनी परिषद में जा रहे थे, उनके साथ बुद्धिमान सहदेव भी थे। वहां मुझे सिर्फ अर्जुन मिले जो अपने शस्त्रों को चमका रहे थे। मैं उनसे बात करने लगा, थोड़ी देर में भीम आये और सगर्व बताया कि उन्होंने पूरी व्यवस्था कर ली है, पूरे भवन में धनुर्धर तैनात कर दिए हैं। उन्होंने बताया कि उन्हें सहदेव ने और सहदेव को विदुर ने बताया था कि दुर्योधन अपने साथियों सहित पांडवों की हत्या का षणयंत्र रच रहा है।
थोड़ी देर बात नकुल कुछ सिपाहियों के साथ आये और भीम से परामर्श कर उन्हें तैनाती का आदेश देकर हमारे साथ बैठ गए। माता कुंती भी आई और अंततः युधिष्ठिर प्रसन्न मुद्रा में आते दिखे। नकुल ने देखते ही कहा कि बड़े भैया प्रसन्न दिख रहे हैं, लगता है कोई बड़ी बात हुई है।
युधिष्ठिर ने उन्हें बताया कि हमारी हत्या की आशंका से पितृव्य महाराज धृतराष्ट्र अत्यंत व्यथित हैं। उनकी व्यथा दूर करने तथा पांडवों का जीवन सुरक्षित करने का बस एक ही उपाय था कि युवराज पद का त्याग कर दिया जाए और हस्तिनापुर से कुछ समय के लिए निर्वासित हो लिया जाए।"
सात्यकि क्रोध से भर उठे, "ये धर्मराज का धर्म भी ना जाने कैसा है, 4 महावीर भाइयों के होते वे ऐसा अन्याय कैसे सह सकते हैं, स्वयं भी वो दुर्योधन सहित सभी भाइयों के लिए अकेले ही पर्याप्त हैं, फिर भी उनकी ये भीरुता समझ नहीं आती"।
श्वेतकेतु समझाते हुए कहते हैं, "नहीं सात्यकि, उन परिस्थितियों में धर्मराज का निर्णय सही था। नगर के अंदर हुए युद्ध से कई निर्दोष मारे जाते। पर उद्धव, जब उन्होंने निर्वासन स्वीकार कर लिया तो भीम और नकुल ने कोई आपत्ति नहीं की?"
कृष्ण विषाद की मूर्ति बने बैठे थे, पर बोल पड़े, "वो विचित्र परिवार है, सब एक दूसरे का विरोध भले करें पर अंततः सहमत हो ही जाते हैं, क्यों ना हो, युधिष्ठिर ने बाल्यकाल से ही पिता बनकर उनका पालन किया है। तुम आगे कहो भाई, फिर क्या हुआ?"
"उन्होंने वारणावर्त में एक वर्ष का निर्वासन स्वीकार कर लिया। तुम देखते कृष्ण, जनता की व्यथा, वे विद्रोह पर उतारू थे, परन्तु भीम ने उन्हें शांत किया और सभी भाई माता सहित चले गए। मैं भी उनके साथ था। वहां के निवासियों ने हमारा स्वागत किया। पांडवों के रहने के लिए जो भवन तैयार किया गया था उसमें कुछ आपत्तिजनक सा लगा हमें। फिर मैं उत्कोचक चला गया। वहीं सुना कि महल में आग लग गई और माता सहित सभी जल मरे। मैं उल्टे पांव लौटा पर वहां बस राख ही थी और छह कंकाल जिनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।"
"हा उद्धव, तो क्या तुम अंत समय तक उनके साथ नहीं थे?"
उद्धव को लगा कि कोई बहुत बड़ी भूल हो गई उनसे। उन्हें पांडवों का साथ नहीं छोड़ना था। बहुत दिनों से रोकी हुई रुलाई फूट पड़ी। कृष्ण ने मर्मान्तक पीड़ा से व्यथित अपने भाई को गले लगा लिया, और बोले, "मेरी सारी योजना धरी की धरी रह गई। धर्म स्थापित करने वाले सूर्य अस्त हो गए मित्र"।
श्वेतकेतु के ये पूछने पर कि अब हमें क्या करना चाहिए, स्पष्टवादी सात्यकि बोल पड़े कि अब हमारा इस आर्यावर्त में क्या काम। युधिष्ठिर तो रहे नहीं, कृष्ण की योजना के आधारस्तम्भ तो वही थे। चलिए, हम अपने देश चलते हैं।
अचानक ही कृष्ण की भंगिमा बदल गई, और जब वो बोले तो जैसे स्वयं समय बोल रहा हो, "हम अब वर्षों तक द्वारिका नहीं जा पाएंगे युयुधान, आर्यावर्त में हमारा होना अब हमारा कर्तव्य है। जरा सोचो कि उधर मगध में जरासंघ है जो फिर से विदर्भ के भीष्मक और चेदि के शिशुपाल से गठजोड़ बढ़ा रहा है, हस्तिनापुर पर अब अधर्मी और नासमझ दुर्योधन का राज है जो कपटी शकुनि के हाथ का खिलौना है। वहां द्रोण भी हैं जिनका युवराज युधिष्ठिर पर कोई प्रभाव नहीं था पर दुर्योधन पर होगा, वे पांचाल नरेश द्रुपद से अपनी कटुता भुना सकते हैं, और परम्परागत शत्रु के विरुद्ध भीष्म भी कुछ नहीं कर पाएंगे। द्रुपद भी अपनी शत्रुता निभाने को तैयार बैठे हैं, वो अपनी पुत्री द्रोपदी के बदले एक वीर चाहते हैं जो द्रोण से टक्कर ले सके, सम्भवतः अब वे उसका विवाह जरासंघ के पौत्र मेघसन्धि से कर दें। जरासंघ अब काशी को पददलित कर आगे बढ़ सकता है। द्रुपद जरासंघ को कुरुओं के विरुद्ध और जरासंघ द्रुपद को यादवों के विरुद्ध युद्ध करने को बाध्य करेंगे।
नहीं मित्र सात्यकि, यादव अधर्म को फैलता नहीं देख सकते। पांडवों के ना होने से धर्म स्थापित करने का गुरुतर भार अब हमारे कंधों पर है। मैं हस्तिनापुर जाऊंगा, मेरी बुआ की मृत्यु हुई है, मुझे परम्परानुसार वहां शोक प्रगट करने जाना ही चाहिए। मैं उस अधर्म के पंक में से ही धर्म को खोजूंगा मित्र। उद्धव, शोक छोड़ो, हम हस्तिनापुर चल रहे हैं।"
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#भानुमति:2
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राजधानी से कुछ योजन दूर किसी सुंदर वन में, किसी छोटी सी झील के किनारे एक रथ खड़ा है। रथ में एक सांभर और कुछ खरगोश पड़े हुए हैं। कुछ दूर तीन व्यक्ति आग के इर्द-गिर्द बैठे हैं। थोड़ी अधेड़ उम्र का व्यक्ति लेटा हुआ है, और बहुत शांत भाव से अपने दांतों में फंसे मांस के टुकड़े निकाल रहा है। भुने गोश्त को काटता व्यक्ति बहुत सुदर्शन है, विलक्षण तेज सा निकलता प्रतीत होता है उसके ऊपर से, कदाचित उसके कुंडलों की वजह से। तीसरा अत्यंत ही सुंदर और बलिष्ठ व्यक्ति जिसके सर पर अन्य दोनों की तुलना में अधिक अधिकार दर्शाता मुकुट है, कभी बैठता है तो कभी चहलकदमी करने लगता है।
लेटा हुआ व्यक्ति मांस काटते हुए व्यक्ति से कहता है, "अंगराज, तनिक बताओ तो कि तुम्हारे मित्र युवराज सुयोधन इतने विचलित क्यों हैं, अब तो दूर दूर तक कोई भी कंटक दिखाई नहीं देता।"
टहलता हुआ दुर्योधन अचानक बैठ जाता है और अपने मामा को घूरते हुए कहता है, "मामा, तुम मुझे दुर्योधन ही कहा करो, इस नाम में अधिकार, सत्ता और पराक्रम की झलक दिखती है मुझे। और मैं सशंकित इसलिए हूँ क्योंकि मेरा दुर्भाग्य कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ता"।
"ऐसा क्यों कहते हैं युवराज, अब तो पांडव भी नहीं रहे", अंगराज कर्ण अपने मित्र की व्यथा समझ नहीं पाता। स्पष्टवादी व्यक्ति ऐसे ही होते हैं।
"मेरा दुर्भाग्य क्या तुमने नहीं देखा कर्ण, मेरे पिता बड़े थे फिर भी जाने क्यों ईश्वर ने उन्हें अंधा पैदा किया। अंधत्व अगर राजा बनने से रोकता है तो चाचा पांडु भी तो पाण्डुरोग से ग्रसित थे, उन्हें क्यों राजा बना दिया गया। अगर इतना ही नियम देखना था तो चाचा विदुर को राजा बनना चाहिए था।
फिर भाग्य का ये प्रहार भी तो देखो कि माता के गर्भ में पहले मैं आया पर जन्म पहले युधिष्ठिर का हुआ। कहीं मेरे पुत्र को भी ये दुर्भाग्य सहन ना करना पड़े, मैंने काशीराज की कन्या से विवाह कर लिया जिससे मेरा पुत्र अपनी पीढ़ी का पहला कुरु हो। पर देखो कि वो अपनी माता के साथ ही चल बसा।
अब इतने वर्षों बाद ये भले दिन आये हैं, कोई कांटा नहीं है, फिर भी मैं अब तक युवराज ही हूँ। मेरे पिता राजा हैं और जाने कितने वर्षों तक राजा बने रहेंगे, वे ही क्यों, चिरयौवना हमारी पितामही सत्यवती और भयंकर बुड्ढा भीष्म भी अभी जीवित हैं, वो कपटी विदुर भी तो है। क्या इन लोगों के रहते मैं कभी पूर्ण राजा बन भी पाऊंगा।
हे ईश्वर, और अब ये ग्वाला कृष्ण यहां क्या करने आ रहा है? मामा, मुझे ये चरवाहा सही नहीं लगता। ये कोई ना कोई कपटजाल फैलाकर मुझे अवश्य ही मेरे अधिकार से वंचित कर देगा। मुझे बताओ मामा, मैं क्या करूँ"।
शकुनि अपनी वक्र मुस्कान के साथ बोला, "अरे भरतश्रेष्ठ, तुम नाहक ही इतना परेशान होते हो। कृष्ण भले ही कितना भी पराक्रमी हो, चमत्कारी हो पर जिन पांडवों का तर्पण तक हो गया उन्हें पुनर्जीवित तो नहीं ही कर पायेगा।
मुझे तुम्हारी एक बात बहुत अनुचित लगती है वत्स, वासुदेव रहे होंगे कभी ग्वाले या चरवाहे, पर आज वो यादवों के सिरमौर हैं। उनके साथ अनगिनत यादव अतिरथी हैं जिनमें से प्रत्येक की सैनिक शक्ति आर्यावर्त के किसी भी शासक से कम नहीं है। क्या तुम सात्यकि, कृतवर्मा, उद्धव, अक्रूर को नहीं जानते। कंस का वध तो पुरानी बात हो गई, उन्होंने तो जरासंघ तक को दो-दो बार धूल चटा दी है। कालयवन जैसे महान म्लेच्छ राजा का दर्प चूर किया है। भीष्मक की पुत्री का भरे स्वयंवर से हरण किया और रुक्मी को पराजित किया है। अभी कुछ महीनों पहले ही तो शाल्व को भी हराया ना उन्होंने। राजा विराट और राजा द्रुपद जैसे मित्र हैं उनके। यादवों के पास प्रभास जैसे तीन बंदरगाह हैं जो सुदूर देशों से उनके लिए स्वर्ण लेकर आते हैं, उनकी सम्पत्ति के सामने तुम्हारी कुल कुरु सम्पत्ति नगण्य है।
स्मरण रखो पुत्र कि कोई तुम्हारा शत्रु ही क्यों ना हो, शांतिकाल में उसके सम्मुख सद्व्यवहार ही करना चाहिए। वैसे तुम तो गुणों को देखते हो ना, अपने इन मित्र कर्ण को देखो, तुमने इनके गुण देखकर ही तो इन्हें अपना मित्र माना होगा। उस योद्धा-गुरु द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा को भी तो तुमने उसके गुणों के आधार पर ही मित्र माना था ना। तो इस 'ग्वाले' कृष्ण को अपना मित्र बनाने में तुम्हें क्या आपत्ति है? वो पांडवों का निकट संबंधी था, तो वही सम्बंध तुम्हारा भी है उससे। अब कुरुओं का भविष्य हो तुम, और कॄष्ण शक्तिशाली हैं, शक्तिशाली से मित्रता की जाती है, बैर नहीं।
मेरी मानो तो उसका खुले दिल से स्वागत करो, साम, दाम, भेद से उसे अपना मित्र बनाओ।
और अंगराज, तुम कृष्ण से दूर रहना। स्पष्टवादी व्यक्तियों को धूर्त राजनीतिज्ञों से दूर ही रहना चाहिए।"
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#भानुमति:3
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प्रथा के अनुसार युवराज दुर्योधन और कुमार दुःशासन कुछ अन्य मंत्रियों के साथ हस्तिनापुर के द्वार से एक योजन आगे जाकर कृष्ण, उद्धव और सात्यकि का स्वागत करते हैं। कृष्ण अपनी बुआ कुंती और फुफेरे भाइयों की असामयिक मृत्यु पर शोक प्रकट करने आये हैं। सभी ने शोकसूचक श्वेत वस्त्र पहने हैं। कृष्ण अत्यंत दुखी मनस्थिति में हैं परंतु फिर भी वे देख पा रहे हैं उनके चमत्कारों, पराक्रमों को जानकर उनके स्वागत में खड़ी भीड़ कितनी दुखी है, पांडवों के जाने का वास्तविक दुख आम जनता को ही है।
वहीं दुर्योधन है जो स्पष्टतः दुखी दिखने का भरसक प्रयत्न कर रहा है, हालांकि नितांत असफल है। शकुनि के प्रयत्न वास्तविक प्रतीत होते हैं, आंखों से अविरह अश्रु प्रवाहित हो रहे हैं, कभी-कभी तो सिसकियां भी निकल जाती हैं। थोड़ी ही दूर एक सुदर्शन योद्धा है जिसे पहचानने में किसी को कोई शंका नहीं हो सकती। ये अंगराज कर्ण हैं, कर्ण का वास्तविक परिचय पिता वसुदेव ने दिया है। ये एक ऐसा रहस्य है जो कुछ लोगों को ही ज्ञात है।
अगली सुबह कृष्ण अपने साथियों सहित राजा धृतराष्ट्र से मिलने गए। राजा उदास प्रतीत होते हैं, पर बहुत संकुचित से हैं, जैसे ये विचार कर बहुत सोच समझ कर बोल रहे हों कि कहीं कुछ ऐसा ना निकल जाए जिससे यादवों को कोई भनक लगे।
पितामह भीष्म के भवन में जब वे विदुर के साथ गए तो पितामह ने उनका खुले दिल से स्वागत किया और बोले, "आओ वासुदेव, तुम कदाचित पहली बार ही हस्तिनापुर आये और हमारा दुर्भाग्य कि ये अवसर दुख का है। खैर, तुम्हारे पराक्रमों को सुनकर मेरी धारणा थी कि तुम कोई बलिष्ठ पुरुष होगे। आश्चर्य, तुम तो नितांत युवक सदृश्य हो। मेरे सामने बैठो, मुझे देखने दो कि कैसे तुम्हारी इन पेशियों ने मुष्टिक, चारुण और कंस जैसे मल्ल योद्धाओं का मानमर्दन किया होगा। तुम्हें देखकर मुझे मेरे अर्जुन की याद आती है वत्स"।
पितामह का इतना प्रेमपूर्ण और सहज व्यवहार देखकर कृष्ण को सुखद आश्चर्य हुआ। उन्होंने हमेशा ही राजपुरुषों को अपने प्रति शंकालू ही पाया था, ये कैसा राजपुरुष है जो इतने साफ हृदय का है। थोड़ी नर्म आवाज में वासुदेव बोले, "पितामह, कुरु साम्राज्य को स्थिर करने, और धर्मस्थापना की आपकी सारी योजना तो धरी रह गई ना?" भीष्म ने ऐसे प्रश्न की आशा किसी युवक से नहीं की थी, उन्हें ध्यान से देखने के बाद कहा, "पांडव मानव रत्न थे वत्स। पांडु जब सिंहासन पर बैठा था तो मुझे लगा कि मेरा बोझ कम हुआ, पर उसने अल्पायु में ही सन्यास ले लिया। कितनी कठिनाइयों के बाद युधिष्ठिर को युवराज बनाया पर भाग्य। मेरा ये पुत्र अपने पिता जैसा ही था वत्स, वैसा ही वीर, दयालु, धर्मपरायण, प्रजावत्सल, और उसके भाई भी कैसे कैसे। महाबली भीम, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन, युद्ध के सबसे आवश्यक अवयव अश्वों के महान ज्ञाता, अभियंता नकुल और आज तक के कुरुओं में सबसे बुद्धिमान सहदेव।"
"तो पितामह, महाराज और आपने उन्हें निर्वासित क्यों किया?"
"हमने निर्वासित नहीं किया पुत्र, युधिष्ठिर ने खुद ही निर्वासन ले लिया। वो समझ गया था कि अगर पांडव यहां रहे तो गृहयुद्ध छिड़ेगा, रक्त की नदियां बहेंगी और, और फिर भी वे जीवित नहीं बचेंगे। परन्तु देखो, वे फिर भी मारे ही गए, भले ही दुर्घटना में ही मरे"।
"आपको पूर्ण विश्वास है पितामह कि ये दुर्घटना ही थी?" कृष्ण के इस प्रश्न से कदाचित भीष्म विचलित हो गए। वे ये बात स्वीकारना नहीं चाहते थे कि कोई कुरु अपने ही भाइयों की षणयंत्र द्वारा हत्या भी करवा सकता है। कृष्ण इस इतिहासपुरुष को प्रणाम कर अपने निवास लौट आये।
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पांडवों की मृत्यु को आज तीन महीने बीत गए है, शोक की इस अवधि में सारे ही औपचारिक और अनौपचारिक, राजकीय और नागरिक उत्सव रोक दिए गए थे। अब अवधि बीतने के पश्चात सभी समारोह मनाए जाने लगे हैं।
भीष्म ने अपने आवास पर यादवों के सम्मान में राजकीय भोज दिया है। कृष्ण अपने मित्रों के साथ भोजन की पंक्ति में बैठे हैं, कुरुकन्याएं और कुरुवधुएं भोजन परोस रही हैं। उन्ही में एक पुष्पों से सजी बालिकासदृश्य सत्रह वर्षीय नववधू भानुमति भी है। दुर्योधन की पहली पत्नी के असफल प्रसव में मृत्यु होने पर उसकी छोटी बहन भानुमति कुरु साम्राज्य की बहू बन कर आई है। कुछ तो कम आयु और कुछ काशी के उन्मुक्त वातावरण का प्रभाव, भानुमति अन्य कुमारियों की अपेक्षा अधिक खुले स्वभाव की है।
सौन्दर्यप्रेमी कृष्ण भानुमति को जितनी बार देखते हैं, उसे अपनी ओर ही देखता पाते हैं। उन आखों में चंचलता के साथ स्वयं के प्रति पूज्य भाव भी दिखता है उन्हें। वो है भी तो कितनी आकर्षक। बारम्बार प्रेम से कुछ ना कुछ थाली में डाल ही देती है, राजकीय मर्यादा तो जैसे उसने सीखी ही नहीं।
भोजनोपरांत जब अतिथि विदा होने लगे तो सभी कुरुनारियों को पीछे छोड़ भानुमति सबसे आगे हाथ जोड़े खड़ी हो गई। जैसे ही कृष्ण उसके सामने से जाने वाले होते हैं वो हठात पूछ बैठती है, "कान्हा, आप यहां सुख से तो हैं?" कृष्ण ने कान्हा सम्बोधन वर्षों पहले सुना था, ये तो उनकी राधा उन्हें बुलाती थी, जिसे वे जाने कब छोड़ आये थे। अकस्मात ही भानुमति के प्रति उनके हृदय में प्रेम उमड़ आया, जैसे अपनी द्वारिका की किसी गोपबाला से बात कर रहे हों, "आप लोगों ने इतना प्रेमपूर्वक रखा हमें, सुखी क्यों नहीं होंगे हम"। वे और भी बहुत कुछ कहना चाहते थे पर पितामह की तीक्ष्ण दृष्टि के प्रकोप से बचकर बाहर निकल गए। उस संध्या कृष्ण बहुत लोगों से मिले, पर उन्हें रह रह कर उस सुंदरी, उस किशोरी की याद आती रही।
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#भानुमति:4
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हस्तिनापुर आये अब बहुत दिन हुए। केशव को ना तो पांडवों की मृत्यु के पीछे छिपे षड्यंत्र की कुछ थाह लगी ना कोई विकल्प सूझा। यद्यपि आमजन का पूर्ण विश्वास था कि उनकी हत्या में धृतराष्ट्र पुत्रों का हाथ है। क्या भरत द्वारा स्थापित और कुरु, हस्ती, प्रतीप, शांतनु जैसे महान राजाओं द्वारा शासित यह राज्य इस अधर्मी दुर्योधन के हाथ लगेगा। केशव के मन में एक विचार ये भी आया कि कुन्तीपुत्रों में से एक बचा है अभी, जो धर्मतः पांडु का पुत्र है, अतिरथी कर्ण, युधिष्ठिर की तरह ही धर्मपरायण और भीम व अर्जुन की तरह महावीर। परन्तु वह तो दुर्योधन का अनुगत है। धर्मात्मा का किसी अधर्मी का अनुगत होना, विडम्बना ही है।
सोचते-सोचते रात्रिविश्राम का समय हो आया, कि उन्हें कुछ व्यक्तियों का पदचाप सुनाई दिया। मित्र उद्धव और सात्यकि तो नहीं होंगे ये, फिर इस समय? इनमें तो स्त्रीस्वर भी है। उन्होंने जब तक अपना उत्तरीय और मुकुट पहना, दुर्योधन अपनी पत्नी तथा कुछ मित्रों सहित कक्ष में प्रवेश कर गया।
प्रसन्न स्मित से बोला, "कृष्ण, आज देवी गौरीपूजा कर रही हैं, हम तुम्हें लिवाने आये हैं"।
कृष्ण ने अचंभित होकर पूछा, "इस समय गौरी पूजा? कोई विशेष कारण युवराज?"
देवी भानुमति ने स्वयं उत्तर दिया, "नहीं कान्हा, विशेष कुछ नहीं, ये तो मैं आर्यपुत्र के लिए नित्य ही करती हूं, पर शोक अवधि के कारण नितांत व्यक्तिगत ही था ये सब। पर अब तो समय बीत चुका है। हम चाहते हैं कि इसे पूर्ण उल्लास से मनाएं। नाचें-गाएं, ये अपशगुनी सन्नाटा खत्म भी तो हो। चलो ना कान्हा।" यह बोलते हुए उन्होंने कृष्ण की कोहनी पकड़ ली, और साधिकार दरवाजे की तरफ पग बढ़ाये। यूँ किसी परपुरुष का स्पर्श कुरु-परम्परा में अक्षम्य अपराध था, पर कदाचित भानुमति इन परम्पराओं को तोड़ने ही हस्तिनापुर आई थी।
कृष्ण ने सस्नेह मना करते हुए कहा, "नहीं देवी, मैं क्लांत हूँ, इस मनस्थिति में नहीं कि किसी समारोह में आप लोगों का साथ दे सकूं"। भानुमति किसी बच्ची की तरह मचल गई, पैर पटकते हुए बोली कि उन्हें चलना ही होगा। उसने इतना आयोजन किया ही किसके लिए है? कृष्ण बालहठ को कब तक टालते, साथ हो लिए।
गौरीपूजा का आयोजन निकट के एक उद्यान में था। माता काली की दयालु प्रतिमा के सम्मुख कुछ दीपक रखे हुए थे जिनमें सुगन्धित तेल जल रहा था, और सामने एक विशाल पात्र में मदिरा भरी पड़ी थी। कृष्ण दुर्योधन, विकर्ण, युयुत्सु इत्यादि के साथ आरती पूजा में भाग लेते हैं। फिर दुर्योधन उन्हें अपने साथ भूमि पर बिछे मुलायम आसन पर बिठा लेता है। भानुमति पूछती है, "कान्हा, आपकी बंसी कहाँ है? उसे बजाइये ना। हम सभी की ये इच्छा पूर्ण करेंगे ना आप?"
राधा की याद करते हुए कृष्ण बोले, "नहीं युवराज्ञी, मेरी वह बंसी तो वहीं वृंदावन में रह गई। उसके बाद मैंने जब भी बंसी बजाई, ना उससे वो स्वर निकले ना मुझे ही कोई आनन्द आया। पर आपको इतना कुछ कैसे पता?"
"मुझे सब पता है। जब आप कालयवन और जरासंघ से बचकर द्वारका गए तो आपके कितने ही चारण हमारी काशी में नौकर हुए। उन्होंने आपकी सारी पोलपट्टी खोल दी माधव। क्या आप सच में आज बंसी नहीं बजायेंगे? बाल्यकाल से ही मेरी कितनी इच्छा थी कि आपकी बंसी सुनूँगी, आपके साथ नृत्य करूंगी। आह, कितना अच्छा होता जो मैं आपकी गोपी होती।"
कृष्ण को लगा कि कहीं ये बातें दुर्योधन को बुरी तो नहीं लग रही, "आप युवराज्ञी हैं, कभी साम्राज्ञी बनेंगी। अपनी पत्नी को सम्भालिए युवराज, ये तो इस ग्वाले की गोपी बनना चाहती हैं।"
"मैं क्या करूँ कृष्ण, तुम जबसे यहां आए हो, इसने मेरे कान खा दिए हैं। आज ये कुछ भी बोले, तुम दोनों आपस में समझो, मुझे बीच में मत घसीटो", वारुणी का एक पात्र खत्म करता हुआ दुर्योधन बोला।
भानुमति ने टोकते हुए कहा, "अब आप चुप रहिए, आज कान्हा से केवल मैं बात करूंगी। अच्छा कान्हा, आर्यपुत्र कह रहे थे कि कहीं ये मदिरा कम ना पड़ जाए, क्या आप सब पी पाएंगे?"
सत्रह वर्षीय युवती है या सात वर्षीय बालिका, कितना भोलापन है इसमें, "युवराज्ञी, हालांकि अब यादव भी सुरापान करने लगे हैं, परन्तु यदि ये दूध होता तो मैं सारा ही पी जाता"।
फिर थोड़े समय पश्चात गीत नृत्य होते रहे। भानुमति और उसकी सखियों ने बहुत ही उन्नत नृत्य किया। युवक-युवती जोड़े में भी नृत्य कर रहे थे। कुछ पद दुर्योधन और दुःशासन भी नाचे, पर मुख्यतः वे मदिरापान ही करते रहे। ज्यों-ज्यों रात्रि बीतने लगी, लोग मदिरा का पान ज्यादा करने लगे। भानुमति कभी-कभी एकाध प्याला कृष्ण के होंठों पर लगा देती, और कृष्ण कहीं बच्ची का नाजुक हृदय बुरा ना मान जाए, होंठो से उसे छूआ भर देते।
कुछ दीपक बुझा दिए गए, चषकों की आवृत्ति बढ़ती गई, नृत्य तीव्रतम होता गया और जोड़ों के बीच शारीरिक दूरी कम होती गई। कृष्ण को समझ आ गया कि अब ये दैवी अनुष्ठान नहीं, अपितु वासना का नाच हो रहा है। उन्हें ये भी समझ आ रहा है कि दुष्ट दुर्योधन ने उनकी मित्रता पाने के लिए अपनी भोली पत्नी का उपयोग किया है। भानुमति की उनके प्रति श्रद्धा का इतना छिछोरा प्रयोग। छि, जो व्यक्ति अपनी पत्नी को इस स्थिति में डाल किसी अन्य पुरुष की मित्रता का अभिलाषी हो, वो कापुरुष है।
प्रायः अंधकार हो गय और जोड़े एकदूसरे की बाहों में झूल नशे में उन्मत्त हो इधर-उधर गिर पड़े। निकट ही उन्हें दुर्योधन की फुसफुसाहट सुनाई दी। आवाज से ही स्पष्ट था कि उसके अंक में भानुमति नहीं कोई और स्त्री है। तभी उनके ऊपर एक नारी शरीर गिरता है जो उनके होंठो की ओर प्याला बढ़ाते हुए कहता है, "कान्हा, मैं तुम्हारी गोपी हूँ कान्हा, ये प्याला लो और मेरे साथ नृत्य करो, आओ उठो ना। मुझे वृंदावन ले चलो माधव, मेरा दम घुटता है यहां। बोलो, ले चलोगे ना"। और भी कुछ अस्पष्ट शब्द बोलते हुए भानुमति मूर्छित हो जाती है।
हा, यह नारी रत्न क्या यूँ ही इस दुष्ट दुर्योधन के साथ नष्ट हो जाएगी। खिन्न हृदय केशव सोचते हैं कि अब यहां से चला जाये, परन्तु इन मद्यपों, व्याभिचारियों के मध्य इस बालिका को कैसे छोड़ दें। इसे इसकी सास के पास छोड़ना उचित होगा, ऐसा विचार कर वे उसे अपनी गोद में उठा आगे बढ़ते हैं। वो नशे और थकान में निरंतर कान्हा, गोपी, वृंदावन, बंसी, नृत्य बोलती है और रह-रह कर मचल जाती है। कृष्ण ने अपनी बलिष्ठ भुजाओं में उसे जकड़ रखा था। उद्यान से निकलने पर, प्रकाश मिलने पर वे उसके कपड़े ठीक करते हैं और गांधारी के दरवाजे जा पहुंचते हैं।
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#भानुमति:5
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काम्पिल्य नरेश यज्ञसेन द्रुपद ने गुरु संदीपनी से एक ऐसे तेजस्वी युवक के बारे में पूछा था जिससे वे द्रौपदी का विवाह कर सकें और जो द्रोण से उनका प्रतिशोध ले सके। द्रोण इस समय कौरवों के प्रधान सेनापति और युद्धशाला के आचार्य हैं, अतः उनसे भिड़ने का मतलब भीष्म, कर्ण, कृप, भूरिश्रवा सहित सम्पूर्ण कुरुशक्ति से युद्ध ठानना। गुरु संदीपनी को इतना उत्कृष्ट योद्धा केवल एक ही दिखाई देता है, यादवों का उद्धारक, नायक वासुदेव कृष्ण। यद्यपि उनके अन्य शिष्य वासुदेव बलराम और देवभाग-तनय उद्धव भी महान धनुर्धर, गदाधारी, मल्ल युद्ध और व्यूह निर्माण में प्रवीण हैं, अवंति के विन्द-अनुविन्द भी हैं, पर कृष्ण, कृष्ण तो अनन्य हैं। गुरु को कभी-कभी ये भी लगता है कि यही एक ऐसा शिष्य है जो गुरु से आगे निकल गया।
आचार्य श्वेतकेतु गुरु संदीपनी के कहने पर द्रुपद का संदेश लेकर आये है, द्रुपद चाहते हैं कि कृष्ण द्वारिका लौटने से पूर्व काम्पिल्य में उनका आतिथ्य ग्रहण करें। कृष्ण इस निमंत्रण को स्वीकार कर लेते हैं। अगली सुबह वे अपने मित्रों के साथ प्रस्थान करने वाले हैं कि अचानक महात्मा विदुर उन्हें पितामही, साम्राज्ञी सत्यवती का सन्देश लाते हैं कि माता उनसे मिलना चाहती हैं। ये अचंभे की बात थी, बहुत कम अतिथियों को ये सम्मान मिलता था।
विदुर कृष्ण को लेकर सत्यवती के पास लाते हैं। वे भगवती की छोटी प्रतिमा के सामने लकड़ी के आसन पर बैठी उनका स्वागत करती हैं। कृष्ण उन्हें साष्टांग प्रणाम कर उनके कहने पर सामने रखे आसन पर बैठ गए। 120 वर्षीय भीष्म और 80 वर्षीय कृष्ण द्वैपायन व्यास की 100 वर्षीय माता में अब भी वो सुंदरता विद्यमान है जिसने प्रतापी शांतनु को अपने वश में कर लिया था।
माता ने विदुर को भी बैठने का संकेत कर कृष्ण से कहा, "मैंने सुना कि तुम जा रहे हो। यहां तुम प्रसन्न तो रहे?"
"हाँ माता, आप सभी से मुझे बहुत स्नेह मिला।"
"तुम्हारे पिता वसुदेव, तुम्हारी माता देवकी एवं रोहिणी स्वस्थ तो हैं ना? उन्हें मेरा आशीर्वाद कहना, बलराम को भी। तुम्हारा कोई पुत्र है कृष्ण?"
"हाँ माता, प्रद्युम्न।"
"किससे, रुक्मिणी से? उसे भी मेरा आशीर्वाद देना पुत्र। तुम्हारी दूसरी पत्नी का नाम शैव्या है ना? भगवती करें कि तुम परिवार से सुखी रहो।"
कृष्ण माता की व्यथा समझ रहे थे। अपने पहले पुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास से उनके बचपन में ही अलग हो जाना, फिर चित्रांगद का अल्पायु में ही वीरगति, विचित्रवीर्य की रोग से मृत्यु, विचित्रवीर्य के एक पुत्र का अंधा पैदा होना, दूसरे का अल्पायु में ही राजन्य वर्ग में शिखर पर पहुंचकर सन्यास ले लेना, फिर अगली पीढ़ी का आपसी वैमनस्व। देवव्रत भीष्म के प्रति हुआ अन्याय भी उन्हें कहीं कचोटता होगा।
माता ने ही मौन भंग किया, "तुम्हारा उपकार है कुरुवंश पर। यदि तुमने भानुमति की मान रक्षा नहीं की होती तो कौरव आर्यावर्त में मुँह दिखाने योग्य नहीं होते। लोग तुम्हें उचित ही हृषिकेश कहते हैं, इंद्रियों का स्वामी"।
"आप मुझे लज्जित कर रही हैं माता। भानुमति बच्ची जैसी है, मुझे उसे देख नन्ही सुभद्रा की याद आती है। अगली सुबह भानुमति ने मुझे अपना भाई मानते हुए कुछ सौगातें भेजी थी जिसे मैंने स्वीकार किया। अब आप ही बताइये माता, मैंने क्या कोई उपकार किया। भाई यही तो करते हैं, इसमें किसी आश्चर्य की क्या बात?"
"साधु कृष्ण, साधु। कितना अच्छा होता जो कुरुकुमार भी तुमसे कुछ सीख पाते।"
"सभी कुरुकुमार दुष्चरित्र तो नहीं होंगे माता। विकर्ण और युयुत्सु अन्य जैसे नहीं लगे मुझे। पांडव तो अब नहीं रहे, वो होते तो आप कदाचित इतनी व्यथित नहीं होती।"
माता ने इधर उधर देखा, जैसे पक्का करना चाहती हों कि कोई अन्य तो उनकी बातें नहीं सुन रहा, "कृष्ण, तुमने भानुमति प्रकरण में अपनी सद्चरित्रता दिखाई है। तुम विश्वसनीय प्रतीत होते हो। क्या तुम हमारी मदद करोगे?"
"आप आदेश करें माता। अपितु मैं समझ नहीं पाता कि मैं सामान्य यादव-नायक कुरु साम्राज्ञी की क्या सहायता कर सकता हूँ।"
"क्या तुम मेरे खो गए पुत्रों को खोज निकालोगे? क्या मेरे हस्तिनापुर को उसके प्रिय युवराज, धर्मराज से मिलवा दोगे?"
कृष्ण को समझने में पल भर का समय लगा और वो आह्लाद से भर गए। क्या धर्मराज युधिष्ठिर और उनके महावीर भाई जीवित हैं? आहा ये तो इतना सुखद समाचार है कि वे अपनी सारी प्रतिष्ठा हार जाए। प्रेम, उत्साह और आनन्द से 'हृषिकेश' की आंखें भर आईं और उन्होंने पहले विदुर फिर माता सत्यवती की ओर देखकर पूछा, "क्या मेरे फुफेरे भाई जीवित है?"
उत्तर विदुर ने दिया, "हमें ये नहीं पता। हम ये जानते हैं कि वे लाक्षागृह में नहीं मरे। मेरी सूचना पर सहदेव और भीम ने सुरंग तैयार करवा ली थी और निश्चित तिथि से एक दिन पहले ही उस भवन को उसके निर्माता सहित अग्नि में होम कर निकल गए। अंतिम सूचना के अनुसार वे तुम्हारे नाना नागराज आर्यक की सीमा में प्रवेश करते हुए देखे गए थे। कदाचित वे और आगे राक्षसों की सीमा भी पार कर गए हों। हमारी समस्या है कि हम अधिक छानबीन नहीं कर सकते, अन्यथा कपटी शकुनि भांप जाएगा। हम स्वयं प्रयास नहीं कर सकते पर तुम कर सकते हो।"
माता बीच में बोल पड़ीं, "बोलो कृष्ण, क्या हमारी सहायता करोगे?"
"माता, आप जानती नहीं आपने मुझे आज क्या दे दिया है। नहीं माता, मैं आपकी सहायता नहीं करूंगा, पांडवों को खोजकर मैं अपनी ही सहायता करूँगा। वे धर्म है माता, वे अधिक दिनों तक छुप नहीं सकते। आर्यावर्त का भविष्य उन पर टिका है। मैं उन्हें ढूंढ निकालूंगा, उन्हें आना ही होगा। अहा, मुझे नहीं पता था कि भानुमति मेरे लिए इतनी शुभ होगी।"
(नाग, राक्षस, यक्ष, गंधर्व, देव, वानर, दानव इत्यादि मानवों की विभिन्न प्रजातियों के नाम हैं। इन जातियों में परस्पर वैवाहिक संबंध होते थे। नागराज आर्यक की पुत्री का विवाह यादव नायक शूरसेन से हुआ था। उद्धव का विवाह आर्यक के पुत्र राजा कर्कोटक की दो पुत्रियों से हुआ। मझले पांडव भीम का विवाह राक्षसी हिडिम्बा से हुआ। अर्जुन का विवाह नागकन्या उलूपी से हुआ जिसके पुत्र ने महाभारत संग्राम में भाग लिया था। सम्राट शांतनु का विवाह देवजाति की गंगा से हुआ था। इन्ही कुरुओं के पूर्वज पुरु का विवाह उर्वशी से हुआ था।)
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#भानुमति:6
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विदुर की सूचना पर कृष्ण पांडवों का पता लगाने हेतु स्वयं ही अभियान पर निकलना चाहते थे परंतु जगत्प्रसिद्ध वासुदेव कृष्ण के लिए ऐसा कर पाना असंभव था। लोग उनके दर्शन को इतने व्यग्र हो जाते कि उनका प्रेम देख कृष्ण उन्हें मना भी तो नहीं कर पाते थे। वे लम्बी अवधि तक छद्मवेश भी नहीं रख सकते। उनकी पहचान मोरमुकुट और पीताम्बर को एकबारगी हटा भी लें पर अपने आकाश की रंगत वाले वर्ण का क्या करें।
जैसे भगवान राम की हर समस्या मारुत पुत्र हनुमान सुलझा लेते थे, यहां कृष्ण के लिए उद्धव। बिना अनुमति लिए ही वे नागराज आर्यक के वनों में चले गए थे। उन्होंने कूटसूचना भिजवाई थी कि कुछ महीनों पूर्व 'कुछ ब्राह्मणों और एक वृद्धा' को वन में देखा गया था। इनमें से एक ब्राह्मण बहुत विशाल एवं बलिष्ठ था जो वृद्धा और कभी कभी अपने अन्य साथियों को अपने कंधे पर बिठा कर चलता था।
काम्पिल्य के रास्ते में ही उद्धव ने दूसरी सूचना भिजवाई कि वे अनुसंधान करते हुए राक्षसावर्त चले गए। वहां उन्हें राक्षसों के राजा वृकोदर मिले जो देवभाषा संस्कृत बोलते हैं, जिन्होंने पुराने राजा हिडिम्ब को मरणांतक युद्ध में पराजित कर राज्य पाया और कुमारी हिडिम्बा से विवाह किया। वे कुछ ही महीनों में पुत्रवान होने वाले हैं। उनके अन्य साथी और वो वृद्धा स्त्री इस वन में नहीं रहना चाहते, और राजा की पुत्रप्राप्ति के पांच महीनों पश्चात यहां से प्रस्थान करना चाहते हैं।
इधर कृष्ण का दल जलमार्ग से होता हुआ काम्पिल्य से एक पड़ाव पहले एकचक्रा तीर्थ पर आकर रुका। परम्परा अनुसार युवराज धृष्टधुम्न और प्रधानमंत्री उद्बोधन ने उनका स्वागत किया। फिर अतिथियों और आतिथेयों की सम्मिलित नौकाओं ने यात्रा प्रारंभ की। यात्रा अवधि में कृष्ण ने पाया कि धृष्टधुम्न एक संस्कारी युवा है, उन्हें यह जानकर भी संतोष हुआ कि यहां प्रजा सुखी और सम्पन्न हैं।
आश्चर्य की बात थी कि यहां का राजपरिवार कुंठित था, परन्तु इसका प्रभाव जनता पर नहीं पड़ने दिया गया। इसके उलट हस्तिनापुर का राजपरिवार अत्यंत प्रसन्न था पर प्रजा कुंठित थी।
राजा द्रुपद से औपचारिक भेंट के बाद उनके ही आग्रह पर वे सभी यात्रा की थकान मिटाने विश्राम करने चले गए। अगले दिन राजा द्रुपद ने उन्हें अपने व्यक्तिगत आम्रकुंज में बुलाया और कहा, "वासुदेव मैं यहां आपसे एक विचित्र प्रस्ताव करने वाला हूँ। गुरु संदीपनी से मैंने आपकी बहुत प्रशंसा सुनी है।"
"आदेश करें नरेश, मैं किस भाँति आपका सहायक हो सकता हूँ।"
"औपचारिकताएं छोड़िये वासुदेव, मैं आपसे अपनी पुत्री कृष्णा का विवाह करना चाहता हूं।"
"अभी आपने ही कहा कि औपचारिकता नहीं आनी चाहिए, तो क्या आप मुझे बताएंगे कि इस प्रस्ताव के पीछे असल कारण क्या है?"
ओह, कितना अच्छा होता कि इस युवक की अपेक्षा इसके पिता से बात करता, द्रुपद यही सोचते हुए बोले, "मैंने आपके बाहुबल की प्रशंसा सुनी है जिसने मल्लयुद्ध में कंस और चारुण जैसे योद्धाओं को हराया, आपका शाङर्ग भगवान शिव के त्रयम्बक के समान है, आपकी गदा विख्यात है और आपके कंधे पर रखा यह चक्र, इस शस्त्र का प्रयोग तो पीढ़ियों पहले हुआ करता था। आप बिना सारथी के चलते रथ से शरसंधान कर सकते हैं। हमने जरासंघ और कालनेमि से हुए संघर्ष में आपकी युद्धनीति सुनी है। गुरुकुलों में आपकी रणनीतियां शोध का विषय हैं।
वासुदेव, मैं स्पष्ट ही कहूँ तो मैं ऐसे वीर से अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता हूं जो सर्वश्रेष्ठ वीर हो, जो द्रोण के विरुद्ध अभियान में मेरी सेनाओं को विजय दिलाए। मैं स्पष्ट ही पूछता हूँ वासुदेव, क्या आप ये प्रस्ताव स्वीकार करते हैं?"
"महाराज, आपका यह प्रस्ताव पाकर आर्यावर्त का कौन सा युवक प्रसन्न नहीं होगा। पर आपने स्पष्ट होने की बात की है तो मैं आपको निराश नहीं करना चाहता, और ना ही कुरुओं और पांचालों के मध्य युद्ध का कारण बनना चाहता हूं"।
"क्या आप द्रोण से डरते हैं?"
"इस यादव को सिर्फ एक चीज से डर लगता है, अधर्म से। कुरुओं और पांचालों का युद्ध अधर्म होगा महाराज।"
"धर्म-अधर्म की सीख मुझे न दीजिये वासुदेव। मैंने हमेशा धर्माचरण किया है। मेरी प्रजा से पूछिए कि क्या उनमें से कोई एक भी अप्रसन्न है, किसी के साथ कोई अन्याय हुआ है।
कुरुओं पर अभियान अधर्म है वासुदेव तो जब द्रोण ने पांचाल पर अपने शिष्यों द्वारा आक्रमण करवाया था तो वो क्या था? उसे क्या आप धर्म कहेंगे? एक राज्य पर बिना चुनौती दिए आक्रमण करना, राजा को साधारण बंदियों की तरह बेड़ियों में बांध किसी अहंकारी ब्राह्मण के चरणों में डाल देना, क्या धर्म था? आप बताइये कृष्ण कि पिछली बार आपने कब सुना कि किसी विजेता ने पराजित राजा से उसके राज्य का एक भाग छीन लिया, उस क्षेत्र के नागरिकों की सारी संपत्ति अपने अधिकार में लेकर उन्हें खदेड़ दिया।
तब क्यों नहीं किसी वासुदेव ने धर्म अधर्म का पाठ पढ़ाया था द्रोण को, या कुरुसत्ता को?"
कृष्ण द्रुपद की कटुता समझ रहे थे, सात्वना सी देते हुए बोले, "निश्चित ही ये द्रोण की गलती थी। यदि उनका कोई व्यक्तिगत अपमान हुआ भी था तो उन्हें इसे भूल जाना चाहिए था। आप ये भी मानेंगे कि यदि गुरु की आज्ञा नहीं होती तो अर्जुन सहित अन्य कुरुकुमारों ने आपके राज्य पर आक्रमण तथा आपका अपमान नहीं किया होता।"
द्रुपद हाँ या ना सुनने के लिए व्याकुल थे, बोले, "तो आप मेरी कन्या से विवाह नहीं करेंगे"।
"महाराज, तनिक धैर्य रखें और शांतमस्तिष्क से सोचे कि मुझसे विवाह करने पर लाभ होगा या हानि। मुझसे सम्बन्ध होते ही मगधराज जरासंघ और उसके करद राजे आपके शत्रु बन जाएंगे। वे आपके विरुद्ध अभियान भी कर सकते हैं। मैं समझ नहीं पाता कि इतनी दूर द्वारका में बैठे हम यादव कैसे आपकी सहायता कर पाएंगे। मैं भी हमेशा ही तो गंगा-यमुना के तट पर नहीं रुक सकता।"
"बच्चे मत पढ़ाइये वासुदेव, जरासंघ यदि पांचाल पर आक्रमण करता है तो द्रोण कुछ भी कहें, कितनी भी शत्रुता हो, हस्तिनापुर की सीमाएं सुरक्षित रखने के लिए भीष्म अपनी सेना लेकर हमारी सहायता हेतु अवश्य आएंगे। आप अपना उत्तर दीजिये।"
"अवश्य, पर पहले मेरा एक प्रश्न। आपकी न्यायबुद्धि क्या कहती है महाराज, जैसे द्रोण ने अपने व्यक्तिगत अपमान का प्रतिशोध लिया, और अन्याय कर गए, क्या आप भी वही नहीं कर रहे। इस युद्ध में कितना निर्दोष रक्तपात होगा, आप भी समझते ही होंगे। आपका उद्देश्य द्रोण को नीचा दिखाना है तो मैं इसका उपाय आपको बताता हूँ। आप उनकी लकीर मिटाने की जगह अपनी लकीर बढ़ाइए। इतने बड़े बन जाइये कि द्रोण आपके सम्मुख गौण हो जाएं।
आप कृष्णा का स्वयंवर कीजिये। सच्चा स्वयंवर, जिसमें पुराने समय के अनुसार एक अत्यंत कठिन कसौटी हो। समूचे आर्यावर्त को आमंत्रित कीजिये। इससे आपको सर्वश्रेष्ठ वीर जमाता के रूप में मिलेगा और साथ ही उसके मित्र भी आपके मित्र बनेंगे। ये भी है कि स्वयंवर हारने वाले शत्रु नहीं बनते।"
द्रुपद इस युवक की टालमटोल से चिढ़ चुके थे, परन्तु स्वयंवर का विचार उन्हें अच्छा लगा। सही ही तो है। यादवों से सम्बन्ध कर वे जरासंघ, शिशुपाल और रुक्मी के शत्रु बन जाते, पर स्वयंवर में ऐसा कुछ भी होने की संभावना नहीं थी। फिर भी वे पूछ बैठे, "इस स्वयंवर में यादव भी भाग लेंगे ना? और यदि दुर्योधन, शिशुपाल या जरासंघ अथवा उसका पौत्र मेघसन्धि जीत गए तो?"
