Monday, 31 October 2016

पति पत्नी और ...


ठाकुर:
का बे शुक्ला, मउगा हो बे तुम एकदम, मर्द बनो मर्द, ये साले कोई मर्दों के काम हैं? जब देखो तब औरतपना फैलाये रहते हो। सुना नहीं है क्या, जिसका काम उसी को साझें, का जरूरत है तुम्हें सब्जी-फब्जी काटने की, बेटा घर में औरत ले आये हो तो का पूजा करने लिए लाये हो, उसे ही करने काहे नहीं देते ये सब काम।
अबे शास्त्रो में लिखा है, सकल ताड़ना के अधिकारी, और तुम ससुर लल्लो चप्पो में लगे रहते हो। इतना प्यार दिखाओगे न, त ये जो औरत जात है न, सर चढ़ जाती है। लिख लो, बताये दे रहे हैं, नारी नारी सब करे, नारी नरक का द्वार।
सुना तुम खाना बनाते हो, बर्तन-कपड़े भी धो देते हो, इस्तरी भी कर लेते हो, ससुर तो तुम स्त्री मने पत्नी लाये काहे, कुँवारे बने रहते। तुम जैसे बिना रीढ़ के आदमियों की वजह से ही इन औरतों के दिमाग खराब होते हैं। कभी सरदर्द का बहाना तो कभी कमरदर्द का। बेटा इनकी सुनेगा ना तो नौकर बन के रह जाएगा, बताये दे रहा हूँ...
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शुक्लाइन:
ये जब सुबह सुबह उठकर मेरे लिए चाय बना देते हैं न, चाय नहीं बनाते, मेरा दिन बना देते हैं। सच, सुबह सामने मुस्कुराते चेहरे के साथ जब ये चाय के लिए धीरे से आवाज देते हैं न, तो मन में जैसे सितार बजने लगता है। उसके बाद तो दिन भर की भाग दौड़...
सुनिये शुक्ला जी, ये जो ऑफिस से घर आते ही किचेन में घुस जाते हो ना, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। दिन भर के थके हारे, जा कर आराम करो, टीवी देखो, ये क्या कि आये और धड़धड़ाते हुए किचेन में। अभी परसो ही हाथ काट लिया था तुमने, आलू तो काट नहीं पाते, आये बड़े संजीव कपूर।
सुनो, इतने दिन हो गए इस शहर में आये, कभी किसी के यहां चाय पर भी नहीं गए हम। परसों जो ठाकुर साहब आये थे, कितना कह गए थे आने को, चलो ना उनके यहां ही चला जाए। ठीक है.... 
ठीक... 
बस 10 मिनट में होती हूँ तैयार।
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ठकुराइन:
मेहमान? आज? देखों, आज मेरा मन नहीं है किचेन में सड़ने का, मना कर दो उन्हें। नहीं कर सकते? सुनो ये ज्यादा बकैती मेरे सामने नहीं चलेगी हाँ, बताये दे रही हूँ। ये वही शुक्ला है ना जो तुम्हें उलटे सीधे पाठ पढ़ाता रहता है? खूब जानती हूँ इन मर्दों को, खुद तो अपने घर में भीगी बिल्ली बने रहते हैं और दूसरों के आगे शेर बनते हैं। दफा करो ऐसे आदमियों को, चलो बन्द करो ये टीवी और सुनों, आटा गूंथ दो फिर मशीन में कपड़े डाल देना। हाय मेरी कमर...
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ठाकुर (फोन पर): हाँ शुक्ला, सुन, निकल गए क्या तुम लोग, यार एक्चुअली एक इमरजेंसी आ गई है आज तो...
शुक्ला: कोई बात नहीं यार, हम फिर कभी आ जाएंगे, तू कपड़े धो ले...
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अजीत
31 अक्टूबर 16

Saturday, 1 October 2016

बुरा जो देखन मैं चला...




मासूमियत तो हाईस्कूल में पूरी तरह खत्म हो चुकी थी, इंटर में 'दुनिया ठेंगे पे' वाला मन बन चुका था और स्नातक में प्रवेश लेने तक असहिष्णुता घर कर चुकी थी। वैसी वाली नहीं जिसका हल्ला पिछले कुछ दिनों तक देखा सबने। ये सबके लिए था, खासकर अपने परिवार के लिए, उम्र का तकाजा था शायद, माँ-पा साथ थे नहीं, भाई भाभी के साथ रहते थे। हम चार भाइयों में आपस में भले ही कितना प्रेम हो पर ऊपरी दिखावटी लगाव जैसा कुछ नहीं है, पानी जब तक नाक से ऊपर ना हो जाए, बड़े भाई कुछ बोलते नहीं थे, मैं भी छोटे से कुछ नहीं कहता, जैसे मुझे पता है वैसे ही बड़े भैया को भी पता था कि जितनी आवारागर्दी कर ले, कोई अख़लाक़ी, नैतिक गलत काम नहीं करेगा। तो हम कायदे से आवारा टाइप बन चुके थे। सुबह 10 से 5 कॉलेज में C, C++ प्रोग्रामिंग करने के बाद जम के लखैरापन मचाते। लहुराबीर से गोदौलिया तक परेशान था हमसे। रातें घर से ज्यादा होस्टल या कमल या तिवारी के घर पर बीतती।

