Saturday, 5 November 2016

व्हाट इज़ इन दि नेम....


जो जगह जितनी ज्यादा भीड़ भाड़ वाली होती है, असामान्यता की पहचान उतनी ही कठिन होती जाती है। किसी भी शहर की तरह के एक शहर की कचहरी में, भागते काले कोटों के पीछे दौड़ते कदमों और तीन तीन बित्ते की दूरी पर जमी चौकियों के ऊपर रखी टाइपराइटरों की खटपट के बीच कहां दिखता है किसी का चुपचाप किसी कोने में बैठे रहना। वो तो गनीमत कि कचहरी के एक सार्वजनिक कुक्कुर की अपनी भाषा में किए गए प्रचण्ड विरोध के बावजूद, उस निद्रामय व्यक्ति के सर पर 'जूं तक ना रेंगने' के बाद पान वाले चौरसिया का ध्यान उसपर पड़ा।

धीरे धीरे लोग जमा होने लगे, एक होशियार आगे बढ़ा तो मालूम चला कि व्यक्ति दिवंगत हो चुका है। मरकर भी उसने एक भला काम किया, लोगों के सूखे जीवन में कुछ पलों का मनोरंजन दे गया। कचहरी क्षेत्र में ही वर्तमान थाने से पुलिस भी आ गई, पर इसी बीच किसी ने मृत व्यक्ति के धारीदार पैंट से ये अंदाजा लगा लिया कि मरा आदमी हो ना हो कोई वकील ही है। इतना मालूम चलना था कि आधी कचहरी जमा हो गई, नारे गूंजने लगे, हमारी मांगे पूरी करो, वकील एकता जिंदाबाद, प्रशासन मुर्दाबाद, मुआवजे की मांग। फिर आये कुछ समझदार वकील, पूछताछ खोजबीन की गई तो स्पष्ट हुआ कि वो कोई वकील नहीं था।

पुलिस अपना काम करने ही वाली थी कि किसी की नजर उसकी लम्बी दाढ़ी पर चली गई और एक नया बवाल हो गया। नारा ए तकबीर से गूंज उठी कचहरी। आम आदमियों के बीच का एक आम मुसलमान यूँ मर गया और सरकार देखती रही। यही तो जुल्म है। छाती कूटने के लिए नेता लोग पहुँचने ही वाले थे कि किसी समझदार ने आगे बढ़के चेक कर ही लिया। अब ये तो तय था कि जो भी हो, मुसलमान तो नहीं ही होगा। नेता लोग हाथ मलते आधे रास्ते से वापस।

पुलिस भी परेशान, दोपहर से शाम होने को आई जब वे उसके पास तक पहुंचें। एक फिट की दूरी पर एक छोटा सा थैलीनुमा पर्स मिला जिसमें कुछ चनों के साथ एक दो कागज भी थे, उन कागजों पर एक नाम भी था जो गलती से हवलदार के मुँह से निकल गया। लपकने को तैयार बैठे लोगों ने फलाने 'राम' लपक लिया और बवाल की एक नई जमीन तैयार हो गई। पांडवों में से बलिष्ठतम की जय जय होने लगी, मनुवादी सरकार को गालियां पड़ने लगी, आस पास की दुकानें मय गाड़ियों के टूटने लगी। न्यूज़ चैनलों में जबरदस्त उछाल देखा गया, रात के प्राइम टाइम का बढ़िया मसाला जो मिल गया था।

फिर किसी पुलिस वाले को उसके बालों से भरे धूलधुसरित बाएं हाथ पर कुछ गोदना सा दिखा जो उसी का नाम हो सकता था। ना जाने क्या नाम था, पर जो भी था, अचानक ही भीड़ खत्म हो गई, रात को प्राइम टाइम में फिर से 'अरहर दाल' चल रही थी।
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तीन दिन बाद गंगा में एक लाश बहती दिखी थी, क्या पता किसकी हो, लावारिस लाशों के क्रियाकर्म के लिए 100 रूपये जो मिलते हैं।


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अजीत
4 नवम्बर 16