महाराज अब भी वासुदेव को ही अपना जमाता देखना चाहते थे, "यदि मेरी इच्छा हुई तो प्रतियोगिता में मैं भी भाग लूंगा। दाऊ बलराम के नेतृत्व में यादव आएंगे। इस स्वयंवर को सफल बनाने की जिम्मेदारी यादव लेते हैं। और महाराज मेरी माने तो आप कल ही घोषणा कर दें कि अगले वर्ष कृष्णा का स्वयंवर होगा। कसौटी की घोषणा ना करें। रही दुर्योधन, शिशुपाल इत्यादि की बात, तो विश्वास जानिए कि उनके लिए भी स्वयंवर जीतना आसान नहीं होगा। गुरु संदीपनी की देखरेख में आचार्य श्वेतकेतु कसौटी तय करेंगे।"
ना जाने कैसा प्रभाव था इस युवक की वाणी में, अदम्य द्रुपद भी उसकी बात मानने को सहमत हो गए। आज कौन सा ऐसा युवक होगा जो कृष्णा जैसे विदुषी, सुंदरी स्त्री को, साथ ही द्रुपद जैसे सामर्थ्यवान नरेश से होने वाले सम्बन्ध को यूँ ठुकरा दे। सामने खड़े मुस्कुराते युवक की ओर देख द्रुपद बोले, "जैसा आप उचित समझे कृष्ण। पर मुझे एक वचन दें। प्रतियोगिता में भले ही आपके शत्रु रुक्मी, शिशुपाल या जरासंघ विजयी हों, यादव पांचालों के मित्र बने रहेंगे"।
"जी महाराज, कृष्ण सदैव ही आपका और आपकी पुत्री कृष्णा का मित्र रहेगा, ये ग्वाला आपको वचन देता है।"
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#भानुमति:7
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किसी समय के दरिद्र और आज कुरुसत्ता के एक मजबूत स्तम्भ, श्रेष्ठ गुरु और कुरुओं के महान सैनिक नेता आचार्य द्रोण युद्धशाला में अपने नित्य के आसन पर बैठे थे। युवराज दुर्योधन, महावीर कर्ण और भयंकर दिखने वाले अश्वत्थामा सम्मुख खड़े अपने पुष्कर विजय का समाचार देने आये थे परंतु गुरु से डाँट खा रहे थे।
"मैंने तुम लोगों से चेकितान का हृदय जीतने को कहा था, तुम लोगों ने उसका राज्य छीन लिया?"
दुर्योधन प्रशंसा सुनने आया था, फटकार सुन स्तम्भित रह गया। उदण्ड स्वर में बोला, "गुरुदेव, वह बड़ा दुराग्रही था। वह सदैव हमारा मित्र नहीं बना रहता"।
"क्या ये बच्चों की मित्रता है जो अटूट रहेगी? राजनीति में कोई स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता दुर्योधन। चेकितान हमारा मित्र भले ना बनता, पर तुम उसे शत्रु बना आये। चेकितान यादव है जिसे द्वारका के राजा उग्रसेन ने पुष्कर का कार्यभार सौंपा है। तुमने चेकितान को नहीं, अपितु कृष्ण एवं बलराम को अपना शत्रु बनाया है।"
कर्ण विनीत स्वर में बोला, "परन्तु गुरुदेव, कौरव भी इतने सामर्थ्यहीन नहीं हैं। युवराज ने तो यह सोचकर पुष्कर पर विजय प्राप्त की कि इससे हम द्वारका, विराट और शाल्व पर दृष्टि रख सकें।"
"अच्छा, और इतने बड़े राजमार्ग की रक्षा कौन करेगा? जिसके सिरे पर यादव हों, पूरे रास्ते यादव बस्तियां हों, जिसके एक तरफ द्रुपद और दूसरी तरफ विराट व शाल्व हों, ऐसे क्षेत्र की सुरक्षा के लिए तुम लोगों को अनुमान भी है कि कितना धन और मानव संसाधन व्यर्थ व्यय होगा। जाओ, तुम सब यहां से जाओ। विश्राम करो, और मुझे सोचने दो कि इस कठिनाई से कैसे निकला जाए। मैं इस विषय पर महामहिम भीष्म से परामर्श करूँगा। मेरा आशीर्वाद लो और जाओ।"
उन सभी के जाने के पश्चात द्रोण विचार करने लगे। चेकितान वीर है और यादव है। यादवों का नेता कृष्ण आजकल आर्यावर्त को अपने जैत्र रथ से नाप रहा है। अभी द्रुपद का अतिथि है और कदाचित उनका जमाता बनने वाला है। कृष्ण का मित्र विराट है और शाल्व भी उसका साथ देगा। अगर ये सब मिल जाएं तो हस्तिनापुर पर भारी पड़ेंगे। वैसे भी पांडवों के ना होने से कुरुओं की सामरिक शक्ति कमजोर हुई है, और उनके निर्वासन व स्वर्गवास से कई कुरु-सरदार असंतुष्ट बैठे हैं।
"हाँ शंख, कुछ कहना चाहते हो", गुरु ने सम्मुख खड़े अपने अधेड़ उम्र के शिष्य से पूछा। शंख युद्धशाला में छात्र चयन समिति का प्रमुख था। शंख ने कहा, "गुरुदेव तीन अभ्यर्थी गुरुकुल में प्रवेश के अभिलाषी हैं। परंतु तीसरा लड़के से अधिक लड़की है।"
"उसे जाने के लिए कह दो। मैं कोई ऐसा शिष्य नहीं चाहता जो लड़के से अधिक लड़की हो।"
"वह नहीं जाएगा गुरुदेव। कल प्रातः से ही उसने आपसे मिले बिना भोजन ग्रहण करने से मना कर दिया है।"
"ठीक है, तीनों को बुलाओ।"
शंख तीनों को ले आता है। गुरु पहले लड़के से पूछते हैं, "अपना परिचय दो बालक"।
"मैं भद्र, आपकी सेना में कार्यरत एक सारथी का 10 वर्षीय पुत्र हूँ गुरुदेव।"
"हूँ, तो तुम सारथी बनने का प्रशिक्षण चाहते हो?"
"ये भी गुरुदेव, पर मैं मुख्यतः शस्त्र विद्या का अभिलाषी हूँ।"
गुरुदेव दूसरे बालक से भी यही प्रश्न पूछते हैं, जो किसी कुरु ग्राम के व्यापारी का पुत्र था एवं शस्त्रविद्या का अभिलाषी था। द्रोण कठोरता से उन दोनों से प्रश्न पूछते हैं और सन्तुष्ट होने पर पितृवत स्नेह से कहते हैं, "पुत्रों, यदि तुम परिश्रम करोगे तो मैं भी तुम्हें उत्कृष्ट योद्धा बनाने के लिए परिश्रम करूँगा"।
सभी के जाने के बाद गुरु तीसरे लड़के को ध्यान से देखते हैं जो सहमा सकुचाया सा खड़ा था। कमानीदार भवें, गहरी आंखें, रक्तिम कपोल, मुलायम केश, सीने पर कसकर बांधा गया कपड़ा, और नितंबों की बनावट सारा भेद खोल रही थी। जब उसने कुछ पग चलकर गुरु को प्रणिपात किया तो उसकी चाल में स्त्रियोचित माधुर्य था। इन सभी बातों के अतिरिक्त बालक विनयशील और दृढ़ प्रतीत होता था। गुरु द्रोण सहज ही उसकी तरफ आकर्षित हुए और पूछा, "तुमने कल से भोजन क्यों नहीं ग्रहण किया वत्स?"
"मुझे गुरुकुल से चले जाने के लिए कहा गया था देव, परन्तु मेरे जीवन का ध्येय तो आपका शिष्य बनना है।"
"तुम्हारी आयु क्या है वत्स?"
"सोलह वर्ष।"
"परन्तु तुम तो बारह वर्ष से अधिक के नहीं लगते। अस्तु, क्या तुमने वेदाभ्यास किया है?"
"हाँ गुरुदेव।"
"और धनुर्विद्या की प्रारंभिक शिक्षा?"
"प्राप्त की है गुरुदेव।"
"गदायुद्ध?"
"वह मैं आपके श्रीचरणों में प्राप्त करूँगा देव।"
"हूँ, और मल्लयुद्ध?"
लड़का थोड़ा सकुचाया, पर जब बोला तो उसके स्वर दृढ़ थे, "नहीं गुरुदेव, मेरे आचार्यों ने मुझे गदा और मल्लविद्या नहीं सिखाई। उन्हें लगता था कि मैं लड़की हूँ।"
द्रोण थोड़ा मुस्कुराए और बोले, "लड़कियों को तो मैं भी शिक्षा नहीं देता वत्स। उनके लिए योग्य गुरु मेरे गुरुकुल में नहीं। तुम अपना पूर्ण परिचय दो ब्रह्मचारी।"
"मैं ब्राह्मण नहीं हूं देव। कौशिक क्षत्रिय हूँ। मेरी स्वर्गीय माता काशी की राजकन्या थी। और मेरे पिता, मेरे पिता आपके शत्रु पांचाल नरेश यज्ञसेन द्रुपद हैं।"
अभी तक मंद-मंद मुस्कुराते द्रोण की हँसी विलुप्त हो गई, वे चौकन्ने हो गए। सशंकित द्रोण बोल पड़े, "ओह, तो जो सुना, वह सच है। द्रुपद का एक पुत्र वास्तव में पुत्री है।"
"इसमें मेरे पिता का दोष नहीं गुरुदेव। वे तो आज भी कहते हैं कि मैं वास्तविकता स्वीकार कर लूं। मेरा जन्म ननिहाल में हुआ था, जहां मेरी शंकालु माता ने यह समझकर कि पिता को पुत्र चाहिए था, पुत्री होने पर वे कुपित होंगे, उन्हें मिथ्या समाचार भिजवाया। दस वर्ष की अवस्था में माता की मृत्यु पश्चात मुझे काम्पिल्य लाया गया जहां ये भेद खुला।"
"पर तुम तो विवाहित भी हो?"
"हाँ गुरुदेव, छह वर्ष की अवस्था में दशार्ण की राजकुमारी का प्रस्ताव आया था जिसे पिता ने स्वीकार कर लिया। कठिनाई यही है गुरुदेव, अब राजा हिरण्यवर्मा अपनी पुत्री को विदा करना चाहते हैं। यदि वे आ गई तो सारा भेद खुल जायेगा देव। मेरे कारण मेरे पिता एवं पूरे साम्राज्य को लज्जित होना होगा। मेरे पास कोई रास्ता नहीं था देव, मैं आत्महत्या करने जा रहा था कि मुझे वे मिले। उन्होंने मुझे आपके पास भेजा।"
"मेरे पास, परन्तु क्यों? जिसने भी तुम्हें मेरे पास भेजा है वह अवश्य ही कोई मूर्ख व्यक्ति होगा।"
"नहीं देव, वे पृथ्वी पर सभी जीवित मनुष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान हैं।"
"अच्छा! क्या नाम है उनका।"
"वे कृष्ण वासुदेव हैं देव।"
द्रोण को एक झटका सा लगा। उन्हें लगा कि ये कृष्ण उनके चारों ओर कोई जाल बुन रहा है। द्रुपद की एक पुत्री से विवाह, और दूसरी पुत्री को उनके पास भेजने का क्या प्रयोजन हो सकता है? उन्होंने पूछा, "कृष्ण? वे तो द्रौपदी से विवाह करने वाले हैं ना?"
"मेरे पिता ने यह प्रस्ताव किया था, परन्तु जनार्दन ने यह कहते हुए मना कर दिया कि वे मेरे पिता के क्रोधोन्माद की आहुति बनने हेतु सज्ज नहीं हैं।"
द्रोण को लगा कि वे स्वप्न में ऐसी बात सुन रहे हैं। ऐसा प्रस्ताव कौन युवक ठुकरा सकता है। उन्हें लगा कि उनके अंदर कुछ परिवर्तित हुआ है। कुछ समय मनन करने के पश्चात उन्होंने कहा, "कृष्ण के इतने अधिक नाम क्यों हैं। मेरा प्रिय अर्जुन भी कई नामों से प्रसिद्ध था। हाँ! तो उन्होंने तुम्हें यहां क्यों भेजा?"
"गुरुवर, जब कृष्ण वहां आये तो मैंने देखा कि सबमें सकारात्मक ऊर्जा भर आई है। मेरे क्रोधित पिता, अदम्य भाई, दृढ़ बहन, सबमें कुछ सुखद परिवर्तन सा हुआ। उसी समय मेरे ससुराल से दूत ने आकर सूचित किया कि कुछ ही दिनों में राजा हिरण्यवर्मा अपनी पुत्री, अर्थात मेरी पत्नी को लेकर काम्पिल्य आ रहे हैं। मैं डर गया था, कोई उपाय ना देख मैंने मृत्यु की शरण जाने का निश्चय किया। परन्तु वहां स्वयं कृष्ण थे। मैं रात्रि में उनसे मिलने गया। वे मेरे साथ नदी तट पर टहलते हुए मेरी व्यथा सुनते रहे। उन्होंने मेरे अश्रु पोंछे, मेरे गाल थपथपाए जैसे मैं कोई बच्चा होऊं।
उन्होंने मुझसे कहा कि वत्स, जब तक धर्मयुक्त जीवन जीने का विकल्प हो, मरना नहीं चाहिए। तुम मरना ही चाहते हो तो मैं तुम्हें सम्मानपूर्वक मरने का मार्ग बताऊंगा। योद्धा बनो और किसी युद्ध में क्षत्रिय के समान वीरगति प्राप्त करो। गुरु द्रोण के पास जाओ, इस संसार में वही हैं जो किसी स्त्री को सच्चा योद्धा बना सकते हैं।"
"और तुमने उनका विश्वास कर लिया?"
"मेरे पास कोई विकल्प कहाँ था गुरुदेव। जब वे बोल रहे थे तो जैसे इस संसार में सिर्फ दो ही व्यक्ति थे, एक वे और दूसरा मैं। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम पिता की अनुमति के बिना मरने जा रहे थे तो उनकी इच्छा के विरुद्ध उत्तम जीवन जीने के लिए जीवित भी रह सकते हो। गुरु द्रोण के पास जाओ। वे भले ही तुम्हारे पिता के शत्रु हैं पर वो गुरु-शिष्य परम्परा के ध्वजवाहक हैं, वे किसी भी सच्चे शिष्य को विमुख नहीं कर सकते। उनके समक्ष सच्चे हृदय से जाना, मन में द्वेष का लेश भी ना रखना। उन्हें अपना पिता मानना।"
अचंभित द्रोण ने कहा, "और तुम यहाँ आ गए?"
विनीत शिखंडी ने उत्तर दिया, "हाँ गुरुदेव, मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरे आध्यात्मिक पिता हैं"।
द्रोण सोचते रह गए कि ये कृष्ण तो वास्तव में चमत्कारी है। मरने जा रहे व्यक्ति के अंदर जीवन का संचार तो कोई चमत्कारी ही कर सकता है। उसे मुझ पर भी इतना विश्वास है कि शत्रु की पुत्री को मेरी शरण में भेज दिया, आश्चर्य।
द्रोण गदगद स्वर में बोले, "शिखंडी, मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। मैं तुम्हें उत्कृष्ट योद्धा बनाऊंगा, परन्तु क्या तुम पुरुष भी बनना चाहते हो?"
"चाहता हूं गुरुदेव, पर जानता हूँ कि ये सम्भव नहीं।"
"मेरे प्रश्न का स्पष्ट उत्तर दो वत्स।"
"हाँ गुरुदेव, मेरा पुरुष मन इस स्त्री शरीर को स्वीकार नहीं कर पाता। आशीर्वाद दें गुरुदेव।"
"सोच लो शिखंडी। तुम्हारे इस सुंदर शरीर को काटा जाएगा, छीला जाएगा, कूटा जाएगा, मर्मान्तक पीड़ा होगी वत्स। महीनों तुम्हें कड़वी जड़ी-बूटियों पर निर्भर रहना होगा, अन्न और कभी-कभी जल भी नहीं मिलेगा।"
"मैं सब सहूंगा गुरुदेव।"
"ठीक है। तुम इस आश्रम में ब्रह्मचारी के भेष में रहोगे। पर पहले तुम्हें यक्ष स्थूलकर्ण के पास भेजा जाएगा। वह विलक्षण व्यक्ति है, स्त्री से पुरुष बनाने वाली शल्य विद्या उसे आती है। शंख तुम्हें उसके पास ले जाएगा। मेरा आशीर्वाद लो पुत्र, तुम्हें इतिहास याद रखेगा।"
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#भानुमति_8
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युद्धशाला में अपने रथ की प्रतीक्षा करते हुए द्रोण अत्यधिक क्रोधित थे। उन्हें राज्यसभा में मंत्रणा के लिए बुलाया गया था। यद्यपि वे अधिकांशतः युद्धशाला में ही रहते, उनका मुख्य कार्य विभिन्न राजकुलों या युद्धविद्या के इच्छुक राज्य के नागरिकों के बालकों तथा हस्तिनापुर की सैन्य वाहिनियों को प्रशिक्षण देना था, परन्तु उनकी रुचि आर्यावर्त की राजनीति पर भी बनी रहती थी।
उन्हें सूचना मिली थी कि पांचालकुमारी द्रौपदी का स्वयंवर चैत्रमास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा में निश्चित हुआ है, तथा द्रुपद ने आर्यावर्त के साथ ही बाहर के भी शक्तिशाली नरेशों को इसमें भाग लेने का निमंत्रण दिया है। कदाचित मिथिलाकुमारी सीता के बाद यह पहला स्वयंवर होगा जिसमें आर्यों के साथ गन्धर्व, यक्ष, देव, नाग सहित अन्य प्रजातियां भी आमन्त्रित की गई थी। परन्तु उन्हें इसका विश्वास नहीं था कि निमंत्रण यहां, कुरु साम्राज्य में भी आएगा। कुरुओं और पांचालों की शत्रुता तो पीढ़ियों से चली आ रही थी और स्वयं उनके इस राज्य में आ बसने से यह अग्नि और तीव्र ही हुई थी।
निश्चित ही इसी विषय पर मंत्रणा के लिए पितामह ने प्रमुख मंत्रियों को बुलाया होगा, परन्तु द्रोण के मन में यह निश्चित मत था कि कौरवों को यह निमंत्रण ठुकरा देना चाहिए। जब वे राजसभा पहुंचे तो उन्होंने राजा धृतराष्ट्र, महामहिम गांगेय भीष्म, युवराज दुर्योधन, राजकुमार दुःशासन, उतावले कर्ण, कपटी शकुनि और वृद्ध मंत्री कुणिक को अपने-अपने आसनों पर बैठा देखा। प्रधानमंत्री विदुर की अनुपस्थिति पर विचार करते हुए उन्होंने अपना आसन ग्रहण किया।
कुणिक ने अब तक हुई बातों का सारांश बताया, फिर कहा, "आचार्य, मेरा मानना है कि शत्रु कुल की कन्या का पाणिग्रहण करना उचित नहीं। क्योंकि कन्या चाहे सीधी हो या चतुर, वह अपने पति तथा उसके परिवार को प्रभावित करती ही है, फिर द्रौपदी तो साक्षात अग्नि है। पांचाल से हमारी शत्रुता बहुत पुरानी है, उसका इस राजपरिवार में आना किसी भांति सही नहीं होगा। महाराज भी मुझसे सहमत है।"
दुर्योधन सर्प की भांति बोल पड़ा, "आपने कुरु राजकुमारों को मिट्टी का पुतला समझ रखा है क्या जो अपनी पत्नियों को वश में नहीं कर सकते। महाराज, हमें वहां जाना ही चाहिए। शत्रुता सदैव नहीं चल सकती, इसपर तो पितामह भी सहमत होंगे। द्रुपद जैसे शक्तिशाली नरेश से सम्बन्ध हो जाने पर हस्तिनापुर की शक्ति बढ़ेगी ही।"
धृतराष्ट्र असमंजस में थे, "परन्तु पुत्र, ये तो स्वयंवर है। तुम तो इतनी निश्चिन्तता से कह रहे हो जैसे वह किसी ना किसी कुरुकुमार का ही वरण करेगी। यदि उसने तुम लोगों को नकार दिया तो क्या ये हस्तिनापुर का अपमान नहीं होगा"।
फिस्स की हँसी के साथ शकुनि ने महाराज को टोकते हुए कहा, "अरे भरतश्रेष्ठ, आप भी कैसी बात करते हैं। भला पूरे आर्यावर्त में युवराज से अधिक वीर तथा सुदर्शन युवक हैं भी जो द्रौपदी किसी अन्य को वरमाला पहनाएगी। और चलिए मान लिया कि ऐसा हो भी जाये, तो भी इसमें अपमान की क्या बात हो सकती है भला। अब वह सबको ही तो नहीं चुन सकती ना। तो जिन्हें नहीं चुना, क्या उनका अपमान हो गया।"
पितामह की तीक्ष्ण आंखों ने शकुनि को चुप करा दिया। लार बहाते अंधे राजा ने अनुमान से द्रोण की ओर देखकर कहा, "आचार्य द्रोण, आपका क्या विचार है?"
द्रोण कहने ही वाले थे कि यदि कुरुकुमार स्वयंवर में भाग लेते हैं तो वे हस्तिनापुर का त्याग कर देंगे, कि विदुर ने सभा में प्रवेश किया और पितामह के कानों में कुछ कहा जिसपर उन्होंने सिर हिलाकर सहमति व्यक्त की। पितामह ने राजा को सम्बोधित करते हुए कहा, "महाराज, विदुर अपने साथ शूरनायक देवभाग के पुत्र उद्धव को लाये हैं। उन्हें प्रवेश की अनुमति दीजिये।"
"परन्तु पितामह", दुर्योधन बोल पड़ा, "हम यहां आवश्यक मंत्रणा कर रहे हैं। उद्धव प्रतीक्षा कर सकते हैं।"
"आप अभी युवराज हैं दुर्योधन, आपने सुना नहीं कि मैं महाराज से संबोधित हूँ? तनिक धैर्य सीखिए आप। और उद्धव हमारी इस मंत्रणा से सम्बंधित ही कोई सूचना लाये हैं। ये मत भूलिए कि उद्धव कोई छोटे-मोटे सरदार नहीं हैं जिन्हें प्रतीक्षा करवाई जाए।"
महाराज ने उद्धव को प्रवेश की अनुमति दी। उन्होंने सबको समुचित अभिवादन पश्चात कहा, "महाराज, मैं आज कई लोगों का दूत बनकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।"
पितामह ने प्रश्न किया, "द्वारिका में सब कुशल तो है ना? उद्धव, आप दूत बनकर आये हैं तो अवश्य ही कोई अतिमहत्वपूर्ण बात होगी, किस-किस के दूत हैं आप?"
"पितामह, मैं द्वारिका से नहीं अपितु अपनी ससुराल नागराज कर्कोटक के राज्य से आ रहा हूँ। मैं वासुदेव कृष्ण तथा बलराम सहित पुष्कर के निर्वासित राजा चेकितान का दूत हूँ। राजा चेकितान को शरण देने वाले तथा अपने श्वसुर नागराज कर्कोटक का भी सन्देश है मेरे पास।"
महाराज की अनुमति मिलने पर उद्धव ने कहा, "महाराज, द्रुपद कन्या द्रौपदी के स्वयंवर में सम्मिलित होने सभी यादव अतिरथी काम्पिल्य जा रहे हैं। बलराज जी की इच्छा है कि इस लंबे मार्ग में वे पुष्कर में पड़ाव डालें। कृष्ण का कहना है कि राजा चेकितान को यादवों का स्वागत करना चाहिए। चूंकि पुष्कर पर अभी कौरवों का शासन है, तो ये उनकी प्रार्थना है कि पुष्कर का राज्य राजा चेकितान को लौटा दिया जाए।"
दुर्योधन भड़कते हुए बोला, "क्या? पुष्कर लौटा दें? हमने उसे बाहुबल से जीता है। हम उसे क्यों लौटाए?"
उद्धव ने मुस्कुराते हुए कहा, "युवराज, मुझे कह लेने दीजिये। अंतिम निर्णय तो आप लोगों को ही करना है ना। तो महाराज, राजा चेकितान का संदेश पितामह भीष्म के लिए है कि हे पितामह, आप स्वयं धर्म हैं। मैं सदैव ही हस्तिनापुर का मित्र रहा, मेरी तरफ से कभी भी कोई उकसावे वाली कार्रवाई नहीं की गई, इसके पश्चात भी विगत वर्ष मुझसे मेरा राज्य छीन लिया गया। मुझे तथा मेरी प्रजा को राजा कर्कोटक के राज्य में शरण लेनी पड़ी। अब यादवगण पुष्कर होते हुए पांचाल जाना चाहते हैं। मुझे उनका स्वागत करना ही चाहिए। हे पितामह! मुझे मेरा राज्य लौटा दें, जिससे मैं उनका यथोचित स्वागत कर सकूं। इसके अतिरिक्त मैं स्वयं स्वयंवर में भाग लेना चाहता हूं। बिना राज्य के किसी राजा का क्या मूल्य? मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मेरे साथ न्याय करेंगे।"
द्रोणाचार्य आश्चर्यचकित थे। कृष्ण यहां भी चमत्कार कर रहे थे। बिना किसी युद्ध के पुष्कर वापस ले लेना, आश्चर्य ही तो था। उन्होंने कहा, "और नागराज कर्कोटक का क्या सन्देश है उद्धव?"
"आचार्य, कर्कोटक के पुत्र मणिमान भी राजा चेकितान के साथ यादवों के स्वागत तथा द्रौपदी के स्वयंवर के अभिलाषी हैं। वे भी पुष्कर में चेकितान के साथ यादवों से मिलेंगे और फिर उनके साथ ही काम्पिल्य प्रस्थान करेंगे।"
बहुत देर से चुप बैठे कर्ण से नहीं रहा गया, क्रोधित स्वर में बोले, "महाराज, ये क्या हो रहा है? क्या कुरुओं की सभा में हमें धमकियां दी जा रही हैं कि पुष्कर लौटा दिया जाए? वहां कृष्ण अपने अतिरथियों के साथ आएंगे, चेकितान तथा मणिमान अपनी सेनाओं सहित उनसे मिलेंगे। क्या ये हमारे साथ युद्ध का शंखनाद नहीं है?"
"हाँ पिताजी", दुर्योधन बोला, "ये युद्ध की खुली धमकी है। रही यादवों के स्वागत की बात, तो क्या कौरव उनका स्वागत नहीं कर सकते? हम पुष्कर वापस नहीं करेंगे। अगर उन्हें युद्ध करना हो तो हम सज्ज हैं।"
द्रोणाचार्य बहुत तीव्रता से सोच रहे थे। कृष्ण ने अच्छी चाल चली है, पर वे उनके मित्र हैं, उन्होंने शिखंडी को उनके पास भेजा। भविष्य में वे कृष्ण का पूरे आर्यावर्त में प्रभाव देख रहे थे। दुर्योधन वैसे भी हठी और अविवेकी है। उन्होंने दुर्योधन को पाठ पढ़ाना निश्चित कर लिया और गुरु के अधिकार से बोले, "बिना विचार किये बोलना तुम्हें शोभा नहीं देता दुर्योधन। तुम तो द्रौपदी के स्वयंवर में जाना चाहते हो ना, तो क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि यादव, चेकितान और मणिमान भी वहीं जा रहे हैं। सनातन नियम के अनुसार स्वयंवर में जाते राजाओं से युद्ध करना अधर्म है, और यदि कोई ऐसा अधर्म करे तो अन्य सभी राजाओं का दायित्व है कि इस अधर्म का प्रतिकार करें। तुम और तुम्हारे सभी मित्र कितने भी शक्तिशाली हों, समूचे आर्यावर्त पर विजय नहीं प्राप्त कर सकते।"
दुर्योधन क्रोधित होकर बोला, "तो क्या आप युद्ध नहीं करेंगे?"
"नहीं, यदि तुम्हारी इच्छा हो तो करो परन्तु याद रखो कि पुष्कर जैसे नगण्य राज्य के लिए साम्राज्य के सैनिकों का रक्त और नागरिकों का धन व्यय करना बुद्धिमानी नहीं है।"
पितामह बहुत देर से अपनी श्वेत और लंबी दाढ़ी सहला रहे थे, अपने अभ्यास के अनुसार उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाया, जिसका अर्थ था कि निर्णय लिया जा चुका है और सब ध्यान से सुनें। जब वे बोले तो जैसे कोई आकाशवाणी हो रही हो, "युवराज, आचार्य का कथन सत्य है। विगत वर्ष पुष्कर को जीतना अधर्म था, चेकितान को उसका राज्य वापस मिलना चाहिए। स्वयंवर में जाते राजाओं से युद्ध का अर्थ है स्वयंवर के प्रतिद्वंदियों की हत्या का प्रयास, जो अधर्म है। तुम्हें क्या लगता है कि इसके पश्चात कोई भी आर्यनारी तुम्हें स्वयंवर में स्वीकार करेगी?
और आचार्य द्रोण, मैं जानता हूँ कि आप व्यक्तिगत कारणों से काम्पिल्य से वैवाहिक सम्बंध नहीं चाहते, परन्तु मैं चाहता हूं कि आप अपने शिष्यों को स्वयंवर में जाने की अनुमति दे दें"।
द्रोण पहले ही इसपर विचार कर चुके थे, बोले, "यदि आप यही चाहते हैं तो क्या आप मुझे अनुमति देंगे कि मैं पुष्कर जाकर हस्तिनापुर के प्रतिनिधि के तौर पर चेकितान को उसका राज्य लौटा दूँ, और उसके साथ हस्तिनापुर की ओर से यादवों का स्वागत करूँ?"
"निश्चित ही आचार्य, यह अत्यंत शुभ होगा।"
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आचार्य जब अपने निवास वापस आये तो भानुमति को बड़ी व्यग्रता से अपनी प्रतीक्षा करता हुआ पाया। भानुमति के पिता काशी के राजा, द्रोण के घनिष्ट मित्र थे। दुर्योधन की प्रथम पत्नी तथा भानुमति की बड़ी बहन की अपने प्रथम प्रसव में नवजात के साथ ही मृत्यु हो गई थी। द्रोण ने ही भानुमति का विवाह दुर्योधन से करवाया था। भानुमति को देखकर द्रोण का कठोर मन पिघल जाता, वे उसे अपनी ही पुत्री मानते, भानुमति भी बेटी के अधिकार से उनके घर आती रहती थी।
द्रोण को देखते ही भानुमति माता कृपी की गोद छोड़ उनकी तरफ लपकी और उनका हाथ पकड़ कर बोली, "तात, राजसभा में क्या निर्णय लिया गया? क्या मुझे सौतन का मुंह देखना होगा? आर्यपुत्र मुझसे बहुत प्रेम करते हैं पर राजनन्दिनी कृष्णा के समक्ष मुझे कौन याद रखेगा।"
द्रोण कुछ पल समझ नहीं पाए कि इस बच्ची को कैसे सांत्वना दें, फिर उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोले, "भानु, निर्णय हुआ है कि युवराज, विकर्ण, युयुत्सु सहित बीस कुमार काम्पिल्य जाएंगे। पर तू चिंता ना कर, मुझे विश्वास है कि उनमें से कोई भी द्रौपदी को प्राप्त नहीं कर सकेगा"। द्रोण जानते थे कि महान धनुर्धर सात्यकि, खड्गधारी कृतवर्मा, गदायुद्ध में निष्णात बलदेव तथा सभी कलाओं में प्रवीण उद्धव सहित अन्य यादव वीरों के रहते इसकी संभावना नगण्य थी कि कृष्णा किसी कुरुकुमार का चयन करें।
उन्होंने कुछ विचार कर कहा, "भानु, तूने कहा था कि वासुदेव तुझे बहन मानते हैं? तो बेटी, अगर तू निश्चिंत होना चाहती है तो मेरे साथ पुष्कर चल, और उनसे अपनी बात कह। मुझे विश्वास है कि यदि उन्होंने वचन दे दिया तो चाहे सृष्टि इधर से उधर हो जाये, दुर्योधन द्रौपदी को प्राप्त नहीं कर सकेगा।"
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भानुमति_9
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सभा समाप्त होने पर प्रधानमंत्री विदुर उद्धव को अपने घर ले जा रहे थे, मार्ग में प्रतिहारी ने उन्हें सूचित किया कि साम्राज्ञी सत्यवती उनसे तथा उद्धव से मिलना चाहती हैं। जब वे दोनों माता के कक्ष में पहुंचें तो उन्हें व्यग्रता से अपनी प्रतीक्षा करते हुए पाया। औपचारिक अभिवादन तथा आशीर्वाद के आदान-प्रदान पश्चात माता ने कहा, "उद्धव, मुझसे वह समाचार कहो पुत्र जिसे सुनने के लिए मैं पिछले वर्ष भर से व्याकुल हूँ। क्या मेरे बच्चों का कुछ पता चला?"
उद्धव ने विदुर की ओर देखा, संकेत पाकर बोले, "माता सब कुशल है। आपकी पुत्रवधू अपने सभी पुत्रों सहित राक्षसों के देश में निवास कर रही हैं।"
"राक्षसों के देश में? वह तो बड़ा भयंकर स्थान होगा।"
"हाँ माता, हमारे नगरों की अपेक्षा तो भयंकर ही है, परन्तु अगर हम अपनी तुला से ना मापें तो किसी भी अन्य स्थान की तुलना में वह उतना ही सुंदर है जितने अन्य। यद्यपि भीम के अतिरिक्त अन्य सभी भाई माता कुंती के साथ वहां से निकल आना चाहते हैं। संत सहदेव की नहीं कहता, उन्हें तो प्रत्येक स्थान पर अपना आकाश और उसमें चमकते तारे दिख ही जाते हैं।"
"वे जीवित और सकुशल हैं, उन्हें उनका अधिकार मिल जाये तो मैं भी चैन से अपना यह शरीर छोडूं। अच्छा विदुर, राजसभा का क्या निर्णय रहा?"
विदुर विनीत भाव से बोले, "माता, दुर्योधन का हठ था। वह कृष्णा को प्राप्त कर शक्तिशाली होने के लिए अधीर है। पितामह की आज्ञा से बीस कुरु-राजकुमार, कर्ण तथा अश्वत्थामा हस्तिनापुर की ओर से स्वयंवर में भाग लेंगे।"
"आश्चर्य, इसपर द्रोण कैसे सहमत हुए पुत्र?"
"कदाचित उन्होंने सोचा हो कि दुर्योधन को एक पाठ पढ़ाना आवश्यक है। उन्हें लगा होगा कि यादवों तथा अन्य राज्यों के राजपुत्रों के होते द्रौपदी शत्रु राष्ट्र के किसी युवक का चयन नहीं करेगी। एक बात और माता, उद्धव ने बताया कि कृष्ण की इच्छा है कि पांडव भी छद्मवेश में स्वयंवर में सम्मिलित हों।"
उद्धव बोले, "परन्तु माता, इसमें एक समस्या है। भीम वहां से नहीं आना चाहते। भीम नहीं आएंगे तो अन्य भाई भी उन्हें छोड़कर नहीं आ सकते।"
"इस युग में भाइयों में ऐसा प्रेम देखने को नहीं मिलता। परन्तु भीम सदैव के लिए तो वहीं नहीं रह सकते।"
मंद मुस्कान के साथ उद्धव ने कहा, "आप नहीं जानती माता, हमारे भीमसेन अब मात्र राजकुमार नहीं, राक्षसावर्त के सम्राट हैं, उनकी एक राक्षसी पत्नी तथा उससे उत्पन्न एक पुत्र भी है।"
इस सूचना पर माता सहित विदुर का भी मुँह खुला रह गया। उद्धव आगे बोले, "उनका कहना है माता कि वे भरतवंश के एकमात्र व्यक्ति हैं जिन्होंने एक नए साम्राज्य का निर्माण किया है। अब पांडवों को भटकने की क्या आवश्यकता? और वे घटोत्कच से दूर भी नहीं होना चाहते।"
माता प्रसन्न हो बोली, "अहा, मेरे कुरुवंश का नया दीपक, भले ही किसी राक्षसी के गर्भ से क्यों ना हो, वो अपनी पीढ़ी का पहला कौरव है। समय आने पर युवराज बनेगा मेरा यह पुत्र। परन्तु घटोत्कच! यह कैसा नाम हुआ?"
"माता, राक्षस उसे अपने देवता विरोचन का अवतार मानते हैं, उसे विरोचन ही कहते हैं, परन्तु उसके रोम रहित, घड़े की पेंदी जैसे शरीर को देख भ्राता भीम उसे स्नेहवश घटोत्कच पुकारते हैं। राजा वृकोदर का पुत्र घटोत्कच।"
"ठीक है, भीम को उसे छोड़ने की क्या आवश्यकता है, उसे उसकी माता सहित यहां हस्तिनापुर में होना चाहिए।"
"नहीं माता, उनकी संस्कृति भिन्न है। पुत्र पर माता का अधिकार पिता से अधिक होता है, और जनता भी उसमें अपना राजा देखती है। घटोत्कच का राक्षसावर्त से बाहर आना असंभव है।"
"ये तो कठिन परिस्थिति है। यदि ऐसा है तो भीम को उसका त्याग करना होगा। पांडवों को कृष्ण की इच्छानुसार द्रौपदी के स्वयंवर में जाना चाहिए। पुत्र विदुर, क्या तुम भीम को नहीं समझा सकते?"
"माता, हठ पर अड़े भीम के अतिरिक्त मैं इस संसार के किसी भी व्यक्ति को समझा सकता हूँ। आप महामुनि व्यास से क्यों नहीं कहती, भीम उनकी आज्ञा नहीं टाल सकते।"
"तुम्हें पता है विदुर, व्यास महामुनि है पर उससे कहीं उत्तम पुत्र है। अब मैं समझी कि वह बिना किसी सूचना के कल ही हस्तिनापुर क्यों आ गया था। उसे अपनी इस माता की भविष्य में होने वाली इच्छाओं का भी ध्यान रहता है। उसके पास जाकर कहो कि मैंने उसे बुलाया है, यद्यपि वह स्वतः आता ही होगा।
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भानुमति को पुष्कर जाने की आज्ञा माता सत्यवती ने दे दी थी। भानुमति यह सोचकर पुलकित थी कि वह अपने कान्हा से फिर से मिलेगी। वो कान्हा जिसने गोपियों संग रास रचाया, जिसने उसकी मान रक्षा की, जिसने उसे बहन माना, जिसे वह भैया कह कर पुकार सकती है। वो तब तक नाचना चाहती थी, जब तक उसका पति आ नहीं जाता। दुर्योधन प्रायः नित्य ही रात्रि के कई पहर पश्चात सुरा के नशे में चूर होकर आता था और भानुमति से प्रेममयी बातें करता।
परन्तु आज जब दुर्योधन आया तो क्रोध से उसके नथुने फड़क रहे थे। आते ही उसने भानुमति का हाथ मरोड़ते हुए कहा, "क्यों री दुष्टा, तू आज आचार्य के पास गई थी?"
पीड़ा से बिलबिलाती भानुमति ने कहा, "मुझे दर्द हो रहा है स्वामी, हाथ छोड़िये। आचार्य के यहां तो मैं सामान्य तौर पर रोज ही जाती हूँ"।
"झूठ मत बोल, मुझे पता है कि तू वहां सामान्य तौर पर नहीं, मेरे विरुद्ध षड्यंत्र करने गई थी। बोल, बोल कि तूने आचार्य से यह नहीं कहा कि वे मुझे काम्पिल्य जाने से रोकें? तुझे क्या लगता है कि द्रौपदी के आने से तेरा युवराज्ञी का पद छिन जाएगा, और तू कभी साम्राज्ञी नहीं बनेगी? तो सुन, द्रौपदी आये ना आये, मैं तुझे कभी साम्राज्ञी का पद नहीं दूंगा", उसने भानुमति को धक्का देते हुए कहा, "दूर हट जा मेरी नजर से, तू मर ही क्यों नहीं जाती।"
"हाँ, मार दीजिये मुझे, आपने तो अपने बच्चे को भी मार दिया होता।"
दुर्योधन के मस्तिष्क को कुछ पल लगे समझने में कि उसकी पत्नी उससे क्या कह रही है। पर जब उसने समझा तो उसका क्रोध जाता रहा। बोला, "क्या तुम गर्भवती हो?"
"हाँ स्वामी।"
"तो तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया।"
"कैसे बताती, पहले मुझे विश्वास तो आता।"
"अब तुम्हें पूर्ण विश्वास है?"
"हाँ स्वामी।"
वर्षों बाद दुर्योधन ने सुखद समाचार सुना था। उसकी पहली पत्नी, भानुमति की बड़ी बहन प्रसव के समय ही चल बसी थी। अभी उसके प्रहार से कहीं बच्चे को कुछ हो ना गया हो, उसने भानुमति को अपनी बलिष्ठ भुजाओं में सुरक्षात्मक ढंग से उठा लिया। आज वह बहुत प्रसन्न था। उसका होने वाला पुत्र अपनी पीढ़ी का पहला कुरु होगा, वही सम्राट बनेगा। अभागा दुर्योधन, उसे क्या पता कि किसी वन में पहला कुरु जन्म ले चुका था।
उसने बहुत नम्र स्वर में कहा, "तो पगली, तू आचार्य के पास क्यों गई थी?"
"मैं चाहती थी कि मेरा पुत्र हस्तिनापुर का सम्राट बने।" उसने इतने भोलेपन से कहा कि दुर्योधन का मन भीग गया। समझाते हुए बोला, "तो इसमें द्रौपदी के आने से क्या अंतर आ जायेगा। हमारा पहला पुत्र है यह, यही सम्राट बनेगा। परन्तु तुम समझो प्रिये, कि यदि मेरा संबंध काम्पिल्य से हो जाता है तो तेरा ये दुर्योधन कितना शक्तिशाली हो जाएगा। मुझे जाने दो प्रिये।"
दुर्योधन के सीने से चिपकी भानुमति ने विचार किया कि उसे बस अपने पति का प्रेम ही तो चाहिए। कभी-कभी उसका पति उद्विग्न हो जाता है तो क्या हुआ, उसे प्रेम भी तो करता है। वह नहीं रोकेगी अपने पति को।
थोड़ी देर बाद दुर्योधन ने उसे धीरे से हिलाकर पूछा, "सो गई क्या? अच्छा ये तो बताओ कि तुम आचार्य के साथ कृष्ण से मिलने क्यों जा रही हो। मेरी आज्ञा तो तुमने ली नहीं, पितामही से ले आई।"
भानुमति समझ गई कि शकुनि के गुप्तचरों से कुछ नहीं छुपा, बोली, "आप ही ने तो मुझे पिछले वर्ष कान्हा से सौजन्य स्थापित करने को कहा था। अब जब वो इतने पास आ रहे हैं तो मैं उनसे क्यों ना मिलूं, उन्होंने मुझे बहन भी तो माना है।"
"अच्छा तो जरा बताओ तो कि बहन अपने भाई से क्यों मिलने जा रही है", हँसते हुए दुर्योधन ने कहा, "क्या उनसे भी प्रार्थना करोगी कि वे मेरा विवाह ना होने दें?"
यद्यपि उसका पति हँस रहा था, भानुमति डर गई और बोली, "अब मुझे कहीं नहीं जाना। मैं जहां हूँ, जैसी हूँ, सन्तुष्ट हूँ।" अपने पति के सीने से लगी भानुमति सो गई। थोड़े समय पश्चात दुर्योधन ने उसे उठाकर कहा, "भानु, मैं चाहता हूं कि तुम वासुदेव से मिलो। वे तुम पर बहुत स्नेह रखते हैं, वे तुम्हारी बात अवश्य मानेंगे। मैं जन्मजात अभागा हूँ भानु, यदि मेरा विवाह पांचाली से हो गया तो मेरे सारे दुष्ट ग्रह कट जाएंगे। भानु, तुम उनसे कहना कि वे इस संबंध हेतु सहायक बनें। बोलो, तुम ऐसा करोगी ना प्रिये?"
दुर्योधन के ये वचन भानुमति के कानों में पिघले सीसे की भांति लगे। उसका पति उससे कुट्टनी का कार्य करने की प्रार्थना कर रहा था। वो कहीं डूब मरना चाहती थी पर उसने निश्चय कर लिया कि उसका पति जिसमें प्रसन्न रहे, वह वही कार्य करेगी। उसके हामी भरने पर दुर्योधन ने कहा, "और तुम्हें केवल आचार्य के साथ जाने की आवश्यकता नहीं है। मैं मामा शकुनि से कहूंगा कि वो भी तुम्हारे साथ जाएं।"
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कृष्ण जब अपने अन्य अतिरथियों को मीलों पीछे छोड़कर अपनी गोप सेना की छोटी टुकड़ी के साथ पुष्कर दुर्ग के सामने पहुंचे तो उन्हें अत्यंत आश्चर्य हुआ। दुर्ग पर एक भी धनुर्धर नहीं था, उसके स्थान पर मांगलिक वेश में सामान्य नागरिक खड़े थे जिन्होंने कृष्ण के चार अश्वों वाले रथ को देखते ही उनकी जयजयकार की। कृष्ण समझ गए कि उद्धव सफल रहे, उन्होंने पितामह को पुष्कर वापस कर देने के लिए मना लिया।
दुर्ग से मैत्रीपूर्ण शंख फूंके गए, कृष्ण ने उद्धव के शंख की जानी पहचानी ध्वनि सुनी और उनकी आँखों में यह सोचकर अश्रु भर आये कि यदि उद्धव ना हो तो यह कृष्ण क्या कर सकता है। द्रोण और शकुनि ने वासुदेव का स्वागत किया, विश्राम के पश्चात द्रोण उनसे मिलने आये। उन्होंने कृष्ण के बारे में जो सुना था, उससे कहीं अधिक उन्हें पाया।
द्रोण ने उनसे पूछा, "वासुदेव, आप अकेले ही पुष्कर पर चढ़े आये, यदि यहां युद्ध होता तो?"
"तो मैं युद्ध करता आचार्य। परन्तु मेरा विचार था कि इस छोटी सी कठिनाई से निपटने के लिए हमारी सेनाओं के स्थान पर मेरा और दुर्योधन का द्वंद पर्याप्त रहता। व्यर्थ रक्त बहाने से क्या लाभ?"
"और आपको यह क्यों लगा कि दुर्योधन आपसे द्वंद स्वीकार कर ही लेता, अथवा आप उसे हरा ही देते?"
"पहले प्रश्न का उत्तर यह कि वह आपका शिष्य है, युद्धदान और द्वंद से विमुख नहीं हो सकता। दूसरे प्रश्न का उत्तर यह कि मेरा कार्य कर्म करना है, फल की चिंता मैं क्यों करूँ।"
"तो क्या अविचारित कर्म भी उचित है?"
"मेरे कर्म भी मेरी आस्था पर निर्भर होते हैं आचार्य। जैसे मुझे आप पर और पितामह पर आस्था थी कि आप पुष्कर लौटा देंगे, आप अधर्म नहीं होने देंगे।"
"आस्था, धर्म, आप इतने अधिकार से इन पर बात करते हैं जैसे आपको पता हो कि धर्म क्या है।"
"वह तो मैं आपसे सीखने आया हूँ, परन्तु जब मैं देखता हूँ कि एक गुरु अपने शत्रु के पुत्र को अपना शिष्य मान लेता है तो मुझे धर्म के दर्शन हो जाते हैं। वैसे शिखंडी अब कैसा है?"
"उसने पुरुषत्व प्राप्त कर लिया है। परंतु अस्वस्थ है।"
"मुझे स्वयंवर में उसकी आवश्यकता होगी। उद्धव उसे ले आएंगे। आचार्य, मेरा एक प्रश्न है, आप द्रुपद को शत्रु मानते हैं, फिर भी दुर्योधन को अनुमति देते हैं कि वह द्रौपदी को प्राप्त कर सके?"
"दुर्योधन स्वयंवर में भाग ले, परन्तु यह तो निश्चित है कि यदि द्रौपदी हस्तिनापुर आती है तो मैं हस्तिनापुर का त्याग कर दूंगा।"
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अगले दिन भानुमति कृष्ण से मिलने आई तो उसके साथ स्थूलकाय शकुनि भी था। शकुनि के साथ समुचित अभिवादन पश्चात कृष्ण ने भानुमति की ओर देखा, उन्होंने पाया कि वह कुछ कुम्हला गई है। धीमे पगों से सकुचाती हुई भानुमति ने जब बहनों की तरह दाहिने हाथ से कृष्ण के पैर छुए तो उन्होंने उसकी आँखों में अथाह विवशता देखी, अवश्य ही यह शकुनि का प्रभाव होगा।
"कैसी हो बहन? सब कुशल तो है? युवराज कैसे हैं?"
भानुमति कुछ कहती, उसके पहले ही शकुनि बोल पड़ा, "अब जिसके पति भरतश्रेष्ठ दुर्योधन हों, और भाई स्वयं कृष्ण वासुदेव, वह भला अकुशल कैसे हो सकती है। युवराज भी आपके स्वागत हेतु आने वाले थे, पर आप तो जानते ही है कि राज्य के कार्यों से अवकाश मिलना कितना कठिन होता है।"
"अवश्य शकुनि जी, वैसे गांधार में सब कुशल तो है ना?"