लैंग्वेज के अलावा सभी विषयों में निल बटे सन्नाटा थे, अगले दिन से सेमेस्टर एग्जाम, सोचा कि जब सारी आवारागर्दी साथ की तो पढ़ाई भी साथ ही करते हैं। होस्टल में एक एक रजाई में चार चार बालक जुट गए किताब लेकर, तीन बजते बजते सारा कोर्स निपट गया। चाय के तो हम वैसे ही शौक़ीन थे, तलब लग रही थी, नजदीक ही बेनियाबाग पर चौबीसों घण्टे खुलने वाली दुकान भी थी। बाकी लड़के किताब छोड़ने को तैयार नहीं और तलब के मारे हमारा गला सूखा जाए। बहाना खोजने के लिये दिमाग दौड़ाया तो आँखें सैय्यद पर टिक गई। रमजान का महीना और सहरी का टाइम, इमोशनल ब्लैकमेल किया सबको, और बारह लड़के चल दिए सहरी करवाने का पुण्य लेने। एक बात पहले बता दें कि उस समय हम घनघोर वाले नास्तिक हुआ करते थे। क्या काबा क्या शिवाला।

बनारस वाले दोस्त जानते हैं कि बेनिया मुस्लिम बहुल इलाका है। चाय की दुकान पर भीड़ लगी थी, बनारसीपन फैला हुआ था। गालीगलौज पान बीड़ी गाली गुफ़्ता का बाजार गर्म। हम लोग अपनी अपनी चाय सुड़कने के बाद कुल्हड़ सड़क पर बिना तोड़े फेंकने की बाजी लगा रहे थे कि देखा एक मुल्ला जी अपने पान से गुलगुलाये मुँह को रोजे के मद्देनजर खूब जम कर साफ़ कर रहे थे, साफ़ करने का माध्यम मुँह में पानी भर पिचकारी छोड़ना ही था। पहली पिचकारी हमारे पैरों के पास आकर गिरी, हमारे बिदक जाने से उन्होंने अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया और फिर से मशगूल हो गए।

दो तीन पिचकारी के बाद हमारा ध्यान गया कि उनकी धार जहां गिर रही है वो एक छोटी सी गदाधारी बन्दर की मूर्ती है। हमारे यहां ये बड़ा कॉमन सा है, सड़क के किनारे, पेड़ों के नीचे छोटा सा मंदिर बना दो, कुछ दिन पूजा करो, फिर कोई ज्यादा बड़ा, ज्यादा भव्य मंदिर दिखे तो पुराने वाले को भूल जाओ। ये भी उन्ही भक्तहीन मन्दिरों में से एक, हनुमान मंदिर था।

धीरे धीरे मेरे साथ के सभी लड़कों की नजर पड़ी उस दृश्य पर, पर ताज्जुब कि कोई एक शब्द नहीं बोला। सैय्यद को क्यों फर्क पड़े, मैं नास्तिक, पर बाकी दस तो हिन्दू थे। आज तो खैर मैं पूरा भगत हूं, पर उस समय, उस पल पता नहीं क्यों, नास्तिक होने के बावजूद आँखें लाल होने लगी थी, तिवारी ने रोकने की पूरी कोशिश की थी और जैसे तैसे मुझे वहां से हटा ले गया।

ऐसा नहीं था कि अंदर धर्म के अंकुर फूट रहे हों पर शायद संस्कार ऐसे मिले थे कि अपना अपना मन, अपना अपना मत, और अगर तुम नहीं मानते, या अगर तुम्हे अपने मानने पर इतनी श्रद्धा है तो दूसरों की भी इज्जत करो। जब कुछ दिनों तक बार बार, लाख टालने पर भी, वो मूर्ति आँखों के सामने आ जाती तो एक कायर होने का, अपराधी होने का, खुद की ही नजरों में गिर जाने का अहसास भर जाता अंदर। जब रहा नहीं गया तो एक रात उसी समय सहरी के टाइम पर पहुंच गया वहां। हालाँकि बेवकूफी ही थी, दिन में भी जा सकता था पर गर्म खून। किसी दोस्त को नहीं बताया, बताता तो आने ही नहीं देता कोई। चाय वाले के यहां से एक बाल्टी पानी लिया और रगड़ रगड़ कर धूल मिट्टी पीक वगैरह साफ़ किया। आसपास रोजेदार खड़े थे और हँस रहे थे, गालियाँ भी पड़ रही थी, ताज्जुब कि मार क्यों नहीं पड़ी, आज सोचते हुए भी डर लग रहा है पर उस समय ना जाने कैसा तो जुनून सा था। अगले बारह दिन लगातार, दिनभर में किसी न किसी समय एक बार आकर उस मंदिर की सफाई कर जाता, पहले कभी पूजा नहीं की थी इसलिए पूजापाठ का दिखावा नहीं कर पाया, हालाँकि चाहता यही था।

शुरू के तीन चार दिन नये सिरे से कूड़ा मिलता, पान की ताज़ी पीक पड़ी होती पर धीरे धीरे गन्दगी कम होने लगी थी। एक दिन दोपहर में वहीं बैठा चाय पी रहा था, कि किसी ने चाय का कुल्हड़ मंदिर की तरफ उछाला, और मुझे आश्चर्य में डालते हुए पांच छः आवाजें एक साथ निकली, 'अबे आन्हर हउ्व्वे का बे' 'देख के बे' 'दिखता नहीं है क्या' 'देख के रजा' 'बा रजा' 'मंदिर है उधर'।

कुछ दिनों बाद रात को ही जब मंदिर की सफाई निपटा कर चाय सुड़क रहा था तो एक मुल्ला जी बोले, बेटा, तुम अपनी पढ़ाई लिखाई पर ध्यान दो, अब कुछ नहीं होगा तुम्हारे बजरंगी को। चायवाले ने भी कहा कि भइय्या अब आप परेशान ना हों, किसी को उधर गंदगी नहीं करने देंगे।
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कभी मौका मिले तो देखिएगा, बेनियाबाग की फेमस ऑल नाइट खुलने वाली चाय की दुकान के साथ में लगा छोटा सा साफ़ सुथरा हनुमान मंदिर।


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अजीत
2 अक्टूबर 16