इस प्रश्न पर शकुनि थोड़ा अचकचा गया, परन्तु तुरन्त ही सम्भलते हुए कहा, "जी वासुदेव, सब कुशल है। भानुमति आपसे बहन के अधिकार से एक प्रार्थना करना चाहती है। है ना भानुमति?"
विवशता की मूर्ति भानु ने कहा, "भैया, मैं अपने पति की प्रसन्नता चाहती हूं, और उनकी प्रसन्नता इस बात में है कि द्रौपदी उन्हें स्वीकार करे। आर्यपुत्र चाहते हैं, मैं भी चाहती हूं कि द्रौपदी उनका वरण करे"।
शकुनि ने बात लपकते हुए कहा, "हाँ हाँ भानुमति, वासुदेव अपनी बहन के लिए इतना तो करेंगे ही। वे तुम्हें वचन देंगे कि द्रौपदी युवराज को ही चुने।"
कृष्ण बोले, "ये कैसी बात कर रहे हैं शकुनि जी। एक तरफ तो आप कहते हैं कि भानुमति मेरी बहन है, तो मैं अपनी ही बहन के लिए ऐसी सौतन क्यों लाऊं जो उसे अपदस्थ कर सकती है। फिर मैं किसी कन्या के स्वयंवर में ये वचन कैसे दे सकता हूँ कि वह किसी विशिष्ट व्यक्ति को ही चुने। और यदि द्रौपदी ने कोई परीक्षा रखी हो तो?"
कृष्ण की खरी बातें सुनकर शकुनि भौचक्का रह गया, फिर बोला, "नहीं, नहीं, मेरा तात्पर्य था कि चूंकि आप द्रौपदी के मित्र हैं तो युवराज की थोड़ी प्रशंसा कर देते। भानुमति भी यही चाहती है, है ना भानुमति?"
"हाँ, भैया। आपसे जो बन पड़े, आप कीजियेगा।"
"ठीक है बहन, मैं शकुनि जी को राजपरिवार से मिलवा दूंगा, वे स्वयं जो चाहे कह लेंगे। पर यदि परीक्षा हुई तो द्रौपदी भी कहाँ स्वतंत्र हो पाएगी।"
शकुनि फिर बोला, "उसकी कोई चिंता नहीं वासुदेव, युवराज अप्रतिम वीर हैं, वे किसी भी परीक्षा में उत्तीर्ण होंगे। बस आप मुझे राजपरिवार से मिलवा दें और अपनी ओर से भी दुर्योधन के पक्ष में बोल दें तो बड़ी कृपा होगी, क्यों भानुमति?"
केशव बोल पड़े, "परन्तु यदि दुर्योधन द्रौपदी को प्राप्त कर लेते हैं तो द्रोणाचार्य हस्तिनापुर का त्याग कर देंगे। मेरी बहन उन्हें पिता मानती है, वो बहुत दुखी भी होगी, और पितामह को भी ये अच्छा नहीं लगेगा। तो शकुनि जी, कुछ ऐसा करें कि अश्वत्थामा यह शपथ ले कि चाहे किसी भी कुरु से द्रौपदी का विवाह हो, आचार्य हस्तिनापुर का त्याग नहीं करेंगे।"
"जैसी आपकी इच्छा वासुदेव, अब हमें आज्ञा दें।" शकुनि ने जैसे तैसे अपने भारी शरीर को उठाया और बाहर की ओर बढ़ चला। भानुमति भी उसके पीछे चली। शकुनि जब छोलदारी से बाहर तक पहुंचा तो कृष्ण ने आवाज लगाई, "अरे भानुमति, जरा इधर आओ। मैं भी कितना भुलक्कड़ हो रहा हूँ। तुम्हारा उपहार तो रह ही गया।"
शकुनि को वहीं छोड़ भानुमति कृष्ण के पास आई। कृष्ण ने अपने शरीर का एक आभूषण निकाल कर उसे भानुमति की हथेली पर रखा और उसकी आँखों में झांककर बोले, "घबरा मत बहन, दुर्योधन द्रौपदी को प्राप्त नहीं कर सकेगा। मेरा वचन है।"
और भानुमति के कपोल रक्ताभ हो चले।
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#भानुमति_10
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काम्पिल्य में इतनी चहल-पहल पहले कभी नहीं थी। सामने के विशाल मैदान पर जैसे कोई नया ही नगर बन गया हो। समूचे आर्यावर्त के राजाओं के कुटीर और छोलदारियां लग गई थी। द्रौपदी के स्वयंवर में आमंत्रित राजाओं ने अपना वैभव दर्शाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यहां तक कि सबको अचंभित करते हुए हस्तिनापुर से कई कुमार, कर्ण तथा द्रुपद के शत्रु आचार्य द्रोण के पुत्र अश्वत्थामा भी आये थे। मगध का सम्राट जरासंघ भी आया था, एकमात्र सम्राट जो चक्रवर्ती था। हस्तिनापुर का शिविर अत्यधिक परिष्कृत था, तो मगध का शिविर विशालतम। यादवों की ओर से बलराम के नेतृत्व में कृष्ण, सात्यकि, कृतवर्मा सहित बीस अतिरथी थे। इनके अतिरिक्त चेदि का शिशुपाल, विदर्भ का रुक्मी, सिंधुप्रदेश का जयद्रथ, मद्र के शल्य, विराट, सुनीत, भोज, मणिमान, चेकितान सहित अनगिनत राजा और राजकुमार काम्पिल्य में अपना भाग्य परखने आये थे।
अपने महल से इस विशाल मैदान पर इतनी भीड़ की ओर देखते हुए राजा द्रुपद अत्यंत कुपित थे। उनके पुत्र धृष्टद्युम्न व सत्यजीत तथा पुत्री द्रौपदी किसी प्रकार उनका क्रोध शांत करने का असफल प्रयत्न कर रहे थे। द्रुपद बोले, "हम जाल में फँस गए हैं मेरे बच्चों, इस कपटी कृष्ण ने हमें फँसा दिया है।"
सत्यजीत ने पूछा, "ऐसा क्या हुआ पिताजी, आप इतने उद्विग्न क्यों हैं?"
"पुत्र, कृष्ण ने कोई गहरी चाल चली है। उसके कहने पर हमने इस स्वयंवर का आयोजन किया, राजाओं को निमंत्रण भेजे। हस्तिनापुर भी निमंत्रण गया, पर ये महज औपचारिकता थी। मुझे विश्वास था कि परम्परागत शत्रुता तथा द्रोण के कारण भीष्म कुरुओं को आने की अनुमति नहीं देंगे। परंतु वे तो पूरे ठाठबाट से आये हैं। सूचना मिली कि कृष्ण के निकट संबंधि चेकितान को पुष्कर वापस दे दिया गया। ऐसा क्यों? यह कोई कूटसन्धि तो नहीं। प्रतीत होता है कि मेरी कृष्णा को दुर्योधन के पल्ले बांधने का शुल्क वसूला है इस कपटी ने।"
"पर पिताजी, आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?"
"गुप्तचरों के प्रमुख ने सूचना भेजी है कि कुरुओं की सभा में जब यह निर्णय लिया गया कि कुरु-कुमार स्वयंवर में आएंगे, कृष्ण के चचेरे भाई उद्धव वहां उपस्थित थे। उसी समय यह तय हुआ कि चेकितान को पुष्कर लौटा दिया जाएगा। अब सोचो और बताओ कि क्या यादवों ने मेरी पुत्री का मूल्य नहीं लगाया? शकुनि और अश्वत्थामा को पांचाली के पास भेजने का औचित्य क्या था? शकुनि चारणों की तरफ दुर्योधन की विरुदावली गा रहा था, और अश्वत्थामा ने कितना विचित्र वचन दिया कि यदि पांचाली किसी भी कुरुकुमार को चुनती है तो वह द्रोणाचार्य को हस्तिनापुर का त्याग नहीं करने देगा। क्या अर्थ हुआ इसका? यही ना कि कृष्ण निश्चिंत हैं, दुर्योधन ही स्वयंवर का विजेता होगा।"
द्रौपदी ने कहा, "गोविंद हमेशा धर्म और आस्था की बात करते हैं पिताजी। वे ऐसा अधर्म नहीं करेंगे, हमें उन पर अपनी आस्था बनाए रखनी चाहिए"।
"आस्था! कैसे रखूं आस्था? माना कि गुरु सांदीपनि और आचार्य श्वेतकेतु ने धनुर्विद्या की बड़ी विकट चुनौती रखी है पर बेटी, दुर्योधन अप्रतिम धनुर्धर है। उसका अनन्य साथी कर्ण महानतम धनुर्धरों में से एक है। उसका दाहिना हाथ अश्वत्थामा भी किसी से कम नहीं। इनमें से कोई भी उत्तीर्ण हुआ तो?
और अभी थोड़ी देर पहले जरासंघ का पुत्र युवराज सहदेव आया था। जरासंघ यह मानकर चल रहा था कि मैं तुम्हारा विवाह उसके पौत्र मेघसन्धि से करूँगा। जब मैंने उसे धनुर्विद्या की कसौटी के बारे में बताया तो सहदेव ने स्पष्ट धमकी दी कि या तो कसौटी गदायुद्ध अथवा मल्लयुद्ध की रखो या वे स्वयंवर भंग कर तुम्हारा अपहरण कर लेंगे। यद्यपि इतने राजाओं के होते स्वयंवर भंग करना असम्भव है पर तुम्हारे अपहरण को कैसे रोक सकेंगे हम।"
बीच में व्यवधान डालते हुए एक प्रतिहारी आया, इतना उत्तेजित था कि प्रणाम करना भूल गया, उसने सूचित किया कि वासुदेव आ रहे हैं और उनके साथ कुमार शिखंडी भी हैं। यह आश्चर्यजनक सूचना थी, सभी को लगा था कि शिखंडी ने आत्महत्या कर ली है।
दरवाजे से वासुदेव की मोहिनी छवि प्रकट हुई और उनके पीछे जैसे कोई कंकाल चला आ रहा था। भावातिरेक में सारा परिवार जड़ हो गया। चलते हुए शिखंडी जब लड़खड़ाया तो द्रुपद दौड़ते हुए गए और उसे हृदय से लगा लिया और भीगी आवाज में पूछा, "तुम कहाँ चली गई थी बेटी?"
"मैं आपका सम्मान खोजने गया था पिताजी, अब आप दशार्ण के राजा हिरण्यवर्मा को सूचना भेज सकते हैं कि वे अपनी पुत्री को काम्पिल्य भेज दें। मैंने पुरुषत्व प्राप्त कर लिया है पिताजी, अब आपकी दो बेटियां नहीं तीन पुत्र हैं।"
"परन्तु यह सम्भव कैसे हुआ? यह चमत्कार किसने किया?"
"मुझे आपके मित्र वासुदेव ने आत्महत्या से रोका और मेरे गुरु तथा आपके बालसखा ने यक्ष स्थूलकर्ण के पास भेजा।"
"मेरा सखा! कौन?"
"गुरुवर द्रोण पिताजी।"
अभी तक अचंभित खड़े द्रुपद क्रोधित हो उठे, दुर्बल शिखंडी को धक्का देते हुए चिल्लाए, "द्रोण, उस नीच ने तुम्हें पुरुषत्व प्रदान किया? तूने उसे अपना गुरु बनाया? जिस व्यक्ति से मुझे घृणा है, जिसने मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय किया तूने उससे भिक्षा प्राप्त की", गोविंद की ओर संकेत कर द्रुपद बोले, "और तुझे वहां इन्होंने भेजा। ये कैसा ऋण चढ़ाया आपने वासुदेव? मित्र होकर ऐसा छल?"
केशव मुस्कुराते हुए बोले, "तनिक शांत होइए महाराज और मेरी बात सुनिये। द्रोण ने आपका राज्य छीना और आपको अपमानित किया। वे आपके शत्रु बने। और उसी शत्रु ने आपकी पुत्री को अपना शिष्य स्वीकार करते हुए उसे पुरुषत्व प्रदान किया। शत्रुता तो ऐसा नहीं करवाती। उन्हें तो इसे मर जाने देना चाहिए था, या संसार में इसका ढिंढोरा पीटना था कि सत्यवादी राजा द्रुपद का विवाहित पुत्र वास्तव में एक कन्या है, जिससे आपका और अधिक अपमान होता।
जरा सोचिए महाराज कि कभी उन्होंने आपका राज्य छीना था तो आज पुत्र लौटाया है। कभी अपमानित किया तो आज निश्चित अपमान से आपकी रक्षा की है। क्या शत्रु यही करते हैं महाराज?"
द्रुपद अपने आसन पर बैठ गए। सोचते रहे कि दुनिया बदल गई, संबंध बदल गए, शिखण्डिनी बदल गई, द्रोण भी कदाचित बदल गया, तो क्या केवल मैं ही बचा हूँ जो वहीं खड़ा है। उन्हें द्रौपदी की बात मान क्या इस युवक में आस्था रखनी चाहिए? ठीक है, यही सही।
जब वे बोले तो जैसे शांति प्राप्त कर चुके हों, बस कुछ समाधान चाहते हों, "वासुदेव, मैं आप पर विश्वास करता हूँ। परन्तु मुझे यह बताइये कि यदि दुर्योधन, कर्ण स्वयंवर जीतते हैं तो हम क्या करेंगे।"
दुर्बलता से कांपता शिखंडी बोला, "आज्ञा हो तो मैं कुछ कहूँ पिताश्री?"
"बोलो पुत्र, पर पहले मेरे निकट बैठो।"
आसन ग्रहण कर शिखंडी ने कहा, "आपने आजीवन धर्म का पालन किया है। धर्मतः जो स्वयंवर जीतेगा उससे पांचाली का विवाह होगा। पर आपका धर्म किसी अधर्मी को तो स्वीकार नहीं कर सकता। कोई अधर्मी आपके धर्मोचित आचरण का लाभ नहीं ले सकता। दुर्योधन अधर्मी है, उसने अपने चचेरे भाइयों की हत्या करवाई है। और यह मैं सिद्ध कर सकता हूँ।"
"कैसे पुत्र?"
"लाक्षागृह बनाने में जिस व्यक्ति की सेवा ली गई थी उसका नाम यक्ष स्थूलकर्ण है, इन्होंने ही मुझे पुरुषत्व प्रदान किया है। वे अभी मेरे अतिथि हैं और आपकी इच्छानुसार कहीं भी सत्य बोलने के लिए प्रस्तुत होंगे। यदि दुर्योधन विजयी हुआ तो मैं हस्तक्षेप करूँगा और यक्ष स्थूलकर्ण को सामने लाऊंगा। फिर द्रौपदी दुर्योधन को अस्वीकार कर सकती है।"
"उत्तम पुत्र, और यदि कर्ण विजेता हुआ तो।"
शिखंडी को कुछ ना बोलता देख द्रौपदी बोली, "उसे मैं स्वयंवर में भाग नहीं लेने दूंगी। व्यक्तिगत तौर पर वह कितना भी भला और धार्मिक हो, है तो दुर्योधन का अनुगत। अधर्म का पक्षधर अधर्मी ही होगा। मैं किसी ना किसी व्याज से उसे मना कर दूंगी"।
"और अश्वत्थामा लक्ष्यवेध करता है तो, और जरासंघ की धमकी?"
इस प्रश्न पर सब चुप रह गए और फिर सबने कृष्ण की ओर देखा। कृष्ण बोले, "उसकी भी चिंता आप लोग ना कीजिये। कुछ तो मेरे लिए भी छोड़िये। जब तक एक भी यादव जीवित है, जरासंघ कृष्णा को छू नहीं सकेगा।"
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जरासंघ के शिविर में देर रात्रि दो विशिष्ट व्यक्ति आये और सम्राट से मिलने की हठ की। पहरेदारों ने पहले तो उन्हें मना किया, पर जब उनका परिचय पाया तो उनके पैर काँप उठे। सम्राट का सबसे बड़ा शत्रु, केवल एक साथी के साथ उनके सामने खड़ा था। एक पहरेदार जरासंघ के पुत्र सहदेव को बुला लाया। आगंतुक का परिचय तथा मंतव्य जान उसे भी आश्चर्य हुआ पर आगंतुक इतना विशिष्ट था कि उसे नकारा नहीं जा सकता था।
जरासंघ अपने बिस्तर पर बैठा हुआ था और जब आगंतुक ने निहत्थे ही प्रवेश किया तो उसका मन हुआ कि अपनी गदा से इस ग्वाले का सर तोड़ दे। कृष्ण मुस्कुराते हुए आये और उसके सामने तनकर बैठ गए।
कुपित जरासंघ ने पूछा, "आप इस समय यहां क्यों आये हैं? क्या आप जानते नहीं कि यहां आपका स्वागत नहीं किया जाएगा। आप मेरे शत्रु हैं। आपने मेरे जामाता कंस की हत्या की है।"
"मैं जानता हूं बृहदत्त के श्रेष्ठ पुत्र, और मैं स्वागत का अभिलाषी भी कहाँ हूँ। मुझे भी आपकी मित्रता की कोई चाह नहीं, और मैंने मातुल कंस की हत्या नहीं उनका वध किया था।"
"तो आप यहां क्यों आये हैं?"
"आप ये तो मानेंगे कि यदि मैं यहां आया हूँ तो कोई अति आवश्यक बात होगी। उचित होगा कि अपने पुत्र और अंगरक्षकों को बाहर जाने के लिए कहिये। चिंता ना कीजिये, मैं निशस्त्र हूँ।"
जरासंघ के संकेत पर सभी व्यक्तियों के बाहर चले जाने के बाद कृष्ण बोले, "हे मगध सम्राट, मैं आपकी सहायता करने आया हूँ"।
"आप! आप मेरी सहायता करेंगे। सुनिये वासुदेव, मुझे ना आज ना भविष्य में कभी आपकी सहायता की आवश्यकता होगी।"
"आवश्यकता तो है, और भविष्य में भी होगी। परन्तु अभी की बात करें तो मेरा परामर्श है कि आप द्रौपदी के अपहरण की अपनी योजना त्याग दें।"
"क्या कहा, अपहरण? आप होते कौन हैं मुझे परामर्श देने वाले? मैं अभी आपका सर तोड़ दूंगा।"
"मैं नितांत नगण्य व्यक्ति नहीं हूं सम्राट। स्मरण कीजिये, आप जब मेरी हत्या करने गोमांतक आये थे तो दाऊ बलराम की गदा से मैंने ही आपकी प्राणरक्षा की थी। जब आप मथुरा को जलाने आ रहे थे तो मैंने आपके साथी कालयवन को मृत्युदान दिया था और समूचे समाज को द्वारका की भूमि ले गया। आपकी महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ रही रुक्मिणी को मैं आपकी आंखों के सामने से ले आया था।
आप मेरा सर तोड़ सकते हैं परंतु फिर आपका सर भी भूमि पर लोटता हुआ दिखाई देगा। पवित्र आर्य नियमानुसार यदि स्वयंवर में कोई किसी की हत्या करता है तो सभी राजाओं का धर्म है कि वे हत्यारे का वध कर दें।
मुझे ज्ञात है कि आप द्रौपदी के अपहरण की योजना बना रहे हैं। यदि ऐसा हुआ सम्राट तो पांचालों के साथ हम यादव खड़े होंगे, और कौरवों को भी हमारा साथ देना होगा। आप अपनी सेना सहित काम्पिल्य से बाहर नहीं अपितु मृत्य के देवता यमराज के पास जाएंगे।"
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भानुमति_11
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नए राजा वृकोदर ने अपनी पहली ही राजाज्ञा द्वारा नरमांस-भक्षण निषेध कर दिया था। दोषी राक्षसों के लिए प्राणदण्ड का प्रावधान था। परंतु दण्ड कितना भी कठिन हो, अपराधी अपराध करना कहाँ छोड़ते हैं। जिह्वा के दास कुछ राक्षस प्रायः ही मुख्य बस्ती से दूर जाकर अपनी जठराग्नि शांत करते। जब हिडिम्ब राजा था तो वे शिकार करने निकटवर्ती राज्यों में निकल जाते। युद्ध और विज्ञान में प्रवीण आर्यों की बस्तियों में वे अधिक सफल नहीं होते पर आर्यों की तुलना में कम विकसित नागों की बस्तियां उनका आसान शिकार होती। पहले जो शिकार वैध था अब राजा वृकोदर के सत्ता संभालने पर अवैध हो गया था।
ऐसे ही किसी अभियान में जब राक्षस नागों की किसी बस्ती से वापस लौट रहे थे, उनके साथ का एक दस वर्षीय बालक किसी गड्ढे में गिरकर घायल हो गया। उसे मरा हुआ समझ उसके साथियों ने उसे वही छोड़ दिया। वह बालक मृत्यु की प्रतीक्षा करता वही पड़ा रहा कि उसपर भगवान विरोचन की कृपा हुई, पांडवों की खोज में निकले उद्धव ने उसे देख लिया। मानव मात्र के लिए प्रेम से भरे उद्धव के लिए उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाना सम्भव नहीं था। उन्होंने उसे गढ्ढे से निकाला और अपने अथर्ववेद के ज्ञान से उसे कुछ ही दिनों में ठीक कर दिया।
जहाँ प्रेम हो वहां भाषा की कठिनाई नहीं आती, बालक और उद्धव संकेतों में बात करते। एक दिन बालक कुम्भ के मुंह से अस्पष्ट सा शब्द 'भीम' निकला। उद्धव के कानों को यह शब्द अमृत जैसा लगा। उन्होंने कुम्भ से संकेतों में ही ढेरों प्रश्न किये। उन्हें समझ आया कि एक विशाल व्यक्ति अपने कुछ साथियों के साथ कुम्भ की बस्ती में रहता है। उत्साह से भरे उद्धव बालक कुम्भ के साथ उसकी बस्ती की ओर चल पड़े।
एक दोपहर उन्हें वन में हलचल सुनाई दी। राक्षसों का झुंड उनकी ओर बढ़ रहा था। कुम्भ तत्काल ही एक ऊंचे वृक्ष पर चढ़ा और नीचे उतर कर उद्धव को उनकी विपरीत दिशा में खींचने लगा। उद्धव को समझ नहीं आया कि अपने सजातीय राक्षसों की ओर जाने की अपेक्षा कुम्भ उन्हें दूर क्यों ले जाना चाहता है। वे अभी इसी उहापोह में थे कि वन शांत हो गया, जैसे उन्हें मानव गंध मिल गई हो। अस्पष्ट ध्वनियों से यह निश्चित हो गया कि उन्हें एक लंबे वृत्त में घेरा जा रहा है। कुम्भ ने यकायक ही उनसे अपना हाथ छुड़ाकर उन्हें वृक्ष पर चढ़ जाने का संकेत किया और स्वयं तीर की तेजी से झाड़ियों की ओर दौड़कर विलुप्त हो गया।
ध्वनियां पास आती गई। उद्धव ने अपने अस्त्र-शस्त्र देखे, केवल एक धनुष, कुछ बाण और एक कटार शेष रह गई थी। वन के उबड़-खाबड़ पथरीले मार्गों पर खड्ग, गदा या भरा हुआ तुरिण लेकर चलना अव्यवहारिक सोचकर उन्होंने पहले ही उनका त्याग कर दिया था। इनके बल पर भिड़ना वीरता नहीं मूर्खता होगी, यह विचार कर वे पेड़ पर चढ़ गए।
धीरे-धीरे वे राक्षस आये और उद्धव को पेड़ पर चढ़ा देख शोर करने लगे। उनकी आवाज इतनी भयंकर थी कि कोई सामान्य व्यक्ति हृदयाघात से वहीं मर जाता। उद्धव बहुत वीर थे परंतु उनकी रीढ़ में भी शीतल जल बह चला। उन्होंने पेड़ की शाखा कसकर पकड़ ली। राक्षसों की संख्या तीस के आसपास थी, और उनके साथ रस्सियों में जकड़े दो अभागे मानव भी थे। एक राक्षस ने पेड़ पर चढ़ने का प्रयास किया जिसे उन्होंने तीर मारकर नीचे गिरा दिया।
थोड़े समय पश्चात राक्षसों ने उद्धव से ध्यान हटा लिया। कदाचित यह सोचा हो कि ये तो पेड़ पर ही है, जब चाहेंगे, उतार लेंगे। उनमें से कुछ सूखी टहनियां तथा कुछ बड़े-बड़े पत्थर ले आये। आग लगाकर पत्थरों को गर्म किया गया और फिर उन अभागे मनुष्यों को उनपर बिठा दिया गया। मर्मान्तक चीखों से वन गूंज उठा और उद्धव की आखों से यह सोचकर अश्रु बह चले कि मुझ क्षत्रिय के होते हुए यह अत्याचार हो रहा है और मैं कुछ कर भी नहीं सकता।
अर्धरात्रि में राक्षसों का महाभोज शुरू हुआ और सुबह तक चला। काटने, चबाने और डकार की भयंकर आवाजों ने उद्धव को पागल सा कर दिया था। कहीं वे इस मनस्थिति में वृक्ष से कूद ना जाये, उन्होंने स्वयं को दुप्पटे द्वारा एक तने से बांध लिया।
अगला पूरा दिन राक्षस सोते रहे और उद्धव थकान, चिरांध और उस वीभत्स भोज से आंदोलित अर्धमूर्छित अवस्था में थे। उन्हें लगता कि अब किसी भी समय वे गिर पड़ेंगे, या कोई राक्षस ऊपर चढ़कर उन्हें नीचे धकेल देगा। उन्हें भी गर्म पत्थर पर भूना जाएगा, उनके शरीर को खंड-खंड कर इन राक्षसों का भोजन बना दिया जाएगा। उन्हें कभी-कभी कृष्ण दिखाई देते जो उनकी तरफ बढ़े चले आ रहे थे। अपनी पत्नियां कपिला और पिंगला दिखाई देती, पिता देवभाग दिखाई देते। उन्होंने कृष्ण के साथ, कृष्ण के लिए अनगिनत पराक्रम के काम किये थे, पर आज कायरों की भांति इस वृक्ष पर खुद को बांधे अपनी निश्चित मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके हृदय से आवाज निकली, 'हे गोविंद, तेरा ये भक्त तुझे अपने हृदय में समाए तुझमें विलीन होता है। मुझे मुक्त कर, यमराज मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं'। उन्हें कृष्ण की गूंजती आवाज सुनाई दी, 'जब तक कृष्ण जीवित है, उद्धव को यमराज नहीं ले जा सकेंगे'।
दूर कहीं हलचल से उद्धव की तन्द्रा टूटी तो उन्होंने देखा कि मांसभक्षी राक्षसों में भगदड़ मची थी और सैनिकों जैसे लगने वाले राक्षस उन्हें पकड़ रहे थे। वृक्ष के नीचे कुम्भ के साथ खड़े एक अतिविशाल राक्षस ने विशुद्ध देववाणी में उनसे कहा, "अरे बन्दर, डाली से क्या चिपका है। कूद जा, राजा वृकोदर की ये बलिष्ठ बाहें तुझे लपक लेंगी।"
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नींद से बोझिल आंखें जब दुबारा खुली तो उन्होंने भाई भीमसेन को देखा, जिन्होंने राक्षसी भड़कीले वस्त्र पहने थे, बस एक अंतर था कि उनके दांत राक्षसों की तरह घिस कर नुकीले नहीं बनाए गए थे। भीम ने उनकी तरफ देखकर कहा, "उठ गया? अभी और सो ले। तब तक इन राक्षसों को दंड दे लूँ।"
अगली सुबह वे सभी मुख्य बस्ती गए। रास्ते में उन्होंने भीम से पूछा, "तुम इनके राजा कैसे बन गए?"
भीम ने अपनी गूंजती आवाज में कहा,"जब पापी दुर्योधन ने हमें जलाकर मारने का षडयंत्र किया था तो चाचा विदुर के आदेशानुसार हम इधर वन की ओर चल दिये। यद्यपि मुझे समझ नहीं आया कि साक्ष्य होते हुए भी अपराधी दुर्योधन के स्थान पर हमें सजा क्यों दी जा रही है। यदि बड़े भैया का आदेश ना होता तो मैं उसी समय हस्तिनापुर जाकर दुर्योधन को पटक-पटक कर मार डालता।
वन में एक रात्रि जब सभी विश्राम कर रहे थे, राक्षसों का राजा हिडिम्ब अपनी बहन हिडिम्बा सहित आ धमका। तुम मेरी देह तो देख ही रहे हो, उसे लगा होगा कि इस एक व्यक्ति से कई दिनों तक उसकी उदरपूर्ति होती रहेगी। मुझसे आ भिड़ा, और जानते हो उद्धव, मैंने दुर्योधन, कर्ण, शकुनि का सारा क्रोध उस अभागे राक्षस पर उतार दिया। उसको इतना पटका कि उसकी हड्डियों का चूरा बन गया।
इनकी संस्कृति हमसे अलग है। पिता या भाई की द्वंदयुद्ध में वध करने वाले वीर से ये प्रेम करने लगती हैं, उनसे विवाह करती हैं। चूंकि ये आर्य कन्या नहीं थी, माता ने बड़े भाई के होते हुए भी आपद्धर्म मान मुझे हिडिम्बा से विवाह करने की अनुमति दी। तुम मिलना उससे, वह बहुत ही अच्छी है। हमारी संस्कृति समझने का, अपनाने का प्रयास करती है।"
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माता सत्यवती के आदेश पर महामुनि व्यास राक्षसावर्त पधारे थे। राक्षस राजा वृकोदर तथा नागराजा कर्कोटक के मध्य उद्धव की मध्यस्थता से संधि हो गई थी। संधि के अनुसार अब नागों के सीमावर्ती गाँवों की सुरक्षा राक्षस करते थे। मांस, चमड़े तथा औषधियों का व्यापार, कृषि, पशुपालन, शिकार तथा सुरक्षा की तकनीकों का आदान प्रदान शुरू हुआ था तथा नए मार्ग बनाये जा रहे थे।
महामुनि का आना राक्षसों के लिए कौतूहल का विषय था। उनकी आंखें तब फटी रह गई जब उन्होंने अपने महान राजा को किसी दास की तरह उनके चरणों में लोटता हुआ पाया। राजा की बूढ़ी माता तथा अन्य भाइयों ने भी उसी प्रकार अभिवादन किया। देखा देखी राक्षसों ने भी दण्डवत करने का प्रयास किया।
औपचारिकताओं के पश्चात महामुनि कुंती से बोले, "कैसी हो पुत्री, सब कुशल तो है?"
"हाँ गुरुवर। मेरे पुत्र जहाँ हों वहां कुशलता क्योंकर नहीं होगी। मेरा तो अधिकांश जीवन ही वनों में बीता है। परंतु आर्यपुत्र के साथ हम जिस भी वन में रहे वे सभी आर्य ऋषि थे। यहां की संस्कृति हमसे भिन्न है।"
"सब एक जैसे ही हो जाएं तो जीवन में माधुर्य कहाँ बचेगा पुत्री। तुम सुनाओ पुत्रो, तुम सब कैसे हो?"
नकुल बोल पड़े, "पितामह, आपके दर्शनों से हम अत्यंत प्रसन्न हैं। परंतु यहां सबसे अधिक दुखी मैं ही हूँ। बड़े भैया को तो बस धर्मचर्चा के लिए एक भी व्यक्ति मिले तो ये सारा जीवन कहीं भी काट सकते हैं, कोई नहीं मिला तो माता तो हैं ही। भैया भीम तो यहां के राजा ही हैं, इन्हें राजकाज से ही अवकाश नहीं मिलता, जो मिला भी तो भाभी हिडिम्बा के साथ वन में घूमते रहते हैं। ये सव्यसाची अर्जुन, महान धनुर्धर वनों में अपने खिलौना धनुष-बाण से मृगया करते रहते हैं, राक्षस बालकों को धनुर्विद्या सिखाते हैं। अब तो घटोत्कच भी आ गया है तो उसी के साथ लगे रहते हैं। फिर ये मेरे प्रिय सहदेव हैं, ये कभी सीधे देखते ही नहीं। या तो ऊपर आकाश में तारों को देखते हैं या नीचे धरती पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचते रहते हैं। बचा मैं, मैं अपना समय काटने के लिए यहां बकरियों और खरगोशों को प्रशिक्षित करता हूँ, अगली सुबह तक वे राजा वृकोदर की प्रजा के उदर में समा जाते हैं। मुझे लगता है पितामह कि हम सब भूल गए हैं कि हम क्षत्रिय हैं, वनवासी नहीं।"
"तो तुम सब बाहर क्यों नहीं आते? वन में क्यों छुपे हो? क्या दुर्योधन से डरते हो?"
"पाण्डुपुत्र किसी से नहीं डरते गुरुदेव। ये तो हमारे बड़े भैया का आदेश है कि हमें उचित समय तक वन में ही रहना चाहिए।"
"हूँ, और धर्मराज युधिष्ठिर, वह उचित समय कब आएगा पुत्र?"
सत्यनिष्ठ युधिष्ठिर अपने युवराजत्व के अल्पकाल में ही अपनी न्यायप्रियता और सदाशयता के कारण चहुँओर धर्मराज के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे, बोले, "पितामह, चाचा विदुर ने हमें लाक्षागृह की गुप्तसूचना दी थी, और वन में छुपे रहने के लिए कहा था। वे जब कहें, हम स्वयं को प्रकट करने के लिए सज्ज हैं।"
भीम बोले, "मुझे समझ नहीं आता कि हमें छुपे रहने की आवश्यकता ही क्या थी, हम क्यों बार-बार दुर्योधन से छुपते फिरें। मेरे हाथ में मेरी गदा हो, अर्जुन के पास उसका धनुष, खड्गधारी नकुल हो तो हमें त्रिलोक में कौन हारा सकता है?"
"तुम्हें इसलिए छिपना था पुत्र कि आमने-सामने के युद्ध में भले ही त्रिलोक में तुम्हें कोई ना हरा सके पर पीठ पीछे किये गए प्रहार का क्या उत्तर है तुम्हारे पास? तुम एक बार बचोगे, दो बार बचोगे, बारम्बार कैसे बच पाओगे। स्मरण रखो, उन्हें बस एक बार ही तो सफल होना है। यदि आज तुम्हें शस्त्र दे भी दिए जाएं तो भी तुम्हें दुर्योधन पर वार नहीं करने दिया जाएगा, और उसे वार करने से कोई रोक नहीं सकेगा। हम चाहते हैं कि तुम इतने शक्तिशाली बनो कि तुम्हारा अहित करने का विचार भी कोई अपने मन में ना ला सके।"
धर्मराज बोले, "तो हमें क्या करना चाहिए गुरुदेव?"
"इस वनवास का समय समाप्त हुआ। श्रीकृष्ण इस प्रयास में हैं कि तुम जब संसार के सामने आओ तो पर्याप्त शक्तिशाली होकर आओ। कुछ ही समय में याज्ञसेनी द्रौपदी का स्वयंवर है। गोविंद चाहते हैं कि तुम सब उसमें सम्मिलित हो। काम्पिल्य नरेश को अपने जमाता के रूप में सर्वश्रेष्ठ वीर चाहिए, तो आज पाण्डवों से बढ़कर वीर कौन है? पांडवों को शक्तिशाली मित्र चाहिए, तो आर्यावर्त में पांचालों के अतिरिक्त सामर्थ्यवान तथा धर्मपरायण कौन हो सकता है भला? राजनीति बदल रही है पुत्रो, इस एक विवाह से कई पुराने समीकरण टूटेंगे तो कई नई संधियां जन्म लेंगी। पुरुषार्थ दिखाने का इससे उत्तम अवसर नहीं मिलेगा पुत्रो।"
भीम की भुजाएं फड़कने लगी, पराक्रम प्रदर्शन का कोई अवसर वे नहीं छोड़ना चाहते थे। परंतु जितनी तीव्रता से उनके चेहरे पर चमक आई थी, उतनी ही तीव्रता से उनका चेहरा कुम्हला गया। महामुनि ने इसे देखा और मुस्कुराते हुए पूछा, "क्या हुआ पुत्र? तुम विचलित दिख रहे हो।"
"पितामह, मेरा पुत्र घटोत्कच, मैं उसे छोड़कर कैसे जाऊं? वह अभी केवल 4 माह का है। हमारे अपने पिता हमें बाल्यावस्था में ही छोड़ दिवंगत हो गए थे। उनके ना रहने पर हम भाइयों ने सदैव ही सौतेलापन पाया है। अपने अधिकारों के लिए भी हमें भिक्षुक समान माना गया। मैं अपने पुत्र के लिए ऐसी परिस्थिति नहीं चाहता पितामह।"
"बालकों जैसी बातें ना करो पाण्डुपुत्र भीम। क्या पांडु के ना होने पर मैंने, भीष्म ने या विदुर ने तुम लोगों में कभी भेद किया है, तुम्हारे गुरु द्रोण ने तुम्हें कम शिक्षा दी? किसी के होने ना होने से सृष्टि रुक नहीं जाती पुत्र। बंधन में मत बंधो, अपना कर्म करो। रही घटोत्कच की बात, तो उसे मैं देखूंगा कि वह शास्त्र और शस्त्र में पारंगत हो। वह एक महान योद्धा बनेगा पुत्र, और संसार तुम्हें उसके पिता के रूप में याद रखेगा।"
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प्रस्थान से एक दिन पूर्व हिडिम्बा अपने पति राजा वृकोदर को एक अत्यंत ही मनोरम स्थान पर ले आयी। भीम ने प्रकृति की ऐसी अद्भुत छटा पहले कभी नहीं देखी थी। यकायक उनके मुख से उद्गार निकला, "अहा, ये तो साक्षात स्वर्ग है। मन करता है कि आजीवन यहीं रह जाऊं।"
हिडिम्बा बोली, "तो रह क्यों नहीं जाते वृकोदर? क्यों जाना चाहते हो यहां से? ये दृश्य तो कुछ भी नहीं, मैं तुम्हें ऐसे-ऐसे स्थान दिखाउंगी जो तुम्हारी जाति के किसी मनुष्य की कल्पना में भी नहीं आये होंगे। तुमनें इसे स्वर्ग कहा, परन्तु तुम्हें उन स्थानों के लिए कोई शब्द नहीं मिलेगा।"
भीम चुप ही रहे तो हिडिम्बा पुनः बोली, "और तुम चाहते हो कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ। पर क्या तुम्हारे नगर यहां की तरह हैं? क्या वहां मुझे वही स्वतंत्रता प्राप्त होगी जो यहां हैं? तुम्हारी माता कुंती मुझे बहुत प्रेम करती हैं, मेरी गर्भावस्था में उन्होंने मेरा इतना ध्यान रखा कि जब भी सोचती हूँ, आंखों में अश्रु आ जाते हैं। पर उनके अनुशासन में मेरी सांस रुकती है। यदि एक आर्य स्त्री के होने पर ऐसा है तो मुझे डर है कि अनेक आर्य स्त्रियों की रोकटोक से मैं कहीं मर ही ना जाऊं।
मुझे यह भी समझ नहीं आता कि उनके चार अन्य पुत्र भी तो हैं, वे मेरे पति को मुझे सौंप क्यों नहीं देती, मेरे पति को भी अपने साथ क्यों रखना चाहती हैं। हमारे यहां तो वयस्क होते ही पुरुष अपनी पत्नी के साथ अलग हो जाता है।"
"सालकंटकटी, क्या तुम नहीं जानती कि मैं यहीं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं, पर यह असम्भव है। यदि तुम मेरा वास्तविक परिचय जानती तो कदाचित तुम मुझे रोकने का प्रयास नहीं करती। आह! यदि मैं तुम्हें बता सकता कि हमारा पुत्र केवल विरोचन का ही वंशज नहीं, अपितु संसार के श्रेष्ठतम कुल का उत्तराधिकारी है। यदि मैं तुमसे तुम्हारे पुत्र को अलग कर दूं तो तुम्हें कैसा लगेगा? मैं भी तो अपनी माता का प्रिय पुत्र हूँ, उनसे अलग कैसे रह सकता हूँ? मैं माता से उसके पुत्र को अलग नहीं करना चाहता पर मेरा पुत्र अनन्य वीर होना चाहिए प्रिये। उसे वीर बनाना।"
"इसमें कोई संदेह हैं क्या, वह वीर पुत्र है। वीर ही बनेगा।"
"केवल किसी का पुत्र होने भर से कोई वीर नहीं होता हिडिम्बा, उसे आधुनिक शिक्षा लेनी होती है, संस्कार सीखने होते हैं।"
"कभी-कभी तुम विचित्र बातें करते हों। हमारे समाज में ये सब नहीं होता तो क्या हम लोग वीर नहीं हैं?"
"तुम वीरता किसे मानती हो? तुम्हें लगता है कि तुम्हारा भाई बहुत वीर था?"
"हाँ, क्या वो वीर नहीं था? उसके भय से सभी कांपते थे, कोई उसके पास नहीं आता था। हमारे इस वन में मनुष्य पैर नहीं रखते थे।"
"तुम इसे वीरता कहती हो? क्या मेरे पुत्र को भी तुम अपने भाई जैसा ही वीर बनाओगी? क्या वह भी किसी पेड़ पर बैठा जंगली पशु या किसी मानव की प्रतीक्षा करता हुआ लटका रहेगा, और आखेट मिलते ही उसे कच्चा चबा जाएगा? अच्छा हिडिम्बा, क्या मैं वीर नहीं हूं?"
"तुम तो वीरों के वीर हो, तुमसे अधिक वीर पुरुष मैंने नहीं देखा।"
"तो क्या मैंने कभी किसी मानव या राक्षस की हत्या कर उसका मांस खाया? जब मैंने हिडिम्ब का वध किया तो तुम्हारी प्रथा के अनुसार तुम्हारे पुजारियों ने उसे पकाकर खा जाने का प्रस्ताव किया था, तुम भी उसकी खोपड़ी अपने पास रखना चाहती थी। मैंने ये सब नहीं होने दिया।
हिडिम्ब की प्रजा उससे भय खाती थी, उसके राज्य में कोई मनुष्य प्रवेश नहीं करता था। परंतु आज तुम्हारे समाज का कोई बालक भी निःसंकोच मेरे पास आ जाता है। नागों और आर्यों से व्यापार शुरू हुआ है।
तुम्हारा भाई केवल अपना पेट भरने के लिए हत्याएं करता फिरता था, मैंने अपनी, अपने माता तथा भाइयों की प्राणरक्षा के लिए उसका वध किया। मैंने अपने प्राणों को संकट में डाल अनगिनत मानव-मांसभक्षी राक्षसों का वध किया। मेरे पुत्र को मुझ जैसा वीर बनाना। संसार यह जाने कि वह मेरा पुत्र हैं, कि मैं घटोत्कच का पिता हूँ। उसे जिस भी गुरु से शिक्षा दिलवाना पर उसे मूल शिक्षा तुम देना कि उसे कमजोरों की ढाल बनना है, और आतताइयों का वध करना है।"
"तो क्या उसे तुम्हारे समाज में जाना होगा। तुम लोगों की रीतियाँ अपनानी होंगी।"
"यदि ऐसा करने से कुछ शुभ हो तो अवश्य। संस्कृतियों को एक दूसरे में मिल ही जाना चाहिए। जो तुमसे अलग हैं, आवश्यक नहीं कि तुम्हारे शत्रु ही हों। उनसे कुछ सीखो, उन्हें कुछ सिखाओ। एक दूसरे को नष्ट करने की अपेक्षा साथ रहकर स्वयं का विकास प्रत्येक दृष्टि से शुभ है प्रिये।"
"ठीक है वृकोदर, मुझे मेरा मार्ग दिख गया है। मैं अपने पुत्र को उसके पिता जैसा वीर बनाउंगी। वह राक्षसों के आर्य राजा वृकोदर का सच्चा उत्तराधिकारी होगा। मुझे वचन दो कि यदि भविष्य में कभी तुम संकट में घिरे तो हमें बुलाने में संकोच नहीं करोगे। हमसे सम्पर्क बनाये रखना प्रिय, हमें स्मरण रखना"
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भानुमति_12
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जरासंघ के शिविर के बाहर कृष्ण के सभी शस्त्रों को धारण किये उद्धव बड़ी व्याकुलता से टहल रहे थे। वे सदैव ही कृष्ण से समहत होते आये थे, परन्तु आज उन्हें कृष्ण का अकेला और निशस्त्र होकर जरासंघ से भेंट करना अनुचित प्रतीत हुआ था। परंतु यह भी तो था कि कृष्ण किसी की सुनते ही कहाँ थे। इसके पश्चात भी उद्धव ने कृष्ण के संज्ञान के बिना ही अपने चुने हुए महारथियों को शिविर घेर लेने का आदेश दिया हुआ था, और उनकी हथेली अपने शंख पर कसी हुई थी कि यदि तनिक सा भी आभास हो तो वे अपने साथियों सहित आक्रमण कर दें।
कृष्ण अपने मनोहारी रूप में सकुशल आते हुए दिखाई दिए, तब उद्धव के स्नायुओं का तनाव ढीला हुआ। उन्होंने पूछा, "गोविंद, कैसी रही? जरासंघ ने क्या कहा?"
"तुम्हें क्या लगता है भाई कि मैं उससे कुछ सुनने गया था। मैंने जो कहना था कह आया। सोचता हूँ कि अब जरासंघ कोई समस्या नहीं बनेगा। परन्तु फिर भी हमें सावधान रहना चाहिए। कल प्रातः द्रौपदी के कक्ष से लेकर यज्ञशाला तथा वहां से स्वयंवर स्थल तक यादव रक्षकों को नियुक्त करना होगा। यदि एक भी मागध दिखा तो वे उसे बन्दी बना लें।"
"ऐसा ही होगा। मेरा एक प्रश्न था गोविंद, यदि एक से अधिक प्रतिभागी स्वयंवर जीतते हैं तो क्या होगा? या कोई भी नहीं जीतता तो क्या होगा?"
"एक से अधिक प्रतियोगी के जीतने पर तो कोई समस्या ही नहीं है। द्रौपदी उनमें से किसी एक को चुन सकती है। यदि कोई ना जीत पाया तो इसका अर्थ होगा स्वयंवर-भंग, उस स्थिति में प्रतिभागी बलप्रयोग द्वारा द्रौपदी का हरण करना चाहेंगे। यदि ऐसा हुआ तो हमें भी बल प्रयोग करना होगा।"
"और यदि पांडव समय से ना पहुँच सके तथा दुर्योधन, कर्ण या अश्वथामा जैसा एक भी अवांछित प्रतियोगी विजित हुआ तो?"
"ये ही मेरी समस्या है उद्धव। यदि ऐसा हुआ तो यादवों में से किसी को स्वयंवर में भाग लेना होगा। सात्यकि महान धनुर्धर है, आशा है कि वह लक्ष्यवेध कर लेगा।"
"यदि ऐसा है केशव तो क्या तुम मुझे आज्ञा दोगे?"
"किसकी, स्वयंवर में भाग लेने की? तुम निश्चित ही विजयी होगे, परन्तु क्या इससे तुम्हारी पत्नियां कपिला-पिंगला दुखी नहीं होंगी? और तुम संत स्वभाव के व्यक्ति हो भाई, द्रौपदी जैसी प्रचण्ड अग्निशिखा तुम्हारे अनुकूल नहीं होगी।"
"जो हो केशव, पर मुझे आज्ञा दो कि यदि सात्यकि भी असफल रहा तो मैं भाग लूंगा। और यदि मैं भी असफल रहा, तब भी तुम्हारा वचन पूरा होगा। कोई भी अधर्मी द्रौपदी को प्राप्त नहीं कर सकेगा।"
"सो कैसे?"
"मैंने प्रतियोगिता में प्रयुक्त होने वाला धनुष देखा है। उसके नीचे दबकर किसी की भी मृत्यु हो सकती है। यदि ऐसा हो तो यह विवाहोत्सव नहीं रह जायेगा।"
अचंभित कृष्ण भावुक होकर बोले, "क्या तुम मृत्यु को स्वीकार करोगे? तुम कब तक मेरे लिए अपने प्राणों को संकट में डालोगे भाई?"
"मेरा तो जन्म ही तुम्हारे लिए हुआ है कृष्ण। मैं तो जीता ही इसलिए हूँ कि तुम्हारा वचन सफल हो।"
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अंततः वह दिन आ ही गया। वह दिन जब आर्यावर्त की राजनीति में आमूलचूल परिवर्तन सम्भावित था, वह दिन जब पांचाल नरेश अपनी प्रिय पुत्री के वैवाहिक सम्बंध द्वारा एक ऐसा अप्रतिम वीर प्राप्त कर सकते थे जो उन्हें द्रोण तथा उनके रक्षक कुरु-साम्राज्य से टक्कर लेने लायक पर्याप्त शक्तिशाली बना सकता था, वह दिन जिस पर कृष्ण ने अपनी सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी थी।
पिछले सोहल दिनों से चले आ रहे विभिन्न मांगलिक कार्यकलापों का आज अंतिम दिन था। द्रौपदी प्रसन्न भी थी और उत्साहित भी। उसने अपने आप को गोविंद के भरोसे इस विश्वास के साथ छोड़ दिया था कि यदि उन्होंने कहा है तो सब शुभ ही होगा। आचार्य श्वेतकेतु के साथ यज्ञशाला में विधिवत पूजा इत्यादि सम्पन्न कर जब वह स्वयंवर स्थल की ओर चली तो उसके साथ उसका भाई धृष्टद्युम्न भी था, उसने पूरे मार्ग में कहीं भी किसी मागध रथी को ना पाकर चैन की सांस ली। उसके अपहरण की शंका निर्मूल सिद्ध हुई थी।
स्वयंवर स्थल में विभिन्न वेशभूषा में जाने-अनजाने राजा एवं राजकुमार विराजमान थे। उसने अपने पिता की ओर देखा, वर्षों बाद उसे उनके मुख पर वह तेज दिखा जो किसी महान राजा के मुख पर ही सम्भव था। उसके पिता आज इस स्वयंवर द्वारा बिना किसी राजसूय यज्ञ द्वारा ही जैसे चक्रवर्ती सम्राट हो गए हों। उनके दोनों ओर उनके अंगरक्षकों की मुद्रा में उसके भाई सत्यजीत व शिखंडी गर्व से मस्तक ऊंचा किये खड़े थे। उसके कपोल कन्या से किसी की पत्नी बन जाने के विचार मात्र से रक्तिम हो आये।
आचार्य श्वेतकेतु ने सबको शांत करने के उद्देश्य से अपना शंख फूंका और कहा, "मैं श्वेतकेतु, इस स्वयंवर को संपन्न करवाने वाला आचार्य अपने गुरु की आज्ञा तथा पांचालराज यज्ञसेन द्रुपद की सहमति से यह घोषणा करता हूँ कि राजकुमारी द्रौपदी वीर्यशुल्का हैं, जो भी वीर अपनी वीरता से दी गई परीक्षा उत्तीर्ण करेगा, राजकुमारी उसके गले में जयमाला पहनाएंगी।
परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए प्रार्थी को सामने रखे जल के पात्र में बने प्रतिबिंब को देखकर, ऊपर यंत्र द्वारा चलित एक चक्र के ऊपर विपरीत दिशा में घूमती काष्ठ की मछली के नेत्र को, सामने रखे धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के पश्चात सटीक लक्ष्य द्वारा वेधन करना होगा। प्रतियोगी एक बार में जितने चाहे बाण प्रयोग कर सकता है, इसके अतिरिक्त यदि वह असफल रहता है तो जितनी बार चाहे फिर से प्रत्यंचा चढ़ा कर पुनः प्रयास कर सकता है।
आर्यावर्त तथा अन्य देशों से सभी वीरों को शुभकामनाएं, जो भी वीर पहले आना चाहे, आ सकता है।"
इतनी भीषण परीक्षा सुन आधे से अधिक राजा खिन्न हो गए, क्योंकि वे सभी श्रेष्ठ धनुर्धर नहीं थे। ये प्रतियोगिता तो सिर्फ धनुर्धारियों के लिए थी। दुर्योधन ने श्वेतकेतु की घोषणा ध्यान से सुनी थी, उन्होंने जयमाला कहा, ना कि वरमाला, अर्थात कोई भी वीर लक्ष्यवेध करे पर आवश्यक नहीं कि विवाह भी करे। उसने तुरंत कर्ण एवं अश्वथामा से छोटी सी मन्त्रणा की। कर्ण सहमत प्रतीत हुआ पर अश्वत्थामा की खिन्नता उसके चेहरे पर स्पष्ट देखी जा सकती थी।
सभी एक दूसरे का मुंह देख रहे थे कि पहले कौन अपना भाग्य आजमाता है। तभी चेदि राज्य का राजकुमार शिशुपाल उठ खड़ा हुआ और आगे बढ़ा।
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माता कुंती ने अपने पाँचों पुत्रों को आशीर्वाद दिया और कहा, "जाओ पुत्रो, हमारे वनवास का समय तुम्हारे पराक्रम द्वारा समाप्त हो। और ध्यान रखना पुत्रो, विशेषतः तुम भीम, युधिष्ठिर ज्येष्ठ है, प्रथम अधिकार सदैव ही उसका रहेगा।"
जटाधारी ब्राह्मणों का वेश धरे, भस्म लगाए पांचों पांडवों ने अलग-अलग प्रस्थान किया। भीम जब स्वयंवर स्थल पहुंचे तो अंगरक्षकों ने उन्हें सामान्य जनता के लिए आरक्षित प्रकोष्ठ की ओर जाने का संकेत किया। भीम का विद्रोही मन स्वयं को यह विचार करने से नहीं रोक पाया कि दिग्विजयी सम्राट पांडु के पराक्रमी पुत्रों की यह दशा कि वे प्राणरक्षा के लिए वन-वन भटकें, भिक्षा मांगें, और यहां इस स्वयंवर में भस्म रमाये साधारण भिक्षुक ब्राह्मणों के साथ बैठें। और अन्यायी, दुष्ट, प्रजा का रक्त चूसने वाले ये राजा-राजकुमार बहुमूल्य वस्त्रों में शस्त्रास्त्र से सज्जित होकर सम्मानित अतिथि का सम्मान पाएं।
उन्होंने ब्राह्मणों के प्रकोष्ठ में बैठे अपने बड़े भाई युधिष्ठिर को देखा और फिर उदास हो गए कि जिस व्यक्ति को दुष्यंत, भरत, कुरु, हस्ती, प्रतीप, शांतनु, पांडु जैसे महान सम्राटों के सिंहासन पर विराजमान होना था, वे यहां सामान्य जनों के बीच बैठे हुए हैं। तभी उनकी दृष्टि राजन्य वर्ग में प्रवेश करते कुरु-कुमारों पर पड़ी। दुःशासन, दुर्विषह, दुर्मुख, विकर्ण, युयुत्सु, भीमवेगर्व, सह, दुस्पघर्षण, निषंगि, अग्रयायिन, दुर्विमोचन, विवित्सु, विकट, क्राध, अयोबाहु के साथ दूर्योधन ने प्रवेश किया और भीम के रक्त ने ऐसा उबाल मारा कि जैसे वे अभी अपना वृकोदर रूप प्रकट करें और दुर्योधन को अपने हाथों से पटक-पटक कर मार डालें। क्रोध से फुँफकारते उनकी दृष्टि युधिष्ठिर पर पड़ी और उन्होंने उन्हें अपनी ओर ही देखता हुआ पाया। युधिष्ठिर के दाएं पैर के अंगूठे को देख उन्होंने स्वयं को संयत किया और बैठ गए। माता कुंती ने बचपन में भीम को सुझाव दिया था कि उन्हें जब भी अत्यधिक क्रोध आए, वे युधिष्ठिर के दाएं पैर का अंगूठा देखें, यदि वह नीचे हो तो शांत रहें, और यदि ऊपर हो तो अपने क्रोध को उचित परिणाम तक पहुंचाएं।
अपने भाईयों से अलग बैठे अर्जुन हस्तिनापुर से अपने निर्वासन के समय से ही उदासीन रहने लगे थे। उन्होंने अब तक बस अपनी माता तथा बड़े भाइयों की आज्ञा का पालन किया था। उन्होंने निरपेक्ष भाव से कौरवों को आते देखा। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा एवं कर्ण को आते देखा, कर्ण की उंगली पकड़े उसका अवयस्क पुत्र सुदामन भी था। बड़े भैया कर्ण की ओर सदैव आकर्षित रहते थे, उनका कहना था कि कर्ण के पैर माता कुंती जैसे हैं। पर अर्जुन चाहकर भी कभी उसके पैर नहीं देख पाया, क्योंकि उनकी दृष्टि तो कर्ण के मांसल कुंडलों पर ही अटक जाती थी।
राजन्य वर्ग में प्रचण्ड शोर हुआ। सभी राजा अपने-अपने स्थानों पर खड़े हो गए, लगा कि जैसे किसी अत्यंत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति ने प्रवेश किया हो। अर्जुन ने भी अन्य लोगों की तरह थोड़ा आगे बढ़कर देखा तो उनका ममेरा भाई, उनका सखा वासुदेव कृष्ण चला आ रहा था। उसके साथ भीमकाय बलदेव, मित्र सात्यकि, कृतवर्मा, वृद्ध अक्रूर एवं अन्य यादव अतिरथी थे। देश-देशांतर के राजाओं के मध्य ये यादव वीर, और उनके मध्य वासुदेव कृष्ण, जैसे तारों से भरे आकाश में सूर्य।
जब आचार्य श्वेतकेतु ने स्वयंवर की प्रतिज्ञा सुनाई तो यकायक ही अर्जुन के भाव परिवर्तित हुए कि यह कोई सामान्य स्वयंवर नहीं। ये तो विश्व के सम्मुख सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के प्रकट होने की कसौटी है। उनकी दृष्टि युधिष्ठिर की ओर गई, उन्होंने देखा कि बड़े भाई नकुल तथा सहदेव के साथ उठ कर प्रांगण से बाहर निकल रहे थे। कदाचित युधिष्ठिर ने विचार किया हो कि ये कसौटी उनके लिए नहीं है। भीम की प्रकृति ऐसे आयोजनों से दूर रहने की नहीं थी, वे परम उत्साहित दिखे।
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चेदि नरेश दामघोष तथा श्रुतश्रवा का पुत्र शिशुपाल गुरुओं के गुरु परशुराम का शिष्य था। आर्यावर्त में प्रख्यात धनुर्धर के रूप में उसकी प्रतिष्ठा थी। श्रुतश्रवा कुंती की भांति कृष्ण के पिता वसुदेव की सगी बहन थी, परंतु शिशुपाल कृष्ण से द्वेष रखता था। कंस की मृत्यु के पश्चात आर्यावर्त में जरासंघ के प्रमुख सहयोगियों में से एक शिशुपाल ने द्रुपद को प्रणाम करने के पश्चात धनुष को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हुए यकायक ही उठा लिया। उसने प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए धनुष के एक छोर को पैरों से दबाकर दूसरे छोर को अपनी ओर झुकाने का प्रयास किया कि धनुष झटके देते हुए उसके हाथ से छूट पड़ा। सभा में हँसी गूंज उठी और सबसे प्रचण्ड हँसी भीम की थी। उसने धनुष उठाने का पुनः प्रयास किया परन्तु इस बार वह असफल रहा। अपशब्द बोलते हुए शिशुपाल अपने आसन पर आ बैठा। कुछ ही समय पहले उसकी असफलता पर हँसने वाले सारे राजा मूक हो गए, कि आर्यावर्त का एक महान धनुर्धर तो प्रत्यंचा तक नहीं चढ़ा पाया।
समस्त राजा असमंजस में थे कि अब कौन आगे बढे, वहीं दुर्योधन उस प्रचण्ड हास्य को भूल नहीं पा रहा था। ये तो वही हँसी थी जो उसे बाल्यकाल से ही सतत विचलित करती आई थी, ये तो उस निमोछिये भीम की हँसी थी। तो क्या भीम जीवित है, क्या पांडव जीवित हैं?
अबकी राजा दृढ़धन्वा आगे बढ़े। शिशुपाल ने तो धनुष उठा ही लिया था, ये उसे तिल भर भी हिला नहीं सके और समाज में स्यवं को अपमानित कर वापस अपने आसन पर आ बैठे। एक-एक कर राजा-राजकुमार आते गए और असफल होते गए। कइयों ने तो दो या तीन बार पुनः प्रयास किया। राजन्य वर्ग ने जरासंघ की ओर आशान्वित दॄष्टि से देखा। जरासंघ ऐसी परिस्थितियों को संभालना अच्छे से जानता था। मंद स्मित लिए उठा, द्रुपद को प्रणाम करने के पश्चात श्वेतकेतु के समक्ष खड़ा हो गया।
श्वेतकेतु ने आशीर्वचन देकर कहा, "क्या चक्रवर्ती लक्ष्यवेध करेंगे?"
गर्वित जरासंघ बोला, "यदि यह मात्र धनुर्विद्या की परीक्षा होती तो अवश्य करता आचार्य, परन्तु यह तो स्वयंवर है। राजकुमारी मेरी पौत्रवधु बनने योग्य वय की हैं, मैं उसका पाणिप्रार्थी नहीं हो सकता। कितना उचित होता यदि यह मल्लविद्या या गदाविद्या की कसौटी होती। मेरा पौत्र उसमें अवश्य ही विजयी होता। द्रुपदराज को मेरी शुभकामनाएं कि उन्हें अपनी पुत्री के लिए जामाता के रूप में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर मिले। राजन, हम मागध आपके आमंत्रण पर आए थे, अब आपकी आज्ञा चाहते हैं। हम अभी गिरिव्रज लौट जाएंगे।"
जरासंघ द्रुपद एवं अन्य राजाओं का अभिवादन करते हुए अपने पुत्र-पौत्रों सहित स्वयंवर स्थल से चला गया। अब मात्र कुरु बचे थे, जिन्होंने अपना भाग्य नहीं आजमाया था। सबकी दृष्टि अपने ऊपर पाकर युवराज दुर्योधन उठा, अपना खड्ग दुःशासन को थमाकर गर्वित चाल चलता हुआ धनुष तक पहुंचा। ऊपर से वह अत्यंत विश्वासी प्रतीत होता था, परन्तु यह विचार कि कहीं पांडव जीवित तो नहीं हैं, उसे उद्वेलित किये हुए था। उसने बाएं हाथ से ही धनुष उठा लिया। तनिक प्रयास कर उसने प्रत्यंचा भी चढ़ा दी, उसका आत्मविश्वास लौट आया। उसने बाण चढ़ाया, जल के पात्र में प्रतिबिंब को देखते हुए बाण छोड़ने ही वाला था कि उसे फिस्स की तिरस्कारपूर्ण हँसी सुनाई दी। यह, यह तो निश्चित ही भीम की वही जानी-पहचानी हँसी थी, उसका हाथ निमिष भर को हिल गया और बाण छूट चला। उसने ऊपर देखा तो यंत्र यथावत चल रहा था, मछली अपनी परिधि पर वैसे ही घूम रही थी परंतु बाण का कहीं पता नहीं था। उसने दूसरा बाण उठाया ही था कि उसे प्रचण्ड आवाज सुनाई दी, 'अंधे का पुत्र अंधा'। दुर्योधन के लिए अब स्वयं को संयत रखना कठिन हो गया। अब केवल चक्र या मछली ही नहीं, समस्त वातावरण ही उसकी आँखों के सामने घूमने लगा। जैसे-तैसे उसने धनुष को यथास्थान रखा और लड़खड़ाते हुए अपने आसन पर आ बैठा।
अब अश्वत्थामा उठा और पांच प्रयासों बाद भी लक्ष्यवेध में असफल रहा। अंततः कर्ण उठा, उसने हाथ जोड़कर धनुष की परिक्रमा की, अपने आध्यात्मिक पिता सूर्य को याद किया और एक पल में ही धनुष उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा दी। सारी सभा साधु-साधु की ध्वनि से गूंज उठी। उसने बाण का संधान किया कि एक तीखे स्त्रीस्वर ने उसे रोक दिया। स्वयं द्रौपदी कह रही थी, "हे अंगराज कर्ण, आप इस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकते।"
अचंभित कर्ण रोषपूर्वक बोला, "क्यों राजकुमारी?"
"यह मेरा स्वयंवर है। ये मेरा विशेषाधिकार है कि कौन इसमें भाग ले या ना ले।"
"अवश्य है, परन्तु कोई समुचित कारण भी तो हो।"
"यदि आप सुनना ही चाहते हैं तो उत्तम कुल में जन्मे सर्वश्रेष्ठ वीर के लिए ही है ये प्रतियोगिता। आप सूतपुत्र हैं, प्रतिलोम विवाह अमान्य है।"
"शास्त्र ही सत्य नहीं, हैं भी तो प्रतिलोम विवाहों के कई उदाहरण भरे पड़े हैं हमारे इतिहास में। मैं आपकी इच्छा का सम्मान करता हूँ। परन्तु यदि वीरता की भी जाति होती है तो हे राजकुमारी, क्षत्रियों से भरी इस सभा में तो आपको कोई वीर नहीं मिला।" यह कहकर उसने धनुष पर चढ़ाया हुआ बाण द्रुपद के चरणों में छोड़ दिया और सारी सभा पर सिंहदृष्टि डालते हुए अपने आसन पर आ बैठा।
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अपने हाथों को मसलते अर्जुन ने शिशुपाल, शल्य, दृढ़धन्वा, विराट, विन्द-अनुविन्द, दुर्योधन, जयद्रथ, अश्वत्थामा इत्यादि को जाते और वापस आते देखा। सबके लटके हुए मुंह देखे। अब यादवों के अतिरिक्त कोई भी नहीं बचा था। उसने सोचा कि ये कृष्ण क्या उसी की ओर देख रहे हैं, उन्होंने अभी अभी बलराम को कुछ कहा, वे भी इधर ही देख रहे हैं क्या? और ये यादव अतिरथी क्यों नहीं उठे अभी तक, ये उद्धव, सात्यकि, कृतवर्मा शांत क्यों बैठे हैं? युधिष्ठिर चले गए, भीम उसकी तरफ देख मुस्कुरा रहे हैं। क्या यही वह पल है जिसके लिए महामुनि व्यास ने हमें यहाँ भेजा था, क्या पांडवों का आज पुनर्जन्म होगा। हाँ, यही बात होगी, अन्यथा ये सभी वीर्यहीन राजा यूँ मुँह लटकाये ना बैठे होते। कृष्ण यूँ ना मुस्कुराते, अन्य यादव यूँ शांत नहीं बैठते।
जैसे किसी सिंह को उसका आखेट दिख गया हो, उन्होंने अपनी लंबी भुजाएं झटकी और धनुष की ओर बढ़ चले। लंबे और सुडौल, भस्म लपेटे जटाजूट सन्यासी को केन्द्रस्थल पर आते देख सारी सभा शांत हो गई। सन्यासी ने द्रुपद को ब्राह्मणोचित रीति से हाथ उठा कर आशीर्वचन कहे और आचार्य से पूछा, "क्या मैं लक्ष्यवेध की पात्रता रखता हूँ?"
आचार्य श्वेतकेतु ने द्रुपद और पांचाली की ओर देख, संकेत पाकर अनुमति प्रदान की। सन्यासी अर्जुन ने बहुत दिनों बाद एक वास्तविक धनुष देखा। वे सब कुछ भूल कुछ क्षणों के लिए बस उस धनुष को श्रद्धा से देखते रहे। उन्होंने धनुष की परिक्रमा की और बाएं हाथ से धनुष को उठा लिया। सावधानी से उसे भूमि पर टिकाकर बाएं हाथ से प्रत्यंचा चढ़ाई। बाणों को सहलाते हुए उनमें से एक बस्तिकबाण चुना और उसे धनुष पर रखकर ऊपर आकाश की ओर तान दिया। जल में घूमती मछली देखकर उन्होंने उसकी आंख को लक्ष्य करते हुए तीर छोड़ दिया।
कुछ समय तक तो किसी को समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या। आचार्य ने स्वतिगान करते हुए शंख फूंका और धीमे पगों चलती राजकुमारी ने अर्जुन के गले में जयमाला पहना दी।
क्षत्रिय समाज की तन्द्रा टूटते ही शिशुपाल चिल्लाया, "ये हमारा अपमान है। हम यहां इतनी दूर इसलिए नहीं आये की कोई कंगला भिखारी हमारे सामने राजकुमारी को ले उड़े। राजाओं, घेरकर मार डालो इस निकृष्ट जंगली को। पांचाली केवल क्षत्रियों के लिए ही है।"
उसके इतना कहने पर सभी राजा अपने अस्त्र शस्त्र चमकाते हुए आगे बढ़े। धृष्टद्युम्न ने द्रौपदी को सुरक्षा देनी चाही जिसे अर्जुन ने अपने हाथों से परे करते हुए कहा कि राजकुमारी अब उनका उत्तरदायित्व है। उन्होंने तीरों से भरे तुरीण को अपने कंधों पर बांधा और एक तीर छोड़ दिया जो सनसनाता हुआ शिशुपाल के पैरों से होता हुआ भूमि में धंस गया। अन्य राजाओं ने भी अपने धनुष उठा लिए पर वे सव्यसाची के सामने निरर्थक थे। राजाओं ने उन्हें घेरना शुरू किया ही था कि ब्राह्मणों के प्रकोष्ठ से एक अतिविशाल ब्राह्मण भीड़ को चीरता हुआ अर्जुन के पास आया और सामने खड़े एक स्तम्भ को उखाड़ राजाओं से भिड़ गया।
अर्जुन के बाणों तथा भीम के विचित्र शस्त्र का कोई उपाय नहीं था किसी के पास। तभी सूर्य की तरह चमकता हुआ कर्ण सामने आया और अर्जुन तथा उसके बीच बाणों की वर्षा होने लगी। उधर मद्र के अहंकारी राजा शल्य ने भीम को मल्लयुद्ध की चुनौती दे दी। अर्जुन और भीम को तो जैसे मनचाही वस्तु मिल गई हो। भीम ने अपने हस्तलाघव से थोड़ी ही देर में शल्य को भूमि पर पटक दिया और गरजते हुए बोले, "अहंकारी राजा, जी करता है कि अभी तेरे प्राण हर लूँ। पर दुष्ट, तू जानता नहीं कि तू किनसे उलझ रहा है। जा तुझे प्राणदान दिया, परंतु यदि फिर कभी भविष्य में अधर्मियों का साथ देते हुए तू हमारे विरुद्ध खड़ा हुआ तो तुझे हम मृत्युदान देंगे।"
भीम की इच्छा थी कि कहीं आज दुर्योधन भी सामने आ जाता तो दो-दो बार उन्हें मृतक बनाने वाले इस नीच का कल्याण कर देते पर वह तो पहले ही मृतक समान अपने आसन पर लुढ़का हुआ था।
मात्र कर्ण ही अर्जुन का सामना कर रहा था कि वासुदेव कृष्ण की आवाज गूंजी, "बस, बहुत हुआ। अब सब शांत हो जाएं। इस वीर ने अपनी योग्यता से द्रौपदी को प्राप्त किया है। अब यदि किसी ने भी शस्त्र उठाए तो उसे पंचालों के साथ हम यादवों का भी सामना करना होगा। और आप अंगराज, किसके लिए लड़ रहे हैं? इस ब्राह्मण को यदि आप हरा भी दें तो द्रौपदी आपको नहीं स्वीकारेगी, और यदि इससे हार गए तो किस मुंह से वापस जाएंगे?"
कर्ण ने कृष्ण का कथन सुना और धनुष नीचे करता हुआ बोला, "जैसी आपकी इच्छा वासुदेव"।
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और तब सभी को आश्चर्य हुआ जब धनुर्धर सन्यासी को कृष्ण ने अपने आलिंगन में बांध लिया। परन्तु सबसे बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ जब कृष्ण ने स्वयं को छुड़ाकर उस भीमकाय सन्यासी के चरणों में झुका लिया।
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कुरुकुमार दुःशासन कर्ण के पास आया और निस्तेज कर्ण के कंधे पकड़ कर बोला, "अंगराज, मैं आपके समक्ष एक अत्यंत दारुण समाचार कहने आया हूँ।"
"मेरी आज की पराजय, दुर्योधन की पराजय से भी अधिक दारुण समाचार क्या होगा कुमार।"
"मुझे अत्यंत खेद है मित्र, आप जब उस धनुर्धर से युद्ध कर रहे थे, आपका पुत्र सुदामन आपकी रक्षा हेतु आगे बढ़ा और तीरों की वर्षा ने उसे ढक लिया। मैं आपको उसकी मृत्यु की सूचना देने आया था मित्र। मुझे अत्यंत दुख है। ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे।"
कर्ण की आंखों के आगे अंधेरा छा गया और जब उसने आंखें खोली तो उनमें प्रचण्ड क्रोध भरा हुआ था। उसने दुःशासन के कंधे पकड़ कर कहा, "तुम साक्षी हो कुमार। आज उस धनुर्धर के कारण मुझे पुत्रशोक हुआ है। वह निश्चित ही अर्जुन था। मैं किसी युद्ध में अर्जुन को बताऊंगा कि पुत्रशोक क्या होता है।"
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भानुमति_13
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कृष्ण को इन ब्राह्मणों से इस प्रकार स्नेहालिंगन करते देख द्रुपद को घोर आश्चर्य हुआ। यह तो निश्चित था कि कृष्ण इन जटाजूट भस्म लपेटे हुए ब्राह्मणों को जानते थे। यद्यपि वे किसी राजकुल में ही अपनी कन्या का विवाह करवाना चाहते थे परंतु इन दो ब्राह्मणों की वीरता ने उन्हें मुग्ध कर दिया। इतने शूरवीर राजाओं को अपने बाणों से रोक देने वाला यह वीर तो अप्रतिम था, साथ ही भवन के खंभे को ही लाठी की तरह प्रयुक्त करने वाला वीर उन्होंने पहली बार ही देखा था। उन्होंने गदगद स्वर में कहा, "पुत्रो, इस वृद्ध ने तुम जैसे वीर कम ही देखे हैं। विश्वास करना कठिन है कि तुम मात्र भिक्षुक ब्राह्मण ही हो। अपना वास्तविक परिचय दो पुत्र।"
सहज हास्य बिखेरते भीम बोले, "मेरा परिचय तो यह लट्ठ ही है राजन, और संबंध की दृष्टि से मैं इस धनुर्धर का बड़ा भाई हूँ।"
"और इस धनुर्धर का परिचय?"
"यह मेरा छोटा भाई है। आप व्याकुल ना होइए राजन, हम अपनी माता के आदेश के पश्चात ही आपसे सभी बातें कर पाएंगे।"
"जैसी तुम लोगों की इच्छा। आओ, आतिथ्य ग्रहण करो।"
अर्जुन बोले, "क्षमा करें राजन। हम यहां नहीं ठहर सकते। माता व्याकुल हो रही होंगी। हमें आदेश दें।"
राजा द्रुपद तथा बलराम एवं कृष्ण को नमस्कार कर अर्जुन मुड़ गए। भीम ने हाथ जोड़ विदा ली। पांचाली ने अपने पिता की ओर विवशता भरी दृष्टि डाली और अर्जुन तथा भीम के साथ उसने अपने पग बढ़ा लिए।
भीम परम उत्साहित थे। राजमहल प्रांगण से बाहर भीड़ को पीछे छोड़ने के बाद बहुत देर से स्वयं को रोके भीम अंततः बोल पड़े, "धनुर्धर, आनन्द आ गया। है ना?"
"कैसा आनन्द, मध्यम?"
"अरे, इतने दिनों बाद हाथ-पैर खोलने का अवसर मिला। तुम्हें तीरों की वर्षा करते हुए प्रसन्नता नहीं हुई? उस लट्ठ से उन अधर्मी राजाओं को पीटने का आनन्द, आहा, जैसे वर्षों बाद भरपेट भोजन मिला हो। भोजन से याद आया, तुमने राजा द्रुपद का प्रस्ताव अस्वीकार क्यों कर दिया? बताओ, बड़ा मैं हूँ या तुम? मुझे निर्णय लेने दिया होता। हमेशा अपनी इच्छा थोपते हो मुझपर।"
"मैंने कुछ अनुचित किया क्या मध्यम?"
"अनुचित? तुम पूछते हो अनुचित? निश्चित ही अनुचित किया तुमने। इतने दिनों बाद सुस्वादु भोजन करने को मिलता, सोने के लिए कोमल शय्या मिलती, मनोरम उपवन में टहलने का अवसर मिलता और तुम, तुम अस्वीकार कर आये। तुमसे तो मेरी प्रसन्नता देखी ही नहीं जाती।"
अभी तक धीर-गम्भीर द्रौपदी भी इस वार्तालाप से खिलखिला पड़ी। उसका भी मन हुआ कि कुछ बोले पर चुप रह गई। वह स्वयं को यह विचार करने से नहीं रोक पाई कि ये दोनों भाई आपस में मध्यम तथा धनुर्धर के सम्बोधनों का प्रयोग क्यों कर रहे हैं। क्या ये अब भी उसके सामने अपना भेद प्रकट नहीं करना चाहते।
चलते-चलते वे अपने अस्थाई निवास, किसी कुम्भकार के घर आ पहुंचे। अर्जुन ने द्रौपदी की ओर देखा, द्रौपदी भी स्तम्भित खड़ी रह गई कि अभी कुछ ही समय पहले वह स्वर्ण-रजत से भरे महल में थी और अब इस टूटे-फूटे लकड़ी और मिट्टी से बने घर के सामने। एक राजकुमारी, अब भिक्षुक ब्राह्मण की पत्नी।
अर्जुन का मन हुआ कि वे बाहर से ही ऊंची आवाज में अपनी माता से कहें कि देखो मां, हम कैसी भिक्षा लाये हैं। पर यह भी कोई कहने की बात थी, माता तो जानती ही थी कि वे कहां गए हैं, स्वयं उन्होंने ही तो सभी भाइयों को प्रातः आशीर्वाद देकर भेजा था। अभी तक तो अन्य तीनों भाइयों ने भी उन्हें बहुत कुछ बता दिया होगा। अस्तु, भीम का उत्साह अपिरिमित था। उन्होंने द्वार खटखटाया, और खटखटाते ही चले गए, जैसे उनका उद्देश्य द्वार खुलवाना नहीं अपितु ढोलक बजाना हो।
द्वार खुलते ही अर्जुन ने प्रवेश किया और माता से बोले, "माँ, देखो तुम्हारे लिए क्या लाये हैं। ये पांचाल नरेश द्रुपद की पुत्री याज्ञसेनी द्रौपदी हैं"
माता ने अर्जुन को देखा, उत्साहित भीम को देखा और द्वार से अंदर आती अग्नि के वर्ण वाली द्रौपदी को देखा। ऐसा रूप देख माता स्तम्भित रह गई। उन्हें निश्चल देख भीम आगे बढ़े और माता को अपनी गोद में उठा कर चक्कर लगाने लगे। माता ने हल्के क्रोध से उन्हें डांटकर खुद को छुड़ाया और द्रौपदी के पास आकर उसके हनु पर उंगली रख उसका सुंदर चेहरा ऊपर उठाया और प्रसन्नता से उनकी आंखें भर आईं। भीगे स्वर में बोली, "तुम्हारा इस परिवार में स्वागत है बेटी। अपने मन में कोई अन्य भावना मत लाना पुत्री, मैं तो बस तुम्हें देखकर ठगी रह गई थी। इतना सौंदर्य मैंने अपने जीवनकाल में नहीं देखा।"
भीम चहकते हुए बोले, "तो तुझे क्या लगा था मां, तेरे बेटे क्या ऐसे ही किसी साधारण स्त्री को तेरे सम्मुख लाते।"
युधिष्ठिर, नकुल तथा सहदेव भी निकट आ गए। अर्जुन ने उनका परिचय करवाते हुए कहा, "पांचाली, ये हमारे ज्येष्ठ भ्राता हैं, और ये दोनों मेरे छोटे भाई।"
द्रौपदी असमंजस में पड़ गई। एक माता और उसके पांच पुत्र। इनमें से एक इतना विशालकाय, एक धनुर्धर, कदाचित जम्बूद्वीप का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर। पुरुषोचित सौंदर्य में नकुल प्रख्यात थे और यहाँ भी एक अत्यंत सुंदर युवक सम्मुख खड़ा था। कहीं वह पांडवों के साथ तो नहीं खड़ी हैं, पर यह तो असम्भव है। वे तो महीनों पहले अग्निकांड में मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे।
युधिष्ठिर ने अपनी माता से कहा, "मैं न कहता था मां, तुम्हारा कोई ना कोई पुत्र पांचाली को प्राप्त कर ही लेगा। इन्हें आशीर्वाद दो।"
कुंती ने अर्जुन के लिए आशीर्वचन कहे तो नटखट बच्चे की तरह भीम बोल पड़े, "मुझे नहीं दोगी आशीर्वाद।"
"तूने क्या किया दुष्ट जो तुझे भी आशीर्वाद चाहिए?"
"मैंने? अरे मैंने तो वो पराक्रम किया कि सारे राजा कांप उठे। अपने डंडे से मैंने उन्हें इतना पीटा ना, और उस अहंकारी मद्रराज शल्य को तो उठाकर भद्द से पटक दिया।"
"शल्य? वे तुझसे लड़ने आये?"
"अरे वह युद्धपिपासु है माता। उसे बस युद्ध से प्रयोजन, इसका तो उसे कभी ध्यान ही नहीं रहता कि वह धर्म के पक्ष में है या अधर्म के पक्ष में।"
"परन्तु तुम्हें उनका अपमान नहीं करना चाहिए था पुत्र।"
नकुल बोल पड़े, "अपमान! अपमान कैसा माता। वे लड़ने आएंगे तो क्या हम उनके सामने शीश झुका लेंगे। मेरी तो इच्छा है कि वे कभी मेरे सामने आए। उनसे मुझे बहुत कुछ पूछना है। मेरी जिह्वा नहीं, अपितु मेरा खड्ग करेगा उनसे प्रश्न।"
नकुल के मन में अपने सगे मामा मद्रराज शल्य के लिए कोई सम्मान नहीं था। वे सोचते थे कि हम दोनों भाई उनकी बहन माद्री के पुत्र थे, परंतु कभी भी उन्होंने यह नहीं देखा कि उनके भांजे किस परिस्थिति में हैं। इधर माता कुंती के भाई वसुदेव स्वयं की इतनी अधिक कठिनाइयों के बाद भी उनका हित-अहित देखते रहे। मामा अक्रूर को भेजा जिनकी कूटनीति से भैया युधिष्ठिर को युवराजत्व प्राप्त हुआ। कृष्ण पग-पग पर उनकी सहायता को आगे आये और यहां क्या रुक्मरथ को पता भी होगा कि उसके नकुल और सहदेव नाम के दो भाई भी हैं।
अर्जुन ने कहा, "मध्यम, पूरी बात बताओ। तुमने यह तो बताया ही नहीं कि कृष्ण ने हमारी सहायता की और युद्ध रुकवा दिया।"
"हाँ, ये तो है। पर वो रुकवाता या नहीं, विजय तो हमारी ही होनी थी। हम द्रौपदी को तो जीत के ले ही आते।"
कुंती ने कहा, "हम? हम से क्या तात्पर्य? तुम ये कह रहे हो कि द्रौपदी को तुमने भी जीता है?"
भीम सहज रूप से बोल गए, "और नहीं तो क्या, यदि मैं ना होता तो वे सारे राजा द्रौपदी के साथ इन धनुर्धर महराज का भी हरण कर लेते।" और भीम की प्रचण्ड हँसी गूंज उठी। पर सबको अपनी तरफ घूरता देखकर उन्होंने अपनी हँसी रोक ली।
तनिक खिन्न होकर माता ने पूछा, "पर द्रौपदी को तो धनुर्धर ने ही जीता ना, उसने धनुर्धर के गले में जयमाला डाली ना?"
यह पहली बार था कि भीम यकायक चुप हो गए, अवरुद्ध कंठ से बोले, "हाँ, ये तो है। जयमाला तो धनुर्धर के गल में ही पड़ी थी।"
कुंती देख रही थी, द्रौपदी भी देख रही थी कि इस स्वीकारोक्ति पर भीम का हृदय अंदर ही अंदर तड़प रहा है।
कुंती बोली, "जयमाला भले ही धनुर्धर के गले में पड़ी हो लेकिन वह छोटा है। उससे दो बड़े भाई भी हैं। बड़े भाई के रहते छोटे भाई का विवाह परिवेदन है, शास्त्र इसकी अनुमति नहीं देते।"
माता के इस वाक्य ने अर्जुन को विचलित कर दिया। सही भी तो कह रही हैं माता कि उसके गले में पांचाली ने मात्र जयमाला ही डाली है, जयमाला ना कि वरमाला। अभी उससे उसका विधिवत विवाह कहाँ हुआ है।
युधिष्ठिर बोले, "ये क्या माता, अर्जुन ने प्रतियोगिता जीती है तो विवाह भी उसी का होना चाहिए। सालकंटकटी से तो मध्यम के विवाह पर तुमने कोई आपत्ति नहीं जताई थी।"
"वो आपद्धर्म था पुत्र। वह आर्य कन्या नहीं थी, उसकी संस्कृति हमसे अलग थी। वह कभी भी आर्यसमाज में नहीं आती, हमारे साथ नहीं रहती। उसने तो अपनी परिपाटी अनुसार पुत्रप्राप्ति तक मध्यम से अस्थाई पतित्व मांगा था।"
मध्यम तनिक दुखी होते हुए बोले, "क्या माता, वह भली स्त्री है। उसके प्रति इतनी कठोर मत बनो।"
"अरे नहीं पुत्र, क्या मैं नहीं जानती की तू कितना टूटकर प्यार करने वाला व्यक्ति है। और पुत्र धनुर्धर, यह प्रतियोगिता भले ही तूने जीती पर सच बता कि क्या तू विवाह करने के लिए ही गया था? यदि यह धनुर्विद्या की प्रतियोगिता नहीं होती, गदायुद्ध की होती, खड्ग या भल्ल कौशल की होती तो तेरे अन्य भाई भी जीत सकते थे और तू हार भी सकता था। परंतु उद्देश्य तो किसी भी एक के जीतने से पूर्ण हो ही जाता। अर्थात किसी एक की उपलब्धि तुम सबकी ही उपलब्धि होती। क्या स्वयंवर जीतने के लिए तू गदायुद्ध की प्रतियोगिता में मध्यम का या खड़गयुद्ध की प्रतियोगिता में कनिष्ठ का प्रतियोगी होता? मात्र अपने बारे में मत सोच बेटा। यदि मध्यम ने केवल अपने बारे में सोचा होता तो अग्नि से स्वयं को बाहर निकाल लेता, परंतु इसने हम सभी की रक्षा के पश्चात ही खुद की रक्षा की। हिडिम्ब और बकासुर का वध किया, और तो और अपनी पत्नी सालकंटकटी और पुत्र घटोत्कच को भी छोड़ आया। यह तेरा ज्येष्ठ, तुम्हारे पिता के देहावसान पश्चात अपने बाल्यकाल से ही तुम लोगों का अभिभावक बन तुम्हारी रक्षा कर रहा है।"
मध्यम अपनी पुरानी मनस्थिति में लौटते हुए बोले, "अरे माता, यह ज्येष्ठ की ही गलती है। स्वयं विवाह कर लेता तो हमारा रास्ता तो साफ होता।" इतना बोल वह हँस पड़े, यद्यपि किसी ने हँसी में उनका साथ नहीं दिया। वैसे भी उन्हें अधिक अंतर नहीं पड़ता था, वे मौज में आने पर स्वयं से भी बात कर प्रसन्न हो लेते थे। परंतु माता की बात सुनकर अन्य चारों भाई गहन विचार में खो गए।
अंततः अर्जुन बोले, यद्यपि बोलते समय उनका हृदय डूबा जा रहा था, "हां माता, आपका कथन सत्य है। परिवेदन पाप है, शास्त्रसम्मत नहीं।वशिष्ठ, गौतम, मनु, याज्ञवल्क्य, आपस्तम्भ सबने इसे पाप माना है। धर्मसूत्रों के अनुसार बड़े भाई से पहले, छोटे भाई के बाद विवाह करने वाला पुरुष, बड़े भाई के होते छोटे भाई से विवाह करने वाली स्त्री, विवाह करवाने वाले वर-वधु के अभिभावक तथा विवाह संपन्न करवाने वाला पुरोहित, ये सभी नरक के वासी होते हैं।"
युधिष्ठिर अर्जुन की मनस्थिति समझ रहे थे, टोकते हुए बोले, "धनुर्धर, जो भी हो, विजेता तुम हो, जयमाला तुम्हारे गले में पड़ी। पांचाली ने भी तुम्हें ही अपना पति स्वीकार किया होगा। स्वयंवर स्थल से यहां आने तक के मार्ग में तुमने इसे पत्नी मान लिया होगा। मेरी आज्ञा है कि तुम अभी अग्नि को साक्षी मान विधिवत विवाह करो।"
अर्जुन के मस्तिष्क में बहुत से विचार चल रहे थे। जिनमें मुख्य यह था कि द्रौपदी वीर्यशुल्का घोषित थी। उसे जीतने का निश्चित अर्थ यह नहीं था कि जीतने वाला ही उससे विवाह करे। घोषणा भी 'जयमाला' की हुई थी, 'वरमाला' की नहीं। पितामह भीष्म ने भी अपने बाहुबल से काशीराज की कन्याओं का स्वयंवर से हरण किया था परंतु विवाह अपने भाई सम्राट विचित्रवीर्य से करवाया। यह भी है कि वे पहले ही आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा कर चुके थे पर मैं भी स्वयंवर में स्वयं के विवाह की सोचकर तो गया नहीं था। यह तो वासुदेव कृष्ण और महामुनि कृष्ण द्वैपायन व्यास की योजना थी जो उन्हें पुनर्जीवित करने हेतु अनिवार्य सी थी। मैं ना करता तो भैया भीम करते, नकुल या सहदेव करता।
उसने युधिष्ठिर से दृढ़ शब्दों में कहा, "नहीं ज्येष्ठ। अब यह सम्भव नहीं। मानता हूं कि मैं इन्हें अपनी पत्नी मान ही यहां लाया था। पर मुझे पाप नहीं करना। अधर्म द्वारा प्राप्त कोई भी वस्तु मेरे लिए अग्राह्य है। आपने मध्यम को भी सुना। उनके अनुसार पांचाली को अकेले मैंने थोड़ी ना विजित किया है। पांचाली को आप स्वीकारें।"
ये क्या कह गया अर्जुन, युधिष्ठिर तो सोच रहे थे कि वे आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा करेंगे और भीम का एक विवाह हो ही चुका है तो परिवेदन जैसी कोई स्थिति उत्पन्न ही नहीं होगी। पर अर्जुन ने तो शपथपूर्वक मना ही कर दिया। अर्जुन के स्वर की व्यथा भी वे समझ रहे थे। भीम के प्रति उनका आक्रोश दिख रहा था। हे ईश्वर, कहीं पांचाली का इस परिवार में आना भाइयों में विग्रह का कारण ना बन जाए। यह अर्जुन भी कितना बड़ा त्यागी है जो इतनी आसानी से इतनी अनिंद्य सुंदरी को क्षणभर में त्याग देता है। इसने पांचाली युधिष्ठिर को दे दी, परंतु क्या भविष्य में वह सदैव यह सोचकर प्रताड़ित नहीं रहेगा कि जिसे उसने अपने बाहुबल से जीता वह अब किसी और की पत्नी है। भीम का भी मानना है कि यदि वे ना होते तो कदाचित द्रौपदी यहां आती ही नहीं। और अब अर्जुन ने द्रौपदी युधिष्ठिर को सौंप दी।
द्रौपदी के मन में भी विचारों के झंझावात चल रहे थे। कैसा परिवार है ये, कौन हैं ये? पांच पुरुष और उनकी एक माता। ये तो प्रसिद्ध पांडवों का परिवार लगता है। परिवार के नए सदस्य के सामने भी इतनी सावधानी कि परस्पर संबोधन भी ज्येष्ठ, मध्यम, कनिष्ठ, धनुर्धर के रूप में। और क्या सामान्य भिक्षोपजीवी ब्राह्मणों में इतना संतोष हो सकता है? एक धनुर्धर उसे जीतता है पर धर्मशास्त्रों के अनुसार स्वयं विवाह नहीं कर सकता, अपने बड़े भाई को अर्पित कर देता है। यद्यपि उसके नेत्रों में मोह और विवशता दिखती है। जिसे अर्पित किया गया, वे ज्येष्ठ भी स्वीकार नहीं करना चाहते क्योंकि यह छोटे भाई के प्राप्य का हरण करना है। यह वृद्ध स्त्री भी शास्त्रों की बात करती हैं। कौन हैं ये सब, और मुझे क्या समझ लिया है? क्या इन्हें दिख नहीं रहा कि कोई पाषाण प्रतिमा, कोई निर्जीव वस्तु नहीं हूं मैं जो ये कभी इसे तो कभी उसे सौंप रहे हैं। मैं द्रुपदकन्या याज्ञसेनी द्रौपदी हूँ, जिसके लिए अभी प्रहर भर पहले ही आर्यावर्त के राजा महाराजा रक्तस्नान के लिए सज्ज थे, जिसे पाने के लिए कितनी कूटनीतिक चालें चली गई। विश्व की सर्वोत्तम,सुंदरतम नारी का यह अपमान? परंतु मैं तो वीर्यशुल्का थी, मेरे पिता ने ही तो इसकी घोषणा की थी। परिवेदन शास्त्रों में पाप कहा गया है तो क्या शास्त्रों को मानना इतना आवश्यक है? यदि आवश्यक नहीं तो प्रतिलोम विवाह के व्याज से सूतपुत्र कर्ण को क्यों मना कर दिया मैंने? हे कृष्ण! अपनी कृष्णा की सहायता करो।
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गुप्तचरों की सूचना पर द्रुपद अत्यंत विचलित अवस्था में थे। उन्होंने कृष्ण को रात्रि के इस पहर में बुलाने के लियेे धृष्टद्युम्न को भेजा। कृष्ण के आते ही उन्होंने उनसे प्रश्न किया, "वे दोनों ब्राह्मण और मेरी पुत्री अभी कहाँ हैं केशव?"
मंद-मंद मुस्कुराते कृष्ण बोले, "ये प्रश्न मुझसे क्यों राजन? आपके पास अपनी सुदृढ़ गुप्तचर प्रणाली है। आप तो सबकुछ पहले से ही जानते हैं।"
"हाँ, मैं जानता हूँ कि वे मेरे ही नगर के एक कुम्भकार के घर में शरण लिए हुए हैं। और मुझे ज्ञात हुआ कि तुम उनसे भेंट करने भी गए थे। वे पांच ब्राह्मण हैं, उनकी एक माता है। अब तुम मुझे बताओ कि तुम वहां क्यों गए थे, और वे पांचों ब्राह्मण कौन हैं?"
"मैं वहां उनकी कुशलता का समाचार लेने गया था राजन और उनकी सुरक्षा हेतु अपने सैनिकों को भी तो सज्ज करना था।'
"सुरक्षा? किससे सुरक्षा? मुझे साफ साफ बताओ कि वे कौन हैं जिन्हें पांचालों के राज्य में यादवों की सुरक्षा की आवश्यकता है?"
"आप पहले शांत हों। जल पियें और मुझे बोलने का अवसर दीजिये।"
कुछ क्षण बाद कृष्ण बोले, "राजन वे पांचों धर्म के प्रतीक वे सूर्य हैं जिन्होंने यम को भी पराजित किया है। वे चक्रवर्ती सम्राट पांडु के पुत्र हैं।"
इतना सुनते ही द्रुपद क्रोध में अपने आसन से उठ पड़े, "तुम्हें मैंने मित्र समझा था कृष्ण और तुमने मेरे साथ यह छल किया। मेरी पुत्री कौरवों के घर। धृष्टद्युम्न, सेनापति को आदेश दो कि उन सभी को नगर छोड़ने से पहले ही कैद कर लिया जाए।"
कृष्ण उन्हें रोकते हुए बोले, "राजन, मेरी बात सुनिये।"
"अब सुनने को क्या बचा। तुमने द्रोण के शिष्य को मेरी पुत्री सौंप दी। वह धनुर्धर अवश्य ही अर्जुन होगा, और वह भीमकाय ब्राह्मण भीम। क्या तुम्हें ज्ञात नहीं कि इन दोनों ने ही मुझे पराजित किया था, और इस अर्जुन ने ही मुझे बांधकर द्रोण के चरणों में डाल दिया था?"
"आप यहां गलत हैं राजन। अवश्य ही भीम और अर्जुन ने ही आपको पराजित किया पर क्या वह उनकी अपनी इच्छा थी? वे तो शिष्य के रूप में मात्र अपने गुरु को गुरुदक्षिणा दे रहे थे।ऐसी गुरुदक्षिणा आपके गुरु ने कभी आपसे मांग ली होती तो क्या आप अस्वीकार कर देते?"
"परंतु मैंने कौरवों के विनाश की प्रतिज्ञा की थी।"
"आप अत्यंत क्रोधित हैं, अतः सही से विचार नहीं कर पा रहे। आपने कौरवों के विनाश की नहीं, द्रोण को हराने की प्रतिज्ञा की थी। और पराजित करने के लिए युद्ध ही आवश्यक नहीं है राजन। देखिए कि दुर्योधन हस्तिनापुर की टुकड़ी के साथ भी आपको हरा नहीं पाया था पर भीम और अर्जुन ने आपको हराया। तो द्रोण की असली शक्ति पांडव थे, दुर्योधन इत्यादि नहीं। आज वही पांडव आपके सम्बंधी हैं, आज आप द्रोण की तुलना में अधिक शक्तिशाली हैं।"
कृष्ण के तर्क द्रुपद को शांत कर रहे थे पर उन्होंने पुनः पूछा, "तो अब क्या? क्या पांडव हस्तिनापुर जाएंगे? यदि युधिष्ठिर पुनः युवराज बन गए तो, और यदि उनका अधिकार उन्हें नहीं सौंपा गया तो?"
"यदि वे युवराज बनते हैं तो आप बिना किसी युद्ध के ही द्रोण को पराजित कर चुके होंगे, क्योंकि आप किसी ना किसी पांडव की पत्नी के पिता हैं और यदि पांडवों को उनका अधिकार नहीं मिलता तो युद्ध तो होगा ही। आपकी सैन्यशक्ति पांडवों को उनका अधिकार दिलाएगी और पांडव आपकी सेना को द्रोण के विरुद्ध विजय।"
अंततः द्रुपद पूर्णतः शांत हुए और कृष्ण को गले लगाकर बोले, "तुम वर्तमान समय के सबसे उत्तम राजनीतिज्ञ हो केशव। मुझे गर्व है कि तुम मुझे अपना मित्र मानते हो। मेरा एक काम करोगे? कल प्रातः धृष्टद्युम्न के साथ जाकर उन्हें यहां लिवा लाओ। अब पांडवों को छद्मरूप धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं। हम उनके साथ हैं।"
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महल के द्वार पर पांचों ब्राह्मणों और उनकी माता का स्वागत करते हुए द्रुपद उन्हें एक विशाल कक्ष में ले गए। माता तथा द्रौपदी अन्तःपुर में चली गई। द्रुपद ने पांचों भाइयों से बैठने का आग्रह किया परन्तु वे सभी तो कक्ष में लगे विभिन्न अस्त्रों, शस्त्रों तथा ऐतिहासिक युद्धों का प्रदर्शन करती विभिन्न चित्रकारियों को देख रहे थेे। द्रुपद उन्हें कुछ समय तक मुग्ध दृष्टि से देखते रहे, फिर ज्येष्ठ से बोले, "पुत्र, अपना वास्तविक परिचय दो।"
युधिष्ठिर ने कुछ पल विचार किया, सहदेव से नेत्रों में ही मूक मंत्रणा की और अंततः बोले, "राजन, मैं हस्तिनापुर के पूर्व सम्राट चक्रवर्ती महाराज पांडु का ज्येष्ठ पुत्र कौंतेय युधिष्ठिर हूँ। ये मेरे अनुज भीमसेन, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव हैं। माता कुंती राजकुमारी के साथ कदाचित अन्तःपुर में चली गई हैं।"
हर्षातिरेक से द्रुपद की आंखों में अश्रु आ गए, उन्होंने भस्म लपेटे, मृगछाल पहने जटाजूट युधिष्ठिर को अपने आलिंगन में बांध लिया और बोले, "धर्मराज, मुझे कृष्ण ने तुम सबका वास्तविक परिचय बता दिया था पर मैं तुम्हारे मुख से सुनना चाहता था। जाओ पुत्रो, स्नान करो, केश सँवारो, क्षत्रियोचित वस्त्र पहनो। अब तुम सब पांचालराज के संबंधी हो। तुम्हें अब इस ब्राह्मणवेश की कोई आवश्यकता नहीं। तुम्हें तुम्हारा उचित अधिकार दिलाने के लिए मैं, मेरे पुत्र, मेरी सेना, सारे सोमवंशी राजा, मेरे करद राजा, मेरे मित्र सम्राट तुम्हारे पीछे खड़े हैं पुत्र।"
द्रुपद के ये उद्गार सुन पांडवों को अब सारी वास्तविकता समझ आई। अब वे निरीह नहीं रह गए थे। अब वे पर्याप्त शक्तिशाली थे। अब उनकी अवहेलना करना धृतराष्ट्र के लिए सम्भव नहीं था। कृष्ण ने चमत्कार किया था। महामुनि व्यास का आशीर्वाद फलित हुआ था।
द्रुपद पुनः बोले, "जाओ पुत्रो, स्नान करो। आज ही द्रौपदी का विवाह अर्जुन से होगा।"
यह सुनकर सभी पांडव असहज हो गए। युधिष्ठिर बोले, "राजन, एक समस्या है। माता का विचार है और हम भी इससे सहमत है कि अर्जुन का विवाह परिवेदन होगा, शास्त्र इसकी अनुमति नहीं देते।"
राजा द्रुपद ने कुछ क्षण सोचा, बोले, "तो समस्या क्या है? पांचाली से तुम विवाह कर लो। कन्या तो परिवार को दी जाती है। अधिक समस्या हो तो पहले किसी अन्य दो कन्याओं से तुम्हारा तथा भीम का विवाह करवा देते हैं।"
"समस्या गम्भीर है राजन। उचित होगा यदि हमारे पुरोहित मुनि धौम्य तथा महामुनि वेदव्यास को बुला लिया जाए। कृष्ण तथा आपके राजपुरोहित को भी बुलवा लीजिये।"
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यह एक पारिवारिक समस्या थी। इस समस्या को सुलझाने के लिए ही वेदों के संकलनकर्ता महामुनि व्यास को बुलाया गया था। द्रुपद, धृष्टद्युम्न तथा सत्यजीत खिन्न बैठे हुए थे। द्रौपदी के भाव अगम्य थे, कुंती अत्यधिक चिंतित दिखाई दे रही थी। भीम के अतिरिक्त सबके चेहरे पर तनाव स्पष्ट दिखता था। भीम इस सन्नाटे का आनन्द सा लेते प्रतीत हो रहे थे। कृष्ण अपनी सदा सर्वदा वाली निश्छल मुस्कान से द्रौपदी को देख रहे थे।
अंततः धृष्टद्युम्न बोला, "यह अन्याय है। आप मेरी बहन से कह रहे हैं कि वह इन पांचों भाइयों से विवाह करे। ये आपका किस प्रकार का धर्म है धर्मराज?"
युधिष्ठिर बोले, "इन परिस्थितियों में यही एकमात्र उचित मार्ग है युवराज।"
"उचित मार्ग कैसे? यदि समस्या परिवेदन की है तो आप ही क्यों नहीं विवाह कर लेते? या किसी और कुमारी से आपका विवाह कर देते हैं, ऐसे ही भीमसेन का विवाह भी हो जाएगा। फिर क्या समस्या रह जायेगी?"
"रागरहित विवाह आर्यों में क्या किसी भी जाति में अनुचित है युवराज।"
"तो आप पांचों से ही विवाह कैसे उचित है?"
"पांचाली को अर्जुन ने जीता। परंतु उचित अथवा अनुचित कारणों से भीम का मानना है कि उन्होंने भी विजय प्राप्त की है। पर मुख्य समस्या इससे उत्पन्न हुई कि अर्जुन पांचाली को शपथपूर्वक मुझे दे चुका है और मैं अपने छोटे भाई का स्वत्व स्वीकार नहीं कर सकता। इन परिस्थियों में हम तीनों का ही किसी ना किसी प्रकार से पांचाली पर अधिकार सिद्ध होता है। यदि केवल हम तीन के साथ ही पांचाली का विवाह हो तो यह अन्य दो भाइयों के साथ नृशंसता होगी। अतः मेरा प्रस्ताव है कि पांचाली हम पांचों को ही स्वीकार करें।"
"परंतु क्या शास्त्र इसकी अनुमति देते हैं? क्या पहले भी ऐसा हुआ है कभी?"
महामुनि तर्क वितर्क सुन रहे थे, उन्होंने धृष्टद्युम्न के प्रश्न का उत्तर दिया, "हाँ कुमार। इतिहास में ऐसा हो चुका है। गौतम गोत्र की कन्या जटिला का विवाह सात ऋषियों से हुआ था, कंठु मुनि की कन्या वार्क्षी का विवाह दस प्रचेता भाइयों से हुआ था। यह पितृसत्तात्मक समाज में हुआ। इससे पूर्व मातृसत्तात्मक समाज में बहुपतित्व सामान्य बात थी। यदि आज बहुपत्नीत्व मान्य है तो बहुपतित्व में क्या समस्या है? यदि एक पति अपने अनेक पत्नियों को समान भाव से प्रेम कर सकता है तो यही कार्य स्त्री भी कर सकती है।"
"परन्तु गुरुदेव, यह तो पुरानी परंपरा है। धर्मराज उसे आज क्यों वापस लौटा लाना चाहते हैं?"
"नया या पुराना कुछ नहीं होता कुमार। आवश्यकता ही परंपरा का निर्माण करती है। तुम्हारे पिता ने भी दो विवाह किये, पांडवों के पिता ने भी। पर स्मरण रखो, भगवान राम ने दूसरा विवाह स्वीकार नहीं किया था। इन्होंने भगवान राम का आदर्श नहीं माना तो यह कहना तो अन्याय होगा कि अन्य लोग युधिष्ठिर को आदर्श मान बहुपतित्व को बढ़ावा देंगे।"
उन्होंने द्रौपदी की ओर देखकर कहा, "पुत्री, तुम भूल जाओ कि युधिष्ठिर क्या कहते हैं, शास्त्र क्या कहते हैं। सनातन सतत है, आवश्यकता अनुसार परिवर्तन संभव है। पूर्व के नियम सदैव बाधक नहीं होते। तुम अपनी इच्छा बताओ। जो तुम चाहोगी वही होगा।"
द्रौपदी को पूर्ववत शांत देखकर उन्होंने पुनः कहा, "पुत्री, इन परिस्थितियों में मेरी समझ से तुम्हारे समक्ष तीन मार्ग हैं।
पहला, तुम वीर अर्जुन से विवाह करो। इन परिस्थितियों में वह अपने अन्य भाइयों के साथ नहीं रह पाएगा। तुम प्रसन्न रहोगी कि जिसने प्रतियोगिता जीती वही तुम्हारा पति है। तुम अर्जुन के साथ यहीं काम्पिल्य में रह सकती हो, या यदि अर्जुन चाहे तो तुम्हें लेकर द्वारका भी जा सकता है, अथवा यादवों तथा पांचालों के सहयोग से अपना ही एक नया साम्राज्य खड़ा कर सकता है। पर स्मरण रखना पुत्री, कोई भी पति अपनी उस पत्नी से प्रेम नहीं कर सकता जो उसे उसके परिवार से दूर करे।
दूसरा मार्ग यह है कि तुम इस स्वयंवर को भूल जाओ। तुम्हारा अभी तक विवाह तो हुआ नहीं है। तुम किसी भी राजा से, या किसी भी युवक से विवाह करने को स्वतंत्र होगी। पर यह सम्भव है कि कल तक जिस युवती से विवाह करने को आर्यावर्त के सारे राजा होड़ लगाए हुए थे उसे सब त्याज्य समझें।
तीसरा मार्ग युधिष्ठिर का मार्ग है। आर्यावर्त के पांच सर्वश्रेष्ठ वीर तुम्हारे पति होंगे। तुम्हें कुंती जैसी माता प्राप्त होगी। तुम्हारा सखा यह वासुदेव कृष्ण पांडवों में धर्म देखता है। इसके मतानुसार ये पांच नहीं अपितु एक ही हैं। पुत्री, जिस पक्ष में स्वयं कृष्ण हों, वह अनुचित कैसे हो सकता है। तुम धर्मस्थापना में पांडवों के साथ रहकर कृष्ण की सहयोगिनी होगी। और यह मेरा आशीर्वाद है कि सती नारियों में तुम्हारा स्थान माता सीता, अहिल्या और अनुसूया के समकक्ष रहेगा।
इन तीनों में से जो मार्ग तुम्हें उचित लगे वह बताओ पुत्री।"
कई क्षणों के मौन के पश्चात द्रौपदी ने अपना मस्तक उठाया, उसके नेत्रों में तेज दिख रहा था। उसने कुंती के ममतामयी नेत्रों को देखा, कृष्ण की प्रोत्साहित करती स्मित देखी और अपनी सुमधुर परन्तु दृढ़ वाणी में कहा, "मुझे प्राचीन परम्परानुसार पांचों पांडवों से विवाह करना स्वीकार है।"
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भानुमति_14
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प्रधानमंत्री विदुर धीर-गम्भीर व्यक्ति थे परंतु आज उनका उत्साह देखते ही बन रहा था। राजकर्मचारियों, सेवक-सेविकाओं को आश्चर्यचकित करते हुए वृद्ध विदुर बालकों की तरह उछल-उछल कर माता सत्यवती के कक्ष की ओर भागे जा रहे थे, फिर जाने क्या सोचकर महामहिम भीष्म की ओर चल दिये। अभी आधे रास्ते भी नहीं गए थे कि फिर महाराज धृतराष्ट्र की ओर मुड़ गए। महाराज अपने महल के संगीत कक्ष में संगीत में डूबे हुए थे तभी विदुर की चहकती हुई आवाज ने उन्हें चौंका दिया, "महाराज, महाराज, बधाई हो महाराज"।
"कौन? विदुर! क्या हुआ?"
"महाराज, कुरुओं के पीढ़ियों से शत्रु, पांचाल हमारे मित्र हुए। हमारे राजपरिवार सम्बंधी हुए।"
चेहरे पर अथाह प्रशंसा लिए धृतराष्ट्र बोले, "विदुर, पहेलियां मत बुझाओ, साफ बताओ, क्या हुआ?"
"महाराज, मेरे भतीजों ने स्वयंवर में अपना पराक्रम दिखाया। एक कुरुवंशी ने अचूक लक्ष्यवेध किया। पांचालराज याज्ञसेन द्रुपद की पुत्री द्रौपदी हस्तिनापुर की बहू हुई महाराज।"
"अहोभाग्य विदुर, अहोभाग्य। तुमने बहुत शुभ समाचार दिया। दुंदुभी पिटवाओ, प्रजाजनों को करों में छूट दो, नगरजनों से कहो कि वे अपने घरों को नए रंगों और विभिन्न चित्रकारियों से रंग दें, फूल मालाओं से सजा दें। जो असमर्थ हों उन्हें राजकीय सहायता दो। आज इसी प्रहर से वर वधु के आने तक अन्न भंडार और राजकीय पाकशाला आमजनों के लिए खोल दो। अच्छा ये तो बताओ विदुर, मेरे किस पुत्र ने स्वयंवर जीता? तुमने कहा कि लक्ष्यवेधन हुआ, क्या धनुर्विद्या की कसौटी थी? दुर्योधन निपुण धनुर्धर है। क्या दुर्योधन विजयी हुआ, या दुःशासन या युयुत्सु?"
"हाँ महाराज, धनुर्विद्या की कसौटी थी जिसमें एक कुरु-कुमार विजयी हुआ। पर इससे भी अधिक, अत्यधिक प्रसन्नता की बात है कि वो कुमार मेरा भतीजा, आपका भतीजा सव्यसाची अर्जुन है। हाँ महाराज, हमारे भाई पांडु के सभी पुत्र जीवित हैं और उन्होंने द्रौपदी से विवाह किया।"
क्षण भर पहले जो चेहरा प्रसन्नता से दमक रहा था, वह काला पड़ गया, जो आंखें चमक रही थी, पांडवों के सकुशल होने का समाचार सुनते ही बुझ गई। 'पांडव जीवित हैं। कहीं उन्हें यह ज्ञात तो नहीं कि उनकी हत्या करने का षडयंत्र दुर्योधन ने रचा था', यह सोचकर उसके प्राण सूख गए। परन्तु वह एक कुशल राजनीतिज्ञ था, अपनी भावनाएं छुपाना जानता था। पल भर में ही खुद को पुनः व्यवस्थित कर बोला, "अहोभाग्य विदुर, अहोभाग्य। यह तो अत्यंत प्रसन्नता की बात है। अनुज-वधु कुंती भी सकुशल होंगी। अनुज-पुत्र भी तो पुत्र ही हैं। मेरी दी हुए आज्ञाएं पूर्ववत हैं। जाओ, सारी व्यवस्था देखो।" यह सब बोलते समय उसकी वाणी में वह पहले वाला उत्साह नहीं था। कदाचित विदुर यही देखने आए थे। कभी कभी मन इस प्रकार शरारतें करता ही है।
थोड़ा और खिझाने के उद्देश्य से पुनः बोले, "अवश्य महाराज। सभी व्यवस्थाएं मैं स्वयं देख लूंगा। पर उन्हें लाने के लिए भी तो किसी कुरुवृद्ध को जाना चाहिए। मैं अकेले क्या-क्या करूँगा।"
"तो किसी को अपना सहायक रख लो। कृपाचार्य यहीं हैं, संजय को भी अपने साथ रखो। जाओ, जो उचित समझो करो। मुझे विश्राम करने दो।"
विदुर जब कक्ष से निकले तो प्रतिहारियों को पुनः आश्चर्य हुआ। विदुर जैसे वृद्ध को बालिकाओं की तरह अपनी हँसी रोकने के लिए मुँह को हाथ से दबाए जाते देख किसे आश्चर्य नहीं होता।
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फूलों से सजे कक्ष में एक पलंग पर द्रौपदी चुपचाप बैठी हुई अपने आज से पहले के जीवन को स्मरण कर रही थी। उसके पिता ने यज्ञ द्वारा उसे और उसके भाई को एक विशिष्ट कर्तव्य करते हुए मंत्रों से अभिषिक्त किया। शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा दी। वे द्रोण और उसके संरक्षक कुरु-साम्राज्य से प्रतिशोध लेने के लिए एक ऐसा जमाता चाहते थे जो सर्वश्रेष्ठ वीर हो। इसके लिए उन्होंने द्वारका के श्रीकृष्ण का चयन किया था। यद्यपि श्रीकृष्ण की पहले से ही कई पत्नियां थी, परंतु वही एक वीर थे जो निर्विवादित रूप से सर्वश्रेष्ठ कहे जा सकते थे। द्रौपदी ने अपने मन को समझा लिया था, पर कृष्ण ने उसे स्वीकार नहीं किया। क्या यह उसका अपमान था, कदाचित था पर उन्होंने उसे अपनी सखी माना और उसके लिए स्वयंवर की योजना प्रस्तुत की। अपना सब कुछ दांव पर लगाकर उन्होंने इसे सफल बनाया और चमत्कार सा करते हुए पांडवों को शून्य में से प्रकट कर दिया। क्या कृष्ण वास्तव में चमत्कारी हैं?
'अब वह पांडवों की, पांच पुरुषों की पत्नी है। क्या वह उन सभी को प्रसन्न रख पाएगी?' विवाह के पश्चात पिछले 15 दिनों के मांगलिक कार्यक्रमों के बाद आज उसकी प्रथम मिलन की रात्रि थी। वह ज्येष्ठ पांडव की प्रतीक्षा कर रही थी। द्वार पर हलचल हुई और उसे युधिष्ठिर आते हुए दिखे। उनके चेहरे पर सहज मुस्कान थी। उन्होंने पूछा, "तुम प्रसन्न तो हो पांचाली?"
"हाँ स्वामी।" कुछ दिनों पहले तक जिस पुरुष से उसका कोई सम्बंध नहीं था उसे यूँ स्वामी कहना बहुत अटपटा सा लगा उसे। युधिष्ठिर अपना मुकुट उतारकर उसे रखने का स्थान ढूंढ रहे थे कि द्रौपदी ने आगे बढ़कर मुकुट अपने हाथ में ले लिया। कल तक वह पिता के लिए भी तो ऐसा ही करती आई थी।
वे दोनों चुपचाप पलंग पर बैठ गए। यह भी एक आश्चर्य ही कहा जायेगा कि धर्मचर्चा में कई प्रहर तक लगातार बोलने वाले धर्मराज यहां चुप बैठे थे। अंततः पत्नी के समक्ष धर्मराज भी तो मात्र पति ही थे।
वार्तालाप का प्रथम सूत्र खोजते खोजते युधिष्ठिर को कुछ मिल ही गया, बोले, "अच्छा, तुम्हें पता है आज कौन आये?"
ऐसे अटपटे प्रश्न पर द्रौपदी अचकचा कर बोली, "मुझे तो कुछ भी ज्ञात नहीं स्वामी।"
"अरे, आज काका विदुर आये थे हस्तिनापुर से। वे राजा धृतराष्ट्र का संदेश लाये हैं कि अब हमें हस्तिनापुर चल देना चाहिए।" थोड़ा संकुचित होकर पुनः बोले, "कदाचित मुझे अभिषिक्त सम्राट बनाया जाए, कम से कम पितामह की यही इच्छा है।"
द्रौपदी हर्षातिरेक से भर उठी। विवाह होते ही हस्तिनापुर जैसे समृद्ध और शक्तिशाली साम्राज्य की साम्राज्ञी बनना, यह तो उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। स्वयं को संभालते हुए उसने प्रश्न किया, "ये काका विदुर कौन हैं?"
"काका विदुर मेरे पिता सम्राट पांडु तथा पितृव्य धृतराष्ट्र के भाई हैं। क्या तुम्हें ज्ञात है कि महर्षि व्यास हमारे पितामह हैं? परंतु काका विदुर का बस यही एकमात्र परिचय नहीं है। वे धर्मज्ञ हैं, नीतिज्ञ हैं, राजनीति-शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं। वे हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री हैं परंतु महल के स्थान पर कुटिया में रहते हैं। निःसन्तान हैं, कदाचित इसीलिए वे समस्त प्रजा को अपना पुत्र ही मानते हैं। यदि आज हम भाई जीवित हैं तो यह उन्हीं की कृपा है। मुझे पूर्णतया तो ज्ञात नहीं, परंतु ऐसा लगता है कि राज्य की गुप्तचर संस्था के अतिरिक्त उनकी अपनी ही एक गुप्तचर संस्था है।"
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वे पुनः बोले, "द्रौपदी, मैं तुमसे क्षमाप्रार्थी हूँ। मेरे ही कारण यह परिस्थिति उत्पन्न हुई जो तुम्हें पांच पुरुषों से विवाह करना पड़ा। पर यही उचित था। तुमने यदि महामुनि व्यास के बताए अन्य विकल्पों को स्वीकार किया होता तो हमारा परिवार अटूट नहीं रह पाता।"
"स्वामी, मैंने वही किया जो उचित था। जब मुनि व्यास, वासुदेव कृष्ण और स्वयं आप कोई व्यवस्था दे रहे हैं तो वह उचित ही हो सकता है। स्वामी, मैंने आप लोगों से पूछे बिना एक निश्चय किया है।"
"क्या?"
"कि मैं प्रत्येक पांडव के साथ एक-एक वर्ष का पत्नीव्रत निभाऊंगी। उस विशिष्ट वर्ष मैं केवल एक पांडव की पत्नी बन उनकी सेवा करूंगी। क्या आप और अन्य पांडव इस पर सहमत होंगे?"
"अवश्य द्रौपदी, अवश्य। और यह भी है कि नियम के पालन हेतु, नियम भंग करने वाले के लिए सजा का प्रावधान भी होना चाहिए। तो यदि कोई अन्य पांडव बिना किसी सूचना के पति-पत्नी के कक्ष में प्रवेश करता है तो उसे बारह वर्ष के लिए नगर छोड़कर जाना होगा। मेरे सभी भाई हमारे इस निर्णय पर सहमत होंगे।"
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हस्तिनापुर की आज की राजसभा युवराज दुर्योधन ने बुलाई थी। वह अत्यंत क्रोधित दिख रहा था। उसने धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा, "महाराज, पांडव जीवित हैं और उन्हें आपने हस्तिनापुर बुला लिया। वे यहां आकर अव्यवस्था फैलाएंगे। आज जब सब कुछ सकुशल चल रहा है, उनके आने से सब अव्यवस्थित हो जाएगा। वे सम्राट से अपना अनुचित अधिकार मांगेंगे, मंत्रीपद चाहेंगे। युधिष्ठिर तो कदाचित युवराज पद पर ही अपना दावा कर सकता है या आपको ही सिंहासन से उतरने के लिए कहा जा सकता है। महाराज, उनका रक्त भी तो कुरु-रक्त नहीं है।"
अंधा राजा बोला, "तो तुम क्या सलाह देते हो युवराज?"
"उन्हें यहां ना आने दिया जाए। जो राज्य में अव्यवस्था फैलाना चाहते हों, वे शत्रु ही हैं। मैं तो कहता हूं कि सेना सजा कर उन पर आक्रमण कर दिया जाए। उन्हें बन्दी बनाकर कारागार में डाल दें या उनका वध ही कर दें।"
आचार्य द्रोण बोले, "वध? पांडवों का वध प्रत्यक्ष युद्ध में? युवराज, वे पांडव हैं कोई गाजर मूली नहीं जो तुम खेल-खेल में ही उन्हें काट सको। मत भूलो कि उधर अर्जुन है, अर्जुन। और उसके साथ खड़े हैं भीम, कृष्ण, बलराम, सात्यकि, कृतवर्मा, सारे यादव अतिरथी योद्धा, द्रुपद और उसके साथ सारे सोमवंशी राजा, मत्स्य नरेश विराट, नागराज कर्कोटक, गन्धर्वराज चित्रसेन। हस्तिनापुर का सैन्य-प्रमुख होने के अधिकार से भी मैं ये कहता हूं कि हमारी सेना पांडवों के नेतृत्व वाली पांचाल, यादव, मत्स्य, गन्धर्व तथा नागों की सम्मिलित सेना के समक्ष टिक नहीं सकेगी।"
धृतराष्ट्र बोला, "तो आपका क्या सुझाव है आचार्य द्रोण?"
"राजन, यह सही है कि अभी आप महाराज हैं तथा दुर्योधन युवराज। परंतु आप कार्यकारी राजा हैं। महाराज पांडु के ना होने पर आपको कार्यभार सौंपा गया था, राजा के रूप में आपका अभिषेक नहीं हुआ। परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि पांडवों की अनुपस्थिति में दुर्योधन का युवराज के रूप में अभिषेक हुआ। यद्यपि युधिष्ठिर ने आपके कहने पर यह पद त्याग दिया था पर उसका अधिकार सिद्ध है। उसे युवराज अथवा सम्राट बनना चाहिए। यहां यह भी देखना है कि अधिकार भले उसका हो, आधिपत्य दुर्योधन का है जो इसे किसी भी तरह छोड़ना नहीं चाहता। तो मेरा सुझाव यह है कि राज्य का बंटवारा कर दिया जाए। एक भाग पर आप अथवा दुर्योधन राज करें तथा दूसरे पर युधिष्ठिर का स्वतंत्र राजा के रूप में अभिषेक हो।"
सभा में पल भर के लिए सन्नाटा छा गया, जिसे देवव्रत भीष्म की क्रोधित वाणी ने भंग किया, "आचार्य द्रोण! क्या कहा आपने? बंटवारा! मेरे पूर्वजों की इस भूमि का बंटवारा? आप ऐसा सुझाव दे भी कैसे पाए? क्या आपको नहीं पता कि राज्य का बंटवारा स्थाई शत्रुता का कारण बनता है? कभी एक ही देश के नागरिक इस क्षुद्र राजनीति के कारण आजन्म शत्रु बन एक दूसरे के रक्त के प्यासे हो जाते हैं? किसी अन्य का आधिपत्य मात्र होने से क्या राज्य के अधिकारी से उसका आधा राज्य छीनकर उसे दण्ड दिया जाएगा? यदि आधिपत्य ही कसौटी है तो भविष्य में भी क्या किसी अन्य के आधिपत्य से राष्ट्र के और टुकड़े नहीं होंगे? फिर ये राष्ट्र का टूटना कब तक चलेगा, कोई अनुमान है किसी को?
मेरे पितृव्य देवापि ने राज्य का मोह छोड़ अपने अनुज अर्थात मेरे पिता शांतनु को सम्राट बनाया। महात्मा देवापि के पुत्र-पौत्र भी हैं इस कुरु-सभा में, उन्होंने तो कभी सम्राट शांतनु के वंशजों के राजसिंहासन पर बैठने को लेकर कोई आपत्ति नहीं जताई। तो आज दुर्योधन को क्या आपत्ति है?यह
सिंहासन पांडु का है, उसके पश्चात उसके पुत्रों का। धृतराष्ट्र का इस पर कोई अधिकार नहीं, ना ही उसके पुत्रों का। यदि वंश ना भी देखें तब भी युधिष्ठिर राजा बनने के लिए किसी भी अन्य कुरु-कुमार से अधिक योग्य है।
और तुमने क्या कहा दुर्योधन, कि उनका रक्त कुरु-रक्त नहीं है? क्या तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारे पिता, तुम्हारे पितामह विचित्रवीर्य की औरस सन्तान नहीं हैं? यदि तुम पांडवों को पांडु का पुत्र नहीं मानोगे तो अपने पिता को भी कुरु-वंशज विचित्रवीर्य की संतान नहीं मान पाओगे। सिंहासन पर तुम्हारा दावा तो तुम्हारे ही तर्क से अप्रमाणित हो जाएगा पुत्र।
यदि कुरु-रक्त ही सिंहासन का अधिकारी है तो यहां मात्र मैं ही अधिकारी हूँ और यह मेरा निर्णय है कि पांडवों के आते ही युधिष्ठिर का हस्तिनापुर के सम्राट के रूप में अभिषेक किया जाएगा। दुर्योधन चाहे तो युवराज बना रह सकता है, या हस्तिनापुर के अधीन किसी राज्य का मांडलिक परन्तु स्वायत्त राजा बन सकता है।"
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भानुमति_15
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अश्वत्थामा ने द्रोण के भवन में भन्नाते हुए प्रवेश किया। वह इतना उद्विग्न था कि अपने पिता को प्रणाम करना भूल सीधे प्रश्न कर बैठा - "पिताजी, आपने आज राजसभा में ये कैसा प्रस्ताव रखा। राष्ट्र का विभाजन? क्यों? आप प्रत्यक्षतः दुर्योधन का साथ क्यों नहीं दे सकते?"
जैसे कोई पिता अपने छोटे से बच्चे के असंगत प्रश्नों पर मुस्कुरा देता है, वैसी ही मुस्कान के साथ द्रोण ने कहा - "मैं दुर्योधन या युधिष्ठिर में से किसी का साथ नहीं देता पुत्र! मैं केवल तुम्हारा, अपने पुत्र अश्वत्थामा का साथ देता हूँ!"
"मेरा साथ? मैं कुछ समझा नहीं।"
"उतावलापन ही तुम्हारी प्रकृति बन चुकी है पुत्र! तुममें धैर्य नहीं, यही कारण है कि आज द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा नहीं, अपितु द्रोण-शिष्य अर्जुन आर्यावर्त का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है! मैंने राज्य का बंटवारा करने का परामर्श इसलिए दिया क्योंकि अंततः होना यही है। सिंहासन पर युधिष्ठिर के दावे का समर्थन इसलिए किया क्योंकि धर्मतः उसी का अधिकार है सिंहासन पर, और राज्य का बंटवारा इसलिए क्योंकि जिस राजसभा के सिंहासन पर द्रुपद की पुत्री साम्राज्ञी के रूप में बैठे वहाँ इस द्रोण की महत्ता शून्य हो जाएगी। द्रोण शून्य तो अश्वत्थामा शून्य! व्यवहारिकता यही कहती है कि हमें रहना तो दुर्योधन के ही पक्ष में है।"
"पिताजी, मैं समझ नहीं पाता। यद्यपि मैं दुर्योधन का मित्र हूँ, उसी को राजा बनते देखना चाहता हूं, पर यदि धर्मतः अधिकार युधिष्ठिर का है, और हम युधिष्ठिर के राज में नहीं रह सकते तो क्यों नहीं सब छोड़छाड़ कर कहीं गुरुकुल की स्थापना की जाए? हम पड़ें ही क्यों इस हस्तिनापुर की राजनीति में? हम ब्राह्मण हैं, शिक्षा का दान देकर भी जीवित रह लेंगे!"
"मैं पहले वही तो था पुत्र! पर बचपन में तुम्हारी ही भूख ने मुझे इस राजनीति से सदा-सदा के लिए बांध दिया। वह एक बहुत ही कमजोर क्षण था पुत्र, जब तुम्हें दूध की जगह घुला हुआ आटा पीता देख मैंने अपना ब्राह्मणत्व शपथपूर्वक त्याग क्षत्रिय वृत्ति अपना ली। मैंने द्रुपद के सामने ब्राह्मण बन भिक्षा नहीं मांगी, अपितु क्षत्रियों की तरह अधिकार मांगा! वहाँ से निराश होने पर मैंने अपना कर्तव्य - ब्राह्मण का कर्तव्य - शिक्षा-दान छोड़ दिया। इसके स्थान पर मैंने शिक्षा का व्यवसाय किया पुत्र। जगत का भला करने के उद्देश्य से ब्राह्मण शिक्षा ग्रहण करता है और उसे समाज में निःस्वार्थ वितरित करता है। परंतु मेरा स्वार्थ था, मुझे द्रुपद से अपने अपमान का प्रतिशोध लेना था। मैंने अपनी तत्कालीन मनःस्थिति में काम्पिल्य के अमित्र हस्तिनापुर में शरण ली क्योंकि आर्यावर्त में यही एक राज्य था जो पांचालों से टक्कर ले सकता था। मैंने यहां के राजपुत्रों, यहां की क्षत्रिय वृत्ति की जनता और सेनाओं को प्रशिक्षित किया। हस्तिनापुर को सुदृढ़ करना मेरा उद्देश्य नहीं था, उद्देश्य था काम्पिल्य को पाठ पढ़ाना! और मैं उसमें सफल रहा। मेरा प्रतिशोध पूरा हुआ, पर मुझे यह प्रतीत होता है कि मैंने प्रतिशोधों की एक अंतहीन शृंखला को जन्म दे दिया है। नहीं पुत्र! हम अब ब्राह्मण नहीं रहे! हम भले राजनीति छोड़ दें, अब यह हमें नहीं छोड़ेगी। हस्तिनापुर का हाथ हमारे ऊपर से उठते ही द्रुपद भूखे सिंह की भांति हम पर टूट पड़ेगा। अब हमारी यही नियति है कि अपना अधिकतम लाभ देखते हुए हम पांडवों को अपना शत्रु बनाए बिना दुर्योधन को बढ़ावा देते रहें।"
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विदुर के आ जाने से पांडव बहुत खुश हुए। युधिष्ठिर जब द्रौपदी के कक्ष में चले गए तो सभी भाइयों को उनके सात्विक अनुशासन से मुक्ति मिली क्योंकि उनके बाद जो सबसे अग्रज थे वे स्वयं ही उन्मुक्त व्यक्तित्व के धनी थे। भीम ने विदुर से पूछा, "काका, आप हमें हस्तिनापुर ले तो जा रहे हैं पर वहां हमारी स्थिति क्या होगी?"
विदुर मुस्कुराते हुए बोले, "स्थिति? तुम कुरु-कुमार हो, कुरु-कुमार रहोगे!"
"अब मुझे ठगने की कोशिश तो ना कीजिये काका! हम कुरु-कुमार तो हैं ही पर अब मात्र वही नहीं हैं। अरे मैं स्वयं ही इतने बड़े राक्षसावर्त का राजा वृकोदर हूँ!"
"तो तुम क्या चाहते हो कि तुम्हें हस्तिनापुर का सम्राट बना दिया जाए?"
"क्या काका? हस्तिनापुर सम्राट बनने की योग्यता या तो पितामह भीष्म में थी या धर्मराज युधिष्ठिर में है। मैंने तो भैया से कहा भी था कि आप ही बनो राक्षसावर्त के राजा, पर वहां की प्रजा को देखकर भाई ने मुझे ही राजा बनने को कहा। वैसे भी हम कोई अलग तो हैं नहीं!"
"हाँ पुत्र, यह मुझे ज्ञात है। मैं मात्र विनोद कर रहा था। एक गुप्त सूचना है! हस्तिनापुर से चलने से पहले मैं माता सत्यवती से मिलकर आया था। उनका मत है कि अब धृतराष्ट्र को सेवानिवृत्त कर युधिष्ठिर को सम्राट बना दिया जाए और कदाचित महामहिम भीष्म भी इससे सहमत हैं।"
सदैव शांत रहने वाले सहदेव बोले, "क्या यह सम्भव हो सकता है काका? माना कि पितृव्य कार्यकारी राजा हैं, अभिषिक्त सम्राट नहीं, परन्तु अंततः सिंहासन पर वही आसीन हैं। वे यदि स्वेच्छा से पद त्याग नहीं करेंगे तो कोई क्या कर लेगा? यदि वे राजा के अधिकार से कोई आदेश दें तो आप और पितामह उसे मानने के लिए बाध्य होंगे। मुझे नहीं लगता कि ज्येष्ठ का सम्राट बनना इतना सहज होगा!"
"तुम्हारी बात सही है पुत्र। तुम निश्चित ही बुद्धिमान हो। मात्र पितृव्य भीष्म की इच्छा से ही युधिष्ठिर का अभिषेक नहीं हो सकता! तुम लोगों की अनुपस्थिति में दुर्योधन ने प्रत्येक महत्वपूर्ण विभाग में अपने व्यक्तियों को नियुक्त कर दिया है। अधिकांश कुरु-सामन्त भी उसके पक्ष में ही प्रतीत होते हैं। वे धृतराष्ट्र पर दबाव डालेंगे कि युधिष्ठिर को सम्राट न बनाया जाए और तुम लोगों को कोई महत्वपूर्ण पद या विभाग भी न दिए जाएं।"
भीम बोले, "तो आप क्या सलाह देते हैं काका, हमें क्या करना चाहिए?"
"पुत्र! व्यक्ति या समाज शक्तिशाली के पक्ष में रहता है। उसे अधिकांश अवसरों पर नैतिक-अनैतिक या सत्य-असत्य से सरोकार नहीं होता, वह केवल सामर्थ्य देखता है! इस समय दुर्योधन का सामर्थ्य प्रत्यक्ष है। लोग उसके सामर्थ्य के पक्ष में हैं। तुम्हें मात्र स्वयं को उससे अधिक सामर्थ्यवान प्रदर्शित करना है, लोग तुम्हारे पक्ष में हो जाएंगे।"
भीम कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले, "तो ऐसा ही होगा! आप लोग बड़े भैया से बस यहां से हस्तिनापुर की यात्रा के प्रबंध का कार्यभार मुझे दिलवा दीजिये। मैं हस्तिनापुर को दिखा दूंगा कि पांडव असहाय नहीं हैं!"
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द्रौपदी के मन में कई दिनों से चली आ रही उथल-पुथल को ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर ने अपने धर्म पर आधारित तर्कों से शांत कर दिया था। वह अपने दिन की शुरुआत अपने सखा श्रीकृष्ण के दर्शनों से करना चाहती थी। पांडवों के साथ ही कृष्ण भी राजभवन में ही आ गए थे, उन्हें अतिथिशाला में ठहराया गया था। परंतु कृष्ण से अकेले मिल पाना बड़ा कठिन था। स्वयंवर में आये कितने ही राजा तथा राजकुमार उनसे औपचारिक भेंट करने आते ही रहते थे, इसके अतिरिक्त सामने का प्रांगण सदैव ही आमजनों से भरा रहता था। कृष्ण राजन्य वर्ग में शक्तिशाली राजनीतिज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे, पर उनकी चमत्कारिक कथाओं ने सामान्य जनता के मध्य उन्हें जीता - जागता अवतार बना दिया था।
द्रौपदी जब वहां पहुंची तो बाहर आमजनों की भीड़ थी जो कृष्ण के दर्शनों की प्रतीक्षा करते हुए रह रहकर 'भगवान श्रीकृष्ण की जय' के नारे लगा रही थी। अंदर कक्ष में कृष्ण और भीम किसी बात पर बहस कर रहे थे। द्रौपदी ने बाहर रुककर भीम के चले जाने की प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया ही था कि भीम की दृष्टि उस पर पड़ गई। भीम किसी शरारती बच्चे की तरह उठे और द्वार तक लंबे पगों से चलते हुए द्रौपदी की कलाई पकड़ अंदर ले आए। शासकीय परम्पराओं में पली द्रौपदी को भीम का यह व्यवहार अत्यंत ही अनुचित लगा। द्रौपदी के चेहरे पर क्रोध के लक्षण देख कर भीम बोले, "देखा कृष्ण, यह मुझ पर क्रोधित होने ही वाली है। जबकि क्रोधित तो हमें होना चाहिए।"
द्रौपदी आश्चर्य से बोली, "क्यों? आपको क्यों होना चाहिए क्रोधित?"
"वाह, एक तो चोरी से हमारी बातें सुनो, फिर इस प्रकार से हठ भी दिखाओ। पर छोड़ो, कोई नई बात तो है नहीं! स्त्रियां तो चोर होती ही हैं।"
"क्या? यह क्या अनर्गल आरोप है?"
"मेरी बात का भरोसा ना हो तो अपने इस मित्र से पूछ लो! क्यों कृष्ण, क्या स्त्रियां हम पुरुषों का हृदय नहीं चुराती?"
द्रौपदी समझ नहीं पाई कि वह क्रोधित हो या मुग्ध हो, या लज्जित हो। यह कैसा पति है जो अपनी पत्नी से इस प्रकार बात करता है?
द्रौपदी को चुप बैठे देख भीम पुनः बोले, "घबराओ मत पांचाली, तुम कृष्ण से स्त्रियों के बारे में कुछ भी पूछ सकती हो। इस विषय का इससे बड़ा ज्ञाता तुम्हें कही नहीं मिलेगा!"
कृष्ण भीम की इन बातों को सुन आनन्दित हो मुस्कुरा रहे थे कि भीम पुनः बोले, "और तुम कृष्ण, इतनी भोली मुस्कान ना दो! तुम बहुत ही दुष्ट व्यक्ति हो जिसने मेरा विवाह इस हृदयहीन स्त्री से करवा दिया।"
कृष्ण और द्रौपदी दोनों ने ही प्रश्नवाचक दृष्टि से उन्हें देखा तो उन्होंने कहा, "ऐसे क्या देख रहे हो? तुम्हें नहीं पता इस दुष्टा ने भोले भाले ज्येष्ठ से वचन ले लिया कि यह एक वर्ष के लिए हममें से केवल एक की ही पत्नी रहेगी। अर्थात हममें से एक के अतिरिक्त सभी पूरे चार वर्षों के लिए स्त्रीविहीन रहेंगे। अब तुम्हीं बताओ कृष्ण, ये अन्याय है या नहीं? और यह दुष्ट है या नहीं? और तुम पांचाली, तुम भी ऐसे ना देखो! ज्येष्ठ का वचन आज संध्या से मान्य होगा, अतः अभी तुम मेरी पत्नी हो! संध्या पश्चात मैं तुम्हारी ओर देखूंगा भी नहीं। पर याद रखना, अगला वर्ष मेरा होगा!"
द्रौपदी लज्जा से गड़ गई, जो बात केवल पांडवों और उसके मध्य रहनी चाहिए थी उसे भीम सार्वजनिक किए दे रहे थे पर उसे यह भी समझ आ रहा था कि इस विशाल शरीर के अंदर एक नटखट बालक है जो मात्र मजे के लिए ही यह सब बोल रहा है।
भीम फिर बोले, "राजा वृकोदर गम्भीरता से सोच रहे हैं कि वे अपनी पत्नी हिडिम्बा को बुला लें। पर वो सब बाद की बातें हैं। अतः हे पांचाली! अभी तो तुम एक अच्छी पत्नी होने का परिचय देते हुए मेरा एक काम कर दो! अपने इस सखा से कहो कि यह भी हमारे साथ हस्तिनापुर चले।"
कृष्ण बोले, "भैया भीम, मेरा वहां क्या काम? मैं क्या करूँगा वहां आकर?"
"अरे! तुम्हें क्या लगता है कि मैं तुमसे कोई काम करवाऊंगा? तुम वहां माता कुंती के साथ रहना, या अपने भक्तों को दर्शन देना और उन्हें देख देखकर अपनी ये मुस्कान बिखेरना। मुझे पता है तुम्हें भक्तों से घिरा रहना बहुत अच्छा लगता है। तुम तो बस चलो हमारे साथ! और तुम द्रौपदी ! चुपचाप मुस्कुराओ मत! कुछ कहो इससे! कहो कि 'हे गोविंद! आपने मेरे लिए इतना कुछ किया। स्वयंवर करवाया, विवाह करवाया और अब मुझे अकेले ही हस्तिनापुर भेज रहे हैं जहां मेरे पतियों के शत्रु दुर्योधन, कर्ण और शकुनि जैसे लोग हैं। क्या यह आपका कर्तव्य नहीं कि मुझे वहां तक छोड़कर आएं?', ठीक यही शब्द बोलो, चलो।"
द्रौपदी खिलखिलाकर हँस पड़ी। भीम ने बनावटी क्रोध दिखाते हुए कहा, "तुम हँस रही हो? अब तुम्हारे पति का आदेश है कि तुम अपनी आँखों में अश्रु भर कर इस निर्मोही से प्रार्थना करो! यह स्त्री के आंसुओं पर बहुत जल्दी पिघलता है ।"
द्रौपदी ने अंततः कह ही दिया, "चलिए ना गोविंद!"
कृष्ण बोले, "आप लोग समझ नहीं रहे! यदि मैं भी साथ चला तो जनता पांडवों को भूल मुझे देखने आएगी। जनता का जो प्रेम पांडवों को मिलना चाहिए वह मुझे मिलेगा। अच्छा भैया भीम! ये मात्र आपका हठ है या ज्येष्ठ की भी यही इच्छा है कि मैं भी चलूँ?"
"पहली बात, तुम इसकी चिंता मत करो कि जनता तुम्हें पूजती है या पांडवों पर अपना स्नेह लुटाती है। दूसरी बात, ज्येष्ठ ने इस विषय को हम भाइयों पर छोड़ा है। हम सारे भाई चाहते हैं कि तुम हमारे साथ चलो। माता कुंती की भी यही इच्छा है। परिवार में केवल द्रौपदी बची थी, उसने भी कह दिया। अब तुम साफ साफ हाँ कहते हो या मैं तुम्हें उठाकर पटक दूँ?"
कृष्ण ने दोनों की ओर प्रेम से देखा - कितना स्नेह करते हैं ये मुझे? बोले - "जैसी तुम्हारी इच्छा भाई! परन्तु यहां से भैया बलराम के पास जाना! उनसे अनुरोध करना कि वे भी हमारे साथ चलें। यदि वे भी चलने की स्वीकृति देते हैं तो उनकी देखादेखी कृतवर्मा सहित अन्य यादव अतिरथी भी साथ चलेंगे। सुनीत, विराट जैसे मित्र राजा भी साथ चलना चाहेंगे। चेकितान और मणिमान से मैं स्वयं कहूंगा चलने के लिए।"
"अवश्य, परन्तु पहले मुझे राजा द्रुपद से मिलना है। आज के निर्धारित दो कार्यों में से एक तो सम्पन्न हुआ। दूसरा भी निपटा लूँ तो बाकी काम देखूं।"
भीम उन दोनों को वहीं छोड़ चल दिये। द्रौपदी सोचती रह गई कि कृष्ण को हस्तिनापुर ले जाने की जिद, मात्र हठ था या भीम का सुनियोजित विचार।
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भीम ने मिलने का समय ले लिया था। राजा द्रुपद उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रतिहारी भीम के आने की सूचना देकर मुड़ा भी नहीं था कि भीम ने द्रुपद को प्रणिपात किया। मुस्कुराते हुए द्रुपद ने उन्हें उठाया और बोले, "क्या बात है भीमसेन, इतनी उतावली किस बात की?"
"उतावली आपके दर्शन की महाराज! मुझे वर्तमान राजाओं में मात्र आप ही ऐसे दिखते हैं जिसके आगे मेरा सर श्रद्धा से झुक सकता है।"
"अच्छा, मुझे यह बताओ कि मैं तुम्हें क्या कहकर संबोधित करूँ? राजा वृकोदर, युवराज भीमसेन या पुत्र भीम?"
"मैं राजा हुआ करता था, किन्तु अब मेरे स्थान पर मेरा पुत्र घटोत्कच राजा है। और युवराज मैं तब बनूंगा जब ज्येष्ठ सम्राट बनेंगे। ये पद कभी रहेंगे, कभी नहीं, पर मैं आपका दामाद सदैव ही रहूंगा। मुझे आप पुत्र ही कहें महाराज!"
"तो बताओ पुत्र, सुबह सुबह यहां आने का क्या कारण है? अब यह मत कह देना कि मुझे प्रणाम करने चले आये!"
"आप तो जानते ही हैं कि काका विदुर हमें हस्तिनापुर ले जाने के लिए यहां आए हैं! यद्यपि मैं तो यहां से जाना नहीं चाहता, पर कहीं पढ़ा था कि श्वसुर के घर रहने वाले दामाद की एक समय बाद उपेक्षा होने लगती है। वैसे हम रह भी तो लिए बहुत दिन! इससे पूर्व कि हमारी उपेक्षा होने लगे, हमें चल देना चाहिए। तो सभी भाइयों की ओर से मैं आपसे जाने की आज्ञा मांगने आया था।"
"हा हा हा, ये तुम्हारा अपना घर है पुत्र! जब तक चाहो, रहो। परन्तु तुम्हारी जाने की इच्छा है तो शुभ मुहूर्त निकलवा लेता हूँ।"
"एक बात और थी महाराज! ज्येष्ठ को डर है कि कहीं आप दहेज में, या कहें कि विदाई में हमें अत्यधिक उपहार ना दे दें।"
"ये क्या बात? पिता अपनी इच्छा से उपहार देगा या दामाद की इच्छा से? अच्छा, तो तुम क्या चाहते हो?"
"नहीं, प्रश्न यह नहीं कि मैं क्या चाहता हूं। प्रश्न यह है कि भ्राता युधिष्ठिर क्या चाहते हैं।"
द्रुपद आश्चर्य से बोले, "अच्छा! अर्थात तुम्हारी इच्छा तुम्हारे भाई की इच्छा से अलग है? तो पहले युधिष्ठिर की ही इच्छा बताओ!"
"बड़े भाई तो संत व्यक्ति हैं! उनका अनुरोध है कि आप अपने पांच जमाताओं के लिए बस पांच नारियल दे दें, हम इतने से ही संतुष्ट हो जाएंगे।"
"अहा! यह युधिष्ठिर के ही बस की बात है। अच्छा, और तुम क्या चाहते हो भीम?"
"मैं आपकी प्रतिष्ठा को और ऊंचाई पर देखना चाहता हूं महाराज!"
"मेरी प्रतिष्ठा? वो कैसे?"
"आप काम्पिल्य के धर्मात्मा राजा हैं। सोमवंशी राजाओं के प्रमुख हैं। द्रौपदी जैसी कन्या के पिता हैं। आर्यावर्त के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य हस्तिनापुर के होने वाले सम्राट धर्मराज युधिष्ठिर, राजा वृकोदर, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन, सर्वश्रेष्ठ अभियंता नकुल और बुद्धिमान तथा निष्णात ज्योतिषी सहदेव के श्वसुर हैं। पांच नारियलों से तो आपकी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी महाराज!"
खुलकर हंसते हुए द्रुपद बोले, "अच्छा तो मुझे अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए क्या करना चाहिए?"
"यह मैं कैसे बताऊं महाराज? पर यदि आपके स्थान पर मैं होता तो तीन पुत्रों और पांच जामाताओं के मध्य राज्य का बराबर बराबर बंटवारा कर देता। पर आप, आप हैं, और मैं, मैं। राज्य का बंटवारा आपके लिए व्यवहारिक नहीं होगा। मैं तो बस इतना चाहता हूं कि जब मेरा प्रिय भाई दुर्योधन और उसकी मित्र मंडली आपके दिए उपहार देखे तो ईर्ष्या से जल मरें।"
"अच्छा, तो ये सब दुर्योधन को जलाने के लिए है!"
"आप इसे ऐसे भी देख सकते हैं। वैसे मैं सोचता हूँ कि हिडिम्बा को बुला ही लूँ। दुर्योधन कुछ भी करे पर मेरी प्रतिस्पर्धा करने के चक्कर में वह कोई राक्षसी पत्नी तो प्राप्त नहीं ही कर सकेगा।"
"अरे नहीं, ऐसा मत करना। द्रौपदी की भी तो सोचो। वह कितना डर जाएगी?"
"ये तो अच्छा उपाय मिल गया महाराज! अब जब कभी द्रौपदी मुझ पर धौंस जमाने का प्रयत्न करेगी मैं हिडिम्बा को ले आऊंगा।"
द्रुपद खुल कर हँसे। वर्षों बाद वे इतना हँसें होंगे। अपने इस भीमकाय जामाता को स्नेह से देखते हुए बोले, "अच्छा, तुम्हारा जो मन आये वो करना। जहाँ तक उपहारों की बात है, महावत सहित सौ हाथी, पांच सौ रथ, प्रत्येक रथ के लिए चार अश्व और एक सारथी, रथ के अश्वों के अतिरिक्त पांच सौ युद्धक अश्व, एक सहस्त्र बैलगाड़ियां, पांच सहस्त्र गौ, हाथियों, अश्वों तथा गायों की सेवा के लिए सेवक, चारा एवं अन्य सम्बंधित सामग्रियां, प्रत्येक पांडव के लिए सम्पूर्ण काम्पिल्य राज्य के कर से प्राप्त एक वर्ष की आय, इन सबके अतिरिक्त प्रचुर मात्रा में स्वर्ण, रजत तथा मोती, इतना पर्याप्त होगा पुत्र भीम? यदि कुछ और भी चाहिए तो बताओ। मैं सत्यजीत से कह देता हूँ, वह सारी व्यवस्था कर देगा।"
"धन्यवाद महराज। बस एक बात और, आप इन सभी चीजों को देने का आग्रह कीजियेगा। ज्येष्ठ निश्चित ही उपहारों की विपुल मात्रा देख मना करेंगे। यदि ऐसा हो तो तब भी आप हठ कर के यह सब हमें प्रदान करेंगे।"
"जैसा तुम कहो पुत्र। लोग तुम्हें महाबली भीम कहते हैं, पर तुम्हारा असली परिचय तो चतुर भीम होना चाहिए।"
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भानुमति_16
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राजा द्रुपद से पर्याप्त उपहारों का वचन लेकर भीम इसकी सूचना देने के लिए धर्मराज युधिष्ठिर के कक्ष में जा रहे थे, वहां पता चला कि वे तो श्रीकृष्ण से मिलने गए हैं। भीम ने भी कृष्ण के कक्ष की ओर प्रस्थान किया। जब वे कक्ष में प्रवेश कर रहे थे, उसी समय पांचाली और एक अन्य युवती कक्ष से बाहर निकल रही थी। भीम अत्यंत प्रसन्न थे और अपनी प्रसन्नता में उन्हें उचित अनुचित मर्यादा का भान नहीं रहता था। उन्होंने अपनी विशाल भुजाएं फैला कर मार्ग अवरुद्ध कर दिया और द्रौपदी से बोले, "तुम अभी तक यहीं हो?"
पांचाली साथ खड़ी युवती की ओर संकेत करते हुए अप्रसन्न भाव से बोली, "नहीं! मैं इन्हें कृष्ण से मिलवाने आई थी। आप हमारा मार्ग छोड़िए।"
"अरे! पूछोगी नहीं कि मैं कहाँ से आ रहा हूँ? सही कहा गया है कि स्त्रियों को बस स्वयं से ही सरोकार रहता है।"
साथ खड़ी युवती हँस पड़ी। उसकी ओर भीम की प्रश्नवाचक दृष्टि देख द्रौपदी बोली, "ये जलंधरा हैं। काशीराज की राजकन्या। अपने भाई युवराज सुशर्मा के साथ स्वयंवर में आई थी। इन्होंने कृष्ण से मिलने की इच्छा जताई थी।"
जलंधरा उत्सुक नेत्रों से भीम को देख रही थी। उसने भीम से प्रश्न किया, "क्या आप ही राक्षसों के राजा, राजा वृकोदर हैं? आपने वास्तव में राक्षसों पर शासन किया है!"
"हाँ, राक्षस बड़ी भोली मानव जाति है। बस उनकी रीतियाँ हमसे अलग हैं।"
"रीतियाँ? वे तो नर-मांसभक्षी होते हैं। क्या आपने भी नरमांस खाया है?"
"हाँ, मैं रोज सुबह एक युवती का भोजन किया करता था।"
जलंधरा खिलखिलाकर हँस पड़ी। हस्तिनापुर में कोई युवती पर-पुरुषों के सम्मुख इस प्रकार उन्मुक्त हँसी नहीं हँसती थी। भीम को खुले हृदय के ऐसे व्यक्तित्व बहुत लुभाते थे। भीम की प्रशंसात्मक दृष्टि को लक्ष्य कर द्रौपदी बोली, "कदाचित आप नहीं जानते कि राजकुमारी जलंधरा आपके प्रिय भाई दुर्योधन की पत्नी भानुमति की सगी बहन हैं। अच्छा अब हमें जाने दीजिए। पिताजी हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।"
दुर्योधन की पत्नी की बहन! इस सूचना पर भीम ने जलंधरा को गहरी नजर से देखा और पूछा, "तो क्या आप भी हमारे साथ हस्तिनापुर चल रही हैं?"
जलंधरा ने उत्तर दिया, "तीर्थयात्रा का विचार था पर सूचना मिली है कि भानुमति अस्वस्थ है। युवराज दुर्योधन ने भी भाई सुशर्मा को बुलाया है। पर हम आपके साथ थलमार्ग की अपेक्षा जलमार्ग से यात्रा करेंगे। भाई का विचार है कि शीघ्रातिशीघ्र पहुंचने के लिए नदी से यात्रा करना अधिक उचित होगा।"
भीम ने मार्ग छोड़ दिया। परन्तु वे स्वयं को जलंधरा को जाते हुए देखने का मोह त्याग नहीं पाए। कितनी सुंदर युवती! कितनी निश्छल हँसी! भीम के मस्तिष्क में यह विचार आया कि कितना आनन्द आये यदि वे जलंधरा से विवाह कर लें। दुर्योधन का खिसियाया हुआ मुंह देखने योग्य होगा। जितनी तीव्रता से उन्हें यह सूझा उतनी ही तीव्रता से उन्होंने अपने मन को रोकने की चेष्टा की कि वे निश्चित ही भद्र पुरुष नहीं हैं। अभी कुछ ही दिन पूर्व तो उनका द्रौपदी से विवाह हुआ है। पर कामदेव ने तो अपना तीर चला ही दिया था।
कक्ष के अंदर प्रवेश करते ही कृष्ण बोले, "आइए आइए श्रीमान, हमें तो लगा कि आप बाहर से ही वापस लौट जाएंगे।"
"बाहर से क्यों लौट जाता? मुझे भैया से कुछ बात करनी थी तो बिना किये कैसे चला जाता?" युधिष्ठिर की ओर मुड़कर उन्होंने राजा द्रुपद से मिले उपहारों के बारे में बताया। युधिष्ठिर आश्चर्यचकित हो उठे और कृष्ण की ओर देखकर बोले, "देखा कृष्ण, मैंने इसे इसलिए भेजा कि यह कम से कम उपहारों के लिए राजा द्रुपद को मनाए और यह इतना कुछ मांग आया।"
"यह गलत आक्षेप है भैया। मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि मैंने अपने मुंह से कुछ नहीं मांगा। अपितु मैंने तो उन्हें आपकी इच्छा ही बताई। अच्छा, मैं चलता हूँ। भैया बलराम और राजा विराट से भी मिलना है मुझे।"
भीम के जाने के बाद कुछ क्षणों तक शांति बनी रही। कृष्ण को मुस्कुराता देख युधिष्ठिर बोले, "अवश्य ही तुमने इसे कोई सुझाव दिया होगा।"
कृष्ण बोले, "भ्राता भीम को छोड़िये। वे जो कुछ कर रहे हैं आपके लिए ही कर रहे हैं। हाँ, उनका तरीका कुछ भिन्न है। आप सुनाइये, आप कुछ बात करने आये थे?"
"हाँ! गुप्तचरों ने हस्तिनापुर राजसभा की सूचना दी है। वहां राजसभा मेरे उत्तराधिकार को लेकर बँटी हुई प्रतीत हो रही है। पितृव्य धृतराष्ट्र असमंजस में हैं कि अब वे किसे युवराज बनाएं। दुर्योधन पहले से ही युवराज के पद पर आसीन है। किसी उचित कारण के अभाव में उसे अपदस्थ कर देना पितृव्य के लिए कदाचित संभव नहीं होगा। हमारे हस्तिनापुर जाने से सत्ता प्राप्त करने का संघर्ष शुरू हो सकता है, चली आ रही व्यवस्था बाधित हो सकती है। अतः शकुनि और कर्ण जैसे कुछ सभासदों का विचार है कि हमें हस्तिनापुर आने से रोका जाए, भले ही इसके लिए सैनिक शक्ति का प्रयोग करना पड़े। पितामह भीष्म चाहते हैं कि पितृव्य धृतराष्ट्र को सेवानिवृत्त कर मुझे सम्राट बना दिया जाय और दुर्योधन युवराज बना रहे या उसे किसी स्वायत्त राज्य का राजा बना दिया जाए। सबसे अचंभित करने वाला प्रस्ताव गुरुवर द्रोण का है कि चूंकि मैं ज्येष्ठ पांडु पुत्र हूँ, सिंहासन पर मेरा अधिकार है तो मुझे ही राजा बनाया जाए। परन्तु चूंकि आधिपत्य दुर्योधन का है तो उसके पास भी सत्ता होनी चाहिए। अतः राष्ट्र का विभाजन कर दिया जाए जिसके एक भाग पर मैं और दूसरे भाग पर दुर्योधन शासन करे।"
"और आपका क्या विचार है धर्मराज।"
"मुझे सत्ता प्राप्ति के लिए यूँ उलझना समझ नहीं आता। मैं तो अपने भाइयों के साथ किसी भी स्थान पर प्रसन्न रहूंगा। कितना उचित होता कि पिता की मृत्यु के पश्चात माता हमें हस्तिनापुर लाती ही नहीं। हम वहीं ऋषियों के साथ अपना सात्विक जीवन व्यतीत कर लेते।"
"भैया, आप स्वयं धर्म मर्मज्ञ हैं। मैं आपको क्या बताऊँ! परन्तु क्या आपका जन्म इसलिए हुआ है कि आप ऋषियों की तरह वन में अपना जीवन व्यतीत करें? ऋषियों का अपना कर्तव्य है, वे अपनी रीति से समाज का भला करते हैं। आप क्षत्रिय हैं, आपको क्षत्रियोचित रीति से समाज का भला करना चाहिए। विधाता ने आपको महाराज पांडु का पुत्र, महावीर और तेजस्वी भाइयों का ज्येष्ठ इसलिए तो नहीं बनाया कि आप वन में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें। सहदेव की बुद्धिमत्ता, नकुल की अश्वपालन तथा अभियांत्रिकी विद्या, अर्जुन की अजेय धनुर्विद्या और भैया भीम की सैन्य क्षमता का वन में क्या उपयोग? किसी भी धर्म से यदि कर्म निकाल दें तो वह धर्म नहीं रह जाता।"
"तो क्या मुझे इस राजनीति के कीचड़ में उतरना पड़ेगा? अपने ही परिवार से, अपने पितृव्य धृतराष्ट्र और धृतराष्ट्र-पुत्रों से उलझना पड़ेगा?"
"प्रथम बात तो यह कि यह मात्र आपके परिवार का विषय है ही नहीं। यह समाज की बात है। यदि समाज की भलाई के मार्ग में परिवार बाधक हो तो धर्मतः परिवार से संघर्ष अथवा उसका त्याग उचित है।"
"तो मुझे बताओ कि मैं क्या करूँ? यदि हस्तिनापुर के मार्ग में दुर्योधन सैन्य शक्ति का प्रयोग करे तो उससे युद्ध करूँ? यदि ऐसा न हो और हम हस्तिनापुर पहुंच गए तो क्या राजसभा में अपना अधिकार मांगू? और यदि पितृव्य मना कर दें तो क्या गृहयुद्ध का आयोजन करूँ? और यदि कहीं गुरु द्रोण का सुझाव मान लिया जाए तो अपनी मातृभूमि का विभाजन स्वीकार करूँ? यह मुझसे नहीं होगा केशव, मेरे कारण राष्ट्र का विभाजन! यह सर्वथा अनुचित होगा।"
"आपने एक बार में ही इतने अधिक प्रश्न पूछ लिए। तनिक धैर्य रखिये। आइए आपके प्रत्येक प्रश्न पर एक-एक कर विचार करते हैं।
आपने कहा कि यदि हस्तिनापुर के मार्ग पर आक्रमण हो तो क्या करें? आक्रमण हो ही जाने पर आत्मरक्षा धर्म है। आप आतताई शत्रु का प्रतिरोध ही कर सकते हैं। अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। परन्तु मुझे विश्वास है कि ऐसा नहीं होगा। पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण ऐसा होने नहीं देंगे। और यदि हुआ भी तो, तो भैया भीम इसी हेतु तो प्रातः से दौड़-भाग कर रहे हैं।
सिंहासन पर आपका अधिकार आचार्य द्रोण भी मानते हैं और पितामह भीष्म भी। महात्मा विदुर आपके पक्ष में हैं ही। यदि पितामह का सुझाव माना जाए तो इससे अच्छी बात क्या होगी! आप अपनी पूरी शक्ति से राजा का कर्तव्य निभाइयेगा।
अंतिम बात राष्ट्र-विभाजन के संबंध में आपने कही कि आप राष्ट्र के विभाजन का कारण नहीं बनना चाहते। तो आप समझिये कि हस्तिनापुर कोई राष्ट्र नहीं है। राष्ट्र है पूरा आर्यावर्त, जिस पर हस्तिनापुर मात्र एक राज्य है। जैसे पांचाल, मद्र, सिंधु, द्वारका, काशी, मगध, गांधार बस राज्य हैं। प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए राज्यों के छोटे टुकड़े करना कोई अनुचित बात नहीं। अगर आप देखें तो हमारे और आपके पूर्वज यदु और पुरु एक ही पिता ययाति की संतान थे। हम मथुरा आ गए, फिर द्वारिका चले गए तो क्या यह राष्ट्र का विभाजन था?
यदि हस्तिनापुर राज्य का विभाजन होता भी है तो यह आपके लिए शुभ ही होगा। अपने चचेरे भाइयों की घृणित राजनीति से आप बचेंगे। आप अपने राज्य में उत्तम प्रशासन लाने के लिए स्वतंत्र होंगे। कोई दुर्योधन या शकुनि आपके मार्ग में बाधा नहीं बनेगा। अपने राज्य को उच्चतम स्थान पर प्रतिस्थापित कर आप सम्पूर्ण आर्यावर्त में एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। पर्याप्त सामर्थ्यशाली होने के पश्चात आप पूरे आर्यावर्त में धर्म का राज स्थापित करने हेतु राजसूय यज्ञ कर सकते हैं। सामर्थ्य अपने साथ कर्तव्य भी लाता है। अतः हे धर्मराज! आपका जन्म किसी वन में ऋषि बनने अथवा मात्र हस्तिनापुर का राजा बनने हेतु नहीं हुआ है। धर्म की स्थापना हेतु आपको सम्पूर्ण आर्यावर्त का चक्रवर्ती सम्राट बनना है।"
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भानुमति_17
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शोभा यात्रा के लिए अगला दिन निर्धारित था। पांडव परिवार उत्साहित और प्रसन्न तो था ही, मार्ग में होने वाली सम्भावित झड़प को लेकर थोड़ी बहुत जो आशंकाएं थी उसे भीमसेन के भीम प्रयासों ने मंद कर दिया था। यद्यपि भीम व्यक्तिगत रूप से चाहते थे कि युद्ध हो ही जाए, इसी बहाने आत्मरक्षा के नाम पर कपटी दुर्योधन की गर्दन तोड़ने का सुअवसर तो मिलता। अर्जुन भी अत्यंत उत्साहित थे। कर्ण से होने वाले सम्भावित युद्ध को लेकर नहीं, अपितु अपनी मातृभूमि, अपने मित्रों, सामान्य जन से पुनः मिलने की प्रत्याशा उन्हें ऊर्जावान एवं भावुक बना रही थी। अर्जुन सच्चे अर्थों में मनुष्य ही थे, अत्यंत मोहग्रस्त। नकुल भी अपनी परिकल्पनाओं, परियोजनाओं को वास्तविक रूप देने के लिए आवश्यक सामग्रियों और संसाधनों की सुलभ उपलब्धता को लेकर प्रसन्न थे।
परिवार माता कुंती के कक्ष में बैठा था। नितांत पारिवारिक वातावरण में माता और सभी भाई राजसी मर्यादाओं को त्याग सामान्य परिवारों जैसा ही व्यवहार करते थे। द्रौपदी को शुरू-शुरू में यह तू-तड़ाक की भाषा बहुत अनुचित लगती थी। माता पांचों भाइयों से ऐसे बोलती जैसे वे अभी भी नन्हें बालक हों। सभी भाई भी मां से वैसे ही प्यार जताते। अब द्रौपदी भी उनके रंग में रंग गई थी, उसे अपनी सास में वर्षों पहले खोई माता जो मिल गई थी।
युधिष्ठिर माता से भीम की शिकायत कर रहे थे, बोले, "देखा मां, यह राजा से इतना कुछ मांग लाया है कि मुझे यह अनुचित लगता है। विवाह का मतलब यह तो नहीं कि दहेज के नाम पर अपने श्वसुर को लूट लिया जाए।"
भीम बोले, "भैया! मैं पहले भी बता चुका हूं कि मैंने उनसे कुछ नहीं मांगा। अपितु मैंने तो उनसे आपकी ही इच्छा बताई थी। उन्होंने जो दिया, सहर्ष दिया, अपने मन से दिया।"
माता ने उन्हें चुप कराते हुए कहा, "अच्छा ठीक है। जो हुआ सो हुआ। पुत्र युधिष्ठिर, तुम इसे दहेज क्यों कह रहे हो? यह तो रीति है कि पिता अपनी पुत्री और जामाता को उपहार देता ही है। इसमें अनुचित क्या है?"
"आज यह सामान्य रीति है माता। पर मैं डरता हूँ कि कहीं भविष्य में लोभी जामाता एवं उसका परिवार परम्परा के नाम पर श्वसुर से मिलने वाले उपहारों को अपना अधिकार न मान बैठे। इन उपहारों को बलपूर्वक प्राप्त करने का प्रयास न करने लगे।"
सहदेव बोले, "भविष्य अनिश्चित है भ्राता। आने वाले कल की सोचकर आप वर्तमान की भली चीजों को बुरा नहीं कह सकते। हम अपना ही उदाहरण देखें तो हम अभी इतने सामर्थ्यवान नहीं थे कि पांचाली को सामान्य सुविधाएं भी दे पाते। वर-वधु को उपहार इसीलिए तो दिए जाते हैं कि वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना सकें। राजा द्रुपद के दिये उपहार आपको सम्राट बनाने हेतु महत्वपूर्ण अवयव हैं।"
"ठीक है। यदि तुम भी ऐसा ही सोचते हो तो कदाचित यह सही हो। अच्छा भीम! शोभा यात्रा की क्या योजना बनाई तुमने?"
"बड़ी सामान्य सी योजना है। सबसे आगे हाथी पर मैं रहूंगा। मेरे पीछे पूरे दल को हाथी घेरकर चलेंगे। मेरे बाद सभी बहुमूल्य वस्तुओं से लदी बैलगाड़ियां होंगी जिनकी सुरक्षा तीर-धनुष से बचकाने खेल खेलने वाले श्रीमान अर्जुन करेंगे। उसके बाद वर-वधू के रूप में भैया युधिष्ठिर और पांचाली एक रथ में विराजमान होंगे जिनके पीछे भैया बलराम के नेतृत्व में सभी यादव अतिरथी, नाग-कुमार मणिमान, राजा विराट, राजा सुनीत सहित सभी अन्य राजे-राजकुमार होंगे। इनके बाद अश्वसेना होगी जिसकी अगुआई काले-कलूटे नकुल करेंगे। चूंकि सहदेव मनुष्यों के साथ चलने के योग्य नहीं हैं, सबसे अंत में गायों के साथ चलने के लिए मुझे उनसे योग्य व्यक्ति कोई नहीं दिखता।"
द्रौपदी बोल पड़ी, "और कृष्ण? आप उन्हें तो भूल ही गए।"
तभी कृष्ण द्वार से आते हुई दिखे और मुस्कुराते हुए बोले, "हाँ! मुझे कौन भूल गया?" इतना बोलते हुए वे माता कुंती के पैरों के पास बैठ गए और अपना सर उनकी गोद में रख दिया। माता भी उनके मोहक बालों में अपनी उंगलियां डाल उन्हें धीरे धीरे सहलाने लगी, जैसे कृष्ण पूर्ण युवा न होकर कोई छोटे बालक हों। यद्यपि इससे उनके सर पर लगा मोर का पंख अपनी जगह से थोड़ा हट गया था। स्पष्ट था कि कृष्ण भी इस परिवार के एक अंग ही थे।
द्रौपदी ने उत्तर दिया, "देखिए ना माधव, आर्यपुत्र ने शोभा यात्रा में आपके लिए कोई स्थान ही नहीं रखा।"
"अच्छा! क्यों भैया भीम, आप भी मुझे भूल गए?"
भीम बोले, "भीम कुछ नहीं भूलता। तुम माता के साथ उनके रथ पर रहोगे जो वर-वधु के पीछे चलेगा।"
द्रौपदी ने आपत्ति की, "परन्तु कृष्ण को सबसे आगे होना चाहिए। यह समाचार चारों ओर फैल चुका है कि हमारे साथ कृष्ण भी आ रहे हैं। लोग कृष्ण के दर्शन करने आएंगे। उन्हें कितनी असुविधा होगी।"
"यही तो मजा है। सब लोग इसके दर्शन को आएंगे पर उन्हें पहले दिखूंगा मैं। आधी फूल मालाएं तो मुझे मिलेंगी। मेरे बाद उन्हें दिखेगी हमारी सम्पदा जिसकी रक्षा अर्जुन कर रहे होंगे। फिर वे देखेंगे हस्तिनापुर के होने वाले सम्राट धर्मराज युधिष्ठिर को और साम्राज्ञी पांचाली को। तब उसके बाद कहीं जाकर उन्हें अपने देवता कृष्ण के दर्शन होंगे। जरा सोचो, वे जिसकी पूजा करते हैं जब उन्हें महाराज युधिष्ठिर के पीछे बैठा देखेंगे तो कितना सही प्रभाव पड़ेगा जनता पर।"
कुंती बोल पड़ी, "तुम बहुत कुटिल हो भीम"।
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शोभा यात्रा चल पड़ी। पर यह शोभा यात्रा कम और किसी राजा की विजयी सेना अधिक लग रही थी। सौ हाथी, चार-चार अश्व जुते पांच सौ रथ, पांच सौ युद्धक अश्व, एक सहस्त्र बैलगाड़ियां, पांच सहस्त्र गौ को लिए जब यह विशाल दल चल रहा था तो इसके एक छोर पर खड़े होकर कोई दूसरा छोर नहीं देख सकता था। इसके अतिरिक्त अलग-अलग पताकाओं के नेतृत्व में यादव अतिरथियों तथा विभिन्न राजाओं का सैन्य दल भी वाद्य यंत्रों से मांगलिक स्वर लहरियां निकालता इस यात्रा का हिस्सा बन गया।
भीम अत्यधिक व्यस्त थे। दल जब चल रहा होता तो वे कभी हाथी पर तो कभी घोड़े पर बैठकर एक छोर से दूसरे छोर तक लगातार चलते ही रहते। विभिन्न निर्देश जारी करते, उत्साह बनाये रखने के लिए ढेरों उपाय करते जिनमें मुख्यतः अपने अश्व तथा गज के साथ किये जाने वाले साहसिक खेल शामिल थे। वे इसका ध्यान रखते कि कोई भी भूखा या प्यासा न हो। वे राजाओं से राजकीय मर्यादा बनाये रखते पर महिलाओं से हँसी ठिठोली करते रहते। आगे कहीं पड़ाव डालने के लिए वे चतुर व्यक्तियों को चुनते, साथ ही कुछ सेवकों को पीछे छोड़ देते जिससे कि वे पीछे छोड़ दिए गए मानव कचरे एवं पशु अपशिष्ट की उचित व्यवस्था कर सकें।
भीम पूरे दल को शीघ्रातिशीघ्र उत्कोचक तीर्थ लाना चाहते थे। कोई तो स्वार्थ था उनका, अन्यथा इतनी अधिक हड़बड़ी की कोई आवश्यकता नहीं थी। उत्कोचक तीर्थ पर महर्षि वेदव्यास के शिष्य मुनि धौम्य का आश्रम था। मुनि धौम्य ने वेदव्यास के कहने पर पांडवों का पौरोहित्य स्वीकार किया था। आश्रम नदी के साथ साथ बहुत दूर तक फैला था और आर्यों के मुख्य उद्देश्य 'कृणवंतम् विश्वमार्यम!' को पूरा करने के लिए निरंतर प्रयासरत था। उन्हें नागों तथा किरातों के बीच सफलता भी मिली थी। इन प्रजातियों के अनेक युवा आश्रम के शिष्य बनते। वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित होते जो संस्कृति के प्रसार हेतु अत्यधिक सहायक होते।
मुनि धौम्य ने पांडवों तथा सभी राजाओं का स्वागत किया। उनके लिए सभी कुटीर खोल दिये गए। सेवकों के लिए विशाल मैदान था ही। सबके ठहरने की उचित व्यवस्था कर भीम पहले गायों की व्यवस्था देखने आए, वहां सहदेव ने सब कुछ पहले ही ठीक कर रखा था। ऐसे ही नकुल ने अश्वों की उचित व्यवस्था कर दी थी। हाथियों की देखभाल का उत्तरदायित्व प्रख्यात धनुर्धर और श्रीकृष्ण के अनन्य मित्र सात्यकि ने स्वयं ही सम्भाल लिया था। दो अक्षोहिणी सेना का स्वामी, सामान्य कर्मचारियों की भांति पांडवों के हस्तिदल की व्यवस्था देख रहा है, यह देखकर भीम अत्यंत भावुक हो गए। उन्होंने मन ही मन अपने भाइयों की संख्या में एक अंक की वृद्धि कर ली। भीम ने अपना हाथी लिया और उसे पानी पिलाने ले जाने का संकेत कर सात्यकि से विदा ली।
नदी तट पर अपने हाथी के साथ पहुंचने पर उन्होंने वह देखा, जिसे देखने के लिए वे इतने अधिक व्याकुल थे कि मार्ग में न खुद विश्राम किया था न किसी को करने दिया था। सामने नदी में काशी की पताका लगी हुई एक विशाल राजनौका खड़ी थी। इसका अर्थ था कि वह उन्मुक्त हँसी वाली युवती यहांआश्रम में ही थी।
हाथी को उचित स्थान पर बांधकर वे अपने दल के सभी व्यक्तियों की भोजन व्यवस्था देखने गए। अर्जुन ने मुनिकुमारों के साथ भोजन सम्बंधित सभी कार्य सम्पादित कर लिए थे। भीम रन्धनशाला गए, उन्हें युद्धशाला के पश्चात कोई अन्य स्थान प्रिय था तो रन्धनशाला। वे स्वयं उत्तम रसोइए थे। भोजनोपरांत मुनि धौम्य से अगले दिन की व्यवस्था पर चर्चा करने वे उनकी कुटी पर पहुंचे तो वहां कृष्ण के साथ एक अन्य युवक को देखा। पच्चीस वर्षीय सुकुमार युवक का चेहरा उस उन्मुक्त हँसी वाली युवती से बहुत मिलता था। कृष्ण द्वारा परिचय प्राप्त होने से पहले ही वे समझ गए थे कि युवक काशी का युवराज सुशर्मा तथा जलंधरा का सहोदर था।
कृष्ण को मुनि से धर्मचर्चा में व्यस्त देख उन्होंने सुशर्मा से कहा, "आप कब आये युवराज?"
सुशर्मा ने उत्तर दिता, "हम कल आये थे। और आज ही रात्रि की किसी बेला प्रस्थान करेंगे।"
"अरे! इतनी भी क्या शीघ्रता है। कुछ समय हमारे साथ भी रहिये। अंततः तो आपको हस्तिनापुर ही जाना है। हमारे साथ ही चलिए।"
सुशर्मा को भीम और दुर्योधन के बीच की प्रतिद्वंदिता का भान था। वह दुर्योधन के स्वभाव को भी जानता था। भीम के साथ देखा जाना उसके राज्य और उसकी बहन भानुमति के लिए ठीक नहीं होता। वह राज्य पर आक्रमण कर सकता था, भानुमति को पदच्युत कर सकता था। उसने टालने की नीयत से कहा, "नहीं! हमें आज ही जाना है! अनुकूल वायु होते ही हम चल देंगे।"
"इतनी शीघ्रता का कोई विशेष कारण युवराज?"
"जी, बहन भानुमति अस्वस्थ है।"
"उसे क्या हुआ?"
"वह आसन्न प्रसवा है।"
"अच्छा, जैसा आपको उचित लगे। संध्याकालीन भोजन तो हमारे साथ करेंगे ना? आज मैं अपने हाथों से विशिष्ट पकवान बनाने की सोच रहा हूँ।"
"क्षमा चाहूंगा। हम संध्या से पूर्व ही नाव पर चले जायेंगे।"
"अच्छा ठीक है। जैसा आपको उचित लगे। आपको विदा करने तो आ सकता हूँ ना?"
"आप कष्ट ना करें! हम चले जायेंगे!" इतना कह कर उसने मुनि धौम्य से अनुमति ली, कृष्ण के सम्मुख हाथ जोड़े और भीम की ओर बिना देखे उठ कर चला गया।
भीम की इस आक्रामक मित्रता ने कृष्ण के मन में संदेह पैदा कर दिया। उन्होंने विचार किया कि अवश्य ही भीम कुछ ऐसा करने की सोच रहे हैं जिससे उलझनें पैदा होंगी।
उनका सोचना सही था। इस प्रकार स्वयं को उपेक्षित किया जाना भीम के लिए अरुचिकर था। उन्होंने विचार बना लिया कि चाहे जो हो जाये अब तो सुशर्मा को उनके साथ ही हस्तिनापुर चलना होगा।
'क्या यह केवल सुशर्मा को पाठ पढ़ाने के लिए एक क्रोधित मनुष्य का विचार था या जलंधरा की समीपता प्राप्त करने के लिए एक प्रेमी हृदय की व्याकुलता?'
संध्या समय सुशर्मा को विदाई देने के लिए कृष्ण, मुनि धौम्य और अन्य व्यक्तियों के साथ भीम भी उपस्थित थे। जलंधरा की कुछ झलकियां उन्हें मिली। कदाचित यह उनका भ्रम ही रहा हो कि वह भी उन्हें तिरछी दृष्टि से देख रही थी। पर भ्रम हो या न हो, भीम वही समझते थे जो वे समझना चाहते थे।
रात्रि में सबके सोने के पश्चात भीम उठे और नदी की ओर चल दिये। उन्होंने ध्यान नहीं दिया कि उनके साथ एक परछाई भी चल रही थी। भीम के हाथ में हाथियों को हांकने वाला अंकुश था। नदी पर राजनौका खड़ी थी। निश्चित ही काशी का राजपरिवार अपनी सुखनिद्रा में निमग्न होगा, और मल्लाह अनुकूल वायु की प्रतीक्षा कर रहे थे कि वायु अनुकूल हो तो वे पाल छोड़ दें।
भीम ने अपने ऊपरी वस्त्र उतारे और पूरी सावधानी से जल में उतर गए। निःशब्द तैरते हुए नाव तक पहुंचकर उन्होंने अपने फेफड़ों में हवा भरी और डुबकी लगाकर नाव के तले में पहुंच गए। वहां उन्होंने किसी जोड़ पर अंकुश को फंसाकर नाव में छिद्र कर दिया। कुछ अन्य छिद्र बनाने के बाद वे पूर्ववत नदी तट पर वापस आ गए। ऊपरी वस्त्र पहनने के बाद वे प्रतीक्षा करने लगे।
कुछ ही समय पश्चात मल्लाहों ने पाल छोड़ दिया। नाव में तीव्रता से पानी भरने लगा। चीख-पुकार मच गई। चंद्रमा के मध्यम उजाले में भीम ने नाव पर लोगों को इधर से उधर दौड़ते देखा, उन्हें सुशर्मा और जलंधरा की हल्की झलक भी दिखी। उन्हें देखते ही भीम पूरे वस्त्रों सहित नदी में कूद पड़े। नाव के पास पहुंचकर जोर से चीखते हुए उन्होंने कहा, "राजकुमारी! नीचे कूद जाइये। मैं आपको थाम लूंगा।"
जलंधरा ने भीम की आवाज पहचानी और निःसंकोच कूद पड़ी। उसे हवा में ही अपनी बाहों में लेकर भीम फिर चीखे, "युवराज! आप भी पानी में कूद जाइये। मैं आपको बचा लूंगा। तट पर अन्य लोग भी आ गए हैं। वे नौका के प्रत्येक व्यक्ति को बचा लेंगे।"
मरता क्या न करता। अंततः सुशर्मा भी जल में कूद पड़ा। एक हाथ से जलंधरा को जल से ऊपर उठाए, दूसरे हाथ से सुशर्मा को खींचते हुए भीम शुष्क भूमि पर पहुंच गए। सुशर्मा ठंड से कांप रहा था। भीम ने जलंधरा को अपनी गोद से उतारना चाहा तो देखा कि वह मूर्छित पड़ी है। सुशर्मा इतना सुकुमार था, उसकी कंपकपी छूट रही थी कि वह स्वयं को ही सम्भाल लेता तो पर्याप्त होता। भीम जलंधरा को लिए आगे बढ़ गए। कांपता, छींकता, कुढ़ता सुशर्मा उनके पीछे हो लिया।
अपने कुटीर पर आकर भीम बोले, "युवराज, आप मेरी शैय्या पर विश्राम करें। मैं राजकुमारी को माता कुंती के पास छोड़कर आता हूँ।" वे जब माता की कुटिया की ओर चले तो अंधेरे में भी जलंधरा के सुकोमल मुखड़े को देख रहे थे। उन्हें लगा कि बहुत हल्की पलकें खोलकर वह भी उन्हें देख रही है। फिर उन्हें एक मध्यम सी आवाज सुनाई दी। 'नौका आपने ही डुबाई ना राजा वृकोदर!'
"तुम भी तो मुझे छोड़कर जा रही थी।"
माता कुंती के पास उसे छोड़कर भीम अपनी कुटिया में आये। वहां गुस्से में फुँफकारते सुशर्मा की ओर ध्यान दिए बिना ही वे तत्क्षण सो गए। 'स्वप्न में जलंधरा को प्रतीक्षा करवाना उचित नहीं होता ना।'
शुरू से ही उनके साथ लगी परछाई उनसे अलग हुई और कृष्ण की कुटिया में प्रवेश कर गई।
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"आओ सहदेव, मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था। बताओ, हमारे प्रिय भ्राता भीमसेन ने अब क्या कर दिया है।"
"केशव भैया, भ्राता भीम अनुचित कर रहे हैं। उन्होंने सुशर्मा की नाव में छेद कर दिया जिससे वह शीघ्रता से दुर्योधन से न मिल सके। मुझे समझ नहीं आता कि उन्हें दुर्योधन और सुशर्मा के बीच होने वाली वार्ता से क्या आपत्ति है? वह दुर्योधन का सम्बंधी है। उसे कुछ दिनों के लिए रोक कर क्या प्राप्त होगा।"
कृष्ण खुलकर मुस्कुराए और बोले, "अरे बुद्धिमान सहदेव! भैया भीम राजनीतिक चाल नहीं चल रहे अपितु चंचल हो रहे हैं। कदाचित काम्पिल्य में भ्राता भीम और राजकुमारी जलंधरा की भेंट हुई है। उन्होंने जलंधरा को रोकने के लिए यह बालकोचित कार्य किया है।"
सहदेव हँसते हुए बोले, "बताओ! अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं हमारे विवाह को और भैया भीम एक और विवाह करना चाहते हैं। यह उन्हीं के अनुकूल बात है।"
"यह तो है सहदेव। पर इससे बहुत कठिनाइयां उत्पन्न हो जाएंगी। दुर्योधन स्वभावतः द्वेष पालने वाला व्यक्ति है। यदि काशी परिवार हमारे साथ चला तो उसे लगेगा कि सुशर्मा की हमारे साथ कोई दुरभिसन्धि है। सम्भव है, सम्भव क्या, निश्चित है कि वह इसकी कुंठा अपनी पत्नी भानुमति पर निकालेगा। तुम तो जानते हो कि भानु मेरी धर्म-बहन है। उसकी विपत्ति का कारण यथासम्भव हमें नहीं बनना है।"
"आप आदेश दीजिये भैया।"
"ऐसा करो, तुम और सात्यकि एक छोटी नौका से एकचक्रा नगरी चले जाओ। आते समय मैंने वहां एक बड़ी नौका देखी थी। बकासुर के आतंक से भैया भीम ने एकचक्रा को मुक्त किया था। वहां के राजा को पांडवों, विशेषकर भैया भीम की सहायता करने में प्रसन्नता होगी। उससे भैया भीम के नाम पर नौका मांग लाओ। यदि अभी निकलोगे तो आज दोपहर तक नौका लेकर आ सकते हो।"
"जैसी आपकी आज्ञा।"
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प्रातः भीम प्रसन्न मुद्रा में उठे। स्नान-ध्यान पश्चात सदा की भांति माता के चरणस्पर्श करने उनकी कुटिया में पहुंचे तो वहां कृष्ण भी बैठे हुए थे। माता ने भीम को देखते ही कहा, "आओ, आओ पुत्र। तुम मेरे सभी पुत्रों में सबसे अधिक प्रिय पुत्र हो। आओ, मेरे निकट बैठो।"
"आज कुछ विशेष है क्या माता जो प्रिय पुत्र मुझे कहा जा रहा है? वैसे तो आप सदैव ही सहदेव को प्रिय पुत्र कहती रहती हैं।"
"तुमने इतनी वीरता और सहृदयता दिखाई है कि मैं आज तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ पुत्र।"
"छोटी-मोटी चीजें तो मैं नित्य ही करता रहा हूँ माता। और इतनी अधिक मात्रा में करता हूँ कि स्मरण भी नहीं रख पाता कि मैंने क्या-क्या किया है। तो आप कृपया बताइये कि आप किस विशेष कार्य की प्रसंशा कर रही हैं?"
"मैंने कृष्ण से सुना कि कैसे तुमने समय पर पहुंचकर सुशर्मा और जलंधरा को बचाया।"
"अब यह तो क्षत्रिय धर्म है माता। स्त्रियों और असहायों की रक्षा करने के लिए ही तो क्षत्रिय जन्म लेते हैं। इसमें विशेष क्या है?"
"यह तो है पुत्र। पर मैं इस बात से अधिक प्रसन्न हूँ कि तुमने काशी राजपरिवार की कठिनाई देखते हुए अपने मित्र एकचक्रा के राजा से नौका की मांग की है।"
अभी तक दिखावटी विनम्रता धारण किये हुए भीम के नेत्र आश्चर्य से फैल गए। स्वयं को संयत कर बोले, "मैंने! मैंने एकचक्रा के राजा से नौका की मांग की!"
"हाँ, तुमने ही तो की। राजा तुम्हारा ऋणी है। तुमने उसके राज्य को बकासुर के आतंक से मुक्त किया है। कृष्ण ने बताया कि जलंधरा को मेरे पास छोड़कर जाते ही तुमने सहदेव को एकचक्रा जाने की आज्ञा दी थी।"
"मैंने! मैंने आज्ञा दी!", कृष्ण की ओर आग्नेय दृष्टि से देखते हुए भीम पुनः बोले, "अब मैं क्या कहूँ! यह तो मेरा कर्तव्य ही था माता।"
"बेटा, तुम बहुत भले बेटे हो। मुझे तुम पर गर्व है।"
भीम समझ नहीं पा रहे थे कि वे इस उदार प्रशंसा को स्वीकार करें या नहीं। वैसे प्रशंसा को अस्वीकार करना उनका स्वभाव नहीं था। उन्होंने माता से जाने की आज्ञा ली और कृष्ण को भी उठने का संकेत किया। नटखट कृष्ण जब नहीं उठे तो उन्हें बलात उठाकर अपने साथ बाहर ले आये और दांत पीसते हुए कहा, "मैं तुम्हारा सर फोड़ दूंगा। यह प्रपंच तुम्हारा ही किया हुआ है! तुमसे मेरी खुशी देखी नहीं जाती ना? बताओ क्यों किया ऐसा, अन्यथा तुम्हें उठा कर पटक दूंगा।"
कृष्ण मुस्कुराते हुए बोले, "क्या भैया! मैं यहां माता से आपके और जलंधरा के बारे में बात करने आया था और आप हैं कि! सही कहा है किसी ने, यह संसार भलाई के लिए तो है ही नहीं।"
जलंधरा से विवाह की संभावना सुन कर भीम तत्काल ही प्रसन्न हो उठे। उन्हें देखकर कहा ही नहीं जा सकता था कि यह व्यक्ति कभी क्रोधित भी होता होगा। उनके मुख पर लालिमा आ गई, कृष्ण की भुजा पकड़ कर बोले, "सच कृष्ण! क्या जलंधरा से मेरा विवाह हो सकता है?"
"क्यों नहीं! यदि वह भी आपसे प्रेम करती है तो अवश्य हो सकता है।"
"तो क्या तुम मेरा साथ दोगे?"
"भैया भीम, मेरा तो जन्म ही पांडवों का साथ देने के लिए हुआ है। परंतु आपको जलंधरा को प्राप्त करने के लिए यह सब करने की आवश्यकता नहीं है। उसकी पाणीप्रार्थना तब कीजियेगा जब धर्मराज युधिष्ठिर सम्राट हों और आप युवराज।"
भीम हँसते हुए बोले, "यह तो अत्यंत सरल है। बस उस दुर्योधन की ग्रीवा ही तो मरोड़नी है।"
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भानुमति_18
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राजा धृतराष्ट्र के आदेश पर पाण्डवों के स्वागत के लिए आडम्बरपूर्ण व्यवस्था की गई थी। नगर के बाहर एक विशाल मैदान को दुल्हन की भांति सजाया गया था। राज्य के प्रतिनिधि के रूप में स्वयं युवराज दुर्योधन पांडवों के स्वागत हेतु खड़ा था। कभी कभी औपचारिकताएं व्यक्ति को कितना विवश कर देती हैं। कहाँ तो दुर्योधन ने सेना सज्ज की थी कि पांडवों का मार्ग में ही वध कर दिया जाय और कहाँ उसे अब उनका स्वागत करना था। यद्यपि उसने एक छोटा सा सैन्य दल तैयार रखा था कि कहीं कुछ गड़बड़ हो, तनिक उत्तेजना फैले और वह अवसर देखकर पांडवों की हत्या कर दे।
दुर्योधन और व्यवस्थाओं से विरक्त, कुरु साम्राज्य के दृढ़ स्तम्भ महामहिम भीष्म नगर-द्वार पर खड़े अपने पौत्रों की प्रतीक्षा कर रहे थे। वे सोच रहे थे कि यही वह द्वार है जहां से उन्होंने पहली बार हस्तिनापुर में राजपुत्र के रूप में प्रवेश किया था। इसी द्वार से अपने पिता महाराज शांतनु के लिए माता सत्यवती को लेकर आये थे। उनके तथा उनके पश्चात चित्रांगद और पांडु के नेतृत्व में कितने ही युद्ध अभियानों की सफलता के बाद नगर ने उनका इसी द्वार पर स्वागत किया था। कुल वधुओं का स्वागत उन्होंने स्वयं इसी द्वार पर किया। इसके अतिरिक्त कितने ही कुल वृद्ध, युवा, नागरिक इसी द्वार से होते हुए यमलोक गए। परन्तु यह पहली बार ही है कि यमलोक चला गया कोई कुरु उस द्वार से वापस आएगा। प्रिय पांडव आज कुल-वधू को लिए इस द्वार से प्रवेश करेंगे।
उन्हें यह समझ नहीं आया कि यदि उस भीषण दुर्घटना से पांडव बच गए थे तो वे वापस हस्तिनापुर क्यों नहीं आये! वृद्ध कुंती को लिए-दिए कहाँ-कहाँ भटकते रहे। क्या उन्होंने अपने पितामह को भी अन्य जनों की श्रेणी में रख दिया है!
विचारों के झंझावात को सामने से चले आ रहे तीन रथों ने भंग किया। रथ से उतरने वाले प्रथम व्यक्ति उद्धव थे। उन्होंने पितामह के चरण स्पर्श करने के पश्चात यादव प्रमुख सात्यक पुत्र युयुधान सात्यकि तथा नागों के राजा कर्कोटक के पुत्र मणिमान का परिचय करवाया। अभिवादनों के पश्चात भीष्म बोले, "उद्धव! हस्तिनापुर में तुम्हारा और तुम्हारे मित्रों का सदैव ही स्वागत है। सात्यकि! तुम्हारे पिता जैसे अनन्य वीर और धर्मात्मा मैंने कम ही देखे हैं। तुम भी प्रसिद्ध धनुर्धर हो। जब मैं तुम जैसे युवकों को देखता हूँ तो लगता है कि आर्यावर्त का भविष्य सुरक्षित हाथों में है। विद्या का निरंतर अभ्यास करना पुत्र। सम्भव हो तो मेरे अर्जुन को अपना गुरु बनाना। राजकुमार मणिमान! आर्यों के मध्य तुम्हारे पिता और पितामह आर्यक की बड़ी चर्चा है। नाग तथा आर्य संस्कृति के मिलाप हेतु उनके प्रयास अनुकरणीय है।" कुछ रुककर वे पुनः बोले, "किसी विशेष प्रयोजन से हस्तिनापुर आना हुआ पुत्रों?"
सात्यकि बोले, "पितामह, हम तो बस यह सूचना लाये हैं कि धर्मराज युधिष्ठिर और उनके भाई अपनी पत्नी तथा मित्रों सहित हस्तिनापुर आ रहे हैं।"
'यह क्या कह रहा है सात्यकि! पांडव अपने घर ही तो आ रहे हैं! इसके लिए इतनी औपचारिकता की क्या आवश्यकता कि अग्रिम सूचना भिजवाई जाए। और ऐसी सूचनाएं लाने का काम तो पदानुक्रम में सबसे छोटे कर्मचारी का होता है। तो क्या युधिष्ठिर यह दर्शाना चाहता है कि सात्यकि और उद्धव जैसे कई अक्षोहिणी सेना के स्वामी उसके सबसे छोटे कर्मचारियों की भांति हैं?'
थोड़ी ही देर में धूल उड़ती हुई दिखाई दी। लगा कि कोई विजयी सेना चली आ रही है। हाथियों तथा सैनिकों के पैरों की धमक, घोड़ों के पैरों और बैलों की ग्रीवाओं में लगी छोटी-बड़ी घण्टियों की मधुर आवाज और वाद्य यंत्रों से निकलती लहरियों ने वातावरण को उत्तेजना से भर दिया। सामने पितामह को देख अग्रिम पंक्ति में सबसे आगे चल रहे हाथी पर बैठे भीम ने हाथ के संकेत से पीछे चले आ रहे अथाह जन-रव को रोक दिया। हाथी को नीचे बैठा कर वे नीचे उतरे और बड़ों की प्रतीक्षा करने लगे। सभी पांडव जब उनसे आकर मिले तब युधिष्ठिर ने बलराम को आगे बढ़ने का संकेत किया। बलराम पांडव परिवार में सबसे बड़े होने के अधिकार से आगे बढ़े और पितामह को प्रणाम किया। उनके पश्चात युधिष्ठिर अपनी पत्नी के साथ उनके चरणों में झुके।
पितामह स्वयं को यह विचार करने से नहीं रोक पाए कि इस धर्म-पुंज को उन्होंने ही देश से निर्वासित कर दिया था। इस युवक ने आज तक एक भी ऐसा काम नहीं किया जिसे मर्यादा और धर्म के विरुद्ध ठहराया जा सके। इतना विनीत कि पूछा भी नहीं कि पितामह! हमारे किस दोष के कारण हमें निर्वासित किया जा रहा है! क्या परिवार की शांति बनाए रखने के लिए साक्षात धर्मराज को उसके राज्य से दूर करना उचित था! पर यह भी तो है कि घर के समझदार बच्चे से ही तो कहा जाता है कि तू ही मान जा, वह तो दुष्ट है ही। दुष्ट व्यक्ति की दुष्टता का दंड कम से कम परिवार में तो सज्जन को ही मिलता आया है। और यह लड़का अपने भाइयों के साथ जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहा। आज वापस आया है तो एक ऐसी वधू के साथ जिसके राज-परिवार से हस्तिनापुर की प्रतिद्वंदिता पीढ़ियों से चली आ रही है। ऐसी स्त्री का परिवार में आना शुभ हुआ या अशुभ! यह हस्तिनापुर और काम्पिल्य के बीच मित्रता का कारण बनेगी या इस बृहद कुरु-परिवार के एक घटक को काम्पिल्य का सहयोग दिलाकर आंतरिक फूट का बीजारोपण करेगी!
तभी मस्ती में आते भीम ने उनके चरण स्पर्श किये और बोले, "पितामह! आपके तो रोम तक श्वेत हो गए! मन तो करता है कि जैसे मेरे बचपन में आप मुझे अपनी गोद में लेकर टहलते थे, मैं भी आपको उसी तरह अपनी भुजाओं में उठा कर हस्तिनापुर का एक चक्कर लगा दूँ।"
भीष्म हार्दिक प्रसन्नता से बोले, "ऐसा मत करना पगले, अन्यथा तेरे पितामह की सारी गरिमा नगरवासियों के सामने खेल बन कर रह जायेगी।"
"अरे पितामह! आपकी इसी गरिमा ने तो बहुत कुछ ढंक रखा है।"
'यह क्या बोल गया लड़का? क्या ढंका हुआ है? मैं एकांत में इससे इसका स्पष्टीकरण अवश्य मांगूंगा।' यह विचार करते हुए उन्होंने चरणस्पर्श करते कृष्ण को आशीर्वाद देने के लिए मुंह खोला पर भावातिरेक में उनके मुंह से शब्द नहीं निकले। कृष्ण की हथेलियों को अपनी हथेलियों में दबाकर उन्होंने नेत्रों की भाषा में कुछ कहा, जिसके प्रतिउत्तर में केशव के नेत्रों ने भी कुछ कहा होगा। यह विचित्र भाषा है जिसमें पल भर में ही सब कुछ कहा-सुना जा सकता है। 'सामान्य व्यक्ति अपने भगवान से इसी भाषा में तो बात करता है।'
अर्जुन ने जब उनके पैरों को छुआ तो पितामह ने उन्हें गले से लगा लिया। 'हा भाग्य! इस वीर को, मानव रत्न को, साक्षात धनुर्वेद को भी उन्होंने निर्वासित कर दिया!', बहुत रोकने पर भी पितामह के नेत्रों से जल की कुछ बूंदें टपक पड़ी। नकुल-सहदेव को आशीर्वाद देने के बाद वे स्वयं से बात करने के लिए अपने भवन की ओर चल दिये। वृद्धावस्था में व्यक्ति कदाचित स्वयं से ही बात करने में स्वयं को अधिक सहज पाता है।
इधर हस्तिनापुर के वर्तमान युवराज दुर्योधन ने बलराम का मुक्त हृदय से स्वागत किया। परंतु जब युधिष्ठिर सामने आए तो उसे समझ नहीं आया कि वह करे क्या! जिस व्यक्ति ने उसे उसके पैतृक अधिकार से वंचित करने के लिए ही जन्म लिया हो, जिसकी वह अभी या कभी भी हत्या कर देना चाहता हो उसके चरणों में झुकने में उसे आंतरिक कष्ट हो रहा था। उसने निकट ही खड़े अपने मामा, गांधार-राज शकुनि की ओर देखा और उसके संकेत पर थोड़ा सा झुका। युधिष्ठिर ने उसे पहले ही रोक कर अपने गले से लगा लिया। अलग होने पर दुर्योधन ने निकट खड़ी द्रौपदी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। द्रौपदी ने भी उसके प्रतिउत्तर में हाथ जोड़े पर उसके नेत्रों में उसे ऐसी धधकती ज्वाला दिखी कि वह एक पग पीछे हट गई।
इसके पश्चात भीम आगे बढ़े और प्रतीक्षा करने लगे कि दुर्योधन क्या करता है! भीम आयु में बड़े थे अतः दुर्योधन को चरण स्पर्श करना ही पड़ता। वह गुरुओं, ब्राह्मणों और नागरिकों के सामने सामान्य शिष्टाचार का उलंघन नहीं कर सकता था। वहां उपस्थित सभी जन दुर्योधन की ओर देख रहे थे कि वह क्या करता है। दुर्योधन ने स्वयं को संयत किया और भीम के चरणों में झुकने ही वाला था कि भीम जनता की ओर हाथ हिलाते हुए कुलगुरु कृपाचार्य की ओर बढ़ गए। दुर्योधन को भीम का यह व्यवहार पैर छूने से भी अधिक अपमानजनक लगा।
औपचारिकताओं के पश्चात वर-वधू तथा अन्य पांडव नगर के अंदर से राजमहल की ओर बढ़े। मार्ग में नागरिकों ने उनका इतना भव्य स्वागत किया कि दुर्योधन जल-भुन गया। 'नागरिकों के लिए उसने कितनी सुविधाएं एकत्रित कर दी थी और यह नागरिक इन पांडवों के लिए इतने उत्साहित! उसे इन नागरिकों से भी घृणा है।'
विदुर ने अन्य विशिष्ट जनों को छोटे मार्ग से अतिथिशाला पहुंचा दिया, सामान्य कर्मचारियों और सैनिकों की व्यवस्था नगर के बाहर कर दी गई थी।
महल पहुंचने पर दुर्योधन तथा अन्य राजकुमारों की पत्नियों ने द्रौपदी का स्वागत किया। पांडव अपने लिए आरक्षित भवनों की ओर चले और माता गांधारी ने माता कुंती और द्रौपदी को अपने भवन में आमंत्रित किया। विवाह सम्बंधित पारंपरिक औपचारिकताओं के बाद गांधारी कुंती का हाथ थामे अपने शयन कक्ष में चली गईं। उन वृद्धाओं के जाने से नवयुवतियों और कुरु-वधुओं को उनके अनुशासन से मुक्ति मिली।
सर्वप्रथम भानुमति बोली, "मैं आपको क्या कह कर पुकारूँ पांचाल कुमारी?"
द्रौपदी ने उत्तर दिया, "जो आपको उचित लगे युवराज्ञी।"
"आप मुझे युवराज्ञी ना कहें। यह औपचारिकताएं मुझे भली नहीं लगती। मेरी बहन जलंधरा आपको दीदी कहती हैं, तो क्या मैं भी आपको दीदी कह सकती हूं?"
द्रौपदी को आश्चर्य हुआ कि दुर्योधन जैसे पुरुष की पत्नी इतनी भली कैसे हो सकती है! द्रौपदी मुस्कुराते हुए बोली, "अवश्य भानु, तुम मुझे दीदी बुला सकती हो।"
तभी दुःशासन की पत्नी ज्योत्स्ना बोल पड़ी, "पर आप हम सबसे ही यह आशा मत रखियेगा। हम सब युवराज्ञी की तरह भोली नहीं हैं।"
"मैंने किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखी है। आप मुझे न भी पुकारें तो भी कोई अंतर तो पड़ नहीं जाएगा।"
कुटिल मुस्कान मुस्कुराती ज्योत्स्ना बोली, "अच्छा यह तो बताइये कि पांच पतियों के होने पर आपको कैसा लगता है?"
विकर्ण की पत्नी मृदुला ने ज्योत्स्ना को टोकने की कोशिश की पर ज्योत्स्ना फिर बोल पड़ी, "अच्छा यह भी तो बताइये कि किस पांडव का साहचर्य अधिक सुखद है?"
अबकी द्रौपदी स्वयं को संयत नहीं कर पाई, क्रोधित होकर बोली, "ज्योत्स्ना! स्त्री हो या पुरुष, उसे अपनी मर्यादा भंग नहीं करनी चाहिए। तुम्हारे पति की तीन स्त्रियां हैं। क्या तुमने उनसे कभी पूछा कि उन्हें किसका साहचर्य अधिक सुखद लगता है? नितांत व्यक्तिगत प्रश्नों को पूछने से बचना चाहिए अन्यथा परिणाम भयंकर होते हैं।"
"क्या आप मुझे धमकी दे रही हैं पांचाल कुमारी? मर्यादा का पाठ मुझे न पढ़ाइये। और रही परिणाम की बात तो मैं देखूंगी कि किसकी मर्यादा बनी रहती है।" इतना बोलकर झगड़ालू ज्योत्स्ना उठकर चली गई।
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धृतराष्ट्र अपने शयनकक्ष में लेटे हुए थे कि युवराज ने कक्ष में प्रवेश किया। युवराज दुर्योधन टूटा हुआ, हारा हुआ प्रतीत हो रहा था। उसकी सारी योजनाएं असफल हो गई थी। बचपन में उसने भीम को डुबो देना चाहा था, पर भीम और शक्तिशाली बन कर वापस आया। उसने कितना चाहा कि पांडवों को पछाड़ दे परन्तु पांडव उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होते गए। कुरुवृद्ध, यहां तक कि सामान्य जनता भी उन्हें ही अधिक सम्मान देती थी। अंततः उसने पांडवों को उनकी माता सहित जलाकर मार देना चाहा। वे मर भी गए पर कई महीनों बाद अत्यधिक शक्तिशाली बन वापस आ गए। अब उनकी हत्या कर देना असम्भव सा था। वे हस्तिनापुर आये हैं, उससे उसका पद छीनने, उसका राज्य हस्तगत करने। वह ऐसा नहीं होने देगा। युधिष्ठिर के नीचे कोई भी पद वह सहन नहीं कर पायेगा।
उसने अपने पिता के पैरों को पकड़ लिया और उन्हें अपने अश्रुओं से धोने लगा। धृतराष्ट्र भी उसकी व्यथा समझ ही रहे थे। क्यों न समझते, यह व्यथा उनकी अपनी भी तो थी। वे भले ही राजा थे पर रहे कार्यकारी राजा ही। उन्हें कभी संतोष नहीं हुआ। यदि किसी विधि दुर्योधन राजा बन जाता तो सही मायनों में उन्हें लगता कि वे सत्ता के शीर्ष पर हैं। परंतु युधिष्ठिर के आ जाने से परिस्थितियां परिवर्तित हो चुकी थी। अब वे दुर्योधन का निष्कंटक राज्याभिषेक नहीं कर सकते थे।
दुर्योधन मरी आवाज में बोला, "पिताजी! क्या अब आप भी मेरे विरुद्ध हो गए? क्या मुझे, आपके पुत्र को उस युधिष्ठिर का दास बनना होगा?"
"अब मैं क्या कहूँ पुत्र! नियमतः अधिकार तो उसका है ही।"
"कैसा नियम और कैसा अधिकार? वह महाराज पांडु का औरस पुत्र नहीं है और नियम राजा की इच्छा से बनते हैं।"
"पुत्र! पिछली सभा में भी तुमने पांडवों की जन्म सम्बंधी आपत्ति उठाई थी जिसका शमन पितामह ने कर दिया था। यदि विशुद्ध कुरु रक्त खोजोगे तो मैं भी महाराज विचित्रवीर्य का औरस पुत्र नहीं हूं, इस कारण तुम भी कुरु नहीं हो। रही राज-इच्छा की बात तो मैं वैसा स्वतंत्र राजा नहीं हूं। मैं कार्यकारी राजा हूँ, मुझे महामहिम भीष्म और प्रधानमंत्री विदुर की सहमति से ही कोई निर्णय करना होता है।"
"मुझे यह सब नहीं सुनना पिताजी। बस आप मेरी बात सुनें कि यदि मेरा अधिकार युधिष्ठिर को दिया गया तो मैं आत्मदाह कर लूंगा।"
"ऐसी बातें करके मुझे दुख न दिया करो पुत्र और बोलने से पहले विचार किया करो। तुम आत्मदाह की बात करते हो! कदाचित यह अधिक सही रहेगा क्योंकि यदि किसी पांडव ने लाक्षागृह का आरोप लगा दिया तो पितामह जांच हेतु एक समिति बना देंगे। और यदि तुम दोषी ठहराए गए तो तुम्हें मृत्युदंड दिया जाएगा। उस अपमानजनक मृत्यु से अधिक अच्छा है कि तुम स्वयं आत्मदाह कर लो, परन्तु उससे पहले मुझे मार दो।"
"तो पिताजी, आप ही बताइये कि मैं क्या करूँ?"
"प्रतीक्षा करो पुत्र, प्रतीक्षा करो। जैसे पांडु के राजा बनने पर मैंने की थी। समय और अवसर की प्रतीक्षा करो।"
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भानुमति_19
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आज भानुमति अत्यधिक प्रसन्न थी। कुछ ही दिनों में माता बन जाने की प्रत्याशा, स्त्रीत्व पूर्ण होने की खुशी तो थी ही, पर अधिक प्रसन्नता इस बात की थी कि वह भरतवंश के उत्तराधिकारी, हस्तिनापुर के भावी सम्राट को जन्म देने वाली थी। उसके मस्तिष्क में यह बात आती ही नहीं कि यदि कन्या का जन्म हुआ तो! आती भी हो तो वह इस पर विचार नहीं करना चाहती थी। बाबा विश्वनाथ जो करेंगे उत्तम ही करेंगे।
उसकी बहन जलंधरा भी आ गई थी। यद्यपि उसका नाम बलन्धरा रखा गया था पर उसे जलंधरा पुकारा जाना अधिक प्रिय था। आयु में अधिक अंतर ना होने से वे बहनें कम और सखियां अधिक थी। जलंधरा ने उसे भीम को लेकर अपनी भावनाएं बता दी थी। भानुमति को हार्दिक प्रसन्नता हुई कि यदि उसकी बहन भीम की पत्नी बन जाती है तो दोनों बहनों द्वारा अपने-अपने पतियों को समझा-बुझा कर उन दोनों का आपसी वैमनस्य कम किया जा सकता था।
पर भानुमति को वास्तविक प्रसन्नता द्रौपदी को देखकर हुई। सुकेशा, नील कमलों की सुगंध और तप्त लौह वाले वर्ण की स्त्री, इतने विशाल और सामर्थ्यशाली साम्राज्य की राजकुमारी यदि कहीं उसके पति दुर्योधन की पत्नी बन जाती तो दुर्योधन भले ही कुछ भी कहता, उसके हृदय में भानुमति के स्थान पर द्रौपदी का ही साम्राज्य होता। वह प्रसन्न थी कि उसे द्रौपदी जैसी नारी से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी होगी। तो क्या वह किसी और स्त्री को दुर्योधन की पत्नी के रूप में स्वीकार कर सकती थी? कदाचित नहीं! उसका पति सदैव मात्र उसका ही बन कर रहे। जाने क्यों लोग बहुपत्नीत्व को इतना बढ़ावा देते हैं! मर्यादा पुरुषोत्तम राम को पूजते हैं तो उनका अनुकरण करने में क्या कठिनाई है? भानुमति यह विचार करने से स्वयं को नहीं रोक पाई कि कहां तो वह बहुपत्नीत्व को हेय दृष्टि से देखती है और कहाँ पांचाली जैसी राजकन्या ने बहुपतित्व स्वीकार किया। क्या यह धर्म है? युधिष्ठिर को धर्मराज कहा जाता है, वेद व्यास धर्म के प्रतीक ही हैं और स्वयं उसके कान्हा वासुदेव कृष्ण तक ने इसे धर्मसम्मत माना। यदि धर्म बहुपतित्व का समर्थन करना है तो बहुपत्नीत्व भी सही ही होगा। परन्तु चाहे जो हो जाये, वह सपत्नी स्वीकार नहीं कर सकती।
इन्हीं सब विचारों में खोई भानुमति की तन्द्रा को एक सेविका ने भंग करते हुए सूचित किया कि युवराज दुर्योधन पधार रहे हैं। गर्भवती भानुमति से जितना सम्भव हुआ, उतनी शीघ्रता से उसने उठकर दुर्योधन का स्वागत करना चाहा पर वारुणी के नशे में धुत दुर्योधन ने उसकी ओर देखा तक नहीं। भानुमति ने निरर्थक सा प्रश्न किया, "आप आ गए आर्य?"
उन्मत्त और चिढ़े हुए दुर्योधन ने खीझते हुए उत्तर दिया, "नहीं! मैं अभी भी पिताजी के चरणों में नाक रगड़ रहा हूँ। यहां तो मेरा प्रेत उपस्थित है।"
"क्या हुआ आर्य? आप अत्यंत खिन्न लग रहे हैं।"
क्रोध और क्षोभ को किसी भांति भी निकलने का मार्ग चाहिए होता है, भले ही सम्मुख व्यक्ति नितांत निरपेक्ष ही क्यों न हो। दुर्योधन बोला, "मूर्ख स्त्री! क्या तुझे नहीं पता कि हस्तिनापुर में क्या हो रहा है! जो तू युवराज्ञी बनी फिरती है, मात्र इस कारण कि तू मेरी पत्नी है। अब तू दासी बनने वाली है।" भानुमति की ओर दृष्टि फेरकर पुनः बोला, "नयनों को इतना फाड़ने की आवश्यकता नहीं है। वर्तमान में हस्तिनापुर का यशस्वी युवराज अर्थात मैं अब इस अज्ञात कुलशील युधिष्ठिर का दास बनने वाला हूँ मूर्ख। मेरी पत्नी होने के कारण तू भी तो दासी ही होगी ना!"
"परन्तु मैंने तो सुना कि कैसी भी परिस्थितियों में आप युवराज बने रहेंगे। पिता महाराज के सम्मुख पितामह ने यही व्यवस्था दी थी।"
"हे ईश्वर! कैसी स्त्री बांध दी मेरे साथ! युधिष्ठिर के राज में युवराज होना किसी दासत्व से कम होगा क्या?" भानुमति के उभरे पेट को देखकर दुर्योधन को और क्रोध चढ़ आया, "तेरी बड़ी बहन ने भी मुझे समय पर पुत्र नहीं दिया। पुत्र के साथ स्वयं भी सिधार गई और तूने भी इतना विलम्ब किया। तू बड़ी प्रसन्न थी न कि हमारा होने वाला यह पुत्र अपनी पीढ़ी का ज्येष्ठ कुरु होगा। पर नहीं, विधाता ही मेरा शत्रु बना हुआ है। उस वृषभ भीम ने किसी राक्षस स्त्री से एक पुत्र प्राप्त किया है, वह विचित्र नाम वाला राक्षसी पुत्र ज्येष्ठ कुरु है। भविष्य में जब उत्तराधिकार की बात आएगी तो कुल-वृद्ध उसे कुरु कुल वंशज स्वीकार करेंगे जैसे पांडवों को किया गया था। मेरे वास्तविक शत्रु तो यह वृद्ध ही हैं। एक यह पितामह भीष्म और दूसरी वह महामाता। इतने लोग काल कवलित हुए, बस इन्हीं दोनों ने अमृत पिया हुआ है।"
"आप क्रोधित न हों तो एक सुझाव है। आप भैया कृष्ण से सहायता क्यों नहीं मांगते? वे अवश्य ही आपकी सहायता करेंगे।"
"भैया कृष्ण! मात्र इसी एक व्यक्ति ने मेरे वर्तमान और भविष्य को बिगाड़ कर रख दिया है। मैं इस ग्वाले से सहायता लूँ? इसी ने मृत पांडवों को निर्वात में से पुनर्जीवित किया। इसी कपटी ने द्रौपदी के स्वयंवर की योजना बनाई। इसी के गुरु संदीपनी और मित्र आचार्य श्वेतकेतु ने धनुर्विद्या की इतनी कठिन कसौटी रखी। इसे निश्चित पता था कि अर्जुन सहित सभी पांडव जीवित हैं। तुझे क्या लगता है कि यदि उसका समर्थन नहीं होता तो द्रौपदी क्या मुझे, युवराज दुर्योधन को छोड़कर उन कंगले पांडवों का वरण करती? यदि कृष्ण की सैन्य-शक्ति पांडवों के साथ ना होती तो मैं मार्ग में ही युद्ध कर सदैव के लिए इन पांच कंटकों को निकाल फेंकता। यह कृष्ण जीवित मानवों में सबसे अधिक कपटी व्यक्ति है। मुँह पर इतना मीठा बोलता है कि जैसे इससे बड़ा शुभचिंतक कोई है ही नहीं, परन्तु पीठ पीछे वार करने में सिद्धहस्त है तेरा यह भैया कृष्ण। तू गई तो थी पुष्कर, इस आशय से उसकी सहायता लेने कि पांचाली मेरा वरण करे। परन्तु देखा, देखा उसने क्या किया! निभाया उसने अपना वचन! अरे उसने तो मेरे जन्मजात शत्रुओं की सहायता कर दी।"
"आप उन्हें गलत समझ रहे हैं स्वामी। मेरे कान्हा कपट कर ही नहीं सकते।"
भोली भानुमति के इन शब्दों ने दुर्योधन को उन्मादी बना दिया। पुरुष की मर्यादा भंग कर उसने भानुमति पर हाथ उठाना ही चाहा था कि जलंधरा ने दौड़ते हुए भानुमति को अपनी बाहों के सुरक्षात्मक घेरे में ले लिया। जलंधरा को भानुमति की मुख्य सेविका राधा ने सूचना दे दी थी कि दुर्योधन अत्यंत क्रोधित है और अपने अंधे क्रोध में वह गर्भवती भानुमति को चोट पहुंचा सकता है।
जलंधरा ने प्रबल प्रतिरोधात्मक वाणी में कहा, "सावधान युवराज! आप अपनी पत्नी और होने वाली सन्तान को चोट पहुंचा रहे हैं। अपना यह नपुसंक क्रोध कहीं और निकालिए। किसी भरतवंशी को यह शोभा नहीं देता।"
लगा कि दुर्योधन जलंधरा पर हाथ उठा देगा, परन्तु जैसे-तैसे स्वयं को संयत कर बोला, "पति-पत्नी के बीच में आने वाली तुम कौन होती हो? तुम्हें इसका दंड अवश्य मिलेगा। और तू भानुमति! यदि तुझे कृष्ण इतना ही प्रिय है तो जाकर उसी के साथ रह। और यदि मेरी पत्नी बनकर रहना है तो मेरी आज्ञा है कि तू कभी भी उस ग्वाले का मुंह नहीं देखेगी।"
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सुबकती भानुमति को अपने गले से लगाए जलंधरा ने दिलासा देते हुए उसकी पीठ पर हाथ फेरा और आसन पर बिठा कर उसे जल पिलाया। गर्भवती की ऐसी मनःस्थिति होने वाले बच्चे पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। पर जलंधरा अधिक कुछ कर भी क्या सकती थी। उसकी भावुक बहन की इस अवस्था में दुर्योधन द्वारा कहे गए शब्दों ने उसे क्रोधित कर दिया था। 'उसी के साथ रह', यह वाक्य दुर्योधन के मुंह से निकला भी कैसे?
कोमल वाणी में जलंधरा ने कहा, "दीदी, तुम दुखी मत हो। युवराज क्रोध में अनर्गल बोल गए। देखो, तुम दुखी होगी तो इस बच्चे को भी दुख होगा।"
भानुमति ने कुछ क्षण स्वयं को संयत किया और बोली, "आर्यपुत्र ने तुम्हें भी कितना कुछ कह दिया। उन्हें क्षमा करना बहन। वे हृदय से बुरे नहीं हैं। परिस्थितियों ने उन्हें कटु बना दिया है।"
"ठीक है दीदी। तुम विश्राम करो।"
"जलंधरा! मुझे अत्यंत भय होता है। आर्यपुत्र अभी इतने उद्विग्न हैं, यदि सब ऐसा ही चलता रहा तो हमारा जीवन साक्षात नर्क बन जायेगा। इस कठिनाई से मेरे कान्हा ही कोई मार्ग निकाल सकते हैं। मुझे उनसे मिलना होगा, उनसे विनती करनी होगी कि वे किसी भी रीति से आर्यपुत्र के लिए हस्तिनापुर का सिंहासन आरक्षित कर दें। मात्र वही ऐसा कर सकते हैं। पांडव उनकी बात अवश्य मानेंगे।" कुछ विचार कर भानुमति पुनः बोली, "परन्तु मैं उनसे कैसे मिल सकती हूं! आर्यपुत्र ने तो कान्हा से मिलना निषेध कर दिया है। महादेव! मैं क्या करूँ?"
भानुमति को बिलखता देखकर जलंधरा बिना सोचे समझे बोल पड़ी, "तुम्हारा यह संदेश लेकर मैं जाऊंगी श्रीकृष्ण के पास। तुम निश्चिंत हो जाओ। तुम जैसा चाहोगी, वैसा ही होगा। यदि जैसा तुम कहती हो, श्रीकृष्ण तुमसे उतना ही प्रेम करते हैं तो उन्हें ऐसा वचन देना ही होगा। चलो, तुम विश्राम करो। मैं अतिशीघ्र उनसे मिलने का प्रयास करती हूं।"
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जलंधरा ने कह तो दिया परन्तु उसके लिए श्रीकृष्ण से मिलना इतना सरल भी नहीं था। वे भानुमति के भाई थे पर उसके लिए तो परपुरुष ही थे। वह सीधे ही उनके पास नहीं जा सकती थी। किसी माध्यम की आवश्यकता पड़ती और विचारों के अश्वों ने उसे मध्यम पांडव के सम्मुख खड़ा कर दिया। यद्यपि भीमसेन से भी उसका कोई लौकिक संबंध नहीं था पर प्रेम इहलोक को मानता ही कहाँ है। उसने भानुमति की सेविका राधा को निर्देश दिया कि वह भीमसेन के कक्ष में जाकर उनसे निवेदन करे कि जलंधरा उनसे मिलना चाहती है। राधा काशी से भानुमति के साथ ही आई थी अतः विश्वसनीय थी। भीम इस गुप्त मिलन को लेकर उत्साहित तो थे ही परन्तु आशंकित भी थे कि क्या बिना संबंध के किसी स्त्री से इस प्रकार मिलना उचित होगा? कदाचित न हो परन्तु अवश्य ही कोई अतिगम्भीर बात होगी जो काशी की राजकन्या को ऐसा करने की आवश्यकता आन पड़ी हो। अतः इसे आपद्धर्म मान कर उन्होंने राधा को इस भेंट की स्वीकृति दी और महल के किसी निर्जन कोने में जलंधरा की प्रतीक्षा करने का वचन दिया।
इस प्रकार चोरी-छिपे किसी स्त्री की प्रतीक्षा करना भीम की प्रकृति के विपरीत था परन्तु था बहुत रोमांचक। इतना रोमांच तो उन्हें तब भी नहीं हुआ था जब वे बालपन में रन्धनशाला में पके सभी पकवानों को चोरी से चट कर जाते थे।
कुछ ही समय पश्चात उन्हें दो स्त्रियां आती हुई दिखाई दी जिसमें से एक सेविका राधा थी। वह कुछ दूर ही रुक गई। अवगुंठन डाले दूसरी स्त्री उनके समीप आई और उन्हें प्रणाम किया।
उछलते हृदय से भीम ने पूछा, "जिस व्यक्ति से समूचा आर्यावर्त, यहां तक कि राक्षसावर्त भी कांपता हो उसे चोरों की भांति यहां अपनी प्रतीक्षा कराने वाली हे स्त्री! तुम कौन हो?"
अपनी हँसी दबाती हुई जलंधरा बोली, "मैं एक याचक स्त्री हूँ जो क्षत्रिय शिरोमणि मध्यम पांडव, राजा वृकोदर के पास एक निवेदन लेकर आई है।"
"राजा वृकोदर सुन रहे हैं। किसी याचक को नहीं कहना तो धर्मराज ने हमें सिखाया ही नहीं। तो तुम जो कुछ भी चाहती हो वह तुम्हें दिया जाएगा। बताओ तुम्हें क्या चाहिए।"
"अनुग्रहित हुई राजन। मुझे वासुदेव कृष्ण से मिलना है। गुप्त रीति से, और मैं आपको इसका कारण नहीं बता सकती।"
यह विचित्र निवेदन था। कहाँ तो भीम प्रेम भरा हृदय लेकर अत्यंत आशान्वित होकर आए थे कि यह भेंट उनसे सम्बंधित होगी परन्तु यह तो कोई कपटनीति प्रतीत हो रही थी। अस्तु, वे वचन दे चुके थे और उन्हें पूर्ण विश्वास था कि कृष्ण ऐसा कुछ कभी नहीं करेगा जो पांडवों के अनुकूल न हो। भीम प्रकटतः बोले, "हे ईश्वर! ऐसा क्या है कि संसार की सभी स्त्रियां इस काले कृष्ण से मिलना चाहती हैं! एक द्रौपदी क्या कम थी जो अब तुम भी? ठीक है! जैसा तुम चाहो। कल मध्याह्न मैं कृष्ण को मल्लों के अखाड़े में ले आऊंगा। वहीं मल्लों के मुखिया की कुटी में तुम कृष्ण से मिल लेना। कोई और बात हो तो वह भी बताओ।"
"नहीं राजा वृकोदर, इतना पर्याप्त है।"
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भानुमति_20
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हस्तिनापुर में ऊपरी तौर पर सब सामान्य दिख रहा था। जनता प्रसन्न थी कि उनके प्रिय पांडव न केवल जीवित थे, अपितु उन्होंने पीढ़ियों से चली आ रही कुरु-पांचाल शत्रुता का भी अंत कर दिया था। उन्हें कदाचित इससे अधिक अंतर नहीं पड़ने वाला था कि भावी राजा कौन होगा। उन्होंने चले आ रहे राजतंत्र में कभी कोई त्रुटि देखी ही नहीं थी। अभी तक के सभी राजा धर्मपरायण और प्रजापालक हुए थे, राजा धृतराष्ट्र भी। यद्धपि इसके लिए गंगापुत्र भीष्म के कठोर अनुशासन और दासी-पुत्र महात्मा विदुर की चौकन्नी व न्यायी दृष्टि का अधिक योगदान था। परंतु उच्च वर्ग होने वाले सत्ता संघर्ष को देख रहा था। पांडव अब तक मात्र इसलिए दबते आये थे कि धृतराष्ट्र-पुत्रों के पास धृतराष्ट्र के राजा होने के कारण अतिरिक्त लाभ हुआ करते थे। परंतु अब वे द्रुपद के जामाता और यादवों सहित विराट, सुनीत जैसे राजाओं के मित्र थे। अब उन्हें अपना अधिकार चाहिए था, अब वे बराबरी के स्तर पर थे।
दोनों ही पक्ष अपना पलड़ा भारी करने के लिए अतिरिक्त प्रयास कर रहे थे। दुर्योधन ने आंतरिक कूटनीति को संभाल रखा था, अतः अब बाहर के शक्तिशाली राज्यों से मित्रता हेतु प्रयत्नशील था। रुक्मि, शिशुपाल, जयद्रथ और जरासंध के राज्यों में उसने दूत भेजे थे। वहीं, पांडवों ने शक्तिशाली राजाओं से मित्रता कर ली थी, अब उनका ध्यान राज्य के आंतरिक स्तम्भों को अपनी ओर मिलाने पर केंद्रित था। सहदेव राज्य पर प्रभाव रखने वाले ब्राह्मणों से सम्पर्क में थे, वहीं नकुल ने श्रेष्ठियों को संभाला हुआ था। अर्जुन अपने क्षत्रिय मित्रों के साथ विरोधी पक्ष के क्षत्रियों को साधने में लगे थे। युधिष्ठिर भी कुल-वृद्धों का आशीर्वाद प्राप्त करते। वहीं भीम, अपने मृदु स्वभाव के कारण सेवकों जैसे मल्लों, साधारण सैनिकों, रसोइयों, साधारण शिक्षकों के प्रिय थे। उनके साथ उठते बैठते, उनकी रसोई की मोटी रोटी और प्याज खाते, उनके बच्चों को कंधे पर बिठाकर घुमाते, ठिठोली करते रहते। राजसभा बैठने से पूर्व, विवाहोत्सव की एक माह की अवधि में ही अधिकांश प्रजा पांडवों में अपना भविष्य देखने लगी थी।
जलंधरा के अनुरोध को पूरा करने के लिए भीम प्रातः ही कृष्ण के पास पहुंच गए। कॄष्ण सहदेव के साथ दर्शन के विवाद में उलझे हुए थे। भीम ने कुछ समय तक तादात्म्य प्राप्त करने की प्रतीक्षा की, फिर खीझ कर कह उठे, "जीवन को इतना दुष्कर बना देने वाले इन दर्शनों की आवश्यकता ही क्या है? क्यों नहीं हम एक सामान्य जीवन जी लेते? खाना, सोना और युद्ध करना ही तो जीवन है, इसमें इतने अधिक वाद-विवाद की क्या आवश्यकता?"
कृष्ण मुस्कुराते हुए बोले, "बात तो आपकी ही सही है भैया, पर कुछ मानसिक व्यायाम भी तो चाहिए मानव मष्तिष्क को! अन्यथा वह भी पशुओं जैसा नहीं हो जाएगा!"
भीम ने व्यायाम शब्द को पकड़ लिया और बोले, "अच्छा कृष्ण! भैया बलराम को देखकर लगता है कि उन्होंने चारूण का वध कर दिया होगा, परन्तु तुम तो कितने सुकोमल दिखते हो, इस महाज्ञानी सहदेव की तरह। तुम्हारी मांसपेशियां तक नहीं दिखती। तुमने किस भांति मुष्टिक और कंस का वध कर दिया? मल्ल युद्ध में निष्णात इन योद्धाओं का तुम्हारे हाथों वध! विश्वास नहीं होता।"
"तो आपको विश्वास दिलाने के लिए मुझे क्या करना होगा मझले भैया? क्या आप मुझसे द्वंद की इच्छा रखते हैं?"
"अरे नहीं, तुम्हें पराजित कर मुझे कोई प्रसन्नता नहीं होगी। और यह आम जनता जो तुम्हें देवता की भांति पूजती है, उसका विश्वास हिल जाएगा। परन्तु तुम्हारा हस्तलाघव और दांव-पेंच देखने की अभिलाषा है। यदि उचित समझो तो मेरे साथ संध्या को मल्लों की बस्ती चलो। वहीं किसी कमजोर मल्ल से तुम्हारी भिड़ंत करा देंगे।"
कृष्ण समझ तो रहे थे कि अवश्य ही कोई बात है जो भीम इतनी योजना बना रहे हैं। परंतु उन्हें न कहने का तो प्रश्न ही नहीं था। वे भीम थे, उन्हें उठाकर भी ले जा सकते थे। उन्होंने साथ चलने की सहमति दी और भीम के जाने के पश्चात सहदेव के साथ पुनः चर्चा में व्यस्त हो गए।
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हस्तिनापुर के मल्ल जन्म से ब्राह्मण थे। इनका मूल स्थान राजा कुन्तिभोज का राज्य था। जब कुंती का विवाह महाराज पांडु से हुआ, इनका कुल भी कुंती के साथ ही हस्तिनापुर आ बसा। इस कुल के पुरुष कुश्ती लड़ते, युवकों को कुश्ती सिखाते। इनमें से कुछ द्रोण की पाठशाला के कर्मचारी थे। स्त्रियां राजकुल की नारियों की सेवा में रहती। भीम कुंती-पुत्र थे इसलिए सभी मल्ल भीम से बहुत स्नेह रखते, इसके अतिरिक्त वे मल्लयुद्ध में निष्णात थे ही। मल्लों के साथ हेल-मेल का एक विशिष्ट लाभ यह भी था कि भीम को मल्लों के माध्यम से अत्यंत गुप्त सूचनाएं भी प्राप्त हो जाती। राजपुरुष मदिरा के नशे में अपनी पत्नियों से सारा भेद बता देते जिन्हें मल्ल स्त्रियां सुनकर अपने पुरुषों को बता देती। राज्य में अनेक गुप्तचर संस्थाए थी, जैसे राज्य का अपना आधिकारिक गुप्तचर विभाग, विदुर तथा शकुनि के स्वतंत्र दल, परन्तु जितनी सटीक जानकारी भीम के ये स्नेही, अवैतनिक गुप्तचर मल्ल दे देते, उतनी पहुंच किसी की नहीं थी।
मल्लों के सरदार ने भीम और कृष्ण का हार्दिक स्वागत किया। भीम तो उनके अपने थे ही, परन्तु कृष्ण की कथाओं ने उन्हें सशरीर भगवान ही बना दिया था। बस्ती का प्रत्येक मनुष्य उनके दर्शनों के लिए पागल हो उठा। कृष्ण का प्रेम सबके लिए था। उन्होंने बालकों को उपहार दिए, बड़ों को प्रणाम किया। उनकी मोहक मुस्कान ने महिलाओं का हृदय चुरा लिया। किसी के पुत्र बन गए तो किसी के पिता, किसी के भाई तो किसी के सखा। युवा और अनुभवी पुरुष उन्हें कंस और मुष्टिक के हन्ता के रूप में जानते थे परन्तु उनके सुकोमल शरीर को देखकर कोई विश्वास नहीं कर पाता था।
भीम ने मुखिया को ललकार कर कहा, "क्यों काका! है कोई जो मेरे इस भाई को मल्लयुद्ध में पराजित कर दे?"
मुखिया ने हाथ जोड़कर कहा, "हमारा अहोभाग्य जो मल्ल विद्या के आचार्य श्रीकृष्ण स्वयं यहां पधारे हैं। हम वर्षों से इसकी चर्चा करते रहे कि कैसे इन्होंने चौदह-पंद्रह वर्ष की आयु में इतने विख्यात मल्लों को पराजित कर दिया। मेरी आयु मुझे अनुमति नहीं देती कुमार अन्यथा श्रीकृष्ण से कुश्ती के कुछ गुर अवश्य सीखता। यदि उचित समझें तो मेरे ज्येष्ठ पुत्र को यह अवसर प्राप्त हो।"
मुखिया का ज्येष्ठ पुत्र सोमेश्वर हस्तिनापुर के मल्लों का गर्व था। आचार्य द्रोण की पाठशाला के उच्चतम कर्मचारी ने श्रीकृष्ण को प्रणाम कर उनसे द्वंद की अनुमति मांगी। श्रीकृष्ण हंसते हुए एक कुटिया में गए और लंगोट कस कर अखाड़े में पहुंच गए। अखाड़े की मिट्टी को बारम्बार दूध से सान कर तथा सुखा कर तैयार किया गया था। चूंकि यह भीम का व्यक्तिगत अखाड़ा था, अतः मिट्टी में चंदन का चूर्ण भी मिलाया गया था। सोमेश्वर ने इतना सुकोमल और सपाट पेट वाला प्रतिद्वंदी नहीं देखा था। भीम के संकेत पर दोनों ने ताल ठोकी और एक दूसरे को परखने लगे। सोमेश्वर जब भी कोई दांव लगाता, कृष्ण मछली की तरह फिसल कर निकल जाते। उसने सदैव ही आक्रामक शैली देखी अथवा सीखी थी, कृष्ण की शैली रक्षात्मक थी। वे बारम्बार बच निकलते जिससे सोमेश्वर को अपना ही संतुलन संभालने में अतिरिक्त परिश्रम की आवश्यकता पड़ती। कुछ ही समय में सभी को समझ आ गया कि यह योद्धा विशिष्ट है। अब उनकी छुपी मांसपेशियां स्पष्ट दिखने लगी थी, वे कुछ-कुछ अर्जुन जैसे दिख रहे थे। अचानक ही जैसे बिजली कड़की हो, सोमेश्वर को उन्होंने बाहुकण्टक दांव में बांध लिया। यह भयंकर दांव था जिसमें फेंफड़ों पर विशेष दबाव दिया जाता था, जैसे ही पहलवान अपनी श्वास छोड़ता, दबाव और बढ़ जाता। फेंफड़ों से वायु निकलती अवश्य पर ताजी वायु प्रवेश नहीं कर पाती। धीरे-धीरे जीवनदायिनी वायु की शून्यता से मूर्छा अथवा मृत्यु हो जाती। सोमेश्वर के मूर्छित होने से पहले ही कृष्ण ने उसे छोड़ दिया। दर्शकों को कुछ पल तो समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या, परन्तु उन्होंने देखा कि उनका श्रेष्ठतम मल्ल कृष्ण के चरणों में अपना शीश झुकाने जा रहा था और कृष्ण ने उसे उठाकर अपने गले से लगा लिया। कृष्ण वासुदेव की जय से दिशाएं गूंज उठी।
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भीम व्याकुलता से इधर-उधर देख रहे थे कि उन्हें सेविका राधा दिखाई दी। वह मुखिया की कुटिया के बाहर खड़ी थी। भीम कृष्ण को एक कुटिया में ले गए और उनके शरीर पर लगी मिट्टी झाड़ते हुए बोले, "कृष्ण! मुझे अपना भेद जरूर बताना कि क्यों स्त्रियां तुमसे मिलने को इतनी उतावली रहती हैं।"
"क्या बात है भैया! अचानक ही मल्ल से हटकर स्त्रियों की बात! बताइये क्या बात है?"
"अरे कुछ विशेष नहीं! है एक दुखियारी जो तुमसे मिलना चाहती है। अब तुम तो जानते ही हो कि मुझसे किसी का दुख देखा नहीं जाता। तो मैंने उसे कह दिया था कि तुम उससे आज मिलोगे। मिलोगे ना?"
"अब आपकी आज्ञा कोई कैसे टाल सकता है! बताइये किधर जाना है।"
"बस मुखिया की कुटिया तक।"
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"भैया भीम ने बताया कि आप मुझसे मिलना चाहती हैं। बताइये, मैं किस भांति आपका सहायक हो सकता हूँ।"
कृष्ण के ऐसा कहने पर अवगुंठन डाली हुई स्त्री आगे बढ़ी और श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श करते हुए बोली, "मैं शरणागत हूँ। इस प्रकार आपसे मिलने के लिए यहां आकर मैंने मर्यादा भंग की है। भेद खुलने पर मेरा पितृकुल अपयश का भागी होगा। क्या मैं सुरक्षित हाथों में हूँ प्रभु!"
"यदि ऐसी बात थी तो तुम्हें यूँ नहीं आना चाहिए था। रही अपयश की बात तो कृष्ण ने सदैव ही महिलाओं की रक्षा की है। अस्तु, तुम भीम के हाथों भी सन्देश भिजवा सकती थी काश्या।"
काश्या, अर्थात काशी की पुत्री, जलंधरा ने अपना घूंघट हटाया और पूछा, "आपको कैसे पता कि यह मैं हूँ?"
"बलवान भीम के माध्यम से मिलने की इच्छा तो केवल बलंधरा ही कर सकती है। छोड़ो इन बातों को, और बताओ कि मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?"
"मैं भानुमति की ओर से आई हूं। वह आपसे मिलना चाहती है परंतु युवराज दुर्योधन ने उसे रोक दिया है। भानुमति मानसिक संताप में है प्रभु। यदि उसे सन्तोष प्रदान नहीं किया गया तो अनिष्ट की आशंका है।"
"भानुमति क्या चाहती है?"
"वह अपने पति के लिए हस्तिनापुर का राज्य चाहती है। वह अपने पति को प्रसन्न देखना चाहती है। आपसे वचन चाहती है कि हस्तिनापुर पर दुर्योधन का निर्बाध शासन हो।"
"और तुम क्या चाहती हो जलंधरा?"
"मैं! मैं अपनी दीदी की खुशी चाहती हूं।"
"यदि वैसा ही हुआ जैसा भानु चाहती है तो, तुमने विचार किया कि भीम का क्या होगा? दुर्योधन के होते भीम तो युवराज बनेंगे नहीं। भानुमति की इच्छा पूरी करने पर क्या भीम का अहित नहीं होगा?"
जलंधरा ने भावना में बहकर अपने ही भविष्य पर ग्रहण लगाने का प्रयास किया था, यह विचार आते ही उसकी आँखों से अश्रु बह चले, सिसकते हुए बोली, "हे ईश्वर! यह मैंने क्या किया? मैं राजा वृकोदर के मार्ग में बाधक कैसे बन गई?" उसने मुस्कुराते कृष्ण को देखा और कहा, "हे माधव, तुम भानुमति के भाई हो। अपनी इस विवश बहन की सहायता करो माधव।" और वह कृष्ण के चरणों में गिर पड़ी।
कृष्ण ने उसे उठाते हुए कहा, "बहन जलंधरा, भानु से कहना कि हस्तिनापुर दुर्योधन का ही रहेगा। और तुम भी निश्चिंत रहना, अगले वर्ष मध्यम पांडव युवराज के रूप में तुम्हारे स्वयंवर में भाग लेंगे।"
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भानुमति_21
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हाथ-मुंह धोकर कृष्ण और भीम खाने बैठे। भीम जब भी इस बस्ती में आते, संध्याकालीन भोजन यहीं करते। और कृष्ण तो थे ही प्रेम के भूखे। भोजन में प्रेम मिला हो तो कोई अंतर नहीं कि सामने राजमहल के छप्पन भोग रखे हैं या बथुआ का साग। भोजन के बीच में ही सोमेश्वर ने भीम के कान में कुछ कहा जिसे सुनकर भीम ने बाजरे की रोटी के बड़े-बड़े कौर निगलते हुए यथाशीघ्र अपना भोजन समाप्त किया और कृष्ण को बैठे रहने का संकेत कर उठ गए। सामान्य चाल से चलते हुए सोमेश्वर की कुटिया में गए। वहां सोमेश्वर अपनी पत्नी के साथ खड़ा था। भीम ने पूछा, "हां भैया सोमेश्वर! कोई अत्यंत ही आवश्यक बात होगी जो तुमने मुझे बीच भोजन से उठा दिया। बेचारी दाल मेरे बारे में क्या सोच रही होगी!"
सोमेश्वर ने निकट खड़ी एक स्त्री की ओर संकेत करते हुए कहा, "कुमार यह मेरी बहन है। आप इसी के मुख से सुनिये कि यह क्या कहना चाहती है।"
भीम के पूछने से पहले ही स्त्री हाथ जोड़कर बोली, "कुमार! मैं गांधार राज शकुनि की स्त्री की सेविका हूँ। उनके भवन में आने-जाने वाले बहुत सारे पुरुषों को पहचानती हूँ। बाहर की भीड़ में मुझे एक व्यक्ति शकुनि का सेवक प्रतीत होता है।"
"क्या तुम्हें संदेह है या पूर्ण विश्वास है?"
"संदेह है कुमार!"
सोमेश्वर की ओर देखते हुए भीम ने प्रश्न किया, "तुम्हारी बस्ती में कोई अनचीन्हा व्यक्ति घूम रहा है और तुमने ध्यान भी नहीं दिया?"
सोमेश्वर बोला, "क्षमा करें कुमार! सामान्य दिनों में अपरिचित व्यक्ति पहचान लिए जाते हैं परंतु आज इस बस्ती के लिए सामान्य दिन नहीं है। कितने ही अन्य बस्तियों के जन यहां वासुदेव के दर्शनों को आये हैं। अपितु, मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ, क्षमाप्रार्थी हूँ।"
"कोई बात नहीं। आओ जरा उस अवांछित व्यक्ति से निपटा जाए।"
थोड़ी ही देर में सोमेश्वर उस व्यक्ति को बहला-फुसला कर भीम के पास ले आया। भीम निपट अंधेरे कोने में खड़े थे। उस व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए बोले, "अपना परिचय दो कर्मचारी।"
भीम की आवाज पहचान कर वह थर-थर कांपने लगा। सम्भल कर बोला, "महाबली! मैं तो मात्र एक साधारण सा किसान हूँ जो कर जमा करने हस्तिनापुर आया था। यहां भीड़ लगी देखी तो कुश्ती देखने लगा था। यह तो सोचा ही नहीं था कि वासुदेव कृष्ण और मध्यम पांडव भीम के दर्शन हो जाएंगे।"
भीम ने उसकी हथेली टटोली और हिंसक आवाज में गुर्राते हुए बोले, "मिथ्या वचन न बोल दुष्ट। किसान की हथेलियां इतनी नरम? और तुझे कैसे पता कि मैं ही भीम हूँ? सोमेश्वर! इस दुष्ट की उंगली तोड़ दे।"
"त्राहि माम कुमार! त्राहि माम!"
"सत्य बोल। यदि सच बोलेगा तो जीवित रहेगा, अन्यथा अभी तेरा सर तोड़ दूंगा।" फिर थोड़े नम्र स्वर में बोले, "देख! मुझे ज्ञात है कि तू शकुनि का गुप्तचर है। तू अपने स्वामी की आज्ञा का पालन कर अपना कर्तव्य ही कर रहा है। जो पूछता हूँ, उसका सही-सही उत्तर देगा तो तुझे प्राणदान दे दूंगा।"
गुप्तचर ने हाथ जोड़ कर स्वीकृति में सर हिलाया। भीम ने नम्र स्वर में पूछा, "तू यहां किसके पीछे आया था?"
"वासुदेव के पीछे।"
कहीं इसने जलंधरा को पहचान तो नहीं लिया, यह पता लगाने के लिए भीम बोले, "अच्छा, जो स्त्री कृष्ण से मिलने आई थी उसे पहचानता है?"
"नहीं कुमार, मैं उन दोनों में से किसी को भी नहीं पहचानता।"
व्यक्ति अधिक चालाकी में ही मारा जाता है। भीम ने दो स्त्रियों के बारे में तो पूछा ही नहीं था। गुप्तचर को संकेत से अपने निकट बुलाकर, उसके कंधों पर हाथ रख कर भीम पुनः बोले, "अरे नहीं, नहीं। मैं भानुमति की सेविका राधा की बात नहीं कर रहा हूँ। दूसरी स्त्री जो कृष्ण से मिलने कुटिया के अंदर गई, तुमने देखा तो होगा ही, वो कौन थी? कुछ तो विचार होगा तुम्हारा?"
इतना मित्रवत स्नेह देखकर गुप्तचर की सारी सावधानी धरी रह गई। कहां तो कुछ पल पहले तक उसे प्राण जाने का भय हो रहा था, और अब भीम के इस व्यवहार ने उसे असावधान कर दिया। हाथ जोड़कर बोला, "मुझे विश्वास तो नहीं पर लगता है कि वे युवराज्ञी की बहन जलंधरा थी।"
सोमेश्वर को गुप्त संकेत कर भीम बोले, "हूँ! ठीक है गुप्तचर, अब तुम मुक्त हो। जाओ विश्राम करो।"
भीम को प्रणाम करने के लिए गुप्तचर उनके पैरों पर झुका ही था कि सोमेश्वर ने अपनी मुष्टिका के प्रहार से उसके प्राण हर लिए।
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अंततः वह दिन आ ही गया जिसके लिए इतनी अधिक कूटनीति बिछाई गई थी। आज हस्तिनापुर राजसभा की पूर्ण बैठक थी। आज यह निर्णय होना था कि सिंहासन किसे मिलेगा। कितनी विडम्बना की बात थी कि जिसे महाराज शांतनु के बड़े भाई ने एक तृण की भांति त्याग दिया था, देवव्रत अपने पिता शांतनु की इच्छापूर्ति हेतु एक पल में ब्रह्मचर्य व्रत लेकर जिससे विरक्त हो गए थे उसी सिंहासन के लिए इतनी मारामारी। भीष्म की स्पष्ट आज्ञा के बाद भी कि युधिष्ठिर का राजतिलक हो, इस सभा का आयोजन कुरु-परम्परा का क्षय ही था। कदाचित वे भले दिन बीत गए थे कि जब कुल-वृद्धों का कथन ही शासन हुआ करता था, उनकी इच्छाएं ही संविधान बन जाती थी।
पिछली रात्रि तक विभिन्न दलों की असंख्य बैठकें होती रही थी। इन बैठकों के केंद्र थे विदुर, शकुनि, द्रोण और कृष्ण के निवास स्थल। विभिन्न सभासद, सामंत, राजकर्मचारी, सैन्य अधिकारी जैसे राज्य के आधार-स्तम्भ इन बैठकों में सम्मिलित होते रहे थे। गुप्तचरों को बहुत परिश्रम करना पड़ता कि वे दूसरे दल की बातों को जान लें। विदुर को सूचना मिल गई थी कि अधिकांश सभासद और सामंत दुर्योधन के पक्ष में हैं। दुर्योधन में मित्र बनाने की अद्भुत क्षमता थी, यह भी था कि अधर्म आकर्षित करता है। युधिष्ठिर वह सब नहीं दे सकते थे जो दुर्योधन से उन्हें सहज ही प्राप्त हो सकता था। उसने तो युवावस्था के प्रारंभिक चरण में ही एक अनजाने से युवक को अंग देश का राजा ही बना दिया था। क्या युधिष्ठिर ऐसा कर सकते थे? वे मित्र बनाने के लिए भी अनुचित साधनों का प्रयोग नहीं कर सकते थे।
द्रोण का मत सबको पहले से ही पता था। वे सैन्य प्रमुख थे, उनके मत को हल्के में नहीं लिया जा सकता था। शकुनि ने उनसे कई बार भेंट की। अपने थुलथुल शरीर को उठाये वह लगभग प्रत्येक कुरु-सामंत के पास गया। उसने पिछली रात्रि का अधिकांश भाग मंत्री कुणिक को साथ लेकर महाराज धृतराष्ट्र के साथ मन्त्रणा में व्यतीत किया था।
इधर कृष्ण भी युधिष्ठिर के साथ मन्त्रणा में व्यस्त रहे थे। यद्यपि किसी को पता नहीं चला कि उन दोनों में क्या बात हुई।
सभा बैठी। महाराज धृतराष्ट्र थोड़े हड़बड़ाए से लग रहे थे। द्रोण तनकर बैठे थे, उनकी आंखें अधमुँदी सी प्रतीत हो रही थी पर वे चौकन्ने थे। भीष्म के कंधे झुके हुए थे। वे कभी सिंहासन पर बैठे धृतराष्ट्र को देखते, कभी सिंहासन के ऊपर छत्र को। यह छत्र पांडु के बाद से ही किसी अभिषिक्त राजा की प्रतीक्षा में बंद था। भीष्म स्वप्न में भी नहीं सोच सकते थे कि सत्ता का इतना मोह कि उनकी इच्छा का सम्मान न करते हुए यह सभा बुलाई गयी। मात्र इसलिए कि यह निर्णय लिया जाए कि सिंहासन पर किसका अधिकार है। भीष्म के अनुसार यह प्रश्न ही त्रुटिपूर्ण था, सिंहासन का अधिकारी मात्र युधिष्ठिर था, अन्य कोई नहीं। उन्हें कौन समझाए कि उनके आदर्शवाद का युग जाने कब का बीत चुका, यह यथार्थवाद का युग है। यहां जिसके पास शक्ति है, वही अधिकारी है।
धृतराष्ट्र गिड़गिड़ाते हुए बोला, "पितामह! आपकी आज्ञा हो तो सभा शुरू की जाए?"
भीष्म की स्वीकृति मिलने के पश्चात सर्वप्रथम दुर्योधन ही उठा और बोला, "पूज्य पिता महाराज, पितामह, आचार्य द्रोण, कुलगुरु कृपाचार्य एवं सभी गुरुजन, सभासद सुनें। मैं आपका युवराज हूँ, मुझे आप लोगों ने ही युवराज बनाया है। युवराज का अर्थ है होने वाला राजा। अब आज आप लोग यह निश्चित करने बैठे हैं कि युधिष्ठिर को राजा बना दिया जाए। मेरा प्रश्न है कि मुझे किस बात की सजा दी जा रही है? ध्यान रखें कि युधिष्ठिर को उनके युवराज पद से अपदस्थ कर दिया गया था। उस भीषण अग्नि कांड से पहले ही, पांडवों के जीवित रहते ही मुझे युवराज बनाया गया था। इस बीच ये सब मर गए, फिर जीवित हो गए, तो इससे मेरी स्थिति में क्यों अंतर आए? माना कि वह अग्निकांड हुआ ही न होता, तो भी मैं तो युवराज था ही। अब भी हूँ, तो अब ऐसा क्या हुआ है कि अचानक ही युधिष्ठिर को राजा बनाये जाने का प्रश्न पैदा किया गया।"
सबको चुप बैठा देख दुर्योधन पुनः बोला, "आप सभी शांत हैं। कदाचित किसी के पास उत्तर नहीं है! तो लीजिये, मैं ही उत्तर देता हूँ। अब नया यह हुआ है कि ये पांडव हमारे शत्रु द्रुपद के जामाता बन गए हैं। सभा में सम्माननीय बलराम उपस्थित हैं, उनको प्रणाम कर मैं कहता हूं कि इन्हें कृष्ण और उसकी गोप सेना तथा सात्यकि की मित्रता का अहंकार हो गया है। ये इतने यादवों और अपने मित्र राजाओं के साथ यहां आए हैं, सेनाएं भी साथ हैं इनके। क्या यह स्पष्ट नहीं कि यह हस्तिनापुर की इस राजसभा पर दबाव बनाने के लिए किया गया कुत्सित प्रयास है। क्या हम इनके दबाव में आकर निर्णय करेंगे? इनकी यह योजना सफल नहीं होनी चाहिए। अन्य राज्यों की सेनाएं लेकर ये हमारे राज्य में घुस गए हैं, यह शत्रुतापूर्ण आचरण हैं। मेरी सभा से विनती है कि इन्हें शत्रु मान कर हमारे इस राज्य से निष्कासित कर दिया जाए।"
दुर्योधन के चुप होने पर युधिष्ठिर सबका अभिवादन करते हुए बोले, "निवर्तमान युवराज दुर्योधन! तुम जो बार-बार यह कह रहे हो कि हम तुम्हारे राज्य में आ गए हैं तो बता दूं कि यह राज्य हमारा भी है। तुम्हारे पिता की तरह हमारे पिता ने भी यहां राज किया है। पितामह और काका विदुर जितने तुम्हारे हैं, उतने ही हमारे भी। तो यह न कहो कि हम तुम्हारे राज्य में आ गए हैं। रही मित्रों और संसाधनों की बात, तो क्या तुम्हारे विवाह पर तुम्हारे श्वसुर ने यौतक नहीं दिया था? महाराज द्रुपद ने अपने जामाताओं को उपहार में हाथी-घोड़े दिए तो तुम्हें उसमें क्या आपत्ति है? तुम कहते हो कि हमने राज्य के शत्रु से सम्बन्ध बनाया, तो तुम बीस भाई काम्पिल्य क्या करने आये थे? मित्र राजाओं और यादव भाइयों की बात करते हो, तो जरा बताओ कि इनमें से कौन तुम्हारा या हस्तिनापुर का शत्रु है? तुम इन्हें शत्रु मान ही क्यों रहे हो? तुमने राज्य और युवराज के सम्बंध में जो प्रश्न उठाये, उसका उचित उत्तर पितामह दे सकते हैं। पितामह से मेरी प्रार्थना है कि वे दुर्योधन तथा पूरी सभा को मार्गदर्शन दें।"
भीष्म ने अपने कंधे झाड़े और तन कर बैठ गए। पूरी सभा की ओर सिंहदृष्टि डालकर बोले, "जब महाराज पांडु ने सन्यास लेने का विचार किया था तो मैंने ही उन्हें राज्य का त्याग करने से रोक दिया था। प्रशासनिक व्यवस्थाएं सुचारू रूप से चलें इसलिए उन्होंने अपने प्रतिनिधि के तौर पर धृतराष्ट्र को बिठा दिया। ऐसा ही कुछ दुर्योधन तुम्हारे साथ भी हुआ। युवराज युधिष्ठिर ही था, परन्तु आंतरिक कलह से बचने के लिए तुम्हें युवराज बनाया गया और पांडवों को कुछ समय के लिए हस्तिनापुर से हटा दिया गया। पांडु के स्वर्गवासी होने के कारण धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर के स्वर्गवासी होने के भ्रम के कारण यह अस्थायित्व अधिक समय तक चल गया। पर है यह अस्थाई ही। सिंहासन का अधिकारी पांडु का यह ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर ही है।"
"यदि ऐसा ही था पितामह तो इन पाण्डवों से प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि जीवित होते हुए भी इन्होंने स्वयं को क्यों छुपाए रखा! क्यों ये उसी समय हस्तिनापुर वापस नहीं आये? इन्होंने ऐसा भ्रम क्यों बनाए रखा कि ये जीवित नहीं हैं? पितामह! ये अब आये हैं, शक्ति संचित कर। इतने सामर्थ्यशाली मित्रों के साथ। पूछिये इनसे कि इन्हें इसकी क्या आवश्यकता पड़ गई?"
भीष्म के मन में भी ये प्रश्न आये थे, उन्होंने युधिष्ठिर की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। युधिष्ठिर पितामह का हृदय दुखाना नहीं चाहते थे इसलिए ग्रीवा झुका कर बैठे रहे। यद्यपि वे चाहते थे कि उन्हें सत्य पता चले। भीम दुर्योधन के कुतर्कों से उबल पड़ने को तैयार थे। उन्होंने अपने अग्रज के चरणों की ओर देखा, पैर का अंगूठा उठा हुआ था, अर्थात उन्हें बोलने की अनुमति थी। उन्होंने मेघ गर्जन जैसे स्वर में कहा, "पितामह! अग्रज इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहते। परन्तु आपकी आज्ञा भी कैसे टालें! उनकी अनुमति से मैं आपको और इस सभा को बताता हूँ कि हम तत्काल ही हस्तिनापुर क्यों नहीं आये? पितामह! आपने हमें इसलिए निर्वासित किया था कि आपको कलह की आशंका थी। हम यदि वापस आ गए होते तो यहां रक्त की नदियां बहती। अग्रज शांतिप्रिय हैं परंतु वे भी हमारे उचित क्रोध को रोक नहीं पाते। अर्जुन के बाणों ने हत्यारोपियों की ग्रीवाएं छेद दी होती।"
अचंभित भीष्म ने आश्चर्य से कहा, "क्या कहना चाहते हो भीम? स्पष्ट कहो।"
"वारणाव्रत का अग्निकांड कोई दुर्घटना नहीं थी पितामह! यह सोचा समझा षड्यंत्र था। हमारे लिए बनाए गए भवन में ज्वलनशील पदार्थों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया था। सहदेव की बुद्धिमत्ता ने हमें जल मरने से बचाया। यदि यह केवल मेरी बात होती तो मैं स्वयं को संयत कर लेता परन्तु इस दुष्ट ने मेरी माता को भी जलाने का प्रयास किया था। यदि मैं उसी समय यहां आ जाता तो इस कपटी का सर तोड़ देता।"
दुर्योधन स्तम्भित रह गया। उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि भरी सभा में इस प्रकार से उस पर आक्षेप लगाया जा सकता है। उसके मुंह से बोल नहीं फूटा। अपने मित्र की सहायता करने के विचार से कर्ण बोला, "यह मिथ्या आरोप है कुमार भीम। क्या कोई साक्ष्य है तुम्हारे पास? यदि है तो प्रस्तुत करो, अन्यथा मिथ्या आरोप और मान हानि के लिए क्षमा मांगो।"
भीम विदुर का नाम ले सकते थे परंतु यह उनकी सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं होता। वे गरजते हुए बोले, "हम धर्मराज युधिष्ठिर के अनुज हैं अंगराज। मिथ्या वचन स्वप्न में भी नहीं बोलते। साक्ष्य चाहिए तो यह सभा विशेषज्ञों को भेजकर जांच करवा लें, उस महल की राख अब भी वहीं पड़ी हुई है। और यह तो सभी जानते हैं कि हमारा स्वागताधिकारी विरोचन इस दुर्योधन का विश्वस्त कर्मचारी था।"
भीष्म मुँह खोले भीम को देखे जा रहे थे। भीम ने उनकी ओर हाथ जोड़ कर कहा, "पितामह! हम भाइयों और हमारी माता की हत्या के प्रयास को सिद्ध करने हेतु ये साक्ष्य पर्याप्त होंगे। मैं इससे कई वर्ष पूर्व अपनी हत्या के लिए किए गए षड्यंत्र का साक्ष्य भी दे सकता हूँ। आपको याद होगा पितामह बालपन में एक बार सामूहिक क्रीड़ा के लिए हम सभी बालक प्रमाण कोटि गए थे और मैं कई दिनों बाद वापस आया था। आपने मेरी भर्त्सना भी की थी। पितामह! मुझे मोदक में विष दिया गया था। उस क्रीड़ा का आयोजक यही कपटी दुर्योधन था। जिस रसोइये ने भोजन बनाया था वह भी अभी हस्तिनापुर में ही कहीं होगा। मुझे विष ही दिया गया था, यह भी सिद्ध किया जा सकता है। हमारे साथ आये अतिथियों में नाग कुमार मणिमान भी हैं। मुझे इनके पितामह नागराज आर्यक ने बचाया था। भेजिए दूत और आपको सच्चाई पता चल जाएगी।"
भीम चुप होकर बैठ गए। सभा में सन्नाटा छा गया। पितामह को गहन आंतरिक पीड़ा हो रही थी। उन्हें यह तो पता था कि दुर्योधन राज्य पाने के लिए प्रयासरत रहता है पर उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि कोई कुरु राज्य के लिए किसी कुरु की हत्या भी कर सकता है। उन्होंने बड़ी व्यथित वाणी में कहा, "धृतराष्ट्र! मैंने इस राज्य की, इस कुल की शांति एवं समृद्धि के लिए अनथक प्रयास किए। पर इस कुल के कुमारों को संस्कार नहीं दे पाया। अब यह कुल एकजुट नहीं रह सकता। इन परिस्थितियों में आचार्य द्रोण की सलाह ही उचित है। कर दो राज्य का विभाजन।" इतना कहकर वे उठे और सभा छोड़कर चले गए।
कृष्ण उन्हें जाते हुए देखते रहे और विचार किया कि भीष्म जैसा ब्रह्मचारी व्यक्ति भी कितना मोहग्रस्त हो जाता है। कहाँ तो उन्हें दुर्योधन को सजा देनी चाहिए थी, और कहाँ वे उसे आधा राज्य देने के लिए सहमत हो गए। वंश का मोह ही तो है यह, अन्यथा जिसने हत्या का प्रयास किया और जिनकी हत्या का प्रयास किया गया, उन दोनों ही पक्षों के साथ समान व्यवहार का कोई अन्य कारण नहीं दिखता। धर्मात्मा भीष्म का यह अधर्म इस राज्य के लिए शुभ नहीं होगा।
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पितामह के चले जाने के पश्चात राजसभा कुछ पलों के लिए स्तब्ध रह गई थी। फिर फुसफुसाहटें शुरू हुई जो धीरे-धीरे प्रचण्ड शोर में परिवर्तित हो गई। धृतराष्ट्र के कहने पर प्रधानमंत्री विदुर ने सबको शांत करवाया। पूर्ण शांति के पश्चात धृतराष्ट्र बोले, "हमने दुर्योधन के विचार सुने। युधिष्ठिर का उत्तर भी सुना और भीम के आरोप भी। मैं राज्य का प्रमुख होने के अधिकार से युधिष्ठिर से पूछता हूँ कि क्या वह दुर्योधन के विरुद्ध औपचारिक रूप से अभियोग प्रस्तुत करना चाहता है?"
युधिष्ठिर बोले, "नहीं महाराज! हम ऐसा नहीं चाहते। यदि राज्य अपनी ओर से चाहे तो अभियोग प्रस्तुत कर सकता है।"
"पुत्र युधिष्ठिर! मेरा विचार है कि हमें पुरानी बातें भूलकर भविष्य की ओर देखना चाहिए। यद्यपि पितामह की आज्ञा है कि राज्य को विभाजित कर दिया जाए, परन्तु मैं तुम्हारी राय जानना चाहता हूं। क्या तुम इस विभाजन से सहमत होगे?"
"राज्य की ही भलाई के लिए मुझे अपने भाइयों सहित विभाजन स्वीकार होगा महाराज।"
"तो क्या इसके लिए कोई समिति स्थापित की जाए जो यह सुझाव दे कि राज्य का का बंटवारा किस भांति हो?"
"यदि आपका ऐसा विचार है तो यही करें। परन्तु इसमें अत्यधिक विलंब होगा। अनावश्यक तर्क-वितर्क होंगे। मुझे आप पर पूर्ण विश्वास है। अतः मेरा विनम्र निवेदन है कि आप अभी निर्णय कर दें। आप जो भी निर्णय करेंगे, हम भाइयों को स्वीकार होगा।"
धृतराष्ट्र विचार में पड़ गया, या कदाचित विचारमग्न होने का प्रपंच कर रहा हो। कुछ पलों बाद बोला, "पुत्र युधिष्ठिर! हस्तिनापुर राज्य बहुत विशाल है। हमारे पूर्वजों ने अपने बाहुबल और परिश्रम से इस साम्राज्य का निर्माण किया है। प्राचीन काल में हमारी राजधानी हस्तिनापुर के स्थान पर खांडवप्रस्थ हुआ करती थी। खांडवप्रस्थ का पूरा क्षेत्र स्वीकार करो। तुम्हारे राज्य का अपना विधान और अपनी पताका हो। तुम हस्तिनापुर के मांडलिक राजा नहीं अपितु आर्यावर्त के एक स्वतंत्र राजा होगेे, खांडवप्रस्थ एक सम्प्रभु राज्य होगा।"
धृतराष्ट्र का यह निर्णय पक्षपात की पराकाष्ठा थी। यद्यपि उसके वचन प्रेरक प्रतीत हो रहे थे परंतु वे कोरे शब्द ही थे। युधिष्ठिर के राज्य को स्वतंत्र राज्य होना ही था, परंतु खांडवप्रस्थ! खांडवप्रस्थ रही होगी कभी कुरुओं की राजधानी पर यह शताब्दियों पूर्व की बात है। यदि एक वर्ष भी किसी स्थान को बस यूँ ही छोड़ दिया जाए तो वहां झाड़-पात उग जाता है, यहां तो कई शताब्दियां बीत गई थी। यह सच है कि खांडवप्रस्थ हस्तिनापुर के अधिकार क्षेत्र में आता था परंतु वहां राज्य-प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं थी। वहां न कोई अधिकारी था न ही कोई सैनिक चौकी। इनकी आवश्यकता तो तब पड़ती है जब उस स्थान पर कोई नागरिक रहता हो। वहां राज्य का कोई भी पंजीकृत नागरिक नहीं रहता था। सुनी-सुनाई बात थी कि वहां वन में कुछ नाग और राक्षस बस्तियां हैं। कदाचित कुछ बड़ी शक्तियां जैसे देवों और गन्धर्वों की छुपी बस्तियां भी हैं जिनकी कोई पक्की सूचना हस्तिनापुर को नहीं थी। ऐसा वन जिसकी धरती ने वर्षों से सूर्य की किरण तक नहीं देखी, इतना सघन कि कोई रथ प्रवेश नहीं कर सकता। पग-पग पर कठोर चट्टानें तो कहीं दलदल।
वन्य-जीवों से भरा यह निर्जन प्रदेश दिया धृतराष्ट्र ने! ऐसे अन्याय की आशा किसी ने भी नहीं की थी। युधिष्ठिर स्तम्भित रह गए थे, उनकी समझ में नहीं आया कि वे क्या कहें। उन्होंने अपने भाइयों को देखा, भीम के अतिरिक्त सभी सिर झुकाए उदास बैठे थे। भीम प्रचण्ड क्रोधित थे। युधिष्ठिर उन्हें देख पश्चाताप से भर गए कि मेरे इन वीर भाइयों को मात्र मेरे कारण इतना कुछ सहन करना पड़ता है। उनकी दृष्टि कृष्ण पर पड़ी, वे मुस्कुरा रहे थे। उनकी मुस्कान में आश्वस्ति का भाव था। जैसे कह रहे हों कि आप निश्चिंत रहें, मैं आपके साथ हूँ। कृष्ण भले ही आयु में उनसे छोटे हों पर युधिष्ठिर राजनीति एवं कूटनीति में उन्हें अपना गुरु मानते थे। यदि कृष्ण मुस्कुरा रहे हैं, यदि वे साथ हैं तो इससे अंतर नहीं पड़ता कि पांडव नगर में हैं कि वन में। उन्होंने मन ही मन अपने राजनैतिक गुरु को प्रणाम किया और उच्च स्वर में बोले, "मुझे एवं मेरे भाइयों को आपका निर्णय स्वीकार है महाराज। राज्याभिषेक होते ही हम खांडवप्रस्थ चले जायेंगे।"
सभा साधु-साधु कह उठी। दुर्योधन का दल उछल पड़ा। अपने मनोभावों को छुपा लेने में प्रवीण गांधार-राज शकुनि का मुखमंडल दमक उठा। सभा के शांत होने पर कृष्ण उठे और धृतराष्ट्र को प्रणाम करते हुए बोले, "साधु महाराज! साधु। आपका यह सत्यनिष्ठ निर्णय अत्यंत उचित है। ऐसा निर्णय आप ही कर सकते थे। परंतु मैं देख रहा हूँ कि सभा में उपस्थित अधिसंख्य लोग आपका मंतव्य सही से समझ नहीं पाए। इन्हें लग रहा है कि आपने मात्र भूमि का बंटवारा किया है, परन्तु राज्य मात्र भूमि ही तो नहीं है! है ना महाराज?"
धृतराष्ट्र हड़बड़ा उठा। शकुनि सशंकित हो उठा कि अब यह छलिया कौन सा छल करने वाला है। विदुर आश्वस्त और युधिष्ठिर आशान्वित हो उठे कि कृष्ण के होते पांडवों के साथ अन्याय नहीं हो सकता। कृष्ण कुछ पल रुकने के पश्चात पुनः बोले, "महाराज आप यशस्वी कुरु-वंश के राजा है। वह कुरु-वंश जिसकी न्यायप्रियता पूरे आर्यावर्त में प्रसिद्ध है। कदाचित महाराज पूरी बात नहीं कह पाए। जितना मैं उन्हें समझ पाया हूँ, उनकी अनुमति से आप सभी के सम्मुख कहना चाहता हूं।"
अंधे राजा ने सर हिलाकर अनुमति प्रदान की। कृष्ण बोले, "महाराज ने कौरवों के राज्य को बराबर टुकड़ों में बांट दिया है। राज्य की भूमि का एक हिस्सा पांडवों को मिला और दूसरा हिस्सा धृतराष्ट्र-पुत्रों को। इसी प्रकार अन्य संसाधनों का बंटवारा भी होगा। राज्य में जितना स्वर्ण तथा रजत के रूप में धन, मणि-माणिक्य, अश्व, गौ, हाथी, अन्न तथा वस्त्र भंडार है उन सबका आधा भाग पांडवों को मिलेगा। मैं सही कह रहा हूँ न महाराज?"
महाराज ने तो यह सोचा ही नहीं था कि बंटवारे का अर्थ यह भी होगा कि धन-संपदा भी देनी पड़ेगी। अपनी ज्योतिहीन पलकें झपकाते उसने कृष्ण की बात का अनुमोदन किया। कृष्ण पुनः बोले, "राज्य की सेना का भी बंटवारा होगा। सैन्य उपकरण तो आधे-आधे हो जाएंगे पर सैन्य अधिकारियों और सैनिकों का क्या? मेरा सुझाव है कि यह निर्णय उनके स्वविवेक पर छोड़ दिया जाय कि वे किस राज्य को अपनी सेवा देना चाहते हैं। नागरिक भी तो राज्य का अंग है, अपितु सबसे प्रमुख अंग। तो जो नागरिक पांडवों के राज्य में जाना चाहें उन्हें जाने दिया जाय। वे अपनी चल सम्पत्ति को गाड़ियों में लादकर ले जा सकते हैं परन्तु अचल संपत्ति का क्या? यह तो उसके साथ अन्याय होगा कि राज्य के बंटवारे में उसकी हानि हो! तो उनकी अचल संपत्ति का मूल्य उन्हें दिया जाए।" इतना बोलकर वे बैठ गए।
दुर्योधन का दल जो कुछ समय पहले तक चहक रहा था, निष्प्राण प्रतीत होने लगा। पांडव और उनके मित्र प्रसन्न हो उठे। यह वस्तुतः चमत्कार ही था कि जिन पांडवों को निर्जन भूमि दी जा रही थी, अब वे सम्पदा में बराबर के भागीदार थे। विदुर ने तुरन्त ही राजाज्ञा तैयार करवाई और कृष्ण के सुझाये उपायों को लिपिबद्ध करवाकर धृतराष्ट्र के हस्ताक्षर के रूप में उस पर शासकीय मुद्रा लगा दी। इधर कृष्ण ने बलराम सहित अन्य यादव प्रमुखों से एक छोटी सी मन्त्रणा की। मन्त्रणा समाप्त होने पर वे पुनः उठे और राजा की आज्ञा लेकर बोले, "आदरणीय हस्तिनापुर नरेश, हम यादव द्रौपदी के स्वयंवर में भाग लेने काम्पिल्य आये थे। कितनी प्रसन्नता की बात है कि आपके भतीजों से उसका विवाह हुआ। पांडव हमारी बुआ के पुत्र हैं। अब वे एक स्वतंत्र राज्य के शासक भी हैं। हम यादव अपने भाइयों को उनके विवाह के उपलक्ष्य में कोई भेंट नहीं दे पाए थे। आज भ्राता युधिष्ठिर के राजा बनने की घोषणा के बाद हम इन्हें कुछ भेंट देना चाहते हैं। भैया बलराम तथा अन्य यादव प्रमुखों की अनुमति से तथा यादवों के मुखिया राजा उग्रसेन के प्रतिनिधि के रूप में मैं वासुदेव कृष्ण यह घोषणा करता हूँ कि द्वारका में जितनी भी धन-संपदा है, उसका पांचवा भाग पांडवों को उपहार-स्वरूप दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त नए नगर के निर्माण में जितना भी मानव-श्रम लगेगा उसकी निर्बाध आपूर्ति हम यादव करेंगे। बलराम भैया तथा मैं अगले एक वर्ष तक पांडवों के साथ रहेंगे।"
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भानुमति_22 (अंतिम भाग)
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जब राधा समाचार लाई कि हस्तिनापुर राज्य का बंटवारा हो गया, अब पांडव राजधानी छोड़कर चले जायेंगे और कहीं दूर किसी वन में अपनी नई राजधानी बनाएंगे तो भानुमति को थोड़ा बुरा लगा। जाने किस अपराध की सजा भुगत रहे थे पांडव जो राजवंश में जन्म लेने के बाद भी बेचारों को सदा ही नगरों से दूर वनों में रहना पड़ता था। माता कुंती और उनके सभी पुत्रों को तो माना कि वन में रहने का अभ्यास था पर याज्ञसेनी द्रौपदी! वह तो महलों में पली एक सुकुमारी ही है, कैसे रह पाएगी वन में या किसी निर्माणाधीन नगर में? हिंसक वन्य पशुओं, पथरीले मार्गों, दलदली भूमि और विषधर सर्पों से भरे अंधेरे वन, तत्पश्चात नगर निर्माण के समय श्रमिकों और उनके श्रम का कोलाहल, उनके स्वेद की गंध, मार्ग की धूल जैसी न जाने कितनी छोटी-बड़ी बातें। पर नहीं, उनके साथ कान्हा भी तो है! भानुमति स्वयं से प्रश्न करती है कि क्या कान्हा के साथ किसी वन में रहना किसी राजमहल में रहने से अधिक श्रेयस्कर नहीं है?
काश कि उसे यह सौभाग्य मिलता कि वह द्रौपदी के स्थान पर कृष्ण के साथ वन में रहती। कितना सुंदर होता कि आर्यपुत्र दुर्योधन और कृष्ण मिलकर द्वारिका जैसी किसी नगरी का निर्माण करते। काश कि उसके पति भी पांडवों की भांति कृष्ण के मित्र बन पाते। परन्तु जो हो, कृष्ण ने अपना वचन निभाया, दुर्योधन के लिए हस्तिनापुर का राज्य निष्कंटक कर दिया।
क्या सही में कृष्ण ने बंटवारे के लिए वास्तव में कुछ किया था? प्रत्यक्षतः दिखता तो नहीं, परन्तु इतना तो है कि यदि वे न चाहते तो ऐसा कदापि नहीं हो पाता और कहते भी हैं कि होता वही है जो वे चाहते हैं। पांडव परिवार में भीम और नकुल जैसे क्रोधी स्वभाव के सदस्य भी हैं, कृष्ण के अतिरिक्त कोई भी ऐसा नहीं जो उन्हें उनके अपने मत के विपरीत मत पर सहमत कर सके।
भानुमति कुछ पलों तक पांडवों के साथ होते आ रहे सतत अन्याय पर शोक प्रकट करती रही, पर कब तक? थी तो वह भी एक सामान्य मानवी ही, अपना स्वार्थ सभी को प्रिय होता है। अब उसका पति हस्तिनापुर का स्वामी था। यद्यपि उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था कि उसके पति के पास कौन सा पद है, पर उसके पति की चिर-अभिलाषा राजा बनने की थी। अब वह राजा था। सुना कि आंतरिक व्यवस्था के तहत, दुर्योधन को अब राजा दुर्योधन के नाम से सम्बोधित किया जाएगा, कार्यकारिणी शक्ति भी उसी के पास रहेगी, यद्यपि धृतराष्ट्र राजसिंहासन पर बैठे रहेंगे परन्तु कोई भी राजाज्ञा दुर्योधन के परामर्श के पश्चात ही पारित होगी।
भानु अपने पति की अभिलाषा पूर्ण हो जाने से अत्यंत प्रसन्न थी। वह अपने कान्हा से मिलकर उन्हें धन्यवाद कहना चाहती थी परन्तु उसे इसकी अनुमति नहीं थी। अनुमति नहीं थी तो क्या हुआ, वह सशरीर कृष्ण का सानिध्य नहीं प्राप्त कर सकती थी तो प्रतीकात्मक ही सही। वह अपने निजी उद्यान में गई और कुछ मोरपंख ढूंढ निकाले। सेविकाओं से थोड़ा माखन मंगाया और अपनी सखियों में वितरित कर दिया। अपनी प्रिय गौ के पास गई और उसके ग्रीवा में झूल गई। वह कदम्ब के वृक्ष के नीचे भूमि पर ही लेट गई। मन तो उसका काल्पनिक कृष्ण के साथ नृत्य करने का था पर उसकी गर्भावस्था उसे इसकी अनुमति नहीं दे रही थी।
..... गर्भ! अहा! उसने अपने उभरे पेट पर अपनी हथेली रखी और जैसे अंदर से कुछ हिला हो, और जो हिलता ही चला जा रहा हो। कदाचित अपनी माँ को नृत्य करने से रोकने का कारण बनने की क्षतिपूर्ति करने के लिए वह अजन्मा कुरु स्वयं ही नृत्य करने लगा हो। भानुमति अपने पेट पर बनते-छुपते उभारों को प्रेम से देखती रही, उसे सहलाते हुए बोली, "बस कुछ ही सप्ताह पुत्र, बस कुछ ही सप्ताह। तब तू अपनी माता के शरीर से मुक्त होगा और मन भर कर नृत्य कर पाएगा। तू अभी निश्चिंत होकर आराम कर पुत्र, अब तेरे लिए इस बाह्य जगत में कोई समस्या नहीं है। तुझे अपने पिता की तरह संघर्ष नहीं करना होगा, तेरा जीवन ईर्ष्या और ग्लानि से विषाक्त नहीं होगा। तेरा अधिकार अक्षुण्ण रहेगा पुत्र।"
सेविका राधा अपनी स्वामिनी की इन बातों को सुन मुस्कुरा रही थी। भानुमति ने उसे यूँ मुस्कुराता हुआ देखा तो बोली, "काकी! देखो न, ये दुष्ट अभी से मुझे कितना परेशान कर रहा है। कब से दौड़-भाग मचा रखी है। मैं थक रही हूं।" थोड़ा रुककर पुनः बोली, "मुझे उठने में मदद तो करो, अपना हाथ दो। मैं इसकी शिकायत इसके पिता से करती हूं अभी। जरा देखूं तो कि ये उनके सामने भी ऐसे ही उछलता है या नहीं। तनिक किसी से पूछ कर तो आओ कि आर्यपुत्र इस समय हैं कहाँ?"
कुछ ही पलों में उसे बताया गया कि दुर्योधन उसके भाई काशी-युवराज सुशर्मा के साथ अतिथिशाला में कुछ मंत्रणा कर रहे थे। भानुमति से उसका आह्लाद रोका नहीं जा रहा था। उसे अपने पति से मिलना ही था। वह अतितिशाला की ओर बढ़ चली। द्वारपाल अभी अपना कर्तव्य निर्धारित भी नहीं कर पाया था कि उसे रोके या जाने दे, भानुमति द्वार पार कर गई थी। रोकता भी कैसे! जो प्रवेश की इच्छुक थी वो अब पटरानी का सामर्थ्य रखती थी और जो अंदर थे वे उसके पति और भाई ही तो थे।
भानुमति मुख्य कक्ष में प्रवेश करने ही वाली थी कि उसे अपने भाई सुशर्मा की आवाज सुनाई दी।
"महाराज दुर्योधन! अब जबकि आप वास्तविक राजा बन ही चुके हैं तो काशी राज्य की ओर से मैं आपको हार्दिक बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि दोनों राज्यों के सम्बंध और अधिक प्रगाढ़ होंगे।"
दुर्योधन का प्रसन्न स्वर सुनाई दिया, "अवश्य मित्र, अवश्य। और यह औपचारिकताएं छोड़ो। तुम मात्र मित्र ही नहीं, सम्बंधी भी हो।"
"जी महाराज। एक निवेदन था। मेरी तथा पिताजी की भी इच्छा थी कि जलंधरा का स्वयंवर अगले वर्ष आयोजित हो। मेरी आज की विनती को ही औपचारिक निमंत्रण समझें और काशी को पुनः गौरवान्वित होने का अवसर प्रदान करें।"
"क्या कुमार चाहते हैं कि मैं जलंधरा से विवाह करूँ?"
"यह काशी और जलंधरा का सौभाग्य होगा महाराज।"
"यदि तुम्हारी और काशी नरेश की यही इच्छा है तो मुझे प्रसन्नता होगी। यद्यपि जलंधरा अग्नि के समान है।"
"आशा है कि आप जैसा प्रेमालु पति उसे सभ्य बना पायेगा।"
इधर भानुमति पत्थर बनी इन बातों को सुनती रही। जाने कब और कैसे वह वापस मुड़ी और अपने कक्ष में अपनी शैय्या पर गिर पड़ी। विचारों का झंझावात सा चल रहा था उसके मस्तिष्क में। कोई भी एक सिरा उसकी पकड़ाई में नहीं आ रहा था।
... उसका पति क्या उससे प्रेम करता है? वो उस पर कभी-कभी हाथ उठा देना चाहता है, पर वह तो उद्विग्न मानसिकता में ही, अधिकतर तो वह उसे प्रेम ही करता है!... वह द्रौपदी से विवाह करना चाहता था। क्यों? वह वैवाहिक सम्बधों द्वारा शक्तिशाली बनना चाहता था। कुछ गलत तो नहीं था। ...उसने दूसरे विवाह की अनुमति मांगी, उसने अनुमति दी। उसने सहायता मांगी, कृष्ण के माध्यम से उसने सहायता दी। ... उसने सौत स्वीकार करने का मन बना लिया था कि यह सौत उसके पति को प्रतिष्ठित करेगी। ईश्वर की ही इच्छा नहीं थी जो द्रौपदी से सम्बंध नहीं हो पाया। परन्तु जलंधरा? जलंधरा से विवाह? क्यों? जलंधरा से विवाह करके उसे जो भी राजनैतिक लाभ प्राप्त हो सकते हैं वे तो पहले से ही उसे प्राप्त हैं। जैसे जलंधरा काशी-राजकन्या है, भानुमति भी है। क्या भानुमति के प्रेम की मात्रा कम है जो उसकी पूर्ति के लिए दूसरी स्त्री की आवश्यकता पड़ रही है? और दूसरी स्त्री भी कौन? उसकी अपनी सगी, छोटी बहन! उसकी बालसखी! उसकी जलंधरा! अपनी इतनी प्यारी बहन को अपनी सपत्नी के रूप में कैसे स्वीकार कर पायेगी भानु? क्या दुर्योधम प्रेम नहीं करता उससे? क्या उसे प्रेम नहीं दिखता उसका? उसे इतनी पत्नियां क्यों चाहिए? उसका पति क्या वासना से संचालित होता है? और यह उसका भाई कैसा है? क्या उसे नहीं पता कि जलंधरा भीम से प्रेम करती है? जानते हुए भी उसका अपना भाई जलंधरा के लिए भीम के स्थान पर एक ऐसे व्यक्ति को चुन रहा है जो उसकी दूसरी बहन का पति है?
जाने कब भानुमति मूर्छित हो गई। कुछ समय पश्चात सेविकाओं ने देखा कि शैय्या गीली है तो उन्होंने वैद्यों को सूचित किया। प्रसूति कार्य में दक्ष अनुभवी स्त्रियों को बुलाया गया। सूचना मिलते ही जलंधरा भागी-भागी आई और कक्ष में प्रवेश करना चाहा पर उसके मुख पर द्वार बंद कर दिया गया। कदाचित अंदर शल्य क्रिया की तैयारी हो रही थी। जलंधरा की समझ में कुछ नहीं आया तो वह वापस भागी। मार्ग में उसे दुर्योधन और सुशर्मा आते हुए दिखे। महारानी गांधारी और कुंती भी आ रही थी पर उनकी ओर ध्यान दिये बिना जलंधरा दौड़ती हुई कृष्ण के कक्ष में पहुंच गई। वहाँ नकुल और सहदेव के साथ भीम भी थे जिन्होंने जलंधरा को देखते ही कुछ चुहल करनी चाही पर उसे अस्त-व्यस्त देखकर रुक गए। जलंधरा बस इतना बोल पाई, "माधव! भानुमति! चलिए।" और वापस दौड़ गई।
कृष्ण उसी पल उठ खड़े हुए और जलंधरा के साथ हो लिए। जब वे भानुमति के कक्ष में पहुंचे तो वहां कक्ष के बाहर सभी को प्रतीक्षारत पाया। कुछ घड़ी पश्चात द्वार खुला और राजवैद्य सिर झुकाए सामने आए। उनकी मुखमुद्रा ही ऐसी थी कि सबने उनसे प्रश्न करना अनावश्यक समझा और एक-एक कर कक्ष में प्रवेश कर गए। कृष्ण चूंकि पारिवारिक सदस्य नहीं थे तो वे सबसे पीछे ही रहे। कक्ष में शैय्या पर अर्धमूर्छित अवस्था में भानुमति लेटी हुई थी। एक सेविका उसके माथे पर ठंडी पट्टी रख रही थी और कक्ष के एक कोने में सेविका राधा चादर में लिपटे एक मांसपिंड को अपनी छाती से चिपकाए खड़ी थी। शैय्या को घेरते हुए कोयले से एक वृत्त बनाया गया था। पारंपरिक, धार्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस वृत्त को पार करने की मनाही थी, इसी कारण न तो कुल-वृद्धाएं और न ही भानुमति का पति उस वृत्त को पार कर भानु के पास जा रहे थे। इस वृत्त को लांघने पर बड़े ही कठिन प्रायश्चित का प्रावधान था।
तभी भानु की मूर्छा कुछ टूटी और उसने अस्पष्ट स्वर में कहा, "कान्हा!"। पुकार सुनते ही कृष्ण सभी को हटाते हुए भानुमति की शैय्या पर पहुंच गए। उन्हें उस वृत्त को लांघते समय कोई हिचक नहीं हुई, सेविका ने उन्हें रोकने के लिए हाथ बढ़ाया था जिसे कृष्ण के नेत्रों ने बरज दिया। उन्होंने भानुमति के माथे पर अपनी हथेली रखी और उसे सहलाते हुए बोले, "हां भानु! देख, मैं आ गया।"
रक्त सम्बंधी अथवा पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष का किसी महिला को स्पर्श करना घोर अनैतिक कर्म माना जाता था पर कृष्ण का व्यवहार इतना अपनापन लिए था कि किसी को स्वप्न में भी किसी अनैतिकता का भान नहीं हुआ। भानुमति ने कृष्ण को देखा और उसका मुख खिल गया। थोड़ा प्रयास कर बोली, "तुम आ गए कान्हा! देखो, मैं मां बन गई। मेरा बेटा तुम्हें क्या कह कर पुकारेगा कान्हा?"
"मां के भाई को जो कहते हैं, वही कहेगा भानु।"
"तुम कितने अच्छे हो भैया। तुम मेरे पुत्र का ध्यान रखना हां, और आर्यपुत्र का भी। बोलो रखोगे न?"
"हां भानु, मैं सबके शुभ के लिए सबका ध्यान रखूंगा बहन।"
वैद्य ने कृष्ण से कहा कि वे रोगिणी को विश्राम करने दें, पर कृष्ण ने उन्हें धीरे से कहा कि अब वैद्य या विश्राम भानुमति का कोई भला नहीं कर सकते। वैद्य ने उन्हें प्रणाम किया और कक्ष से चले गए। भानु पुनः बोली, "कान्हा! आर्यपुत्र कहाँ हैं?"
दुर्योधन दुखी स्वर में बोला, "मैं यहीं हूँ देवी।"
"आर्यपुत्र! देखिए मैंने अपने पितृकुल और श्वसुर कुल का ऋण उतार दिया। मैंने आपको आपका उत्तराधिकारी दे दिया नाथ। इसे अपने जैसा वीर बनाइयेगा और कृष्ण जैसा प्रेमी। ... कान्हा! तुम कितने अच्छे हो, तुमने मेरे कहने पर प्रत्येक अवसर पर आर्यपुत्र की सहायता की। तुम मेरे न रहने पर भी इसी भांति इनका साथ दोगे न?"
धीरे-धीरे भानुमति के स्वर धीमे होते जा रहे थे। कृष्ण उसका माथा सहला रहे थे। दुर्योधन आज वास्तव में दुखी था। उसकी पहली पत्नी भी यूँ ही प्रसव के अवसर पर ईश्वर को प्यारी हो गई थी, पुनः वही घटित हो रहा था। कितना अभागा था दुर्योधन जो उसे भानुमति के रूप में इतनी प्रेमालु पत्नी मिली थी और उसने सदैव ही उसे एक अल्पबुद्धि बालिका ही समझा। आज यह भी एक मृत शिशु को जन्म देकर स्वयं भी गौलोक प्रस्थान हेतु प्रस्तुत थी।
भानुमति ने पुनः अपनी शक्ति संचित कर कहा, "कान्हा! कान्हा!!"
"हाँ बहन!"
"वो देखो, वो कोने में कौन खड़ा है? क्या वो भैंसे पर बैठा है? उसके हाथ में रस्सी क्यों है? वो मुझे भयभीत कर रहा है, उसे यहां से जाने को कहो माधव।"
"उनसे डरो मत भानु। वे तो तुम्हारी आत्मा को उसकी अगली यात्रा पर ले जाने वाले मात्र सहायक ही हैं।"
"क्या मैं मर रही हूं केशव?"
"नहीं बहन। तुम मर नहीं रही हो, मुक्त हो रही हो। तुम फिर से आओगी बहन। किसी और युग में, किसी और शरीर में तुम पुनः आओगी बहन।"
"यदि ऐसा ही है कान्हा, तो मुझे एक वरदान दोगे भाई?"
"मैं तेरा ही तो हूँ भानु, मेरी सामर्थ्य में जो भी सम्भव है वह सब तेरा है। बता तुझे क्या चाहिए?"
"मुझे वरदान दो भाई कि प्रत्येक जन्म में तुम मेरे भाई बनोगे। मुझे यह आशीर्वाद दो मेरे प्रभु!"
कृष्ण उसके कानों पर झुके और उच्च स्वर में बोले, "प्रत्येक जन्म में यह कृष्ण तेरा भाई बनेगा भानु।"
भानुमति की नेत्रों में एक चमक सी दिखी जो क्रमशः क्षीण होती गई।
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समाप्त
अजीत
21 जनवरी 18
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कथा-स्रोत: -
1) मूल महाभारत (जय कथा)
2) महासमर: नरेंद्र कोहली
3) कृष्णावतार: के एम मुंशी
4) युगन्धर, मृत्यंजय: शिवाजी सावंत